
17 जन्म: सन् 1907, आरत दुबे का छपरा, बलिया ;उत्तर प्रदेशद्ध प्रमुख रचनाएँ: अशोक के पूफल, कल्पलता, विचार और वितवर्फ, वुफटज, विचार - प्रवाह, आलोक पवर्, प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद;निबंध - संग्रहद्धऋ बाणभ‘ की आत्मकथा, चारफचंद्रलेख, पुननर्वा, अनामदास का पोथा ;उपन्यासद्धऋ सूर साहित्य, कबीर, मध्यकालीन बोध का स्वरूप, नाथ संप्रदाय, कालिदास की लालित्य - योजना, ¯हदी साहित्य का आदिकाल, ¯हदी साहित्य की भूमिका, ¯हदी साहित्यः उद्भव और विकास ;आलोचना - साहित्येतिहासद्धऋ संदेश रासक, पृथ्वीराजरासो, नाथ - सि(ों की बानियाँ ;ग्रंथ - संपादनद्धऋ विश्व भारती ;शांतिनिकेतनद्ध पत्रिाका का संपादनऋ पुरस्कार व सम्मान: साहित्य अकादेमी ;‘आलोक पवर्’ परद्ध भारत सरकार द्वारा ‘पद्मभूषण’, लखनउफ विश्वविद्यालय द्वारा डी. लिट् मृत्यु: सन् 1979, दिल्ली में मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्िट से देखने का पक्षपाती हूँ। जो वाग्जाल मनुष्य को दुगर्ति, हीनता और परमुखापेक्ष्िाता से बचा न सके, जो उसकी आत्मा को तेजोद्दीप्त न बना सके, जो उसके हृदय को परदुखकातर और संवेदनशील न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है। आचायर् हजारी प्रसाद द्विवेदी का साहित्य कमर् भारतवषर् के सांस्वृफतिक इतिहास की रचनात्मक परिणति है। हिंदी, संस्वृफत, प्रावृफत, अपभं्रश, बांग्ला आदि भाषाओं व उनके साहित्य के साथ इतिहास, संस्वृफति, धमर्, दशर्न और आधुनिक ज्ञान - विज्ञान की व्यापकता व गहनता में पैठ कर उनका अगाध पा¯डत्य नवीन मानवतावादी सजर्ना और आलोचना की क्षमता लेकर प्रकट हुआ है। वे ज्ञान को बोध और पांडित्य की सहृदयता में ढाल कर एक ऐसा रचना - संसार हमारे सामने उपस्िथत करते हैं जो विचार की तेजस्िवता, कथन के लालित्य और बंध की शास्त्राीयता का संगम है। इस प्रकार उनमें एक साथ कबीर, रवींद्रनाथ व तुलसी एकाकार हो उठते हैं। इसके बाद, उससे जो प्राणधारा पूफटती है वह लोकधमीर् रोमैंटिक धारा है, जो उनके उच्च वृफतित्व को सहजग्राह्य बनाए रखती है। उनकी सांस्वृफतिक दृष्िट जबरदस्त है। उसमें इस बात पर विशेष बल है कि भारतीय संस्वृफति किसी एक जाति की देन नहीं, बल्िक समय - समय पर उपस्िथत अनेक जातियों के श्रेष्ठ साधनांशों के लवण - नीर संयोग से उसका विकास हुआ है। उसकी मूल चेतना विराट मानवतावाद है, जिसके संस्पशर् से कला और साहित्य ही नहीं, यह संपूणर् जीवन ही सौंदयर् व आनंद से परिपूणर् हो उठता है। द्विवेदी जी के सभी उपन्यास समाज के जात - पाँत और मशहबों में विभाजन और आधी आबादी ;स्त्राीद्धके दलन की पीड़ा को सबसे बड़े सांस्वृफतिक संकट के रूप पहचानने, रचने और सामंजस्य में समाधान खोजने का साहित्य है। वे स्त्राी को सामाजिक अन्याय का सबसे बड़ा श्िाकार मानते हैं तथा सांस्वृफतिक ऐतिहासिक संदभर् में उसकी पीड़ा का गहरा विश्लेषण करते हुए सरस श्र(ा के साथ उसकी महिमा प्रतिष्िठत करते हैं - विशेषकर बाणभ‘ की आत्मकथा में। मानवता और लोक से विमुख कोइर् भी विज्ञान, तंत्रा - मंत्रा, विश्वास या सि(ांत उन्हें ग्राह्य नहीं है और