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मलिक मुहम्मद जायसी

(सन् 1492-1542)

मलिक मुहम्मद जायसी अमेठी (उत्तर प्रदेश) के निकट जायस के रहने वाले थे। इसी कारण वे जायसी कहलाए। वे अपने समय के सिद्ध और पहुँचे हुए फ़कीर माने जाते थे। उन्होंने सैयद अशरफ़ और शेख बुरहान का अपने गुरुओं के रूप में उल्लेख किया है।

जायसी सूफ़ी प्रेममार्गी शाखा के सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं और उनका पद्मावत प्रेमाख्यान परंपरा का सर्वश्रेष्ठ प्रबंधकाव्य है। भारतीय लोककथा पर आधारित इस प्रबंधकाव्य में सिंहल देश की राजकुमारी पद्मावती और चित्तौड़ के राजा रत्नसेन के प्रेम की कथा है। जायसी ने इसमें लौकिक कथा का वर्णन इस प्रकार किया है कि अलौकिक और परोक्ष सत्ता का आभास होने लगता है। इस वर्णन में रहस्य का गहरा पुट भी मिलता है। प्रेम का यह लोकधर्मी स्वरूप मानवमात्र के लिए प्रेरणादायी है।

फ़ारसी की मसनवी शैली में रचित इस काव्य की कथा सर्गों या अध्यायों में बँटी हुई नहीं है, बराबर चलती रहती है। स्थान-स्थान पर शीर्षक के रूप में घटनाओं और प्रसंगों का उल्लेख अवश्य है। जायसी ने इस काव्य-रचना के लिए दोहा-चौपाई की शैली अपनाई है। भाषा उनकी ठेठ अवधी है और काव्य-शैली अत्यंत प्रौढ़ और गंभीर। जायसी की कविता का आधार लोकजीवन का व्यापक अनुभव है। उनके द्वारा प्रयुक्त उपमा, रूपक, लोकोक्तियाँ, मुहावरे यहाँ तक कि पूरी काव्य-भाषा पर ही लोक संस्कृति का प्रभाव है जो उनकी रचनाओं को नया अर्थ और सौंदर्य प्रदान करता है।

पद्मावत, अखरावट और आखिरी कलाम जायसी की प्रमुख काव्य-कृतियाँ हैं, जिनमें पद्मावत उनकी प्रसिद्धि का प्रमुख आधार है।


पाठ्यपुस्तक में जायसी की प्रसिद्ध रचना पद्मावत के ‘बारहमासा’ के कुछ अंश दिए गए हैं। प्रस्तुत पाठ में कवि ने नायिका नागमती के विरह का वर्णन किया है। कवि ने शीत के अगहन और पूस माह में नायिका की विरह दशा का चित्रण किया है। प्रथम अंश में प्रेमी के वियोग में नायिका विरह की अग्नि में जल रही है और भँवरे तथा काग के समक्ष अपनी स्थितियों का वर्णन करते हुए नायक को संदेश भेज रही है। द्वितीय अंश में विरहिणी नायिका के वर्णन के साथ-साथ शीत से उसका शरीर काँपने तथा वियोग से हृदय काँपने का सुंदर चित्रण है। चकई और कोकिला से नायिका के विरह की तुलना की गई है। नायिका विरह में शंख के समान हो गई है। तीसरे अंश में माघ महीने में जाड़े से काँपती हुई नागमती की विरह दशा का वर्णन है। वर्षा का होना तथा पवन का बहना भी विरह ताप को बढ़ा रहा है। अंतिम अंश में फागुन मास में चलने वाले पवन झकोरे शीत को चौगुना बढ़ा रहे हैं। सभी फाग खेल रहे हैं परंतु नायिका विरह-ताप में और अधिक संतप्त होती जाती है।

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बारहमासा

(1)
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अगहन देवस घटा निसि बाढ़ी।

अब धनि देवस बिरह भा राती।

काँपा हिया जनावा सीऊ।

घर घर चीर रचा सब काहूँ।

पलटि न बहुरा गा जो बिछोई।

सियरि अगिनि बिरहिनि हिय जारा।

यह दुख दगध न जानै कंतू।

दूभर दुख सो जाइ किमि काढ़ी।।

जरै बिरह ज्यों दीपक बाती।।

तौ पै जाइ होइ सँग पीऊ।।

मोर रूप रँग लै गा नाहू।।

अबहूँ फिरै फिरै रँग सोई।।

सुलगि सुलगि दगधै भै छारा।।

जोबन जनम  करै भसमंतू।।

पिय सौं कहेहु सँदेसड़ा, एे भँवरा एे काग।

सो धनि बिरहें जरि मुई, तेहिक धुआँ हम लाग।।


(2)

पूस जाड़ थरथर तन काँपा।

बिरह बाढ़ि भा दारुन सीऊ।

कंत कहाँ हौं लागौं हियरै।

सौर सुपेती आवै जूड़ी।

चकई निसि बिछुरैं दिन मिला।

रैनि अकेलि साथ नहिं सखी।

बिरह सचान भँवै तन चाँड़ा।

सुरुज जड़ाइ लंक दिसि तापा।।

कँपि कँपि मरौं लेहि हरि जीऊ।।

पंथ अपार सूझ नहिं नियरें।।

जानहुँ सेज हिवंचल बूढ़ी।।

हाैं निसि बासर बिरह कोकिला।।

कैसें जिऔं बिछोही पँखी।।

जीयत खाइ मुएँ नहिं छाँड़ा।।

रकत ढरा माँसू गरा, हाड़ भए सब संख।

धनि सारस होइ ररि मुई, आइ समेटहु पंख।।

(3)

