विषय एक

ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ हड़प्पा सभ्यता

 हड़प्पाई मुहर (चित्र 1.1) संभवतः हड़प्पा अथवा सिंधु घाटी सभ्यता की सबसे विशिष्ट पुरावस्तु है। सेलखड़ी नामक पत्थर से बनाई गई इन मुहरों पर सामान्य रूप से जानवरों के चित्र तथा एक एेसी लिपि के चिह्न उत्कीर्णित हैं जिन्हें अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। फिर भी हमें इस क्षेत्र में उस समय बसे लोगों के जीवन के विषय में उनके द्वारा पीछे छोड़ी गई पुरावस्तुओं–जैसे उनके आवासों, मृदभाण्डों, आभूषणों, औज़ारों तथा मुहरों–दूसरे शब्दों में पुरातात्विक साक्ष्यों के माध्यम से बहुत जानकारी मिलती है। अब हम देखेंगे कि हम हड़प्पा सभ्यता के विषय में क्या और कैसे जानते हैं। हम यह अन्वेषण करेंगे कि पुरातात्विक साक्ष्यों की व्याख्या कैसे की जाती है और इन व्याख्याओं में कैसे कभी-कभी बदलाव आ जाता है। निश्चित रूप से इस सभ्यता के कई पहलू आज भी हमारी जानकारी से परे हैं और हो सकता है, हमेशा ही रहें।

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चित्र 1.1 एक हड़प्पाई मुहर


पारिभाषिक शब्द, स्थान तथा काल

सिंधु घाटी सभ्यता को हड़प्पा संस्कृति भी कहा जाता है। पुरातत्वविद ‘संस्कृति’ शब्द का प्रयोग पुरावस्तुओं के एेसे समूह के लिए करते हैं जो एक विशिष्ट शैली के होते हैं और सामान्यतया एक साथ, एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र तथा काल-खंड से संबद्ध पाए जाते हैं। हड़प्पा सभ्यता के संदर्भ में इन विशिष्ट पुरावस्तुओं में मुहरें, मनके, बाट, पत्थर के फलक (चित्र 1.2) और पकी हुई ईंटें सम्मिलित हैं। ये वस्तुएँ अफ़गानिस्तान, जम्मू, बलूचिस्तान (पाकिस्तान) तथा गुजरात जैसे क्षेत्रों से मिली हैं जो एक दूसरे से लंबी दूरी पर स्थित हैं (मानचित्र 1)।

इस सभ्यता का नामकरण, हड़प्पा नामक स्थान, जहाँ यह संस्कृति पहली बार खोजी गई थी (पृष्ठ 6), के नाम पर किया गया है। इसका काल निर्धारण लगभग 2600 और 1900 ईसा पूर्व के बीच किया गया है। इस क्षेत्र में इस सभ्यता से पहले और बाद में भी संस्कृतियाँ अस्तित्व में थीं जिन्हें क्रमशः आरंभिक तथा परवर्ती हड़प्पा कहा जाता है। इन संस्कृतियों से हड़प्पा सभ्यता को अलग करने के लिए कभी-कभी इसे विकसित हड़प्पा संस्कृति भी कहा जाता है।

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चित्र 1.2

मनके, बाट तथा फलक

1. आरंभ

इस क्षेत्र में विकसित हड़प्पा से पहले भी कई संस्कृतियाँ अस्तित्व में थीं। ये संस्कृतियाँ अपनी विशिष्ट मृदभाण्ड शैली से संबद्ध थीं तथा इनके संदर्भ में हमें कृषि, पशुपालन तथा कुछ शिल्पकारी के साक्ष्य भी मिलते हैं। बस्तियाँ आमतौर पर छोटी होती थीं और इनमें बड़े आकार की संरचनाएँ लगभग न के बराबर थीं। कुछ स्थलों पर बड़े पैमाने पर इलाकों में जलाए जाने के संकेतों से तथा कुछ अन्य स्थलों के त्याग दिए जाने से एेसा प्रतीत होता है कि आरंभिक हड़प्पा तथा हड़प्पा सभ्यता के बीच क्रम-भंग था।

अंग्रेज़ी में बी.सी. (हिंदी में ई.पू.) का तात्पर्य ‘बिफोर क्राइस्ट’ (ईसा पूर्व) से है। कभी-कभी आप तिथियों से पहले ए.डी. (हिंदी में ई.) लिखा पाते हैं। यह ‘एनो डॉमिनी’ नामक दो लैटिन शब्दों से बना है तथा इसका तात्पर्य ईसा मसीह के जन्म के वर्ष से है। आजकल ए.डी. की जगह सी.ई. तथा बी.सी. की जगह बी.सी.ई. का प्रयोग होता है। सी.ई. अक्षरों का प्रयोग ‘कॉमन एरा’ तथा बी.सी.ई. का ‘बिफ़ोर कॉमन एरा’ के लिए होता है। हम इन शब्दों का प्रयोग इसलिए करते हैं क्योंकि विश्व के अधिकांश देशों में अब ‘कॉमन एरा’ का प्रयोग सामान्य हो गया है। कभी-कभी अंग्रेज़ी के बी.पी. अक्षरों का प्रयोग होता है, जिसका तात्पर्य ‘बिफ़ोर प्रेजेंट’ है। इस पुस्तक में हमने बी.सी.ई. के लिए ई.पू., सी.ई. के लिए ई. तथा बी.पी. के लिए वर्तमान से पहले शब्दों का प्रयोग किया है।

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आरंभिक तथा विकसित हड़प्पा संस्कृतियाँ

सिंध और चोलिस्तान (थार रेगिस्तान से लगा हुआ पाकिस्तान का रेगिस्तानी क्षेत्र) में बस्तियों की संख्या के संबंध में ये आँकड़े देखिए।

सिंध चोलिस्तान
बस्तियों की कुल संख्या 106 239
आरंभिक हड़प्पा स्थल 52 37
विकसित हड़प्पा स्थल 65 136
नए स्थलों पर विकसित हड़प्पा बस्तियाँ 43 132
त्याग दिए गए आरंभिक हड़प्पा स्थल 29 33

2. निर्वाह के तरीके

आपने मानचित्रों (1 तथा 2) में देखा होगा कि विकसित हड़प्पा संस्कृति कुछ एेसे स्थानों पर पनपी जहाँ पहले आरंभिक हड़प्पा संस्कृतियाँ अस्तित्व में थीं। इन संस्कृतियों में कई तत्व जिनमें निर्वाह के तरीके शामिल हैं, समान थे। हड़प्पा सभ्यता के निवासी कई प्रकार के पेड़-पौधों से प्राप्त उत्पाद और जानवरों जिनमें मछली भी शामिल है, से प्राप्त भोजन करते थे। जले अनाज के दानों तथा बीजों की खोज से पुरातत्वविद आहार संबंधी आदतों के विषय में जानकारी प्राप्त करने में सफल हो पाए हैं। इनका अध्ययन पुरा-वनस्पतिज्ञ करते हैं जो प्राचीन वनस्पति के अध्ययन के विशेषज्ञ होते हैं। हड़प्पा स्थलों से मिले अनाज के दानों में गेहूँ, जौ, दाल, सफ़ेद चना तथा तिल शामिल हैं। बाजरे के दाने गुजरात के स्थलों से प्राप्त हुए थे। चावल के दाने अपेक्षाकृत कम पाए गए हैं।

हड़प्पा स्थलों से मिली जानवरों की हड्डियों में मवेशियों, भेड़, बकरी, भैंस तथा सूअर की हड्डियाँ शामिल हैं। पुरा-प्राणिविज्ञानियों अथवा जीव-पुरातत्वविदों द्वारा किए गए अध्ययनों से संकेत मिलता है कि ये सभी जानवर पालतू थे। जंगली प्रजातियों जैसे वराह (सूअर), हिरण तथा घड़ियाल की हड्डियाँ भी मिली हैं। हम यह नहीं जान पाए हैं कि हड़प्पा-निवासी स्वयं इन जानवरों का शिकार करते थे अथवा अन्य आखेटक-समुदायों से इनका मांस प्राप्त करते थे। मछली तथा पक्षियों की हड्डियाँ भी मिली हैं।

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2.1 कृषि प्रौद्योगिकी

हालाँकि अनाज के दानों से कृषि के संकेत मिलते हैं पर वास्तविक कृषि विधियों के विषय में स्पष्ट जानकारी मिलना कठिन है। क्या जुते हुए खेतों में बीजों का छिड़काव किया जाता था? मुहरों पर किए गए रेखांकन तथा मृण्मूर्तियाँ यह इंगित करती हैं कि वृषभ के विषय में जानकारी थी और इस आधार पर पुरातत्वविद यह मानते हैं कि खेत जोतने के लिए बैलों का प्रयोग होता था। साथ ही चोलिस्तान के कई स्थलों और बनावली (हरियाणा) से मिट्टी से बने हल के प्रतिरूप मिले हैं। इसके अतिरिक्त पुरातत्वविदों को कालीबंगन (राजस्थान) नामक स्थान पर जुते हुए खेत का साक्ष्य मिला है जो आरंभिक हड़प्पा स्तरों से संबद्ध है। इस खेत में हल रेखाओं के दो समूह एक-दूसरे को समकोण पर काटते हुए विद्यमान थे जो दर्शाते हैं कि एक साथ दो अलग-अलग फ़सलें उगाई जाती थीं।

पुरातत्वविदों ने फ़सलों की कटाई के लिए प्रयुक्त औज़ारों को पहचानने का प्रयास भी किया है। क्या हड़प्पा सभ्यता के लोग लकड़ी के हत्थों में बिठाए गए पत्थर के फलकों का प्रयोग करते थे या फिर वे धातु के औज़ारों का प्रयोग करते थे?

अधिकांश हड़प्पा स्थल अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में स्थित हैं जहाँ संभवतः कृषि के लिए सिंचाई की आवश्यकता पड़ती होगी। अफ़गानिस्तान में शोर्तुघई नामक हड़प्पा स्थल से नहरों के कुछ अवशेष मिले हैं, परंतु पंजाब और सिंध में नहीं। एेसा संभव है कि प्राचीन नहरें बहुत पहले ही गाद से भर गई थीं। एेसा भी हो सकता है कि कुओं से प्राप्त पानी का प्रयोग सिंचाई के लिए किया जाता हो। इसके अतिरिक्त धौलावीरा (गुजरात) में मिले जलाशयों का प्रयोग संभवतः कृषि के लिए जल संचयन हेतु किया जाता था।

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चित्र 1.3

पकी मिट्टी से बना वृषभ

चर्चा कीजिए...

मानचित्र 1 तथा 2 की आपस में तुलना कीजिए तथा इनमें बस्तियों के वितरण में समानताओं तथा असमानताओं की सूची बनाइए।

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चित्र 1.4

धातु के औज़ार

क्या आपको लगता है कि इन औज़ारों का प्रयोग फसल कटाई के लिए किया जाता होगा?

