Bal Ram Katha

अवध्पुरी में राम यह कथा अवध् की है। और बहुत पुरानी है। अवध् में सरयू नदी के किनारे एक अति संुदर नगर था। अयोध्या। सही अथो± में दशर्नीय। देखने लायक। भव्यता जैसे उसका दूसरा नाम हो! अयोध्या में केवल राजमहल भव्य नहीं था। उसकी एक - एक इमारत आलीशान थी। आम लोगों के घर भव्य थे। सड़वेंफ चैड़ी थीं। सुंदर बाग - बगीचे। पानी से लबालब भरे सरोवर। खेतों में लहराती हरियाली। हवा में हिलती प़्ाफसलें सरयू की लहरों के साथ खेलती थीं। अयोध्या हर तरह से संपन्न नगरी थी। संपन्नता कोने - अंतरे तक बिखरी हुइर्। सभी सुखी। सब समृ(। दुःख और विपन्नता को अयोध्या का पता नहीं मालूम था। या उन्हें नगर की सीमा में प्रवेश की अनुमति नहीं थी। पूरा नगर विलक्षण था। अद्भुत और मनोरम। उसे ऐसा होना ही था। वह कोसल राज्य की राजधनी था। राजा दशरथ वहीं रहते थे। उनके राज में दुःख का भला क्या काम? राजा दशरथ वुफशल यो(ा और न्यायपि्रय शासक थे। महाराज अज के पुत्रा। महाराज रघु के वंशज। रघुवुफलके उत्तराध्िकारी। रघुवुफल की रीति - नीति का प्रभाव हर जगह दिखाइर् देता था। सुख - समृि से लेकर बात - व्यवहार तक। लोग मयार्दाओं का पालन करते थे। सदाचारी थे। पवित्राता और शांति हर जगह थी। नगर में भी। लोगों के मन में भी। राजा दशरथ यशस्वी थे। उन्हें किसी चीश की कमी नहीं थी। राज - सुख था। कमी होने का प्रश्न ही नहीं था। लेकिन उन्हें एक दुःख था। छोटा सा दुःख। मन के एक कोने में छिपा हुआ। वह रह - रहकर उभर आता था। उन्हें सालता रहता था। उनके कोइर् संतान नहीं थी। आयु लगातार बढ़ती जा रही थी। उनकी तीन रानियाँ थींμ कौशल्या, सुमित्रा और वैफकेयी। रानियों के मन में भी बस यही एक दुःख था। संतान की कमी। जीवन सूना - सूना लगता था। राजा दशरथ से रानियों की बातचीत प्रायः इसी विषय पर आकर रुक जाती थी। राजा दशरथ की च्िंाता बढ़ती जा रही थी। बहुत सोच - विचारकर महाराज दशरथ ने इस संबंध् में वश्िाष्ठ मुनि से चचार् की। उन्हें पूरी बात विस्तार से बताइर्। रघुवुफलके अगले उत्तराध्िकारी के बारे में अपनी च्िंाता बताइर्। मुनि वश्िाष्ठ राजा दशरथ की च्िंाता समझते थे। उन्होंने दशरथ को यज्ञ करने की सलाह दी। पुत्रोष्िट यज्ञ। महष्िार् ने कहा, फ्आप पुत्रोष्िट यज्ञ करें, महाराज! आपकी इच्छा अवश्य पूरी होगी।य् यज्ञ महान तपस्वी ट्टष्य शृंग की देखरेख में हुआ। पूरा नगर उसकी तैयारी में लगा हुआ था। यज्ञशाला सरयू नदी के किनारे बनाइर् गइर्। यज्ञ में अनेक राजाओं कोनिमंत्रिात किया गया। तमाम ट्टष्िा - मुनि पधारे। शंखध्वनि और मंत्रोच्चार के बीच एक - एक कर सबने आहुति डाली। अंतिम आहुति राजा दशरथ की थी। यज्ञ पूरा हुआ। अग्िन के देवता ने महाराज दशरथ को आशीवार्द दिया। वुफछ समय बाद दशरथ की इच्छा पूरी हुइर्। तीनों रानियाँ पुत्रावती हुईं। महारानी कौशल्या ने राम को जन्म दिया। चैत्रा माह की नवमी के दिन। रानी सुमित्रा के दो पुत्रा हुए। लक्ष्मण और शत्राुघ्न। रानी वैफकेयी के पुत्रा का नाम भरत रखा गया। राजमहल में खुशी छा गइर्। नगर में बधइयाँ बजने लगीं। मंगलगीत गाए गए। 