
महादेवी वमार् 11 जन्म: सन् 1907, पफरूखाबाद ;उत्तर प्रदेशद्ध़र् प्रमुख रचनाएँ: दीपश्िाखा, यामा ;काव्य - संग्रहद्धऋ की कडि़याँ, आपदा, संकल्िपता, भारतीय संस्वृफति के स्वर ;निबंध - संग्रहद्धऋ अतीत के चलचित्रा, स्मृति की रेखाएँ, पथ के साथी, मेरा परिवार ;संस्मरण/रेखाचित्राद्ध प्रमुख पुरस्कार: ज्ञानपीठ पुरस्कार ;‘यामा’ संग्रह के लिए 1983 इर्. मेंद्ध, उत्तर प्रदेश ¯हदी संस्थान का भारत भारती पुरस्कार, पद्मभूषण ;1956 इर्.द्ध निधन: सन् 1987, इलाहाबाद संसार के मानव - समुदाय में वही व्यक्ित स्थान और सम्मान पा सकता है, वही जीवित कहा जा सकता है जिसके हृदय और मस्ितष्क ने समुचित विकास पाया हो और जो अपने व्यक्ितत्व द्वारा मनुष्य समाज से रागात्मक के अतिरिक्त बौिक संबंध भी स्थापित कर सकने में समथर् हो। साहित्य सेवी और समाज सेवी दोनों रूपों में महादेवी वमार् की प्रतिष्ठा रही है। महात्मा गांधी की दिखाइर् राह पर अपना जीवन समपिर्त कर उन्होंने श्िाक्षा और समाज - कल्याण के क्षेत्रा में निरंतर कायर् किया। नारी - समाज में श्िाक्षा - प्रसार के उद्देश्य से उन्होंने प्रयाग महिला विद्यापीठ की स्थापना की। साहित्य जगत में महादेवी वमार् की प्रतिष्ठा बहुमुखी प्रतिभा के रचनाकार के रूप में रही है। अगर कविता के क्षेत्रा में वे छायावाद के चार स्तंभों में से एक मानी जाती हैं ;अन्य तीन हैं - पंत, प्रसाद और निरालाद्ध, तो अपने निबंधों और संस्मरणात्मक रेखाचित्रों के कारण एक अप्रतिम गद्यकार के रूप में उनकी चचार् होती रही है। कविता और गद्य इन दोनों क्षेत्रों में उनकी प्रतिभा अलग - अलग स्वभाव लेकर सिय हुइर् दिखती है। कविताओं में वे अपनी आंतरिक वेदना और पीड़ा को व्यक्त करती हुइर् इस लोक से परे किसी और सत्ता की ओर अभ्िामुख दिखलाइर् पड़ती हैं, तो अपने गद्य में उनका गहरा सामाजिक सरोकार स्थान पाता है। उनकी शंृखला की कडि़याँ ;1942 इर्.द्ध उस समय की अद्वितीय रचना है, जो ¯हदी में स्त्राी - विमशर् की भव्य प्रस्तावना है। उनके संस्मरणात्मक रेखाचित्रा अपने आस पास के ऐसे चरित्रों और प्रसंगों को लेकर लिखे गए हैं, जिनकी साधारणता हमारा ध्यान नहीं खींच पाती लेकिन महादेवी जी की ममर्भेदी और करफणामयी दृष्िट उन चरित्रों की साधारणता में असाधारण तत्त्वों का संधान करती है। इस तरह समाज के शोष्िात - पीडि़त तबके को उन्होंने अपनी गद्य - रचनाओं में नायकत्व प्रदान किया है। उनके इस प्रयास ने ¯हदी के साहित्ियक समाज पर ऐसा गहरा असर डाला कि संस्मरणात्मक रेखाचित्रा की विधा के लिए शोष्िात - पीडि़त आम जन को विषय - वस्तु के रूप में मान्यता मिल गइर् है। भक्ितन छोटे कद और दुबले शरीरवाली भक्ितन अपने पतले ओठों के कोनों में दृढ़ संकल्प और छोटी आँखों में एक विचित्रा समझदारी लेकर जिस दिन पहले - पहले मेरे पास आ उपस्िथत हुइर् थी तब से आज तक एक युग का समय बीत चुका है। पर जब कोइर् जिज्ञासु उससे इस संबंध में प्रश्न कर बैठता है, तब वह पलकों को आधी पुतलियों तक गिराकर और चिंतन की मुद्रा में ठुंी को वुफछ उफपर उठाकर विश्वास भरे वंफठ से उत्तर देती है - ‘तुम पचै का का बताइर् - यहै पचास बरिस से संग रहित है।’ इस हिसाब से मैं पचहत्तर की ठहरती हूँ और वह सौ वषर् की आयु भी पार कर जाती है, इसका भक्ितन को पता नहीं। पता हो भी, तो संभवतः वह मेरे साथ बीते हुए समय में रत्ती भर भी कम न करना चाहेगी। मुझे तो विश्वास होता जा रहा है कि वुफछ वषर् और बीत जाने पर वह मेरे साथ रहने के समय को खींच कर सौ वषर् तक पहुँचा देगी, चाहे उसके हिसाब से मुझे डेढ़ सौ वषर् की असंभव आयु का भार क्यों न ढोना पड़े। सेवक - धमर् में हनुमान जी से स्प(ार् करने वाली भक्ितन किसी अंजना की पुत्राी न होकर एक अनामधन्या गोपालिका की कन्या है - नाम है लछमिन अथार्त लक्ष्मी। पर जैसे मेरे नाम की विशालता मेरे लिए दुवर्ह है, वैसे ही लक्ष्मी की समृि भक्ितन के कपाल की वुफंचित रेखाओं में नहीं बँध सकी। वैसे तो जीवन में प्रायः सभी को अपने - अपने नाम का विरोधाभास लेकर जीना पड़ता हैऋ पर भक्ितन बहुत समझदार है, क्योंकि वह अपना समृि - सूचक नाम किसी को बताती नहीं। केवल जब नौकरी की खोज में आइर् थी, तब इर्मानदारी का परिचय देने के लिए उसने शेष इतिवृत्त के साथ यह भी बता दियाऋ पर इस प्राथर्ना के साथ कि मैं कभी नाम का उपयोग न करूँ । उपनाम रखने की प्रतिभा होती, तो मैं सबसे पहले उसका प्रयोग अपने उफपर करती, इस तथ्य को वह देहातिन क्या जाने, इसी से जब मैंने वंफठी माला देखकर उसका नया नामकरण किया तब वह भक्ितन - जैसे कवित्वहीन नाम को पाकर भी गद्गद हो उठी। भक्ितन के जीवन का इतिवृत्त बिना जाने हुए उसके स्वभाव को पूणर्तः क्या अंशतः समझना भी कठिन होगा। वह ऐतिहासिक झूँसी में गाँव - प्रसि( एक सूरमा की एकलौती बेटी ही नहीं, विमाता की विंफवदंती बन जाने वाली ममता की छाया में भी पली है। पाँच वषर् की वय में उसे हँडिया ग्राम के एक संपन्न गोपालक की सबसे छोटी पुत्रावधू बनाकर पिता ने शास्त्रा से दो पग आगे रहने की ख्याति कमाइर् और नौ वषीर्या युवती का गौना देकर विमाता ने, बिना माँगे पराया धन लौटाने वाले महाजन का पुण्य लूटा। पिता का उस पर अगाध पे्रम होने के कारण स्वभावतः इर्ष्यार्लु और संपिा की रक्षा में सतवर्फ विमाता ने उनके मरणांतक रोग का समाचार तब भेजा, जब वह मृत्यु की सूचना भी बन चुका था। रोने - पीटने के अपशवुफन से बचने के लिए सास ने भी उसे वुफछ न बताया। बहुत दिन से नैहर नहीं गइर्, सो जाकर देख आवे, यही कहकर और पहना - उढ़ाकर सास ने उसे विदा कर दिया। इस अप्रत्याश्िात अनुग्रह ने उसके पैरों में जो पंख लगा दिए थे, वे गाँव की सीमा में पहुँचते ही झड़ गए। ‘हाय लछमिन अब आइर्’ की अस्पष्ट पुनरावृिायाँ और स्पष्ट सहानुभूतिपूणर् दृष्िटयाँ उसे घर तक ठेल ले गईं। पर वहाँ न पिता का चिÉ शेष था, न विमाता के व्यवहार में श्िाष्टाचार का लेश था। दुख से श्िाथ्िाल और अपमान से जलती हुइर् वह उस घर में पानी भी बिना पिए उलटे पैरों ससुराल लौट पड़ी। सास को खरी - खोटी सुनाकर उसने विमाता पर आया हुआ व्रफोध शांत किया और पति के उफपर गहने पेंफक - पेंफककर उसने पिता के चिर विछोह की ममर्व्यथा व्यक्त की। जीवन के दूसरे परिच्छेद में भी सुख की अपेक्षा दुख ही अिाक है। जब उसने गेहँुए रंग और बटिया जैसे मुख वाली पहली कन्या के दो संस्करण और कर डाले तब सास और जिठानियों ने ओठ बिचकाकर उपेक्षा प्रकट की। उचित भी था, क्योंकि सास तीन - तीन कमाउफ वीरों की विधात्राी बनकर मचिया के उफपर विराजमान पुरख्िान के पद पर अभ्िाष्िाक्त हो चुकी थी और दोनों जिठानियाँ काक - भुशंडी जैसे काले लालों की व्रफमब( सृष्िट करके इस पद के लिए उम्मीदवार थीं। छोटी बहू के लीक छोड़कर चलने के कारण उसे दंड मिलना आवश्यक हो गया। जिठानियाँ बैठकर लोक - चचार् करतीं और उनके कलूटे लड़के धूल उड़ातेऋ वह मऋा पेफरती, वूफटती, पीसती, राँधती और उसकी नन्ही लड़कियाँ गोबर उठातीं, वंफडे पाथतीं। जिठानियाँ अपने भात पर सपेफद राब रखकर गाढ़ा दूध डालतीं और अपने लड़कों को औटते़हुए दूध पर से मलाइर् उतारकर ख्िालातीं। वह काले गुड़ की डली के साथ कठौती में मऋा पाती और उसकी लड़कियाँ चने - बाजरे की घुघरी चबातीं । इस दंड - विधान के भीतर कोइर् ऐसी धारा नहीं थी, जिसके अनुसार खोटे सिक्कों की टकसाल - जैसी पत्नी से पति को विरक्त किया जा सकता। सारी चुगली - चबाइर् की परिणति, उसके पत्नी - प्रेम को बढ़ाकर ही होती थी। जिठानियाँ बात - बात पर धमाधम पीटी - वूफटी जातींऋ पर उसके पति ने उसे कभी उँगली भी नहीं छुआइर्। वह बड़े बाप की बड़ी बात वाली बेटी को पहचानता था। इसके अतिरिक्त परिश्रमी, तेजस्िवनी और पति के प्रति रोम - रोम से सच्ची पत्नी को वह चाहता भी बहुत रहा होगा, क्योंकि उसके प्रेम के बल पर ही पत्नी ने अलगौझा करके सबको अँगूठा दिखा दिया। काम वही करती थी, इसलिए गाय - भैंस, खेत - खलिहान, अमराइर् के पेड़ आदि के संबंध में उसी का ज्ञान बहुत बढ़ा - चढ़ा था। उसने छाँट - छाँट कर, उफपर से असंतोष की मुद्रा के साथ और भीतर से पुलकित होते हुए जो वुफछ लिया, वह सबसे अच्छा भी रहा, साथ ही परिश्रमी दंपति के निरंतर प्रयास से उसका सोना बन जाना भी स्वाभाविक हो गया। धूमधाम से बड़ी लड़की का विवाह करने के उपरांत, पति ने घरौंदे से खेलती हुइर् दो कन्याओं और कच्ची गृहस्थी का भार उनतीस वषर् की पत्नी पर छोड़कर संसार से विदा ली। जब वह मरा, तब उसकी अवस्था छत्तीस वषर् से वुफछ ही अिाक रही होगीऋ पर पत्नी आज उसे बुढ़उफ कह कर स्मरण करती है। भक्ितन सोचती है कि जब वह बूढ़ी हो गइर्, तब क्या परमात्मा के यहाँ वे भी न बुढ़ा गए होंगे, अतः उन्हें बुढ़उफ न कहना उनका घोर अपमान है। हाँ, तो भक्ितन के हरे - भरे खेत, मोटी - ताशी गाय - भैंस और पफलों से लदे पेड़ देखकर जेठ - जिठौतों के मुँह में पानी भर आना ही स्वाभाविक था। इन सबकी प्राप्ित तो तभी संभव थी, जब भइयहू दूसरा घर कर लेतीऋ पर जन्म से खोटी भक्ितन इनके चकमे में आइर् ही नहीं। उसने व्रफोध से पाँव पटक - पटककर आँगन को कंपायमान करते हुए कहा - ‘हम वुफवुफरी बिलारी न होयँ, हमार मन पुसाइर् तौ हम दूसरा के जाब ना¯ह त तुम्हार पचै की छाती पै होरहा भँूजब और राज करब, समुझे रहौ।’ उसने ससुर, अजिया ससुर और जाने वैफ पीढि़यों के ससुरगणों की उपाज्िर्ात जगह - शमीन में से सुइर् की नोक बराबर भी देने की उदारता नहीं दिखाइर्। इसके अतिरिक्त गुरफ से कान पँॅुफकवा, वंफठी बाँध और पति के नाम पर घी से चिकने केशों को समपिर्त कर अपने कभी न टलने की घोषणा कर दी। भविष्य में भी संपिा सुरक्ष्िात रखने के लिए उसने छोटी लड़कियों के हाथ पीले कर उन्हें ससुराल पहुँचाया और पति के चुने हुए बड़े दामाद को घरजमाइर् बनाकर रखा। इस प्रकार उसके जीवन का तीसरा परिच्छेद आरंभ हुआ। भक्ितन का दुभार्ग्य भी उससे कम हठी नहीं था, इसी से किशोरी से युवती होते ही बड़ी लड़की भी विधवा हो गइर्। भइयहू से पार न पा सकने वाले जेठों और काकी को परास्त करने के लिए कटिब( जिठौतों ने आशा की एक किरण देख पाइर्। विधवा बहिन के गठबंधन के लिए बड़ा जिठौत अपने तीतर लड़ाने वाले साले को बुला लाया, क्योंकि उसका हो जाने पर सब वुफछ उन्हीं के अिाकार में रहता। भक्ितन की लड़की भी माँ से कम समझदार नहीं थी, इसी से उसने वर को नापसंद कर दिया। बाहर के बहनोइर् का आना चचेरे भाइयों के लिए सुविधाजनक नहीं था, अतः यह प्रस्ताव जहाँ - का - तहाँ रह गया। तब वे दोनों माँ - बेटी खूब मन लगाकर अपनी संपिा की देख - भाल करने लगीं और ‘मान न मान मैं तेरा मेहमान’ की कहावत चरिताथर् करने वाले वर के समथर्क उसे किसी - न - किसी प्रकार पति की पदवी पर अभ्िाष्िाक्त करने का उपाय सोचने लगे। एक दिन माँ की अनुपस्िथति में वर महाशय ने बेटी की कोठरी में घुस कर भीतर से द्वार बंद कर लिया और उसके समथर्क गाँववालों को बुलाने लगे। युवती ने जब इस डवैफत वर की मरम्मत कर वुफंडी खोली, तब पंच बेचारे समस्या में पड़ गए। तीतरबाश युवक कहता था, वह निमंत्राण पाकर भीतर गया और युवती उसके मुख पर अपनी पाँचों उँगलियों के उभार में इस निमंत्राण के अक्षर पढ़ने का अनुरोध करती थी। अंत में दूध - का - दूध पानी - का - पानी करने के लिए पंचायत बैठी और सबने सिर हिला - हिलाकर इस समस्या का मूल कारण कलियुग को स्वीकार किया। अपीलहीन प़् ौफसला हुआ कि चाहे उन दोनों में एक सच्चा हो चाहे दोनों झूठेऋ पर जब वे एक कोठरी से निकले, तब उनका पति - पत्नी के रूप में रहना ही कलियुग के दोष का परिमाजर्न कर सकता है। अपमानित बालिका ने ओठ काटकर लहू निकाल लिया और माँ ने आग्नेय नेत्रों से गले पड़े दामाद को देखा। संबंध वुफछ सुखकर नहीं हुआ, क्योंकि दामाद अब नि¯श्चत होकर तीतर लड़ाता था और बेटी विवश व्रफोध से जलती रहती थी। इतने यत्न से सँभाले हुए गाय - ढोर, खेती - बारी जब पारिवारिक द्वेष में ऐसे झुलस गए कि लगान अदा करना भी भारी हो गया, सुख से रहने की कौन कहे। अंत में एक बार लगान न पहुंँचने पर शमींदार ने भक्ितन को बुलाकर दिन भर कड़ी धूप में खड़ा रखा। यह अपमान तो उसकी कमर्ठता में सबसे बड़ा कलंक बन गया, अतः दूसरे ही दिन भक्ितन कमाइर् के विचार से शहर आ पहुँची। घुटी हुइर् चाँद को मोटी मैली धोती से ढाँके और मानो सब प्रकार की आहट सुनने के लिए कान कपडे़ से बाहर निकाले हुए भक्ितन जब मेरे यहाँ सेवक - धमर् में दीक्ष्िात हुइर्, तब उसके जीवन के चैथे और संभवतः अंतिम परिच्छेद का जो अथ हुआ, उसकी इति अभी दूर है। भक्ितन की वेश - भूषा में गृहस्थ और वैरागी का सम्िमश्रण देखकर मैंने शंका से प्रश्न किया - क्या तुम खाना बनाना जानती हो! उत्तर में उसने, उफपर के ओठ को सिकोड़ और नीचे के अधर को वुफछ बढ़ा कर आश्वासन की मुद्रा के साथ कहा - इर् कउन बड़ी बात आय। रोटी बनाय जानित है, दाल राँध लेइत है, साग - भाजी छँउक सकित है, अउर बाकी का रहा! दूसरे दिन तड़के ही सिर पर कइर् लोटे औंधा कर उसने मेरी धुली धोती जल के छींटों से पवित्रा