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18 - चुनौती हिमालय की
जोजीला पास से आगे चलकर जवाहरलाल मातायन पहुँचे तो वहाँ के नवयुवक कुली ने बताया, "शाब, सामने उस बर्फ से ढके पहाड़ के पीछे अमरनाथ की गुफा है।"
"लेकिन, शाब, रास्ता बहुत टेढ़ा है।" किशन ने कुली की बात काटी। “बहुत चढ़ाई है। और शाब, दूर भी है।"
"कितनी दूर?" जवाहरलाल ने पूछा।
“आठ मील, शाब,” कुली ने जल्दी से उत्तर दिया।
"बस! तब तो ज़रूर चलेंगे।" जवाहरलाल ने अपने चचेरे भाई की ओर प्रश्नसूचक दृष्टि डाली। दोनों कश्मीर घूमने निकले थे और जोज़ीला पास से होकर लद्दाखी इलाके की ओर चले आए थे। अब अमरनाथ जाने में क्या आपत्ति हो सकती थी? फिर जवाहरलाल रास्ते की मुश्किलों के बारे में सुनकर सफ़र के लिए और भी उत्सुक हो गए।
"कौन-कौन चलेगा हमारे साथ?" जवाहरलाल ने जानना चाहा।
तुरंत किशन बोला, "शाब मैं चलूँगा। भेड़ें चराने मेरी बेटी चली जाएगी।"
अगले दिन सुबह तड़के तैयार होकर जवाहरलाल बाहर आ गए। आकाश में रात्रि की कालिमा पर प्रातः की लालिमा फैलती जा रही थी। तिब्बती पठार का दृश्य निराला था। दूर-दूर तक वनस्पति-रहित उजाड़ चट्टानी इलाका दिखाई दे रहा था। उदास, फीके, बर्फ से ढके चट्टानी पहाड़ सुबह की पहली किरणों का स्पर्श पाकर ताज की भाँति चमक उठे। दूर से छोटे-छोटे ग्लेशियर ऐसे लगते, मानो
स्वागत करने के लिए पास सरकते आ रहे हों। सर्द हवा के झोंके हड्डियों तक ठंडक पहुँचा रहे थे।
जवाहर ने हथेलियाँ आपस में रगड़कर गरम की और कमर में रस्सी लपेट कर चलने को तैयार हो गए। हिमालय की दुर्गम पर्वतमाला मुँह उठाए चुनौती दे रही थी। जवाहर इस चुनौती को कैसे न स्वीकार करते। भाई, किशन और कुली सभी रस्सी के साथ जुड़े थे। किशन गड़ेरिया अब गाइड बन गया।
बस आठ मील ही तो पार करने हैं। जोश में आकर जवाहरलाल चढ़ाई चढ़ने लगे। यूँ आठ मील की दूरी कोई बहुत नहीं होती। लेकिन इन पहाड़ी रास्तों पर आठ कदम चलना दूभर हो गया। एक-एक डग भरने में कठिनाई हो रही थी। रास्ता बहुत ही वीरान था। पेड़-पौधों की हरियाली के अभाव में एक अजीब खालीपन-सा महसूस हो रहा था। कहीं एक फूल दिख जाता तो आँखों को ठंडक मिल जाती। दिख रही थीं सिर्फ़ पथरीली चट्टानें और सफ़ेद बर्फ। फिर भी इस गहरे सन्नाटे में बहुत सुकून था। एक ओर सू-सू करती बर्फीली हवा बदन को काटती तो दूसरी ओर ताज़गी और स्फूर्ति भी देती।
जवाहरलाल बढ़ते जा रहे थे। ज्यों-ज्यों ऊपर चढ़ते गए, त्यों-त्यों साँस लेने में दिक्कत होने लगी। एक कुली की नाक से खून बहने लगा। जल्दी से जवाहरलाल ने उसका उपचार किया। खुद उन्हें भी कनपटी की नसों में तनाव महसूस हो रहा था, लगता था जैसे दिमाग में खून चढ़ आया हो। फिर भी जवाहरलाल ने आगे बढ़ने का इरादा नहीं बदला।
थोड़ी देर में बर्फ पड़ने लगी। फिसलन बढ़ गई, चलना भी कठिन हो गया। एक तरफ़ थकान, ऊपर से सीधी चढ़ाई। तभी सामने एक बर्फीला मैदान नज़र आया। चारों ओर हिम शिखरों से घिरा वह मैदान देवताओं के मुकुट के समान लग रहा था। प्रकृति की कैसी मनोहर छटा थीं आँखों और मन को तरोताज़ा कर गई। बस एक झलक दिखाकर बर्फ़ के धुंधलके में ओझल हो गई।
दिन के बारह बजने वाले थे। सुबह चार बजे से वे लोग लगातार चढ़ाई कर रहे थे। शायद सोलह हज़ार फ़ीट की ऊँचाई पर होंगे इस वक्त अमरनाथ...
