अध्याय 3

निर्धनता : एक चुनौती

अवलोकन

इस अध्याय में निर्धनता के विषय में चर्चा की गई है, जो स्वतंत्र भारत के सम्मुख एक सर्वाधिक कठिन चुनौती है। उदाहरणों द्वारा इस बहुआयामी समस्या की चर्चा करने के पश्चात् यह अध्याय सामाजिक विज्ञानों में निर्धनता के प्रति दृष्टिकोण की भी चर्चा करता है। भारत तथा विश्व में निर्धनता की प्रवृत्तियों को निर्धनता रेखा की अवधारणा के माध्यम से समझाया गया है। निर्धनता के कारणों एवं सरकार द्वारा किए गए निर्धनता निवारण के उपायों की भी चर्चा की गई है। निर्धनता की आधिकारिक अवधारणा को मानव निर्धनता तक विस्तृत करके अध्याय समापन किया गया है।

परिचय

अपने दैनिक जीवन में हम अनेक एेसे लोगों के संपर्क में आते हैं, जिनके बारे में हम सोचते हैं कि वे निर्धन हैं। वे गाँवों के भूमिहीन श्रमिक भी हो सकते हैं और शहरों की भीड़ भरी झुग्गियों में रहने वाले लोग भी। वे निर्माण-स्थलों के दैनिक वेतनभोगी श्रमिक भी हो सकते हैं और ढाबों में काम करने वाले बाल-श्रमिक भी। वे चिथड़ों में बच्चे उठाए भिखारी भी हो सकते हैं। हम अपने चारों ओर निरधनता देखते हैं। वास्तव में, देश का हर चौथा व्यक्ति निर्धन है। इसका अर्थ यह है कि वर्ष 2011-12 में भारत में मोटे तौर पर 270 मिलीयन या 27 करोड़ लोग निर्धनता में जीते हैं। इसका यह भी अर्थ है कि विश्व में भारत में सबसे अधिक निर्धनों का संकेंद्रण है। यह इस चुनौती की गंभीरता को दर्शाता है।

निर्धनता के दो विशिष्ट मामले

शहरी निर्धनता
तैंतीस वर्षीय रामसरन झारखंड में राँची के निकट गेहूँ के आटे की एक मिल में दैनिक श्रमिक के रूप में काम करता है। जब कभी उसे रोज़गार मिलता है, तो वह एक महीने में लगभग 1500 रुपये कमा लेता है। यह छह सदस्यों के परिवार को चलाने के लिए पर्याप्त नहीं है, जिसमें उसकी पत्नी और 6 माह से 12 वर्ष तक की आयु के चार बच्चे शामिल हैं। उसे रामगढ़ के समीप गाँव में रह रहे अपने बूढ़े माता-पिता के लिए भी पैसा भेजना पड़ता है। उसके भूमिहीन श्रमिक पिता अपने जीवन निर्वाह के लिए रामसरन और हज़ारीबाग में रह रहे उसके भाई पर निर्भर हैं। रामसरन शहर के बाहरी क्षेत्र में स्थित भीड़ भरी बस्ती में किराये पर एक कमरे के मकान में रहता है। यह ईंटों और मिट्टी के खपड़ों से बनी एक कामचलाऊ झोंपड़ी है। उसकी पत्नी संता देवी कुछ घरों में अंशकालिक नौकरानी का काम करती है तथा 800 रुपये और कमा लेती है। वे दिन में दो बार दाल और चावल का अल्प-भोजन जुटा लेते हैं, पर यह उन सबके लिए कभी पर्याप्त नहीं होता। उसका बड़ा बेटा परिवार की आय में वृद्धि के लिए चाय की एक दुकान में एक सहायक का काम करके 300 रुपये और कमा लेता है। उसकी 10 साल की बेटी छोटे बच्चों की देखभाल करती है। कोई भी बच्चा स्कूल नहीं जाता। उनमें से प्रत्येक के पास दो जोड़े फटे-पुराने कपड़े ही हैं। नए कपड़े तभी खरीदे जाते हैं, जब पुराने बिलकुल पहनने योग्य नहीं रहते। जूते पहनना विलासिता है। छोटे बच्चे अल्प-पोषित रहते हैं। जब वे बीमार होते हैं, तो उन्हें चिकित्सा की कोई सुविधा नहीं मिलती।

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चित्र 3.1 : रामसरन की कहानी

ग्रामीण निर्धनता 
लक्खा सिंह उत्तर प्रदेश में मेरठ के पास एक गाँव का रहने वाला है। उसके परिवार के पास कोई भूमि नहीं है, इसलिए वह बड़े किसानों के लिए छोटे-मोटे काम करता है। काम अनियमित होता है और आय भी वैसी ही होती है। कई बार उसे पूरे दिन की मेहनत के बदले 50 रुपये ही मिलते हैं। लेकिन प्राय: खेतों में पूरे दिन मेहनत करने के बाद उसे वस्तु के रूप में कुछ किलोग्राम गेहूँ, दाल या थोड़ी सी सब्ज़ी ही मिल पाती है। आठ सदस्यों का परिवार हमेशा दो वक्त का भोजन भी नहीं जुटा पाता। लक्खा सिंह गाँव के बाहर एक कच्ची झोंपड़ी में रहता है। परिवार की महिलाएँ पूरा दिन खेतों में चारा काटने और खेतों से जलाने की लकड़ियाँ बीनने में ही गुज़ार देती हैं। उसके पिता की, जो तपेदिक के मरीज़ थे, चिकित्सा के अभाव में दो वर्ष पूर्व मृत्यु हो गई। उसकी माँ अब उसी बीमारी से ग्रस्त है और उसका जीवन भी धीरे-धीरे क्षीण हो रहा है। यद्यपि गाँव में एक प्राथमिक विद्यालय है, लक्खा वहाँ भी नहीं गया। उसे 10 वर्ष की उम्र से ही कमाना शुरू करना पड़ा। नए कपड़े खरीदना कुछ वर्षों में ही संभव हो पाता है। यहाँ तक कि परिवार के लिए साबुन और तेल भी ए विलासिता है।

