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13 बसेरा ऊँचाई पर
कहानी एक यात्री की-
मैं हूँ और यह है 'लोनर', मेरी सबसे बढ़िया साथी, मेरी मोटरसाइकिल। अंग्रेज़ी में 'लोनर' का अर्थ होता है-अकेला रहने वाला। वैसे तो मेरी मोटरसाइकिल अकेली नहीं है, उसके साथ मैं हूँ हरदम। हम दोनों ही मुंबई की भीड़भाड़, शोरगुल वाली गलियों और ऊँची-ऊँची इमारतों से निकलने का मौका ढूँढ़ते रहते हैं। हम दोनों को ही अपने सुंदर देश के अलग-अलग इलाकों में घूमने का बहुत शौक है। आज मैं तुम्हें सुनाता हूँ, एक अद्भुत कहानी-दुनिया के सबसे ऊँचे रास्तों पर मोटरसाइकिल यात्रा की।
कैसे की तैयारी-
मेरी यात्रा थी लगभग दो महीने की। इतने दिनों के लिए सामान ले जाना था, वह भी मोटरसाइकिल पर लादकर। मैंने बहुत सोच समझकर ज़रूरत का सामान इकट्ठा किया। रहने के लिए टेंट, बिछाने के लिए प्लास्टिक की शीट और स्लीपिंग बैग। गर्म कपड़े, काफ़ी दिन तक खराब न होने वाला खाना, कैमरा, पेट्रोल रखने के लिए डिब्बे, इत्यादि भी। मैं मुंबई से निकला। महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के छोटे-बड़े शहरों से होता हुआ दिल्ली पहुंचा। मुंबई से दिल्ली तक का 1400 किलोमीटर का रास्ता मैंने तीन दिन में तय किया। मुझे पूरी उम्मीद थी कि दिल्ली में मुझे कुछ नया देखने को मिलेगा। पर दिल्ली भी मुंबई जैसी ही लगी। इतने सालों में मैं थक चुका था, एक ही तरह के शहर देखते-देखते।
वही एक जैसे घर-सीमेंट, ईंट, काँच और स्टील के बने हुए। अब आनेवाले दिनों के बारे में सोचकर मैं बहुत उत्सुक था। मेरी कल्पना थी कि मुझे देखने को मिलेंगे- लकड़ी के घर, ढलवाँ छत वाले और बर्फ से ढंके घर, बिलकुल वैसे, जैसे मैंने किताबों में देखे थे। दिल्ली में फिर सामान भरवाकर मैं आगे बढ़ा। दो दिन बाद मनाली पहुँचकर पहाड़ों की ताज़ी हवा के बीच चैन की साँस ली। असली यात्रा तो अब शुरू होनी थी। जम्मू-कश्मीर राज्य के कई मुश्किल रास्तों से होते हुए हमें लद्दाख में लेह तक जाना था।
पता करो-
मेरा नया घर
मैं और मेरी लोनर आगे बढ़े जा रहे थे। मुझे सिर्फ़ भरपेट खाना चाहिए था और रात की ठंड से बचने के लिए टेंट। मेरे छोटे से नाइलॉन के टेंट में इतनी ही जगह थी कि मैं सो सकूँ। रात के समय मेरी मोटरसाइकिल टेंट के बाहर पहरा देती। सुबह की ठंडी हवा और चिड़ियों की चहक से ही रोज़ आँख खुलती।
बताओ-
ठंडा रेगिस्तान -
आखिरकार मैं और 'लोनर' लेह पहुँच ही गए। अजब अनूठा था यह इलाका - सूखा, समतल और ठंडा रेगिस्तान। लद्दाख में बहुत ही कम बारिश होती है। यहाँ दूर-दूर तक दिखते थे बर्फ से ढंके पहाड़ और सूखा ठंडा मैदान। लेह शहर की एक शांत गली में सफ़ेद पत्थर के सुंदर मजबूत घरों को देखा। थोड़ा आगे बढ़ा तो कुछ बच्चे जूले, जूले यानी 'स्वागत, स्वागत' चिल्लाते हुए मेरा पीछा करने लगे। वे 'लोनर' को देखकर बहुत हैरान थे। सभी मुझे अपने-अपने घर ले जाना चाहते थे।
