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गुजराती लोककथा
14 मुफ़्त ही मुफ़्त
एक दिन भीखूभाई का मन नारियल खाने का हुआ। ताज़ा-मुलायम, कसा हुआ, शक्कर के साथ। म्म्म्म! उसके बारे में सोचते ही भीखूभाई ने अपने होठों को चटकारा, “वाह क्या मीठा-मीठा सा स्वाद होगा!"
लेकिन एक छोटी-सी समस्या थी। घर में तो एक भी नारियल नहीं था।
"ओहो! अब मुझे बाज़ार जाना पड़ेगा," उन्होंने अपनी पत्नी लाभुबेन से कहा।
लाभुबेन अपने कंधे उचकाकर बोली, "खाना है तो जाना है।"
एक समस्या और थी। भीखभाई ने कहा, “पैसे खर्च करने पड़ेंगे," लाभुबेन बोली, “हाँ। पैसे तो खर्च करने पड़ेंगे।"
अब तक तो तुम्हें पता लग गया होगा कि भीखूभाई ज़रा कंजूस थे। वे सीधे खेत में बूढ़े बरगद के नीचे जा कर बैठ गए और सोचने लगे, "क्या करूँ? मैं क्या करूँ?"
मगर नारियल खाने के लिए जी ऐसा ललचाया कि वे जल्दी घर वापस लौटकर लाभुबेन से बोले, “अच्छा, मैं बाज़ार तक हो आता हूँ। पता तो चले कि नारियल आजकल कितने में बिक रहे हैं।"
जूते पहनकर, छड़ी उठाकर, भीखूभाई निकल पड़े।
बाज़ार में लोग अपने-अपने कामों में लगे थे। भीखूभाई ने इधर कुछ देखा, उधर कुछ उठाया और दाम पूछा। देखते-पूछते, वे नारियलवाले के पास पहुँच गए।
"ऐ नारियलवाले, नारियल कितने में दोगे?" भीखूभाई ने पूछा। नारियलवाले ने कहा, "बस, दो रुपए में काका,"
"बस, दो रुपए!" भीखूभाई ने आँखें फैलाकर कहा, “बहुत ज़्यादा है। एक रुपए में दे दो।"
नारियलवाले ने कहा, "ना जी ना। दो रुपए, सही दाम। ले लो या छोड़ दो,"
"ठीक है! ठीक है!" भीखूभाई बड़बड़ाए। "अच्छा तो बताओ, एक रुपए में कहाँ मिलेगा?"
नारियलवाले ने कहा, "यहाँ से थोड़ी दूर जो मंडी है, वहाँ शायद मिल जाए।"
सो भीखूभाई उसी तरफ़ चल पड़े। “चलो देख लेते हैं," वे अपने आप से बोले, "टहलने
का एक मौका है और रुपए भर की बचत भी हो जाएगी।" खुशी से घुरघुराते भीखूभाई ने छड़ी को ज़मीन पर थपथपाया।
मंडी में कोलाहल फैला हुआ था। व्यापारियों की ऊँची-ऊँची आवाजें गूंज रही थीं।
"बटाटा-आलू, बटाटा-आलू! कांदा-प्याज़ कांदा-प्याज़! गाजर गाजर गाजर! कोबी- बंदगोभी कोबी-बंदगोभी!"
माथे का पसीना पोंछकर भीखूभाई ने इधर-उधर ताका। नारियलवाले को देखकर पूछा, “अरे भाई, एक नारियल कितने में दोगे?"
