
फणीश्वर नाथ रेणु 14 जन्म: 4 माचर्, सन् 1921, औराही ¯हगना ;िाला पूण्िर्ाया अब अररियाद्ध बिहार में प्रमुख रचनाएँ: मैला आँचल, परती परिकथा, दीघर्तपा, जुलूस, कितने चैराहे ;उपन्यासद्धऋ ठुमरी, अग्िानखोर, आदिम रात्रिा की महक, एक श्रावणी दोपहरी की धूप ;कहानी - संग्रहद्धऋ )णजल धनजल, वनतुलसी की गंध, श्रुत - अश्रुत पूवर् ;संस्मरणद्धऋ नेपाली क्रांति कथा ;रिपोतार्जद्धऋ तथा रेणु रचनावली ;पाँच खंडों में समग्रद्ध निधन: 11 अप्रैल, सन् 1977 पटना में नियम - कानून, नीति अथवा पफामूर्ले को तोड़कर बाहर निकल आते हैं़और अपने जीवन को अपने मन के मुताबिक गढ़ने लगते हैं। ¯हदी साहित्य में आंचलिक उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्िठत कथाकार पफणीश्वर नाथ रेणु का जीवन उतार - चढ़ावों एवं संघषो± से भरा हुआ था। साहित्य के अलावा विभ्िाÂ राजनैतिक एवं सामाजिक आंदोलनों में भी उन्होंने सिय भागीदारी की। उनकी यह भागीदारी एक ओर देश के निमार्ण में सिय रही तो दूसरी ओर रचनात्मक साहित्य को नया तेवर देने में सहायक रही। सन् 1954 में उनका बहुचच्िर्ात आंचलिक उपन्यास मैला आँचल प्रकाश्िात हुआ जिसने ¯हदी उपन्यास को एक नयी दिशा दी। ¯हदी जगत में आंचलिक उपन्यासों पर विमशर् मैला आँचल से ही प्रारंभ हुआ। आंचलिकता की अवधारणा ने कथा - साहित्य में गाँव की भाषा - संस्वृफति और वहाँ के लोक जीवन को वेंफद्र में ला खड़ा किया। लोकगीत, लोकोक्ित, लोकसंस्वृफति, लोकभाषा एवं लोकनायक की इस अवधारणा ने भारी - भरकम चीश एवं नायक की जगह अंचल को ही नायक बना डाला। उनकी रचनाओं में अंचल कच्चे और अनगढ़ रूप में ही आता है इसीलिए उनका यह अंचल एक तरप़्ाफ शस्य - श्यामल है तो दूसरी तरप़्ाफ धूल भरा और मैला भी। स्वातंत्रयोत्तर भारत में जब सारा विकास शहर - वेंफदि्रत होता जा रहा था। ऐसे में रेणु ने अपनी रचनाओं से अंचल की समस्याओं की ओर भी लोगों का ध्यान खींचा। उनकी रचनाएँ इस अवधारणा को भी पुष्ट करती हैं कि भाषा की साथर्कता बोली के साहचयर् में ही है। नहीं। आकाश से टूटकर यदि कोइर् भावुक तारा पृथ्वी पर जाना भी चाहता तो उसकी ज्योति और शक्ित रास्ते में ही शेष हो जाती थी। अन्य तारे उसकी भावुकता अथवा असपफलता पर ख्िालख्िालाकर हँस पड़ते थे। सियारों का व्रंफदन और पेचक की डरावनी आवाश कभी - कभी निस्तब्धता को अवश्य भंग कर देती थी। गाँव की झोंपडि़यों से कराहने और वैफ करने की आवाश, ‘हरे राम! हे भगवान!’ की टेर अवश्य सुनाइर् पड़ती थी। बच्चे भी कभी - कभी निबर्ल वंफठों से ‘माँ - माँ’ पुकारकर रो पड़ते थे। पर इससे रात्रिा की निस्तब्धता में विशेष बाधा नहीं पड़ती थी। वुफत्तों में परिस्िथति को ताड़ने की एक विशेष बुि होती है। वे दिन - भर राख के घूरों पर गठरी की तरह सिवुफड़कर, मन मारकर पड़े रहते थे। संध्या या गंभीर रात्रिा को सब मिलकर रोते थे। रात्रिा अपनी भीषणताओं के साथ चलती रहती और उसकी सारी भीषणता को, ताल ठोककर, ललकारती रहती थी - सिप़् ार्फ पहलवान की ढोलक! संध्या से लेकर प्रातःकाल तक एक ही गति से बजती रहती - ‘चट् - धा, गिड़ - धा,...चट् - धा, गिड़ - धा!’ यानी ‘आ जा भ्िाड़ जा, आ जा, भ्िाड़ जा!’... बीच - बीच में - ‘चटाव्फ - चट् - धा, चटाव्फ - चट् - धा!’ यानी ‘उठाकर पटक दे! उठाकर पटक दे!!’ यही आवाश मृत - गाँव में संजीवनी शक्ित भरती रहती थी। लु‘न ¯सह पहलवान! यों तो वह कहा करता था - ‘लु‘न ¯सह पहलवान को होल इंडिया भर के लोग जानते हैं’, ¯कतु उसके ‘होल - इंडिया’ की सीमा शायद एक िाले की सीमा के बराबर ही हो। िाले भर के लोग उसके नाम से अवश्य परिचित थे। लु‘न के माता - पिता उसे नौ वषर् की उम्र में ही अनाथ बनाकर चल बसे थे। सौभाग्यवश शादी हो चुकी थी, वरना वह भी माँ - बाप का अनुसरण करता। विधवा सास ने पाल - पोस कर बड़ा किया। बचपन में वह गाय चराता, धारोष्ण दूध पीता और कसरत किया करता था। गाँव के लोग उसकी सास को तरह - तरह की तकलीप़्ाफ दिया करते थेऋ लु‘न के सिर पर कसरत की धुन लोगों से बदला लेने के लिए ही सवार हुइर् थी। नियमित कसरत ने किशोरावस्था में ही उसके सीने और बाँहों को सुडौल तथा मांसल बना दिया था। जवानी में कदम रखते ही वह गाँव में सबसे अच्छा पहलवान समझा जाने लगा। लोग उससे डरने लगे और वह दोनों हाथों को दोनों ओर 45 डिग्री की दूरी पर पैफलाकर, पहलवानों की भाँति चलने लगा। वह वुफश्ती भी लड़ता था। एक बार वह ‘दंगल’ देखने श्यामनगर मेला गया। पहलवानों की वुफश्ती और दाँव - पेंच देखकर उससे नहीं रहा गया। जवानी की मस्ती और ढोल की ललकारती हुइर् आवाश ने उसकी नसों में बिजली उत्पÂ कर दी। उसने बिना वुफछ सोचे - समझे दंगल में ‘शेर के बच्चे’ को चुनौती दे दी। ‘शेर के बच्चे’ का असल नाम था चाँद ¯सह। वह अपने गुरफ पहलवान बादल ¯सह के साथ, पंजाब से पहले - पहल श्यामनगर मेले में आया था। सुंदर जवान, अंग - प्रत्यंग से सुंदरता टपक पड़ती थी। तीन दिनों में ही पंजाबी और पठान पहलवानों के गिरोह के अपनी जोड़ी और उम्र के सभी पऋों को पछाड़कर उसने ‘शेर के बच्चे’ की टायटिल प्राप्त कर ली थी। इसलिए वह दंगल के मैदान में लँगोट लगाकर एक अजीब किलकारी भरकर छोटी दुलकी लगाया करता था। देशी नौजवान पहलवान, उससे लड़ने की कल्पना से भी घबराते थे। अपनी टायटिल को सत्य प्रमाण्िात करने के लिए ही चाँद ¯सह बीच - बीच में दहाड़ता पिफरता था। श्यामनगर के दंगल और श्िाकार - पि्रय वृ( राजा साहब उसे दरबार में रखने की बातें कर ही रहे थे कि लु‘न ने शेर के बच्चे को चुनौती दे दी। सम्मान - प्राप्त चाँद ¯सह पहले तो विंफचित, उसवफी स्पधार् पर मुसवुफराया पिफर बाश की तरह उस पर टूट पड़ा। शांत दशर्कों की भीड़ में खलबली मच गइर् - ‘पागल है पागल, मरा - ऐं! मरा - मरा!’