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धीरंजन मालवे
(1952)
धीरंजन मालवे का जन्म बिहार के नालंदा ज़िले के डुँवरावाँ गाँव में 9 मार्च 1952 को हुआ। ये एम.एससी. (सांख्यिकी), एम.बी.ए. और एल.एल.बी. हैं। आकाशवाणी और दूरदर्शन से जुड़े मालवे अभी भी वैज्ञानिक जानकारी को लोगों तक पहुँचाने के काम में जुटे हुए हैं। आकाशवाणी और बी.बी.सी. (लंदन) में कार्य करने के दौरान मालवे रेडियो विज्ञान पत्रिका ‘ज्ञान-विज्ञान’ का संपादन और प्रसारण करते रहे।
मालवे की भाषा सीधी, सरल और वैज्ञानिक शब्दावली लिए हुए है। यथावश्यक अन्य भाषाओं के शब्दों का प्रयोग भी वे करते हैं। मालवे ने कई भारतीय वैज्ञानिकों की संक्षिप्त जीवनियाँ लिखी हैं, जो इनकी पुस्तक ‘विश्व-विख्यात भारतीय वैज्ञानिक’ पुस्तक में समाहित हैं।
प्रस्तुत पाठ ‘वैज्ञानिक चेतना के वाहक रामन्’ में नोबेल पुरस्कार विजेता प्रथम भारतीय वैज्ञानिक के संघर्षमय जीवन का चित्रण किया गया है। वेंकट रामन् कुल ग्यारह साल की उम्र में मैट्रिक, विशेष योग्यता के साथ इंटरमीडिएट, भौतिकी और अंग्रेज़ी में स्वर्ण पदक के साथ बी.ए. और प्रथम श्रेणी में एम.ए. करके मात्र अठारह साल की उम्र में कोलकाता में भारत सरकार के फाइनेंस डिपार्टमेंट में सहायक जनरल एकाउंटेंट नियुक्त कर लिए गए थे। इनकी प्रतिभा से इनके अध्यापक तक अभिभूत थे।
सन् 1930 में नोबेल पुरस्कार पाने के बाद सी.वी. रामन् ने अपने एक मित्र को उस पुरस्कार-समारोह के बारे में लिखा था: जैसे ही मैं पुरस्कार लेकर मुड़ा और देखा कि जिस स्थान पर मैं बैठाया गया था, उसके ऊपर ब्रिटिश राज्य का ‘यूनियन जैक’ लहरा रहा है, तो मुझे अफ़सोस हुआ कि मेरे दीन देश भारत की अपनी पताका तक नहीं है। इस अहसास से मेरा गला भर आया और मैं फूट-फूट कर रो पड़ा।
चंद्रशेखर वेंकट रामन् भारत में विज्ञान की उन्नति के चिर आकांक्षी थे तथा भारत की स्वतंत्रता के पक्षधर थे। वे महात्मा गांधी को अपना अभिन्न मित्र मानते थे। नोबेल पुरस्कार समारोह के बाद एक भोज के दौरान उन्होंने कहा था: मुझे एक बधाई का तार अपने सर्वाधिक प्रिय मित्र (महात्मा गांधी) से मिला है, जो इस समय जेल में हैं।
एक मेधावी छात्र से महान वैज्ञानिक तक की रामन् की संघर्षमय जीवन यात्रा और उनकी उपलब्धियों की जानकारी यह पाठ बखूबी कराता है।
वैज्ञानिक चेतना के वाहक चंद्रशेखर वेंकट रामन्
पेड़ से सेब गिरते हुए तो लोग सदियों से देखते आ रहे थे, मगर गिरने के पीछे छिपे रहस्य को न्यूटन से पहले कोई और समझ नहीं पाया था। ठीक उसी प्रकार विराट समुद्र की नील-वर्णीय आभा को भी असंख्य लोग आदिकाल से देखते आ रहे थे, मगर इस आभा पर पड़े रहस्य के परदे को हटाने के लिए हमारे समक्ष उपस्थित हुए सर चंद्रशेखर वेंकट रामन्।
बात सन् 1921 की है, जब रामन् समुद्री यात्रा पर थे। जहाज के डेक पर खड़े होकर नीले समुद्र को निहारना, प्रकृति-प्रेमी रामन् को अच्छा लगता था। वे समुद्र की नीली आभा में घंटों खोए रहते। लेकिन रामन् केवल भावुक प्रकृति-प्रेमी ही नहीं थे। उनके अंदर एक वैज्ञानिक की जिज्ञासा भी उतनी ही सशक्त थी। यही जिज्ञासा उनसे सवाल कर बैठी–‘आखिर समुद्र का रंग नीला ही क्यों होता है? कुछ और क्यों नहीं?’ रामन् सवाल का जवाब ढूँढ़ने में लग गए। जवाब ढूँढ़ते ही वे विश्वविख्यात बन गए।