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चित्र 3.2 : लक्खा सिंह की कहानी

निर्धनता के उपरोक्त मामलों का अध्ययन करें और निर्धनता से संबद्ध निम्नलिखित मुद्दों पर चर्चा करें :

भूमिहीनता

बेरोज़गारी

परिवार का आकार

निरक्षरता

खराब स्वास्थ्य / कुपोषण

बाल-श्रम

असहायता

ऊपर के दोनों विशिष्ट उदाहरण निर्धनता के अनेक आयामों को दर्शाते हैं। वे दर्शाते हैं कि निर्धनता का अर्थ भुखमरी और आश्रय का न होना है। यह एक एेसी स्थिति भी है, जब माता-पिता अपने बच्चों को विद्यालय नहीं भेज पाते या कोई बीमार आदमी इलाज नहीं करवा पाता। निर्धनता का अर्थ स्वच्छ जल और सफ़ाई सुविधाओं का अभाव भी है। इसका अर्थ नियमित रोज़गार की कमी भी है तथा न्यूनतम शालीनता स्तर का अभाव भी है। अंतत: इसका अर्थ है असहायता की भावना के साथ जीना। निर्धन लोग एेसी स्थिति में रहते हैं जिसमें उनके साथ खेतों, कारखानों, सरकारी कार्यालयों, अस्पतालों, रेलवे स्टेशनों और लगभग सभी स्थानों पर दुर्व्यवहार होता है। स्पष्ट है कि कोई भी निर्धनता में जीना नहीं चाहता।

अपने करोड़ों लोगों को दयनीय निर्धनता से बाहर निकालना स्वतंत्र भारत की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक रही है। महात्मा गांधी हमेशा इस पर बल दिया करते थे कि भारत सही अर्थों में तभी स्वतंत्र होगा, जब यहाँ का सबसे निर्धन व्यक्ति भी मानवीय व्यथा से मुक्त होगा।

सामाजिक वैज्ञानिकों की दृष्टि में निर्धनता

चूंकि निर्धनता के अनेक पहलू हैं, सामाजिक वैज्ञानिक उसे अनेक सूचकों के माध्यम से देखते हैं। सामान्यतया प्रयोग किए जाने वाले सूचक वे हैं, जो आय और उपभोग के स्तर से संबंधित हैं, लेकिन अब निर्धनता को निरक्षरता स्तर, कुपोषण के कारण रोग प्रतिरोधी क्षमता की कमी, स्वास्थ्य सेवाओं की कमी, रोज़गार के अवसरों की कमी, सुरक्षित पेयजल एवं स्वच्छता तक पहुँच की कमी आदि जैसे अन्य सामाजिक सूचकों के माध्यम से भी देखा जाता है। सामाजिक अपवर्जन और असुरक्षा पर आधाारित निर्धनता का विश्लेषण अब बहुत सामान्य होता जा रहा है (देखें बाक्स)।

सामाजिक अपवर्जन

इस अवधारणा के अनुसार निर्धनता को इस संदर्भ में देखा जाना चाहिए कि निर्धनों को बेहतर माहौल और अधिक अच्छे वातावरण में रहने वाले संपन्न लोगों की सामाजिक समता से अपवर्जित रहकर केवल निकृष्ट वातावरण में दूसरे निर्धनों के साथ रहना पड़ता है। सामान्य अर्थ में सामाजिक अपवर्जन निर्धनता का एक कारण और परिणाम दोनों हो सकता है। मोटे तौर पर यह एक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से व्यक्ति या समूह उन सुविधाओं, लाभों और अवसरों से अपवर्जित रहते हैं, जिनका उपभोग दूसरे (उनसे ‘अधिक अच्छे’) करते हैं। इसका एक विशिष्ट उदाहरण भारत में जाति-व्यवस्था की कार्य-शैली है, जिसमें कुछ जातियों के लोगों को समान अवसरों से अपवर्जित रखा जाता है। इस प्रकार, सामाजिक अपवर्जन लोगों की आय ही बहुत कम नहीं करता बल्कि यह इससे भी कहीं अधिक क्षति पहुँचा सकता है।

असुरक्षा

निर्धनता के प्रति असुरक्षा एक माप है जो कुछ विशेष समुदायों (जैसे किसी पिछड़ी जाति के सदस्य) या व्यक्तियों (जैसे कोई विधवा या शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्ति) के भावी वर्षों में निर्धन होने या निर्धन बने रहने की अधिक संभावना जताता है। असुरक्षा का निर्धारण परिसंपत्तियों, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार के अवसरों के रूप में जीविका खोजने के लिए विभिन्न समुदायों के पास उपलब्ध विकल्पों से होता है। इसके अलावा, इसका विश्लेषण प्राकृतिक आपदाओं (भूकंप, सुनामी), आतंकवाद आदि मामलों में इन समूहों के समक्ष विद्यमान बड़े जोखिमों के आधार पर किया जाता है। अतिरिक्त विश्लेषण इन जोखिमों से निपटने की उनकी सामाजिक और आर्थिक क्षमता के आधार पर किया जाता है। वास्तव में, जब सभी लोगों के लिए बुरा समय आता है, चाहे कोई बाढ़ हो या भूकंप या फिर नौकरियों की उपलब्धता में कमी, दूसरे लोगों की तुलना में अधिक प्रभावित होने की बड़ी संभावना का निरूपण ही असुरक्षा है। 