... पर वाह रे बहादुर! लु‘न बड़ी सप़् ाफाइर् से आक्रमण को सँभालकर निकलकर उठ खड़ा हुआ और पैंतरा दिखाने लगा। राजा साहब ने वुफश्ती बंद करवाकर लु‘न को अपने पास बुलवाया और समझाया। अंत में, उसकी हिम्मत की प्रशंसा करते हुए, दस रुपये का नोट देकर कहने लगे - ‘‘जाओ, मेला देखकर घर जाओ!...’’ ‘‘नहीं सरकार, लड़ेंगे... हुवुफम हो सरकार...!’’ ‘‘तुम पागल हो, ...जाओ!...’’ मैनेजर साहब से लेकर सिपाहियों तक ने धमकाया - ‘‘देह में गोश्त नहीं, लड़ने चला है शेर के बच्चे से! सरकार इतना समझा रहे हैं...!!’’ ‘‘दुहाइर् सरकार, पत्थर पर माथा पटककर मर जाउफँगा... मिले हुवुफम!’’ वह हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाता रहा था। भीड़ अधीर हो रही थी। बाजे बंद हो गए थे। पंजाबी पहलवानों की जमायत क्रोध से पागल होकर लु‘न पर गालियों की बौछार कर रही थी। दशर्कों की मंडली उत्तेजित हो रही थी। कोइर् - कोइर् लु‘न के पक्ष से चिल्ला उठता था - ‘‘उसे लड़ने दिया जाए!’’ अकेला चाँद ¯सह मैदान में खड़ा व्यथर् मुसवुफराने की चेष्टा कर रहा था। पहली पकड़ में ही अपने प्रतिद्वंद्वी की शक्ित का अंदाशा उसे मिल गया था। विवश होकर राजा साहब ने आज्ञा दे दी - फ्लड़ने दो!य् बाजे बजने लगे। दश्र्कों में पिफर उत्तेजना पैफली। कोलाहल बढ़ गया। मेले के दुकानदार दुकान बंद करके दौड़े - फ्चाँद ¯सह की जोड़ी - चाँद की वुफश्ती हो रही है!!य् ‘चट् - धा, गिड़ - धा, चट् - धा, गिड़ - धा...’ भरी आवाश में एक ढोल - जो अब तक चुप था - बोलने लगा - ‘ढाक् - ढिना, ढाव्फ - ढिना, ढाव्फ - ढिना...’ ;अथार्त् - वाह पऋे! वाह पऋे !!द्ध लु‘न को चाँद ने कसकर दबा लिया था। - फ्अरे गया - गया!!य् दशर्कों ने तालियाँ बजाईं - फ्हलुआ हो जाएगा, हलुआ.! हँसी - खेल नहीं - शेर का बच्चा है...बच्चू!य् ‘चट् - गिड़ - धा, चट् - गिड़ - धा, चट् - गिड़ - धा...’ ;मत डरना, मत डरना, मत डरना...द्ध लु‘न की गदर्न पर केहुनी डालकर चाँद ‘चित्त’ करने की कोश्िाश कर रहा था। फ्वहीं दपफना दे, बहादुर!य् बादल ¯सह अपने श्िाष्य को उत्साहित कर रहा था।़ लु‘न की आँखें बाहर निकल रही थीं। उसकी छाती पफटने - पफटने को हो रही थी। राजमत, बहुमत चाँद के पक्ष में था। सभी चाँद को शाबाशी दे रहे थे। लु‘न के पक्ष में सिपर्फ़ढोल की आवाश थी, जिसवफी ताल पर वह अपनी शक्ित और दाँव - पेंच की परीक्षा ले रहा था - अपनी हिम्मत को बढ़ा रहा था। अचानक ढोल की एक पतली आवाश सुनाइर् पड़ी - ‘धाक - िाना, तिरकट - तिना, धाक - िाना, तिरकट - तिना...!!’ लु‘न को स्पष्ट सुनाइर् पड़ा, ढोल कह रहा था - फ्दाँव काटो, बाहर हो जा दाँव काटो, बाहर हो जा!!य् लोगों के आश्चयर् की सीमा नहीं रही, लु‘न दाँव काटकर बाहर निकला और तुरंत लपककर उसने चाँद की गदर्न पकड़ ली। फ्वाह रे मि‘ी के शेर!य् फ्अच्छा! बाहर निकल आया? इसीलिए तो....।य् जनमत बदल रहा था। मोटी और भौंड़ी आवाश वाला ढोल बज उठा - ‘चटाक् - चट् - धा,चटाक् - चट् - धा...’;उठा पटक दे! उठा पटक दे!!द्ध लु‘न ने चालाकी से दाँव और शोर लगाकर चाँद को शमीन पर दे मारा। ‘िाना - िाना, िाक - िाना!’;अथार्त् चित करो, चित करो!!द्ध लु‘न ने अंतिम शोर लगाया - चाँद ¯सह चारों खाने चित हो रहा। ‘धा - गिड़ - गिड़, धा - गिड़ - गिड़, धा - गिड़ - गिड़,’...;वाह बहादुर! वाह बहादुर!! वाह बहादुर!!द्ध जनता यह स्िथर नहीं कर सकी कि किसकी जय - ध्वनि की जाए। पफलतः अपनी - अपनी इच्छानुसार किसी ने ‘माँ दुगार् की’, ‘महावीर जी की’, वुफछ ने राजा श्यामानंद की जय - ध्वनि की। अंत में सम्िमलित ‘जय!’ से आकाश गूँज उठा। विजयी लु‘न कूदता - पफाँदता, ताल - ठोंकता सबसे पहले बाजे वालों की ओर दौड़ा और ढोलों को श्र(ापूवर्क प्रणाम किया। पिफर दौड़कर उसने राजा साहब को गोद में उठा लिया। राजा साहब के कीमती कपड़े मि‘ी में सन गए। मैनेजर साहब ने आपिा की - फ्हें - हें...अरे - रे!य् ¯कतु राजा साहब ने स्वयं उसे छाती से लगाकर गद्गद होकर कहा - फ्जीते रहो, बहादुर! तुमने मि‘ी की लाज रख ली!य् पंजाबी पहलवानों की जमायत चाँद ¯सह की आँखें पोंछ रही थी। लु‘न को राजा साहब ने पुरस्वृफत ही नहीं किया, अपने दरबार में सदा के लिए रख लिया। तब से लु‘न राज - पहलवान हो गया और राजा साहब उसे लु‘न ¯सह कहकर पुकारने लगे। राज - पंडितों ने मुँह बिचकाया - फ्हुजूर! जाति का ... ¯सह...!य् मैनेजर साहब क्षत्रिाय थे। ‘क्लीन - शेव्ड’ चेहरे को संवुफचित करते हुए, अपनी शक्ित लगाकर नाक के बाल उखाड़ रहे थे। चुटकी से अत्याचारी बाल को रगड़ते हुए बोले - फ्हाँ सरकार, यह अन्याय है!य् राजा साहब ने मुसवुफराते हुए सिपर्फ इतना ही कहा - फ्उसने क्षत्रिाय का काम किया है।य़् उसी दिन से लु‘न ¯सह पहलवान की कीतिर् दूर - दूर तक पैफल गइर्। पौष्िटक भोजन और व्यायाम तथा राजा साहब की स्नेह - दृष्िट ने उसकी प्रसिि में चार चाँद लगा दिए। वुफछ वषो± में ही उसने एक - एक कर सभी नामी पहलवानों को मि‘ी संँुघाकर आसमान दिखा दिया। काला खाँ के संबंध में यह बात मशहूर थी कि वह ज्यों ही लँगोट लगाकर ‘आ - ली’ कहकर अपने प्रतिद्वंद्वी पर टूटता है, प्रतिद्वंद्वी पहलवान को लकवा मार जाता है लु‘न ने उसको भी पटककर लोगों का भ्रम दूर कर दिया। उसके बाद से वह राज - दरबार का दशर्नीय ‘जीव’ ही रहा। चिडि़याखाने में, पिंजडे़ और शंजीरों को झकझोर कर बाघ दहाड़ता - ‘हाँ - उफँ, हाँ - उफँ!!’ सुनने वाले कहते - ‘राजा का बाघ बोला।’ ठावुफरबाड़े के सामने पहलवान गरजता - ‘महा - वीर!’ लोग समझ लेते, पहलवान बोला। मेलों में वह घुटने तक लंबा चोगा पहने, अस्त - व्यस्त पगड़ी बाँधकर मतवाले हाथी की तरह झूमता चलता। दुकानदारों को चुहल करने की सूझती। हलवाइर् अपनी दुकान पर बुलाता - फ्पहलवान काका! ताशा रसगुल्ला बना है, शरा नाश्ता कर लो!य् पहलवान बच्चों की - सी स्वाभाविक हँसी हँसकर कहता - फ्अरे तनी - मनी काहे! ले आव डेढ़ सेर!य् और बैठ जाता। दो सेर रसगुल्ला को उदरस्थ करके, मुँह में आठ - दस पान की गिलोरियाँ ठूँस, ठुंी को पान के रस से लाल करते हुए अपनी चाल से मेले में घूमता। मेले से दरबार लौटने के समय उसकी अजीब हुलिया रहती - आँखों पर रंगीन अबरख का चश्मा, हाथ में ख्िालौने को नचाता और मुँह से पीतल की सीटी बजाता, हँसता हुआ वह वापस जाता। बल और शरीर की वृि के साथ बुि का परिणाम घटकर बच्चों की बुि के बराबर ही रह गया था उसमें। दंगल में ढोल की आवाश सुनते ही वह अपने भारी - भरकम शरीर का प्रदशर्न करना शुरू कर देता था। उसकी जोड़ी तो मिलती ही नहीं थी, यदि कोइर् उससे लड़ना भी चाहता तो राजा साहब लु‘न को आज्ञा ही नहीं देते। इसलिए वह निराश होकर, लंगोट लगाकर देह में मि‘ी मल और उछालकर अपने को साँड़ या भैंसा साबित करता रहता था। बूढ़े राजा साहब देख - देखकर मुसवुफराते रहते। यों ही पंद्रह वषर् बीत गए। पहलवान अजेय रहा। वह दंगल में अपने दोनों पुत्रों को लेकर उतरता था। पहलवान की सास पहले ही मर चुकी थी, पहलवान की स्त्राी भी दो पहलवानों को पैदा करके स्वगर् सिधार गइर् थी। दोनों लड़के पिता की तरह ही गठीले और तगड़े थे। दंगल में दोनों को देखकर लोगों के मुँह से अनायास ही निकल पड़ता - फ्वाह! बाप से भी बढ़कर निकलेंगे ऐ दोनों बेटे!य् दोनों ही लड़के राज - दरबार के भावी पहलवान घोष्िात हो चुके थे। अतः दोनों का भरण - पोषण दरबार से ही हो रहा था। प्रतिदिन प्रातःकाल पहलवान स्वयं ढोलक बजा - बजाकर दोनों से कसरत करवाता। दोपहर में, लेटे - लेटे दोनों को संासारिक ज्ञान की भी श्िाक्षा देता - फ्समझे! ढोलक की आवाश पर पूरा ध्यान देना। हाँ, मेरा गुरफ कोइर् पहलवान नहीं, यही ढोल है, समझे! ढोल की आवाश के प्रताप से ही मैं पहलवान हुआ। दंगल में उतरकर सबसे पहले ढोलों को प्रणाम करना, समझे!