चित्र 1.5

धौलावीरा से मिला जलाशय। इसके राजगिरी-कार्य पर ध्यान दीजिए।

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चर्चा कीजिए...

आहार संबंधी आदतों को जानने के लिए पुरातत्वविद किन साक्ष्यों का इस्तेमाल करते हैं।

स्रोत 1

पुरावस्तुओं की पहचान कैसे की जाती है

भोजन तैयार करने की प्रक्रिया में अनाज पीसने के यंत्र तथा उन्हें आपस में मिलाने, मिश्रण करने तथा पकाने के लिए बरतनों की आवश्यकता थी। इन सभी को पत्थर, धातु तथा मिट्टी से बनाया जाता था। यहाँ एक महत्वपूर्ण हड़प्पा स्थल मोहनजोदड़ो में हुए उत्खननों पर सबसे आरंभिक रिपोर्टाें में से एक से कुछ उद्धरण दिए जा रहे हैंः

अवतल चक्कियाँ ... बड़ी संख्या में मिली हैं ... और एेसा प्रतीत होता है कि अनाज पीसने के लिए प्रयुक्त ये एकमात्र साधन थीं। साधारणतः ये चक्कियाँ स्थूलतः कठोर, कंकरीले, अग्निज अथवा बलुआ पत्थर से निर्मित थीं और आमतौर पर इनसे अत्यधिक प्रयोग के संकेत मिलते हैं। चूँकि इन चक्कियों के तल सामान्यतया उत्तल हैं, निश्चित रूप से इन्हें ज़मीन में अथवा मिट्टी में जमा कर रखा जाता होगा जिससे इन्हें हिलने से रोका जा सके। दो मुख्य प्रकार की चक्कियाँ मिली हैं। एक वे हैं जिन पर एक दूसरा छोटा पत्थर आगे-पीछे चलाया जाता था, जिससे निचला पत्थर खोखला हो गया था, तथा दूसरी वे हैं जिनका प्रयोग संभवतः केवल सालन या तरी बनाने के लिए जड़ी-बूटियों तथा मसालों को कूटने के लिए किया जाता था। इन दूसरे प्रकार के पत्थरों को हमारे श्रमिकों द्वारा ‘सालन पत्थर’ का नाम दिया गया है तथा हमारे बावर्ची ने एक यही पत्थर रसोई में प्रयोग के लिए संग्रहालय से उधार माँगा है। अर्नेस्ट मैके, फर्दर एक्सकैवेशन्स एट मोहनजोदड़ो, 1937 से उद्धृत

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चित्र 1.6

अवतल चक्की

पुरातत्वविद वर्तमान समय की तुलनाओं से यह समझने का प्रयास करते हैं कि प्राचीन पुरावस्तुएँ किस प्रयोग में लायी जाती थीं। मैके खोजी गई वस्तु की तुलना आजकल की चक्कियों से कर रहे थे? क्या यह एक उपयोगी नीति है?


3. मोहनजोदड़ो

एक नियोजित शहरी केंद्र

संभवतः हड़प्पा सभ्यता का सबसे अनूठा पहलू शहरी केंद्रों का विकास था। आइए एेसे ही एक केंद्र, मोहनजोदड़ो को और सूक्ष्मता से देखते हैं। हालाँकि मोहनजोदड़ो सबसे प्रसिद्ध पुरास्थल है, सबसे पहले खोजा गया स्थल हड़प्पा था।

बस्ती दो भागों में विभाजित है, एक छोटा लेकिन ऊँचाई पर बनाया गया और दूसरा कहीं अधिक बड़ा लेकिन नीचे बनाया गया। पुरातत्वविदों ने इन्हें क्रमशः दुर्ग और निचला शहर का नाम दिया है। दुर्ग की ऊँचाई का कारण यह था कि यहाँ की संरचनाएँ कच्ची ईंटों के चबूतरे पर बनी थीं। दुर्ग को दीवार से घेरा गया था जिसका अर्थ है कि इसे निचले शहर से अलग किया गया था।

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चित्र 1.7

मोहनजोदड़ो का नक्शा

निचला शहर दुर्ग से किस प्रकार भिन्न है?


निचला शहर भी दीवार से घेरा गया था। इसके अतिरिक्त कई भवनों को ऊँचे चबूतरों पर बनाया गया था जो नींव का कार्य करते थे। अनुमान लगाया गया है कि यदि एक श्रमिक प्रतिदिन एक घनीय मीटर मिट्टी ढोता होगा, तो मात्र आधारों को बनाने के लिए ही चालीस लाख श्रम-दिवसों, अर्थात् बहुत बड़े पैमाने पर श्रम की आवश्यकता पड़ी होगी।

हड़प्पा की दुर्दशा

हालाँकि हड़प्पा सबसे पहले खोजा गया स्थल था, इसे ईंट चुराने वालों ने बुरी तरह से नष्ट कर दिया था। 1875 में ही भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के पहले जनरल अलेक्ज़ैंडर कनिंघम, जिन्हें सामान्यतः भारतीय पुरातत्व का जनक भी कहा जाता है, ने लिखा था कि प्राचीन स्थल से ले जाई गई ईंटों की मात्रा ‘‘लगभग 100 मील’’ लंबी लाहौर तथा मुल्तान के बीच की रेल-पटरी के लिए ईंटें बिछाने के लिए पर्याप्त थी। इस प्रकार इस स्थल की कई प्राचीन संरचनाएँ नष्ट कर दी गईं। इसके विपरीत मोहनजोदड़ो कहीं बेहतर संरक्षित था।

अब कुछ और देखिए। एक बार चबूतरों के यथास्थान बनने के बाद शहर का सारा भवन-निर्माण कार्य चबूतरों पर एक निश्चित क्षेत्र तक सीमित था। इसलिए एेसा प्रतीत होता है कि पहले बस्ती का नियोजन किया गया था और फिर उसके अनुसार कार्यान्वयन। नियोजन के अन्य लक्षणों में ईंटें शामिल हैं जो भले ही धूप में सुखाकर अथवा भट्ठी में पकाकर बनाई गई हों, एक निश्चित अनुपात की होती थीं, जहाँ लंबाई और चौड़ाई, ऊँचाई की क्रमशः चार गुनी और दोगुनी होती थी। इस प्रकार की ईंटें सभी हड़प्पा बस्तियों में प्रयोग में लाई गई थीं।

3.1 नालों का निर्माण

हड़प्पा शहरों की सबसे अनूठी विशिष्टताओं में से एक ध्यानपूर्वक नियोजित जल निकास प्रणाली थी। यदि आप निचले शहर के नक्शे को देखें तो आप यह जान पाएँगे कि सड़कों तथा गलियों को लगभग एक ‘ग्रिड’ पद्धति में बनाया गया था और ये एक दूसरे को समकोण पर काटती थीं। एेसा प्रतीत होता है कि पहले नालियों के साथ गलियों को बनाया गया था और फिर उनके अगल-बगल आवासों का निर्माण किया गया था। यदि घरों के गंदे पानी को गलियों की नालियों से जोड़ना था तो प्रत्येक घर की कम से कम एक दीवार का गली से सटा होना आवश्यक था।

चित्र 1.8

मोहनजोदड़ो की एक नाली और इसके विशाल प्रवेशद्वार को देखिए

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दुर्ग

हालाँकि अधिकांश हड़प्पा बस्तियों में एक छोटा ऊँचा पश्चिमी तथा एक बड़ा लेकिन निचला पूर्वी भाग है, पर इस नियोजन में विविधताएँ भी हैं। धौलावीरा तथा लोथल (गुजरात) जैसे स्थलों पर पूरी बस्ती किलेबंद थी, तथा शहर के कई हिस्से भी दीवारों से घेर कर अलग किए गए थे। लोथल में दुर्ग दीवार से घिरा तो नहीं था पर कुछ ऊँचाई पर बनाया गया था।

3.2 गृह स्थापत्य

मोहनजोदड़ो का निचला शहर आवासीय भवनों के उदाहरण प्रस्तुत करता है। इनमें से कई एक आँगन पर केंद्रित थे जिसके चारों ओर कमरे बने थे। संभवतः आँगन, खाना पकाने और कताई करने जैसी गतिविधियों का केंद्र था, खास तौर से गर्म और श्ुाष्क मौसम में। यहाँ का एक अन्य रोचक पहलू लोगों द्वारा अपनी एकांतता को दिया जाने वाला महत्त्व थाः भूमि तल पर बनी दीवारों में खिड़कियाँ नहीं हैं। इसके अतिरिक्त मुख्य द्वार से आंतरिक भाग अथवा आँगन का सीधा अवलोकन नहीं होता है।

हर घर का ईंटों के फ़र्श से बना अपना एक स्नानघर होता था जिसकी नालियाँ दीवार के माध्यम से सड़क की नालियों से जुड़ी हुई थीं। कुछ घरों में दूसरे तल या छत पर जाने हेतु बनाई गई सीढ़ियों के अवशेष मिले थे। कई आवासों में कुएँ थे जो अधिकांशतः एक एेसे कक्ष में बनाए गए थे जिसमें बाहर से आया जा सकता था और जिनका प्रयोग संभवतः राहगीरों द्वारा किया जाता था। विद्वानों ने अनुमान लगाया है कि मोहनजोदड़ो में कुओं की कुल संख्या लगभग 700 थी।

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चित्र 1.9

यह मोहनजोदड़ो में एक बड़े आवास का सममितीय आरेखण है। कमरा न. 6 में एक कुआँ था।

 आँगन कहाँ है? दो सीढ़ियाँ कहाँ हैं? आवास का प्रवेशद्वार कैसा है?

स्रोत 2 

अब तक खोजी गई प्राचीनतम प्रणाली

नालियों के विषय में मैके लिखते हैंः ‘‘निश्चित रूप से यह अब तक खोजी गई सर्वथा संपूर्ण प्राचीन प्रणाली है।’’ हर आवास गली की नालियों से जोड़ा गया था। मुख्य नाले गारे में जमाई गई ईंटों से बने थे और इन्हें एेसी ईंटों से ढँका गया था जिन्हें सफ़ाई के लिए हटाया जा सके। कुछ स्थानों पर ढँकने के लिए चूना पत्थर की पट्टिका का प्रयोग किया गया था। घरों की नालियाँ पहले एक हौदी या मलकुंड में खाली होती थीं जिसमें ठोस पदार्थ जमा हो जाता था और गंदा पानी गली की नालियों में बह जाता था। बहुत लंबे नालों में कुछ अंतरालों पर सफ़ाई के लिए हौदियाँ बनाई गई थीं। यह पुरातत्व का एक अजूबा ही है कि ‘‘मलबे, मुुख्यतः रेत के छोटे-छोटे ढेर सामान्यतः निकासी के नालों के अगल-बगल पड़े मिले हैं जो दर्शाते 
हैं..... कि नालों की सफ़ाई के बाद कचरे को हमेशा हटाया नहीं जाता था।’’

अर्नेस्ट मैके, अर्ली इंडस सिविलाईज़ेशन, 1948

जल निकास प्रणालियाँ केवल बड़े शहरों तक ही सीमित नहीं थीं बल्कि ये कई छोटी बस्तियों में भी मिली थीं। उदाहरण के लिए, लोथल में आवासों के निर्माण के लिए जहाँ कच्ची ईंटों का प्रयोग हुआ था, वहीं नालियाँ पकी ईंटों से बनाई गई थीं।

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चित्र 1.10

दुर्ग का नक्शा

⇒ क्या दुर्ग पर मालगोदाम तथा स्नानागार के अतिरिक्त अन्य संरचनाएँ भी हैं?