"सिर्फ़ एक रुपया, काका," नारियलवाले ने जवाब दिया, “जो चाहो ले जाओ। जल्दी।"
“शू छे भाई?" भीखूभाई ने कहा, "यह क्या? मैं इतनी दूर से आया हूँ और तुम पूरा एक रुपया माँग रहे हो। पचास पैसे काफ़ी हैं। मैं इस नारियल को लेता हूँ और तुम, यह लो, पकड़ो, पचास पैसे।"
नारियलवाले ने झट भीखूभाई के हाथ से नारियल को छीन लिया और बोला, "माफ़ करो, काका। एक रुपया या फिर कुछ नहीं।" लेकिन भीखूभाई का निराश चेहरा देखकर बोला, "बंदरगाह पर चले जाओ, हो सकता है वहाँ तुम्हें पचास पैसे में मिल जाए।"
शू छे-क्या है
भीखूभाई अपनी छड़ी से टेक लगाकर सोचने लगे, “आखिर पचास पैसे तो पूरे पचास पैसे हैं। वैसे भी मेरी टाँगों में अभी भी दम है।"
पैरों को घसीटते हुए, भीखूभाई चलने लगे। हर दो कदम पर रुककर, जेब में से बड़ा सफ़ेद रुमाल निकालकर, वे अपना पसीना पोंछते।
सागर के किनारे एक नाववाला बैठा था। उसके सामने दो-चार नारियल पड़े थे। “अरे भाई, एक नारियल कितने में दोगे?" भीखूभाई ने पूछा और कहा, "ये तो काफ़ी अच्छे दिखते हैं।"
"काका, यह कोई पूछने वाली बात है? केवल पचास पैसे" नाववाले ने कहा।
“पचास पैसे!" भीखूभाई मानो हैरानी से हक्के-बक्के हो गए। “इतनी दूर से पैदल आया हूँ। इतना थक गया हूँ और तुम कहते हो पचास पैसे? मेरी मेहनत बेकार हो गई। ना भाई ना! पचास पैसे बहुत ज्यादा है। मैं तुम्हें पच्चीस पैसे दूंगा। यह लो, रख लो।" ऐसा कहते हुए, भीखूभाई झुककर नारियल उठाने ही वाले थे...
नाववाले ने कहा, "नीचे रख दो। मेरे साथ कोई सौदा-वौदा नहीं चलेगा।"
थोड़ी देर बाद उसने भीखूभाई की ओर ध्यान से देखा और ज़रा ठंडे दिमाग से बोला, “सस्ते में - चाहिए? नारियल के बगीचे में चले जाओ। वहाँ ढेर सारे मिल जाएँगे, मनपसंद दाम में।"
भीखूभाई ने फिर अपने आप को समझाया, “इतनी दूर आया हूँ। अब बगीचे तक जाने में हर्ज़ ही क्या है?" सच बात तो यह थी कि वे काफ़ी थक चुके थे। मगर पच्चीस पैसे बचाने के ख्याल से ही उनमें फुर्ती आ गई।
भीखूभाई ने सोचा, “दोगुना ज़्यादा चलना पड़ेगा, पर चार आने बच भी तो जाएँगे और फिर, कोई भी चीज़ मुफ़्त में कहाँ मिलती है?"
भीखूभाई नारियल के बगीचे में पहुँच गए। वहाँ के माली को देखकर उससे पूछा, “यह नारियल कितने में बेचोगे?"
माली ने जवाब दिया, "जो पसंद आए ले जाओ, काका, बस, पच्चीस पैसे का एक। देखो, कितने बड़े-बड़े हैं!"
"हे भगवान! पच्चीस पैसे! पूरा रास्ता पैदल आने के बाद भी! जूते | घिस गए, पैर थक गए और अब पैसे भी देने पड़ेंगे ? मेरी बात मानो, एक नारियल मुफ़्त में ही दे दो, हाँ। देखो, मैं कितना थक गया हूँ !"
भीखूभाई की बात सुनकर माली ने कहा, "अरे, काका। मुफ़्त में चाहिए न? यह रहा पेड़ और वह रहा नारियल। पेड़ पर चढ़ जाओ और जितने चाहो तोड़ लो। वहाँ नारियल की कोई कमी नहीं है। पैसे तो मेरी मेहनत के हैं।"
"सच? जितना चाहूँ ले लूँ?" भीखूभाई तो खुशी से फूले न समाए। “मेरा यहाँ तक आना बेकार नहीं गया!"