ताशी के घर पर-
ताशी का ज़ोर चला और वह मुझे खींचकर अपने घर ले गया। उसका घर दो-मंज़िला था। पत्थरों को काटकर, एक के ऊपर एक रखकर बना था। उन पर मिट्टी और चूने से पुताई की हुई थी। अंदर से घर छप्पर जैसा लग रहा था। हर तरफ़ घास-फूस पड़ी हुई थी। ताशी मुझे लकड़ी की सीढ़ियों से पहली मंजिल पर ले गया। उसने बताया कि वह और उसका परिवार ऊपर की मंजिल पर रहते थे। नीचे की मंज़िल पर जानवरों के रहने
शिक्षक संकेत- बच्चों से चर्चा करें कि सभी रेगिस्तान रेतीले और गर्म नहीं होते। लद्दाख के पहाड़ों पर इतना सूखा माहौल है कि वहाँ पेड़-पौधे नहीं उग पाते।
की जगह थी और ज़रूरत का सामान इकट्ठा करके रखते थे। सर्दी के दिनों में अकसर इनका परिवार भी नीचे की मंज़िल पर जानवरों के पास ही रहता। नीचे की मंज़िल में कोई खिड़की भी नहीं थी। छत को मज़बूत बनाने के लिए पेड़ों के मोटे तने इस्तेमाल किए हुए थे। फिर ताशी मुझे घर की छत पर ले गया। आस-पास का नज़ारा तो देखते ही बनता था। सभी घरों की छतें समतल थीं। कहीं लाल मिर्च सूखने के लिए फैली थीं तो कहीं सीताफल और मक्का। किसी छत पर धान के ढेर लगे थे तो किसी पर उपले सूख रहे थे। ताशी ने बताया कि छत उनके घर का सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। यहाँ गर्मियों की तेज़ धूप में ही बहुत सारी फल-सब्जी सुखा ली जाती है। ये ठंडे दिनों में इस्तेमाल होती हैं, जब फल-सब्ज़ी नहीं मिल पाती। सोचो, यह किन महीनों में होता होगा और क्यों? वहाँ खड़ा मैं सोच रहा था कि किस तरह उनके घर का हर हिस्सा एक खास सोच से बनाया गया था। बिलकुल वहाँ के मौसम और लोगों की ज़रूरत के अनुकूल। मुझे यह समझने में देर नहीं लगी कि मोटी-मोटी दीवारें, लकड़ी के फ़र्श और लकड़ी की छत ही ठंड से बचाते होंगे।
लिखो-
दुनिया की चोटी पर लोगों का बसेरा-
अब समय था आगे बढ़ने का। टेढ़े-मेढ़े, सँकरे, पहाड़ी रास्तों से होते हुए मैं बहुत ऊँचाई पर जाता जा रहा था। कहीं सड़क तो कहीं बड़े-बड़े पत्थर। 'लोनर' का चलना मुश्किलों से भरा था। अब मैं चांगथांग इलाके की ओर बढ़ रहा था। लगभग 5000 मीटर की ऊँचाई पर बना यह मैदानी इलाका बिलकुल सुनसान और पथरीला था। इतनी ऊँचाई पर साँस लेने में भी मुश्किल हो रही थी। मेरे सिर में दर्द होने लगा
और बहुत कमज़ोरी महसूस होने लगी। फिर धीरे-धीरे ऐसी हवा में साँस लेने की आदत-सी पड़ गई। मैं कई दिन तक यहाँ मोटरसाइकिल पर घूमता रहा, लेकिन दूर-दूर तक कोई भी दिखाई नहीं पड़ता था। न ही कोई पेट्रोल पंप, न मैकेनिक। सिर्फ दूर-दूर तक फैला नीला आसमान और पहाड़ों के बीच बहुत-से तालाब। कई रातें और कई दिन बीत गए। मैं अकेला ही बढ़ता रहा। फिर एक दिन अचानक मेरे सामने था बड़ा-सा हरा मैदान और उसमें चरती भेड़-बकरियाँ। थोड़ी ही दूरी पर मुझे कुछ टेंट दिखाई दिए। मैं हैरान था कि इस सुनसान इलाके में ये कौन लोग थे और क्या कर रहे थे!
