Aroh

12 जन्म: सन् 1905, अलीगढ़ ;उत्तर प्रदेशद्ध प्रमुख रचनाएँ: परख, अनाम स्वामी, सुनीता, त्यागपत्रा, कल्याणी, जयव(र्न, मुक्ितबोध ;उपन्यासद्धऋ वातायन, एक रात, दो चिडि़या, पफाँसी, नीलम देश की राजकन्या, पाशेब ;कहानी - संग्रहद्धऋ प्रस्तुत प्रश्न, जड़ की बात, पूवोर्दय, साहित्य का श्रेय और प्रेय, सोच - विचार, समय और हम ;विचार - प्रधान निबंध - संग्रहद्ध प्रमुख पुरस्कार: साहित्य अकादेमी पुरस्कार, भारत - भारती सम्मान। भारत सरकार द्वारा पद्मभूषण से सम्मानित निधन: सन् 1990 में यथाथर् को अंतिम सत्य के रूप में ओढ़कर जो अपने को विवश मान बैठ सकता है, वही तो असमथर् है। पर जिसने स्वप्न के सत्य के दशर्न किए वह यथाथर् की विकटता से वैफसे निरफत्साहित हो सकता है? ¯हदी में प्रेमचंद के बाद सबसे महत्त्वपूणर् कथाकार के रूप में प्रतिष्िठत जैनेंद्र वुफमार का अवदान बहुत व्यापक और वैविध्यपूणर् है। अपने उपन्यासांें और कहानियों के माध्यम से उन्होंने ¯हदी में एक सशक्त मनोवैज्ञानिक कथा - धारा का प्रवतर्न किया। परख और सुनीता के बाद 1937 में प्रकाश्िात त्यागपत्रा ने इन्हें मनोवैज्ञानिक उपन्यासकार के रूप में प्रभूत प्रतिष्ठा दिलाइर्। इसी तरह खेल, पाशेब, नीलम देश की राजकन्या, अपना - अपना भाग्य, तत्सत जैसी कहानियों को भी कालजयी रचनाओं के रूप में मान्यता मिली है। कथाकार होने के साथ - साथ जैनेंद्र की पहचान अत्यंत गंभीर चिंतक के रूप में रही। बहुत सरल एवं अनौपचारिक - सी दिखनेवाली शैली में उन्होंने समाज, राजनीति, अथर्नीति एवं दशर्न से संबंिात गहन प्रश्नों को सुलझाने की कोश्िाश की है। अपनी गांधीवादी चिंतन - दृष्िट का जितना सुष्ठु एवं सहज उपयोग वे जीवन - जगत से जुडे़ प्रश्नों के संदभर् में करते हैं, वह अन्यत्रा दुलर्भ है और वह इस बात का सबूत पेश करता है कि गांधीवाद को उन्होंने कितनी गहराइर् से हृदयंगम किया है। न जोड़े, तो क्या मैं जोडँ़ू? पिफर भी सच सच है और वह यह कि इस बात में पत्नी की ओट ली जाती है। मूल में एक और तत्त्व की महिमा सविशेष है। वह तत्त्व है मनीबैग, अथार्त पैसे की गरमी या एनजीर्। पैसा पावर है। पर उसके सबूत में आस - पास माल - टाल न जमा हो तो क्या वह खाक पावर है! पैसे को देखने के लिए बैंक - हिसाब देख्िाए, पर माल - असबाब मकान - कोठी तो अनदेखे भी दीखते हैं। पैसे की उस ‘पचेर्¯शग पावर’ के प्रयोग में ही पावर का रस है। लेकिन नहीं। लोग संयमी भी होते हैं। वे प्ि़़ ाफजूल सामान को प्िाफजूल समझते हैं। वे पैसा बहाते नहीं हैं और बुिमान होते हैं। बुि और संयमपूवर्क वह पैसे को जोड़ते जाते हैं, जोड़ते जाते हैं। वह पैसे की पावर को इतना निश्चय समझते हैं कि उसके प्रयोग की परीक्षा उन्हें दरकार नहीं है। बस खुद पैसे के जुड़ा होने