कर पहनी और पूवर् के अंधकार और मेरी दीवार से पूफटते हुए सूयर् और पीपल का, दो लोटे जल से अभ्िानंदन किया। दो मिनट नाक दबाकर जप करने के उपरांत जब वह कोयले की मोटी रेखा से अपने साम्राज्य की सीमा निश्िचत कर चैके में प्रतिष्िठत हुइर्, तब मैंने समझ लिया कि इस सेवक का साथ टेढ़ी खीर है। अपने भोजन के संबंध में नितांत वीतराग होने पर भी मैं पाक - विद्या के लिए परिवार में प्रख्यात हूँ और कोइर् भी पाक - वुफशल दूसरे के काम में नुक्ताचीनी बिना किए रह नहीं सकता। पर जब छूत - पाक पर प्राण देनेवाले व्यक्ितयों का, बात - बात पर भूखा मरना स्मरण हो आया और भक्ितन की शंकावुफल दृष्िट में छिपे हुए निषेध का अनुभव किया, तब कोयले की रेखा मेरे लिए लक्ष्मण के धनुष से खींची हुइर् रेखा के सामने दुल±घ्य हो उठी। निरफपाय अपने कमरे में बिछौने में पड़कर नाक के उफपर खुली हुइर् पुस्तक स्थापित कर मैं चैके में पीढे़ पर आसीन अनिाकारी को भूलने का प्रयास करने लगी। भोजन के समय जब मैंने अपनी निश्िचत सीमा के भीतर निदिर्ष्ट स्थान ग्रहण कर लिया, तब भक्ितन ने प्रसन्नता से लबालब दृष्िट और आत्मतुष्िट से आप्लावित मुसवुफराहट के साथ मेरी पूफल की थाली में एक अंगुल मोटी और गहरी काली चित्तीदार चार रोटियाँ रखकर उसे टेढ़ी कर गाढ़ी दाल परोस दी। पर जब उसके उत्साह पर तुषारपात करते हुए मैंने रफआँसे भाव से कहा - ‘यह क्या बनाया है?’ तब वह हतबुि हो रही। रोटियाँ अच्छी सेंकने के प्रयास में वुफछ अिाक खरी हो गइर् हंैऋ पर अच्छी हैं। तरकारियाँ थीं, पर जब दाल बनी है तब उनका क्या काम - शाम को दाल न बनाकर तरकारी बना दी जाएगी। दूध - घी मुझे अच्छा नहीं लगता, नहीं तो सब ठीक हो जाता। अब न हो तो अमचूर और लाल मिचर् की चटनी पीस ली जावे। उससे भी काम न चले, तो वह गाँव से लाइर् हुइर् गठरी में से थोड़ा - सा गुड़ दे देगी। और शहर के लोग क्या कलाबत्तू खाते हैं? पिफर वह वुफछ अनाडि़न या पूफहड़ नहीं। उसके ससुर, पितिया ससुर, अजिया सास आदि ने उसकी पाक - वुफशलता के लिए न जाने कितने मौख्िाक प्रमाण - पत्रा दे डाले हैं। भक्ितन के इस सारगभ्िार्त लेक्चर का प्रभाव यह हुआ कि मैं मीठे से विरक्ित के कारण बिना गुड़ के और घी से अरफचि के कारण रूखी दाल से एक मोटी रोटी खाकर बहुत ठाठ से यूनिवस्िर्ाटी पहुँची और न्याय - सूत्रा पढ़ते - पढ़ते शहर और देहात के जीवन के इस अंतर पर विचार करती रही। अलग भोजन की व्यवस्था करनी पड़ी थी, अपने गिरते हुए स्वास्थ और परिवारवालों की चिंता - निवारण के लिए, पर प्रबंध ऐसा हो गया कि उपचार का प्रश्न ही खो गया। इस देहाती वृ(ा ने जीवन की सरलता के प्रति मुझे इतना जाग्रत कर दिया था कि मैं अपनी असुविधाएँ छिपाने लगी, सुविधाओं की चिंता करना तो दूर की बात। इसके अतिरिक्त भक्ितन का स्वभाव ही ऐसा बन चुका है कि वह दूसरों को अपने मन के अनुसार बना लेना चाहती हैऋ पर अपने संबंध में किसी प्रकार के परिवतर्न की कल्पना तक उसके लिए संभव नहीं। इसी से आज मैं अिाक देहाती हूँऋ पर उसे शहर की हवा नहीं लग पाइर्। मकइर् का, रात को बना दलिया, सवेरे मऋेे से सोंधा लगता है। बाजरे के तिल लगाकर बनाए हुए पुए गरम कम अच्छे लगते हैं। ज्वार के भुने हुए भु‘े के हरे दानों की ख्िाचड़ी स्वादिष्ट होती है। सपेफद महुए की लपसी संसार भर के हलवे को लजा सकती़हैऋ आदि वह मुझे वि्रफयात्मक रूप से सिखाती रहती हैऋ पर यहाँ का रसगुल्ला तक भक्ितन के पोपले मुँह में प्रवेश करने का सौभाग्य नहीं प्राप्त कर सका। मेरे रात - दिन नाराश होने पर भी उसने सापफ धोती पहनना नहीं सीखाऋ पर मेरे स्वयं धोकर पैफलाए हुए कपड़ों को भी वह़तह करने के बहाने सिलवटों से भर देती है। मुझे उसने अपनी भाषा की अनेक दंतकथाएँ वंफठस्थ करा दी हैंऋ पर पुकारने पर वह ‘आँय’ के स्थान में ‘जी’ कहने का श्िाष्टाचार भी नहीं सीख सकती। भक्ितन अच्छी है, यह कहना कठिन होगा, क्योंकि उसमें दुगर्ुणों का अभाव नहीं। वह सत्यवादी हरिश्चंद्र नहीं बन सकतीऋ पर ‘नरो वा वुंफजरो वा’ कहने में भी विश्वास नहीं करती। मेरे इधर - उधर पड़े पैसे - रुपये, भंडार - घर की किसी मटकी में वैफसे अंतरहित हो जाते हैं, यह रहस्य भी भक्ितन जानती है। पर, उस संबंध में किसी के संकेत करते ही वह उसे शास्त्राथर् के लिए चुनौती दे डालती है, जिसको स्वीकार कर लेना किसी