Kshitij-II

काव्य खंड हृदय सिंध्ु मति सीप समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना। जो बरषइ बर बारि विचारू। होंहि कवित मुक्तामनि चारू।। - तुलसीदास 1857 जंग - ए - आशादी के शहीदों को सलाम सन् 1857 के बागी सैनिकों का कौमी गीत हम हैं इसके मालिक ¯हदुस्तान हमारा पाक वतन है कौम का जन्नत से भी प्यारा ये है हमारी मिल्िकयत ¯हदुस्तान हमारा इसकी रूहानियत से रोशन है जग सारा कितनी कदीम कितना नइर्म, सब दुनिया से न्यारा करती है जरखेश जिसे गंगो - जमुन की धरा उफपर बपफीर्ला़पवर्त पहरेदार हमारा नीचे साहिल पर बजता, सागर का नक्कारा इसकी खानें उगल रहीं सोना हीरा पारा इसकी शान - शौकत का दुनिया में जयकारा आया पिफरंगी दूर से ऐसा मंतर मारा लूटा दोनों हाथ से प्यारा वतन हमारा आज शहीदों ने है तुमको अहले वतन ललकारा तोड़ो गुलामी की शंजीरें बरसाओ अंगारा ¯हदू मुसलमां सिख हमारा भाइर् भाइर् प्यारा यह है आजादी का झंडा इसे सलाम हमारा।। सू रदास का जन्म सन् 1478 में माना जाता है। एक मान्यता के अनुसार उनका जन्म मथुरा के निकट रफनकता या रेणुका क्षेत्रा में हुआ जबकि दूसरी मान्यता के अनुसार उनका जन्म - स्थान दिल्ली के पास सीही माना जाता है। महाप्रभु वल्लभाचायर् के श्िाष्य सूरदास अष्टछाप के कवियों में सवार्िाक प्रसि( हैं। वे मथुरा और वृंदावन के बीच गउफघाट पर रहते थे और श्रीनाथ जी के मंदिर में भजन - कीतर्न करते थे। सन् 1583 में पारसौली में उनका निधन हुआ। उनके तीन ग्रंथों सूरसागर, साहित्य लहरी और सूर सारावली में सूरसागर ही सवार्िाक लोकपि्रय हुआ। खेती और पशुपालन वाले भारतीय समाज का दैनिक अंतरंग चित्राऔर मनुष्य की स्वाभाविक वृिायों का चित्राण सूर की कवितामें मिलता है। सूर ‘वात्सल्य’ और ‘ शृंगार’ के श्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। कृष्ण और गोपियों का प्रेम सहज मानवीय प्रेम की प्रतिष्ठा करता है। सूर ने मानव प्रेम की गौरवगाथा के माध्यम से सामान्य मनुष्यों को हीनता बोध से मुक्त किया, उनमें जीने की ललक पैदा की। उनकी कविता में ब्रजभाषा का निखरा हुआ रूप है। वह चली आ रही लोकगीतों की परंपरा की ही श्रेष्ठ कड़ी है। सूरदास क्ष्िातिज यहाँ सूरसागर के भ्रमरगीत से चार पद लिए गए हैं। कृष्ण ने मथुरा जाने के बाद स्वयं न लौटकर उ(व के जरिए गोपियों के पास संदेश भेजा था। उ(व ने निगर्ुण ब्रह्म एवं योग का उपदेश देकर गोपियों की विरह वेदना को शांत करने का प्रयास किया। गोपियाँ ज्ञान मागर् की बजाय प्रेम मागर् को पसंद करती थीं। इस कारण उन्हें उ(व का शुष्क संदेश पसंद नहीं आया। तभी वहाँ एक भौंरा आ पहुँचा। यहीं से भ्रमरगीत का प्रारंभ होता है। गोपियों ने भ्रमर के बहाने उ(व पर व्यंग्य बाण छोड़े। पहले पद में गोपियों की यह श्िाकायत वािाब लगती है कि यदि उ(व कभी स्नेह के धागे से बँधे होते तो वे विरह की वेदना को अनुभूत अवश्य कर पाते। दूसरे पद में गोपियों की यह स्वीकारोक्ित कि उनके मन की अभ्िालाषाएँ मन में ही रह गईं,कृष्ण के प्रति उनके प्रेम की गहराइर् को अभ्िाव्यक्त करती है। तीसरे पद में वे उ(व की योग साधना को कड़वी ककड़ी जैसा बताकर अपने एकनिष्ठ प्रेम में दृढ़ विश्वास प्रकट करती हैं। चैथे पद में उ(व को ताना मारती हैं कि वृफष्ण ने अब राजनीति पढ़ ली है। अंत में गोपियों द्वारा उ(व को राजधमर् ;प्रजा का हितद्ध याद दिलाया जाना सूरदास की लोकधमिर्ता को दशार्ता है। ;1द्ध ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी। अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी। पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी। ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी। प्रीति - नदी मैं पाउँ न बोरड्ढौ, दृष्िट न रूप परागी। ‘सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी।। क्ष्िातिज ;2द्ध मन की मन ही माँझ रही। कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, नाहीं परत कही। अविा अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही। अब इन जोग सँदेसनि सुनि - सुनि, बिरहिनि बिरह दही। चाहति हुतीं गुहारि जित¯ह तैं, उत तैं धार बही। ‘सूरदास’ अब धीर धर¯ह क्यौं, मरजादा न लही।। ;3द्ध हमारैं हरि हारिल की लकरी। मन क्रम बचन नंद - नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी। जागत सोवत स्वप्न दिवस - निसि, कान्ह - कान्ह जक री। सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुइर् ककरी। सु तौ ब्यािा हमकौं लै आए, देखी सुनी न करी। यह तौ ‘सूर’ तिन¯ह लै सौंपौ, जिनके मन चकरी।। ;4द्ध हरि हैं राजनीति पढि़ आए। समुझी बात कहत मधुकर के, समाचार सब पाए। इक अति चतुर हुते पहिलैं ही, अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए। बढ़ी बुि जानी जो उनकी, जोग - सँदेस पठाए। ऊधौ भले लोग आगे के, पर हित डोलत धाए। अब अपनै मन पेफर पाइहैं, चलत जु हुते चुराए। ते क्यौं अनीति करैं आपुन, जे और अनीति छुड़ाए। राज धरम तौ यहै ‘सूर’, जो प्रजा न जा¯ह सताए।। 1.गोपियों द्वारा उ(व को भाग्यवान कहने में क्या व्यंग्य निहित है? 2.उ(व के व्यवहार की तुलना किस - किस से की गइर् है? 3.गोपियों ने किन - किन उदाहरणों के माध्यम से उ(व को उलाहने दिए हैं? 4.उ(व द्वारा दिए गए योग के संदेश ने गोपियों की विरहाग्िन में घी का काम वैफसे किया? 5.‘मरजादा न लही’ के माध्यम से कौन - सी मयार्दा न रहने की बात की जा रही है? 6.वृफष्ण के प्रति अपने अनन्य प्रेम को गोपियों ने किस प्रकार अभ्िाव्यक्त किया है? 7.गोपियों ने उ(व से योग की श्िाक्षा वैफसे लोगों को देने की बात कही है? 8.प्रस्तुत पदों के आधार पर गोपियों का योग - साध्ना के प्रति दृष्िटकोण स्पष्ट करें। 9.गोपियों के अनुसार राजा का धमर् क्या होना चाहिए? 7 10.गोपियों को वृफष्ण में ऐसे कौन - से परिवतर्न दिखाइर् दिए जिनके कारण वे अपना मन वापस पा लेने की बातकहती हैं? 11.गोपियों ने अपने वाव्फचातुयर् के आधार पर ज्ञानी उ(व को परास्त कर दिया, उनके वाव्फचातुयर्र् की विशेषताएँलिख्िाए? 12.संकलित पदों को ध्यान में रखते हुए सूर के भ्रमरगीत की मुख्य विशेषताएँ बताइए? रचना और अभ्िाव्यक्ित 13.गोपियों ने उ(व के सामने तरह - तरह के तवर्फ दिए हैं, आप अपनी कल्पना से और तवर्फ दीजिए। 14.उ(व ज्ञानी थे, नीति की बातें जानते थेऋ गोपियों के पास ऐसी कौन - सी शक्ित थी जो उनके वाव्फचातुयर्में मुखरित हो उठी? 15.गोपियों ने यह क्यों कहा कि हरि अब राजनीति पढ़ आए हैं? क्या आपको गोपियों के इस कथन का विस्तार समकालीन राजनीति में नशर आता है, स्पष्ट कीजिए। पाठेतर सवि्रफयता ऽ प्रस्तुत पदों की सबसे बड़ी विशेषता है गोपियों की ‘वाग्िवदग्धता’। आपने ऐसे और चरित्रों के बारे में पढ़ा या सुना होगा जिन्होंने अपने वाव्फचातुयर् के आधार पर अपनी एक विश्िाष्ट पहचान बनाइर्ऋ जैसेμबीरबल, तेनालीराम, गोपालभाँड, मुल्ला नसीरुद्दीन आदि। अपने किसी मनपसंद चरित्रा के वुफछ किस्से संकलित कर एक अलबम तैयार करें। ऽ सूर रचित अपने पि्रय पदों को लय व ताल के साथ गाएँ। सूरदास क्ष्िातिज शब्द - संपदा बड़भागी अपरस तगा पुरइनि पात दागी माहँ प्रीति - नदी पाउँबोरड्ढौ परागी गुर चाँटी ज्यौं पागी अधार आवन बिथा बिरहिनि बिरह दही हुतीं गुहारि जित¯ह तैं उत धर धीर मरजादा न लही हारिल नंद - नंदन उर...पकरी जक री सु ब्यािा करी - भाग्यवान - अलिप्त, नीरस, अछूता - - धगा, बंधनकमल का पत्ता - दाग, ध्ब्बा - में - प्रेम की नदी - पैर - डुबोया - मुग्ध् होना - जिस प्रकार चींटी गुड़ में लिपटती है, उसी प्रकार हम भी वृफष्ण के प्रेम में अनुरक्त हैं - आधार - आगमन - व्यथा - वियोग में जीने वाली - विरह की आग में जल रही हैं - थीं - रक्षा के लिए पुकारना - जहाँ से - उधर, वहाँ - योग की प्रबल धरा - धैयर् - मयार्दा, प्रतिष्ठा - नहीं रही, नहीं रखी - हारिल एक पक्षी है जो अपने पैरांे में सदैव एक लकड़ी लिए रहता - है, उसे छोड़ता नहीं हैनंद के नंदन कृष्ण को हमने भी अपने हृदय में बसाकर कसकर पकड़ा हुआ है - रटती रहती हैं - वह - रोग, पीड़ा पहुँचाने वाली वस्तु - भोगा सूरदास तिन¯ह - उनको मन चकरी - जिनका मन स्िथर नहीं रहता मधुकर - भौंरा, उ(व के लिए गोपियों द्वारा प्रयुक्त संबोध्न हुते - थे पठाए - भेजा आगे के - पहले के पर हित - दूसरों के कल्याण के लिए डोलत धाए - घूमते - पिफरते थे पेफर - पिफर से पाइहैं - पा लेंगी अनीति - अन्याय 9

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