अध्याय 9

व्यापारी, राजा और तीर्थयात्री


बाज़ार में घूमती जगिनी

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जगिनी अपने गाँव के मेले की आस लगाए बैठी थी। स्टील के चमकदार बर्तन, रंगबिरंगी प्लास्टिक की बाल्टियाँ, शोख रंगों के फूलों के प्रिंटों वाले कपड़े, चाबी से चलने वाले मज़ेदार खिलौने उसे बहुत अच्छे लगते थे। इन चीज़ों को बेचने वाले दुकानदार बसों और ट्रकों पर आते थे और रात को अपना सामान समेटकर वापस चले जाते थे। जगिनी को हैरानी होती थी कि ये लोग हमेशा इस तरह क्यों घूमते रहते हैं। उसकी मां ने बताया कि वे लोग व्यापारी थे। वे चीज़ों को उन जगहों से खरीदते थे, जहाँ ये बनाए जाते थे और फिर उन्हें मेलों में बेचते थे।

व्यापार और व्यापारियों के बारे में जानकारी

अध्याय 8 में तुमने उत्तर के काले पॉलिश वाले बर्तनों के बारे में पढ़ा है। ये खूबसूरत बर्तन, खास तौर से इनकी कटोरियाँ तथा थालियाँ, इस उपमहाद्वीप के अनेक पुरास्थलों से मिले हैं। सवाल उठता है कि इन जगहों पर ये बर्तन कैसे पहुँचे होंगे? एेसा अनुमान लगाया जाता है कि जहाँ ये बनते थे, वहाँ से व्यापारी इन्हें ले जाकर अलग-अलग जगहों पर बेचते थे।

दक्षिण भारत सोना, मसाले, खास तौर पर काली मिर्च तथा कीमती पत्थरों के लिए प्रसिद्ध था। काली मिर्च की रोमन साम्राज्य में इतनी माँग थी कि इसे ‘काले सोने’ के नाम से बुलाते थे। व्यापारी इन सामानों को समुद्री जहाज़ों और सड़कों के रास्ते रोम पहुँचाते थे। दक्षिण भारत में एेसे अनेक रोमन सोने के सिक्के मिले हैं। इससे यह अंदाज़ा लगाया जाता है कि उन दिनों रोम के साथ बहुत अच्छा व्यापार चल रहा था।

क्या तुम बता सकती हो कि ये सिक्के भारत कैसे और क्यों पहुेँचे होंगे?

व्यापार से जुड़ी एक कविता

व्यापार के प्रमाण हमें संगम कविताओं में भी मिलते हैं।

नीचे लिखी कविता में पूर्वी समुद्र तट पर स्थित पुहार पत्तन पर लाए जाने वाले माल का वर्णन मिलता है।

"समुद्री जहाज़ों पर लाए गए तेज़ तर्रार घोड़े,

गाड़ियों पर काली मिर्च की गठरियाँ,

हिमालय से मिले रत्न और सोना

दक्षिण की पहाड़ियों से चंदन की लकड़ियाँ

दक्षिणी-सागर के मोती और

पूर्वी-सागर के मूंगे

गंगा और कावेरी की फ़सलें

श्रीलंका से आए खाद्यान्न,

म्यांमार के बने मिट्टी के बर्तन और दुर्लभ कीमती आयात।"

कविता में उल्लिखित चीज़ों की एक सूची बनाओ। क्या तुम बता सकते हो कि इन चीज़ों का उपयोग किसलिए किया जाता होगा?

 

व्यापारियों ने कई समुद्री रास्ते खोज निकाले। इनमें से कुछ समुद्र के किनारे चलते थे कुछ अरब सागर और बंगाल की खाड़ी पार करते थे। नाविक मानसूनी हवा का फ़ायदा उठाकर अपनी यात्रा जल्दी पूरी कर लेते थे। वे अफ़्रीका या अरब के पूर्वी तट से इस उपमहाद्वीप के पश्चिमी तट पर पहुँचना चाहते थे तो दक्षिणी-पश्चिमी मानसून के साथ चलना पसंद करते थे। इन लंबी यात्राओं के लिए मज़बूत जहाज़ों का निर्माण किया जाता था।