निर्धनता रेखा

निर्धनता पर चर्चा के केंद्र में सामान्यतया ‘निर्धनता रेखा’ की अवधारणा होती है। निर्धनता के आकलन की एक सर्वमान्य सामान्य विधि आय अथवा उपभोग स्तरों पर आधारित है। किसी व्यक्ति को निर्धन माना जाता है, यदि उसकी आय या उपभोग स्तर किसी एेसे ‘न्यूनतम स्तर’ से नीचे गिर जाए जो मूल आवश्यकताओं के एक दिए हुए समूह को पूर्ण करने के लिए आवश्यक है। मूल आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए आवश्यक वस्तुएँ विभिन्न कालों एवं विभिन्न देशों में भिन्न हैं। अत: काल एवं स्थान के अनुसार निर्धनता रेखा भिन्न हो सकती है। प्रत्येक देश एक काल्पनिक रेखा का प्रयोग करता है, जिसे विकास एवं उसके स्वीकृत न्यूनतम सामाजिक मानदंडों के वर्तमान स्तर के अनुरूप माना जाता है। उदाहरण के लिए, अमेरिका में उस आदमी को निर्धन माना जाता है जिसके पास कार नहीं है, जबकि भारत में अब भी कार रखना विलासिता मानी जाती है।

भारत में निर्धनता रेखा का निर्धारण करते समय जीवन निर्वाह के लिए खाद्य आवश्यकता, कपड़ ों, जूतों, ईंधन और प्रकाश, शैक्षिक एवं चिकित्सा संबंधी आवश्यकताओं आदि पर विचार किया जाता है। इन भौतिक मात्राओं को रुपयों में उनकी कीमतों से गुणा कर दिया जाता है। निर्धनता रेखा का आकलन करते समय खाद्य आवश्यकता के लिए वर्तमान सूत्र वांछित कैलोरी आवश्यकताओं पर आधारित है। खाद्य वस्तुएँ जैसे–अनाज, दालें, सब्ज़ियाँ, दूध, तेल, चीनी आदि मिलकर इस आवश्यक कैलोरी की पूर्ति करती हैं। आयु, लिंग, काम करने की प्रकृति आदि के आधार पर कैलोरी आवश्यकताएँ बदलती रहती हैं। भारत में स्वीकृत कैलोरी आवश्यकता ग्रामीण क्षेत्रों में 2400 कैलोरी प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन एवं नगरीय क्षेत्रोें में 2100 कैलोरी प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन है। चूँकि ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोग अधिक शारीरिक कार्य करते हैं, अत: ग्रामीण क्षेत्रों में कैलोरी आवश्यकता शहरी क्षेत्रों की तुलना में अधिक मानी गई है। अनाज आदि के रूप में इन कैलोरी आवश्यकताओं को खरीदने के लिए प्रतिव्यक्ति मौद्रिक व्यय को, कीमतों में वृद्धि को ध्यान में रखते हुए, समय-समय पर संशोधित किया जाता है।

इन परिकल्पनाओं के आधार पर वर्ष 2011-12 में किसी व्यक्ति के लिए निर्धनता रेखा का निर्धारण ग्रामीण क्षेत्रों में 816 रुपये प्रतिमाह और शहरी क्षेत्रों में 1000 रुपये प्रतिमाह किया गया था। कम कैलोरी की आवश्यकता के बावजूद शहरी क्षेत्रों के लिए उच्च राशि निश्चित की गई, क्योंकि शहरी क्षेत्रों में अनेक आवश्यक वस्तुओं की कीमतें अधिक होती हैं। इस प्रकार,वर्ष 2011-12 में ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाला पाँच सदस्यों का परिवार निर्धनता रेखा के नीचे होगा, यदि उसकी आय लगभग 4,080 रुपये प्रतिमाह से कम है। इसी तरह के परिवार को शहरी क्षेत्रों में अपनी मूल आवश्यकताएँ पूरा करने के लिए कम से कम 5,000 रुपये प्रतिमाह की आवश्यकता होगी। निर्धनता रेखा का आकलन समय-समय पर (सामान्यत: हर पाँच वर्ष पर) प्रतिदर्श सर्वेक्षण के माध्यम से किया जाता है। यह सर्वेक्षण राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन अर्थात् नेशनल सैंपल सर्वे अॉर्गनाइज़ेशन (एन.एस.एस.ओ.) द्वारा कराए जाते हैं, तथापि विकासशील देशों के बीच तुलना करने के लिए विश्व बैंक जैसे अनेक अंतर्राष्ट्रीय संगठन निर्धनता रेखा के लिए एक समान मानक का प्रयोग करते हैं, जैसे $1.9 (2011 पी.पी.पी.) प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन के समतुल्य न्यूनतम उपलब्धता के आधार पर।

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विभिन्न देश विभिन्न निर्धनता रेखाओं का प्रयोग क्यों करते हैं?

आपके अनुसार आपके क्षेत्र में ‘न्यूनतम आवश्यक स्तर’ क्या होगा?