3 अवध्पुरी में राम हर ओर खुशी। उत्सव जैसा दृश्य। राजा दशरथ प्रसन्न थे। उनकी मनोकामना पूरी हुइर्। प्रजा प्रसन्न थी कि दशरथ की च्िंाता दूर हुइर्। नगर में बड़ा समारोह आयोजित किया गया। ध्ूमधम से। आयोजन में दूर - दूर से लोग आए। राजा दशरथ ने सबको पूरा सम्मान दिया। उन्हें कपड़े, अनाज और धन देकर विदा किया। चारों राजवुफमार ध्ीरे - ध्ीरे बड़े हुए। वे बहुत सुंदर थे। सुदशर्न। साथ खेलने निकलते तो लोग उन्हें देखते रह जाते। आँखें उनसे हटती ही नहीं थीं। चारों भाइयों में आपस में बहुत प्रेम था। वे अपने बड़े भाइर् राम की आज्ञा मानते थे। खेलवूफद में लक्ष्मण प्रायः राम के साथ रहते। भरत और शत्राुघ्न की एक अलग जोड़ी थी। और बड़े होने पर राजवुफमारों को श्िाक्षा - दीक्षा के लिए भेजा गया। उन्होंने वुफशल और अपनी विद्या में दक्ष गुरुजनों से ज्ञान अ£जत किया। शास्त्रों का अध्ययन किया। शस्त्रा - विद्या सीखी। चारों राजवुफमार वुफशाग्र - बुि थे। जल्द ही सब विद्याओं में पारंगत हो गए। राम इसमें सवोर्परि थे। उनमें कइर् अन्य गुण भी थे। विवेक, शालीनता और न्यायपि्रयता। राजा दशरथ को राम सबसे अध्िक पि्रय थे। ज्येष्ठ पुत्रा होने के कारण। और इन मानवीय गुणों के कारण भी। 4 बाल रामकथा राजवुफमार वुफछ और बड़े हुए। विवाह योग्य। नगर में इसकी चचार् होने लगी। महाराज दशरथ भी ऐसा ही चाहते थे। अपनी संतानों के लिए सुयोग्य वध्ुएँ। परिजनों में चचार् पहले से ही हो रही थी। बाद में पुरोहितों को भी इसमें शामिल कर लिया गया। अयोध्या का राजमहल। एक दिन ऐसी ही चचार् चल रही थी। गहन मंत्राणा। तभी एक द्वारपाल घबराया हुआ अंदर आया। उसने सूचना दी कि मह£ष विश्वामित्रा पधरे हैं। महाराज दशरथ तत्काल अपना आसन छोड़कर खड़े हो गए। द्वार की ओर बढ़े। महष्िार् की अगवानी करने। उन्हें लेकर दरबार में आए।विश्वामित्रा को ऊचा आसन दिया गया। ँ फ्आप आज्ञा दीजिए, महष्िार्! मैं उसे पूरा करने के लिए तत्पर हँू। बिलवुफल नहीं हिचवूँफगा।य् फ्मैं सिि के लिए एक यज्ञ कर रहा हँ। अनुष्ठान लगभग पूरा हो गया है।ू लेकिन दो राक्षस उसमें बाध डाल रहे हैं। मैं जानता हँू कि उन राक्षसों को केवल एक ही व्यक्ित मार सकता है। वह राम हैं। आप अपने ज्येष्ठ पुत्रा को मुझे दे दें ताकि यज्ञ पूरा हो,य् विश्वामित्रा ने कहा। दशरथ पर जैसे बिजली गिर पड़ी। वह अचकचा गए। उन्हें उम्मीद ही नहीं थी कि मुनिवर उनसे राम को माँग लेंगे। उनके ज्येष्ठ पुत्रा। उनके सबसे पि्रय। दशरथ ¯चता में पड़ गए। विश्वामित्रा कभी स्वयं राजा थे। बहुत बड़े और बलशाली। बाद में अपना राजपाट विश्वामित्रा दशरथ की दुविध समझ रहे थे। उन्होंने कहा, फ्मैं राम को केवल छोड़ दिया। संन्यास ग्रहण कर लिया। जंगल चले गए। वहीं उन्होंने अपना आश्रम बनाया। वुफछ दिनों के लिए माँग रहा हूँ। यज्ञ दस उसे उन्होंने सि(ाश्रम नाम दिया। दिन में संपन्न हो जाएगा।य् महाराज दशरथ दुःखी हो गए। पुत्रा - वियोग की आशंका से महष्िार् के स्वागत - सत्कार के बाद दशरथ ने कहा, फ्महष्िार्, आज्ञा दें, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ। आप अपने मन की बात कहिए। आपकी आज्ञा का पूरी तरह पालन होगा।य् फ्राजन! मैं जो माँगने जा रहा हूँ उसे देना आपके लिए कठिन होगा।य् काँप उठे। दरबार में सन्नाटा छा गया। दशरथ की दशा देखकर मंत्राी च्िंातित थे। पर चुप थे। महष्िार् वश्िाष्ठ शांत थे। इतने में दशरथ काँप कर बेहोश हो गए। होश आया तो डर ने उन्हें पिफर जकड़ लिया। मूच्िर्छत होकर दोबारा गिर पडे़। संज्ञा - शून्य पड़े रहे। महष्िार् विश्वामित्रा का क्रोध् बढ़ता जा रहा था। दरबार सशंकित था। किसी अनिष्ट की आशंका से। वे वुफछ समझ नहीं पा रहे थे। महष्िार् और महाराज के बीच संवाद में वुफछ बोलना उचित भी नहीं था। मुनि वश्िाष्ठ चुपचाप आकर महाराज दशरथ के पास खड़े हो गए। थोड़ी देर बाद दशरथ उठे। स्वयं को सँभालते हुए उन्होंने महष्िार् से विनती की, फ्महामुनि! मेरा राम तो अभी सोलह वषर् का भी नहीं हुआ है। वह राक्षसों से वैफसे लड़ेगा? राक्षस मायावी हैं। वह उनका छल - कपट वैफसे समझेगा? उन्हें वैफसे मारेगा? इससे अच्छा तो यही होगा कि आप मेरी सेना ले जाएँ। मैं स्वयं आपके साथ चलूँ। राक्षसों से यु( करूँ।