समुद्र तटों से लगे राज्य

इस उपमहाद्वीप के दक्षिणी भाग में बड़ा तटीय प्रदेश है। इनमें बहुत-से पहाड़, पठार और नदी के मैदान हैं। नदियों के मैदानी इलाकों में कावेरी का मैदान सबसे उपजाऊ है। मैदानी इलाकों तथा तटीय इलाकों के सरदारों और राजाओं के पास धीरे-धीरे काफी सम्पत्ति और शक्ति हो गई।
संगम कविताओं में
मुवेन्दार की चर्चा मिलती है। यह एक तमिल शब्द है, जिसका अर्थ तीन मुखिया है। इसका प्रयोग तीन शासक परिवारों के मुखियाओं के लिए किया गया है। ये थे-चोल, चेर तथा पांड्य, (मानचित्र 7, पृष्ठ 105) जो करीब 2300 साल पहले दक्षिण भारत में काफी शक्तिशाली माने जाते थे।

इन तीनों मुखियाओं के अपने दो-दो सत्ता केंद्र थे। इनमें से एक तटीय हिस्से में और दूसरा अंदरूनी हिस्से में था। इस तरह छह केंद्रों में से दो बहुत महत्वपूर्ण थे। एक चोलों का पत्तन पुहार या कावेरीपट्टिनम, दूसरा पांड्यों की राजधानी मदुरै।

ये मुखिया लोगों से नियमित कर के बजाय उपहारों की माँग करते थे। कभी-कभी ये सैनिक अभियानों पर भी निकल पड़ते थे और आस-पास के इलाकों से शुल्क वसूल कर लाते थे। इनमें से कुछ धन वे अपने पास रख लेते थे, बाकी अपने समर्थकों, नाते-रिश्तेदारों, सिपाहियों तथा कवियों के बीच बाँट देते थे। अनेक संगम कवियों ने उन मुखियाओं की प्रशंसा में कविताएँ लिखी हैं जो उन्हें कीमती जवाहरात, सोने, घोड़े, हाथी, रथ या सुंदर कपड़े दिया करते थे।

इसके लगभग 200 वर्षों के बाद पश्चिम भारत (मानचित्र 7,
पृष्ठ 105) में सातवाहन नामक राजवंश का प्रभाव बढ़ गया। सातवाहनों का सबसे प्रमुख राजा गौतमी पुत्र श्री सातकर्णी था। उसके बारे में हमें उसकी माँ, गौतमी बलश्री द्वारा दान किए एक अभिलेख से पता चलता है। वह और अन्य सभी सातवाहन शासक दक्षिणापथ के स्वामी कहे जाते थे। दक्षिणापथ का शाब्दिक अर्थ दक्षिण की ओर जाने वाला रास्ता होता है। पूरे दक्षिणी क्षेत्र के लिए भी यही नाम प्रचलित था। श्री सातकर्णी ने पूर्वी, पश्चिमी तथा दक्षिणी तटों पर अपनी सेनाएँ भेजीं।

क्या तुम बता सकती हो कि श्री सातकर्णी तटों पर नियंत्रण क्यों करना चाहता था?

रेशम मार्ग की कहानी

कीमती, चमकीले रंग और चिकनी, मुलायम बनावट की वजह से रेशमी कपड़े अधिकांश समाज में बहुमूल्य माने जाते हैं। रेशमी कपड़ा तैयार करना एक जटिल प्रक्रिया है। रेशम के कीड़े से कच्चा रेशम निकालकर, सूत कताई होती है, और फिर उससे कपड़ा बुना जाता है। रेशम बनाने की तकनीक का आविष्कार सबसे पहले चीन में करीब 7000 साल पहले हुआ। इस तकनीक को उन्होंने हज़ारों साल तक बाकी दुनिया से छुपाए रखा। पर चीन से पैदल, घोड़ों या ऊँटों पर कुछ लोग दूर-दूर की जगहों पर जाते थे और अपने साथ रेशमी कपड़े भी ले जाते थे। जिस रास्ते से ये लोग यात्रा करते थे वह रेशम मार्ग (सिल्क रूट) के नाम से प्रसिद्ध हो गया।