निर्धनता के अनुमान

तालिका 3.1 से यह स्पष्ट है कि भारत में निर्धनता अनुपात में वर्ष 1993-94 में लगभग 45 प्रतिशत से वर्ष 2004-05 में 37.2 प्रतिशत तक महत्त्वपूर्ण गिरावट आई है। वर्ष 2011-12 में निर्धनता रेखा के नीचे के निर्धनों का अनुपात और भी गिरकर 22 प्रतिशत पर आ गया। यदि यही प्रवृत्ति रही तो अगले कुछ वर्षों में निर्धनता रेखा से नीचे के लोगों की संख्या 20 प्रतिशत से भी नीचे आ जाएगी। यद्यपि निर्धनता रेखा से
नीचे रहने वा
ले लोगों का प्रतिशत पूर्व के दो दशकों (1973-93) में गिरा है, निर्धन लोगों की संख्या वर्ष 2004-05 में 407 मिलियन से गिरकर 270 मिलियन वर्ष 2011-12 जिसमें औसतन गिरावट 2.2 प्रतिशत वर्ष 2004-05 से 2011-12 के बीच में हुई है।

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तालिका 3.1 का अध्ययन कीजिए और निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

1993-94 और 2004-05 के मध्य निर्धनता अनुपात में गिरावट आने के बावजूद निर्धनों की संख्या 407 करोड़ के लगभग क्यों बनी रही?

क्या भारत में निर्धनता में कमी की गतिकि ग्रामीण और शहरी भारत में समान है?

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आरेख 3.1 : भारत में निर्धनता, 2011-12 सर्वाधिक असुरक्षित समूह

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स्रोत: (www.worldbank.org/2016/India-s-poverty-profile)

असुरक्षित समूह

निर्धनता रेखा से नीचे के लोगों का अनुपात भी भारत में सभी सामाजिक समूहों और आर्थिक वर्गों में एक समान नहीं है। जो सामाजिक समूह निर्धनता के प्रति सर्वाधिक असुरक्षित हैं, वे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के परिवार हैं। इसी प्रकार, आर्थिक समूहों में सर्वाधिक असुरक्षित समूह, ग्रामीण कृषि श्रमिक परिवार और नगरीय अनियत मज़दूर परिवार हैं। निम्नलिखित आरेख 3.1 इन सभी समूहों में निर्धन लोगों के प्रतिशत को दर्शाता है। यद्यपि निर्धनता रेखा के नीचे के लोगों का औसत भारत में सभी समूहों के लिए 22 है, अनुसूचित जनजातियों के 100 में से 43 लोग अपनी मूल आवश्यकताओं को पूरा करने में असमर्थ हैं। इसी तरह नगरीय क्षेत्रों में 34 प्रतिशत अनियत मज़दूर निर्धनता रेखा के नीचे हैं। लगभग 34 प्रतिशत अनियत कृषि श्रमिक ग्रामीण क्षेत्र में और 29 प्रतिशत अनुसूचित जातियाँ भी निर्धन हैं। अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के सामाजिक रूप से सुविधावंचित सामाजिक समूहों का भूमिहीन अनियत दिहाड़ी श्रमिक होना उनकी दोहरी असुविधा की समस्या की गंभीरता को दिखाता है। हाल के कुछ अध्ययनों ने दर्शाया है कि 1990 के दशक के दौरान अनुसूचित जनजाति परिवारों को छोड़ कर अन्य सभी तीनों समूहों (अनुसूचित जाति, ग्रामीण कृषि श्रमिक और शहरी अनियमित मज़दूर परिवार) में निर्धनता में कमी आई है।

इन सामाजिक समूहों के अतिरिक्त परिवारों में भी आय असमानता है। निर्धन परिवारों में सभी लोगों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, लेकिन कुछ लोग दूसरों से अधिक कठिनाइयों का सामना करते हैं। कुछ संदर्भों में महिलाओं, वृद्ध लोगों और बच्चियों को भी ढंग से परिवार के उपलब्ध संसाधनों तक पहुँच से वंचित किया जाता है।

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चित्र 3.3 : शिवरमन की कहानी

शिवरमन की कहानी

शिवरमन तमिलनाडु में करूर कस्बे के निकट एक छोटे से गाँव में रहता है। करूर हथकरघा और बिजलीकरघा के अपने कपड़ाें के लिए प्रसिद्ध है। गाँव में 100 परिवार रहते हैं। शिवरमन आर्युथांथियार (मोची) जाति का है और अब वह 160 रुपया प्रतिदिन के हिसाब से एक खेतिहर मज़दूर के रूप में काम करता है। लेकिन उसे यह काम वर्ष में मात्र पाँच या छह महीने मिलता है। अन्य समय मेें वह गाँव में दूसरे छोटे-मोटे काम करता है। उसकी पत्नी शशिकला भी उसके साथ काम करती है। लेकिन इन दिनों उसे कभी-कभी ही काम मिल पाता है। यदि मिलता भी है तो उसी काम के लिए जो शिवरमन करता है, उसे 100 रुपये प्रतिदिन मिलता है। परिवार में आठ सदस्य हैं। शिवरमन की 65 वर्ष की विधवा माँ बीमार है और प्रतिदिन के कामों में उसे सहायता की आवश्यकता पड़ती है। उसकी 25 वर्ष की एक अविवाहित बहन है और उसके अपने चार बच्चे हैं जिनकी आयु 

1 वर्ष से 16 वर्ष के बीच है। उनमें से तीन लड़कियाँ हैं और सबसे छोटा बेटा है। कोई भी लड़की विद्यालय नहीं जाती। लड़कियोें के लिए विद्यालय की पुस्तकें और अन्य वस्तुएँ खरीदना विलासिता है और उसके बस से बाहर है। फिर एक दिन उनकी शादी भी करनी है, इसलिए वह अभी उनकी शिक्षा पर खर्च नहीं करना चाहता। उसकी माँ की अब जीने की कोई इच्छा नहीं है और वह मृत्यु की प्रतीक्षा कर रही है। उसकी बहन और सबसे बड़ी लड़की घर का काम करती है। शिवरमन अपने बेटे को बड़ा होने पर विद्यालय भेजना चाहता है। उसकी अविवाहित बहन की उसकी पत्नी के साथ नहीं बनती। शशिकला उसे एक बोझ समझती है, लेकिन शिवरमन धन की कमी के कारण उसके लिए कोई योग्य वर नहीं ढूँढ़ पा रहा है। यद्यपि उसके परिवार को दो जून की रोटी का प्रबंध करना कठिन हो रहा है, शिवरमन मात्र अपने बेटे के लिए कभी-कभी दूध खरीद लेता है।

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अपने आस-पास के कुछ निर्धन परिवारोें का अवलोकन करेें और यह पता लगाने का प्रयास करें कि :

वे किस सामाजिक और आर्थिक समूह से संबद्ध हैं?

