Aroh

क ँुवर नारायण 3 जन्म: 19 सितंबर, सन् 1927 ;उत्तर प्रदेशद्ध प्रमुख रचनाएँ: चक्रव्यूह ;1956द्ध, परिवेशःहम तुम, अपने सामने, कोइर् दूसरा नहीं, इन दिनों ;काव्य संग्रहद्धऋ आत्मजयी ;प्रबंध काव्यद्धऋ आकारों के आस - पास ;कहानी संग्रहद्धऋ आज और आज से पहले ;समीक्षाद्धऋ मेरे साक्षात्कार ;सामान्यद्ध प्रमुख पुरस्कार: साहित्य अकादेमी पुरस्कार, वुफमारन आशान पुरस्कार, व्यास सम्मान, प्रेमचंद पुरस्कार, लोहिया सम्मान, कबीर सम्मान, ज्ञानपीठ पुरस्कार न जाने कब से बंद / एक दिन इस तरह खुला घर का दरवाशा / जैसे गदर् से ढँकी / एक पुरानी किताब गदर् से ढँकी हर पुरानी किताब खोलने की बात कहने वाले वुँफवर नारायण ने सन् 1950 के आस - पास काव्य - लेखन की शुरफआत की। उन्होंने कविता के अलावा चिंतनपरक लेख, कहानियाँ और सिनेमा तथा अन्य कलाओं पर समीक्षाएँ भी लिखीं हैं, ¯कतु कविता की विधा को उनके सृजन - कमर् में हमेशा प्राथमिकता प्राप्त रही। नयी कविता के दौर में, जब प्रबंध काव्य का स्थान प्रबंधत्व की दावेदार लंबी कविताएँ लेने लगीं तब वुफँवर नारायण ने आत्मजयी जैसा प्रबंध काव्य रचकर भरपूर प्रतिष्ठा प्राप्त की। आलोचक मानते हैं कि उनकी फ्कविता में व्यथर् का उलझाव, अखबारी सतहीपन और वैचारिक धुंध के बजाय संयम, परिष्कार और साप़् ाफ - सुथरापन है।य् भाषा और विषय की विविधता उनकी कविताओं के विशेष गुण माने जाते हैं। उनमें यथाथर् का खुरदरापन भी मिलता है और उसका सहज सौंदयर् भी। सीधी घोषणाएँ और प़् ौफसले उनकी कविताओं में नहीं मिलते क्योंकि जीवन को मुकम्मल तौर पर समझने वाला एक खुलापन उनके कवि - स्वभाव की मूल विशेषता है। इसीलिए संशय, संभ्रम प्रश्नावुफलता उनकी कविता के बीज शब्द हैं। आरोह वुँफवर जी पूरी तरह नागर संवेदना के कवि हैं। विवरण उनके यहाँ नहीं के बराबर है, पर वैयक्ितक और सामाजिक उफहापोह का तनाव पूरी व्यंजकता में सामने आता है। एक पंक्ित में कहंे तो इनकी तटस्थ वीतराग दृष्िट नोच - खसोट, हिंसा - प्रतिहिंसा से सहमे हुए एक संवेदनशील मन के आलोड़नों के रूप में पढ़ी जा सकती है। आरोह बात सीध्ी थी पर बात सीध्ी थी पर एक बार भाषा के चक्कर में शरा टेढ़ी पँफस गइर्। उसे पाने की कोश्िाश में भाषा को उलटा पलटा तोड़ा मरोड़ा घुमाया पिफराया कि बात या तो बने या पिफर भाषा से बाहर आए - लेकिन इससे भाषा के साथ साथ बात और भी पेचीदा होती चली गइर्। सारी मुश्िकल को ध्ैयर् से समझे बिना मैं पेंच को खोलने के बजाए उसे बेतरह कसता चला जा रहा था क्यों कि इस करतब पर मुझे सापफ सुनाइर् दे रही थी़तमाशबीनों की शाबाशी और वाह वाह। आख्िारकार वही हुआ जिसका मुझे डर था शोर शबरदस्ती से बात की चूड़ी मर गइर् और वह भाषा में बेकार घूमने लगी! हार कर मैंने उसे कील की तरह उसी जगह ठोंक दिया। कविता केबहाने / बात सीधी थी पर उफपर से ठीकठाक पर अंदर से न तो उसमें कसाव था न ताकत! बात ने, जो एक शरारती बच्चे की तरह मुझसे खेल रही थी, मुझे पसीना पोंछते देख कर पूछा - फ्क्या तुमने भाषा को सहूलियत से बरतना कभी नहीं सीखा?य् कविता के साथ 1.इस कविता के बहाने बताएँ कि ‘सब घर एक कर देने के माने’ क्या है? 2.‘उड़ने’ और ‘ख्िालने’ का कविता से क्या संबंध् बनता है? 3.कविता और बच्चे को समानांतर रखने के क्या कारण हो सकते हैं? 4.कविता के संदभर् में ‘बिना मुरझाए महकने के माने’ क्या होते हैं? 5.‘भाषा को सहूलियत’ से बरतने से क्या अभ्िाप्राय है? 6.बात और भाषा परस्पर जुड़े होते हैं, ¯कतु कभी - कभी भाषा के चक्कर में ‘सीध्ी बात भी टेढ़ी हो जाती है’ वैफसे? 7.बात ;कथ्यद्ध के लिए नीचे दी गइर् विशेषताओं का उचित ¯बबों/मुहावरों से मिलान करें। ¯बब/मुहावरा विशेषता ;कद्ध बात की चूड़ी मर जाना कथ्य और भाषा का सही सामंजस्य बनना ;खद्ध बात की पेंच खोलना बात का पकड़ में न आना ;गद्ध बात का शरारती बच्चे की तरह खेलना बात का प्रभावहीन हो जाना ;घद्ध पेंच को कील की तरह ठोंक देना बात में कसावट का न होना ;घद्ध बात का बन जाना बात को सहज और स्पष्ट करना आरोह कविता के आसपास बात से जुड़े कइर् मुहावरे प्रचलित हैं। कुछ मुहावरों का प्रयोग करते हुए लिखें। ’ व्याख्या करें शोर शबरदस्ती से ’ बात की चूड़ी मर गइर् और वह भाषा में बेकार घूमने लगी। चचार् कीजिए आध्ुनिक युग में कविता की संभावनाओं पर चचार् कीजिए? ’ चूड़ी, कील, पेंच आदि मूत्तर् उपमानों के माध्यम से कवि ने कथ्य की अमूत्तर्ता को साकार किया ’ है। भाषा को समृ( एवं संप्रेषणीय बनाने में, बिबों और उपमानों के महत्त्व पर परिसंवाद आयोजित करें। आपसदारी 1.संुदर है सुमन, विहग सुंदर मानव तुम सबसे सुंदरतम। पंत की इस कविता में प्रवृफति की तुलना में मनुष्य को अध्िक सुंदर और समथर् बताया गया है। ‘कविता के बहाने’ कविता में से इस आशय को अभ्िाव्यक्त करने वाले ¯बदुओं की तलाश करें। 2.प्रतापनारायण मिश्र का निबंध् ‘बात’ और नागाजुर्न की कविता ‘बातें’ ढूँढ़ कर पढ़ें।

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