
धमर्वीर भारती 13 जन्म: सन् 1926, इलाहाबाद ;उत्तर प्रदेशद्ध प्रमुख रचनाएँ: कनुपि्रया, सात - गीत वषर्, ठंडा लोहा ;कविता संग्रहद्धऋ बंद गली का आख्िारी मकान ;कहानी - संग्रहद्धऋ सूरज का सातवाँ घोड़ा, गुनाहों का देवता ;उपन्यासद्धऋ अंधा युग ;गीतिनाट्यद्धऋ पश्यंती, कहनी - अनकहनी, मानव मूल्य और साहित्य, ठेले पर हिमालय ;निबंध - संग्रहद्ध प्रमुख सम्मान: पद्मश्री, व्यास सम्मान एवं साहित्य के कइर् अन्य राष्ट्रीय पुरस्कार निधन: सन् 1997 अपनी सहज प्रवृिायों को मारो मत, लेकिन उनके दास भी न बनो। जीवन के सहज प्रवाह में उन्हें आने दो, पफलीभूत होने दो। पर यदि वे निरंवुफशता से हावी होने लगें तो उन्हें भस्म कर देने की तेजस्िवता और आत्मनियंत्राण भी रखो। गुनाहों का देवता उपन्यास से लोकपि्रय धमर्वीर भारती का आशादी के बाद के साहित्यकारों में विश्िाष्ट स्थान है। उनकी कविताएँ, कहानियाँ, उपन्यास, निबंध, गीतिनाट्य और रिपोतार्ज ¯हदी साहित्य की उपलब्िधयाँ हैं। भारती जी के लेखन की एक खासियत यह भी है कि हर उम्र और हर वगर् के पाठकों के बीच उनकी अलग - अलग रचनाएँ लोकपि्रय हैं। वे मूल रूप से व्यक्ित स्वातंत्रय, मानवीय संकट एवं रोमानी चेतना के रचनाकार हैं। तमाम सामाजिकता एवं उत्तरदायित्वों के बावजूद उनकी रचनाओं में व्यक्ित की स्वतंत्राता ही सवोर्परि है। रफमानियत उनकी रचनाओं में संगीत में लय की तरह मौजूद है। उनका सवार्िाक लोकपि्रय उपन्यास गुनाहों का देवता एक सरस और भावप्रवण प्रेम कथा है। दूसरे लोकपि्रय उपन्यास सूरज का सातवांँ घोड़ा पर ¯हदी प्िाफल्म भी बन चुकी है। इस उपन्यास में प्रेम को केंद्र में़रखकर निम्न मध्यवगर् की हताशा, आथ्िर्ाक संघषर्, नैतिक विचलन और अनाचार को चित्रिात आरोह किया गया है। स्वतंत्राता के बाद गिरते हुए जीवन मूल्य, अनास्था, मोहभंग, विश्वयु(ों से उपजा हुआ डर और अमानवीयता की अभ्िाव्यक्ित अंधा युग में हुइर् है। अंधा युग गीतिसाहित्य के श्रेष्ठ गीतिनाट्यों में है। मानव मूल्य और साहित्य पुस्तक समाज - सापेक्ष्िाता को साहित्य के अनिवायर् मूल्य के रूप में विवेचित करती है। इन विधाओं के अलावा भारती जी ने निबंध और रिपोतार्ज भी लिखे। उनके गद्य लेखन में सहजता और आत्मीयता है। बड़ी - से - बड़ी बात वो बातचीत की शैली में कहते हैं और सीधे पाठकों के मन को छू लेते हैं। एक लंबे समय तक ¯हदी की साप्ताहिक पत्रिाका धमर्युग ;प्िाफलहाल प्रकाशन बंद हैद्ध के संपादक रहते हुए हिंदी पत्राकारिता को सजा - सँवारकर गंभीऱपत्राकारिता का एक मानक बनाया। उन लोगों के दो नाम थे - इंदर सेना या मेढक - मंडली। बिलवुफल एक - दूसरे के विपरीत। जो लोग उनके नग्नस्वरूप शरीर, उनकी उछलवूफद, उनके शोर - शराबे और उनके कारण गली में होनेवाले कीचड़ काँदो से चिढ़ते थे, वे उन्हें कहते थे मेढक - मंडली। उनकी अगवानी गालियों से होती थी। वे होते थे दस - बारह बरस से सोलह - अठारह बरस के लड़के, साँवला नंगा बदन सिपर्फ एक जाँघ्िाया या कभी - कभी सिप़़्ार्फ लंगोटी। एक जगह इकऋे होते थे। पहला जयकारा लगता था, फ्बोल गंगा मैया की जय।