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रशीदा का सवाल
रशीदा बैठी अख़बार पढ़ रही थी। अचानक उसकी निगाह एक सुर्ख़ी पर पड़ी "सौ साल पहले"। वह सोचने लगी कि यह कोई कैसे जान सकता है कि इतने वर्षों पहले क्या हुआ था?
कैसे पता लगाएँ?
यह जानने के लिए कि कल क्या हुआ था, तुम रेडियो सुन सकते हो, टेलीविज़न देख सकते हो या फिर अख़बार पढ़ सकते हो।
साथ ही यह जानने के लिए कि पिछले साल क्या हुआ था, तुम किसी एेसे व्यक्ति से बात कर सकते हो जिसे उस समय की स्मृति हो।
लेकिन बहुत पहले क्या हुआ था यह कैसे जाना जा सकता है?
अतीत के बारे में हम क्या जान सकते हैं?
अतीत के बारे में बहुत कुछ जाना जा सकता है-जैसे लोग क्या खाते थे, कैसे कपड़े पहनते थे, किस तरह के घरों में रहते थे? हम आखेटकों (शिकारियों), पशुपालकों, कृषकों, शासकों, व्यापारियों, पुरोहितों, शिल्पकारों, कलाकारों, संगीतकारों या फिर वैज्ञानिकों के जीवन के बारे में जानकारियाँ हासिल कर सकते हैं। यही नहीं हम यह भी पता कर सकते हैं कि उस समय बच्चे कौन-से खेल खेलते थे, कौन-सी कहानियाँ सुना करते थे, कौन-से नाटक देखा करते थे या फिर कौन-कौन से गीत गाते थे।
लोग कहाँ रहते थे?
मानचित्र 1 (पृष्ठ 2) में नर्मदा नदी का पता लगाओ। कई लाख वर्ष पहले से लोग इस नदी के तट पर रह रहे हैं। यहाँ रहने वाले आरंभिक लोगों में से कुछ कुशल संग्राहक थे जो आस-पास के जंगलों की विशाल संपदा से परिचित थे। अपने भोजन के लिए वे जड़ों, फलों तथा जंगल के अन्य उत्पादों का यहीं से संग्रह किया करते थे। वे जानवरों का आखेट (शिकार) भी करते थे।
अब तुम उत्तर-पश्चिम की सुलेमान और किरथर पहाड़ियों का पता लगाओ। इसी क्षेत्र में कुछ एेसे स्थान हैं जहाँ लगभग आठ हज़ार वर्ष पूर्व स्त्री-पुरुषों ने सबसे पहले गेहूँ तथा जौ जैसी फ़सलों को उपजाना आरंभ किया। उन्होंने भेड़, बकरी और गाय-बैल जैसे पशुओं को पालतू बनाना शुरू किया। ये लोग गाँवों में रहते थे। उत्तर-पूर्व में गारो तथा मध्य भारत में विंध्य पहाड़ियों का पता लगाओ। ये कुछ अन्य एेसे क्षेत्र थे जहाँ कृषि का विकास हुआ। जहाँ सबसे पहले चावल उपजाया गया वे स्थान विंध्य के उत्तर मेें स्थित थे।
मानचित्र पर सिंधु तथा इसकी सहायक नदियों का पता लगाने का प्रयास करो। सहायक नदियाँ उन्हें कहते हैं जो एक बड़ी नदी में मिल जाती हैं। लगभग 4700 वर्ष पूर्व इन्हीं नदियों के किनारे कुछ आरंभिक नगर फले-फूले। गंगा व इसकी सहायक नदियों के किनारे तथा समुद्र तटवर्त्ती इलाकों में नगरों का विकास लगभग 2500 वर्ष पूर्व हुआ।
गंगा तथा इसकी सहायक नदी सोन का पता लगाओ। गंगा के दक्षिण में इन नदियों के आस-पास का क्षेत्र प्राचीन काल में ‘मगध’ (वर्तमान बिहार में) नाम से जाना जाता था। इसके शासक बहुत शक्तिशाली थे और उन्होंने एक विशाल राज्य स्थापित किया था। देश के अन्य हिस्सों में भी एेसे राज्यों की स्थापना की गई थी।
लोगों ने सदैव उपमहाद्वीप के एक हिस्से से दूसरे हिस्से तक यात्रा की। कभी-कभी हिमालय जैसे ऊँचे पर्वतों, पहाड़ियों, रेगिस्तान, नदियाें तथा समुद्रों के कारण यात्रा जोखिम भरी होती थी, फिर भी ये यात्रा उनके लिए असंभव नहीं थीं। अतः कभी लोग काम की तलाश में तो कभी प्राकृतिक आपदाओं के कारण एक स्थान से दूसरे स्थान जाया करते थे। कभी-कभी सेनाएँ दूसरे क्षेत्रों पर विजय हासिल करने के लिए जाती थीं। इसके अतिरिक्त व्यापारी कभी काफ़िले में तो कभी जहाज़ों में अपने साथ मूल्यवान वस्तुएँ लेकर एक स्थान से दूसरे स्थान जाते रहते थे। धार्मिक गुरू लोगों को शिक्षा और सलाह देते हुए एक गाँव से दूसरे गाँव तथा एक कसबे से दूसरे कसबे जाया करते थे। कुछ लोग नए और रोचक स्थानों को खोजने की चाह में उत्सुकतावश भी यात्रा किया करते थे। इन सभी यात्राओं से लोगों को एक-दूसरे के विचारों को जानने का अवसर मिला।
आज लोग यात्राएँ क्यों करते हैं?
एक बार फिर से मानचित्र 1 को देखो। पहाड़ियाँ, पर्वत और समुद्र इस उपमहाद्वीप की प्राकृतिक सीमा का निर्माण करते हैं। हालांकि लोगों के लिए इन सीमाओं को पार करना आसान नहीं था, जिन्होंने एेसा चाहा वे एेसा कर सके, वे पर्वतों की ऊँचाई को छू सके तथा गहरे समुद्रों को पार कर सके। उपमहाद्वीप के बाहर से भी कुछ लोग यहाँ आए और यहीं बस गए। लोगों के इस आवागमन ने हमारी सांस्कृतिक परंपराओं को समृद्ध किया। कई सौ वर्षों से लोग पत्थर को तराशने, संगीत रचने और यहाँ तक कि भोजन बनाने के नए तरीकों के बारे में एक-दूसरे के विचारों को अपनाते रहे हैं।
देश के नाम
अपने देश के लिए हम प्रायः इण्डिया तथा भारत जैसे नामों का प्रयोग करते हैं। इण्डिया शब्द इण्डस से निकला है जिसे संस्कृत में सिंधु कहा जाता है। अपने एटलस में ईरान और यूनान का पता लगाओ। लगभग 2500 वर्ष पूर्व उत्तर-पश्चिम की ओर से आने वाले ईरानियों और यूनानियों ने सिंधु को हिंदोस अथवा इंदोस और इस नदी के पूर्व में स्थित भूमि प्रदेश को इण्डिया कहा। भरत नाम का प्रयोग उत्तर-पश्चिम में रहने वाले लोगों के एक समूह के लिए किया जाता था। इस समूह का उल्लेख संस्कृत की आरंभिक (लगभग 3500 वर्ष पुरानी) कृति ऋग्वेद में भी मिलता है। बाद में इसका प्रयोग देश के लिए होने लगा।
अतीत के बारे में कैसे जानें?
