
़ ़़ फिराक गोरखपुरी 9 मूल नाम: रघुपति सहाय ‘प्िाफराक’़ जन्म: 28 अगस्त, सन् 1896, गोरखपुर ;उत्तर प्रदेशद्ध श्िाक्षा: रामवृफष्ण की कहानियों से शुरफआत, बाद की श्िाक्षा अरबी, प़् ाफारसी और अंग्रेशी में। 1917 में डिप्टी कलेक्टर के पद पर चयनित, पर स्वराज आंदोलन के लिए 1918 में पद - त्याग। 1920 में स्वाध्ीनता आंदोलन में हिस्सेदारी के कारण डेढ़ वषर् की जेल। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेशी विभाग में अध्यापक रहे। सम्मान: गुले - नग्मा के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू अवाडर् महत्त्वपूणर् वृफतियाँ: गुले - नग्मा, बश्मे िांदगीः रंगे - शायरी, उदर्ू गशलगोइर् निधन: सन् 1983 अब तुमसे रफखसत होता हूँ आओ सँभालो साशे - गशल / नए तराने छेड़ो / मेरे नग्मों को नींद आती है उदूर् शायरी का बड़ा हिस्सा रफमानियत, रहस्य और शास्त्राीयता से बँध रहा है जिसमें लोकजीवन और प्रवृफति के पक्ष बहुत कम उभर पाए हैं। नशीर अकबराबादी, इल्तापफ हुसैऩहाली जैसे जिन वुफछ शायरों ने इस रिवायत को तोड़ा है, उनमें एक प्रमुख नाम प्िाफराक़गोरखपुरी का भी है। प्ि़ ाफराक ने परंपरागत भावबोध् और शब्द - भंडार का उपयोग करते हुए उसे नयी भाषा और नए विषयों से जोड़ा। उनके यहाँ सामाजिक दुख - ददर् व्यक्ितगत अनुभूति बनकर शायरी में ढला है। इंसान के हाथों इंसान पर जो गुशरती है उसकी तल्ख सच्चाइर् और आने वाले कल के प्रति एक उम्मीद, दोनों को भारतीय संस्वृफति और लोकभाषा के प्रतीकों से जोड़कर प्ि़ ाफराक ने अपनी शायरी का अनूठा महल खड़ा किया। उदूर् शायरी अपने लाक्षण्िाक प्रयोगों और चुस्त मुहावरेदारी के लिए विख्यात है। शेर लिखे नहीं जाते, कहे जाते हैं। यानी एक तरह का संवाद प्रमुख होता है। मीर और गालिब की तरह प्िाफराक ने भी कहने की इस शैली को़साध्कर आम - आदमी या साधरण - जन से अपनी बात कही है। प्रवृफति, मौसम और भौतिक जगत के सौंदयर् को शायरी का विषय बनाते हुए कहा, फ्दिव्यता भौतिकता से पृथवफ वस्तु नहीं है। जिसे हम भौतिक कहते हैं वही दिव्य भी है।य् चाँद के टुकड़े को खड़ी है उसे गोद - भरी हवा में जो लोका देती है है ख्िालख्िालाते बच्चे की हँसी निमर्ल जल से में वंफघी करके किस प्यार से देखता है बच्चा मुँह को जब घुटनियों में ले के है पिन्हाती कपडे़ दीवाली की शाम घर पुते और सजे चीनी के ख्िालौने जगमगाते लावे वो रूपवती मुखड़े पै इक नमर् दमक बच्चे के घरौंदे में जलाती है दिए आँगन में ठुनक रहा है िादयाया बालक तो हइर् चाँद पै ललचाया दपर्ण उसे दे के कह रही है माँ देख आइर्ने में चाँद उतर आया रक्षाबंधन की सुबह रस की पुतली छायी है घटा गगन की हलकी - हलकी बिजली की तरह चमक रहे हैं लच्छे भाइर् के है बाँधती चमकती राखी ऽ रफबाइर् उदूर् और पफारसी का एक छंद या लेखन शैली है, जिसमें चार पंक्ितयाँ होती हैं। इसकी पहली, दूसरी़और चैथी पंक्ित में तुक ;काप्िाफयाद्ध मिलाया़जाता है तथा तीसरी पंक्ित स्वच्छंद होती है। /गज़लँरुबाइया नौरस गुंचे