पता करो-
चांगपा
वहाँ मैं मिला नामग्याल से। उन्हीं से मुझे चांगपा के बारे में पता चला। इतने बड़े इलाके में सिर्फ 5000 लोग! चांगपा घुमंतू लोग हैं जो हमेशा एक ही जगह पर नहीं रहते। अपनी भेड़-बकरियों के झुंड को लेकर पहाड़ों में हरे मैदानों की खोज में घूमते रहते हैं। इन्हीं जानवरों से इन्हें अपनी ज़रूरत का सामान मिल जाता है- दूध, माँस, टेंट के लिए चमड़ा, स्वेटर और कोट के लिए ऊन, आदि। भेड़-बकरियाँ ही इनकी सबसे बड़ी पूँजी है। जितनी भेड़-बकरियाँ, उतना ही ऊँचा परिवार का स्तर। चांगपा खास तरह की बकरियाँ पालते हैं। जिनके बालों से दुनिया की मशहूर पशमीना ऊन बनती है। जितनी ठंडी और ऊँची जगह होगी, इन बकरियों के बाल भी उतने ही ज़्यादा और नरम होंगे। इसीलिए चांगपा इतने मुश्किल हालात में भी इतनी ऊँचाई पर रहना पसंद करते हैं। यही है इनकी जिंदगी। मैं मोटरसाइकिल पर तो अपना थोड़ा ही सामान लाया था। लेकिन ये लोग अपना पूरा घर और सामान घोड़ों और याक पर लादकर घूमते हैं। जब आगे बढ़ना हो तो ये सिर्फ ढाई घंटे में अपना डेरा समेटकर निकल पड़ते हैं। जहाँ ठहरना हो वहाँ कुछ ही देर में ये अपने टेंट गाड़ लेते हैं और तैयार हो जाता है इनका घर। "आपका स्वागत है", कहते हुए नामग्याल मुझे बहुत बड़े तिकोने टेंट में ले गया। ये अपने टेंटों को 'रेबो' कहते हैं। याक के बालों से बुनाई करके चांगपा पट्टियाँ बनाते हैं, जिन्हें सिलकर जोड़ लेते हैं। ये बहुत मज़बूत होती हैं और गर्म भी। मैंने देखा कि ये
शिक्षक संकेत– चांगपा की भाषा में 'चांगथांग' का मतलब है-ऐसी जगह जहाँ बहुत कम लोग रहते हैं। बच्चों की विभिन्न भाषाओं में भी ऐसे शब्द हैं क्या-इस पर चर्चा हो सकती है। ऊँचाई पर जाने से हवा में ऑक्सीजन की मात्रा कम होती जाती है। ऑक्सीजन क्या है इस समझ की अपेक्षा नहीं की जा रही है। बच्चों को बस कुछ अंदाज़ा हो कि ऊँचाई पर साँस लेना मुश्किल होता है, पहाड़ों पर चढ़ने वाले कई बार ऑक्सीजन सिलिंडर भी ले जाते हैं। बच्चे फिर उन इलाकों में रहने वाले लोगों के प्रति संवेदनशील होंगे। उनकी यह समझ भी बनेगी कि रोज़ी-रोटी के लिए लोगों को किस-किस तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
दुनिया में मशहूर पशमीना!-
माना जाता है कि एक पशमीना शॉल में छः स्वेटरों के बराबर गर्मी होती है। इतनी गर्म पर मोटी बिलकुल नहीं। यह पशमीना बनता है पहाड़ी बकरियों की एक खास नस्ल से, जो लगभग 5000 मीटर की ऊँचाई पर रह सकती है। यहाँ सर्दियों में तापमान 0° सेंटीग्रेड से भी बहुत कम (-40 डिग्री सेंटीग्रेड तक) चला जाता है। इतनी सर्दी से बचने के लिए बकरियों के शरीर पर बहुत ही बारीक और नरम बाल उग आते हैं, जो गर्मियों में झड़ जाते हैं। ये बाल बहुत ही पतले होते हैं। इतने पतले कि बकरी के छ: बाल मिलाकर तुम्हारे सिर के एक बाल की मोटाई के बराबर होंगे! इसीलिए पशमीना शॉलों को मशीनों द्वारा नहीं बुना जा सकता। इनकी बुनाई हाथों से करने के लिए खास बुनकर होते हैं। अगर एक बुनकर 250 घंटे बुनाई करे, तब जाकर एक साधारण पशमीना शॉल तैयार होती है। इतनी मेहनत! सोचो, अगर डिज़ाइन वाली शॉल बुननी हो तो कितने दिन लगेंगे!