से भी ऊपर। पर अमरनाथ की गुफा का दूर-दूर तक पता नहीं था। इस पर भी जवाहरलाल की चाल में न ढीलापन था, न बदन में सुस्ती। हिमालय ने चुनौती जो दी थी। निर्गम पथ पार करने का उत्साह उन्हें आगे खींच रहा था।
"शाब, लौट चलिए। वापस कैंप में पहुँचते पहुँचते दिन ढल जाएगा,” एक कुली ने कहा।
"लेकिन अभी तो अमरनाथ पहुंचे नहीं।” जवाहरलाल को लौटने का विचार पसंद नहीं आया।
“वह तो दूर बर्फ़ के उस मैदान के पार है," किशन बीच में बोल पड़ा।
"चलो, चलो। चढ़ाई तो पार कर ली, अब आधे मील का मैदान ही तो बाकी है,” कहकर जवाहरलाल ने थके हुए कुलियों को उत्साहित किया।
सामने बर्फ़ का सपाट मैदान दिखाई दे रहा था। उसके पार दूसरी ओर से नीचे उतरकर गुफा तक पहुँचा जा सकता था। जवाहरलाल फुर्ती से बढ़ते जा रहे थे। दूर से मैदान जितना सपाट दिख रहा था असलियत में उतना ही ऊबड़-खाबड़ था। ताजी बर्फ़ ने ऊँची-नीची चट्टानों को एक पतली चादर से ढककर एक समान कर दिया था। गहरी खाइयाँ थीं, गड्डे बर्फ से ढके हुए थे और गज़ब की फिसलन थी। कभी पैर फिसलता और कभी बर्फ़ में पैर अंदर धंसता जाता, फँसता जाता। बहुत नाप-नाप कर कदम रखने पड़ रहे थे। ये तो चढ़ाई से भी मुश्किल था, जवाहरलाल को मज़ा आ रहा था। तभी जवाहरलाल ने देखा सामने एक गहरी खाई मुँह फाड़े निगलने के लिए तैयार थी। अचानक उनका पैर फिसला। वे लड़खड़ाए और इससे पहले कि सँभल पाएँ वे खाई में गिर पड़े। “शाब गिर गए!" किशन चीखा।
“जवाहर...!" भाई की पुकार वादियों की शांति भंग कर गई। वे खाई की ओर तेज़ी से बढ़े।
रस्सी से बँधे जवाहरलाल हवा में लटक रहे थे। उफ़, कैसा झटका लगा। दोनों तरफ़ चट्टानें-ही-चट्टानें, नीचे गहरी खाई। जवाहरलाल कसकर रस्सी पकड़े थे, वही उनका एकमात्र सहारा था।
"जवाहर...!" ऊपर से भाई की पुकार सुनाई दी।
मुँह ऊपर उठाया तो भाई और किशन के धुंधले चेहरे खाई में झाँकते हुए दिखाई दिए। “हम खींच रहे हैं, रस्सी कस के पकड़े रहना,” भाई ने हिदायत दी।
जवाहरलाल जानते थे कि फिसलन के कारण यूँ ऊपर खींच लेना आसान नहीं होगा। “भाई, मैं चट्टान पर पैर जमा लूँ." वह चिल्लाए। खाई की दीवारों से उनकी आवाज़ टकराकर दूर-दूर तक गूंज गई। हल्की-सी पेंग बढ़ा जवाहरलाल ने खाई की दीवार से उभरी चट्टान को मजबूती से पकड़ लिया और पथरीले धरातल पर पैर जमा लिए। पैरों तले धरती के एहसास से जवाहरलाल की हिम्मत बढ़ गई।
"घबराना मत, जवाहर," भाई की आवाज़ सुनाई दी।
"मैं बिल्कुल ठीक हूँ.” कहकर जवाहरलाल मज़बूती से रस्सी पकड़ एक-एक कदम ऊपर की ओर बढ़ने लगे। कभी पैर फिसलता, कभी कोई हल्का-फुल्का पत्थर पैरों के नीचे से सरक जाता, तो वह मन-ही-मन काँप जाते और मज़बूती से रस्सी पकड़ लेते। रस्सी से हथेलियाँ भी जैसे कटने लगीं थीं पर जवाहरलाल ने उस तरफ ध्यान नहीं दिया। कुली और किशन उन्हें खींचकर बार-बार ऊपर चढ़ने में मदद कर रहे थे। धीरे-धीरे सरककर किसी तरह जवाहरलाल ऊपर पहुँचे। मुड़कर ऊपर से नीचे देखा कि खाई इतनी गहरी थी कि कोई गिर जाए तो उसका पता भी न चले।
"शुक्र है, भगवान का!" भाई ने गहरी साँस ली।
"शाब, चोट तो नहीं आई?" एक कुली ने पूछा।
गर्दन हिला, कपड़े झाड़ जवाहरलाल फिर चलने को तैयार हो गए। इस हादसे से हल्का-सा झटका ज़रूर लगा फिर भी जोश ठंडा नहीं हुआ। वह अब भी आगे जाना चाहते थे।