तवर्फ - श्िारोमण्िा के लिए संभव नहीं। यह उसका अपना घर ठहरा, पैसा - रुपया जो इधर - उधर पड़ा देखा, सँभालकर रख लिया। यह क्या चोरी है! उसके जीवन का परम कतर्व्य मुझे प्रसन्न रखना है - जिस बात से मुझे व्रफोध आ सकता है, उसे बदलकर इधर - उधर करके बताना, क्या झूठ है! इतनी चोरी और इतना झूठ तो धमर्राज महाराज में भी होगा, नहीं तो वे भगवान जी को वैफसे प्रसन्न रख सकते और संसार को वैफसे चला सकते! शास्त्रा का प्रश्न भी भक्ितन अपनी सुविधा के अनुसार सुलझा लेती है। मुझे स्ित्रायों का सिर घुटाना अच्छा नहीं लगता, अतः मैंने भक्ितन को रोका। उसने अवुफंठित भाव से उत्तर दिया कि शास्त्रा में लिखा है। वुफतूहलवश मैं पूछ ही बैठी - ‘क्या लिखा है?’ तुरंत उत्तर मिला - ‘तीरथ गए मुँडाए सि(।’ कौन - से शास्त्रा का यह रहस्यमय सूत्रा है, यह जान लेना मेरे लिए संभव ही नहीं था। अतः मैं हारकर मौन हो रही और भक्ितन का चूड़ाकमर् हर बृहस्पतिवार को, एक दरिद्र नापित के गंगाजल से धुले उस्तरे द्वारा यथावििा निष्पन्न होता रहा। पर वह मूखर् है या विद्या - बुि का महत्त्व नहीं जानती, यह कहना असत्य कहना है। अपने विद्या के अभाव को वह मेरी पढ़ाइर् - लिखाइर् पर अभ्िामान करके भर लेती है। एक बार जब मैंने सब काम करनेवालों से अँगूठे के निशान के स्थान में हस्ताक्षर लेने का नियम बनाया तब भक्ितन बड़े कष्ट में पड़ गइर्, क्योंकि एक तो उससे पढ़ने की मुसीबत नहीं उठाइर् जा सकती थी, दूसरे सब गाड़ीवान दाइयों के साथ बैठकर पढ़ना उसकी वयोवृ(ता का अपमान था। अतः उसने कहना आरंभ किया - ‘हमारे मलकिन तौ रात - दिन कितबियन माँ गड़ी रहती हैं। अब हमहूँ पढ़ै लागब तो घर - गिरिस्ती कउन देखी - सुनी।’ पढ़ाने वाले और पढ़ने वाले दोनों पर इस तवर्फ का ऐसा प्रभाव पड़ा कि भक्ितन इंस्पेक्टर के समान क्लास में घूम - घूमकर किसी के आ इ की बनावट किसी के हाथ की मंथरता, किसी की बुि की मंदता पर टीका - टिप्पणी करने का अिाकार पा गइर्। उसे तो अँगूठा निशानी देकर वेतन लेना नहीं होता, इसी से बिना पढ़े ही वह पढ़ने वालों की गुरु बन बैठी। वह अपने तवर्फ ही नहीं, तवर्फहीनता के लिए इसके लिए भी प्रमाण की खोज - ढूँढ़ आवश्यक हो उठती है। जब एक बार मैं उत्तर - पुस्तकों और चित्रों को लेकर व्यस्त थी, तब भक्ितन सबसे कहती घूमी - ‘उफ बिचरिअउ तौ रात - दिन काम माँ झुकी रहती हैं, अउर तुम पचै घूमती पिफरती हौ! चलौ तनिक हाथ बटाय लेउ।’ सब जानते थे कि ऐसे कामों में हाथ नहीं बटाया जा सकता, अतः उन्होंने अपनी असमथर्ता प्रकट कर भक्ितन से पिंड छुड़ाया। बस इसी प्रमाण के आधार पर उसकी सब अतिशयोक्ितयाँ अमरबेल - सी पैफलने लगीं - उसकी मालकिन - जैसा काम कोइर् जानता ही नहीं, इसी से तो बुलाने पर भी कोइर् हाथ बटाने की हिम्मत नहीं करता। पर वह स्वयं कोइर् सहायता नहीं दे सकती, इसे मानना अपनी हीनता स्वीकार करना है - इसी से वह द्वार पर बैठकर बार - बार वुफछ काम बताने का आग्रह करती है। कभी उत्तर - पुस्तकों को बाँधकर, कभी अधूरे चित्रा को कोने में रखकर, कभी रंग की प्याली धोकर और कभी चटाइर् को आँचल से झाड़कर वह जैसी सहायता पहँुचाती है, उससे भक्ितन का अन्य व्यक्ितयों से अिाक बुिमान होना प्रमाण्िात हो जाता है। वह जानती है कि जब दूसरे मेरा हाथ बटाने की कल्पना तक नहीं कर सकते, तब वह सहायता की इच्छा को वि्रफयात्मक रूप देती है, इसी से मेरी किसी पुस्तक के प्रकाश्िात होने पर उसके मुख पर प्रसन्नता की आभा वैसे ही उद्भासित हो उठती है जैसे स्िवच दबाने से बल्ब में छिपा आलोक। वह सूने में उसे बार - बार छूकर, आँखों के निकट ले जाकर और सब ओर घुमा - पिफराकर मानो अपनी सहायता का अंश खोजती है और उसकी दृष्िट में व्यक्त आत्मघोष कहता है कि उसे निराश नहीं होना पड़ता। यह स्वाभाविक भी है। किसी चित्रा को पूरा करने में व्यस्त, मैं जब बार - बार कहने पर भी भोजन के लिए नहीं उठती, तब वह कभी दही का शबर्त, कभी तुलसी की चाय वहीं देकर भूख का कष्ट नहीं सहने देती। दिन भर के कायर् - भार से छु‘ी पाकर जब मैं कोइर् लेख समाप्त करने या भाव को छंदब( करने बैठती हूँ, तब छात्रावास की रोशनी बुझ चुकती है, मेरी हिरनी सोना तख्त के पैताने पफशर् पर बैठकर पागुर करना बंद कर देती है, वुफत्ता बसंत छोटी मचिया पर पंजों में़मुख रखकर आँखें मूँद लेता है और बिल्ली गोधूलि मेरे तकिए पर सिवुफड़कर सो रहती है। पर मुझे रात की निस्तब्धता में अकेली न छोड़ने के विचार से कोने में दरी के आसन पर बैठकर बिजली की चकाचैंध से आँखें मिचमिचाती हुइर् भक्ितन, प्रशांत भाव से जागरण करती है। वह उफँघती भी नहीं, क्योंकि मेरे सिर उठाते ही उसकी धुँधली दृष्िट मेरी आँखों का अनुसरण करने लगती है। यदि मैं सिरहाने रखे रैक की ओर देखती हूँ, तो वह उठकर आवश्यक पुस्तक का रंग पूछती है, यदि मैं कलम रख देती हूँ, तो वह स्याही उठा लाती है और यदि मैं कागश एक ओर सरका देती हूँ, तो वह दूसरी पफाइल टटोलती है।