अतीत की जानकारी हम कई तरह से प्राप्त कर सकते हैं। इनमें से एक तरीका अतीत में लिखी गई पुस्तकों को ढूँढ़ना और पढ़ना है। ये पुस्तकें हाथ से लिखी होने के कारण पाण्डुलिपि कही जाती हैं। अंग्रेज़ी में ‘पाण्डुलिपि’ के लिए प्रयुक्त होने वाला ‘मैन्यूस्क्रिप्ट’ शब्द लैटिन शब्द ‘मेनू’ जिसका अर्थ हाथ है, से निकला है। ये पाण्डुलिपियाँ प्रायः ताड़पत्रों अथवा हिमालय क्षेत्र में उगने वाले भूर्ज नामक पेड़ की छाल से विशेष तरीके से तैयार भोजपत्र पर लिखी मिलती हैं।
इतने वर्षों में इनमें से कई पाण्डुलिपियों को कीड़ों ने खा लिया तथा कुछ नष्ट कर दी गईं। फिर भी एेसी कई पाण्डुलिपियाँ आज भी उपलब्ध हैं। प्रायः ये पाण्डुलिपियाँ मंदिरों और विहारों में प्राप्त होती हैं। इन पुस्तकों में धार्मिक मान्यताओं व व्यवहारों, राजाओं के जीवन, औषधियों तथा विज्ञान आदि सभी प्रकार के विषयों की चर्चा मिलती है। इनके अतिरिक्त हमारे यहाँ महाकाव्य, कविताएँ तथा नाटक भी हैं। इनमें से कई संस्कृत में लिखे हुए मिलते हैं जबकि अन्य प्राकृत और तमिल में हैं। प्राकृत भाषा का प्रयोग आम लोग करते थे।
हम अभिलेखों का भी अध्ययन कर सकते हैं। एेसे लेख पत्थर अथवा धातु जैसी अपेक्षाकृत कठोर सतहों पर उत्कीर्ण किए गए मिलते हैं। कभी-कभी शासक अथवा अन्य लोग अपने आदेशों को इस तरह उत्कीर्ण करवाते थे, ताकि लोग उन्हें देख सकें, पढ़ सकें तथा उनका पालन कर सकें। कुछ अन्य प्रकार के अभिलेख भी मिलते हैं जिनमें राजाओं तथा रानियों सहित अन्य स्त्री-पुरुषों ने भी अपने कार्यों के विवरण उत्कीर्ण करवाए हैं। उदाहरण के लिए प्रायः शासक लड़ाइयों में अर्जित विजयों का लेखा- जोखा रखा करते थे।
क्या तुम बता सकती हो कि कठोर सतह पर लेख लिखवाने के क्या लाभ थे? एेसा करवाने में क्या-क्या कठिनाइयाँ आती थीं?
इसके अतिरिक्त अन्य कई वस्तुएँ अतीत में बनीं और प्रयोग में लाई जाती थीं। एेसी वस्तुओं का अध्ययन करने वाला व्यक्ति पुरातत्त्वविद् कहलाता है। पुरातत्त्वविद् पत्थर और ईंट से बनी इमारतों के अवशेषों, चित्रों तथा मूर्तियों का अध्ययन करते हैं। वे औज़ारों, हथियारों, बर्तनों, आभूषणों तथा सिक्कों की प्राप्ति के लिए छान-बीन तथा खुदाई भी करते हैं। इनमें से कुछ वस्तुएँ पत्थर, पकी मिट्टी तथा कुछ धातु की बनी हो सकती हैं। एेसे तत्त्व कठोर तथा जल्दी नष्ट न होने वाले होते हैं।
पुरातत्त्वविद् जानवरों, चिड़ियों तथा मछलियों की हड्डियाँ भी ढूँढ़ते हैं। इससे उन्हें यह जानने में भी मदद मिलती है कि अतीत में लोग क्या खाते थे। वनस्पतियों के अवशेष बहुत मुश्किल से बच पाते हैं। यदि अन्न के दाने अथवा लकड़ी के टुकड़े जल जाते हैं तो वे जले हुए रूप में बचे रहते हैं। क्या पुरातत्त्वविदों को बहुधा कपड़ों के अवशेष मिलते होंगे?
पाण्डुलिपियों, अभिलेखों तथा पुरातत्त्व से ज्ञात जानकारियों के लिए इतिहासकार प्रायः स्रोत शब्द का प्रयोग करते हैं। इतिहासकार उन्हें कहते हैं जो अतीत का अध्ययन करते हैं। स्रोत के प्राप्त होते ही अतीत के बारे में पढ़ना बहुत रोचक हो जाता है, क्योंकि इन स्रोतों की सहायता से हम
धीरे-धीरे अतीत का पुनर्निर्माण करते जाते हैं। अतः इतिहासकार तथा पुरातत्त्वविद् उन जासूसों की तरह हैं जो इन सभी स्रोतों का प्रयोग सुराग के रूप में कर अतीत को जानने का प्रयास करते हैं।
अतीत, एक या अनेक?