उन्होंने जल्दी-जल्दी पेड़ पर चढ़ना शुरू कर दिया।
पेड़ पर चढ़ते-चढ़ते भीखूभाई ने सोचा "बहुत अच्छे! मेरी तो किस्मत खुल गई। जितने नारियल चाहे तोड़ लूँ और पैसे भी न दूँ। क्या बात है!"
भीखूभाई ऊपर पहुँच गए। फिर वे टहनी और तने के बीच आराम से बैठ गए और दोनों हाथों को आगे बढ़ाने लगे सबसे बड़े नारियल को तोड़ने के लिए। ज़्ज़्ज़्क! पैर फिसल गए। भीखूभाई ने एकदम से नारियल को पकड़
लिया। उनके दोनों पैर हवा में झूलते रह गए।
‘ओ माँ! अब मैं क्या करूँ?"
भीखूभाई चिल्लाने लगे, "अरे भाई! मदद करो!" उन्होंने नीचे खड़े माली से विनती की।
माली ने कहा, “वो मेरा काम नहीं, काका, मैंने सिर्फ नारियल लेने की बात की थी। बाकी सब तुम्हारे और तुम्हारे नारियल के बीच का मामला है। पैसे नहीं, खरीदना नहीं, बेचना नहीं, और मदद नहीं। सब कुछ मुफ़्त।" तभी ऊँट पर सवार एक आदमी वहाँ से गुज़रा।
"अरे ओ!" भीखूभाई ज़ोर-ज़ोर से बुलाने लगे, “ओ ऊँटवाले! मेरे पैर वापस पेड़ पर टिका दो न! बड़ी मेहरबानी होगी।"
ऊँटवाले ने सोचा, “चलो, मदद कर देता हूँ। मेरा क्या जाता है।"
ऊँट की पीठ पर खड़े होकर उसने भीखूभाई के पैरों को पकड़ लिया। ठीक उसी समय ऊँट को हरे-हरे पत्ते नज़र आए। पत्ते खाने के लालच में ऊँट ने गर्दन झुकाई और अपनी जगह से हट गया।
बस, वह आदमी ऊँट की पीठ से फिसल गया! अपनी जान बचाने के लिए उसने भीखूभाई के पैरों को कसकर पकड़ लिया। अब दोनों क्या करते? इतने में एक घुड़सवार आया।
"अरे, सांभ्लो छो!" पेड़ से लटके दोनों पुकारने लगे। "सुनो भाई, कोई बचाओ! बचाओ! घुड़सवार को देखकर भीखूभाई ने दुहाई दी, "ओ मेरे भाई, मुझे पेड़ पर वापस पहुँचा दो।"
“हम्म। एक मिनट भी नहीं लगेगा। मैं घोड़े की पीठ पर चढ़कर इनकी मदद कर देता हूँ" यह सोचकर घुड़सवार घोड़े पर उठ खड़ा हुआ।
लेकिन कौन कहता है कि घोड़ा ऊँट से बेहतर है? हरी-हरी घास दिखाई देने पर तो दोनों एक जैसे ही हैं। घास के चक्कर में घोड़ा ज़रा आगे बढ़ा और छोड़ चला अपने मालिक को ऊँटवाले के पैरों से लटकते हुए। एक, दो और अब तीनों के तीनों झूलते रहे नारियल के पेड़ से।
"काका! काका! कसके पकड़े रहना, हाँ", घुड़सवार ने पसीना-पसीना होते हए कहा, "जब तक कोई बचाने वाला न आए, कहीं छोड़ न देना। मैं आपको सौ रुपए दूंगा।"
"काका! काका!" अब ऊँटवाले की बारी थी। "मैं आपको दो सौ रुपए दूँगा, लेकिन नारियल को छोड़ना नहीं।"
"सौ और दो सौ! बाप रे बाप, तीन सौ रुपए!" भीखूभाई का सिर चकरा गया। "इतना! इतना सारा पैसा!" खुशी से उन्होंने अपनी दोनों बाहों को फैलाया... और नारियल गया हाथ से छूट। ।
धड़ाम से तीनों ज़मीन पर गिरे-घुड़सवार, ऊँटवाला और भीखूभाई। भीखूभाई अपने आप को सँभाल ही रहे थे कि एक बहुत बड़ा नारियल उनके सिर पर आ फूटा।
बिल्कुल मुफ़्त।
ममता पण्ड्या अनुवाद-संध्या राव
सांभ्ला-सँभालो
तुम्हारी समझ
- हर बार भीखूभाई कम दाम देना चाहते थे। क्यों?