 चर्चा कीजिए...

मोहनजोदड़ो के कौन से वास्तुकला संबंधी लक्षण नियोजन की ओर संकेत करते हैं?

3.3 दुर्ग

दुर्ग पर हमें एेसी संरचनाओं के साक्ष्य मिलते हैं जिनका प्रयोग संभवतः विशिष्ट सार्वजनिक प्रयोजनों के लिए किया जाता था। इनमें एक मालगोदाम–एक एेसी विशाल संरचना है जिसके ईंटों से बने केवल निचले हिस्से शेष हैं, जबकि ऊपरी हिस्से जो संभवतः लकड़ी से बने थे, बहुत पहले ही नष्ट हो गए थे–और विशाल स्नानागार सम्मिलित हैं।

विशाल स्नानागार आँगन में बना एक आयताकार जलाशय है जो चारों ओर से एक गलियारे से घिरा हुआ है। जलाशय के तल तक जाने के लिए इसके उत्तरी और दक्षिणी भाग में दो सीढ़ियाँ बनी थीं। जलाशय के किनारों पर ईंटों को जमाकर तथा जिप्सम के गारे के प्रयोग से इसे जलबद्ध किया गया था। इसके तीनों ओर कक्ष बने हुए थे जिनमें से एक में एक बड़ा कुआँ था। जलाशय से पानी एक बड़े नाले में बह जाता था। इसके उत्तर में एक गली के दूसरी ओर एक अपेक्षाकृत छोटी संरचना थी जिसमें आठ स्नानघर बनाए गए थे। एक गलियारे के दोनों ओर चार-चार स्नानघर बने थे। प्रत्येक स्नानघर से नालियाँ, गलियारे के साथ-साथ बने एक नाले में मिलती थीं। इस संरचना का अनोखापन तथा दुर्ग क्षेत्र में कई विशिष्ट संरचनाओं के साथ इनके मिलने से इस बात का स्पष्ट संकेत मिलता है कि इसका प्रयोग किसी प्रकार के विशेष आनुष्ठाानिक स्नान के लिए किया जाता था।

4. सामाजिक भिन्नताओं का अवलोकन

4.1 शवाधान

पुरातत्वविद यह जानने के लिए कि क्या किसी संस्कृति विशेष में रहने वाले लोगों के बीच सामाजिक तथा आर्थिक भिन्नताएँ थीं, सामान्यतः कई विधियों का प्रयोग करते हैं। इन्हीं विधियों में से एक शवाधानों का अध्ययन है। आप संभवतः मिस्र के विशाल पिरामिडों जिनमें से कुछ हड़प्पा सभ्यता के समकालीन थे, से परिचित हैं। इनमें से कई पिरामिड राजकीय शवाधान थे जहाँ बहुत बड़ी मात्रा में धन-संपत्ति दफ़नाई गई थी।

हड़प्पा स्थलों से मिले शवाधानों में आमतौर पर मृतकों को गर्तों में दफ़नाया गया था। कभी-कभी शवाधान गर्त की बनावट एक-दूसरे से भिन्न होती थी–कुछ स्थानों पर गर्त की सतहों पर ईंटों की चिनाई की गई थी। क्या ये विविधताएँ सामाजिक भिन्नताओं की ओर संकेत करती हैं? कहना कठिन है।

कुछ कब्रों में मृदभाण्ड तथा आभूषण मिले हैं जो संभवतः एक एेसी मान्यता की ओर संकेत करते हैं जिसके अनुसार इन वस्तुओं का मृत्योपरांत प्रयोग किया जा सकता था। पुरुषों और महिलाओं, दोनों के शवाधानों से आभूषण मिले हैं। 1980 के दशक के मध्य में हड़प्पा के कब्रिस्तान में हुए उत्खननों में एक पुरुष की खोपड़ी के समीप शंख के तीन छल्लों, जैस्पर (एक प्रकार का उपरत्न) के मनके तथा सैकड़ों की संख्या में सूक्ष्म मनकों से बना एक आभूषण मिला था। कहीं-कहीं पर मृतकों को ताँबे के दर्पणों के साथ दफ़नाया गया था। परंतु कुल मिलाकर एेसा लगता है कि हड़प्पा सभ्यता के निवासियों का मृतकों के साथ बहुमूल्य वस्तुएँ दफ़नाने में विश्वास नहीं था।

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चित्र 1.11

एक ताँबे का दर्पण

4.2 ‘विलासिता’ की वस्तुओं की खोज

सामाजिक भिन्नता को पहचानने की एक अन्य विधि है एेसी पुरावस्तुओं का अध्ययन जिन्हें पुरातत्वविद मोटे तौर पर, उपयोगी तथा विलास की वस्तुओं में वर्गीकृत करते हैं। पहले वर्ग में रोज़मर्रा के उपयोग की वस्तुएँ सम्मिलित हैं जिन्हें पत्थर अथवा मिट्टी जैसे सामान्य पदार्थों से आसानी से बनाया जा सकता है। इनमें चक्कियाँ, मृदभाण्ड, सूइयाँ, झाँवा आदि शामिल हैं। ये वस्तुएँ सामान्य रूप से बस्तियों में सर्वत्र पाई गई हैं। पुरातत्वविद उन वस्तुओं को कीमती मानते हैं जो दुर्लभ हों अथवा मँहगी, स्थानीय स्तर पर अनुपलब्ध पदार्थों से अथवा जटिल तकनीकों से बनी हों। इस प्रकार फ़यॉन्स (घिसी हुई रेत अथवा बालू तथा रंग और चिपचिपे पदार्थ के मिश्रण को पका कर बनाया गया पदार्थ) के छोटे पात्र संभवतः कीमती माने जाते थे क्योंकि इन्हें बनाना कठिन था।

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चित्र 1.12

फ़यॉन्स से बना एक पात्र

स्थिति तब और जटिल हो जाती है जब हमें रोज़मर्रा के प्रयोग की वस्तुएँ जैसे तकलियाँ, जो फ़यॉन्स जैसे दुर्लभ पदार्थ से बनी, मिलती हैं। क्या हम इनका वर्गीकरण उपयोगी या फिर विलास की वस्तुओं के रूप में करें?

यदि हम एेसी पुरावस्तुओं के वितरण का अध्ययन करें तो हम पाते हैं कि मँहगे पदार्थों से बनी दुर्लभ वस्तुएँ सामान्यतः मोहनजोदड़ो और हड़प्पा जैसी बड़ी बस्तियों में केंद्रित हैं और छोटी बस्तियों में ये विरले ही मिलती हैं। उदाहरण के लिए, फ़यॉन्स से बने लघुपात्र जो संभवतः सुगंधित द्रव्यों के पात्रों के रूप में प्रयुक्त होते थे, अधिकांशतः मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से मिले हैं और कालीबंगन जैसी छोटी बस्तियों से बिलकुल नहीं। सोना भी दुर्लभ तथा संभवतः आज की तरह कीमती था–हड़प्पा स्थलों से मिले सभी स्वर्णाभूषण संचयों से प्राप्त हुए थे।

संचय शब्द, लोगों द्वारा सावधानीपूर्वक अधिकांशतः पात्रों, जैसे कि घड़ों में रखी गई वस्तुओं के लिए प्रयुक्त किया जाता है। एेसे संचय आभूषणों के हो सकते थे अथवा धातुकर्मियों द्वारा पुनः प्रयोग के लिए सँभाल कर रखी गई धातुओं के। यदि किसी कारणवश मूल स्वामियों ने इन्हें पुनः प्राप्त नहीं किया तो ये तब तक अपने स्थान पर ही रहते हैं जब तक कोई पुरातत्वविद इन्हें खोज नहीं निकालता।

 चर्चा कीजिए...

आधुनिक समय में प्रचलित मृतकों के अंतिम संस्कार की विधियों पर चर्चा कीजिए। ये किस सीमा तक सामाजिक भिन्नताओं को परिलक्षित करती हैं?

5. शिल्प-उत्पादन के विषय में जानकारी

मानचित्र 1 में चन्हुदड़ो को चिह्नित कीजिए। यह मोहनजोदड़ो (125 हेक्टेयर) की तुलना में एक बहुत छोटी (7 हेक्टेयर) बस्ती है जो लगभग पूरी तरह से शिल्प-उत्पादन में संलग्न थी। शिल्प कार्यों में मनके बनाना, शंख की कटाई, धातुकर्म, मुहर निर्माण तथा बाट बनाना सम्मिलित थे।

मनकों के निर्माण में प्रयुक्त पदार्थों की विविधता उल्लेखनीय हैः कार्नीलियन (सुंदर लाल रंग का), जैस्पर, स्फटिक, क्वार्ट्ज़ तथा सेलखड़ी जैसे पत्थर; ताँबा, काँसा तथा सोने जैसी धातुएँ; तथा शंख, फ़यॉन्स और पकी मिट्टी, सभी का प्रयोग मनके बनाने में होता था। कुछ मनके दो या उससे अधिक पत्थरों को आपस में जोड़कर बनाए जाते थे और कुछ सोने के टोप वाले पत्थर के होते थे। इनके कई आकार होते थे; जैसे–चक्राकार, बेलनाकार, गोलाकार, ढोलाकार तथा खंडित। कुछ को उत्कीर्णन या चित्रकारी के माध्यम से सजाया गया था और कुछ पर रेखाचित्र उकेरे गए थे।

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चित्र 1.13

औज़ार तथा मनके

मनके बनाने की तकनीकों में प्रयुक्त पदार्थ के अनुसार भिन्नताएँ थीं। सेलखड़ी जो एक बहुत मुलायम पत्थर है, पर आसानी से कार्य हो जाता था। कुछ मनके सेलखड़ी चूर्ण के लेप को साँचे में ढाल कर तैयार किए जाते थे। इससे ठोस पत्थरों से बनने वाले केवल ज्यामितीय आकारों के विपरीत कई विविध आकारों के मनके बनाए जा सकते थे। सेलखड़ी के सूक्ष्म मनके कैसे बनाए जाते थे, यह प्रश्न प्राचीन तकनीकों का अध्ययन करने वाले पुरातत्वविदों के लिए एक पहेली बना हुआ है।