कभी-कभी चीन के शासक ईरान और पश्चिमी एशिया के शासकों को उपहार के तौर पर रेशमी कपड़े भेजते थे। यहाँ से रेशम के बारे में जानकारी और भी पश्चिम की ओर फैल गई। करीब 2000 साल पहले रोम के शासकों और धनी लोगों के बीच रेशमी कपड़े पहनना एक फैशन बन गया। इसकी कीमत बहुत ही ज़्यादा होती थी। क्योंकि चीन से इसे लाने में दुर्गम पहाड़ी और रेगिस्तानी रास्तों से होकर जाना पड़ता था। यही नहीं, रास्ते के आस-पास रहने वाले लोग व्यापारियों से यात्रा-शुल्क भी माँगते थे।

मानचित्र 6 (पृष्ठ 76-77) को देखो। इसमें सिल्क रूट तथा उसकी शाखाओं को दिखाया गया है। कुछ शासक इसके बड़े-बड़े हिस्सों पर अपना नियंत्रण करना चाहते थे क्योंकि इस रास्ते पर यात्रा कर रहे व्यापारियों से उन्हें कर, शुल्क तथा तोहफ़ो के ज़रिए लाभ मिलता था। इसके बदले, ये शासक इन व्यापारियों को अपने राज्य से गुज़रते वक्त लुटेरों के आक्रमणों से सुरक्षा देते थे।

सिल्क रूट पर नियंत्रण रखने वाले शासकों में सबसे प्रसिद्ध कुषाण थे। करीब 2000 साल पहले मध्य-एशिया तथा पश्चिमोत्तर भारत पर इनका शासन था। पेशावर और मथुरा इनके दो मुख्य शक्तिशाली केंद्र थे। तक्षशिला भी इनके ही राज्य का हिस्सा था। इनके शासनकाल में ही सिल्क रूट की एक शाखा मध्य-एशिया से होकर सि्ांधु नदी के मुहाने के पत्तनों तक जाती थी। फिर यहाँ से जहाज़ों द्वारा रेशम, पश्चिम की ओर रोमन साम्राज्य तक पहुँचता था। इस उपमहाद्वीप में सबसे पहले सोने के सिक्के जारी करने वाले शासकों में कुषाण थे। सिल्क रूट पर यात्रा करने वाले व्यापारी इनका उपयोग किया करते थे।

सिल्क रूट पर गाड़ियों का उपयोग क्यों कठिन होता होगा?

चीन से समुद्र के रास्ते भी रेशम का निर्यात होता था। मानचित्र 6 (पृष्ठ 76-77) में इसे ढूँढ़ो। समुद्र के रास्ते रेशम भेजने में क्या सुविधाएँ और क्या समस्याएँ आती होंगी?

बौद्ध धर्म का प्रसार

कुषाणों का सबसे प्रसिद्ध राजा कनिष्क था। उसने करीब 1900 साल पहले शासन किया। उसने एक बौद्ध परिषद् का गठन किया, जिसमें एकत्र होकर विद्वान महत्वपूर्ण विषयों पर विचार-विमर्श करते थे। बुद्ध की जीवनी बुद्धचरित के रचनाकार कवि अश्वघोष, कनिष्क के दरबार में रहते थे। अश्वघोष तथा अन्य बौद्ध विद्वानों ने अब संस्कृत में लिखना शुरू कर दिया था।

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साँची के स्तूप का एक मूर्ति चित्र।

यहाँ इस वृक्ष और उसके नीचे के खाली आसन को देखो। मूर्तिकारों ने यह बताने के लिए खुदाई करके यह मूर्ति बनाई कि बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति इसी वृक्ष के नीचे बैठ कर ध्यान करते हुए हुई।

इस समय बौद्ध धर्म की एक नई धारा महायान का विकास हुआ। इसकी दो मुख्य विशेषताएँ थी। पहले, मूर्तियों में बुद्ध की उपस्थिति सिर्फ़ कुछ संकेतों के माध्यम से दर्शाई जाती थी। मिसाल के तौर पर उनकी निर्वाण प्राप्ति को पीपल के पेड़ की मूर्ति द्वारा दर्शाया जाता था पर अब बुद्ध की प्रतिमाएँ बनाई जाने लगीं। इनमें से अधिकांश मथुरा में, तो कुछ तक्षशिला में बनाई जाने लगीं।