य्... ऐसी ही बहुत - सी बातें वह कहा करता। पिफर मालिक को वैफसे खुश रखा जाता है, कब वैफसा व्यवहार करना चाहिए, आदि की श्िाक्षा वह नित्य दिया करता था। ¯कतु उसकी श्िाक्षा - दीक्षा, सब किए - कराए पर एक दिन पानी पिफर गया। वृ( राजा स्वगर् सिधार गए। नए राजवुफमार ने विलायत से आते ही राज्य को अपने हाथ में ले लिया। राजा साहब के समय श्िाथ्िालता आ गइर् थी, राजवुफमार के आते ही दूर हो गइर्। बहुत से परिवतर्न हुए। उन्हीं परिवतर्नों की चपेटाघात में पड़ा पहलवान भी। दंगल का स्थान घोड़े की रेस ने लिया। पहलवान तथा दोनों भावी पहलवानों का दैनिक भोजन - व्यय सुनते ही राजवुफमार ने कहा - फ्टैरिबुल!य् नए मैनेजर साहब ने कहा - फ्हौरिबुल!य् पहलवान को साप़्ाफ जवाब मिल गया, राज - दरबार में उसकी आवश्यकता नहीं। उसको गिड़गिड़ाने का भी मौका नहीं दिया गया। उसी दिन वह ढोलक वंफधे से लटकाकर, अपने दोनों पुत्रों के साथ अपने गाँव में लौट आया और वहीं रहने लगा। गाँव के एक छोर पर, गाँव वालों ने एक झोंपड़ी बाँध दी। वहीं रहकर वह गाँव के नौजवानों और चरवाहों को वुफश्ती सिखाने लगा। खाने - पीने का खचर् गाँववालों की ओर से बँधा हुआ था। सुबह - शाम वह स्वयं ढोलक बजाकर अपने श्िाष्यों और पुत्रों को दाँव - पेंच वगैरा सिखाया करता था। गाँव के किसान और खेतिहर - मशदूर के बच्चे भला क्या खाकर वुफश्ती सीखते! धीरे - धीरे पहलवान का स्वूफल खाली पड़ने लगा। अंत में अपने दोनों पुत्रों को ही वह ढोलक बजा - बजाकर लड़ाता रहा - सिखाता रहा। दोनों लड़के दिन भर मशदूरी करके जो वुफछ भी लाते, उसी में गुशर होती रही। अकस्मात गाँव पर यह वज्रपात हुआ। पहले अनावृष्िट, पिफर अÂ की कमी, तब मलेरिया और हैशे ने मिलकर गाँव को भूनना शुरू कर दिया। गाँव प्रायः सूना हो चला था। घर के घर खाली पड़ गए थे। रोश दो - तीन लाशें उठने लगीं। लोगों में खलबली मची हुइर् थी। दिन में तो - कलरव, हाहाकार तथा हृदय - विदारक रफदन के बावजूद भी लोगों के चेहरे पर वुफछ प्रभा दृष्िटगोचर होती थी, शायद सूयर् के प्रकाश में सूयार्ेदय होते ही लोग काँखते - वूँफखते - कराहते अपने - अपने घरों से बाहर निकलकर अपने पड़ोसियों और आत्मीयों को ढाढ़स देते थे - फ्अरे क्या करोगी रोकर, दुलहिन! जो गया सो तो चला गया, वह तुम्हारा नहीं थाऋ वह जो है उसको तो देखो।य् फ्भैया! घर में मुदार् रखके कब तक रोओगे? कप़्ाफन? कपफन की क्या शरूरत है, दे़आओ नदी में।य् इत्यादि। ¯कतु, सूयार्स्त होते ही जब लोग अपनी - अपनी झोंपडि़यों में घुस जाते तो चूँ भी नहीं करते। उनकी बोलने की शक्ित भी जाती रहती थी। पास में दम तोड़ते हुए पुत्रा को अंतिम बार ‘बेटा!’ कहकर पुकारने की भी हिम्मत माताओं की नहीं होती थी। रात्रिा की विभीष्िाका को सिपर्फ पहलवान की ढोलक ही ललकारकर चुनौती देती रहती़थी। पहलवान संध्या से सुबह तक, चाहे जिस खयाल से ढोलक बजाता हो, ¯कतु गाँव के अ(र्मृत, औषिा - उपचार - पथ्य - विहीन प्राण्िायों में वह संजीवनी शक्ित ही भरती थी। बूढे़ - बच्चे - जवानों की शक्ितहीन आँखों के आगे दंगल का दृश्य नाचने लगता था। स्पंदन - शक्ित - शून्य स्नायुओं में भी बिजली दौड़ जाती थी। अवश्य ही ढोलक की आवाश में न तो बुखार हटाने का कोइर् गुण था और न महामारी की सवर्नाश शक्ित को रोकने की शक्ित ही, पर इसमें संदेह नहीं कि मरते हुए प्राण्िायों को आँख मूँदते समय कोइर् तकलीपफ़नहीं होती थी, मृत्यु से वे डरते नहीं थे। जिस दिन पहलवान के दोनों बेटे व्रूफर काल की चपेटाघात में पडे़, असह्य वेदना से छटपटाते हुए दोनों ने कहा था - फ्बाबा! उठा पटक दो वाला ताल बजाओ!य् ‘चटाक् - चट - धा, चटाक् - चट - धा...’ सारी रात ढोलक पीटता रहा पहलवान। बीच - बीच में पहलवानों की भाषा में उत्साहित भी करता था। - फ्मारो बहादुर!य् प्रातःकाल उसने देखा - उसके दोनों बच्चे शमीन पर निस्पंद पड़े हैं। दोनों पेट के बल पड़े हुए थे। एक ने दाँत से थोड़ी मि‘ी खोद ली थी। एक लंबी साँस लेकर पहलवान ने मुसवुफराने की चेष्टा की थी - फ्दोनों बहादुर गिर पड़े!य् उस दिन पहलवान ने राजा श्यामानंद की दी हुइर् रेशमी जाँघ्िाया पहन ली। सारे शरीर में मि‘ी मलकर थोड़ी कसरत की, पिफर दोनों पुत्रों को वंफधों पर लादकर नदी में बहा आया। लोगों ने सुना तो दंग रह गए। कितनों की हिम्मत टूट गइर्। ¯कतु, रात में पिफर पहलवान की ढोलक की आवाश, प्रतिदिन की भाँति सुनाइर् पड़ी। लोगों की हिम्मत दुगुनी बढ़ गइर्। संतप्त पिता - माताओं ने कहा - फ्दोनों पहलवान बेटे मर गए, पर पहलवान की हिम्मत तो देखो, डेढ़ हाथ का कलेजा है!य् चार - पाँच दिनों के बाद। एक रात को ढोलक की आवाश नहीं सुनाइर् पड़ी। ढोलक नहीं बोली। पहलवान के वुफछ दिलेर, विंफतु रफग्ण श्िाष्यों ने प्रातःकाल जाकर देखा - पहलवान की लाश ‘चित’ पड़ी है। आँसू पोंछते हुए एक ने कहा - फ्गुरफ जी कहा करते थे कि जब मैं मर जाउँफ तो चिता पर मुझे चित नहीं, पेट के बल सुलाना। मैं जिंदगी में कभी ‘चित’ नहीं हुआ। और चिता सुलगाने के समय ढोलक बजा देना।य् वह आगे बोल नहीं सका। अभ्यास पाठ के साथ 1 वुफश्ती के समय ढोल की आवाश और लु‘न के दाँव - पेंच में क्या तालमेल था? पाठ में आए ध्वन्यात्मक शब्द और ढोल की आवाश आपके मन में वैफसी ध्वनि पैदा करते हैं, उन्हें शब्द दीजिए। 2 कहानी के किस - किस मोड़ पर लु‘न के जीवन में क्या - क्या परिवतर्न आए? 3 लु‘न पहलवान ने ऐसा क्यों कहा होगा कि मेरा गुरफ कोइर् पहलवान नहीं, यही ढोल है? 