
कम्यु निश्म;1956द्ध, ;पुस्तवेंफ व भाषणद्धऋ मूक नायक, बहिष्वृफत भारत, जनता;पत्रिाका - संपादनद्धऋ ¯हदी में उनका संपूणर् वाघ् मय भारत सरकार के कल्याण मंत्रालय से बाबा साहब अंाबेडकर संपूणर् वाघ्मय नाम से 21 खंडों में प्रकाश्िात हो चुका है निधन: दिसंबर, सन् 1956 दिल्ली में अगर इंसानों के अनुरूप जीने की सुविध वुफछ लोगों तक ही सीमित है, तब जिस सुविधा को आमतौर पर स्वतंत्राता कहा जाता है, उसे विशेषािाकार कहना उचित है। मानव - मुक्ित के पुरोध बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर अपने समय के सबसे सुपठित जनों में से एक थे। प्राथमिक श्िाक्षा के बाद बड़ौदा नरेश के प्रोत्साहन पर उच्चतर श्िाक्षा के लिए न्यूयावर्फ;अमेरिकाद्धपिफर वहाँ से लंदन गए। उन्होंने संस्वृफत का धमिर्क, पौराण्िाक और पूरा वैदिक वाघ्मय अनुवाद के शरिये पढ़ा और ऐतिहासिक - सामाजिक क्षेत्रा में अनेक मौलिक स्थापनाएँ प्रस्तुत कीं। सब मिलाकर वे इतिहास - मीमांसक, वििावेत्ता, अथर्शास्त्राी, समाजशास्त्राी, श्िाक्षाविद् तथा धमर् - दशर्न के व्याख्याता बन कर उभरे। स्वदेश में वुफछ समय उन्होंने वकालत भी की। समाज और राजनीति में बेहद सिय भूमिका निभाते हुए उन्होंने अछूतों, स्ित्रायों और मशदूरों को मानवीय अिाकार व सम्मान दिलाने के लिए अथक संघषर् किया। आरोह भारतीय संविधान के निमार्ताओं में से एक डाॅ. भीमराव अंाबेडकर आधुनिक भारतीय चिंतन में अत्यंत महत्त्वपूणर् स्थान के अिाकारी हैं। उन्होंने जीवन भर दलितों की मुक्ित एवं सामाजिक समता के लिए संघषर् किया। उनका पूरा लेखन इसी संघषर् और सरोकार से जुड़ा हुआ है। स्वयं दलित जाति में जन्मे डाॅ. अंाबेडकर को बचपन से ही जाति - आधारित उत्पीड़न - शोषण एवं अपमान से गुजरना पड़ा था। इसीलिए विद्यालय के दिनों में जब एक अध्यापक ने उनसे पूछा कि फ्तुम पढ़ - लिख कर क्या बनोगे?य् तो बालक भीमराव ने जवाब दिया था मैं पढ़ - लिख कर वकील बनूँगा, अछूतों के लिए नया कानून बनाउँफगा और छुआछूत को खत्म करूँगा। डाॅ. अंाबेडकर ने अपना पूरा जीवन इसी संकल्प के पीछे झोंक दिया। इसके लिए उन्होंने जमकर पढ़ाइर् की। व्यापक अध्ययन एवं ¯चतन - मनन के बल पर उन्होंने ¯हदुस्तान के स्वाधीनता संग्राम में एक नयी अंतवर्स्तु भरने का काम किया। वह यह था कि दासता का सबसे व्यापक व गहन रूप सामाजिक दासता है और उसके उन्मूलन के बिना कोइर् भी स्वतंत्राता वुफछ लोगों का विशेषािाकार रहेगी, इसलिए अधूरी होगी। उनके चिंतन व रचनात्मकता के मुख्यतः तीन प्रेरक व्यक्ित रहे - बु(, कबीर और ज्योतिबा पुफले। जातिवादी उत्पीड़न के कारण ¯हदू समाज से मोहभंग होने के बाद वे बु( के समतावादी दशर्न में आश्वस्त हुए और 14 अक्तूबर, सन् 1956 को 5 लाख अनुयायियों के साथ बौ( मतानुयायी बन गए। भारत के संविधान - निमार्ण में उनकी महती भूमिका और एकनिष्ठ समपर्ण के कारण ही हम आज उन्हें भारतीय संविधान का निमार्ता कह कर श्र(ांजलि अपिर्त करते हैं। उनकी समूची बहुमुखी विद्वत्ता एकांत ज्ञान - साधना की जगह मानव - मुक्ित व जन - कल्याण