- हर जगह नारियल के दाम में फ़र्क क्यों था?
- क्या भीखूभाई को नारियल सच में मुफ़्त में ही मिला? क्यों?
- वे खेत में बूढ़े बरगद के नीचे बैठ गए। तुम्हारे विचार से कहानी में बरगद को बूढ़ा क्यों कहा गया होगा?
भीखूभाई ऐसे थे
कहानी को पढ़कर तुम भीखूभाई के बारे में काफ़ी कुछ जान गए होगे। भीखूभाई के बारे में कुछ बातें बताओ।
(क) उन्हें खाने-पीने का शौक था।
(ख) _____
(ग) _____
(घ) _____
(ङ) _____
क्या बढ़ा, क्या घटा
कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, कुछ चीजें बढ़ती हैं और कुछ घटती हैं।
बताओ इनका क्या हुआ, ये घटे या बढ़े?
नारियल का दाम _____
भीखूभाई का लालच _____
रास्ते की लंबाई _____
भीखूभाई की थकान _____
कहो कहानी
यदि इस कहानी में भीखूभाई को नारियल नहीं बल्कि आम खाने की इच्छा होती तो कहानी आगे कैसे बढ़ती? बताओ।
बात की बात
कहानी में नारियल वाले और भीखूभाई की बातचीत फिर से पढ़ो। अब इसे अपने घर की बोली में लिखो।
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शब्दों की बात
- नाना-नानी
- पतीली-पतीला
ऊपर दिए गए उदाहरणों की मदद से नीचे दी गई जगह में सही शब्द लिखो।
- काका _____
- दर्जी _____
- मालिन _____
- टोकरी _____
- मटका _____
- गद्दा _____
मंडी
"मंडी में कोलाहल फैला हुआ था। व्यापारियों की ऊँची-ऊँची आवाजें गूँज रही थीं।"
- मंडी में क्या-क्या बिक रहा होगा?
- मंडी में तरह-तरह की आवाजें सुनाई देती हैं।
जैसे- ताज़ा टमाटर! बीस रुपया! बीस रुपया! बीस रुपया!
मंडी में और कैसी आवाजें सुनाई देती हैं? _____
- तुम अपने आसपास की ऐसी जगह सोच सकते हो, जहाँ बहुत शोर होता है। उस जगह के बारे में लिखो। _____
गुजरात की झलक
(क) 'मुफ़्त ही मुफ़्त ' गुजरात की लोककथा है। इस लोककथा के चित्रों में ऐसी कौन-सी बातें हैं जिनसे तुम यह अंदाज़ा लगा सकते हो? _____
(ख) गुजरात में किसी का आदर करने के लिए नाम के साथ भाई, बेन (बहन) जैसे शब्दों का प्रयोग होता है। तेलुगु में नाम के आगे 'गारू' और हिंदी में 'जी' जोड़ा जाता है।
तुम्हारी कक्षा में भी अलग-अलग भाषा बोलने वाले बच्चे होंगे! पता करो और लिखो कि वे अपनी भाषा में किसी को आदर देने के लिए किन-किन शब्दों का इस्तेमाल करते हैं।
बजाओ खुद का बनाया बाजा
पिछली कक्षाओं में तुमने पत्तों से पटाखा बनाया, ग्रीटिंग कार्ड बनाया, कागज़ से मुखौटे बनाकर नाटक खेला। आओ, इस बार हम बाजे बनाएँ और तरह-तरह की आवाज़ों का मज़ा लें।
जलतरंग—पानी से भरे हुए प्यालों पर लकड़ी की पतली डंडी से चोट करने पर अलग-अलग तरह की आवाजें निकलती हैं जो सुनने में काफ़ी मधुर लगती हैं।
जलतरंग का मज़ा लेने के लिए चार या छह चीनी मिट्टी के अलग-अलग आकार के प्याले लो। अब उनमें पानी भरकर उन्हें एक क्रम में रखो। इन जल से भरे प्यालों पर लकड़ी की डंडी से चोट करो। सुनाई दी न मधुर-मधुर आवाजें। अब अंदाज़ा लगाओ कि इस बाजे का नाम जलतरंग क्यों पड़ा?