पर उनका मन गवर् से भरा पूफला रहता है। मैंने कहा - यह कितना सामान ले आए! मित्रा ने सामने मनीबैग पैफला दिया, कहा - यह देख्िाए। सब उड़ गया, अब जो रेल - टिकट के लिए भी बचा हो! मैंने तब तय माना कि और पैसा होता और सामान आता। वह सामान शरूरत की तरप़्ाफ देखकर नहीं आया, अपनी ‘पचेर्¯शग पावर’ के अनुपात में आया है। लेकिन ठहरिए। इस सिलसिले में एक और भी महत्त्व का तत्त्व है, जिसे नहीं भूलना चाहिए। उसका भी इस करतब में बहुत - वुफछ हाथ है। वह महत्त्व है, बाशार। मैंने कहा - यह इतना वुफछ नाहक ले आए! मित्रा बोले - वुफछ न पूछो। बाशार है कि शैतान का जाल है? ऐसा सजा - सजाकर माल रखते हैं कि बेहया ही हो जो न पँफसे। मैंने मन में कहा, ठीक। बाशार आमंत्रिात करता है कि आओ मुझे लूटो और लूटो। सब भूल जाओ, मुझे देखो। मेरा रूप और किसके लिए है? मैं तुम्हारे लिए हूँ। नहीं वुफछ चाहते हो, तो भी देखने में क्या हरश है। अजी आओ भी। इस आमंत्राण में यह खूबी है कि आग्रह नहीं है आग्रह तिरस्कार जगाता है। लेकिन उफँचे बाशार का आमंत्राण मूक होता है और उससे चाह जगती है। चाह मतलब अभाव। चैक बाशार में खड़े होकर आदमी को लगने लगता है कि उसके अपने पास कापफी नहीं है और चाहिए, और चाहिए। मेरे यहाँ कितना परिमित है़और यहाँ कितना अतुलित है ओह! कोइर् अपने को न जाने तो बाशार का यह चैक उसे कामना से विकल बना छोड़े। विकल क्यों, पागल। असंतोष, तृष्णा और इर्ष्यार् से घायल कर मनुष्य को सदा के लिए यह बेकार बना डाल सकता है। एक और मित्रा की बात है। यह दोपहर के पहले के गए - गए बाशार से कहीं शाम को वापिस आए। आए तो खाली हाथ! आरोह मैंने पूछा - कहाँ रहे? बोले - बाशार देखते रहे। मैंने कहा - बाशार को देखते क्या रहे? बोले - क्यों? बाशार! तब मैंने कहा - लाए तो वुफछ नहीं! बोले - हाँ पर यह समझ न आता था कि न लूँ तो क्या? सभी वुफछ तो लेने को जी होता था। वुफछ लेने का मतलब था शेष सब - वुफछ को छोड़ देना। पर मैं वुफछ भी नहीं छोड़ना चाहता था। इससे मैं वुफछ भी नहीं ले सका। मैंने कहा - खूब! पर मित्रा की बात ठीक थी। अगर ठीक पता नहीं है कि क्या चाहते हो तो सब ओर की चाह तुम्हें घेर लेगी। और तब परिणाम त्रास ही होगा, गति नहीं होगी, न कमर्। बाशार में एक जादू है। वह जादू आँख की राह काम करता है। वह रूप का जादू है पर जैसे चंुबक का जादू लोहे पर ही चलता है, वैसे ही इस जादू की भी मयार्दा है। जेब भरी हो, और मन खाली हो, ऐसी हालत में जादू का असर खूब होता है। जेब खाली पर मन भरा न हो, तो भी जादू चल जाएगा। मन खाली है तो बाशार की अनेकानेक चीशों का निमंत्राण उस तक पहुँच जाएगा। कहीं हुइर् उस वक्त जेब भरी तब तो पिफर वह मन किसकी मानने वाला है! मालूम होता है यह भी लूँ, वह भी लूँ। सभी सामान शरूरी