पुरातत्वविदों द्वारा किए गए प्रयोगों ने यह दर्शाया है कि कार्नीलियन का लाल रंग, पीले रंग के कच्चे माल तथा उत्पादन के विभिन्न चरणों में मनकों को आग में पका कर प्राप्त किया जाता था। पत्थर के पिंडों को पहले अपरिष्कृत आकारों में तोड़ा जाता था, और फिर बारीकी से शल्क निकाल कर इन्हें अंतिम रूप दिया जाता था। घिसाई, पॉलिश और इनमें छेद करने के साथ ही यह प्रक्रिया पूरी होती थी। चन्हुदड़ो, लोथल और हाल ही में धौलावीरा से छेद करने के विशेष उपकरण मिले हैं।

यदि आप मानचित्र 1 में नागेश्वर तथा बालाकोट को चिह्नित करें तो आप पाएँगे कि ये दोनों बस्तियाँ समुद्र-तट के समीप स्थित हैं। ये शंख से बनी वस्तुओं जिनमें चूड़ियाँ, करछियाँ तथा पच्चीकारी की वस्तुएँ सम्मिलित हैं, के निर्माण के विशिष्ट केंद्र थे जहाँ से यह माल दूसरी बस्तियों तक ले जाया जाता था। इसी प्रकार, यह भी संभव है कि चन्हुदड़ो और लोथल से तैयार माल (जैसे मनके) मोहनजोदड़ो और हड़प्पा जैसे बड़े शहरी केंद्रों तक लाया जाता था।

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मिट्टी से बनी पुरावस्तुएँः मृदभाण्डइनमें से कई पुरावस्तुएँ दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय या लोथल के स्थानीय संग्रहालय में देखी जा सकती हैं।

5.1 उत्पादन केंद्रों की पहचान

शिल्प-उत्पादन के केंद्रों की पहचान के लिए पुरातत्वविद सामान्यतः निम्नलिखित को ढूँढ़ते हैंः प्रस्तर पिंड, पूरे शंख तथा ताँबा-अयस्क जैसा कच्चा माल; औज़ार; अपूर्ण वस्तुएँ; त्याग दिया गया माल तथा कूड़ा-करकट। यहाँ तक कि कूड़ा-करकट शिल्प कार्य के सबसे अच्छे संकेतकों में से एक हैं। उदाहरण के लिए, यदि वस्तुओं के निर्माण के लिए शंख अथवा पत्थर को काटा जाता था तो इन पदार्थों के टुकड़े कूड़े के रूप में उत्पादन के स्थान पर फेंक दिए जाते थे।

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चित्र 1.15

मृण्मूर्ति

 चर्चा कीजिए...

इस अध्याय में दिखाई गई पत्थर की पुरावस्तुओं की एक सूची बनाइए। इनमें से प्रत्येक के संदर्भ में चर्चा कीजिए कि क्या इन्हें उपयोगी अथवा विलास की वस्तुएँ माना जाए। क्या इनमें एेसी वस्तुएँ भी हैं जो दोनों वर्गों में रखी जा सकती हैं?

कभी-कभी बड़े बेकार टुकड़ों को छोटे आकार की वस्तुएँ बनाने के लिए प्रयोग किया जाता था परंतु बहुत छोटे टुकड़ों को कार्यस्थल पर ही छोड़ दिया जाता था। ये टुकड़े इस ओर संकेत करते हैं कि छोटे, विशिष्ट केंद्रों के अतिरिक्त मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा जैसे बड़े शहरों में भी शिल्प उत्पादन का कार्य किया जाता था।

6. माल प्राप्त करने संबंधी नीतियाँ

जैसा कि स्पष्ट है कि शिल्प उत्पादन के लिए कई प्रकार के कच्चे माल का प्रयोग होता था। हालाँकि कुछ, जैसे कि मिट्टी, स्थानीय स्तर पर उपलब्ध थे, कुछ अन्य जैसे पत्थर, लकड़ी तथा धातु जलोढ़क मैदान से बाहर के क्षेत्रों से मँगाने पड़ते थे। बैलगाड़ियों के मिट्टी से बने खिलौनों के प्रतिरूप संकेत करते हैं कि यह सामान तथा लोगों के लिए स्थल मार्गों द्वारा परिवहन का एक महत्वपूर्ण साधन था। संभवतः सिंधु तथा इसकी उपनदियों के बगल में बने नदी-मार्गों और साथ ही तटीय मार्गों का भी प्रयोग किया जाता था।

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चित्र 1.16

ताँबे व काँसे के बरतन

6.1 उपमहाद्वीप तथा उसके आगे से आने वाला माल

हड़प्पावासी शिल्प-उत्पादन हेतु माल प्राप्त करने के लिए कई तरीके अपनाते थे। उदाहरण के लिए, उन्होंने नागेश्वर और बालाकोट में जहाँ शंख आसानी से उपलब्ध था, बस्तियाँ स्थापित कीं। एेसे ही कुछ अन्य पुरास्थल थे–सुदूर अफ़गानिस्तान में शोर्तुघई, जो अत्यंत कीमती माने जाने वाले नीले रंग के पत्थर लाजवर्द मणि के सबसे अच्छे स्रोत के निकट स्थित था तथा लोथल जो कार्नीलियन (गुजरात में भड़ौच), सेलखड़ी (दक्षिणी राजस्थान तथा उत्तरी गुजरात से) और धातु (राजस्थान से) के स्रोतों के निकट स्थित था।

कच्चा माल प्राप्त करने की एक अन्य नीति थी–राजस्थान के खेतड़ी अँचल (ताँबे के लिए) तथा दक्षिण भारत (सोने के लिए) जैसे क्षेत्रों में अभियान भेजना। इन अभियानों के माध्यम से स्थानीय समुदायों के साथ संपर्क स्थापित किया जाता था। इन इलाकों में यदा-कदा मिलने वाली हड़प्पाई पुरावस्तुएँ एेसे संपर्कों की संकेतक हैं। खेतड़ी क्षेत्र में मिले साक्ष्यों को पुरातत्वविदों ने गणेश्वर-जोधपुरा संस्कृति का नाम दिया है। इस संस्कृति के विशिष्ट मृदभाण्ड हड़प्पाई मृदभाण्डों से भिन्न थे तथा यहाँ ताँबे की वस्तुओं की असाधारण संपदा मिली थी। एेसा संभव है कि इस क्षेत्र के निवासी हड़प्पा सभ्यता के लोगों को ताँबा भेजते थे।

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6.2 सुदूर क्षेत्रों से संपर्क

हाल ही में हुई पुरातात्विक खोजें इंगित करती हैं कि ताँबा संभवतः अरब प्रायद्वीप के दक्षिण-पूर्व छोर पर स्थित ओमान से भी लाया जाता था। रासायनिक विश्लेषण दर्शाते हैं कि ओमानी ताँबे तथा हड़प्पाई पुरावस्तुओं, दोनों में निकल के अंश मिले हैं जो दोनों के साझा उद्भव की ओर संकेत करते हैं। संपर्क के और भी संकेत मिलते हैं। एक विशिष्ट प्रकार का पात्र अर्थात् एक बड़ा हड़प्पाई मर्तबान जिसके ऊपर काली मिट्टी की एक मोटी परत चढ़ाई गई थी, ओमानी स्थलों से मिला है। एेसी मोटी परतें तरल पदार्थों के रिसाव को रोक देती हैं। हमें यह नहीं पता कि इन पात्रों में क्या रखा जाता था पर यह संभव है कि हड़प्पा सभ्यता के लोग इनमें रखे सामान का ओमानी ताँबे से विनिमय करते थे।

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चित्र 1.17

ओमान में मिला एक हड़प्पाई मर्तबान

तीसरी सहस्राब्दि ईसा पूर्व में दिनांकित मेसोपोटामिया के लेखों में मगान जो संभवतः ओमान के लिए प्रयुक्त नाम था, नामक क्षेत्र से ताँबे के आगमन के संदर्भ मिलते हैं। यहाँ रोचक बात यह है कि मेसोपोटामिया के स्थलों से मिले ताँबे में भी निकल के अंश मिले हैं। लंबी दूरी के संपर्कों की ओर संकेत करने वाली अन्य पुरातात्विक खोजों में हड़प्पाई मुहरें, बाट, पासे तथा मनके शामिल हैं। 

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चित्र 1.18

यह मेसोपोटामिया की एक विशिष्ट बेलनाकार मुहर है, परंतु इस पर बना कूबड़दार वृषभ का चित्र सिंधु क्षेत्र से लिया गया प्रतीत होता है।

इस संदर्भ में यह भी देखना महत्वपूर्ण है कि मेसोपोटामिया के लेख दिलमुन (संभवतः बहरीन द्वीप), मगान तथा मेलुहा, संभवतः हड़प्पाई क्षेत्र के लिए प्रयुक्त शब्द, नामक क्षेत्रों से संपर्क की जानकारी मिलती है। यह लेख मेलुहा से प्राप्त निम्नलिखित उत्पादों का उल्लेख करते हैंः कार्नीलियन, लाजवर्द मणि, ताँबा, सोना तथा विविध प्रकार की लकड़ियाँ। मेलुहा के विषय में एक मेसोपोटामियाई मिथक यह बताता हैः ‘‘तुम्हारा पक्षी हाजा पक्षी हो, उसकी आवाज़ राजप्रासाद में सुनाई दे।" कई पुरातत्वविदों का मानना है कि हाजा पक्षी मोर था। क्या यह नाम उसे अपनी आवाज़ से मिला था? 

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चित्र 1.19

बहरीन में मिली गोलाकार ‘फारस की खाड़ी’ प्रकार की मुहर पर कभी-कभी हड़प्पाई चित्र मिलते हैं। रोचक तथ्य यह है कि ‘दिलमुन’ के स्थानीय बाट हड़प्पाई मानक का अनुसरण करते थे।

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चित्र 1.20

नाव के चित्र वाली मुहर

 चर्चा कीजिए...

हड़प्पाई क्षेत्र से ओमान, दिलमुन तथा मेसोपोटामिया तक कौन से मार्गों से जाया जा सकता था।

एेसा संभव है कि ओमान, बहरीन या मेसोपोटामिया से संपर्क सामुद्रिक मार्ग से था। मेसोपोटामिया के लेख मेलुहा को नाविकों का देश कहते हैं। इसके अतिरिक्त हम मुहरों पर जहाज़ों तथा नावों के चित्रांकन पाते हैं।

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चित्र 1.21

एक प्राचीन सूचनापट्ट के अक्षर

7. मुहरें, लिपि तथा बाट

7.1 मुहरें और मुद्रांकन

मुहरों और मुद्रांकनों का प्रयोग लंबी दूरी के संपर्कों को सुविधाजनक बनाने के लिए होता था। कल्पना कीजिए कि सामान से भरा एक थैला एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजा गया। उसका मुख रस्सी से बाँधा गया और गाँठ पर थोड़ी गीली मिट्टी जमा कर एक या अधिक मुहरों से दबाया गया, जिससे मिट्टी पर मुहरों की छाप पड़ गई। यदि इस थैले के अपने गंतव्य स्थान पर पहुँचने तक मुद्रांकन अक्षुण्ण रहा तो इसका अर्थ था कि थैले के साथ किसी प्रकार की छेड़-छाड़ नहीं की गई थी। मुद्रांकन से प्रेषक की पहचान का भी पता चलता था।

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चित्र 1.22

रोपड़ से मिला एक मुद्रांकन

 मिट्टी के इस टुकड़े पर कितनी मुहरों की छाप दिखती है?