आगे चलकर इस तरह की गहरी और चौड़ी खाइयों की तादाद बहुत थी। खाइयाँ पार करने का उचित सामान भी तो नहीं था। निराश होकर जवाहरलाल को अमरनाथ तक का सफ़र अधूरा छोड़कर वापस लौटना पड़ा। अमरनाथ पहुँचने का सपना तो पूरा ना हो सका पर हिमालय की ऊँचाइयाँ सदा जवाहरलाल को आकर्षित करती रहीं।
सुरेखा पणंदीकर
© भारत सरकार का प्रतिलिप्याधिकार, 2007। (1) आंतरिक विवरणों को सही दर्शाने का दायित्व प्रकाशक का है।
(2) समुद्र में भारत का जलप्रदेश, उपयुक्त आधार-रेखा से मापे गये बारह समुद्री मील की दूरी तक है। (3) चंडीगढ़, पंजाब और हरियाणा के प्रशासी मुख्यालय चंडीगढ़ में है।
(4) इस मानचित्र में अरुणाचल प्रदेश, असम और मेघालय के मध्य में दर्शायी गयी अंतर्राज्यीय सीमायें, उत्तरी पूर्वी क्षेत्र (पुनर्गठन) अधिनियम 1971 के निर्वाचनानुसार दर्शित है, परंतु अभी सत्यापित होनी है।
(5) भारत की बाह्य सीमायें तथा समुद्र तटीय रेखायें भारतीय सर्वेक्षण विभाग द्वारा सत्यापित अभिलेख / प्रधान प्रति से मेल खाती है।
(6) इस मानचित्र में उत्तरांचल एवं उत्तरप्रदेश, झारखंड एवं बिहार और छत्तीसगढ़ एवं मध्यप्रदेश के बीच की राज्य सीमायें संबंधित सरकारों द्वारा सत्यापित नहीं की गयी है।
(7) इस मानचित्र में दर्शित नामों का अक्षरविन्यास विभिन्न सूत्रें द्वारा प्राप्त किया है।
कहाँ क्या है
- (क) लेह लद्दाख केंद्र शासित प्रदेश है। ऊपर दिए भारत के नक्शे में हूँढो कि लद्दाख कहाँ है और तुम्हारा घर कहाँ है?
(ख) अनुमान लगाओ कि तुम जहाँ रहते हो वहाँ से लद्दाख पहुँचने में कितने दिन लग सकते हैं और वहाँ किन-किन जरियों से पहुंचा जा सकता है?
(ग) किताब के शुरू में तुमने तिब्बती लोककथा 'राख की रस्सी' पढ़ी थी। नक्शे में तिब्बत को ढूँढो।
वाद-विवाद
- (क) बर्फ से ढके चट्टानी पहाड़ों के उदास और फीके लगने की क्या वजह हो सकती थी?
(ख) बताओ, ये जगहें कब उदास और फीकी लगती हैं और यहाँ कब रौनक होती है?
घर
बाजार
स्कूल
खेत
- ‘जवाहरलाल को इस कठिन यात्रा के लिए तैयार नहीं होना चाहिए।' तुम इससे सहमत हो तो भी तर्क दो, नहीं हो तो भी तर्क दो। अपने तर्कों को तुम कक्षा के सामने प्रस्तुत भी कर सकते हो।
कोलाज
'कोलाज' उस तस्वीर को कहते हैं जो कई तस्वीरों को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर एक कागज़ पर चिपका कर बनाई जाती है।
- तुम मिलकर पहाड़ों का एक कोलाज बनाओ। इसके लिए पहाड़ों से जुड़ी विभिन्न तस्वीरें इकट्ठा करो... पर्वतारोहण, चट्टान, पहाड़ों के अलग-अलग नज़ारे, चोटी, अलग-अलग किस्म के पहाड़। अब इन्हें एक बड़े से कागज़ पर पहाड़ के आकार में ही चिपकाओ। यदि चाहो तो ये कोलाज तुम अपनी कक्षा की एक दीवार पर भी बना सकते हो।
- अब इन चित्रों पर आधारित शब्दों का एक कोलाज बनाओ। कोलाज में ऐसे शब्द हों जो इन चित्रों का वर्णन कर पा रहे हों या मन में उठने वाली भावनाओं को बता रहे हों। अब इन दोनों कोलाजों को कक्षा में प्रदर्शित करो।
तुम्हारी समझ से
- इस वृत्तांत को पढ़ते-पढ़ते तुम्हें भी अपनी कोई छोटी या लंबी यात्रा याद आ रही हो तो उसके बारे में लिखो।
- जवाहरलाल को अमरनाथ तक का सफ़र अधूरा क्यों छोड़ना पड़ा?