और आराम को बढ़ाने वाला मालूम होता है। पर यह सब जादू का असर है। जादू की सवारी उतरी कि पता चलता है कि प़् ौंफसी चीशों की बहुतायत आराम में मदद नहीं देती, बल्िक खलल ही डालती है। थोड़ी देर को स्वाभ्िामान को शरूर सेंक मिल जाता है पर इससे अभ्िामान की गिल्टी की और खुराक ही मिलती है। जकड़ रेशमी डोरी की हो तो रेशम के स्पशर् के मुलायम के कारण क्या वह कम जकड़ होगी? पर उस जादू की जकड़ से बचने का एक सीधा - सा उपाय है। वह यह कि बाशार जाओ तो खाली मन न हो। मन खाली हो, तब बाशार न जाओ। कहते हैं लू में जाना हो तो पानी पीकर जाना चाहिए। पानी भीतर हो, लू का लूपन व्यथर् हो जाता है। मन लक्ष्य में भरा हो तो बाशार भी पैफला - का - पैफला ही रह जाएगा। तब वह घाव बिलवुफल नहीं दे सकेगा, बल्िक वुफछ आनंद ही देगा। तब बाशार तुमसे वृफताथर् होगा, क्योंकि तुम वुफछ - न - वुफछ सच्चा लाभ उसे दोगे। बाशार की असली वृफताथर्ता है आवश्यकता के समय काम आना। यहाँ एक अंतर चीन्ह लेना बहुत शरूरी है। मन खाली नहीं रहना चाहिए, इसका मतलब यह नहीं है कि वह मन बंद रहना चाहिए। जो बंद हो जाएगा, वह शून्य हो जाएगा। शून्य होने का अिाकार बस परमात्मा का है जो सनातन भाव से संपूणर् है। शेष सब अपूणर् है। इससे मन बंद नहीं रह सकता। सब इच्छाओं का निरोध कर लोगे, यह झूठ है और अगर ‘इच्छानिरोधस्तपः’ का ऐसा ही नकारात्मक अथर् हो तो वह तप झूठ है। वैसे तप की राह रेगिस्तान को जाती होगी, मोक्ष की राह वह नहीं है। ठाठ देकर मन को बंद कर रखना जड़ता है। लोभ का यह जीतना नहीं है कि जहाँ लोभ होता है, यानी मन में, वहाँ नकार हो! यह तो लोभ की ही जीत है और आदमी की हार। आँख अपनी पफोड़ डाली, तब लोभनीय के दशर्न से बचे तो क्या हुआ? ऐसे क्या लोभ मिट जाएगा? और कौन कहता है कि आँख पूफटने पर रूप दीखना बंद हो जाएगा? क्या आँख बंद करके ही हम सपने नहीं लेते हैं? और वे सपने क्या चैन - भंग नहीं करते हैं? इससे मन को बंद कर डालने की कोश्िाश तो अच्छी नहीं। वह अकारथ है यह तो हठवाला योग है। शायद हठ - ही - हठ है, योग नहीं है। इससे मन वृफश भले हो जाए और पीला और अशक्त जैसे विद्वान का ज्ञान। वह मुक्त ऐसे नहीं होता। इससे वह व्यापक की जगह संकीणर् और विराट की जगह क्षुद्र होता है। इसलिए उसका रोम - रोम मूँदकर बंद तो मन को करना नहीं चाहिए। वह मन पूणर् कब है? हम में पूणर्ता होती तो परमात्मा से अभ्िाÂ हम महाशून्य ही न होते? अपूणर् हैं, इसी से हम हैं। सच्चा ज्ञान सदा इसी अपूणर्ता के बोध को हम में गहरा करता है। सच्चा कमर् सदा इस अपूणर्ता की स्वीवृफति के साथ होता है। अतः उपाय कोइर् वही हो सकता है जो बलात् मन को रोकने को न कहे, जो मन को भी इसलिए सुने क्योंकि वह अप्रयोजनीय रूप में हमें नहीं प्राप्त हुआ है। हाँ, मनमानेपन की छूट मन को न हो, क्योंकि वह अख्िाल का अंग है, खुद वुफल नहीं है। पड़ोस में एक महानुभाव रहते हैं जिनको लोग भगत जी कहते हैं। चूरन बेचते हैं। यह काम करते, जाने उन्हें कितने बरस हो गए हैं। लेकिन किसी एक भी दिन चूरन से उन्होंने छः आने पैसे से श्यादा नहीं कमाए। चूरन उनका आस - पास सरनाम है। और खुद खूब लोकपि्रय हैं। कहीं व्यवसाय का गुर पकड़ लेते और उस पर चलते तो आज खुशहाल क्या मालामाल होते! क्या वुफछ उनके पास न होता! इधर दस वषो± से मैं देख रहा हूँ, उनका चूरन हाथों - हाथ बिक जाता है। पर वह न उसे थोक देते हैं, न व्यापारियों को बेचते हैं। पेशगी आडर्र कोइर् नहीं लेते। बँधे वक्त पर अपनी चूरन की पेटी लेकर घर से बाहर हुए नहीं कि देखते - देखते छह आने की कमाइर् उनकी हो जाती है। लोग उनका चूरन लेने को उत्सुक जो रहते हैं। चूरन से भी अिाक शायद वह भगत जी के प्रति अपनी सद्भावना का देय देने को उत्सुक रहते हैं। पर छह आने पूरे हुए नहीं कि भगतजी बाकी चूरन बालकों को मुफ्ऱत बाँट देते हैं। कभी ऐसा नहीं हुआ है कि कोइर् उन्हें पच्चीसवाँ पैसा भी दे सके। कभी चूरन में लापरवाही नहीं हुइर् है, और कभी रोग होता भी मैंने उन्हें नहीं देखा है। आरोह और तो नहीं, लेकिन इतना मुझे निश्चय मालूम होता है कि इन चूरनवाले भगत जी पर बाशार का जादू नहीं चल सकता। कहीं आप भूल न कर बैठिएगा। इन पंक्ितयों को लिखने वाला मैं चूरन नहीं बेचता हूँ। जी नहीं, ऐसी हलकी बात भी न सोचिएगा। यह समझिएगा कि लेख के किसी भी मान्य पाठक से उस चूरन वाले को श्रेष्ठ बताने की मैं हिम्मत कर सकता हूँ। क्या जाने उस भोले आदमी को अक्षर - ज्ञान तक भी है या नहीं । और बड़ी बातें तो उसे मालूम क्या होंगी। और हम - आप न जाने कितनी बड़ी - बड़ी बातें जानते हैं। इससे यह तो हो सकता है कि वह चूरन वाला भगत हम लोगों के सामने एकदम नाचीश आदमी हो। लेकिन आप पाठकों की विद्वान श्रेणी का सदस्य होकर भी मैं यह स्वीकार नहीं करना चाहता हूँ कि उस अपदाथर् प्राणी को वह प्राप्त है जो हम में से बहुत कम को शायद प्राप्त है। उस पर बाशार का जादू वार नहीं कर पाता। माल बिछा रहता है, और उसका मन अडिग रहता है। पैसा उससे आगे होकर भीख तक माँगता है कि मुझे लो। लेकिन उसके मन में पैसे पर दया नहीं समाती। वह निमर्म व्यक्ित पैसे को अपने आहत गवर् में बिलखता ही छोड़ देता है। ऐसे आदमी के आगे क्या पैसे की व्यंग्य - शक्ित वुफछ भी चलती होगी? क्या वह शक्ित वंुफठित रहकर सलज्ज ही न हो जाती होगी? पैसे की व्यंग्य - शक्ित की सुनिए। वह दारफण है। मैं पैदल चल रहा हूँ कि पास ही धूल उड़ाती निकल गइर् मोटर। वह क्या निकली मेरे कलेजे को कौंधती एक कठिन व्यंग्य की लीक ही आर - से - पार हो गइर्। जैसे किसी ने आँखों में