4 गाँव में महामारी पैफलने और अपने बेटों के देहांत के बावजूद लु‘न पहलवान ढोल क्यों बजाता रहा? 5 ढोलक की आवाश का पूरे गाँव पर क्या असर होता था? 6 महामारी पैफलने के बाद गाँव में सूयोर्दय और सूयार्स्त के दृश्य में क्या अंतर होता था? 7 वुफश्ती या दंगल पहले लोगों और राजाओं का पि्रय शौक हुआ करता था। पहलवानों को राजा एवं लोगों के द्वारा विशेष सम्मान दिया जाता था - ;कद्ध ऐसी स्िथति अब क्यों नहीं है? ;खद्ध इसकी जगह अब किन खेलों ने ले ली है? ;गद्ध वुफश्ती को पिफर से पि्रय खेल बनाने के लिए क्या - क्या कायर् किए जा सकते हैं? 8 आशय स्पष्ट करें - आकाश से टूटकर यदि कोइर् भावुक तारा पृथ्वी पर जाना भी चाहता तो उसकी ज्योति और शक्ित रास्ते में ही शेष हो जाती थी। अन्य तारे उसकी भावुकता अथवा असपफलता पर ख्िालख्िालाकर हँस पड़ते थे। 9 पाठ में अनेक स्थलों पर प्रवृफति का मानवीकरण किया गया है। पाठ में से ऐसे अंश चुनिए और उनका आशय स्पष्ट कीजिए। पाठ के आसपास 1.पाठ में मलेरिया और हैशे से पीडि़त गाँव की दयनीय स्िथति को चित्रिात किया गया है। आप ऐसी किसी अन्य आपद स्िथति की कल्पना करें और लिखें कि आप ऐसी स्िथति का सामना वैफसे करेंगे/ करेंगी? 2.ढोलक की थाप मृत - गाँव में संजीवनी शक्ित भरती रहती थी - कला से जीवन के संबंध को ध्यान में रखते हुए चचार् कीजिए। 3.चचार् करें - कलाओं का अस्ितत्व व्यवस्था का मोहताज नहीं है। भाषा की बात 1.हर विषय, क्षेत्रा, परिवेश आदि के वुफछ विश्िाष्ट शब्द होते हैं। पाठ में वुफश्ती से जुड़ी शब्दावली का बहुतायत प्रयोग हुआ है। उन शब्दों की सूची बनाइए। साथ ही नीचे दिए गए क्षेत्रों में इस्तेमाल होने वाले कोइर् पाँच - पाँच शब्द बताइए - ऽ चिकित्सा ऽ िकेट ऽ न्यायालय ऽ या अपनी पसंद का कोइर् क्षेत्रा 2.पाठ में अनेक अंश ऐसे हैं जो भाषा के विश्िाष्ट प्रयोगों की बानगी प्रस्तुत करते हैं। भाषा का विश्िाष्ट प्रयोग न केवल भाषाइर् सजर्नात्मकता को बढ़ावा देता है बल्िक कथ्य को भी प्रभावी बनाता है। यदि उन शब्दों, वाक्यांशों के स्थान पर किन्हीं अन्य का प्रयोग किया जाए तो संभवतः वह अथर्गत चमत्कार और भाष्िाक सौंदयर् उद्घाटित न हो सके। वुफछ प्रयोेग इस प्रकार हैं - ऽ पिफर बाश की तरह उस पर टूट पड़ा। ऽ राजा साहब की स्नेह - दृष्िट ने उसकी प्रसिि में चार चाँद लगा दिए। ऽ पहलवान की स्त्राी भी दो पहलवानोें को पैदा करके स्वगर् सिधार गइर् थी। इन विश्िाष्ट भाषा - प्रयोगों का प्रयोग करते हुए एक अनुच्छेद लिख्िाए। 3.जैसे िकेट की कमेंट्री की जाती है वैसे ही इसमें वुफश्ती की कमेंट्री की गइर् है? आपको दोनों में क्या समानता और अंतर दिखाइर् पड़ता है?