य् जयकारा सुनते ही लोग सावधान हो जाते थे। स्ित्रायाँ और लड़कियाँ छज्जे, बारजे से झाँकने लगती थीं और यह विचित्रा नंग - धड़ंग टोली उछलती - वूफदती समवेत पुकार लगाती थीः काले मेघा पानी दे गगरी पूफटी बैल पियासा पानी दे, गुड़धानी दे काले मेघा पानी दे। उछलते - वूफदते, एक - दूसरे को धकियाते ये लोग गली में किसी दुमहले मकान के सामने रफक जाते, फ्पानी दे मैया, इंदर सेना आइर् है।य् और जिन घरों में आखीर जेठ या शुरू आषाढ़ के उन सूखे दिनों में पानी की कमी भी होती थी, जिन घरों के वुफएँ भी सूखे होते थे, उन घरों से भी सहेज कर रखे हुए पानी मंे से बाल्टी या घड़े भर - भर कर इन बच्चों को सर से पैर तक तर कर दिया जाता था। ये भीगे बदन मि‘ी में लोट लगाते थे, पानी पेंफकने से पैदा हुए कीचड़ में लथपथ हो जाते थे। हाथ, पाँव, बदन, मुँह, पेट सब पर गंदा कीचड़ मल कर पिफर हाँक लगाते फ्बोल गंगा मैया की जयय् और पिफर मंडली बाँध कर उछलते - वूफदते अगले घर की ओर चल पड़ते बादलों को टेरते, फ्काले मेघा पानी दे।य् वे सचमुच ऐसे दिन होते जब गली - मुहल्ला, गाँव - शहर हर जगह लोग गरमी मंे भुन - भुन कर त्राहिमाम कर रहे होते, जेठ के दसतपा बीत कर आषाढ़ का पहला पखवारा भी बीत चुका होता पर क्ष्िातिज पर कहीं बादल की रेख भी नहीं दीखती होती, वुफएँ सूखने लगते, नलों में एक तो बहुत कम पानी आता और आता भी तो आधी रात को भी मानो खौलता हुआ पानी हो। शहरों की तुलना में गाँव में और भी हालत खराब होती थी। जहाँ जुताइर् होनी चाहिए वहाँ खेतों की मि‘ी सूख कर पत्थर हो जाती, पिफर उसमें पपड़ी पड़ कर शमीन पफटने लगती, लू ऐसी कि चलते - चलते आदमी आधे रास्ते मंे लू खा कर गिर पड़े। ढोर - ढंगर प्यास के मारे मरने लगते लेकिन बारिश का कहीं नाम निशान नहीं, ऐसे में पूजा - पाठ कथा - विधान सब करके लोग जब हार जाते तब अंतिम उपाय के रूप में निकलती यह इंदर सेना। वषार् के बादलों के स्वामी, हैं इंद्र और इंद्र की सेना टोली बाँध कर कीचड़ में लथपथ निकलती, पुकारते हुए मेघों को, पानी माँगते हुए प्यासे गलों और सूखे खेतों के लिए। पानी की आशा पर जैसे सारा जीवन आकर टिक गया हो। बस एक बात मेरे समझ में नहीं आती थी कि जब चारों ओर पानी की इतनी कमी है तो लोग घर मंे इतनी कठिनाइर् से इकऋा करके रखा आरोह की कितनी क्षति होती है इस तरह के अंधविश्वासों से। कौन कहता है इन्हंे इंद्र की सेना? अगर इंद्र महाराज से ये पानी दिलवा सकते हैं तो खुद अपने लिए पानी