उँगली देकर दिखा दिया हो कि देखो, उसका नाम है मोटर, और तुम उससे वंचित हो! यह मुझे अपनी ऐसी विडंबना मालूम होती है कि बस पूछिए नहीं। मैं सोचने को हो आता हूँ कि हाय, ये ही माँ - बाप रह गए थे जिनके यहाँ मैं जन्म लेने को था! क्यों न मैं मोटरवालों के यहाँ हुआ! उस व्यंग्य में इतनी शक्ित है कि शरा में मुझे अपने सगों के प्रति वृफतघ्न कर सकती है। लेकिन क्या लोकवैभव की यह व्यंग्य - शक्ित उस चूरन वाले अ¯कचित्कर मनुष्य के आगे चूर - चूर होकर ही नहीं रह जाती? चूर - चूर क्यों, कहो पानी - पानी। तो वह क्या बल है जो इस तीखे व्यंग्य के आगे ही अजेय ही नहीं रहता, बल्िक मानो उस व्यंग्य की व्रूफरता को ही पिघला देता है? उस बल को नाम जो दोऋ पर वह निश्चय उस तल की वस्तु नहीं है जहाँ पर संसारी वैभव पफलता - पूफलता है। वह वुफछ अपर जाति का तत्त्व है। लोग स्िपरिचुअल कहते हैंऋ आत्िमक, धामिर्क, नैतिक कहते हैं। मुझे योग्यता नहीं कि मैं उन शब्दों में अंतर देखूँ और प्रतिपादन करूँ। मुझे शब्द से सरोकार नहीं। मैं विद्वान नहीं कि शब्दों पर अटवूफँ। लेकिन इतना तो है कि जहाँ तृष्णा है, बटोर रखने की स्पृहा है, वहाँ उस बल का बीज नहीं है। बल्िक यदि उसी बल को सच्चा बल मानकर बात की जाए तो कहना होगा कि संचय की तृष्णा और वैभव की चाह में व्यक्ित की निबर्लता ही प्रमाण्िात होती है। निबर्ल ही धन की ओर झुकता है। वह अबलता है। वह मनुष्य पर धन की और चेतन पर जड़ की विजय है। एक बार चूरन वाले भगत जी बाशार चैक में दीख गए। मुझे देखते ही उन्होंने जय - जयराम किया। मैंने भी जयराम कहा। उनकी आँखें बंद नहीं थीं और न उस समय वह बाशार को किसी भाँति कोस रहे मालूम होते थे। राह में बहुत लोग, बहुत बालक मिले जो भगत जी द्वारा पहचाने जाने के इच्छुक थे। भगत जी ने सबको ही हँसकर पहचाना। सबका अभ्िावादन लिया और सबको अभ्िावादन किया। इससे तनिक भी यह नहीं कहा जा सकेगा कि चैक - बाशार में होकर उनकी आँखें किसी से भी कम खुली थीं। लेकिन भौंचक्के हो रहने की लाचारी उन्हें नहीं थी। व्यवहार में पसोपेश उन्हें नहीं था और खोए - से खड़े नहीं वह रह जाते थे। भाँति - भाँति के बढि़या माल से चैक भरा पड़ा है। उस सबके प्रति अप्रीति इस भगत के मन में नहीं है। जैसे उस समूचे माल के प्रति भी उनके मन में आशीवार्द हो सकता है। विद्रोह नहीं, प्रसÂता ही भीतर है, क्योंकि कोइर् रिक्त भीतर नहीं है। देखता हूँ कि खुली आँख, तुष्ट और मग्न, वह चैक - बाशार में से चलते चले जाते हैं। राह में बड़े - बड़े पैंफसी स्टोर पड़ते हैं, पर पड़े रह जाते हैं। कहीं भगत नहीं रफकते । रफकते हैं तो एक छोटी पंसारी की दुकान पर रफकते हैं। वहाँ दो - चार अपने काम की चीश लीं, और चले आते हैं। बाशार से हठपूवर्क विमुखता उनमें नहीं