क्या तुमने इस पुस्तक के शीर्षक हमारे अतीत पर ध्यान दिया है? यहाँ ‘अतीत’ शब्द का प्रयोग बहुवचन के रूप में किया गया है। एेसा इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाने के लिए किया गया है कि अलग-अलग समूह के लोगों के लिए इस अतीत के अलग-अलग मायने थे। उदाहरण के लिए पशुपालकों अथवा कृषकों का जीवन राजाओं तथा रानियों के जीवन
से तथा व्यापारियों का जीवन शिल्पकारों के जीवन से बहुत भिन्न था। जैसाकि हम आज भी देखते हैं, उस समय भी देश के अलग-अलग हिस्सों में लोग अलग-अलग व्यवहारों और रीति-रिवाज़ों का पालन करते थे। उदाहरण के लिए आज अंडमान द्वीप के अधिकांश लोग अपना भोजन मछलियाँ पकड़ कर, शिकार करके तथा फल-फूल के संग्रह द्वारा प्राप्त करते हैं। इसके विपरीत शहरों में रहने वाले लोग खाद्य आपूर्ति के लिए अन्य व्यक्तियों पर निर्भर करते हैं। इस तरह के भेद अतीत में भी विद्यमान थे।
इसके अतिरिक्त एक अन्य तरह का भेद है। उस समय शासक अपनी विजयों का लेखा-जोखा रखते थे। यही कारण है कि हम उन शासकों तथा उनके द्वारा लड़ी जाने वाली लड़ाइयों के बारे में काफी कुछ जानते हैं। जबकि शिकारी, मछुआरे, संग्राहक, कृषक अथवा पशुपालक जैसे आम आदमी प्रायः अपने कार्यों का लेखा-जोखा नहीं रखते थे। पुरातत्त्व की सहायता से हमें उनके जीवन को जानने में मदद मिलती है। हालांकि अभी भी इनके बारे में बहुत कुछ जानना शेष है।
तिथियों का मतलब
अगर कोई तुमसे तिथि के विषय में पूछे तो तुम शायद उस दिन की तारीख, माह, वर्ष जैसे कि 2000 या इसी तरह का कोई और वर्ष बताओगी। वर्ष की यह गणना ईसाई धर्म-प्रवर्तक ईसा मसीह के जन्म की तिथि से की जाती है। अतः 2000 वर्ष कहने का तात्पर्य ईसा मसीह के जन्म के 2000 वर्ष के बाद से है। ईसा मसीह के जन्म के पूर्व की सभी तिथियाँ ई.पू. (ईसा से पहले) के रूप में जानी जाती हैं। इस पुस्तक मेें हम 2000 को अपना आरंभिक बिन्दु मानते हुए वर्तमान से पूर्व की तिथियों का उल्लेख करेंगे।
इतिहास और तिथियाँ
अंग्रेज़ी में बी.सी. (हिंदी में ई.पू.) का तात्पर्य ‘बिफ़ोर क्राइस्ट’ (ईसा पूर्व) होता है।
कभी-कभी तुम तिथियों से पहले ए.डी. (हिंदी में ई.) लिखा पाती हो। यह ‘एनो डॉमिनी’ नामक दो लैटिन शब्दों से बना है तथा इसका तात्पर्य ईसा मसीह के जन्म के वर्ष से है।
कभी-कभी ए.डी. की जगह सी.ई. तथा बी.सी. की जगह बी.सी.ई. का प्रयोग होता है। सी.ई. अक्षरों का प्रयोग ‘कॉमन एरा’ तथा बी.सी.ई. का ‘बिफ़ोर कॉमन एरा’ के लिए होता है। हम इन शब्दों का प्रयोग इसलिए करते हैं क्योंकि विश्व के अधिकांश देशों में अब इस कैलेंडर का प्रयोग सामान्य हो गया। भारत में तिथियों के इस रूप का प्रयोग लगभग दो सौ वर्ष पूर्व आरंभ हुआ था।
कभी-कभी अंग्रेज़ी के बी.पी. अक्षरों का प्रयोग होता है जिसका तात्पर्य ‘बिफ़ोर प्रेजेन्ट’ (वर्तमान से पहले) है।
पृष्ठ 3 पर दो तिथियाँ हैं, उनका पता लगाओ। इनके लिए तुम किस अक्षर समूह का प्रयोग करोगी?