क्यों नहीं माँग लेते? क्यों मुहल्ले भर का पानी नष्ट करवाते घूमते हैं, नहीं यह सब पाखंड है। अंधविश्वास है। ऐसे ही अंधविश्वासों के कारण हम अंग्रेशों से पिछड़ गए और गुलाम बन गए। मैं असल में था तो इन्हीं मेढक - मंडली वालों की उमर का, पर वुफछ तो बचपन के आयर्समाजी संस्कार थे और एक वुफमार - सुधार सभा कायम हुइर् थी उसका उपमंत्राी बना दिया गया था - सो समाज - सुधार का जोश वुफछ श्यादा ही था। अंधविश्वासों के ख्िालाप़्ाफ तो तरकस में तीर रख कर घूमता रहता था। मगर मुश्िकल यह थी कि मुझे अपने बचपन में जिससे सबसे श्यादा प्यार मिला वे थीं जीजी। यूँ मेरी रिश्ते में कोइर् नहीं थीं। उम्र में मेरी माँ से भी बड़ी थीं, पर अपने लड़के - बहू सबको छोड़ कर उनके प्राण मुझी में बसते थे। और वे थीं उन तमाम रीति - रिवाजों, तीज - त्योहारों, पूजा - अनुष्ठानों की खान जिन्हें वुफमार - सुधार सभा का यह उपमंत्राी अंधविश्वास कहता था, और उन्हें जड़ से उखाड़ पेंफकना चाहता था। पर मुश्िकल यह थी कि उनका कोइर् पूजा - विधान, कोइर् त्योहार अनुष्ठान मेरे बिना पूरा नहीं होता था। दीवाली है तो गोबर और कौडि़यों से गोवधर्न और सतिया बनाने में लगा हूँ, जन्माष्टमी है तो रोश आठ दिन की झाँकी तक को सजाने और पँजीरी बाँटने में लगा हूँ, हर - छठ है तो छोटी रंगीन वुफल्िहयों में भूजा भर रहा हूँ। किसी में भुना चना, किसी में भुनी मटर, किसी में भुने अरवा चावल, किसी में भुना गेहूँ। जीजी यह सब मेरे हाथों से करातीं, ताकि उनका पुण्य मुझे मिले। केवल मुझे। लेकिन इस बार मैंने साप़्ाफ इनकार कर दिया। नहीं पेंफकना है मुझे बाल्टी भर - भर कर पानी इस गंदी मेढक - मंडली पर। जब जीजी बाल्टी भर वफर पानी ले गईं उनके बूढ़े पाँव डगमगा रहे थे, हाथ काँप रहे थे, तब भी मैं अलग मुँह पुफलाए खड़ा रहा। शाम को उन्होंने लं - मठरी खाने को दिए तो मैंने उन्हें हाथ से अलग ख्िासका दिया। मुँह पेफरकर बैठ गया,ूजीजी से बोला भी नहीं। पहले वे भी तमतमाइर्, लेकिन श्यादा देर तक उनसे गुस्सा नहीं रहा गया। पास आ कर मेरा सर अपनी गोद मंे लेकर बोलीं, फ्देख भइया रूठ मत। मेरी बात सुन। यह सब अंधविश्वास नहीं है। हम इन्हें पानी नहीं देेंगे तो इंद्र भगवान हमें पानी वैफसे देंगे?य् मैं वुफछ नहीं बोला। पिफर जीजी बोलीं। फ्तू इसे पानी की बरबादी समझता है पर यह बरबादी नहीं है। यह पानी का अघ्यर् चढ़ाते हैं, जो चीश मनुष्य पाना चाहता है उसे पहले देगा नहीं तो पाएगा वैफसे? इसीलिए ट्टष्िा - मुनियों ने दान को सबसे उँफचा स्थान दिया है।य् फ्ट्टष्िा - मुनियों को काहे बदनाम करती हो जीजी? क्या उन्होंने कहा था कि जब आदमी बूँद - बूँद पानी को तरसे तब पानी कीचड़ में बहाओ।