QR Code Chapter 3

7 डाकिए की कहानी, कँवरसिंह की ज़ुबानी 

शिमला की माल रोड पर जनरल पोस्ट ऑफिस है। उसी पोस्ट ऑफिस के एक कमरे में डाक छाँटने का काम चल रहा है। सुबह के 11:30 बजे हैं, खिड़की से गुनगुनी धूप छनकर आ रही है। इस धूप का मजा लेते हुए दो पैकर और तीन महिला डाकिया फटाफट डाक छाँटने का काम कर रहे हैं। वहीं पर मैंने सरकार से पुरस्कार पाने वाले डाकिया कँवरसिह जी से बात की। यही बातचीत आगे दी जा रही है।

• आपका शुभ नाम?

मेरा नाम कँवरसिंह है। मैं हिमाचल प्रदेश के शिमला जिले के नेरवा गाँव का निवासी हूँ। मेरी उम्र पैंतालीस साल है।

•  आपके परिवार में कौन-कौन हैं? उनके बारे में कुछ बताइए। 

मेरे चार बच्चे हैं। तीन लड़कियाँ और एक लड़का। दो लड़कियों की शादी हो चुकी है। मेरा एक और बेटा भी था। वह मेरे गाँव में एक पहाड़ी से लकड़ियाँ लाते हुए गिर गया जिससे उसकी मौत हो गई।

• आपके बेटे के साथ जो हुआ, उसका हमें बहुत दुख है। आपके इलाके में इस तरह की घटनाएँ क्या अक्सर होती हैं?

जी, ऐसी घटनाओं का होना असाधारण नहीं है। यहाँ हर साल तिरछी ढलानों या ढांकों से घास काटते हुए कई औरतें गिरकर मर जाती हैं। फिर भी यहाँ ऐसे ही रास्तों से चलना पड़ता है क्योंकि दूसरे कोई रास्ते होते ही नहीं। हमारे गाँव में अभी तक बस नहीं पहुँच पाती है। हिमाचल में हज़ारों ऐसे गाँव हैं जहाँ पैदल चलकर ही पहुँच सकते हैं।

• फिर आपके बच्चे पढ़ने कैसे जाते होंगे?

मेरे बच्चे गाँव के स्कूल में पढ़ने जाते हैं। स्कूल लगभग पाँच किलोमीटर दूर है। मेरी एक लड़की दसवीं तक पढ़ी है, दूसरी बारहवीं तक। तीसरी लड़की बारहवीं कक्षा में पढ़ रही है। बेटा दसवीं में पढ़ता है।

• आप जहाँ काम करते हैं वहाँ आपके अलावा और कौन-कौन हैं? क्या आपको डाकिया ही कहकर बुलाते हैं?

पहले मैं भारतीय डाक सेवा में ग्रामीण डाक सेवक था। अब मैं पैकर बन गया हूँ। पर हूँ वही नीली वर्दी वाला डाक सेवक।

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• डाक सेवक को करना क्या-क्या होता है?

मुझे ! मुझे बहुत कुछ करना होता है। चिट्ठियां , रजिस्टरी पत्र, पार्सल, बिल, बूढ़े लोगों की पेंशन आदि छोड़ने गाँव-गाँव जाता हूँ ।

• क्या यह सब अभी भी करना पड़ता है? क्योंकि अब तो सूचना और संदेश देने के बहुत-से नए तरीके आ गए हैं।

शहरों में भले ही आज संदेश देने के कई साधन आ गए हैं, जैसे फ़ोन, मोबाइल, ई-मेल वगैरह, लेकिन गाँव में तो आज भी संदेश पहुँचाने का सबसे बड़ा ज़रिया डाक ही है। इसलिए गाँव में लोग डाकिए का बड़ा आदर और सम्मान करते हैं। अपनी चिट्टी आदि पाने के लिए डाकिए का इंतजार करते हैं।

• हमने सुना है कि हमारी डाक सेवा दुनिया की सबसे बड़ी डाक सेवा है, यह भला कैसे?

सुना तो आपने बिल्कुल ठीक है। हमारे देश की डाक सेवा आज भी दुनिया की सबसे बड़ी डाक सेवा है और सबसे सस्ती भी। केवल पाँच रुपए में देश के किसी भी कोने में हम चिट्टी भेज सकते हैं। पोस्टकार्ड तो केवल पचास पैसे का ही है। यानी पचास पैसे में भी हम देश के हर कोने में अपना संदेश भेज सकते हैं।

• आपको अपनी नौकरी में मज़ा तो बहुत आता होगा। 

मुझे अपनी नौकरी बहुत अच्छी लगती है। जब मैं दूर नौकरी करने वाले सिपाही का मनीऑर्डर लेकर उसके घर पहुँचाता हूँ तो उसके बूढ़े माँ-बाप का खुशी भरा चेहरा देखते ही बनता है। ऐसे ही जब किसी का रजिस्टरी पत्र पहुँचाता हूँ जिसमें कभी रिज़ल्ट, कभी नियुक्ति पत्र होता है तो लोग बहुत खुश होते हैं। बूढ़े दादा और बूढ़ी नानी तो पेंशन के पैसे मिलने पर बहुत ही खुश होते हैं। छह महीनों तक वे मेरा इसके लिए इंतज़ार करते हैं। हिमाचल में बूढ़े लोगों को पेंशन हर छह महीनों के बाद इकट्ठी ही दी जाती है।

• आप क्या शुरू से इसी डाकघर में काम कर रहे हैं?