हैऋ लेकिन अगर उन्हें जीरा और काला नमक चाहिए तो सारे चैक - बाशार की सत्ता उनके लिए तभी तक है, तभी तक उपयोगी है, जब तक वहाँ जीरा मिलता है। शरूरत - भर जीरा वहाँ से ले लिया कि पिफर सारा चैक उनके लिए आसानी से नहीं के बराबर हो जाता है। वह जानते हैं कि जो उन्हें चाहिए वह है जीरा नमक। बस इस निश्िचत प्रतीति के बल पर शेष सब चाँदनी चैक का आमंत्राण उन पर व्यथर् होकर बिखरा रहता है। चैक की चाँदनी दाएँ - बाएँ भूखी - की - भूखी पैफली रह जाती हैऋ क्योंकि भगत जी को जीरा चाहिए वह तो कोने वाली पंसारी की दुकान से मिल जाता है और वहाँ से सहज भाव में ले लिया गया है। इसके आगे आस - पास अगर चाँदनी बिछी रहती है तो बड़ी खुशी से बिछी रहे, भगत जी से बेचारी का कल्याण ही चाहते हैं। यहाँ मुझे ज्ञात होता है कि बाशार को साथर्कता भी वही मनुष्य देता है जो जानता है कि वह क्या चाहता है। और जो नहीं जानते कि वे क्या चाहते हैं, अपनी ‘पचे±जिग पावर’ के गवर् में अपने पैसे से केवल एक विनाशक शक्ित - शैतानी शक्ित, व्यंग्य की शक्ित ही बाशार को देते हैं। न तो वे बाशार से लाभ उठा सकते हैं, न उस बाशार को सच्चा लाभ दे सकते हैं। वे लोग बाशार का बाशारूपन बढ़ाते हैं। जिसका मतलब है कि कपट बढ़ाते हैं। कपट की बढ़ती का अथर् परस्पर में सद्भाव की घटी। इस सद्भाव के ”ास पर आदमी आपस में भाइर् - भाइर् और सुहृद और पड़ोसी पिफर रह ही नहीं जाते हैं और आपस में कोरे आरोह गाहक और बेचक की तरह व्यवहार करते हैं। मानो दोनों एक - दूसरे को ठगने की घात में हों। एक की हानि में दूसरे का अपना लाभ दीखता है और यह बाशार का, बल्िक इतिहास काऋ सत्य माना जाता है ऐसे बाशार को बीच में लेकर लोगों में आवश्यकताओं का आदान - प्रदान नहीं होताऋ बल्िक शोषण होने लगता है तब कपट सपफल होता है, निष्कपट श्िाकार होता है। ऐसे बाशार मानवता के लिए विडंबना हैं और जो ऐसे बाशार का पोषण करता है, जो उसका शास्त्रा बना हुआ हैऋ वह अथर्शास्त्रा सरासर औंधा है वह मायावी शास्त्रा है वह अथर्शास्त्रा अनीति - शास्त्रा है। अभ्यास पाठ के साथ 1.बाशार वफा जादू चढ़ने और उतरने पर मनुष्य पर क्या - क्या असर पड़ता है? 2.बाशार में भगत जी के व्यक्ितत्व का कौन - सा सशक्त पहलू उभरकर आता है? क्या आपकी नशर में उनका आचरण समाज में शांति - स्थापित करने में मददगार हो सकता है? 3.‘बाशारूपन’ से क्या तात्पयर् है? किस प्रकार के व्यक्ित बाशार को साथर्कता प्रदान करते हैं अथवा बाशार की साथर्कता किसमें है? 4.बाशार किसी का ¯लग, जाति, ध्मर् या क्षेत्रा नहीं देखताऋ वह देखता है सिप़् ार्फ उसकी क्रय शक्ित को। इस रूप में वह एक प्रकार से सामाजिक समता की भी रचना कर रहा है। आप इससे कहाँ तक सहमत हैं? 