पट्टियाँ नौ डंडियों के सहारे ज़मीन से बँधी थीं। टेंट लगाने से पहले ज़मीन में दो फुट गहरा गड्ढा खोदते हैं। फिर गड्ढे के आस-पास की ऊँची ज़मीन पर टेंट लगाते हैं। टेंट में घुसने पर मैंने पाया कि वह खूब ऊँचा था और मैं आराम से सीधा खड़ा हो सकता था। अपने टेंट में मैं ऐसा नहीं कर पाता। 'रेबो' अंदर से मेरे मुंबई वाले फ्लैट के एक कमरे जितना बड़ा था! दो लकड़ी के बड़े डंडों के सहारे खडा था। 'रेबो' के बीचोंबीच एक खुला छेद था, जहाँ से चूल्हे का धुंआ बाहर जा सके। नामग्याल ने बताया कि इनके टेंट का डिज़ाइन एक हजार साल से भी पुराना था। इससे टेंट में रहने वाले चांगपा ठंड से बचे रहते हैं। ठंड भी कैसी? सर्दियों में यहाँ का तापमान शून्य से कई डिग्री नीचे चला जाता है और हवा भी बहुत तेज़ चलती है।
रेबो
शिक्षक संकेत- बच्चों से इस बारे में चर्चा करना अच्छा होगा कि अलग-अलग जगहों पर कैसे अलग-अलग तरह के घर होते हैं। एक ही जगह पर भी तरह-तरह के घर होते हैं। इसके कारणों-मौसम, ज़रूरत, पैसा और वहाँ मिलने वाले सामान (मिट्टी, पत्थर, लकड़ी) आदि पर भी बातचीत की जाए।
एक घंटे में 70 किलोमीटर की गति! (सोचो, अगर तम अपने गाँव से बस में बैठे और वह इसी गति से चले तो तुम एक घंटे में कहाँ पहुँच जाओगे?) 'रेबो' के पास ही भेड़-बकरियों को रखने के लिए जगह बनी थी। इसे चांगपा 'लेखा' कहते हैं। 'लेखा' की दीवारें पत्थरों और चट्टानों को एक-दूसरे पर रखकर बनाते हैं। हर परिवार अपने जानवरों के झुंड पर पहचान के लिए खास निशान बनाता है। रोज़ सुबह झुंड को 'लेखा' से बाहर निकालकर, गिनकर चराने ले जाते हैं। और ये काम औरतों और जवान लड़कियों का रोज़ का काम है।
पता करो-
श्रीनगर की ओर
मैंने कुछ दिन इन लोगों के साथ बिताए। न चाहते हुए भी आगे तो बढ़ना ही था। लेह से वापसी की यात्रा मुझे इस अनोखे इलाके से दूर एक दूसरी ही दुनिया में ले जाने वाली थी। लेह से वापिस आते समय मैंने श्रीनगर की ओर का रास्ता पकड़ा। कारगिल से होता हुआ फिर श्रीनगर पहुँचा। रास्ते में मैंने कई तरह के घर और अद्भुत इमारतें देखीं। फिर कछ दिन मैं श्रीनगर में रहा। वहाँ के अलग घरों को देखकर मैं हैरान था। उन घरों ने मेरा दिल ही जीत लिया। कोई पहाड़ पर, तो कोई पानी पर, तरह-तरह के घरों
शिक्षक संकेत- तापमान को °C में लिखते हैं बस इतना जानकर बच्चे खबरों में ढूँढकर पहचानें कि सर्दी-गर्मी से इसका कैसा संबंध है। इसी तरह से कुछ नए शहरों के नाम देखने की उत्सुकता बनेगी जहाँ का तापमान शून्य से कम तक चला जाता है।
में लोग रहते हैं। उन घरों के मैंने कई फ़ोटो खींचे। ये फ़ोटो तुम भी देखो। अपने सफ़र की शुरुआत पर निकलने से पहले मैंने कभी सोचा भी न था कि एक ही राज्य में मुझे इतनी तरह के घर और लोगों के रहन-सहन के तरीके देखने को मिलेंगे। लेह में एक अनुभव था दुनिया की चोटी पर रहने का और श्रीनगर में अनुभव था पानी पर रहने का। इन इलाकों में घर भी ऐसे खास थे जो वहाँ के मौसम के अनुकूल थे।