मानव की जिजीविषा और विजययात्रा में उनकी अखंड आस्था है। इसी से वे मानवतावादी साहित्यकार व समीक्षक के रूप में प्रतिष्िठत हैं। द्विवेदी जी का आलोचक व्यक्ितत्व ¯हदी - चिंताधारा की सहज लोक - परंपरा को पहचान लेता है और उसी से संब( नाथों - सि(ों और कबीर से हिंदी की साहित्य - परंपरा को जोड़ कर उसे एक प्रगतिशील मूल्य के रूप में प्रतिष्िठत करता है। भक्ितकाल को भारतीय चिंताधारा का सहज विकास मानने वाले इतिहासकार के रूप में उनकी भूमिका ऐतिहासिक महत्त्व रखती है। द्विवेदी जी का निबंध - साहित्य इस अथर् में बड़े महत्त्व का है कि साहित्य - दशर्न तथा समाज - व्यवस्था संबंधी उनकी कइर् मौलिक उद्भावनाएँ मूलतः निबंधों में ही मिलती हैं, पर यह विचार - सामग्री पांडित्य के बोझ से आक्रांत होने की जगह उसके बोध से अभ्िाष्िाक्त हैं। अपने लेखन द्वारा निबंध - विधा को सजर्नात्मक साहित्य की कोटि में ला देने वाले द्विवेदी जी के ये निबंध व्यक्ितत्व - व्यंजना और आत्मपरक शैली से युक्त हैं। पूफलता है, वसंत )तु के पलाश की भाँति। कबीरदास को इस तरह पद्रंह दिन के लिए लहक उठना पसंद नहीं था। यह भी क्या कि दस दिन पूफले और पिफर खंखड़ - के - खंखड़ - ‘दिन दस पूफला पूफलिके खंखड़ भया पलास!’ ऐसे दुमदारों से तो लँडूरे भले। पूफल है श्िारीष। वसंत के आगमन के साथ लहक उठता है, आषाढ़ तक जो निश्िचत रूप से मस्त बना रहता है। मन रम गया तो भरे भादों में भी निघार्त पूफलता रहता है। जब उमस से प्राण उबलता रहता है और लू से हृदय सूखता रहता है, एकमात्रा श्िारीष कालजयी अवधूत की भाँति जीवन की अजेयता का मंत्रा प्रचार करता रहता है। यद्यपि कवियों की भाँति हर पूफल - पत्ते को देखकर मुग्ध होने लायक हृदय विधाता ने नहीं दिया है, पर नितांत ठूँठ भी नहीं हूँ। श्िारीष के पुष्प मेरे मानस में थोड़ा हिल्लोल शरूर पैदा करते हैं। श्िारीष के वृक्ष बड़े और छायादार होते हैं। पुराने भारत का रइर्स जिन मंगल - जनक वृक्षों को अपनी वृक्ष - वाटिका की चहारदीवारी के पास लगाया करता था, उनमें एक श्िारीष भी है। ;वृहतसंहिता 55,13द्ध अशोक, अरिष्ट, पुन्नाग और श्िारीष के छायादार और घनमसृण हरीतिमा से परिवेष्िटत वृक्ष - वाटिका शरूर बड़ी मनोहर दिखती होगी। वात्स्यायन ने ‘कामसूत्रा’ में बताया है कि वाटिका के सघन छायादार वृक्षों की छाया में ही झूला;प्रेंखा दोलाद्ध लगाया जाना चाहिए। यद्यपि पुराने कवि बवुफल के पेड़ में ऐसी दोलाओं को लगा देखना चाहते थे, पर श्िारीष भी क्या बुरा है! डाल इसकी अपेक्षावृफत कमशोर शरूर होती है, पर उसमें झूलनेवालियों का वशन भी तो बहुत श्यादा नहीं होता। कवियों की यही तो बुरी आदत है कि वजन का एकदम खयाल नहीं करते। मैं तुंदिल नरपतियों की बात नहीं कह रहा हूँ, वे चाहें तो लोहे का पेड़ बनवा लें। श्िारीष का पूफल संस्वृफत - साहित्य में बहुत कोमल माना गया है। मेरा अनुमान है कि कालिदास ने यह बात शुरू - शुरू में प्रचार की होगी। उनका इस पुष्प पर वुफछ पक्षपात था ;मेरा भी हैद्ध। कह गए हैं, श्िारीष पुष्प केवल भौंरों के पदों का कोमल दबाव सहन कर सकता है, पक्ष्िायों का बिलवुफल नहीं - ‘पदं सहेत भ्रमरस्य पेलवं श्िारीष पुष्पं न पुनः पतत्रिाणाम्।’ अब मैं इतने बड़े कवि की बात का विरोध वैफसे करूँ? सिपर्फ विरोध करने की हिम्मत न होती तो भी वुफछ कम बुरा नहीं था, यहाँ तो इच्छा भी नहीं है। खैर, मैं दूसरी बात कह रहा था। श्िारीष के पूफलों की कोमलता देखकर परवतीर् कवियों ने समझा कि उसका सब - वुफछ कोमल है! यह भूल है। इसके पफल इतने मशबूत होते हैं कि नए पूफलों के निकल आने पर भी स्थान नहीं छोड़ते। जब तक नए पफल - पत्ते मिलकर, धकियाकर उन्हें बाहर नहीं कर देते तब तक वे डटे रहते हैं। वसंत के आगमन के समय जब सारी वनस्थली पुष्प - पत्रा से ममर्रित होती रहती है, श्िारीष के पुराने पफल बुरी तरह खड़खड़ाते रहते हैं। मुझे इनको देखकर उन नेताओं की बात याद आती है, जो किसी प्रकार शमाने का रफख नहीं पहचानते और जब तक नयी पौध के लोग उन्हें धक्का मारकर निकाल नहीं देते तब तक जमे रहते हैं। मैं सोचता हूँ कि पुराने की यह अिाकार - लिप्सा क्यों नहीं समय रहते सावधान हो जाती? जरा और मृत्यु, ये दोनों ही जगत के अतिपरिचित और अतिप्रामाण्िाक सत्य हैं। तुलसीदास ने अप़् ाफसोस के साथ इनकी सच्चाइर् पर मुहर लगाइर् थी - ‘धरा को प्रमान यही तुलसी जो पफरा सो झरा, जो बरा सो बुताना!’ मैं श्िारीष के पूफलों को देखकर कहता हूँ कि क्यों नहीं पफलते ही समझ लेते बाबा कि झड़ना निश्िचत है! सुनता कौन हैं? महाकालदेवता सपासप कोड़े चला रहे हैं, जीणर् और दुबर्ल झड़ रहे हैं, जिनमें प्राणकण थोड़ा भी उफध्वर्मुखी है, वे टिक जाते हैं। दुरंत प्राणधारा और सवर्व्यापक कालाग्िन का संघषर् निरंतर चल रहा है। मूखर् समझते हैं कि जहाँ बने हैं, वहीं देर तक बने रहें तो कालदेवता की आँख बचा जाएँगे। भोले हैं वे। हिलते - डुलते रहो, स्थान बदलते रहो, आगे की ओर मुँह किए रहो तो कोड़े की मार से बच भी सकते हो। जमे कि मरे! एक - एक बार मुझे मालूम होता है कि यह श्िारीष एक अद्भुत अवधूत है। दुःख हो या सुख, वह हार नहीं मानता। न उफधो का लेना, न माधो का देना। जब धरती और आसमान जलते रहते हैं, तब भी यह हशरत न जाने कहाँ से अपना रस खींचते रहते हैं। मौज में आठों याम मस्त रहते हैं। एक वनस्पतिशास्त्राी ने मुझे बताया है कि यह उस श्रेणी का पेड़ है जो वायुमंडल से अपना रस खींचता है। शरूर खींचता होगा। नहीं तो भयंकर लू के समय इतने कोमल तंतुजाल और ऐसे सुवुफमार केसर को वैफसे उगा सकता था? अवधूतों के मुँह से ही संसार की सबसे सरस रचनाएँ निकली हैं। कबीर बहुत - वुफछ इस श्िारीष के समान ही थे, मस्त और बेपरवा, पर सरस और मादक। कालिदास भी शरूर अनासक्त योगी रहे होंगे। श्िारीष के पूफल पफक्कड़ाना मस्ती से ही उपज सकते हैं और ‘मेघदूत’ का काव्य उसी प्रकार के अनासक्त अनाविल उन्मुक्त हृदय में उमड़ सकता है। जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो पफक्कड़ नहीं बन सका, जो किए - कराए का लेखा - जोखा मिलाने में उलझ गया, वह भी क्या कवि है? कहते हैं कणार्ट - राज की पि्रया विज्िजका देवी ने गवर्पूवर्क कहा था कि एक कवि ब्रह्मा थे, दूसरे वाल्मीकि और तीसरे व्यास। एक ने वेदों को दिया, दूसरे ने रामायण को और तीसरे ने महाभारत को। इनके अतिरिक्त और कोइर् यदि कवि होने का दावा करे तो मैं कणार्ट - राज की प्यारी रानी उनके सिर पर अपना बायाँ चरण रखती हूँ - ‘तेषां मूघ्िनर् ददामि वामचरणं कणार्ट - राजपि्रया!’ मैं जानता हूँ कि इस उपालंभ से दुनिया का कोइर् कवि हारा नहीं है, पर इसका मतलब यह नहीं कि कोइर् लजाया नहीं तो उसे डाँटा भी न जाए। पर मैं कहता हूँ कवि बनना है मेरे दोस्तो, तो पफक्कड़ बनो। श्िारीष की मस्ती की ओर देखो। लेकिन अनुभव ने मुझे बताया है कि कोइर् किसी की सुनता नहीं। मरने दो! कालिदास वशन ठीक रख सकते थे, क्योंकि वे अनासक्त योगी की स्िथर - प्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का हृदय पा चुके थे। कवि होने से क्या होता है? मैं भी छंद बना लेता हूँ, तुक जोड़ लेता हूँ और कालिदास भी छंद बना लेते थे - तुक भी जोड़ ही सकते होंगे इसलिए हम दोनों एक श्रेणी के नहीं हो जाते। पुराने सहृदय ने किसी ऐसे ही दावेदार को पफटकारते हुए कहा था - ‘वयमपि कवयः कवयः कवयस्ते कालिदासाद्या!’ मैं तो मुग्ध और विस्मय - विमूढ़ होकर कालिदास के एक - एक श्लोक को देखकर हैरान हो जाता हूँ। अब इस श्िारीष के पूफल का ही एक उदाहरण लीजिए। शवुंफतला बहुत सुंदर थी। सुंदर क्या होने से कोइर् हो जाता है? देखना चाहिए कि कितने सुंदर हृदय से वह सौंदयर् डुबकी लगाकर निकला है। शवुंफतला कालिदास के हृदय से निकली थी। विधाता की ओर से कोइर् कापर्ण्य नहीं था, कवि की ओर से भी नहीं। राजा दुष्यंत भी अच्छे - भले प्रेमी थे। उन्होंने शवुंफतला का एक चित्रा बनाया थाऋ लेकिन रह - रहकर उनका मन खीझ उठता था। उहूँ, कहीं - न - कहीं वुफछ छूट गया है। बड़ी देर के बाद उन्हें समझ में आया कि शवुंफतला के कानों में वे उस श्िारीष पुष्प को देना भूल गए हैं, जिसके केसर गंडस्थल तक लटके हुए थे, और रह गया है शरच्चंद्र की किरणों के समान कोमल और शुभ्र मृणाल का हार। कालिदास सौंदयर् के बाह्य आवरण को भेदकर उसके भीतर तक पहुँच सकते थे, दुख हो कि सुख, वे अपना भाव - रस उस अनासक्त वृफपीवल की भाँति खींच लेते थे जो निदर्लित इर्क्षुदंड से रस निकाल लेता है। कालिदास महान थे, क्योंकि वे अनासक्त रह सके थे। वुफछ इसी श्रेणी की अनासक्ित आधुनिक ¯हदी कवि सुमित्रानंदन पंत में है। कविवर रवींद्रनाथ में यह अनासक्ित थी। एक जगह उन्होंने लिखा - ‘राजोद्यान का ¯सहद्वार कितना ही अभ्रभेदी क्यों न हो, उसकी श्िाल्पकला कितनी ही सुंदर क्यों न हो, वह यह नहीं कहता कि हममें आकर ही सारा रास्ता समाप्त हो गया। असल गंतव्य स्थान उसे अतिक्रम करने के बाद ही है, यही बताना उसका कतर्व्य है।’ पूफल हो या पेड़, वह अपने - आप में समाप्त नहीं है। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुइर् अँगुली है। वह इशारा है। श्िारीष तरफ सचमुच पक्के अवधूत की भाँति मेरे मन में ऐसी तरंगें जगा देता है जो उफपर की ओर उठती रहती हैं। इस चिलकती धूप में इतना इतना सरस वह वैफसे बना रहता है? क्या ये बाह्य परिवतर्न - धूप, वषार्, आँधी, लू - अपने आपमें सत्य नहीं हैं? हमारे देश के उफपर से जो यह मार - काट, अग्िनदाह, लूट - पाट, खून - खच्चर का बवंडर बह गया है, उसके भीतर भी क्या स्िथर रहा जा सकता है? श्िारीष रह सका है। अपने देश का एक बूढ़ा रह सका था। क्यों मेरा मन पूछता है कि ऐसा क्यों संभव हुआ? क्योंकि श्िारीष भी अवधूत है। श्िारीष वायुमंडल से रस खींचकर इतना कोमल और इतना कठोर है। गांधी भी वायुमंडल से रस खींचकर इतना कोमल और इतना कठोर हो सका था। मैं जब - जब श्िारीष की ओर देखता हूँ तब तब हूक उठती है - हाय, वह अवधूत आज कहाँ है! अभ्यास पाठ के साथ 1.लेखक ने श्िारीष को कालजयी अवधूत;संन्यासीद्धकी तरह क्यों माना है? 2.हृदय की कोमलता को बचाने के लिए व्यवहार की कठोरता भी कभी - कभी शरूरी हो जाती है - प्रस्तुत पाठ के आधार पर स्पष्ट करें। 3.द्विवेदी जी ने श्िारीष के माध्यम से कोलाहल व संघषर् से भरी जीवन - स्िथतियों में अविचल रह कर जिजीविषु बने रहने की सीख दी है। स्पष्ट करें। 4.हाय, वह अवधूत आज कहाँ है! ऐसा कहकर लेखक ने आत्मबल पर देह - बल के वचर्स्व की वतर्मान सभ्यता के संकट की ओर संकेत किया है। वैफसे? 5.कवि ;साहित्यकारद्ध के लिए अनासक्त योगी की स्िथर प्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का हृदय - एक साथ आवश्यक है। ऐसा विचार प्रस्तुत कर लेखक ने साहित्य - कमर् के लिए बहुत उफँचा मानदंड निधार्रित किया है। विस्तारपूवर्क समझाएँ। 6.सवर्ग्रासी काल की मार से बचते हुुए वही दीघर्जीवी हो सकता है, जिसने अपने व्यवहार में जड़ता छोड़कर नित बदल रही स्िथतियों में निरंतर अपनी गतिशीलता बनाए रखी है। पाठ के आधार पर स्पष्ट करें। 7.आशय स्पष्ट कीजिए - कद्ध दुरंत प्राणधारा और सवर्व्यापक कालाग्िन का संघषर् निरंतर चल रहा है। मूखर् समझते हंै कि जहाँ बने हैं, वहीं देर तक बने रहें तो कालदेवता की आँख बचा पाएँगे। भोले हैं वे। हिलते - डुलते रहो, स्थान बदलते रहो, आगे की ओर मुँह किए रहो तो कोड़े की मार से बच भी सकते हो। जमे कि मरे। खद्ध जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो पफक्कड़ नहीं बन सका, जो किए - कराए का लेखा - जोखा मिलाने में उलझ गया, वह भी क्या कवि है?.....मैं कहता हूँ कवि बनना है मेरे दोस्तो, तो पफक्कड़ बनो। गद्ध पूफल हो या पेेड़, वह अपने - आप में समाप्त नहीं है। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुइर् अँगुली है। वह इशारा है। पाठ के आसपास 1 श्िारीष के पुष्प को शीतपुष्प भी कहा जाता है। ज्येष्ठ माह की प्रचंड गरमी में पूफलने वाले पूफल को शीतपुष्प संज्ञा किस आधार पर दी गइर् होगी? 2 कोमल और कठोर दोनों भाव किस प्रकार गांधीजी के व्यक्ितत्व की विशेषता बन गए। 3 आजकल अंतरराष्ट्रीय बाशार में भारतीय पूफलों की बहुत माँग है। बहुत से किसान साग - सब्शी व अन्न उत्पादन छोड़ पूफलों की खेती की ओर आकष्िार्त हो रहे हैं। इसी मुद्दे को विषय बनाते हुए वाद - विवाद प्रतियोगिता का आयोजन करें। 4 हशारी प्रसाद द्विवेदी ने इस पाठ की तरह ही वनस्पतियों के संदभर् में कइर् व्यक्ितत्त्व व्यंजक ललित निबंध और भी लिखे हैं - वुफटज, आम पिफर बौरा गए, अशोक के पूफल, देवदारफ आदि। श्िाक्षक की सहायता से इन्हें ढूँढि़ए और पढि़ए। 