परिवार में कमाने वाले सदस्य कौन हैं?

परिवार में वृद्धों की स्थिति क्या है?

क्या सभी बच्चे (लड़के  लड़कियाँ) विद्यालय जाते हैं?

अंतर्राज्यीय असमानताएँ

भारत में निर्धनता का एक और पहलू या आयाम है। प्रत्येक राज्य में निर्धन लोगों का अनुपात एक समान नहीं है। यद्यपि 1970 के दशक के प्रारंभ से राज्य स्तरीय निर्धनता में सुदीर्घकालिक कमीे हुई है, निर्धनता कम करने में सफलता की दर विभिन्न राज्यों में अलग-अलग है। वर्ष 2011-12 भारत में निर्धनता अनुपात 22 प्रतिशत है। कुछ राज्य जैसे मध्य प्रदेश, असम, उत्तर प्रदेश, बिहार एवं ओडिशा में निर्धनता अनुपात राष्ट्रीय अनुपात से ज्यादा है। जैसा कि आरेख 3.2 दर्शाता है, बिहार और ओडिशा क्रमश: 33.7 और 32.6 प्रतिशत निर्धनता औसत के साथ दो सर्वाधिक निर्धन राज्य बने हुए हैं। ओडिशा, मध्य प्रदेश, बिहार और उत्तर प्रदेश में ग्रामीण निर्धनता के साथ नगरीय निर्धनता भी अधिक है।

इसकी तुलना में केरल, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, गुजरात और पश्चिम बंगाल में निर्धनता में उल्लेखनीय गिरावट आई है। पंजाब और हरियाणा जैसे राज्य उच्च कृषि वृद्धि दर से निर्धनता कम करने में पारंपरिक रूप से सफल रहे हैं। केरल ने मानव संसाधन विकास पर अधिक ध्यान दिया है। पश्चिम बंगाल में भूमि सुधार उपायों से निर्धनता कम करने में सहायता मिली है। आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में अनाज का सार्वजनिक वितरण इसमें सुधार का कारण हो सकता है।

वैश्विक निर्धनता परिदृश्य

विभिन्न देशों में अत्यंत आर्थिक निर्धनता (विश्व बैंक की परिभाषा के अनुसार प्रतिदिन $ 1.9 से कम पर जीवन निर्वाह करना) में रहने वाले लोगों का अनुपात 1990 के 36 प्रतिशत से गिर कर 2015 में 10 प्रतिशत हो गया है। यद्यपि वैश्विक निर्धनता में उल्लेखनीय गिरावट आई है, लेकिन इसमें बृहत क्षेत्रीय भिन्नताएँ पाई जाती हैं। तीव्र आर्थिक प्रगति और मानव संसाधन विकास में बृहत निवेश के कारण चीन और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में निर्धनता में विशेष कमी आई है। चीन में निर्धनों की संख्या 1981 के 88.3 प्रतिशत से घट कर 2008 में 14.7 प्रतिशत और वर्ष 2015 में 0.7 प्रतिशत रह गई है। दक्षिण एशिया के देशों (भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल, बाँग्ला देश, भूटान) में निर्धनों की संख्या में गिरावट इतनी ही तीव्र रही है और 2005 में 34 प्रतिशत से गिरकर 2013 में 16.2 प्रतिशत हो गई है। निर्धनों के प्रतिशत में गिरावट के साथ ही निर्धनों की संख्या में भी कमी आई, जो 2005 में 510.4 मिलीयन से घट कर 2013 में 274.5 मिलीयन रह गई है। भिन्न निर्धनता रेखा परिभाषा के कारण भारत में भी निर्धनता राष्ट्रीय अनुमान से अधिक है।

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आरेख का अध्ययन कर निम्नलिखित कार्य करें :

तीन राज्यों की पहचान करें जहाँ निर्धनता अनुपात सर्वाधिक है।

तीन राज्यों की पहचान करें जहाँ निर्धनता अनुपात सबसे कम है।

सब-सहारा अप्रुीका में निर्धनता वास्तव में 2005 के 51 प्रतिशत से घटकर 2015 में 41 प्रतिशत हो गई है (आरेख 3.3 देखें)। लैटिन अमेरिका में निर्धनता का अनुपात वही रहा है। यहाँ पर निर्धनता रेखा 2005 में 10 प्रतिशत से गिर कर 2015 में 4 प्रतिशत रह गई है। (देखें आरेख 3.3) रूस जैसे पूर्व समाजवादी देशों में भी निर्धनता पुन: व्याप्त हो गई, जहाँ पहले आधिकारिक रूप से कोई निर्धनता थी ही नहीं। तालिका 3.2 अंतर्राष्ट्रीय निर्धनता रेखा (अर्थात $ 1.9 डालर प्रतिदिन से नीचे की जनसंख्या) की परिभाषा के अनुसार विभिन्न देशों में निर्धनता के नीचे रहने वाले लोगों का अनुपात दर्शाती है। संयुक्त राष्ट्र के नये सतत विकास के लक्ष्य को 2030 तक सभी प्रकार की गरीबी खत्म करने का प्रस्ताव है।

आरेख 3.2 : भारत के चुनिंदा राज्यों में निर्धनता अनुपात, (2011 जनगणना के अनुसार)

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स्रोत : आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18.