रामन् का जन्म 7 नवंबर सन् 1888 को तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली नगर में हुआ था। इनके पिता विशाखापत्तनम् में गणित और भौतिकी के शिक्षक थे। पिता इन्हें बचपन से गणित और भौतिकी पढ़ाते थे। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि जिन दो विषयों के ज्ञान ने उन्हें जगत-प्रसिद्ध बनाया, उनकी सशक्त नींव उनके पिता ने ही तैयार की थी। कॉलेज की पढ़ाई उन्होंने पहले ए.बी.एन. कॉलेज तिरुचिरापल्ली से और फिर प्रेसीडेंसी कॉलेज मद्रास से की। बी.ए. और एम.ए.–दोनों ही परीक्षाओं में उन्होंने काफ़ी ऊँचे अंक हासिल किए।
रामन् का मस्तिष्क विज्ञान के रहस्यों को सुलझाने के लिए बचपन से ही बेचैन रहता था। अपने कॉलेज के ज़माने से ही उन्होंने शोधकार्यों में दिलचस्पी लेना शुरू कर दिया था। उनका पहला शोधपत्र फिलॉसॉफिकल मैगज़ीन में प्रकाशित हुआ था। उनकी दिली इच्छा तो यही थी कि वे अपना सारा जीवन शोधकार्यों को ही समर्पित कर दें, मगर उन दिनों शोधकार्य को पूरे समय के कैरियर के रूप में अपनाने की कोई खास व्यवस्था नहीं थी। प्रतिभावान छात्र सरकारी नौकरी की ओर आकर्षित होते थे। रामन् भी अपने समय के अन्य सुयोग्य छात्रों की भाँति भारत सरकार के वित्त-विभाग में अफ़सर बन गए। उनकी तैनाती कलकत्ता* में हुई।
कलकत्ता में सरकारी नौकरी के दौरान उन्होंने अपने स्वाभाविक रुझान को बनाए रखा। दफ़्तर से फ़ुर्सत पाते ही वे लौटते हुए बहू बाज़ार आते, जहाँ ‘इंडियन एसोसिएशन फॉर द कल्टीवेशन अॉफ़ साइंस’ की प्रयोगशाला थी। यह अपने आपमें एक अनूठी संस्था थी, जिसे कलकत्ता के एक डॉक्टर महेंद्रलाल सरकार ने वर्षाेंρ की कठिन मेहनत और लगन के बाद खड़ा किया था। इस संस्था का उद्देश्य था देश में वैज्ञानिक चेतना का विकास करना। अपने महान् उद्देश्यों के बावजूद इस संस्था के पास साधनों का नितांत अभाव था। रामन् इस संस्था की प्रयोगशाला में कामचलाऊ उपकरणों का इस्तेमाल करते हुए शोधकार्य करते। यह अपने आपमें एक आधुनिक हठयोग का उदाहरण था, जिसमें एक साधक दफ़्तर में कड़ी मेहनत के बाद बहू बाज़ार की इस मामूली-सी प्रयोगशाला में पहुँचता और अपनी इच्छाशक्ति के ज़ोर से भौतिक विज्ञान को समृद्ध बनाने के प्रयास करता। उन्हीं दिनों वे वाद्ययंत्रों की ओर आकृष्ट हुए। वे वाद्ययंत्रों की ध्वनियों के पीछे छिपे वैज्ञानिक रहस्यों की परतें खोलने का प्रयास कर रहे थे। इस दौरान उन्होंने अनेक वाद्ययंत्रों का अध्ययन किया जिनमें देशी और विदेशी, दोनों प्रकार के वाद्ययंत्र थे।
* वर्तमान नाम ‘कोलकाता’ है।
वाद्ययंत्रों पर किए जा रहे शोधकार्यों के दौरान उनके अध्ययन के दायरे में जहाँ वायलिन, चैलो या पियानो जैसे विदेशी वाद्य आए, वहीं वीणा, तानपूरा और मृदंगम् पर भी उन्होंने काम किया। उन्होंने वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर पश्चिमी देशों की इस भ्रांति को तोड़ने की कोशिश की कि भारतीय वाद्ययंत्र विदेशी वाद्यों की तुलना में घटिया हैं। वाद्ययंत्रों के कंपन के पीछे छिपे गणित पर उन्होंने अच्छा-खासा काम किया और अनेक शोधपत्र भी प्रकाशित किए।