शुरू में तो मैंने लाहौल स्पीति जिले के किब्बर गाँव में तीन साल तक नौकरी की है। यह हिमाचल का सबसे ऊँचा गाँव है। इसके बाद पाँच साल तक इसी जिले के काज़ा में और पाँच साल तक किन्नौर जिले में नौकरी की है। उस वक्त इन गाँव में टेलीफोन नहीं थे। बसें भी सिर्फ मुख्यालयों तक ही जाती थी। अभी भी कई ऐसे गाँव हैं जहाँ न तो बस जाती है और न ही वहाँ टेलीफोन है। ऐसी जगह में ग्रामीण डाकसेवक का बहुत मान किया जाता है।

• आप पहाड़ी इलाके में रहते हैं। ज़ाहिर है डाक पहुँचाना आसान काम तो नहीं होगा।

हाँ, मुश्किलें तो आती ही है। जब मैं किन्नौर जिले के मुख्यालय रिकांगपिओ में नौकरी करता था तो सुबह छह बजे मेरी ड्यूटी शुरू हो जाती थी। मैं छह बजे सुबह शिमला जाने वाली बस में डाक का बोरा रखता था और रात को आठ बजे शिमला से आने वाली बस से डाक का बोरा उतारता था। पैकर को ये सब काम करने पड़ते हैं। किन्नौर और लाहौल स्पीति हिमाचल प्रदेश के बहुत ठंडे तथा ऊँचे जिले हैं। इन जिलों में अप्रैल महीने में भी बर्फ़बारी हो जाती है। बर्फ में चलते हुए पैरों को ठंड से बचाना पड़ता है। वरना स्नोबाइट हो जाते हैं जिससे पैर नीले पड़ जाते हैं और उनमें गैंगरीन हो जाती है जिससे उँगलियाँ झड़ सकती हैं। इन जिलों में मुझे एक घर से दूसरे घर तक डाक पहुँचाने के लिए लगभग 26 किलोमीटर रोज़ाना चलना पड़ता था। हिमाचल में एक गाँव से दूसरे गाँव की दूरी लगभग चार या पाँच किलोमीटर तक होती है। हिमाचल के गाँव छोटे-छोटे होते हैं। एक गाँव में बस आठ से दस या कभी-कभी छह-सात घर ही होते हैं। इसीलिए चलना काफ़ी पड़ता है। चलना तो खैर हमारी आदत में ही शामिल हो चुका है ग्रामीण डाकिए की जिदगी में तो चलना ही चलना है।

• आपने बताया था कि पहले आप डाक सेवक थे, अब पैकर हैं, इसके आगे भी कोई प्रमोशन है क्या?

पैकर के बाद डाकिया बन सकते हैं बस एक इम्तिहान पास करना पड़ता है। अभी तो काम के हिसाब से हमारा वेतन काफ़ी कम रहता है। सारा दिन कुर्सी पर बैठकर काम करने वाले बाबू का वेतन कहीं ज़्यादा होता है। पैकर का वेतन बाबू के जितना ही हो जाता है। अब तो डाकिए की नौकरी में लगना भी बहुत 60 मुश्किल हो चुका है। हममें से जितने डाकिए रिटायर हो चुके हैं उनकी जगह नए डाकियों को नहीं रखा जा रहा है। इससे पुराने डाकियों पर काम का बोझ दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। न जाने, आने वाला समय कैसा होगा?

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• काम के दौरान कभी कोई बहुत खास बात हुई हो?

एक घटना आपको सुनाता हूँ। मेरा तबादला शिमला के जनरल पोस्ट ऑफिस में हो गया था। वहाँ मुझे रात के समय रैस्ट हाउस और पोस्ट ऑफिस चौकीदारी का काम दिया गया था। यह 1998 की बात है। 29 जनवरी को रात लगभग साढ़े दस बजे का समय था। बाहर से किसी ने पोस्ट ऑफिस का दरवाज़ा खटखटाया। मैंने पूछा ‘कौन है?’ जबाव आया ‘दरवाज़ा खोलो तुम से बात करनी है’। मैंने दरवाज़ा खोला तो अचानक पाँच-छह लोग अंदर घुसे और मुझे पीटना शुरू कर दिया। मैंने पूछा क्यों पीट रहे हैं तो उन्होंने कोई जबाव नहीं दिया। सारे ऑफिस की लाइटें बंद कर दीं। इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता मेरे सिर पर किसी भारी चीज से कई बार मारा जिससे मेरा सिर फट गया। मैं लगातार चिल्लाता रहा। उसके बाद मैं बेहोश हो गया और मुझे कुछ भी पता न चला। अगले दिन जब मुझे होश आया तो मैं शिमला के इंदिरा गांधी मेडिकल कॉलेज के अस्पताल में दाखिल था। सिर में भयंकर दर्द हो रहा था। उन दिनों मेरा 17 साल का बेटा मेरे साथ ही रहता था। उसी से पता चला कि मेरे चिल्लाने की आवाज़ सुनकर लड़का और ऑफिस के दूसरे लोग जो नजदीक ही रहते थे, दरवाज़ों के शीशे तोड़कर अंदर आए और मुझे अस्पताल पहुँचाया। मेरे सिर पर कई टाँके लगे थे। उसकी वजह से आज भी मेरी एक आँख से दिखाई नहीं देता।

सरकार ने मुझे जान पर खेलकर डाक की चीजें बचाने के लिए ‘बैस्ट पोस्टमैन’ का इनाम दिया। यह इनाम 2004 में मिला। इस इनाम में 500 रुपये और प्रशस्ति पत्र दिया जाता है। मैं और मेरा परिवार बहुत खुश हुए। आज भी मैं गर्व से कहता हूँ - "मैं  बेस्ट पोस्ट मैन हूँ।"

प्रतिमा शर्मा