नगाड़ा— नगाड़ा तो खूब बड़ा होता है। पर हम एक छोटा-सा नगाड़ा बनाएँगे। इसके लिए नारियल का खोल, एक बड़ा गुब्बारा और धागा ले लो। अब नारियल के मुँह पर गुब्बारे खींचकर धागे से बाँध दो। लो बन गया नगाड़ा।
अब एक पतली लकड़ी के सिरे पर कपड़ा लपेटकर छोटी-सी धुंडी बनाओ। इस लकड़ी से बँधे हुए गुब्बारे पर चोट करो। क्या हुआ?
नारियल की जगह टीन का डिब्बा, मिट्टी का कुल्हड़ भी ले सकते हो। इसी तरह गुब्बारे की जगह पन्नी का इस्तेमाल कर सकते हो। चीजों के बदलाव से आवाज़ भी अलग-अलग तरह की निकलेगी।
धागे का बाजा— धागे से बाजा बनाने के लिए तुम पहले पतले धागे का एक टुकड़ा लो। इसके एक सिरे को अपने एक हाथ की उँगली में लपेटकर उसे अपने एक कान से सटाओ। फिर धागे के दूसरे सिरे को दूसरे हाथ की उँगली में लपेटकर हाथ की दूसरी उँगली से धागे को बजाओ। तुम्हारे ऐसा करने से अलग-अलग प्रकार की आवाजें बाहर आएँगी। अब तुम धागे की लंबाई कम या ज्यादा करके आवाज़ों में बदलाव ला सकते हो।
आओ चलते-चलते आवाज़ों में बदलाव का एक और प्रयोग करें। कंघी को पतले कागजों में लपेटकर मुँह के पास लाओ। अब उसमें कुछ बोलो या गुनगुनाओ। देखो आवाज़ों में बदलाव स्पष्ट सुनाई पड़ेगा।
आँधी
रात हुई तारीकी छाई, मीठी नींद सभी को आई।
मुन्नू सोया अप्पा सोई, अब्बा सोए अम्मी सोई।
आधी रात हुई जब सोते, खर खर खर खर्राटे भरते।
चुपके-चुपके आँधी आई, गर्द गुबार उड़ाती लाई।
चली हवाएँ सुर्र सुर्र सुर्र सुर्र, कागज़ उड़ गए फुर्र फुर्र फुर्र फुरी।
खड़ खड़ खड़ खड़ पत्ते खड़के, डरने वालों के दिल धड़के।
बजने लगे किवाड़े खट खट, घर वाले सब जागे झटपट।
खटपट सुनकर मुन्नू जागा, उठकर झटपट अंदर भागा।
आँधी ने फिर ज़ोर दिखाया, फूस का छप्पर दूर गिराया।
टीन उड़ाई पेड़ गिराए, खपरे भी छत के सरकाए।
शाखें टूटीं तड़ तड़ तड़ तड़, बादल गरजे गड़ गड़ गड़ गड़।
बिजली चमकी चम चम चम चम, बूंदें टपकी कम कम थम थम
लेकिन वह बूंदें थीं कैसी, पट पट पट पट ओले जैसी।
इस्माइल मेरठी
तारीकी-अँधेरा