दूसरा परिवर्तन बोधिसत्त्व में आस्था को लेकर आया। बोधिसत्त्व उन्हें कहते हैं जो ज्ञान प्राप्ति के बाद एकांत वास करते हुए ध्यान साधना कर सकते थे। लेकिन एेसा करने के बजाए, वे लोगों को शिक्षा देने और मदद करने के लिए सांसारिक परिवेश में ही रहना ठीक समझने लगे। धीरे-धीरे बोधिसत्त्व की पूजा काफी लोकप्रिय हो गई। और पूरे मध्य एशिया, चीन और बाद में कोरिया तथा जापान तक भी
फैल गई।

बौद्ध धर्म का प्रसार पश्चिमी और दक्षिणी भारत में हुआ, जहाँ बौद्ध भिक्खुओं के रहने के लिए पहाड़ों में दर्जनों गुफाएँ खोदी गईं।

इनमें से कुछ गुफाएँ राजा और रानियों के आदेश पर बनाई गईं तो कुछ व्यापारियों तथा कृषकों द्वारा। इनमें से ज़्यादातर गुफाएँ पश्चिमी घाट के दर्रों के पास बनाई गई थीं। दक्कन के शहरों और तटों के समृद्ध बंदरगाहों और इन्हें जोड़ने वाली सड़कें भी इन्हीं दर्रों से होकर गुजरती थीं। एेसा लगता है कि यात्रा करने वाले व्यापारी इन गुफाओं वाले मठों में विश्राम के लिए रुकते थे।

बौद्ध धर्म दक्षिण-पूर्व की ओर श्रीलंका, म्यांमार, थाइलैंड तथा  इंडोनेशिया सहित दक्षिण-पूर्व एशिया के अन्य भागों में भी फैला। थेरवाद नामक बौद्ध धर्म का आरंभिक रूप इन क्षेत्रों में कहीं अधिक प्रचलित था।

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बाएँः मथुरा में बनी बुद्ध की एक प्रतिमा का चित्र।

दाएँः तक्षशिला में बनी बुद्ध की प्रतिमा का एक चित्र।

इन चित्रों को देखकर बताओ कि इनके बीच क्या-क्या समानताएँ हैं और क्या-क्या भिन्नताएँ हैं?


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कार्ले की गुफा, महाराष्ट्र

पृष्ठ 100 को एक बार फिर पढ़ो। क्या तुम बता सकती हो कि बौद्ध धर्म इन इलाकों में कैसे फैला होगा?

तीर्थयात्रियों की जिज्ञासा

व्यापारी काफ़िलों में तथा जहाज़ों पर दूर-दूर जाया करते थे। बहुत-से तीर्थयात्री भी उनके साथ यात्रा पर निकल पड़ते थे।


तीर्थयात्री

तीर्थयात्री वे स्त्री-पुरुष होते हैं, जो प्रार्थना के लिए पवित्र स्थानों की यात्रा किया करते हैं।

 

इसी तरह भारत की यात्रा पर आया चीनी बौद्ध तीर्थयात्री फा-शिएन काफी प्रसिद्ध है। वह करीब 1600 साल पहले आया। श्वैन त्सांग 1400 साल पहले भारत आया और उसके करीब 50 साल बाद इत्सिंग आया। वे सब बुद्ध (अध्याय 6) के जीवन से जुड़ी जगहों और प्रसिद्ध मठों को देखने के लिए भारत आए थे।

इनमें से प्रत्येक तीर्थयात्री ने अपनी यात्रा का वर्णन लिखा। इन्होंने अपनी यात्रा के दौरान आई मुश्किलों के बारे में भी लिखा। इन यात्राओं में कई वर्ष लग जाया करते थे। जिन देशों और मठों को उन्होंने देखा, उनके बारे में उन्होंने लिखा और उन किताबों के बारे में भी उन्होंने लिखा, जिन्हें वे अपने साथ ले गए थे।