य् महष्िार् विश्वामित्रा ने कोइर् प्रतििया व्यक्त नहीं की। क्रोध्ित थे, पर उसे व्यक्त नहीं कर रहे थे। उन्हें अपने यज्ञ के नियम याद थे। क्रोध् करने से यज्ञ खंडित हो जाता। अनुष्ठान अध्ूरा रह जाता। फ्मैं राम के बिना नहीं रह सकता, महामुनि! एक पल भी नहीं। आप राम को छोड़कर जो चाहें माँग लें। उसे मत ले जाइए। मैं राम को नहीं दूँगा। बिलवुफल नहीं। वह मेरी बुढ़ापे की संतान है। मैं उससे बहुत प्रेम करता हूँ।य् 5 अवध्पुरी में राम महष्िार् का क्रोध् भभक उठा। दरबार,मंत्राीगण और ट्टष्िा - मुनि सकते में आ गए। फ्आप रघुवुफल की रीति तोड़ रहे हैं, राजन। वचन देकर पीछे हट रहे हैं। यह बरताव वुफल के विनाश का सूचक है। आप जानते हैं कि मैं स्वयं दुष्ट राक्षसों का संहार कर सकता था। लेकिन मैंने संन्यास ले लिया है। अगर आप राम को नहीं देंगे तो मैं यहाँ से खाली हाथ लौटजाऊँ गा।य् बात बिगड़ती देखकर मुनि वश्िाष्ठ आगे आए। महाराज दशरथ को समझाया। राम की शक्ित के बारे में। प्रतिज्ञा तोड़ने के संबंध् में। महष्िार् विश्वामित्रा के साथ रहने पर राजवुफमार राम को होने वाले लाभ के बारे में। फ्राजन, आपको अपना वचन पूरा करना चाहिए। रघुवुफल की रीति यही है। प्राण देकर भी आपके पूवर्जों ने वचन निभाया है। आप राम की च्िंाता न करें। महष्िार् के होते उनका कोइर् वुफछ नहीं बिगाड़ सकता।य् महाराज दशरथ की च्िंाता वुफछ कम हुइर्। पर मन अब भी ख्िान्न था। पुत्रा - बिछोह का दुःख सभी तको± पर भारी पड़ रहा था। गुरु वश्िाष्ठ ने कहा, फ्महाराज, महष्िार् विश्वामित्रा सि( पुरुष हैं। तपस्वी हैं। अनेक गुप्त विद्याओं के जानकार हैं। वह वुफछ सोचकर ही यहाँ आए हैं। राम उनसे अनेक 6 बाल रामकथा नयी विद्याएँ सीख सवेंफगे। आप राम को मह£ष विश्वामित्रा के साथ जाने दें। राम को उन्हें सौंप दें।य् दशरथ ने मुनि वश्िाष्ठ की बात दुःखी मन से स्वीकार कर ली। लेकिन वह राम को अकेले नहीं भेजना चाहते थे। उन्होंने विश्वामित्रा से आग्रह किया। कहा कि वे राम के साथ उनके छोटे भाइर् लक्ष्मण को भी ले जाएँ। मह£ष विश्वामित्रा ने महाराज दशरथ का यह आग्रह स्वीकार कर लिया। राम और लक्ष्मण को तत्काल दरबार में बुलाया गया। महाराज दशरथ ने उन्हें अपने निणर्य की सूचना दी। दोनों भाइयों ने उसे सहषर् स्वीकार कर लिया। सिर झुकाकर। आदर सहित। इसकी सूचना माता कौशल्या को दी गइर्। बताया गया कि राम और लक्ष्मण वन जा रहे हैं। मह£ष विश्वामित्रा के साथ। नितांत गंभीर माहौल में स्वस्ितवचन हुआ। शंखध्वनि हुइर्। नगाड़े बजे। महाराज दशरथ ने भावुक होकर दोनों पुत्रों का मस्तक सूँघकर उन्हें महष्िार् को सौंप दिया। दोनों राजवुफमार बिना विलंब किए महष्िार् के साथ चल पडे़। बीहड़ और भयानक जंगलों की ओर। विश्वामित्रा आगे - आगे चल रहे थे। राम उनके पीछे थे। लक्ष्मण राम से दो कदम पीछे। अपने ध्नुष सँभाले हुए। पीठ पर तुणीर बाँध्े। कमर में तलवारें लटकाए।

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