1251.pngआइए चर्चा करें

आरेख 3.4 का अध्ययन कर निम्नलिखित कार्य करें :

विश्व के उन क्षेत्राें की पहचान करें जहाँ निर्धनता अनुपात में गिरावट आई है।

विश्व के उस क्षेत्र की पहचान करें जहाँ निर्धनों की संख्या सर्वाधिक है।

तालिका 3.2 : निर्धनता हैडकांउट अनुपात : कुछ चुनिंदा देशों के बीच तुलना

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आरेख 3.3 : प्रतिदिन $ 1.9 पर जीवनयापन करने वाले लोग (2005-2015)

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स्रोत : विश्व बैंक के आँकड़े

आरेख 3.4 : क्षेत्रानुसार निर्धनों की संख्या ($ 1.90 प्रतिदिन) मीलियन

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स्रोत : विश्व बैंक के आँकड़े

(http://databank.worldbank.

org/data/reports.aspx?source=poverty-and-equity-database)

निर्धनता के कारण

भारत में व्यापक निर्धनता के अनेक कारण हैं। एक एेतिहासिक कारण ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन के दौरान आर्थिक विकास का निम्न स्तर है। औपनिवेशिक सरकार की नीतियों ने पारंपरिक हस्तशिल्पकारी को नष्ट कर दिया और वस्त्र जैसे उद्योगों के विकास को हतोत्साहित किया। विकास की धीमी दर 1980 के दशक तक जारी रही। इसके परिणामस्वरूप रोज़गार के अवसर घटे और आय की वृद्धि दर गिरी। इसके साथ-साथ जनसंख्या में उच्च दर से वृद्धि हुई। इन दोनाें ने प्रतिव्यक्ति आय की संवृद्धि दर को बहुत कम कर दिया। आर्थिक प्रगति को बढ़ावा और जनसंख्या नियंत्रण, दोनों मोर्चों पर असफलता के कारण निर्धनता का चक्र बना रहा।

सिंचाई और हरित क्रांति के प्रसार से कृषि क्षेत्रक में रोज़गार के अनेक अवसर सृजित हुए। लेकिन इनका प्रभाव भारत के कुछ भागों तक ही सीमित रहा। सार्वजनिक और निजी, दोनों क्षेत्रकों ने कुछ रोज़गार उपलब्ध कराए। लेकिन ये रोज़गार तलाश करने वाले सभी लोगों के लिए पर्याप्त नहीं हो सके। शहरों में उपयुक्त नौकरी पाने में असफल अनेक लोग रिक्शा चालक, विक्रेता, गृह निर्माण श्रमिक, घरेलू नौकर आदि के रूप में कार्य करने लगे। अनियमित और कम आय के कारण ये लोग महँगे मकानों में नहीं रह सकते थे। वे शहरों से बाहर झुग्गियों में रहने लगे और निर्धनता की समस्याएँ जो मुख्य रूप से एक ग्रामीण परिघटना थी, नगरीय क्षेत्र की भी एक विशषेता बन गई।

उच्च निर्धनता दर की एक और विशेषता आय असमानता रही है। इसका एक प्रमुख कारण भूमि और अन्य संसाधनों का असमान वितरण है। अनेक नीतियों के बावजूद, हम किसी सार्थक ढंग से इस मुद्दे से नहीं निपट सके हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में परिसंपत्तियों के पुनर्वितरण पर लक्षित भूमि सुधार जैसी प्रमुख नीति-पहल को ज़्यादातर राज्य सरकारों ने प्रभावी ढंग से कार्यान्वित नहीं किया। चूँकि भारत में भूमि-संसाधनों की कमी निर्धनता का एक प्रमुख कारण रही है, इस नीति का उचित कार्यान्वयन करोड़ों ग्रामीण निर्धनों का जीवन सुधार सकता था।

अनेक अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक कारक भी निर्धनता के लिए उत्तरदायी हैं। अतिनिर्धनों सहित भारत में लोग सामाजिक दायित्वों और धार्मिक अनुष्ठानों के आयोजन में बहुत पैसा खर्च करते हैं। छोटे किसानों को बीज, उर्वरक, कीटनाशकों जैसे कृषि आगतों की खरीदारी के लिए धनराशि की ज़रूरत होती है। चूँकि निर्धन कठिनाई से ही कोई बचत कर पाते हैं, वे इनके लिए कर्ज़ लेते हैं। निर्धनता के चलते पुन: भुगतान करने में असमर्थता के कारण वे ऋणग्रस्त हो जाते हैं।

अत: अत्यधिक ऋणग्रस्तता निर्धनता का कारण और परिणाम दोनों है।

निर्धनता-निरोधी उपाय

निर्धनता उन्मूलन भारत की विकास रणनीति का एक प्रमुख उद्देश्य रहा है। सरकार की वर्तमान निर्धनता-निरोधी रणनीति मोटे तौर पर दो कारकों (1) आर्थिक संवृद्धि को प्रोत्साहन और (2) लक्षित निर्धनता-निरोधी कार्यक्रमों पर निर्भर है।