के लिए थी - यह बात वे अपने चिंतन और िया के क्षणों से बराबर साबित करते रहे। अपने इस प्रयोजन में वे अिाकतर सपफल भी हुए। यह विडंबना की ही बात है, कि इस युग में भी ‘जातिवाद’ के पोषकों की कमी नहीं हैं। इसके पोषक कइर् आधारों पर इसका समथर्न करते हैं। समथर्न का एक आधार यह कहा जाता है, कि आधुनिक सभ्य समाज ‘कायर् - वुफशलता’ के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है, और चँूकि जाति - प्रथा भी श्रम विभाजन का ही दूसरा रूप है इसलिए इसमें कोइर् बुराइर् नहीं है। इस तवर्फ के संबंध में पहली बात तो यही आपिाजनक है, कि जाति - प्रथा श्रम विभाजन के साथ - साथ श्रमिक - विभाजन का भी रूप लिए हुए है। श्रम विभाजन, निश्चय ही सभ्य समाज की आवश्यकता है, परंतु किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाजन की व्यवस्था श्रमिकों का विभ्िाÂ वगो± में अस्वाभाविक विभाजन नहीं करती। भारत की जाति - प्रथा की एक और विशेषता यह है कि यह श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती बल्िक विभाजित विभ्िाÂ वगो± को एक - दूसरे की अपेक्षा उँफच - नीच भी करार देती है, जो कि विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाया जाता। जाति - प्रथा को यदि श्रम विभाजन मान लिया जाए, तो यह स्वाभाविक विभाजन नहीं है, क्योंकि यह मनुष्य की रफचि पर आधारित नहीं है। वुफशल व्यक्ित या सक्षम - श्रमिक - समाज का निमार्ण करने के लिए यह आवश्यक है कि हम व्यक्ितयों की क्षमता इस सीमा तक विकसित करें, जिससे वह अपना पेशा या कायर् का चुनाव स्वयं कर सके। इस सि(ांत के विपरीत जाति - प्रथा का दूष्िात सि(ांत यह है कि इससे मनुष्य के प्रश्िाक्षण अथवा उसकी निजी क्षमता का विचार किए बिना, दूसरे ही दृष्िटकोण जैसे माता - पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार, पहले से ही अथार्त गभर्धारण के समय से ही मनुष्य का पेशा निधार्रित कर दिया जाता है। जाति - प्रथा पेशे का दोषपूणर् पूवर्निधार्रण ही नहीं करती बल्िक मनुष्य को जीवन - भर के लिए एक पेशे में बाँध भी देती है। भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपयार्प्त होने के कारण वह भूखों मर जाए। आधुनिक युग में यह स्िथति प्रायः आती है, क्योंकि उद्योग - धंधों की प्रिया व तकनीक मंे निरंतर विकास और कभी - कभी अकस्मात परिवतर्न हो जाता है, आरोह जिसके कारण मनुष्य को अपना पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है और यदि प्रतिवूफल परिस्िथतियों में भी मनुष्य को अपना पेशा बदलने की स्वतंत्राता न हो, तो इसके लिए भूखों मरने के अलावा क्या चारा रह जाता है? ¯हदू धमर् की जाति प्रथा किसी भी व्यक्ित को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती है, जो उसका पैतृक पेशा न हो, भले ही वह उसमें पारंगत हो। इस प्रकार पेशा परिवतर्न की अनुमति न देकर जाति - प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनी हुइर् है। इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रम विभाजन की दृष्िट से