उस ज़माने के प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री सर आशुतोष मुखर्जी को इस प्रतिभावान युवक के बारे में जानकारी मिली। उन्हीं दिनों कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर का नया पद सृजित हुआ था। मुखर्जी महोदय ने रामन् के समक्ष प्रस्ताव रखा कि वे सरकारी नौकरी छोड़कर कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर का पद स्वीकार कर लें। रामन् के लिए यह एक कठिन निर्णय था। उस ज़माने के हिसाब से वे एक अत्यंत प्रतिष्ठित सरकारी पद पर थे, जिसके साथ मोटी तनख्वाह और अनेक सुविधाएँ जुड़ी हुई थीं। उन्हें नौकरी करते हुए दस वर्ष बीत चुके थे। एेसी हालत में सरकारी नौकरी छोड़कर कम वेतन और कम सुविधाओंवाली विश्वविद्यालय की नौकरी में आने का फ़ैसला करना हिम्मत का काम था।
रामन् सरकारी नौकरी की सुख-सुविधाओं को छोड़ सन् 1917 में कलकत्ता विश्वविद्यालय की नौकरी में आ गए। उनके लिए सरस्वती की साधना सरकारी सुख-सुविधाओं से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण थी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के शैक्षणिक माहौल में वे अपना पूरा समय अध्ययन, अध्यापन और शोध में बिताने लगे। चार साल बाद यानी सन् 1921 में समुद्र-यात्रा के दौरान जब रामन् के मस्तिष्क में समुद्र के नीले रंग की वजह का सवाल हिलोरें लेने लगा, तो उन्होंने आगे इस दिशा में प्रयोग किए, जिसकी परिणति रामन् प्रभाव की खोज के रूप में हुई।
रामन् ने अनेक ठोस रवों और तरल पदार्थों पर प्रकाश की किरण के प्रभाव का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि जब एकवर्णीय प्रकाश की किरण किसी तरल या ठोस रवेदार पदार्थ से गुज़रती है तो गुज़रने के बाद उसके वर्ण में परिवर्तन आता है। वजह यह होती है कि एकवर्णीय प्रकाश की किरण के फोटॉन जब तरल या ठोस रवे से गुज़रते हुए इनके अणुओं से टकराते हैं तो इस टकराव के परिणामस्वरूप वे या तो ऊर्जा का कुछ अंश खो देते हैं या पा जाते हैं। दोनों ही स्थितियाँ प्रकाश के वर्ण (रंग) में बदलाव लाती हैं। एकवर्णीय प्रकाश की किरणों में सबसे अधिक ऊर्जा बैंजनी रंग के प्रकाश में होती है। बैंजनी के बाद क्रमशः नीले, आसमानी, हरे, पीले, नारंगी और लाल वर्ण का नंबर आता है। इस प्रकार लाल-वर्णीय प्रकाश की ऊर्जा सबसे कम होती है। एकवर्णीय प्रकाश तरल या ठोस रवों से गुज़रते हुए जिस परिमाण में ऊर्जा खोता या पाता है, उसी हिसाब से उसका वर्ण परिवर्तित हो जाता है।