7.2 एक रहस्यमय लिपि

सामान्यतः हड़प्पाई मुहरों पर एक पंक्ति में कुछ लिखा है जो संभवतः मालिक के नाम व पदवी को दर्शाता है। विद्वानों ने यह सुझाव भी दिया है कि इन पर बना चित्र (आमतौर पर एक जानवर) अनपढ़ लोगों को सांकेतिक रूप से इसका अर्थ बताता था।

अधिकांश अभिलेख संक्षिप्त हैं; सबसे लंबे अभिलेख में लगभग 26 चिह्न हैं। हालाँकि यह लिपि आज तक पढ़ी नहीं जा सकी है, पर निश्चित रूप से यह वर्णमालीय (जहाँ प्रत्येक चिह्न एक स्वर अथवा व्यंजन को दर्शाता है) नहीं थी क्योंकि इसमें चिह्नों की संख्या कहीं अधिक है– लगभग 375 से 400 के बीच। एेसा प्रतीत होता है कि यह लिपि दाईं से बाईं ओर लिखी जाती थी क्योंकि कुछ मुहरों पर दाईं ओर चौड़ा अंतराल है और बाईं ओर यह संकुचित है जिससे लगता है कि उत्कीर्णक ने दाईं ओर से लिखना आरंभ किया और बाद में बाईं ओर स्थान कम पड़ गया।

अब हम उन विभिन्न प्रकार की वस्तुओं को देखते हैं जिन पर लिखावट मिली हैः मुहरें, ताँबे के औज़ार, मर्तबानों के अँवठ, ताँबे तथा मिट्टी की लघुपट्टिकाएँ, आभूषण, अस्थि-छड़ें और यहाँ तक कि एक प्राचीन सूचना पट्ट। याद रखिए हो सकता है कि नष्टप्राय वस्तुओं पर भी लिखा जाता हो। क्या इसका यह अर्थ लगाया जा सकता है कि साक्षरता व्यापक थी?

 चर्चा कीजिए...

वर्तमान समय में सामान के लंबी दूरी के विनिमय के लिए प्रयुक्त कुछ तरीकों पर चर्चा कीजिए। उनके क्या-क्या लाभ और समस्याएँ हैं?

7.3 बाट

विनिमय बाटों की एक सूक्ष्म या परिशुद्ध प्रणाली द्वारा नियंत्रित थे। ये बाट सामान्यतः चर्ट नामक पत्थर से बनाए जाते थे और आमतौर पर ये किसी भी तरह के निशान से रहित घनाकार (चित्र 1.2) होते थे। इन बाटों के निचले मानदंड द्विआधारी (1, 2, 4, 8, 16, 32 इत्यादि 12,800 तक) थे जबकि ऊपरी मानदंड दशमलव प्रणाली का अनुसरण करते थे। छोटे बाटों का प्रयोग संभवतः आभूषणों और मनकों को तौलने के लिए किया जाता था। धातु से बने तराजू के पलड़े भी मिले हैं।

8. प्राचीन सत्ता

हड़प्पाई समाज में जटिल फैसले लेने और उन्हें कार्यान्वित करने के संकेत मिलते हैं। उदाहरण के लिए, हड़प्पाई पुरावस्तुओं में असाधारण एकरूपता को ही लें, जैसा कि मृदभाण्डों (चित्र 1.14), मुहरों, बाटों तथा ईंटों से स्पष्ट है। महत्वपूर्ण बात यह है कि ईंटें, जिनका उत्पादन स्पष्ट रूप से किसी एक केंद्र पर नहीं होता था, जम्मू से गुजरात तक पूरे क्षेत्र में समान अनुपात की थीं। हमने यह भी देखा है कि अलग-अलग कारणों से बस्तियाँ विशेष स्थानों पर आवश्यकतानुसार स्थापित की गई थीं। इसके अतिरिक्त ईंटें बनाने और विशाल दीवारों तथा चबूतरों के निर्माण के लिए श्रम संगठित किया गया था।

इन सभी क्रियाकलापों को कौन संगठित करता था?

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चित्र 1.23

एक पुरोहित-राजा

 चर्चा कीजिए...

क्या हड़प्पाई समाज में सभी लोग समान रहे होंगे?

8.1 प्रासाद तथा शासक

सत्ता के केंद्र अथवा सत्ताधारी लोगों के विषय में पुरातात्विक विवरण हमें कोई त्वरित उत्तर नहीं देते। पुरातत्वविदों ने मोहनजोदड़ो में मिले एक विशाल भवन को एक प्रासाद की संज्ञा दी परंतु इससे संबद्ध कोई भव्य वस्तुएँ नहीं मिली हैं। एक पत्थर की मूर्ति को ‘पुरोहित-राजा’ की संज्ञा दी गई थी और यह नाम आज भी प्रचलित है। एेसा इसलिए है क्योंकि पुरातत्वविद मेसोपोटामिया के इतिहास तथा वहाँ के ‘पुरोहित-राजाओं’ से परिचित थे और यही समानताएँ उन्होंने सिंधु क्षेत्र में भी ढूँढ़ी। लेकिन जैसा कि हम देखेंगे (पृ. 23), हड़प्पा सभ्यता की आनुष्ठानिक प्रथाएँ अभी तक ठीक प्रकार से समझी नहीं जा सकी हैं और न ही यह जानने के साधन उपलब्ध हैं कि क्या जो लोग इन अनुष्ठानों का निष्पादन करते थे, उन्हीं के पास राजनीतिक सत्ता होती थी।

कुछ पुरातत्वविद इस मत के हैं कि हड़प्पाई समाज में शासक नहीं थे तथा सभी की सामाजिक स्थिति समान थी। दूसरे पुरातत्वविद यह मानते हैं कि यहाँ कोई एक नहीं बल्कि कई शासक थे जैसे मोहनजोदड़ो, हड़प्पा आदि के अपने अलग-अलग राजा होते थे। कुछ और यह तर्क देते हैं कि यह एक ही राज्य था जैसा कि पुरावस्तुओं में समानताओं, नियोजित बस्तियों के साक्ष्यों, ईंटों के आकार में निश्चित अनुपात, तथा बस्तियों के कच्चे-माल के स्रोतों के समीप संस्थापित होने से स्पष्ट है। अभी तक की स्थिति में अंतिम परिकल्पना सबसे युक्तिसंगत प्रतीत होती है क्योंकि यह कदाचित् संभव नहीं लगता कि पूरे के पूरे समुदायों द्वारा इकट्ठे एेसे जटिल निर्णय लिए तथा कार्यान्वित किए जाते होंगे।

9. सभ्यता का अंत

एेसे साक्ष्य मिले हैं जिनके अनुसार लगभग 1800 ईसा पूर्व तक चोलिस्तान जैसे क्षेत्रों में अधिकांश विकसित हड़प्पा स्थलों को त्याग दिया गया था। इसके साथ ही गुजरात, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश की नयी बस्तियों में आबादी बढ़ने लगी थी।

एेसा लगता है कि उत्तर हड़प्पा के क्षेत्र 1900 ईसा पूर्व के बाद भी अस्तित्व में रहे। कुछ चुने हुए हड़प्पा स्थलों की भौतिक संस्कृति में बदलाव आया था जैसे सभ्यता की विशिष्ट पुरावस्तुओं–बाटों, मुहरों तथा विशिष्ट मनकों–का समाप्त हो जाना। लेखन, लंबी दूरी का व्यापार तथा शिल्प विशेषज्ञता भी समाप्त हो गई। सामान्यतः थोड़ी वस्तुओं के निर्माण के लिए थोड़ा ही माल प्रयोग में लाया जाता था। आवास निर्माण की तकनीकों का ह्रास हुआ तथा बड़ी सार्वजनिक संरचनाओं का निर्माण अब बंद हो गया। कुल मिलाकर पुरावस्तुएँ तथा बस्तियाँ इन संस्कृतियों में एक ग्रामीण जीवनशैली की ओर संकेत करती हैं। इन संस्कृतियों को ‘‘उत्तर हड़प्पा’’ अथवा ‘‘अनुवर्ती संस्कृतियाँ’’ कहा गया।

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ये परिवर्तन कैसे हुए? इस विषय में कई व्याख्याएँ दी गई हैं। इनमें जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई, अत्यधिक बाढ़, नदियों का सूख जाना और/या मार्ग बदल लेना तथा भूमि का अत्यधिक उपयोग सम्मिलित हैं। इनमें से कुछ ‘कारण’ कुछ बस्तियों के संदर्भ में तो सही हो सकते हैं परंतु पूरी सभ्यता के पतन की व्याख्या नहीं करते।

एेसा लगता है कि एक सुदृढ़ एकीकरण के तत्व, संभवतः हड़प्पाई राज्य, का अंत हो गया था। मुहरों, लिपि, विशिष्ट मनकों तथा मृदभाण्डों के लोप, मानकीकृत बाट प्रणाली के स्थान पर स्थानीय बाटों के प्रयोग; शहरों के पतन तथा परित्याग जैसे परिवर्तनों से इस तर्क को बल मिलता है। उपमहाद्वीप को एक पूरी तरह से अलग क्षेत्र में नए शहरों के विकास के लिए एक सहस्राब्दि से भी अधिक समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ी।

एक ‘आक्रमण’ के साक्ष्य

स्रोत  3

एक ‘आक्रमण’ के साक्ष्य

डैडमैन लेन एक सँकरी गली है, जिसकी चौड़ाई 3 से 6 फ़ीट तक परिवर्ती है . . . . वह बिंदु जहाँ यह गली पश्चिम की ओर मुड़ती है, 4 फ़ीट तथा 2 इंच की गहराई पर एक खोपड़ी का भाग तथा एक वयस्क की छाती तथा हाथ के ऊपरी भाग की हड्डियाँ मिली थीं। ये सभी बहुत भुरभुरी अवस्था में थीं। यह धड़ पीठ के बल, गली में आड़ा पड़ा हुआ था। पश्चिम की ओर 15 इंच की दूरी पर एक छोटी खोपड़ी के कुछ टुकड़े थे। इस गली का नाम इन्हीं अवशेषों पर आधारित है।