1980 के दशक के आरंभ तक समाप्त हुए 30 वर्ष की अवधि के दौरान प्रतिव्यक्ति आय में कोई वृद्धि नहीं हुई और निर्धनता में भी अधिक कमी नहीं आई। 1950 के दशक के आरंभ में आधिकारिक निर्धनता अनुमान 45 प्रतिशत का था और 1980 के दशक के आरंभ में भी वही बना रहा। 1980 के दशक से भारत की आर्थिक संवृद्धि-दर विश्व में सबसे अधिक रही। संवृद्धि-दर 1970 के दशक के करीब 3.5 प्रतिशत के औसत से बढ़कर 1980 और 1990 के दशक में 6 प्रतिशत के करीब पहंुँच गई। विकास की उच्च दर ने निर्धनता को कम करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसलिए यह स्पष्ट होता जा रहा है कि आर्थिक संवृद्धि और निर्धनता उन्मूलन के बीच एक घनिष्ठ संबंध है। आर्थिक संवृद्धि अवसरों को व्यापक बना देती है और मानव विकास में निवेश के लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराती है। यह शिक्षा में निवेश से अधिक आर्थिक प्रतिफल पाने की आशा में लोगों को अपने बच्चों को लड़कियों सहित स्कूल भेजने के लिए प्रोत्साहित करती है। तथापि, यह संभव है कि आर्थिक विकास से सृजित अवसरों से निर्धन लोग प्रत्यक्ष लाभ नहीं उठा सके। इसके अतिरिक्त कृषि क्षेत्रक में संवृद्धि अपेक्षा से बहुत कम रही। निर्धनता पर इसका प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा क्योंकि निर्धन लोगों का एक बड़ा भाग गाँव में रहता है और कृषि पर आश्रित है।

इन परिस्थितियों में लक्षित निर्धनता-निरोधी कार्यक्रमों की स्पष्ट आवश्यकता है। यद्यपि एेसी अनेक योजनाएँ हैं जिनको प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निर्धनता कम करने के लिए बनाया गया, उनमें से कुछ का उल्लेख यहाँ करना आवश्यक है। महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार अभिनियम 2005 (मनरेगा) का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में आजीविका सुरक्षित करने के लिये हर घर के लिये मजदूरी रोजगार कम से कम 100 दिनों के लिये उपलब्ध कराना है। इसका उद्देश्य सतत् विकास में, मदद करना ताकि सूखा, वन कटाई एवं मिट्टी के कटाव जैसी समस्याओं से बचा जा सके। इस प्रावधान के तहत एक-तिहाई रोजगार महिलाओं के लिये सुरक्षित किया गया है। इस स्कीम के अंतर्गत 4.78 करोड़ परिवार को 220 करोड़ प्रतिव्यक्ति रोजगार उपलब्ध कराया गया हैं। इस योजना के अंतर्गत अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं महिलाओं का हिस्सा क्रमश: 23 प्रतिशत, 17 प्रतिशत एवं 53 प्रतिशत हैं औसतन रोजगार वर्ष 2006-07 में 65 रुपये से बढ़ाकर 132 रुपये वर्ष 2013-14 में कर दिया गया है। हाल ही में, मार्च 2018 में, विभिन्न राज्यों में अकुशल मैनुअल श्रमिकों के लिये मजदूरी दर संशोधित कर दी गई है। इन राज्यों एवं संघ शासित प्रदेशों में मजदूरी दर की सीमा-परिसर - ₹ 281/- प्रतिदिन (हरियाणा के श्रमिकों के लियें) से ₹ 168/- प्रतिदिन (बिहार और झारखण्ड के श्रमिकों के लिये) तय की गई है। केंद्र सरकार राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कोष भी स्थापित करेगी। इसी तरह राज्य सरकारें भी योजना के कार्यान्वयन के लिए राज्य रोज़गार गारंटी कोष की स्थापना करेंगी। कार्यक्रम के अंतर्गत अगर आवेदक को 15 दिन के अंदर रोज़गार उपलब्ध नहीं कराया गया तो वह दैनिक बेरोज़गार भत्ते का हकदार होगा। एक और महत्त्वपूर्ण योजना राष्ट्रीय काम के बदले अनाज कार्यक्रम है जिसे 2004 में देश के सबसे पिछड़े 150 ज़िलों में लागू किया गया था। यह कार्यक्रम उन सभी ग्रामीण निर्धनों के लिए है, जिन्हें मज़दूरी पर रोज़गार की आवश्यकता है और जो अकुशल शारीरिक काम करने के इच्छुक हैं। इसका कार्यान्वयन शत-प्रतिशत केंद्रीय वित्तपोषित कार्यक्रम के रूप में किया गया है और राज्यों को खाद्यान्न नि:शुल्क उपलब्ध कराए जा रहे हैं। एक बार एन.आर.ई.जी.ए. लागू हो जाए तो काम के बदले अनाज (एन.एफ.डब्ल्यू.पी.) का राष्ट्रीय कार्यक्रम भी इस कार्यक्रम के अंतर्गत आ जाएगा।

प्रधानमंत्री रोज़गार योजना एक अन्य योजना है, जिसे 1993 में आरंभ किया गया। इस कार्यक्रम का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों और छोटे शहरों में शिक्षित बेरोज़गार युवाओं के लिए स्वरोज़गार के अवसर सृजित करना है। उन्हें लघु व्यवसाय और उद्योग स्थापित करने में उनकी सहायता दी जाती है। ग्रामीण रोज़गार सृजन कार्यक्रम का आरंभ 1995 में किया गया। इसका उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों और छोटे शहरों में स्वरोज़गार के अवसर सृजित करना है। दसवीं पंचवर्षीय योजना में इस कार्यक्रम के अंतर्गत 25 लाख नए रोज़गार के अवसर सृजित करने का लक्ष्य रखा गया है। स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोज़गार योजना का आरंभ 1999 में किया गया। इस कार्यक्रम का उद्देश्य सहायता-प्राप्त निर्धन परिवारों को स्वसहायता समूहों में संगठित कर बैंक ऋण और सरकारी सहायिकी के संयोजन द्वारा निर्धनता रेखा से ऊपर लाना है। प्रधानमंत्री ग्रामोदय योजना (2000 में आरंभ) के अंर्तगत प्राथमिक स्वास्थ्य, प्राथमिक शिक्षा, ग्रामीण आश्रय, ग्रामीण पेयजल और ग्रामीण विद्युतीकरण जैसी मूल सुविधाओं के लिए राज्यों को अतिरिक्त केंद्रीय सहायता प्रदान की जाती है। एक और महत्त्वपूर्ण योजना अंत्योदय अन्न योजना है, जिसके बारे में आप अगले अध्याय में विस्तार से पढ़ेंगे।