5. आप अपने तथा समाज से वुफछ ऐसे प्रसंग का उल्लेख करें - ;कद्ध जब पैसा शक्ित के परिचायक के रूप में प्रतीत हुआ। ;खद्ध जब पैसे की शक्ित काम नहीं आइर्। पाठ के आसपास 1.बाशार दशर्न पाठ में बाशार जाने या न जाने के संदभर् में मन की कइर् स्िथतियों का िाक्र आया है। आप इन स्िथतियों से जुडे़ अपने अनुभवों का वणर्न कीजिए। ;कद्ध मन खाली हो ;खद्ध मन खाली न हो ;गद्ध मन बंद हो ;घद्ध मन में नकार हो 2.बाशार दशर्न पाठ में किस प्रकार के ग्राहकों की बात हुइर् है? आप स्वयं को किस श्रेणी का ग्राहक मानते/मानती हैं? 3. आप बाशार की भ्िाÂ - भ्िाÂ प्रकार की संस्वृफति से अवश्य परिचित होंगे। माॅल की संस्वृफति और सामान्य बाशार और हाट की संस्वृफति में आप क्या अंतर पाते हैं? पचेर्¯शग पावर आपको किस तरह के बाशार में नशर आती है? 4 लेखक ने पाठ में संकेत किया है कि कभी - कभी बाशार में आवश्यकता ही शोषण का रूप धारण कर लेती है। क्या आप इस विचार से सहमत हैं? तवर्फ सहित उत्तर दीजिए। 5 स्त्राी माया न जोड़े यहाँ माया शब्द किस ओर संकेत कर रहा है? स्ित्रायों द्वारा माया जोड़ना प्रवृफति प्रदत्त नहीं, बल्िक परिस्िथतिवश है। वे कौन - सी परिस्िथतियाँ हैं जो स्त्राी को माया जोड़ने के लिए विवश कर देती हैं? आपसदारी 1.शरूरत - भर जीरा वहाँ से ले लिया कि पिफर सारा चैक उनके लिए आसानी से नहीं के बराबर हो जाता है - भगत जी की इस संतुष्ट निस्पृहता की कबीर की इस सूक्ित से तुलना कीजिए - 2 देखेंगे/देखेंगी कि भगत जी की संतुष्ट जीवन - दृष्िट की तरह ही गड़रिए की जीवन - दृष्िट है, इससे 3.बाशार पर आधारित लेख नकली सामान पर नकेल शरूरी का अंश पढि़ए और नीचे दिए गए ¯बदुओं पर कक्षा में चचार् कीजिए। ;कद्ध नकली सामान के ख्िालाप़्ाफ जागरूकता के लिए आप क्या कर सकते हैं? ;खद्ध उपभोक्ताओं के हित को मद्देनशर रखते हुए सामान बनाने वाली कंपनियों का क्या नैतिक दायित्व हैं? ;गद्ध ब्रांडेड वस्तु को खरीदने के पीछे छिपी मानसिकता को उजागर कीजिए? 4.प्रेमचंद की कहानी इर्दगाह के हामिद और उसके दोस्तों का बाशार से क्या संबंध् बनता है? विचार करें। विज्ञापन की दुनिया 1 आपने समाचारपत्रों, टी.वी. आदि पर अनेक प्रकार के विज्ञापन देखे होंगे जिनमें ग्राहकों को हर तरीके से लुभाने का प्रयास किया जाता है। नीचे लिखे बिंदुओं के संदभर् में किसी एक विज्ञापन की समीक्षा कीजिए और यह भी लिख्िाए कि आपको विज्ञापन की किस बात ने सामान खरीदने के लिए प्रेरित किया। 1 विज्ञापन में सम्िमलित चित्रा और विषय - वस्तु 2 विज्ञापन में आए पात्रा व उनका औचित्य 3 विज्ञापन की भाषा 2 अपने सामान की बिक्री को बढ़ाने के लिए आज किन - किन तरीकों का प्रयोग किया जा रहा है? उदाहरण सहित उनका संक्ष्िाप्त परिचय दीजिए। आप स्वयं किस तकनीक या तौर - तरीके का प्रयोग करना चाहेंगे जिससे बिक्री भी अच्छी हो और उपभोक्ता गुमराह भी न हो। भाषा की बात 1.