जॉन मार्शल, मोहनजोदड़ो एंड द इंडस सिविलाईज़ेशन, 1931 से उद्धृत।

1925 में मोहनजोदड़ो के इसी भाग से सोलह लोगों के अस्थि-पंजर उन आभूषणों सहित मिले थे जो इन्होंने मृत्यु के समय पहने हुए थे।

बहुत समय पश्चात 1947 में आर.ई.एम. व्हीलर ने जो भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के तत्कालीन डायरेक्टर जनरल थे, इन पुरातात्विक साक्ष्यों का उपमहाद्वीप में ज्ञात प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद के साक्ष्यों से संबंध स्थापित करने का प्रयास किया। उन्होंने लिखाः

ऋग्वेद में पुर शब्द का उल्लेख है जिसका अर्थ है प्राचीर, किला या गढ़। आर्यों के युद्ध के देवता इंद्र को पुरंदर, अर्थात् गढ़-विध्वंसक कहा गया है।

ये दुर्ग कहाँ हैं .... या थे ....? पहले यह माना गया था कि ये मिथक मात्र थे .... हड़प्पा में हाल में हुए उत्खननों ने मानो परिदृश्य बदल दिया है। यहाँ हम मुख्यतः अनार्य प्रकार की एक बहुत विकसित सभ्यता पाते हैं जिसमें अब प्राप्त जानकारी के अनुसार विशाल किलेबंदियाँ की गई थीं .... यह सुदृढ़ रूप से स्थिर सभ्यता कैसे नष्ट हुई? हो सकता है जलवायु संबंधी, आर्थिक अथवा राजनीतिक ह्रास ने इसे कमज़ोर किया हो, पर अधिक संभावना इस बात की है कि जानबूझ कर तथा बड़े पैमाने पर किए गए विनाश ने इसे अंतिम रूप से समाप्त कर दिया। यह मात्र संयोग ही नहीं हो सकता कि मोहनजोदड़ो के अंतिम चरण में आभास होता है कि यहाँ पुरुषों, महिलाओं तथा बच्चों का जनसंहार किया गया था। पारिस्थितिक साक्ष्यों के आधार पर इंद्र अभियुक्त माना जाता है।

आर.ई.एम. व्हीलर, हड़प्पा 1946, एंशिएंट इंडिया (जर्नल) 1947 से उद्धृत।

1960 के दशक में जॉर्ज डेल्स नामक पुरातत्वविद ने मोहनजोदड़ो में जनसंहार के साक्ष्यों पर सवाल उठाए। उन्होंने दिखाया कि उस स्थान पर मिले सभी अस्थि-पंजर एक ही काल से संबद्ध नहीं थेः

हालाँकि इनमें से दो से निश्चित रूप में संहार के संकेत मिलते हैं, . . . . पर अधिकांश अस्थियाँ जिन संदर्भों में मिली हैं वे इंगित करती हैं कि ये अत्यंत लापरवाही तथा श्रद्धाहीन तरीके से बनाए गए शवाधान थे। शहर के अंतिम काल से संबद्ध विनाश का कोई स्तर नहीं है, व्यापक स्तर पर अग्निकांड के चिह्न नहीं हैं, चारों ओर फैले हथियारों के बीच कवचधारी सैनिकों के शव नहीं हैं। दुर्ग से जो शहर का एकमात्र किलेबंद भाग था, अंतिम आत्मरक्षण के कोई साक्ष्य नहीं मिले हैं।

जी.एफ.डेल्स, ‘द मिथिकल मैसेकर एट मोहनजोदड़ो’, एक्सपीडीशन, 1964 से उद्धृत।

जैसा कि आप देख सकते हैं कि तथ्यों का सावधानीपूर्वक पुनर्निरीक्षण कभी-कभी पूर्ववर्ती व्याख्याओं को पूरी तरह से उलट देता है।


 चर्चा कीजिए...

मानचित्र 1, 2 और 4 के बीच समानताओं और भिन्नताओं पर विचार कीजिए।

10. हड़प्पा सभ्यता की खोज

अब तक हमने हड़प्पा सभ्यता के विभिन्न पहलुओं का विश्लेषण इस संदर्भ में किया है कि किस प्रकार पुरातत्वविदों ने भौतिक अवशेषों से प्राप्त साक्ष्यों के माध्यम से एक आकर्षक इतिहास के अलग-अलग अंशों को एक साथ जोड़ा है। लेकिन एक और कहानी भी है–कि किस प्रकार पुरातत्वविदों ने सभ्यता की ‘खोज’ की।

जब हड़प्पा सभ्यता के शहर नष्ट हो गए तो लोग धीरे-धीरे उनके विषय में सब कुछ भूल गए। जब लोगों ने इस क्षेत्र में सहस्राब्दियों बाद रहना आरंभ किया तब वे यह नहीं समझ पाए कि बाढ़ या मिट्टी के कटाव के कारण अथवा खेत की जुताई के समय या फिर खज़ाने के लिए खुदाई के समय यदा-कदा धरती की सतह पर आने वाली अपरिचित पुरावस्तुओं का क्या अर्थ लगाया जाए।

10.1 कनिंघम का भ्रम

जब भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के पहले डायरेक्टर जनरल कनिंघम ने उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में पुरातात्विक उत्खनन आरंभ किए, तब पुरातत्वविद अपने अन्वेषणों के मार्गदर्शन के लिए लिखित स्रोतों (साहित्य तथा अभिलेख) का प्रयोग अधिक पसंद करते थे। यहाँ तक कि कनिंघम की मुख्य रुचि भी आरंभिक एेतिहासिक (लगभग छठी शताब्दी ईसा पूर्व से चौथी शताब्दी ईसवी) तथा उसके बाद के कालों से संबंधित पुरातत्व में थी। आरंभिक बस्तियों की पहचान के लिए उन्होंने चौथी से सातवीं शताब्दी ईसवी के बीच उपमहाद्वीप में आए चीनी बौद्ध तीर्थयात्रियों द्वारा छोड़े गए वृतांतों का प्रयोग किया। कनिंघम ने अपने सर्वेक्षणों के दौरान मिले अभिलेखों का संग्रहण, प्रलेखन तथा अनुवाद भी किया। उत्खनन के समय वे एेसी पुरावस्तुओं को खोजने का प्रयास करते जो उनके विचार में सांस्कृतिक महत्त्व की थीं।

हड़प्पा जैसा पुरास्थल जो चीनी तीर्थयात्रियों के यात्रा-कार्यक्रम का हिस्सा नहीं था और जो एक आरंभिक एेतिहासिक शहर नहीं था, कनिंघम के अन्वेषण के ढाँचे में उपयुक्त नहीं बैठता था। इसलिए हालाँकि हड़प्पाई पुरावस्तुएँ उन्नीसवीं शताब्दी में कभी-कभी मिलती थीं और इनमें से कुछ तो कनिंघम तक पहुँची भी थीं, फिर भी वह समझ नहीं पाए कि ये पुरावस्तुएँ कितनी प्राचीन थीं।

एक अंग्रेज़ ने कनिंघम को एक हड़प्पाई मुहर दी। उन्होंने मुहर पर ध्यान तो दिया पर उन्होंने उसे एक एेसे काल-खंड में, दिनांकित करने का असफल प्रयास किया जिससे वे परिचित थे। एेसा इसलिए था क्योंकि कई और लोगों की तरह ही उनका भी यह मानना था कि भारतीय इतिहास का प्रारंभ गंगा की घाटी में पनपे पहले शहरों के साथ ही हुआ था (अध्याय 2 देखिए)। उनकी सुनिश्चित अवधारणा के चलते यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि वह हड़प्पा के महत्त्व को समझने में चूक गए।

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चित्र 1.24

कनिंघम द्वारा हड़प्पा से प्राप्त पहली ज्ञात मुहर का बनाया गया रेखाचित्र

10.2 एक नवीन प्राचीन सभ्यता

कालांतर में बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में दया राम साहनी जैसे पुरातत्वविदों ने हड़प्पा में मुहरें खोज निकालीं जो निश्चित रूप से आरंभिक एेतिहासिक स्तरों से कहीं अधिक प्राचीन स्तरों से संबद्ध थीं। अब इनके महत्त्व को समझा जाने लगा। एक अन्य पुरातत्वविद राखाल दास बनर्जी ने हड़प्पा से मिली मुहरों के समान मुहरें मोहनजोदड़ो से खोज निकालीं जिससे अनुमान लगाया गया कि ये दोनों पुरास्थल एक ही पुरातात्विक संस्कृति के भाग थे। इन्हीं खोजों के आधार पर 1924 में भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के डायरेक्टर जनरल जॉन मार्शल ने पूरे विश्व के समक्ष सिंधु घाटी में एक नवीन सभ्यता की खोज की घोषणा की। जैसा कि एस.एन. राव, द स्टोरी अॉफ़ इंडियन आर्कियोलॉजी, में लिखते हैं, ‘‘मार्शल ने भारत को जहाँ पाया था, उसे उससे तीन हज़ार वर्ष पीछे छोड़ा" एेसा इसलिए था क्योंकि मेसोपोटामिया के पुरास्थलों में हुए उत्खननों से हड़प्पा पुरास्थलों पर मिली मुहरों जैसी, पर तब तक पहचानी न जा सकीं, मुहरें मिली थीं। इस प्रकार विश्व को न केवल एक नयी सभ्यता की जानकारी मिली, पर यह भी कि वह मेसोपोटामिया के समकालीन थी।

भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के डायरेक्टर जनरल के रूप में जॉन मार्शल का कार्यकाल वास्तव में भारतीय पुरातत्व में एक व्यापक परिवर्तन का काल था। वे भारत में कार्य करने वाले पहले पेशेवर पुरातत्वविद थे और वे यहाँ यूनान तथा क्रीट में अपने कार्यों का अनुभव भी लाए। हालाँकि अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि कनिंघम की तरह ही उन्हें भी आकर्षक खोजों में दिलचस्पी थी, पर उनमें दैनिक जीवन की पद्धतियों को जानने की भी उत्सुकता थी।

पुरास्थल, टीले, स्तर

पुरातात्विक पुरास्थल वस्तुओं और संरचनाओं के निर्माण, प्रयोग और फिर उन्हें त्याग दिए जाने से बनते हैं। जब लोग एक ही स्थान पर नियमित रूप से रहते हैं तो भूमि-खंड के अनवरत उपयोग तथा पुनः उपयोग से आवासीय मलबों का निर्माण हो जाता है जिन्हें टीला कहते हैं। अल्पकालीन या स्थायी परित्याग की स्थिति में हवा या पानी की क्रियाशीलता और कटाव के कारण भूमि-खंड के स्वरूप में बदलाव आ जाता है। इन टीलों में मिले स्तरों से प्राप्त प्राचीन वस्तुओं से आवास का पता चलता है। ये स्तर एक दूसरे से रंग, प्रकृति और इनमें मिली पुरावस्तुओं के संदर्भ में भिन्न होते हैं। परित्यक्त स्तरों, जिन्हें ‘‘बंजर स्तर’’ कहा जाता है, की पहचान इन सभी लक्षणों के अभाव से की जाती है।