भी जाति - प्रथा गंभीर दोषों से युक्त है। जाति - प्रथा का श्रम विभाजन मनुष्य की स्वेच्छा पर निभर्र नहीं रहता। मनुष्य की व्यक्ितगत भावना तथा व्यक्ितगत रफचि का इसमें कोइर् स्थान अथवा महत्त्व नहीं रहता। ‘पूवर् लेख’ ही इसका आधार है। इस आधार पर हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न इतनी बड़ी समस्या नहीं जितनी यह कि बहुत से लोग ‘निधार्रित’ कायर् को ‘अरफचि’ के साथ केवल विवशतावश करते हैं। ऐसी स्िथति स्वभावतः मनुष्य को दुभार्वना से ग्रस्त रहकर टालू काम करने और कम काम करने के लिए प्रेरित करती है। ऐसी स्िथति में जहाँ काम करने वालों का न दिल लगता हो न दिमाग, कोइर् वुफशलता वैफसे प्राप्त की जा सकती है। अतः यह निविर्वाद रूप से सि( हो जाता है कि आथ्िार्क पहलू से भी जाति - प्रथा हानिकारक प्रथा है। क्योंकि यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणारफचि व आत्म - शक्ित को दबा कर उन्हें अस्वाभाविक नियमों में जकड़ कर निष्िक्रय बना देती है। मेरी कल्पना का आदशर् - समाज जाति - प्रथा के खेदजनक परिणामों की नीरस गाथा को सुनते - सुनाते आप में से वुफछ लोग निश्चय ही उफब गए होंगे। यह अस्वाभाविक भी नहीं है। अतः अब मैं समस्या के रचनात्मक पहलू को लेता हूँ। मेरे द्वारा जाति - प्रथा की आलोचना सुनकर आप लोग मुझसे यह प्रश्न पूछना चाहेंगे कि यदि मैं जातियों के विरु( हूँ, तो पिफर मेरी दृष्िट में आदशर् - समाज क्या है? ठीक है, यदि ऐसा पूछेंगे, तो मेरा उत्तर होगा कि मेरा आदशर् - समाज स्वतंत्राता, समता, भ्रातृता पर आधारित होगा। क्या यह ठीक नहीं है, भ्रातृता अथार्त भाइर्चारे में किसी को क्या आपिा हो सकती है? किसी भी आदशर् - समाज में इतनी गातिशीलता होनी चाहिए जिससे कोइर् भी वांछित परिवतर्न समाज के एक छोर से दूसरे तक संचारित हो सके। ऐसे समाज के बहुवििा हितों में सबका भाग होना चाहिए तथा सबको उनकी रक्षा के प्रति सजग रहना चाहिए। सामाजिक जीवन में अबाध संपवर्फ के अनेक साधन व अवसर उपलब्ध रहने चाहिए। तात्पयर् यह कि दूध - पानी के मिश्रण की तरह भाइर्चारे का यही वास्तविक रूप है, और इसी श्रम विभाजन और जाति - प्रथा का दूसरा नाम लोकतंत्रा है। क्योंकि लोकतंत्रा केवल शासन की एक प(ति ही नहीं है, लोकतंत्रा मूलतः सामूहिक जीवनचयार् की एक रीति तथा समाज के सम्िमलित अनुभवों के आदान - प्रदान का नाम है। इनमें यह आवश्यक है कि अपने साथ्िायों के प्रति श्र(ा व सम्मान का भाव हो। इसी प्रकार स्वतंत्राता पर भी क्या कोइर् आपिा हो सकती है? गमनागमन की स्वाधीनता, जीवन तथा शारीरिक सुरक्षा की स्वाधीनता के अथो± में शायद ही कोइर् ‘स्वतंत्राता’ का विरोध करे। इसी प्रकार संपिा के अिाकार, जीविकोपाजर्न के लिए आवश्यक औशार व सामग्री रखने के अिाकार जिससे शरीर को स्वस्थ रखा जा सके, के अथर् में भी ‘स्वतंत्राता’ पर कोइर् आपिा नहीं हो सकती। तो पिफर मनुष्य की शक्ित के सक्षम एवं प्रभावशाली प्रयोग की भी स्वतंत्राता क्यों न प्रदान की जाए? जाति - प्रथा के पोषक, जीवन, शारीरिक - सुरक्षा तथा