पंखडि़यों की नाशुक गिरहें खोले हैं या उड़ जाने को रंगो - बू गुलशन में पर तोले हैं। तारे आँखें झपकावें हैं शरार् - शरार् सोये हैं तुम भी सुनो हो यारो! शब में सÂाटे वुफछ बोले हैं हम हों या किस्मत हो हमारी दोनों को इक ही काम मिला किस्मत हमको रो लेवे है हम किस्मत को रो ले हैं। जो मुझको बदनाम करे हैं काश वे इतना सोच सवेंफ मेरा परदा खोले हैं या अपना परदा खोले हैं ये कीमत भी अदा करे हैं हम बदुरफस्ती - ए - होशो - हवास तेरा सौदा करने वाले दीवाना भी हो ले हैं तेरे गम का पासे - अदब है वुफछ दुनिया का खयाल भी है सबसे छिपा के ददर् के मारे चुपके - चुपके रो ले हैं प्ि़ाफतरत का कायम है तवाशुन आलमे - हुस्नो - इश्क में भी उसको उतना ही पाते हैं खुद को जितना खो ले हैं आबो - ताब अश्आर न पूछो तुम भी आँखें रक्खो हो ये जगमग बैतों की दमक है या हम मोती रोले हैं ऐसे में तू याद आए है अंजुमने - मय में ¯रदों को रात गए गदू± पै प़्ाफरिश्ते बाबे - गुनह जग खोले हैं सदके प्ि़ ाफराक एशाशे - सुखन के वैफसे उड़ा ली ये आवाश इन गशलों के परदों में तो ‘मीर’ की गशलें बोले हैं आरोह अभ्यास पाठ के साथ 1.शायर राखी के लच्छे को बिजली की चमक की तरह कहकर क्या भाव व्यंजित करना चाहता है? 2.खुद का परदा खोलने से क्या आशय है? किस्मत हमको रो लेवे है हम किस्मत को रो ले हैं - इस पंक्ित में शायर की किस्मत के साथ तना - तनी का रिश्ता अभ्िाव्यक्त हुआ है। चचार् कीजिए। टिप्पणी करें ;कद्ध गोदी के चाँद और गगन के चाँद का रिश्ता। ;खद्ध सावन की घटाएँ व रक्षाबंधन का पवर्। कविता के आसपास 1.इन रफबाइयों से हिंदी, उदूर् और लोकभाषा के मिले - जुले प्रयोगों को छाँटिए। 2.प्ि़ाफराक ने सुनो हो, रक्खो हो आदि शब्द मीर की शायरी के तशर् पर इस्तेमाल किए हैं। ऐसी ही मीर की वुफछ गशलें ढूँढ़ कर लिख्िाए। कविता में एक भाव, एक विचार होते हुए भी उसका अंदाशे बयाँ या भाषा के साथ उसका बतार्व अलग - अलग रूप में अभ्िाव्यक्ित पाता है। इस बात को ध्यान रखते हुए नीचे दी गइर् कविताओं को पढि़ए और दी गइर् प्िाफराक की गशल/रफबाइर् में से समानाथीर् पंक्ितयाँ ढूँढि़ए।़ ;कद्ध मैया मैं तो चंद्र ख्िालौना लैहों। - सूरदास ;खद्ध वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान उमड़ कर आँखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान - सुमित्रानंदन पंत ;गद्ध सीस उतारे भुईं धरे तब मिलिहैं करतार - कबीर /गज़लँरुबाइया शब्द - छवि लोका देना हइर् नौरस गुंचे गिरहें शरार् - शरार् शब बदुरफस्ती - ए - होशो - हवास पासे - अदब प्िाफतरत़आबो - ताब अश्आर बैत अंजुमने - मय रिंद गद±ू तवाशुन बाबे - गुनाह ऐशाशे - सुखन आलमे - हुस्नो - इश्क - उछाल - उछाल कर प्यार करने की एक िया - है ही - नया रस - कली - गाँठ - कण - कण - रात - विवेक के साथ - लिहाश - आदत - चमक - दमक के साथ - शेर - शराब की महप्ि़ाफल - शराबी - आकाश, आसमान - संतुलन - पाप का अध्याय - बेहतरीन ;प्रतिष्िठतद्ध शायरी - सौंदयर् और प्रेम का जगत