5 द्विवेदी जी की वनस्पतियों में ऐसी रफचि का क्या कारण हो सकता है? आज साहित्ियक रचना - पफलक पर प्रवृफति की उपस्िथति न्यून से न्यून होती जा रही है। तब ऐसी रचनाओं का महत्त्व बढ़ गया है। प्रवृफति के प्रति आपका दृष्िटकोण रफचिपूणर् है या उपेक्षामय? इसका मूल्यांकन करें। दस दिन पूफले और पिफर खंखड़ - खंखड़ इस लोकोक्ित से मिलते - जुलते कइर् वाक्यांश पाठ में हैं। उन्हें छाँट कर लिखें। इन्हें भी जानें अशोक वृक्ष - भारतीय साहित्य में बहुचचिर्त एक सदाबहार वृक्ष। इसके पत्ते आम के पत्तों से मिलतें हैं। वसंत - )तु में इसके पूफल लाल - लाल गुच्छों के रूप में आते हैं। इसे कामदेव के पाँच पुष्पवाणों में से एक माना गया हैं इसके पफल सेम की तरह होते हैं। इसके सांस्वृफतिक महत्त्व का अच्छा चित्राण हशारी प्रसाद द्विवेदी ने निबंध् अशोक के पूफल में किया है। भ्रमवश आज एक दूसरे वृक्ष को अशोक कहा जाता रहा है और मूल पेड़ ;जिसका वानस्पतिक नाम सराका इंडिका है।द्ध को लोग भूल गए हैं। इसकी एक जाति श्वेत पूफलों वाली भी होती है। अरिष्ठ वृक्ष - रीठा नामक वृक्ष। इसके पत्ते चमकीले हरे होते हैं। पफल को सुखाकर उसके छिलके का चूणर् बनाया जाता है, बाल धेने एवं कपड़े सापफ करने के काम में आता है। पेड़ की डालियों व तने पर जगह - जगह काँटे उभरे होते हैं, जो बाल और कपड़े धेने के काम भी आता है। आरग्वध् वृक्ष - लोक में उसे अमलतास कहा जाता है। भीषण गरमी की दशा में जब इसका पेड़ पत्राहीन ठूँठ सा हो जाता है, पर इस पर पीले - पीले पुष्प गुच्छे लटके हुए मनोहर दृश्य उपस्िथत करते हैं। इसके पफल लगभग एक डेढ़ पुफट के बेलनाकार होते हैं जिसमें कठोर बीज होते हैं। श्िारीष वृक्ष - लोक में सिरिस नाम से मशहूर पर एक मैदानी इलाके का वृक्ष है। आकार में विशाल होता है पर पत्ते बहुत छोट - छोटे होते है। इसके पूफलों में पंखुडि़यों की जगह रेशे - रेशे होते हैं। कण्िार्कार शब्द - छवि आरग्वध खंखड़ निघार्त अवधूत लँडूरे हिल्लोल अरिष्ठ पुÂाग घनमसृण परिवेष्िटत दोला बवुफल तुंदिल ममर्रित उफध्वर्मुखी दुरंत हशरत अनासक्त अनाविल कणार्ट स्िथरप्रज्ञता विदग्ध कापर्ण्य गण्डस्थल वृफषीवल निदर्लित इर्क्षुदण्ड अभ्रभेदी सपासप - कनेर ;या कनियारद्ध नामक पूफल - अमलतास नामक पूफल - ठूँठ/शुष्क - बिना आघात या बाधा के - सांसारिक बंधंनों व विषय - वासनाओं से उफपर उठा हुआ संन्यासी - पूँछ विहीन - लहर - रीठा नामक वृक्ष - एक बड़ा सदाबहार पेड़ - घना - चिकना ;गहरा चिकना/मुलायमद्ध - ढँका हुआ - झूला - मौलसिरी का पेड़ - तोंद वाला / मोटे पेट वाला - ;पत्तों कीद्ध खड़खड़ाहट या सरसराहट ध्वनि से युक्त - प्रगति की दिशा में - जिसका विनाश होना मुश्िकल है - श्रीमान ;व्यंग्यात्मक स्वरद्ध - विषय - भोग से उफपर उठा हुआ - स्वच्छ - प्राचीन काल का कनार्टक राज्य - अविचल बुि की अवस्था - अच्छी तरह से तपा हुआ - वृफपणता - गाल - किसान - भलीभाँति निचोड़ा हुआ - इर्ख ;गÂेद्ध का तना - गगनचुंबी - ध्वन्यात्मक शब्द जो कोड़े पड़ने की आवाश के लिए उपयुक्त होता है। यहाँ ‘जल्दी - जल्दी’ अथर् रखता है।