रामन् की खोज भौतिकी के क्षेत्र में एक क्रांति के समान थी। इसका पहला परिणाम तो यह हुआ कि प्रकाश की प्रकृति के बारे में आइंस्टाइन के विचारों का प्रायोगिक प्रमाण मिल गया। आइंस्टाइन के पूर्ववर्ती वैज्ञानिक प्रकाश को तरंग के रूप में मानते थे, मगर आइंस्टाइन ने बताया कि प्रकाश अति सूक्ष्म कणों की तीव्र धारा के समान है। इन अति सूक्ष्म कणों की तुलना आइंस्टाइन ने बुलेट से की और इन्हें ‘फोटॉन’ नाम दिया। रामन् के प्रयोगों ने आइंस्टाइन की धारणा का प्रत्यक्ष प्रमाण दे दिया, क्योंकि एकवर्णीय प्रकाश के वर्ण में परिवर्तन यह साफ़तौर पर प्रमाणित करता है कि प्रकाश की किरण तीव्रगामी सूक्ष्म कणों के प्रवाह के रूप में व्यवहार करती है।
रामन् की खोज की वजह से पदार्थों के अणुओं और परमाणुओं की आंतरिक संरचना का अध्ययन सहज हो गया। पहले इस काम के लिए इंफ्रा रेड स्पेक्ट्रोस्कोपी का सहारा लिया जाता था। यह मुश्किल तकनीक है और गलतियों की संभावना बहुत अधिक रहती है। रामन् की खोज के बाद पदार्थों की आणविक और परमाणविक संरचना के अध्ययन के लिए रामन् स्पेक्ट्रोस्कोपी का सहारा लिया जाने लगा। यह तकनीक एकवर्णीय प्रकाश के वर्ण में परिवर्तन के आधार पर, पदार्थों के अणुओं और परमाणुओं की संरचना की सटीक जानकारी देती है। इस जानकारी की वजह से पदार्थों का संश्लेषण प्रयोगशाला में करना तथा अनेक उपयोगी पदार्थाें का कृत्रिम रूप से निर्माण संभव हो गया है।
रामन् प्रभाव की खोज ने रामन् को विश्व के चोटी के वैज्ञानिकों की पंक्ति में ला खड़ा किया। पुरस्कारों और सम्मानों की तो जैसे झड़ी-सी लगी रही। उन्हें सन् 1924 में रॉयल सोसाइटी की सदस्यता से सम्मानित किया गया। सन् 1929 में उन्हें ‘सर’ की उपाधि प्रदान की गई। ठीक अगले ही साल उन्हें विश्व के सर्वोच्च पुरस्कार–भौतिकी में नोबेल पुरस्कार–से सम्मानित किया गया। उन्हें और भी कई पुरस्कार मिले, जैसे रोम का मेत्यूसी पदक, रॉयल सोसाइटी का ह्यूज़ पदक, फ़िलोडेल्फ़िया इंस्टीट्यूट का फ्रैंकलिन पदक, सोवियत रूस का अंतर्राष्ट्रीय लेनिन पुरस्कार आदि। सन् 1954 में रामन् को देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया। वे नोबेल पुरस्कार पानेवाले पहले भारतीय वैज्ञानिक थे। उनके बाद यह पुरस्कार भारतीय नागरिकतावाले किसी अन्य वैज्ञानिक को अभी तक नहीं मिल पाया है। उन्हें अधिकांश सम्मान उस दौर में मिले जब भारत अंग्रेज़ों का गुलाम था। उन्हें मिलनेवाले सम्मानों ने भारत को एक नया आत्म-सम्मान और आत्म-विश्वास दिया। विज्ञान के क्षेत्र में उन्होंने एक नयी भारतीय चेतना को जाग्रत किया।
भारतीय संस्कृति से रामन् को हमेशा ही गहरा लगाव रहा। उन्होंने अपनी भारतीय पहचान को हमेशा अक्षुण्ण रखा। अंतरराष्ट्रीय प्रसिद्धि के बाद भी उन्होंने अपने दक्षिण भारतीय पहनावे को नहीं छोड़ा। वे कट्टर शाकाहारी थे और मदिरा से सख्त परहेज़ रखते थे। जब वे नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने स्टॉकहोम गए तो वहाँ उन्होंने अल्कोहल पर रामन् प्रभाव का प्रदर्शन किया। बाद में आयोजित पार्टी में जब उन्होंने शराब पीने से इनकार किया तो एक आयोजक ने परिहास में उनसे कहा कि रामन् ने जब अल्कोहल पर रामन् प्रभाव का प्रदर्शन कर हमें आह्लादित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, तो रामन् पर अल्कोहल के प्रभाव का प्रदर्शन करने से परहेज़ क्यों?