सामान्य तौर पर सबसे निचले स्तर प्राचीनतम और सबसे ऊपरी, नवीनतम होते हैं। इन स्तरों के अध्ययन को स्तर क्रम विज्ञान कहा जाता है। स्तरों में मिली पुरावस्तुओं को विशेष सांस्कृतिक काल-खंडों से संबद्ध किया जा सकता है जिससे एक पुरास्थल का पूरा सांस्कृतिक क्रम पता किया जा सकता है।

चित्र 1.25

एक छोटे टीले का स्तरविन्यास

ध्यान से देखने पर पता चलेगा कि ये स्तर सदैव क्षैतिज नहीं हैं।

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मार्शल, पुरास्थल के स्तर विन्यास को पूरी तरह अनदेखा कर पूरे टीले में समान परिमाण वाली नियमित क्षैतिज इकाइयों के साथ-साथ उत्खनन करने का प्रयास करते थे। इसका यह अर्थ हुआ कि अलग-अलग स्तरों से संबद्ध होने पर भी एक इकाई विशेष से प्राप्त सभी पुरावस्तुओं को सामूहिक रूप से वर्गीकृत कर दिया जाता था। परिणामस्वरूप इन खोजों के संदर्भ के विषय में बहुमूल्य जानकारी हमेशा के लिए लुप्त हो जाती थी।

10.3 नयी तकनीकें तथा प्रश्न

1944 में भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के डायरेक्टर जनरल बने आर.ई.एम. व्हीलर ने इस समस्या का निदान किया। व्हीलर ने पहचाना कि एकसमान क्षैतिज इकाइयों के आधार पर खुदाई की बजाय टीले के स्तर विन्यास का अनुसरण करना अधिक आवश्यक था। साथ ही, सेना के पूर्व-ब्रिगेडियर के रूप में उन्होंने पुरातत्व की पद्धति में एक सैनिक परिशुद्धता का समावेश भी किया।

हड़प्पा सभ्यता की भौगोलिक सीमाओं का आज की राष्ट्रीय सीमाओं से बहुत थोड़ा या कोई संबंध नहीं है। लेकिन उपमहाद्वीप के विभाजन तथा पाकिस्तान के बनने के पश्चात्, सभ्यता के प्रमुख स्थल अब पाकिस्तान के क्षेत्र में हैं। इसी कारण से भारतीय पुरातत्वविदों ने भारत में पुरास्थलों को चिह्नित करने का प्रयास किया। कच्छ में हुए व्यापक सर्वेक्षणों से कई हड़प्पाई बस्तियाँ प्रकाश में आईं तथा पंजाब और हरियाणा में किए गए अन्वेषणों से हड़प्पा स्थलों की सूची में कई और नाम जुड़ गए। हालाँकि कालीबंगन, लोथल, राखी गढ़ी और हाल में हुई धौलावीरा की खोज, वहाँ हुए अन्वेषण तथा उत्खनन इन्हीं प्रयासों का हिस्सा हैं। नए अन्वेषण अब भी जारी हैं।

इन दशकों में नए प्रश्न महत्वपूर्ण हो गए हैं। यहाँ कुछ पुरातत्वविद आमतौर पर सांस्कृतिक उपक्रम का पता लगाने के इच्छुक रहते हैं, वहीं कुछ और विशेष पुरास्थलों की भौगोलिक स्थिति के पीछे निहित कारणों को समझने का प्रयास करते हैं। वे पुरावस्तुओं रूपी निधि से भी जूझते हैं और उनकी संभावित उपयोगिताओं को समझने का प्रयास करते हैं।

1980 के दशक से हड़प्पाई पुरातत्व में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी रुचि लगातार बढ़ती रही है। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो, दोनों स्थानोें पर उपमहाद्वीप के तथा विदेशी विशेषज्ञ संयुक्त रूप से कार्य करते रहे हैं। वे आधुनिक वैज्ञानिक तकनीकों का प्रयोग करते हैं जिनमें मिट्टी, पत्थर, धातु की वस्तुएँ तथा वनस्पति और जानवरों के अवशेष प्राप्त करने हेतु सतह का अन्वेषण और साथ ही उपलब्ध साक्ष्य के हर सूक्ष्म टुकड़े का विश्लेषण सम्मिलित है। ये अन्वेषण भविष्य में रोचक परिणामों की आशा दिलाते हैं।

 चर्चा कीजिए...

इस अध्याय में दिए गए विषयों में से कौन से कनिंघम को रुचिकर लगते?1947 के बाद से कौन-कौन से प्रश्न रोचक माने गए हैं?

हड़प्पा में व्हीलर

आरंभिक पुरातत्वविद कई बार साहस की भावना से कार्य करते थे। व्हीलर ने हड़प्पा में अपने अनुभव के विषय में यह लिखाः

मुझे याद आता है कि 1944 की एक गर्म रात को पुरातात्विक सर्वेक्षण के नवनियुक्त डायरेक्टर जनरल के रूप में अपने स्थानीय मुस्लिम अधिकारी के साथ ‘हड़प्पा’ नामक एक छोटे से रेलवे स्टेशन से एक गहरे बालू के रास्ते पर चार मील की ताँगे की सवारी कर मैं प्राचीन स्थल के टीलों, जो चाँद की रोशनी से अवलोकित थे, के समीप स्थित एक विश्राम-गृह तक पहुँचा। अपने चिंतित सहकर्मी की इस चेतावनी, कि हमें अपना निरीक्षण अगली सुबह 5.30 बजे आरंभ कर 7.30 बजे तक समाप्त कर देना चाहिए, जिसके पश्चात बहुत अधिक गर्मी हो जाती है, के बाद प्रवेशद्वार में काली आकृति के पंखे वाले को धीरतापूर्वक बैठा छोड़ तथा पड़ोस की बीहड़ से अनगिनत सियारों की रात की हवा को चीरती हुई आवाज़ के बीच हम सोने चले गए।

अगली सुबह ठीक 5.30 बजे हमारे छोटे से काफ़िले ने बालू के टीले की ओर बढ़ना आरंभ किया। दस मिनट के भीतर ही मैं रुका और सबसे ऊँचे टीले को देखते हुए, अपनी दृष्टि पर अविश्वास के साथ अपनी आँखे मलने लगा। छह घंटे बाद भी मेरे घबराए हुए कर्मचारीगण तथा मैं सूर्य की तेज़ रोशनी में कुदालियों और चाकुओं के साथ कठिन परिश्रम कर रहे थे, मुझे डर है कि मेरे सहयोगी काम के मेरे जुनून के कारण मुझे सनकी न समझ लें।

आर.ई.एम. व्हीलर, 
माई आर्कियोलॉजिकल मिशन टू इंडिया एंड पाकिस्तान, 
1976 से उद्धृत।

11. अतीत को जोड़कर पूरा करने की समस्याएँ

जैसा कि हमने देखा है, हड़प्पाई लिपि से इस प्राचीन सभ्यता को जानने में कोई मदद नहीं मिलती। बल्कि ये भौतिक साक्ष्य हैं जो पुरातत्वविदों को हड़प्पाई जीवन को ठीक प्रकार से पुनर्निर्मित करने में सहायक होते हैं। ये वस्तुएँ–मृदभाण्ड, औज़ार, आभूषण, घरेलू सामान हो सकती हैं। कपड़ा, चमड़ा, लकड़ी तथा सरकंडे जैसे जैविक पदार्थ सामान्यतः सड़ जाते हैं, विशेष रूप से ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में। जो वस्तुएँ बच जाती हैं वे हैं पत्थर, पकी मिट्टी तथा धातु।

यह भी याद रखना आवश्यक है कि केवल टूटी हुई अथवा अनुपयोगी वस्तुएँ ही फेंकी जाती थीं। अन्य वस्तुएँ संभवतः पुनः चक्रित की जाती थीं। परिणामस्वरूप जो बहुमूल्य वस्तुएँ अक्षत अवस्था में मिलती हैं या तो वे अतीत में खो गई थीं या फिर संचयन के पश्चात कभी दोबारा प्राप्त नहीं की गई थीं। अन्य शब्दों में कुछ खोजें प्रारूपिक की बजाए संयोगिक होती हैं।

11.1 खोजों का वर्गीकरण

पुरावस्तुओं की पुनः प्राप्ति पुरातात्विक उद्यम का आरंभ मात्र है। इसके बाद पुरातत्वविद अपनी खोजों को वर्गीकृत करते हैं। वर्गीकरण का एक सामान्य सिद्धांत प्रयुक्त पदार्थों; जैसे-पत्थर, मिट्टी, धातु, अस्थि, हाथीदाँत आदि के संबंध में होता है। दूसरा, और अधिक जटिल, उनकी उपयोगिता के आधार पर होता है: पुरातत्वविदों को यह तय करना पड़ता है कि उदाहरणतः कोई पुरावस्तु एक औज़ार है या एक आभूषण है या फिर दोनों अथवा आनुष्ठानिक प्रयोग की कोई वस्तु।

किसी पुरावस्तु की उपयोगिता की समझ अक्सर आधुनिक समय में प्रयुक्त वस्तुओं से उनकी समानता पर आधारित होती है–मनके, चक्कियाँ, पत्थर के फलक तथा पात्र इसके स्पष्ट उदाहरण हैं। पुरातत्वविद किसी पुरावस्तु की उपयोगिता को समझने का प्रयास उस संदर्भ के परीक्षण के माध्यम से भी करते हैं जिसमें वह मिली थीः क्या वे घर में मिली थीं, नाले में, कब्र में, या फिर भट्ठी में?