संपिा के अिाकार की स्वतंत्राता को तो स्वीकार कर लेंगे, परंतु मनुष्य के सक्षम एवं प्रभावशाली प्रयोग की स्वतंत्राता देने के लिए जल्दी तैयार नहीं होंगे, क्योंकि इस प्रकार की स्वतंत्राता का अथर् होगा अपना व्यवसाय चुनने की स्वतंत्राता किसी को नहीं है, तो उसका अथर् उसे ‘दासता’ में जकड़कर रखना होगा, क्योंकि ‘दासता’ केवल कानूनी पराधीनता को ही नहीं कहा जा सकता। ‘दासता’ में वह स्िथति भी सम्िमलित है जिससे वुफछ व्यक्ितयों को दूसरे लोगों के द्वारा निधार्रित व्यवहार एवं कतर्व्यों का पालन करने के लिए विवश होना पड़ता है। यह स्िथति कानूनी पराधीनता न होने पर भी पाइर् जा सकती है। उदाहरणाथर्, जाति प्रथा की तरह ऐसे वगर् होना संभव है, जहाँ वुफछ लोगों की अपनी इच्छा के विरु( पेशे अपनाने पड़ते हैं। अब आइए समता पर विचार करें। क्या ‘समता’ पर किसी की आपिा हो सकती है। प्रफांसीसी व्रफांति के नारे में ‘समता’ शब्द ही विवाद का विषय रहा है। ‘समता’ के आलोचक यह कह सकते हैं कि सभी मनुष्य बराबर नहीं होते। और उनका यह तवर्फ वशन भी रखता है। लेकिन तथ्य होते हुए भी यह विशेष महत्त्व नहीं रखता। क्योंकि शाब्िदक अथर् में ‘समता’ असंभव होते हुए भी यह नियामक सि(ांत है। मनुष्यों की क्षमता तीन बातों पर निभर्र रहती है। ;1द्ध शारीरिक वंश परंपरा, ;2द्ध सामाजिक उत्तरािाकार अथार्त सामाजिक परंपरा के रूप में माता - पिता की कल्याण कामना, श्िाक्षा तथा वैज्ञानिक ज्ञानाजर्न आदि, सभी उपलब्िधयाँ जिनके कारण सभ्य समाज, जंगली लोगों की अपेक्षा विश्िाष्टता प्राप्त करता है, और अंत में ;3द्ध मनुष्य के अपने प्रयत्न। इन तीनों दृष्िटयों से निस्संदेह मनुष्य समान नहीं होते। तो क्या इन विशेषताओं के कारण, समाज को भी उनके साथ असमान व्यवहार करना चाहिए? समता विरोध करने वालों के पास इसका क्या जवाब है? आरोह व्यक्ित विशेष के दृष्िटकोण से, असमान प्रयत्न के कारण, असमान व्यवहार को अनुचित नहीं कहा जा सकता। साथ ही प्रत्येक व्यक्ित को अपनी क्षमता का विकास करने का पूरा प्रोत्साहन देना सवर्था उचित है। परंतु यदि मनुष्य प्रथम दो बातों में असमान है, तो क्या इस आधार पर उनके साथ भ्िान्न व्यवहार उचित हैं? उत्तम व्यवहार के हक की प्रतियोगिता में वे लोग निश्चय ही बाशी मार ले जाएँगे, जिन्हें उत्तम वुफल, श्िाक्षा, पारिवारिक ख्याति, पैतृक संपदा तथा व्यवसायिक प्रतिष्ठा का लाभ प्राप्त है। इस प्रकार पूणर् सुविधा संपन्नों को ही ‘उत्तम व्यवहार’ का हकदार माना जाना वास्तव में निष्पक्ष निणर्य नहीं कहा जा सकता। क्योंकि यह सुविधा संपन्नों के पक्ष में निणर्य देना होगा। अतः न्याय का तकाशा यह है कि जहाँ हम तीसरे ;प्रयासों की असमानता, जो मनुष्यों के अपने वश की बात हैद्ध आधार पर मनुष्यों के साथ असमान व्यवहार को उचित ठहराते हैं, वहाँ प्रथम दो आधारों ;जो मनुष्य के अपने वश की बातें नहीं हंैद्ध पर उनके साथ असमान व्यवहार नितांत अनुचित है। और हमें ऐसे व्यक्ितयों के साथ यथासंभव समान व्यवहार करना चाहिए। दूसरे शब्दों में, समाज की यदि अपने सदस्यों