रामन् का वैज्ञानिक व्यक्तित्व प्रयोगों और शोधपत्र-लेखन तक ही सिमटा हुआ नहीं था। उनके अंदर एक राष्ट्रीय चेतना थी और वे देश में वैज्ञानिक दृष्टि और चिंतन के विकास के प्रति समर्पित थे। उन्हें अपने शुरुआती दिन हमेशा ही याद रहे जब उन्हें ढंग की प्रयोगशाला और उपकरणों के अभाव में काफ़ी संघर्ष करना पड़ा था। इसीलिए उन्होंने एक अत्यंत उन्नत प्रयोगशाला और शोध-संस्थान की स्थापना की जो बंगलोर में स्थित है और उन्हीं के नाम पर ‘रामन् रिसर्च इंस्टीट्यूट’ नाम से जानी जाती है। भौतिक शास्त्र में अनुसंधान को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने इंडियन जरनल अॉफ़ फ़िज़िक्स नामक शोध-पत्रिका प्रारंभ की। अपने जीवनकाल में उन्होंने सैकड़ों शोध-छात्रों का मार्गदर्शन किया। जिस प्रकार एक दीपक से अन्य कई दीपक जल उठते हैं, उसी प्रकार उनके शोध-छात्रों ने आगे चलकर काफ़ी अच्छा काम किया। उन्हीं में कई छात्र बाद में उच्च पदों पर प्रतिष्ठित हुए। विज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए वे करेंट साइंस नामक एक पत्रिका का भी संपादन करते थे। रामन् प्रभाव केवल प्रकाश की किरणों तक ही सिमटा नहीं था; उन्होंने अपने व्यक्तित्व के प्रकाश की किरणों से पूरे देश को आलोकित और प्रभावित किया। उनकी मृत्यु 21 नवंबर सन् 1970 के दिन 82 वर्ष की आयु में हुई।
रामन् वैज्ञानिक चेतना और दृष्टि की साक्षात प्रतिमूर्ति थे। उन्होंने हमें हमेशा ही यह संदेश दिया कि हम अपने आसपास घट रही विभिन्न प्राकृतिक घटनाओं की छानबीन एक वैज्ञानिक दृष्टि से करें। तभी तो उन्होंने संगीत के सुर-ताल और प्रकाश की किरणों की आभा के अंदर से वैज्ञानिक सिद्धांत खोज निकाले। हमारे आसपास एेसी न जाने कितनी ही चीज़ें बिखरी पड़ी हैं, जो अपने पात्र की तलाश में हैं। ज़रूरत है रामन् के जीवन से प्रेरणा लेने की और प्रकृति के बीच छुपे वैज्ञानिक रहस्य का भेदन करने की।
प्रश्न-अभ्यास
मौखिक
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक-दो पंक्तियों में दीजिए–
1. रामन् भावुक प्रकृति प्रेमी के अलावा और क्या थे?
2. समुद्र को देखकर रामन् के मन में कौन-सी दो जिज्ञासाएँ उठीं?
3. रामन् के पिता ने उनमें किन विषयों की सशक्त नींव डाली?
4. वाद्ययंत्रों की ध्वनियों के अध्ययन के द्वारा रामन् क्या करना चाहते थे?
5. सरकारी नौकरी छोड़ने के पीछे रामन् की क्या भावना थी?
6. ‘रामन् प्रभाव’ की खोज के पीछे कौन-सा सवाल हिलोरें ले रहा था?
7. प्रकाश तरंगों के बारे में आइंस्टाइन ने क्या बताया?
8. रामन् की खोज ने किन अध्ययनों को सहज बनाया?
लिखित
(क) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर (25-30 शब्दों में) लिखिए–
1. कॉलेज के दिनों में रामन् की दिली इच्छा क्या थी?
2. वाद्ययंत्रों पर की गई खोजों से रामन् ने कौन-सी भ्रांति तोड़ने की कोशिश की?
3. रामन् के लिए नौकरी संबंधी कौन-सा निर्णय कठिन था?
4. सर चंद्रशेखर वेंकट रामन् को समय-समय पर किन-किन पुरस्कारों से सम्मानित किया गया?
5. रामन् को मिलनेवाले पुरस्कारों ने भारतीय-चेतना को जाग्रत किया। एेसा क्यों कहा गया है?
(ख) निम्नलिखित प्रश्नाें के उत्तर (50-60 शब्दों में) लिखिए–
1. रामन् के प्रारंभिक शोधकार्य को आधुनिक हठयोग क्यों कहा गया है?
2. रामन् की खोज ‘रामन् प्रभाव’ क्या है? स्पष्ट कीजिए।
3. ‘रामन् प्रभाव’ की खोज से विज्ञान के क्षेत्र में कौन-कौन से कार्य संभव हो सके?