विभ्िान्न परिस्िथतियों में भाषा का प्रयोग भी अपना रूप बदलता रहता है कभी औपचारिक रूप में आती है तो कभी अनौपचारिक रूप में। पाठ में से दोनों प्रकार के तीन - तीन उदाहरण छाँटकर लिख्िाए। 2.पाठ में अनेक वाक्य ऐसे हैं, जहाँ लेखक अपनी बात कहता है वुफछ वाक्य ऐसे है जहाँ वह पाठक - वगर् को संबोिात करता है। सीधे तौर पर पाठक को संबोिात करने वाले पाँच वाक्यों को छाँटिए और सोचिए कि ऐसे संबोधन पाठक से रचना पढ़वा लेने में मददगार होते हैं? 3.नीचे दिए गए वाक्यों को पढि़ए। ;कद्ध पैसा पावर है। ;खद्ध पैसे की उस पचेर्¯शग पावर के प्रयोग में ही पावर का रस है। ;गद्ध मित्रा ने सामने मनीबैग पैफला दिया। ;घद्ध पेशगी आॅडर्र कोइर् नहीं लेते। उफपर दिए गए इन वाक्यों की संरचना तो हिंदी भाषा की है लेकिन वाक्यों में एकाध शब्द अंग्रेशी भाषा के आए हैं । इस तरह के प्रयोग को कोड मिक्िसंग कहते हैं। एक भाषा के शब्दों के साथ दूसरी भाषा के शब्दों का मेलजोल! अब तक आपने जो पाठ पढ़े उसमें से ऐसे कोइर् पाँच उदाहरण चुनकर लिख्िाए। यह भी बताइए कि आगत शब्दों की जगह उनके ¯हदी पयार्यों का ही प्रयोग किया जाए तो संप्रेषणीयता पर क्या प्रभाव पड़ता है। आरोह 4.नीचे दिए गए वाक्यों के रेखांकित अंश पर ध्यान देते हुए उन्हें पढि़ए - ;कद्ध निबर्ल ही धन की ओर झुकता है। ;खद्ध लोग संयमी भी होते हैं। ;गद्ध सभी वुफछ तो लेने को जी होता था। उफपर दिए गए वाक्यों के रेखांकित अंश ‘ही’, ‘भी’,‘तो’ निपात हैं जो अथर् पर बल देने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं। वाक्य में इनके होने - न - होने और स्थान क्रम बदल देने से वाक्य के अथर् पर प्रभाव पड़ता है, जैसे - मुझे भी किताब चाहिए। ;मुझे महत्त्वपूणर् है।द्ध मुझे किताब भी चाहिए। ;किताब महत्त्वपूणर् है।द्ध आप निपात ;ही, भी, तोद्ध का प्रयोग करते हुए तीन - तीन वाक्य बनाइए। साथ ही ऐसे दो वाक्यों का भी निमार्ण कीजिए जिसमें ये तीनों निपात एक साथ आते हों। चचार् करें 1.पचेर्¯शग पावर से क्या अभ्िाप्राय है? बाशार की चकाचैंध से दूर पचेर्¯शग पावर का सकारात्मक उपयोग किस प्रकार किया जा सकता है? आपकी मदद के लिए संकेत दिया जा रहा है - ;कद्ध सामाजिक विकास के कायो± में। ;खद्ध ग्रामीण आथ्िार्क व्यवस्था को सुदृढ़ करने में...। शब्द - छवि पचेर्¯शग पावर - खरीदने की शक्ित असबाब - सामान दरकार - शरूरत परिमित - सीमित अतुलित - जिसकी तुलना न की जा सके पेशगी - अगि्रम राश्िा नाचीश - महत्त्वहीन अपदाथर् - जिसका अस्ितत्व न हो दारफण - भयंकर अ¯कचित्कर - अथर्हीन स्पृहा - इच्छा पसोपेश - असमंजस

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