़ बहुत रात गए सोने पर भी मैं जल्दी ही उठती हूँ और भक्ितन को तो मुझसे भी पहले जागना पड़ता है - सोना उछल - वूफद के लिए बाहर जाने को आवुफल रहती है, बसंत नित्य कमर् के लिए दरवाशा खुलवाना चाहता है और गोधूलि चिडि़यों की चहचहाहट में श्िाकार का आमंत्राण सुन लेती है। मेरे भ्रमण की भी एकांत साथ्िान भक्ितन ही रही है। बदरी - केदार आदि के उफँचे - नीचे और तंग पहाड़ी रास्ते में जैसे वह हठ करके मेरे आगे चलती रही है, वैसे ही गाँव की धूलभरी पगडंडी पर मेरे पीछे रहना नहीं भूलती। किसी भी समय, कहीं भी जाने के लिए प्रस्तुत होते ही मैं भक्ितन को छाया के समान साथ पाती हूँ। यु( को देश की सीमा में बढ़ते देख जब लोग आतंकित हो उठे, तब भक्ितन के बेटी - दामाद उसके नाती को लेकर बुलाने आ पहुँचेऋ पर बहुत समझाने - बुझाने पर भी वह उनके साथ नहीं जा सकी। सबको वह देख आती हैऋ रुपया भेज देती हैऋ पर उनके साथ रहने के लिए मेरा साथ छोड़ना आवश्यक हैऋ जो संभवतः भक्ितन को जीवन के अंत तक स्वीकार न होगा। जब गत वषर् यु( के भूत ने वीरता के स्थान में पलायन - वृिा जगा दी थी, तब भक्ितन पहली ही बार सेवक की विनीत मुद्रा के साथ मुझसे गाँव चलने का अनुरोध करने आइर्। वह लकड़ी रखने के मचान पर अपनी नयी धोती बिछाकर मेरे कपड़े रख देगी, दीवाल में कीलें गाड़कर और उन पर तख्ते रखकर मेरी किताबें सजा देगी, धान के पुआल का गोंदरा बनवाकर और उस पर अपना वंफबल बिछाकर वह मेेरे सोने का प्रबंध करेगी। मेरे रंग, स्याही आदि को नयी हँडियों में सँजोकर रख देगी और कागश - पत्रों को छींके में यथावििा एकत्रा कर देगी। ‘मेरे पास वहाँ जाकर रहने के लिए रफपया नहीं है, यह मैंने भक्ितन के प्रस्ताव को अवकाश न देने के लिए कहा थाऋ पर उसके परिणाम ने मुझे विस्िमत कर दिया। भक्ितन ने परम रहस्य का उद्घाटन करने की मुद्रा बना कर और पोपला मुँह मेरे कान के पास लाकर हौले - हौले बताया कि उसके पास पाँच बीसी और पाँच रुपया गड़ा रखा है। उसी से वह सब प्रबंध कर लेगी। पिफर लड़ाइर् तो वुफछ अमरौती खाकर आइर् नहीं है। जब सब ठीक हो जाएगा, तब यहीं लौट आएँगे। भक्ितन की वंफजूसी के प्राण पंूजीभूत होते - होते पवर्ताकार बन चुके थेऋ परंतु इस उदारता के डाइनामाइट ने क्षण भर में उन्हें उड़ा दिया। इतने थोड़े रुपये का कोइर् महत्त्व नहींऋ परंतु रुपये के प्रति भक्ितन का अनुराग इतना प्रख्यात हो चुका है कि मेरे लिए उसका परित्याग मेरे महत्त्व की सीमा तक पहुँचा देता है। भक्ितन और मेेरे बीच में सेवक - स्वामी का संबंध है, यह कहना कठिन हैऋ क्योंकि ऐसा कोइर् स्वामी नहीं हो सकता, जो इच्छा होने पर भी सेवक को अपनी सेवा से हटा न सके और ऐसा कोइर् सेवक भी नहीं सुना गया, जो स्वामी के चले जाने का आदेश पाकर अवज्ञा से हँस दे। भक्ितन को नौकर कहना उतना ही असंगत है, जितना अपने घर में बारी - बारी से आने - जाने वाले अँधेरे - उजाले और आँगन में पूफलने वाले गुलाब और आम को सेवक मानना। वे जिस प्रकार एक अस्ितत्व रखते हैं, जिसे साथर्कता देने के लिए ही हमें सुख - दुख देते हैं, उसी प्रकार भक्ितन का स्वतंत्रा व्यक्ितत्व अपने विकास के परिचय के लिए ही मेरे जीवन को घेरे हुए है। परिवार और परिस्िथतियों के कारण स्वभाव में जो विषमताएँ उत्पन्न हो गइर् हैं, उनके भीतर से एक स्नेह और सहानुभूति की आभा पूफटती रहती है, इसी से उसके संपवर्फ में आने वाले व्यक्ित उसमें जीवन की सहज माम्िर्ाकता ही पाते हैं। छात्रावास की बालिकाओं में से कोइर् अपनी चाय बनवाने के लिए देहली पर बैठी रहती है, कोइर् बाहर खड़ी मेरे लिए बने नाश्ते को चखकर उसके स्वाद की विवेचना करती रहती है। मेरे बाहर निकलते ही सब चिडि़यों के समान