से अिाकतम उपयोगिता प्राप्त करनी है, तो यह तो संभव है, जब समाज के सदस्यों को आरंभ से ही समान अवसर एवं समान व्यवहार उपलब्ध कराए जाए। ‘समता’ का औचित्य यहीं पर समाप्त नहीं होता। इसका और भी आधार उपलब्ध है। एक राजनीतिज्ञ पुरुष का बहुत बड़ी जनसंख्या से पाला पड़ता है। अपनी जनता से व्यवहार करते समय, राजनीतिज्ञ के पास न तो इतना समय होता है न प्रत्येक के विषय में इतनी जानकारी ही होती है, जिससे वह सबकी अलग - अलग आवश्यकताओं तथा क्षमताओं के आधार पर वांछित व्यवहार अलग - अलग कर सके। वैसे भी आवश्यकताओं और क्षमताओं के आधार पर भ्िान्न व्यवहार कितना भी आवश्यक तथा औचित्यपूणर् क्यों न हो, ‘मानवता’ के दृष्िटकोण से समाज दो वगो± व श्रेण्िायों में नहीं बाँटा जा सकता। ऐसी स्िथति में, राजनीतिज्ञ को अपने व्यवहार में एक व्यवहायर् सि(ांत की आवश्यकता रहती है और यह व्यवहायर् सि(ांत यही होता है, कि सब मनुष्यों के साथ समान व्यवहार किया जाए। राजनीतिज्ञ यह व्यवहार इसलिए नहीं करता कि सब लोग समान होते, बल्िक इसलिए कि वगीर्करण एवं श्रेणीकरण संभव होता। इस प्रकार ‘समता’ यद्यपि काल्पनिक जगत की वस्तु है, पिफर भी राजनीतिज्ञ को सभी परिस्िथतियों को दृष्िट में रखते हुए, उसके लिए यही मागर् भी रहता है, क्योंकि यही व्यावहारिक भी है और यही उसके व्यवहार की एकमात्रा कसौटी भी है। श्रम विभाजन और जाति - प्रथा पाठ के साथ 1 जाति प्रथा को श्रम - विभाजन का ही एक रूप न मानने के पीछे अंाबेडकर के क्या तवर्फ हैं? 2 जाति प्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी व भुखमरी का भी एक कारण वैफसे बनती रही है? क्या यह स्िथति आज भी है? 3 लेखक के मत से ‘दासता’ की व्यापक परिभाषा क्या है? 4. शारीरिक वंश - परंपरा और सामाजिक उत्तराध्िकार की दृष्िट से मनुष्यों में असमानता संभावित रहने के बावजूद आंबेडकर ‘समता’ को एक व्यवहायर् सि(ांत मानने का आग्रह क्यों करते हैं? इसके पीछे उनके क्या तवर्फ हैं? 5.सही में आंबेडकर ने भावनात्मक समत्व की मानवीय दृष्िट के तहत जातिवाद का उन्मूलन चाहा है, जिसकी प्रतिष्ठा के लिए भौतिक स्िथतियों और जीवन - सुविधाओं का तवर्फ दिया है। क्या इससे आप सहमत हैं? 6.आदशर् समाज के तीन तत्त्वों में से एक ‘भ्रातृता’ को रखकर लेखक ने अपने आदशर् समाज में स्ित्रायों को भी सम्िमलित किया है अथवा नहीं? आप इस ‘भ्रातृता’ शब्द से कहाँ तक सहमत हैं? यदि नहीं तो आप क्या शब्द उचित समझेंगे/समझेंगी? पाठ के आसपास 1.आंबेडकर ने जाति प्रथा के भीतर पेशे के मामले में लचीलापन न होने की जो बात की है - उस संदभर् में शेखर जोशी की कहानी ‘गलता लोहा’ पर पुनविर्चार कीजिए। 2.कायर् वुफशलता पर जाति प्रथा का प्रभाव विषय पर समूह में चचार् कीजिए। चचार् के दौरान उभरने वाले ¯बदुओं को लिपिब( कीजिए। इन्हें भी जानें ’ आंबेडकर की पुस्तक जातिभेद का उच्छेद और इस विषय में गांध्ी जी के साथ उनके संवाद की जानकारी प्राप्त कीजिए। ’ ¯हद स्वराज नामक पुस्तक में गांध्ी जी ने वैफसे आदशर् समाज की कल्पना की है, उसे भी पढ़ें।