4. देश को वैज्ञानिक दृष्टि और चिंतन प्रदान करने में सर चंद्रशेखर वेंकट रामन् के महत्त्वपूर्ण योगदान पर प्रकाश डालिए।
5. सर चंद्रशेखर वेंकट रामन् के जीवन से प्राप्त होनेवाले संदेश को अपने शब्दों में
लिखिए।
(ग) निम्नलिखित का आशय स्पष्ट कीजिए–
1. उनके लिए सरस्वती की साधना सरकारी सुख-सुविधाओं से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण थी।
2. हमारे पास एेसी न जाने कितनी ही चीज़ें बिखरी पड़ी हैं, जो अपने पात्र की तलाश में हैं।
3. यह अपने आपमें एक आधुनिक हठयोग का उदाहरण था।
(घ) उपयुक्त शब्द का चयन करते हुए रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए–
इंफ्रा रेड स्पेक्ट्रोस्कोपी, इंडियन एसोसिएशन फॉर द कल्टिवेशन अॉफ़ साइंस, फिलॉसॉफिकल मैगज़ीन, भौतिकी, रामन् रिसर्च इंस्टीट्यूट
1. रामन् का पहला शोध पत्र ...................... में प्रकाशित हुआ था।
2. रामन् की खोज ...................... के क्षेत्र में एक क्रांति के समान थी।
3. कलकत्ता की मामूली-सी प्रयोगशाला का नाम ...................... था।
4. रामन् द्वारा स्थापित शोध संस्थान ...................... नाम से जानी जाती है।
5. पहले पदार्थों के अणुओं और परमाणुओं की आंतरिक संरचना का अध्ययन करने के लिए ...................... का सहारा लिया जाता था।
भाषा-अध्ययन
1. नीचे कुछ समानदर्शी शब्द दिए जा रहे हैं जिनका अपने वाक्य में इस प्रकार प्रयोग करें कि उनके अर्थ का अंतर स्पष्ट हो सके।
(क) प्रमाण ................................. (ख) प्रणाम .................................
(ग) धारणा ................................ (घ) धारण .................................
(ङ) पूर्ववर्ती ................................. (च) परवर्ती .................................
(छ) परिवर्तन ................................. (ज) प्रवर्तन .................................
2. रेखांकित शब्द के विलोम शब्द का प्रयोग करते हुए रिक्त स्थान की पूर्ति कीजिए–
(क) मोहन के पिता मन से सशक्त होते हुए भी तन से ...................... हैं।
(ख) अस्पताल के अस्थायी कर्मचारियों को ...................... रूप से नौकरी दे दी गई है।
(ग) रामन् ने अनेक ठोस रवों और ..................... पदार्थों पर प्रकाश की किरण के प्रभाव का अध्ययन किया।
(घ) आज बाज़ार में देशी और ...................... दोनों प्रकार के खिलौने उपलब्ध हैं।
(ङ) सागर की लहरों का आकर्षण उसके विनाशकारी रूप को देखने के बाद .......में परिवर्तित हो जाता है।
3. नीचे दिए उदाहरण में रेखांकित अंश में शब्द-युग्म का प्रयोग हुआ है–
उदाहरण: चाऊतान को गाने-बजाने में आनंद आता है।
उदाहरण के अनुसार निम्नलिखित शब्द-युग्मों का वाक्यों में प्रयोग कीजिए–
सुख-सुविधा ............................................
अच्छा-खासा ............................................
प्रचार-प्रसार ............................................
आस-पास ............................................