उड़ जाती हैं और भीतर आते ही यथास्थान विराजमान हो जाती हैं। इन्हें आने में रफकावट न हो, संभवतः इसी से भक्ितन अपना दोनों जून का भोजन सवेरे ही बनाकर उफपर के आले में रख देती है और खाते समय चैके का एक कोना धोकर पाक - छत के सनातन नियम से समझौता कर लेती है। मेरे परिचितों और साहित्ियक बंधुओं से भी भक्ितन विशेष परिचित हैऋ पर उनके प्रति भक्ितन के सम्मान की मात्रा, मेरे प्रति उनके सम्मान की मात्रा पर निभर्र है और सद्भाव उनके प्रति मेरे सद्भाव से निश्िचत होता है। इस संबंध में भक्ितन की सहजबुि विस्िमत कर देने वाली है। वह किसी को आकार - प्रकार और वेश - भूषा से स्मरण करती है और किसी को नाम के अपभं्रश द्वारा । कवि और कविता के संबंध में उसका ज्ञान बढ़ा हैऋ पर आदर - भाव नहीं। किसी के लंबे बाल और अस्त - व्यस्त वेश - भूषा देखकर वह कह उठती है - ‘का ओहू कवित्त लिखे जानत हैं’ और तुरंत ही उसकी अवज्ञा प्रकट हो जाती है - तब उफ वुफच्छौ करिहैं - धरिहैं ना - बस गली - गली गाउत - बजाउत पिफरिहैं। पर सबका दुख उसे प्रभावित कर सकता है। विद्याथीर् वगर् में से कोइर् जब कारागार का अतिथ्िा हो जाता है, तब उस समाचार को व्यथ्िात भक्ितन बीता - बीता भरे लड़कन का जेहल - कलजुग रहा तौन रहा अब परलय होइर् जाइर् - उनकर माइर् का बड़े लाट तक लड़ै का चाहीं, कहकर दिन भर सबको परेशान करती है। बापू से लेकर साधारण व्यक्ित तब सबके प्रति भक्ितन की सहानुभूति एकरस मिलती है। भक्ितन के संस्कार ऐसे हैं कि वह कारागार से वैसे ही डरती है, जैसे यमलोक से। उफँची दीवार देखते ही, वह आँख मूँदकर बेहोश हो जाना चाहती है। उसकी यह कमशोरी इतनी प्रसिि पा चुकी है कि लोग मेरे जेल जाने की संभावना बता - बताकर उसे चिढ़ाते रहते हैं। वह डरती नहीं, यह कहना असत्य होगाऋ पर डर से भी अिाक महत्त्व मेरे साथ का ठहरता है। चुपचाप मुझसे पूछने लगती है कि वह अपनी वैफ धोती साबुन से साप़् ाफ कर ले, जिससे मुझे वहाँ उसके लिए लज्िजत न होना पड़े । क्या - क्या सामान बाँध ले, जिससे मुझे वहाँ किसी प्रकार की असुविधा न हो सके। ऐसी यात्रा में किसी को किसी के साथ जाने का अिाकार नहीं, यह आश्वासन भक्ितन के लिए कोइर् मूल्य नहीं रखता। वह मेरे न जाने की कल्पना से इतनी प्रसन्न नहीं होती, जितनी अपने साथ न जा सकने की संभावना से अपमानित। भला ऐसा अंधेर हो सकता है। जहाँ मालिक वहाँ नौकर - मालिक को ले जाकर बंद कर देने में इतना अन्याय नहींऋ पर नौकर को अकेले मुक्त छोड़ देने में पहाड़ के बराबर अन्याय है। ऐसा अन्याय होने पर भक्ितन को बड़े लाट तक लड़ना पड़ेगा। किसी की माइर् यदि बड़े लाट तक नहीं लड़ी, तो नहीं लड़ीऋ पर भक्ितन का तो बिना लड़े काम ही नहीं चल सकता। ऐसे विषम प्रतिद्वंद्वियों की स्िथति कल्पना में भी दुलर्भ है। मैं प्रायः सोचती हूँ कि जब ऐसा बुलावा आ पहुँचेगा, जिसमें न धोती सापफ करने का़अवकाश रहेगा, न सामान बाँधने का, न भक्ितन को रफकने का अिाकार होगा, न मुझे रोकने का, तब चिर विदा के अंतिम क्षणों में यह देहातिन वृ(ा क्या करेगी और मंै क्या करूँगी? भक्ितन की कहानी अधूरी हैऋ पर उसे खोकर मैं इसे पूरी नहीं करना चाहती। अभ्यास पाठ के साथ 1.भक्ितन अपना वास्तविक नाम लोगों से क्यों छुपाती थी? भक्ितन को यह नाम किसने और क्यों दिया होगा? 2.दो कन्या - रत्न पैदा करने पर भक्ितन पुत्रा - महिमा में अंधी अपनी जिठानियों द्वारा घृणा व उपेक्षा का श्िाकार बनी। ऐसी घटनाओं से ही अकसर यह धारणा चलती है कि स्त्राी ही स्त्राी की दुश्मन होती है। क्या इससे आप सहमत हैं? 3.भक्ितन की बेटी पर पंचायत द्वारा शबरन पति थोपा जाना एक दुघर्टना भर नहीं, बल्िक विवाह के संदभर् में स्त्राी के मानवािाकार ;विवाह करें या न करें अथवा किससे करेंद्ध इसकी स्वतंत्राता को वुफचलते रहने की सदियों से चली आ रही सामाजिक परंपरा का प्रतीक है। वैफसे? 4.भक्ितन अच्छी है, यह कहना कठिन होगा, क्योंकि उसमें दुगुर्णों का अभाव नहीं लेख्िाका ने ऐसा क्यों कहा होगा? 5.भक्ितन द्वारा शास्त्रा के प्रश्न को सुविधा से सुलझा लेने का क्या उदाहरण लेख्िाका ने दिया है? 6.भक्ितन के आ जाने से महादेवी अिाक देहाती वैफसे हो गईं? पाठ के आसपास 1.आलो आँधारि की नायिका और लेख्िाका बेबी हालदार और भक्ितन के व्यक्ितत्व में आप क्या समानता देखते हैं? 