- जवाहरलाल, किशन और कुली सभी रस्सी से क्यों बँध थे?
- (क) पाठ में नेहरू जी ने हिमालय से चुनौती महसूस की। कुछ लोग पर्वतारोहण क्यों करना चाहते हैं?
(ख) ऐसे कौन-से चुनौती भरे काम हैं जो तुम करना पसंद करोगे?
बोलते पहाड़
- उदास फीके बर्फ से ढके चट्टानी पहाड़
"उदास होना" और “चुनौती देना" मनुष्य के स्वभाव हैं। यहाँ निर्जीव पहाड़ ऐसा कर रहे हैं। ऐसे और भी वाक्य हैं। जैसे-
इस किताब के दूसरे पाठों में भी ऐसे वाक्य ढूँढ़ो।
एक वर्णन ऐसा भी
पाठ में तुमने जवाहरलाल नेहरू की पहाड़ी यात्रा के बारे में पढ़ा। नीचे एक और पहाड़ी इलाके का वर्णन दिया गया है जो प्रसिद्ध कहानीकार निर्मल वर्मा की किताब ' चीड़ों पर चाँदनी ' से लिया गया है। इसे पढ़ो और नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर दो।
"क्या यह शिमला है-हमारा अपना शहर- या हम भूल से कहीं और चले आए हैं? हम नहीं जानते कि पिछली रात जब हम बेखबर सो रहे थे, बर्फ चुपचाप गिर रही थी।
खिड़की के सामने पुराना, चिर-परिचित देवदार का वृक्ष था, जिसकी नंगी शाखों पर रूई के मोटे-मोटे गालों-सी बर्फ़ चिपक गई थी। लगता था जैसे वह सांता क्लॉज़ हो, एक रात में ही जिसके बाल सन-से सफ़ेद हो गए हैं...। कुछ देर बाद धूप निकल आती है- नीले चमचमाते आकाश के नीचे बर्फ से ढकी पहाड़ियाँ धूप सेंकने के लिए अपना चेहरा बादलों के बाहर निकाल लेती हैं।"
(क) ऊपर दिए पहाड़ के वर्णन और पाठ में दिए वर्णन में क्या अंतर है?
(ख) कई बार निर्जीव चीज़ों के लिए मनुष्यों से जुड़ी क्रियाओं, विशेषण आदि का इस्तेमाल होता है, जैसे-पाठ में आए दो उदाहरण “उदास फीके, बर्फ से ढके चट्टानी पहाड़" या “सामने एक गहरी खाई मुँह फाड़े निगलने के लिए तैयार थी”। ऊपर लिखे शिमला के वर्णन में ऐसे उदाहरण ढूँढ़ो।
हम क्या उगाते हैं
हम क्या उगाते हैं जब पेड़ लगाते हैं?
हम पाजी का जहाज उगाते हैं जो समुद्र पार करेगा।
हम मस्तूल उगाते हैं जिसपर पाल बँधेगी।
हम वे फट्टे उगाते हैं जो हवा के थपेड़ों का सामना करेंगे।
जहाज का तला, शहतीर.कोहनी;
हम पानी का जहाजा उगाते हैं जब पेड़ उगाते हैं।
हम क्या उगाते हैं जब पेड़ लगाते हैं?
हम बल्लियाँ, पटिये औरफ़र्श उगाते हैं।
हम खिड़की, रोशनदान और दरवाजो उगाते हैं।
हम छत के लट्टे, शहतीर और उसके तमाम हिस्से उगाते हैं
हम घर उगाते हैं जब पेड़ लगाते हैं।
हम क्या उगाते हैं जब पेड़ लगाते हैं?
ऐसी हजारों चीजों जो हम हर दिन देखते हैं।
हम झुंबद से भी उपर आने वाले शिवार उगाते हैं।
हम अपने देश का झंडा फहराने वाला स्तंभ उगाते हैं।
सूरज की गर्मी से छाया माजो मुफ्त ही उगाते हैं।
हम यह सब उगाते हैं जब पेड़ लगाते हैं।
हेनरी एबे
अनुवाद - कबीर वाजपेयी