4. प्रस्तुत पाठ में आए अनुस्वार और अनुनासिक शब्दों को निम्न तालिका में लिखिए–
अनुस्वार | अनुनासिक |
(क) अंदर | (क) ढूँढ़ते |
(ख) ............................ | (ख) ............................ |
(ग) ............................ | (ग) ............................ |
(घ) ............................ | (घ) ............................ |
(ङ) ............................ | (ङ) ............................ |
5. पाठ में निम्नलिखित विशिष्ट भाषा प्रयोग आए हैं। सामान्य शब्दों में इनका आशय स्पष्ट कीजिए–
घंटों खोए रहते, स्वाभाविक रुझान बनाए रखना, अच्छा-खासा काम किया, हिम्मत का काम था, सटीक जानकारी, काफ़ी ऊँचे अंक हासिल किए, कड़ी मेहनत के बाद खड़ा किया था, मोटी तनख्वाह
6. पाठ के आधार पर मिलान कीजिए–
नीला | कामचलाऊ |
पिता | रव |
तैनाती | भारतीय वाद्ययंत्र |
उपकरण | वैज्ञानिक रहस्य |
घटिया | समुद्र |
फोटॉन | नींव |
भेदन | कलकत्ता |
7. पाठ में आए रंगों की सूची बनाइए। इनके अतिरिक्त दस रंगों के नाम और लिखिए।
8. नीचे दिए गए उदाहरण के अनुसार ‘ही’ का प्रयोग करते हुए पाँच वाक्य बनाइए।
उदाहरण: उनके ज्ञान की सशक्त नींव उनके पिता ने ही तैयार की थी।
योग्यता-विस्तार
1. ‘विज्ञान का मानव विकास में योगदान’ विषय पर कक्षा में चर्चा कीजिए।
2. भारत के किन-किन वैज्ञानिकों को नोबेल पुरस्कार मिला है? पता लगाइए और लिखिए।
3. न्यूटन के आविष्कार के विषय में जानकारी प्राप्त कीजिए।
परियोजना कार्य
1. भारत के प्रमुख वैज्ञानिकों की सूची उनके कार्यों/योगदानों के साथ बनाइए।
2. भारत के मानचित्र में तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली और कलकत्ता की स्थिति दर्शाएँ।
3. पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में हुए उन वैज्ञानिक खोजों, उपकरणों की सूची बनाइए, जिसने मानव जीवन बदल दिया है।
शब्दार्थ और टिप्पणियाँ
नील वर्णीय - नीले रंग का
असंख्य - अनगिनत, जिसकी संख्या बताना संभव न हो
आभा - चमक
जिज्ञासा - जानने की इच्छा
विश्वविख्यात - संसार में प्रसिद्ध
भौतिकी - वह विज्ञान जिसमें तत्त्वों के गुण आदि का विवेचन किया गया हो, फ़िज़िक्स
अतिशयोक्ति - किसी बात को बढ़ा-चढ़ाकर कहना
हासिल - प्राप्त
शोधकार्य - खोज, अनुसंधान कार्य
प्रतिभावान - जिसमें विलक्षण-बौद्धिक शक्ति हो
वित्त विभाग - किसी राज्य के आय-व्यय से संबंधित विभाग
रुझान - झुकाव, किसी ओर प्रवृत्त होना
उपकरण - साधन, औजार
समृद्ध - उन्नतशील
भ्रांति - संदेह, अयथार्थ ज्ञान
सृजित - रचा हुआ
समक्ष - सामने
अध्यापन - पढ़ाना
परिणति - परिणाम
ठोस रवे - बिल्लौर, मणिभ
फोटॉन - प्रकाश का अंश
एकवर्णीय - एक रंग का
ऊर्जा - शक्ति, बल
प्रायोगिक - प्रयोग संबंधित
तीव्रधारा - तेज़ धारा
इंफ्रा रेड स्पेक्ट्रोस्कोपी - अवरक्त स्पेक्ट्रम विज्ञान
आणविक - अणु का
परमाणविक - परमाणु का
संरचना - बनावट
संश्लेषण - मिलान करना (सिंथेसिस)
कृत्रिम - बनाया हुआ, बनावटी
अक्षुण्ण - अखंडित
कट्टर - दृढ़
परिहास - हँसी-मज़ाक
आह्लादित - आनंदित
आलोकित - प्रकाशित
प्रतिमूर्ति - अनुकृति, चित्र, प्रतिमा
नोबेल पुरस्कार - यह एक अंतरराष्ट्रीय स्तर का सर्वोच्च पुरस्कार है जो साहित्य, भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, चिकित्सा विज्ञान, अर्थशास्त्र तथा शांति के क्षेत्र में अभूतपूर्व कार्य के लिए दिया जाता है। नोबेल पुरस्कार के जन्मदाता अल्फ्रेड नोबेल हैं, जिनका जन्म सन् 1833 में स्वीडन स्टॉकहोम नामक स्थान में हुआ था। अल्फ्रेड नोबेल ने सन् 1866 में विध्वंसकारी डायनामाइट का आविष्कार किया था। इस पुरस्कार को सर्वप्रथम सन् 1901 में दिया गया। सर चंद्रशेखर वेंकट रामन्