अन्यत्र
जैसाकि हमने पहले पढ़ा, अभिलेख कठोर सतहों पर उत्कीर्ण करवाए जाते हैं। इनमें से कई अभिलेख कई सौ वर्ष पूर्व लिखे गए थे। सभी अभिलेखों में लिपियों और भाषाओं का प्रयोग हुआ है। समय के साथ-साथ अभिलेखों में प्रयुक्त भाषाओं तथा लिपियों में बहुत बदलाव आ चुका है। विद्वान यह कैसे जान पाते हैं कि क्या लिखा था? इसका पता अज्ञात लिपि का अर्थ निकालने की एक प्रक्रिया द्वारा लगाया जा सकता है।
इस प्रकार से अज्ञात लिपि को जानने की एक प्रसिद्ध कहानी उत्तरी अफ़्रीकी देश मिस्र से मिलती है। लगभग 5000 वर्ष पूर्व यहाँ राजा-रानी रहते थे।
मिस्र के उत्तरी तट पर रोसेट्टा नाम का एक कसबा है। यहाँ से एक एेसा उत्कीर्णित पत्थर मिला है जिस पर एक ही लेख तीन भिन्न-भिन्न भाषाओं तथा लिपियों (यूनानी तथा मिस्री लिपि के दो प्रकारों) में है। कुछ विद्वान यूनानी भाषा पढ़ सकते थे। उन्होंने बताया कि यहाँ राजाओं तथा रानियों के नाम एक छोटे से फ्रेम में दिखाए गए हैं। इसे ‘कारतूश’ कहा जाता है। इसके बाद विद्वानों ने यूनानी तथा मिस्री संकेतों को अगल-बगल रखते हुए मिस्री अक्षरों की समानार्थक ध्वनियों की पहचान की। जैसाकि तुम देख सकते हो यहाँ एल अक्षर के लिए शेर तथा ए अक्षर के लिए चिड़िया के चित्र बने हैं। एक बार, जब उन्होंने यह जान लिया कि विभिन्न अक्षर किनके लिए प्रयुक्त हुए हैं, तो वे आसानी से अन्य अभिलेखों को भी पढ़ सके।
कल्पना करो
तुम्हें एक पुरातत्त्वविद् का साक्षात्कार लेना है। तुम उन पाँच प्रश्नों की एक सूची तैयार करो जिन्हें तुम पुरातत्त्वविद् से पूछना चाहोगी।
उपयोगी शब्द
यात्रा
पाण्डुलिपि
अभिलेख
पुरातत्त्व
इतिहासकार
स्रोत
कुछ महत्वपूर्ण तिथियाँ
कृषि का आरंभ (8000 वर्ष पूर्व)
सि्ांधु सभ्यता के प्रथम नगर (4700 वर्ष पूर्व)
गंगा घाटी के नगर, मगध का बड़ा राज्य (2500 वर्ष पूर्व)
वर्तमान (लगभग 2000 वर्ष पूर्व)
आओ याद करें
1. निम्नलिखित का सुमेल करो ः
नर्मदा घाटी पहला बड़ा राज्य
मगध आखेट तथा संग्रहण
गारो पहाड़ियाँ लगभग 2500 वर्ष पूर्व के नगर
सि्ांधु तथा इसकी सहायक नदियाँ आरंभिक कृषि
गंगा घाटी प्रथम नगर
2. पाण्डुलिपियों तथा अभिलेखों में एक प्रमुख अंतर बताओ।
आओ चर्चा करें
3. रशीदा के प्रश्न को फिर से पढ़ो। इसके क्या उत्तर हो सकते हैं?
4. पुरातत्त्वविदों द्वारा पाई जाने वाली सभी वस्तुओं की एक सूची बनाओ। इनमें से कौन-सी वस्तुएँ पत्थर की बनी हो सकती हैं?
5. साधारण स्त्री तथा पुरुष अपने कार्यों का विवरण क्यों नहीं रखते थे? इसके बारे में तुम क्या सोचती हो?
6. कम से कम दो एेसी बातों का उल्लेख करो जिनसे तुम्हारे अनुसार राजाओं और किसानों के जीवन में भिन्नता का पता चलता है।
आओ करके देखें
7. पृष्ठ 1 पर शिल्पकार शब्द का पता लगाओ। आज प्रचलित कम से कम पांच भिन्न-भिन्न शिल्पों की सूची बनाओ। क्या ये शिल्पकार (क) स्त्री, (ख) पुरुष, (ग) स्त्री तथा पुरुष दोनों होते हैं?
8. अतीत में पुस्तकें किन-किन विषयों पर लिखी गई थीं? तुम इनमें से किन पुस्तकों को पढ़ना पसंद करोगी?