यात्री 'डल झील' में शिकारे में घूमने का मज़ा उठाते हैं।
वापसी का समय-
फिर आगे बढ़ने का समय आ गया। इस बार जम्मू शहर से होते हुए जाना था। अब फिर वैसे ही घर दिखे, जिन्हें देखकर मैं बड़ा हुआ हूँ। वही सीमेंट, ईंट, काँच और स्टील। इस बारे में कोई दो राय नहीं कि ये मज़बूत और टिकाऊ हैं, पर इनमें उन घरों जैसी खासियत नहीं थी जो मैंने खुशकिस्मती से लेह और श्रीनगर में देखे। फिर-से उतना ही लंबा वापसी का सफ़र करके मैं और 'लोनर' मुंबई पहुँचने ही वाले थे। मुंबई शहर की भीड़भाड़ वाली सड़कों पर 'लोनर' वापिस नहीं आना चाह रही थी। मेरा मन भी भारी हो रहा था। पर अंदर से दिल में एक खुशी थी। इतना कुछ अनोखा और नया मैं अपनी यादों और अपने कैमरे में कैद कर लाया था। और यह अंत थोड़े ही है! मैं और मेरी मोटरसाइकिल फिर जब इस शहर से ऊब जाएँगे तो निकल पड़ेंगे, एक नए सफ़र पर!
देखो और बताओ-
• देखो, जम्मू-कश्मीर में अलग-अलग तरह और मौसम के अनुरूप बनाए जाते हैं।
क्या पहचान सकते हो यह चित्र किसका है? कश्मीर के हर गली कूचे कूचे में दिखती है एक बेकरी। कश्मीरी लोग अपने खाने के लिए रोटी घर में नहीं बनाते, इस दुकान या बेकरी से ही खरीदते हैं।
श्रीनगर के घर-एक नज़र
श्रीनगर में बाहर से आए कई टूरिस्ट ‘हाउसबोट' में रहते हैं। हाउसबोट 80 फुट तक लंबे होते हैं और बीच से इनकी चौड़ाई आठ-नौ फुट तक होती है। | बोट की तरह बने लकड़ी के डोंगे पानी पर तैरते रहते हैं। श्रीनगर की डल लेक और झेलम नदी में इन डोंगों में कई परिवार रहते हैं। मकान की तरह इस डोंगे में भी अलग-अलग कमरे होते हैं। |
'हाउसबोट' और कई बड़े घरों की अंदर की छत पर, लकड़ी की सुंदर नक्काशी होती है। इनमें एक खास डिज़ाइन 'खतमबंद' है, जो 'जिग्सॉ पज़ल' जैसा दिखता है। | पत्थरों को काटकर एक के ऊपर एक रखकर बनाए गए घर कश्मीर के गाँवों में दिखते हैं। पत्थरों के ऊपर मिट्टी की पुताई की जाती है और लकड़ी का भी इस्तेमाल किया जाता है। इन घरों की छत ढलवाँ होती है। |
यहाँ के पुराने घरों की खासियत है-ये जालीदार खिड़कियाँ। ये बाहर की ओर उभरी होती हैं। इन्हें 'डब' कहते हैं। इनमें बैठकर बाहर का नज़ारा बढ़िया दिखता है। | यहाँ के पुराने घरों की खासियत है- पत्थर, ईंट और लकड़ी को मिलाकर बनाना। घरों के दरवाजों, खिड़कियों पर डिज़ाइनदार मेहराब बने होते हैं। |
तुम्हारे घर में क्या कोई खास बात है? जैसे- ज़्यादा बारिश होती है तो ढलवाँ छत या बड़ा बरामदा, जहाँ गर्मियों में सोते हो और धूप में कुछ सुखाते हो।
सोचो और लिखो-
हम क्या समझे
तुमने जम्मू-कश्मीर के तरह-तरह के बसेरों के बारे में पढ़ा-कुछ ऊँचे पहाड़ पर, कुछ पानी में, कुछ जिनमें लकड़ी और पत्थर पर सुंदर डिज़ाइन हैं, कुछ जिन्हें बाँधकर किसी और जगह भी ले जाया जा सकता है। बताओ, यह बसेरे वहाँ के लोगों की ज़रूरत के हिसाब से कैसे बने हैं? यह घर तुम्हारे घर से कैसे अलग हैं?