3 भक्ितन की बेटी के मामले में जिस तरह का प़्ौफसला पंचायत ने सुनाया, वह आज भी कोइर् हैरतअंगेश बात नहीं है। अखबारों या टी. वी. समाचारों में आनेवाली किसी ऐसी ही घटना को 4 भक्ितन के उस प्रसंग के साथ रखकर उस पर चचार् करें। पाँच वषर् की वय में ब्याही जानेवाली लड़कियों में सिप़्ार्फ भक्ितन नहीं है, बल्िक आज भी हशारों अभागिनियाँ हैं। बाल - विवाह और उम्र के अनमेलपन वाले विवाह की अपने आस - पास हो रही 5 घटनाओं पर दोस्तों के साथ परिचचार् करें। महादेवी जी इस पाठ में हिरनी सोना, वुफत्ता बसंत, बिल्ली गोधूलि आदि के माध्यम से पशु - पक्षी को मानवीय संवेदना से उकेरने वाली लेख्िाका के रूप में उभरती हैं। उन्होंने अपने घर में और भी कइर् पशु - पक्षी पाल रखे थे तथा उन पर रेखाचित्रा भी लिखे हैं। श्िाक्षक की सहायता से उन्हें ढूँढ़कर पढे़ं। जो मेरा परिवार नाम से प्रकाश्िात है। भाषा की बात 1.नीचे दिए गए विश्िाष्ट भाषा - प्रयोगों के उदाहरणों को ध्यान से पढि़ए और इनकी अथर् - छवि स्पष्ट कीजिए - ;कद्ध पहली कन्या के दो संस्करण और कर डाले ;खद्ध खोटे सिक्कों की टकसाल जैसी पत्नी ;गद्ध अस्पष्ट पुनरावृिायाँ और स्पष्ट सहानुभूतिपूणर् 2.‘बहनोइर्’ शब्द ‘बहन ;स्त्राी.द्ध$ओइर्’ से बना है। इस शब्द में ¯हदी भाषा की एक अनन्य विशेषता प्रकट हुइर् है। पुं¯लग शब्दों में वुफछ स्त्राी - प्रत्यय जोड़ने से स्त्राी¯लग शब्द बनने की एक समान प्रिया कइर् भाषाओं में दिखती है, पर स्त्राी¯लग शब्द में वुफछ पुं. प्रत्यय जोड़कर पुं¯लग शब्द बनाने की घटना प्रायः अन्य भाषाओं में दिखलाइर् नहीं पड़ती। यहाँ पुं. प्रत्यय ‘ओइर्’ ¯हदी की अपनी विशेषता है। ऐसे वुफछ और शब्द और उनमें लगे पुं. प्रत्ययों की ¯हदी तथा और भाषाओं में खोज करें। 3. पाठ में आए लोकभाषा के इन संवादों को समझ कर इन्हें खड़ी बोली ¯हदी में ढाल कर प्रस्तुत कीजिए। ;कद्ध इर् कउन बड़ी बात आय। रोटी बनाय जानित है, दाल राँध लेइत है, साग - भाजी छँउक सकित है, अउर बाकी का रहा। ;खद्ध हमारे मालकिन तौ रात - दिन कितबियन माँ गड़ी रहती हैं। अब हमहूँ पढ़ै लागब तो घर - गिरिस्ती कउन देखी - सुनी। ;गद्ध उफ बिचरिअउ तौ रात - दिन काम माँ झुकी रहती हैं, अउर तुम पचै घूमती - पिफरती हौ, चलौ तनिक हाथ बटाय लेउ। ;घद्ध तब उफ वुफच्छौ करिहैं - धरिहैं ना - बस गली - गली गाउत - बजाउत पिफरिहैं। ;घद्ध तुम पचै का का बताइर्यहै पचास बरिस से संग रहित है। ;चद्ध हम वुफवुफरी बिलारी न होयँ, हमार मन पुसाइर् तौ हम दूसरा के जाब ना¯ह त तुम्हार पचै की छाती पै होरहा भूँँजब और राज करब, समुझे रहौ। 4.भक्ितन पाठ में पहली कन्या के दो संस्करण जैसे प्रयोग लेख्िाका के खास भाषाइर् संस्कार की पहचान कराता है, साथ ही ये प्रयोग कथ्य को संप्रेषणीय बनाने में भी मददगार हैं। वतर्मान ¯हदी में भी वुफछ अन्य प्रकार की शब्दावली समाहित हुइर् है। नीचे वुफछ वाक्य दिए जा रहे हैं जिससे वक्ता वफी खास पसंद का पता चलता है। आप वाक्य पढ़कर बताएँ कि इनमें किन तीन विशेष प्रकार की शब्दावली का प्रयोग हुआ है? इन शब्दावलियों या इनके अतिरिक्त अन्य किन्हीं विशेष शब्दावलियों का प्रयोग करते हुए आप भी वुफछ वाक्य बनाएँ और कक्षा में चचार् करें कि ऐसे प्रयोग भाषा की समृि में कहाँ तक सहायक है? - अरे! उससे सावधन रहना! वह नीचे से उफपर तक वायरस से भरा हुआ है। जिस सिस्टम में जाता है उसे हैंग कर देता है। - घबरा मत! मेरी इनस्वींगर के सामने उसके सारे वायरस घुटने टेवेंफगे। अगर श्यादा पफाउल मारा तो़रेड काडर् दिखा के हमेशा के लिए पवेलियन भेज दूँगा। - जानी टेंसन नइर् लेने का वो जिस स्वूफल में पढ़ता है अपुन उसका हैडमास्टर है। तुम पचै - तुम लोगों से दुवर्ह - जिसे ढोना कठिन हो अलगौझा - बँटवारा नैहर - मायका विधात्राी - जन्म देने वाली माँ पुरख्िान - बुशुगर् महिला राब - गÂे का पका हुआ गाढ़ा रस दुल±घ्य - जिसे पार करना कठिन हो वुंफचित - सिवुफड़ी हुइर् तुषारपात - ओले बरसाना हतबुि - जिसकी बुि या विचारने की शक्ित मारी गयी हो। होरहा - हरे अनाजों का आग पर भुना रूप झूँसी - गंगा के तट पर ;इलाहाबाद के पासद्ध का स्थान, जहाँ प्राचीन काल में प्रतिष्ठानपुरी नाम की नगरी बसी हुइर् थी। भइउहू - छोटे भाइर् की पत्नी जिठौत - जेठ का पुत्रा अजिया ससुर - पति का दादा