लागेउ माँह परै अब पाला।

पहल पहल तन रुई जो झाँपै।

आई सूर होइ तपु रे नाहाँ।

एहि मास उपजै रस मूलू।

नैन चुवहिं जस माँहु नीरू।

टूटहिं बुंद परहिं जस ओला।

केहिक सिंगार को पहिर पटोरा।

बिरहा काल भएउ ज\ड़काला।।

हहलि हहलि अधिकौ हिय काँपै।।

तेहि बिनु जाड़ न छूटै माहाँ।।

तूँ सो भँवर मोर जोबन फूलू।।

तेहि जल अंग लाग सर चीरू।।

बिरह पवन होइ मारैं झोला।।

गियँ नहिं हार रही होइ डोरा।।

तुम्ह बिनु कंता धनि हरुई, तन तिनुवर भा डोल।

तेहि पर बिरह जराइ कै, चहै उड़ावा झोल।।


(4)

फागुन पवन झँकोरै बहा।

तन जस पियर पात भा मोरा।

तरिवर झरै झरै बन ढाँखा।

करिन्ह बनाफति कीन्ह हुलासू।

फाग करहि सब चाँचरि जोरी।

जौं पै पियहि जरत अस भावा।

रातिहु देवस इहै मन मोरें।

चौगुन सीउ जाइ किमि सहा।।

बिरह न रहै पवन होइ झोरा।।

भइ अनपत्त फूल फर साखा।।

मो कहँ भा जग दून उदासू।।

मोहिं जिय लाइ दीन्हि जसि होरी।।

जरत मरत मोहि रोस न आवा।।

लागौं कंत छार जेऊँ तोरें।।

यह तन जारौं छार कै, कहौं कि पवन उड़ाउ।

मकु तेहि मारग होइ परौं, कंत धरैं जहँ पाउ।।

–पद्मावत से


प्रश्न-अभ्यास

1. अगहन मास की विशेषता बताते हुए विरहिणी (नागमती) की व्यथा-कथा का चित्रण अपने शब्दों में कीजिए।

2. ‘जीयत खाइ मुएँ नहिं छाँड़ा’ पंक्ति के संदर्भ में नायिका की विरह-दशा का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।

3. माघ महीने में विरहिणी को क्या अनुभूति होती है?

4. वृक्षों से पत्तियाँ तथा वनों से ढाँखें किस माह में गिरते हैं? इससे विरहिणी का क्या संबंध है?

5. निम्नलिखित पंक्तियों की व्याख्या कीजिए–

(क) पिय सौं कहेहु सँदेसड़ा, एे भँवरा एे काग।

सो धनि बिरहें जरि मुई, तेहिक धुआँ हम लाग।

(ख) रकत ढरा माँसू गरा, हाड़ भए सब संख।

धनि सारस होइ ररि मुई, आइ समेटहु पंख।।

(ग) तुम्ह बिनु कंता धनि हरुई, तन तिनुवर भा डोल।

तेहि पर बिरह जराई कै, चहै उड़ावा झोल।।

(घ) यह तन जारौं छार कै, कहौं कि पवन उड़ाउ।

मकु तेहि मारग होइ परौं, कंत धरैं जहँ पाउ।

6. प्रथम दो छंदों में से अलंकार छाँटकर लिखिए और उनसे उत्पन्न काव्य-सौंदर्य पर 

टिप्पणी कीजिए।


योग्यता-विस्तार

1. किसी अन्य कवि द्वारा रचित विरह वर्णन की दो कविताएँ चुनकर लिखिए और अपने अध्यापक को दिखाइए।

2. ‘नागमती वियोग खंड’ पूरा पढ़िए और जायसी के बारे में जानकारी प्राप्त कीजिए।


शब्दार्थ और टिप्पणी

देवस - दिवस, दिन

निसि, निशा - रात्रि, रात

दूभर - कठिन, मुश्किल

हिया - हृदय

जनावा - प्रतीत हुआ

सीऊ - शीत

तौ - तब

पीऊ - प्रिय, प्रेमी

नाहू - नाथ

बहुरा - लौटकर

बिछाई - बिछुड़ना

सियरि - ठंडी

दगधै - दग्ध, जलना

भै - हुई

कंतू - प्रिय

भसमंतू - भस्म

सँदेस\ड़ा - संदेश

नि - पत्नी, प्रिया

सुरुज - सूरज

लंक - लंका की ओर, दक्षिण दिशा

दिसि - दिशा

भा - हो गया

दारुन - कठिन, अधिक

हियरै - हियरा, हृदय

सौर-सुपेती - जाड़े के ओढ़ने-बिछाने के वस्त्र

हिवंचल - हिमाचल-हिम (बरफ़) से ढकी हुई

बूढ़ी - डूबी हुई

बासर - दिन

पँखी - पक्षी

सचान - बाज पक्षी

चाँडा - प्रचंड

रकत - रक्त, खून

गरा - गल गया

ररि - रट-रट कर

माँह - माघ का महीना

जड़काला- मृत्यु

सूर - सूर्य, सूरज

नाहाँ - पति

रसमूलू - मूल रस ( शृंगार रस)

माँहुट - महावट, माघ मास की वर्षा

नीरू - जल

झोला - झकझोरना

पटोरा - रेशमी वस्त्र

गियँ - गरदन

तिनुवर - तिनका

अनपत्त - पत्ते रहित

बनाफति - वनस्पति

हुलासू - उत्साह सहित, उल्लास

चाँचरि - होली के समय खेले जाने वाला चरचरि नामक एक खेल जिसमें सभी एक-दूसरे पर रंग डालते हैं

पियहिपिया

मकु - कदाचित, मानो

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