कभी-कभी पुरातत्वविदों को अप्रत्यक्ष साक्ष्यों का सहारा लेना पड़ता है। उदाहरण के लिए, हालाँकि कुछ हड़प्पा स्थलों से कपास के टुक\ड़े मिले हैं, पर पहनावे के विषय में जानने के लिए हमें अप्रत्यक्ष साक्ष्यों, जैसे मूर्तियों में चित्रण पर निर्भर रहना पड़ता है।

पुरातत्वविदों को संदर्भ की रूपरेखाओं को विकसित करना पड़ता है। हमने देखा है कि पहली प्राप्त हड़प्पाई मुहर को तब तक नहीं समझा जा सका जब तक पुरातत्वविदों को उसे समझने के लिए सही संदर्भ नहीं मिला। सांस्कृतिक अनुक्रम जिसमें वह मिली थी तथा मेसोपोटामिया में हुई खोजों की तुलना, दोनों के संबंध में।

11.2 व्याख्या की समस्याएँ

पुरातात्विक व्याख्या की समस्याएँ संभवतः सबसे अधिक धार्मिक प्रथाओं के पुनर्निर्माण के प्रयासों में सामने आती हैं। आरंभिक पुरातत्वविदों को लगता था कि कुछ वस्तुएँ जो असामान्य और अपरिचित लगती थीं संभवतः धार्मिक महत्त्व की होती थीं। इनमें आभूषणों से लदी हुई नारी मृण्मूर्तियाँ जिनमें से कुछ के शीर्ष पर विस्तृत प्रसाधन थे, शामिल हैं। इन्हें मातृदेवियों की संज्ञा दी गई थी। पुरुषों की दुर्लभ पत्थर से बनी मूर्तियाँ जिनमें उन्हें एक लगभग मानकीकृत मुद्रा में एक हाथ घुटने पर रख बैठा हुआ दिखाया गया था, जैसा कि ‘पुरोहित-राजा’, को भी इसी प्रकार वर्गीकृत किया गया था। अन्य दृष्टांतों में, संरचनाओं को आनुष्ठानिक महत्त्व का माना गया है। इनमें विशाल स्नानागार तथा कालीबंगन और लोथल से मिली वेदियाँ सम्मिलित हैं।

मुहरों जिनमें से कुछ पर संभवतः अनुष्ठान के दृश्य बने हैं, के परीक्षण से धार्मिक आस्थाओं और प्रथाओं को पुनर्निर्मित करने का प्रयास भी किया गया है। कुछ अन्य जिन पर पेड़-पौधे उत्कीर्णित हैं, मान्यतानुसार प्रकृति की पूजा के संकेत देते हैं। मुहरों पर बनाए गए कुछ जानवर–जैसे कि एक सींग वाला जानवर, जिसे आमतौर पर एक शृंगी कहा जाता है–कल्पित तथा संश्लिष्ट लगते हैं। कुछ मुहरों पर एक आकृति जिसे पालथी मार कर ‘योगी’ की मुद्रा में बैठा दिखाया गया है और कभी-कभी जिसे जानवरों से घिरा दर्शाया गया है, को ‘आद्य शिव’, अर्थात् हिंदू धर्म के प्रमुख देवताओं में से एक का आरंभिक रूप की संज्ञा दी गई है। इसके अतिरिक्त पत्थर की शंक्वाकार वस्तुओं को लिंग के रूप में वर्गीकृत किया गया है।

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क्या यह एक मातृदेवी थी?

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एक ‘आद्य शिव’ मुहर

हड़प्पाई धर्म के कई पुनर्निर्माण इस अनुमान के आधार पर किए गए हैं कि आरंभिक तथा बाद की परंपराओं में समानताएँ होती हैं। एेसा इसलिए होता है क्योंकि अधिकांशतः पुरातत्वविद ज्ञात से अज्ञात की ओर बढ़ते हैं अर्थात् वर्तमान से अतीत की ओर। हालाँकि यह नीति पत्थर की चक्कियों तथा पात्रों के संबंध में युक्तिसंगत हो सकती है लेकिन ‘धार्मिक’ प्रतीक के संदर्भ में यह अधिक संदिग्ध रहती है।

लिंग उस परिष्कृत पत्थर को कहा जाता है जिसकी पूजा भगवान शिव के रूप में होती है।

उदाहरण के लिए, आइए हम ‘आद्य शिव’ मुहरों को देखते हैं। सबसे आरंभिक धार्मिक ग्रंथ ऋग्वेद (लगभग 1500 से 1000 ईसा पूर्व के बीच संकलित) में रुद्र नामक एक देवता का उल्लेख मिलता है जो बाद की पौराणिक परंपराओं में शिव के लिए प्रयुक्त एक नाम है (पहली सहस्राब्दि ईसवी मेंः अध्याय 4 भी देखिए)। लेकिन शिव के विपरीत रुद्र को ऋग्वेद में न तो पशुपति (सामान्य रूप से जानवरों और विशेष रूप से मवेशियों के स्वामी) और न ही एक योगी के रूप में दिखाया गया है। दूसरे शब्दों में, यह चित्रण ऋग्वेद में दिए गए रुद्र के विवरण से मेल नहीं खाता। फिर क्या यह कोई शमन था, जैसा कि कुछ विद्वानों ने सुझाया है?

शमन वे महिलाएँ और पुरुष होते हैं जेा जादुई तथा इलाज करने की शक्ति होने और साथ ही दूसरी दुनिया से संपर्क साधने के सामर्थ्य का दावा करते हैं।


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मुहरें या लिंग

सबसे आरंभिक उत्खनकों में से एक मैके इन पत्थरों के विषय में यह कहते हैंः

लाजवर्द मणि, जैस्पर, चाल्सेडनी तथा अन्य पत्थरों से बने छोटे आकार के शंकुओं जो सुंदरता से तराशे और तैयार किए गए थे तथा जो दो इंच से भी कम ऊँचाई के थे, को लिंग भी माना गया है... दूसरी तरफ़, यह भी संभव है कि इनका प्रयोग पट्टों पर खेले जाने वाले खेलों में होता था... अर्नेेस्ट मैके, अर्ली इंडस सिविलाईज़ेशन, 1948 से उद्धृत।


 चर्चा कीजिए...

हड़प्पाई अर्थव्यवस्था के वे कौन-कौन से पहलू हैं जिनका पुनर्निर्माण पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर किया गया है?

इतने दशकों में हुए पुरातात्विक कार्यों की क्या उपलब्धि है? हड़प्पाई अर्थव्यवस्था के बारे में अब हमारी जानकारी कुछ बेहतर है। हम सामाजिक भिन्नताओं की गुत्थी सुलझाने में सफल हुए हैं और सभ्यता की कार्यप्रणाली के विषय में हमारी जानकारी कुछ बढ़ी है। सच में यह स्पष्ट नहीं है कि लिपि के पढ़े जाने की स्थिति में हम और कितना जान पाते। यदि एक द्विभाषिक अभिलेख मिलता है तो हड़प्पा निवासियों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं के विषय में प्रश्नों पर संभवतः विराम लग सकता है।

कई पुनर्निर्माण अभी भी संदिग्ध बने हुए हैं। क्या विशाल स्नानागार एक आनुष्ठानिक संरचना थी? साक्षरता कितनी व्यापक थी? हड़प्पाई कब्रिस्तानों में सामाजिक भिन्नताएँ कम क्यों दिखाई देती हैं? स्त्री-पुरुष संबंधों से जुड़े प्रश्न भी अनुत्तरित हैं– क्या महिलाएँ मृदभाण्ड बनाती थीं या फिर केवल उन्हें रँगने का कार्य करती थीं (जैसे कि आजकल)? दूसरे शिल्पकर्मियों के क्या कार्य थे? नारी मृण्मूर्तियों का क्या उपयोग था? हड़प्पा सभ्यता के संदर्भ में स्त्री-पुरुष संबंधों से जुड़े पहलुओं पर बहुत कम विद्वानों ने अन्वेषण किए हैं और यह भविष्य में होने वाले कार्य के लिए पूरी तरह से नया क्षेत्र है।

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पकी मिट्टी की खिलौना गाड़ी

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उत्तर दीजिए (लगभग 100-150 शब्दों में)

1. हड़प्पा सभ्यता के शहरों में लोगों को उपलब्ध भोजन सामग्री की सूची बनाइए। इन वस्तुओं को उपलब्ध कराने वाले समूहों की पहचान कीजिए।

2. पुरातत्वविद हड़प्पाई समाज में सामाजिक-आर्थिक भिन्नताओं का पता किस प्रकार लगाते हैं? वे कौन सी भिन्नताओं पर ध्यान देते हैं?

3. क्या आप इस तथ्य से सहमत हैं कि हड़प्पा सभ्यता के शहरों की जल निकास प्रणाली, नगर-योजना की ओर संकेत करती है? अपने उत्तर के कारण बताइए।

4. हड़प्पा सभ्यता में मनके बनाने के लिए प्रयुक्त पदार्थों की सूची बनाइए। कोई भी एक प्रकार का मनका बनाने की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।

5. चित्र 1 को देखिए और उसका वर्णन कीजिए। शव किस प्रकार रखा गया है? उसके समीप कौन सी वस्तुएँ रखी गई हैं? क्या शरीर पर कोई पुरावस्तुएँ हैं? क्या इनसे कंकाल के लिंग का पता चलता है?

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चित्र 1.30

एक हड़प्पाई शवाधान

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए(लगभग 500 शब्दों में)

6. मोहनजोदड़ो की कुछ विशिष्टताओं का वर्णन कीजिए।

7. हड़प्पा सभ्यता में शिल्प उत्पादन के लिए आवश्यक कच्चे माल की सूची बनाइए तथा चर्चा कीजिए कि ये किस प्रकार प्राप्त किए जाते होंगे।

8. चर्चा कीजिए कि पुरातत्वविद किस प्रकार अतीत का पुनर्निर्माण करते हैं।

9. हड़प्पाई समाज में शासकों द्वारा किए जाने वाले संभावित कार्यों की चर्चा कीजिए।

मानचित्र कार्य

10. मानचित्र 1 पर उन स्थलों पर पेंसिल से घेरा बनाइए जहाँ से कृषि के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। उन स्थलों के आगे क्रॉस का निशान बनाइए जहाँ शिल्प उत्पादन के साक्ष्य मिले हैं। उन स्थलों पर ‘क’ लिखिए जहाँ कच्चा माल मिलता था।

परियोजना कार्य (कोई एक)

11. पता कीजिए कि क्या आपके शहर में कोई संग्रहालय है। उनमें से एक को देखने जाइए, और किन्हीं दस वस्तुओं पर एक रिपोर्ट लिखिए जिसमें बताइए कि वे कितनी पुरानी हैं, वे कहाँ मिली थीं, और आपके अनुसार उन्हें क्यों प्रदर्शित किया गया है।

12. वर्तमान समय में निर्मित तथा प्रयुक्त पत्थर, धातु तथा मिट्टी की दस वस्तुओं के रेखाचित्र एकत्रित कीजिए। इनकी तुलना इस अध्याय में दिए गए हड़प्पा सभ्यता के चित्रों से कीजिए, तथा आपके द्वारा उनमें पाई गई समानताओं तथा भिन्नताओं पर चर्चा कीजिए।

यदि आप और जानकारी चाहते हैं तो पढ़िएः

रेमंड तथा ब्रिजेट आल्चिन, 1997 अॉरिजिंस अॉफ़ ए सिविलाईज़ेशन,

वाइकिंग, नयी दिल्ली।

 

जी.एस. पोसल, 2003

द इंडस सिविलाईज़ेशन,

विस्तार, नयी दिल्ली।

 

शीरीन रत्नागर, 2001

अंडरस्टैंडिंग हड़प्पा,

तूलिका, नयी दिल्ली।


अधिक जानकारी के लिए आप निम्नलिखित वेबसाइट देख सकते हैंः

http://www.harappa.com/har/harres0.html