इन कार्यक्रमों के मिले-जुले परिणाम हुए हैं। उनके कम प्रभावी होने का एक मुख्य कारण उचित कार्यान्वयन और सही लक्ष्य निश्चित करने की कमी है। इसके अतिरिक्त, कुछ योजनाएँ परस्पर-व्यापी भी हैं। अच्छी नीयत के बावजूद इन योजनाओं के लाभ उनके पात्र, निर्धनों को पूरी तरह नहीं मिल पाए। इसलिए, हाल के वर्षों में निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रमों के उचित परिवीक्षण पर अधिक बल दिया गया है।

भावी चुनौतियाँ

भारत में निर्धनता में निश्चित रूप से गिरावट आई है, लेकिन प्रगति के बावजूद निर्धनता उन्मूलन भारत की एक सबसे बाध्यकारी चुनौती है। ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों और विभिन्न राज्यों में निर्धनता में व्यापक असमानता है। कुछ सामाजिक और आर्थिक समूह निर्धनता के प्रति अधिक असुरक्षित हैं। आशा की जा रही है कि निर्धनता उन्मूलन में अगले दस से पंद्रह वर्षों में अधिक प्रगति होगी। यह मुख्यत: उच्च आर्थिक संवृद्धि, सर्वजनीन नि:शुल्क प्राथमिक शिक्षा पर ज़ोर, जनसंख्या विकास में गिरावट, महिलाओं और समाज के आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों के बढ़ते सशक्तीकरण के कारण संभव हो सकेगा।

लोगों के लिए निर्धनता की आधिकारिक परिभाषा उनके केवल एक सीमित भाग पर लागू होती है। यह न्यूनतम जीवन निर्वाह के ‘उचित’ स्तर की अपेक्षा जीवन निर्वाह के ‘न्यूनतम’ स्तर के विषय में है। अनेक बुद्धिजीवियों ने इसका समर्थन किया है कि निर्धनता की अवधारणा का विस्तार ‘मानव निर्धनता’ तक कर देना चाहिए। हो सकता है कि बड़ी संख्या में लोग अपना भोजन जुटाने में समर्थ हों, लेकिन क्या उनके पास शिक्षा है? या घर है? या स्वास्थ्य सेवा की सुविधा है? या रोज़गार की सुरक्षा है? या आत्मविश्वास है? क्या वे जाति और लिंग आधारित भेदभाव से मुक्त हैं? क्या बाल श्रम की प्रथा अब भी प्रचलित है? विश्वव्यापी अनुभव बताते हैं कि विकास के साथ निर्धनता की परिभाषा भी बदलती है। निर्धनता उन्मूलन हमेशा एक गतिशील लक्ष्य है। आशा है कि हम अगले दशक के अंत तक सभी लोगों को, केवल आय के संदर्भ में, न्यूनतम आवश्यक आय उपलब्ध करा सकेंगे। सभी को स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और रोज़गार सुरक्षा उपलब्ध कराना, लैंगिक समता तथा निर्धनों का सम्मान जैसी बड़ी चुनौतियाँ हमारे लक्ष्य हाेंगे। ये और भी बड़े काम होंगे।


सारांश

आपने इस अध्याय में देखा कि निर्धनता के अनेक आयाम हैं। सामान्यत: इसे ‘निर्धनता रेखा’ की अवधारणा के द्वारा मापा जाता है। इस अवधारणा के द्वारा हमने निर्धनता में मुख्य वैश्विक तथा राष्ट्रीय प्रवृत्तियों का विश्लेषण किया है। परंतु हाल के वर्षों में निर्धनता का विश्लेषण सामाजिक अपवर्जन जैसी अनेक नयी अवधारणाओं के द्वारा समृद्ध हो रहा है। इसी प्रकार चुनौतियाँ भी बढ़ती जा रही हैं, क्योंकि विद्वान लेाग इस अवधारणा का ‘मानव निर्धनता’ में विस्तार कर रहे हैं।


अभ्यास

1 भारत में निर्धनता रेखा का आकलन कैसे किया जाता है?

2 क्या आप समझते हैं कि निर्धनता आकलन का वर्तमान तरीका सही है?

3 भारत में 1973 से निर्धनता की प्रवृत्तियों की चर्चा करें।

4 भारत मेें निर्धनता में अंतर-राज्य असमानताओं का एक विवरण प्रस्तुत करें।

5 उन सामाजिक और आर्थिक समूहों की पहचान करें जो भारत में निर्धनता के समक्ष निरुपाय हैं।

6 भारत में अंतर्राज्यीय निर्धनता में विभिन्नता के कारण बताइए।

7 वैश्विक निर्धनता की प्रवृत्तियों की चर्चा करें।

8 निर्धनता उन्मूलन की वर्तमान सरकारी रणनीति की चर्चा करें।

9 निम्नलिखित प्रश्नोें का संक्षेप में उत्तर दें :

(क) मानव निर्धनता से आप क्या समझते हैं?

(ख) निर्धनों में भी सबसे निर्धन कौन हैं?

(ग) राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम, 2005 की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?


संदर्भ

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