य् वुफछ देर चुप रही जीजी, पिफर मठरी मेरे मुँह में डालती हुइर् बोलीं, फ्देख बिना त्याग के दान नहीं होता। अगर तेरे पास लाखों - करोड़ों रफपये हैं और उसमें से तू दो - चार रफपये किसी को दे दे तो यह क्या त्याग हुआ। त्याग तो वह होता है कि जो चीश तेरे पास भी कम है, जिसकी तुझको भी शरूरत है तो अपनी शरूरत पीछे रख कर दूसरे के कल्याण के लिए उसे दे तो त्याग तो वह होता है, दान तो वह होता है, उसी का पफल मिलता है।य् फ्पफल - वल वुफछ नहीं मिलता सब ढकोसला है।य् मैंने कहा तो, पर कहीं मेरे तको± का किला पस्त होने लगा था। मगर मैं भी जिद्द पर अड़ा था। पिफर जीजी बोलीं, फ्देख तू तो अभी से पढ़ - लिख गया है। मैंने तो गाँव के मदरसे का भी मुँह नहीं देखा। पर एक बात देखी है कि अगर तीस - चालीस मन गेहूँ उगाना है तो किसान पाँच - छह सेर अच्छा गेहूँ अपने पास से लेकर शमीन में क्यारियाँ बना कर पेंफक देता है। उसे बुवाइर् कहते हैं। यह जो सूखे हम अपने घर का पानी इन पर पेंफकते हैं वह भी बुवाइर् है। यह पानी गली में बोएँगे तो सारे शहर, कस्बा, गाँव पर पानीवाले बादलों की पफसल आ जाएगी। हम बीज बनाकर पानी देते हैं, पिफर काले मेघा से पानी माँगते हैं। सब ट्टष्िा - मुनि कह गए हैं कि पहले खुद दो तब देवता तुम्हें चैगुना - अठगुना करके लौटाएँगे भइया, यह तो हर आदमी का आचरण है, जिससे सबका आचरण बनता है। यथा राजा तथा प्रजा सिपर्फ यही़सच नहीं है। सच यह भी है कि यथा प्रजा तथा राजा। यही तो गांधी जी महाराज कहते हैं।य् जीजी का एक लड़का राष्ट्रीय आंदोलन में पुलिस की लाठी खा चुका था, तब से जीजी गांधी महाराज की बात अकसर करने लगी थीं। इन बातों को आज पचास से श्यादा बरस होने को आए पर ज्यों की त्यों मन पर दजर् हैं। कभी - कभी वैफसे - वैफसे संदभो± में ये बातें मन को कचोट जाती हैं, हम आज देश के लिए करते क्या हैं? माँगें हर क्षेत्रा में बड़ी - बड़ी हैं पर त्याग का कहीं नाम - निशान नहीं है। अपना स्वाथर् आज एकमात्रा लक्ष्य रह गया है। हम चटखारे लेकर इसके या उसके भ्रष्टाचार की बातें करते हैं पर क्या कभी हमने जाँचा है कि अपने स्तर पर अपने दायरे में हम उसी भ्रष्टाचार के अंग तो नहीं बन रहे हैं? काले मेघा दल के दल उमड़ते हैं, पानी झमाझम बरसता है, पर गगरी पूफटी की पूफटी रह जाती है, बैल पियासे के पियासे रह जाते हैं? आख्िार कब बदलेगी यह स्िथति? आरोह अभ्यास पाठ के साथ 1 लोगों ने लड़कों की टोली को मेढक - मंडली नाम किस आधार पर दिया? यह टोली अपने आपको इंदर सेना कहकर क्यों बुलाती थी? 2 जीजी ने इंदर सेना पर पानी पेंफके जाने को किस तरह सही ठहराया? 3 पानी दे, गुड़धानी दे मेघों से पानी के साथ - साथ गुड़धानी की माँग क्यों की जा रही है? 4 गगरी पूफटी बैल पियासा इंदर सेना के इस खेलगीत मंे बैलों के प्यासा रहने की बात क्यों मुखरित हुइर् है? 5 इंदर सेना सबसे पहले गंगा मैया की जय क्यों बोलती है? नदियों का भारतीय सामाजिक, सांस्वृफतिक परिवेश में क्या महत्त्व है? 6 रिश्तों में हमारी भावना - शक्ित का बँट जाना विश्वासों के जंगल में सत्य की राह खोजती हमारी बुि की शक्ित को कमशोर करती है। पाठ में जीजी के प्रति लेखक की भावना के संदभर् में इस कथन के औचित्य की समीक्षा कीजिए। पाठ के आसपास 1.क्या इंदर सेना आज के युवा वगर् का प्रेरणास्रोत हो सकती है? क्या आपके स्मृति - कोश में ऐसा कोइर् अनुभव है जब युवाओं ने संगठित होकर समाजोपयोगी रचनात्मक कायर् किया हो, उल्लेख करें। 2.तकनीकी विकास के दौर में भी भारत की अथर्व्यवस्था वृफष्िा पर निभर्र है। वृफष्िा - समाज में चैत्रा, वैशाख सभी माह बहुत महत्त्वपूणर् हंै पर आषाढ़ का चढ़ना उनमें उल्लास क्यों भर देता है? 3.पाठ के संदभर् में इसी पुस्तक में दी गइर् निराला की कविता बादल - राग पर विचार कीजिए और बताइए कि आपके जीवन में बादलों की क्या भूमिका है? 4.त्याग तो वह होता... उसी का पफल मिलता है। अपने जीवन के किसी प्रसंग से इस सूक्ित की साथर्कता समझाइए। 5.पानी का संकट वतर्मान स्िथति में भी बहुत गहराया हुआ है। इसी तरह के पयार्वरण से संब( अन्य संकटों के बारे में लिख्िाए। 6.आपकी दादी - नानी किस तरह के विश्वासों की बात करती हैं? ऐसी स्िथति में उनके प्रति आपका रवैया क्या होता है? लिख्िाए। चचार् करें 1.बादलों से संबिात अपने - अपने क्षेत्रा में प्रचलित गीतों का संवफलन करें तथा कक्षा में चचार् करें। 2.पिछले 15 - 20 सालों में पयार्वरण से छेड़ - छाड़ के कारण भी प्रवृफति - चक्र में बदलाव आया है, जिसका परिणाम मौसम का असंतुलन है। वतर्मान बाड़मेर ;राजस्थानद्ध मंे आइर् बाढ़, मुं बइर् की बाढ़ तथा महाराष्ट्र का भू कंप या पिफर सुनामी भी इसी का नतीजा है। इस प्रकार की घटनाओं से जुड़ी सूचनाओं, चित्रों का संकलन कीजिए और एक प्रदशर्नी का आयोजन कीजिए, जिसमें बाशार दशर्न पाठ में बनाए गए विज्ञापनों को भी शामिल कर सकते हैं। और हाँ ऐसी स्िथतियों से बचाव के उपाय पर पयार्वरण विशेषज्ञों की राय को प्रदशर्नी में मुख्य स्थान देना न भूलें। विज्ञापन की दुनिया 1.‘पानी बचाओ’ से जुड़े विज्ञापनों को एकत्रा कीजिए। इस संकट के प्रति चेतावनी बरतने के लिए आप किस प्रकार का विज्ञापन बनाना चाहेंगे? शब्द - छवि गुड़धानी - गुड़ और चने से बना एक प्रकार का लंू टेरते - पुकारते दसतपा - तपते दस दिन पखवारा - पंद्रह दिन की अविा ढोर - ढंगर - पशु सतिया - स्वस्ितक चिÉ अघ्यर् - जल चढ़ाना अरवा चावल - ऐसा चावल जिसे धान को बिना उबाले निकाला गया हो हर - छठ - जन्माष्टमी के दो दिन पूवर् मनाया जाने वाला पवर् ;पूवीर् उत्तर प्रदेश से संबंिातद्ध भूजा - भुना हुआ अÂ किला पस्त - हार जाना