फा-शिएन चीन वापस कैसे लौटा

फा-शिएन ने अपने घर चीन वापस लौटने के लिए अपनी यात्रा बंगाल से शुरू की। वह व्यापारियों के एक जहाज़ पर चढ़ा। मुश्किल से वे दो दिन ही चल पाए थे कि एक समुद्री तूफ़ान में फँस गए। व्यापारी अपने जहाज़ को डूबने से बचाने के लिए उसमें से अपने माल को फेंककर जहाज को हल्का करने की कोशिश करने लगे। फा-शिएन ने भी अपने सामान को तो फेंक दिया, पर अपनी उन पाण्डुलिपियों और बुद्ध की मूर्तियों को नहीं फेंका, जिन्हें उसने अपनी भारत यात्रा के दौरान संकलित की थी। अंततः तेरह दिनों के बाद आँधी रुकी। उसने समुद्र का वर्णन इस प्रकार किया है:

‘समुद्र असीम है - सूर्य, चाँद या तारों की गति को देखे बिना यह पता लगा पाना असंभव है कि पूर्व किधर है, या पश्चिम किस दिशा में है। अगर बरसात और अंधेरा हो, तो जहाज़ को हवा की रुख में ले जाने के अलावा और कोई चारा नहीं।’

जावा पहुँचने में उसे 90 दिन से भी ज़्यादा लगे। वहाँ वह पाँच महीने के लिए रुका। इसके बाद दूसरे व्यापारी जहाज़ में चढ़कर वह चीन पहुँचा।

मानचित्र 6 (पृष्ठ 77) में फा-शिएन द्वारा तय किए गए रास्ते को ढूँढ़ो।

बताओ कि फा-शिएन अपनी पाण्डुलिपियों और मूर्तियों को क्यों नहीं फेंकना चाहता था।

 

श्वैन त्सांग भू-मार्ग से (उत्तर-पश्चिम और मध्य-एशिया होकर) चीन वापस लौटा। उसने सोने, चाँदी और चंदन की लकड़ी की बनी बुद्ध की मूर्तियाँ तथा 600 से भी ज़्यादा पाण्डुलिपियाँ एकत्र की थीं। इन्हें वह लगभग 20 घोड़ों पर लादकर ले गया। पर इसमें से 50 पाण्डुलिपियाँ उस समय खो गईं, जब सि्ांधु नदी पार करते हुए उसकी नाव उलट गई। अपने जीवन का बाकी हिस्सा उसने बची हुई पाण्डुलिपियों का संस्कृत से चीनी अनुवाद करने में लगा दिया।

नालंदा - शिक्षा का एक विशिष्ट केंद्र

श्वैन त्सांग तथा अन्य तीर्थयात्रियों ने उस समय के सबसे प्रसिद्ध बौद्ध विद्या केंद्र नालंदा (बिहार) में अध्ययन किया। उसने नालंदा के बारे में इस प्रकार लिखा है:

यहाँ के शिक्षक योग्यता तथा बुद्धि में सबसे आगे हैं। बुद्ध के उपदेशों का वह पूरी ईमानदारी से पालन करते हैं। मठ के नियम काफी सख्त हैं, जिन्हें सबको मानना पड़ता है। पूरे दिन वाद-विवाद चलते ही रहते हैं। जिससे युवा और वृद्ध दोनों ही एक-दूसरे की मदद करते हैं। विभिन्न शहरों से विद्वान लोग अपनी शंकाएँ दूर करने यहाँ आते हैं। नए आगन्तुकों से पहले द्वारपाल ही कठिन प्रश्न पूछते हैं। उन्हें अंदर जाने की अनुमति तभी मिलती है, जब वे द्वारपाल को सही उत्तर दे पाते हैं। दस में से सात-आठ सही उत्तर नहीं दे पाते हैं।

श्वैन त्सांग नालंदा में क्यों पढ़ना चाहता था, कारण बताओ?

भक्ति की शुरुआत

इन्हीं दिनों देवी-देवताओं की पूजा का चलन भी शुरू हुआ। बाद में हिन्दू धर्म की यह प्रमुख पहचान बन गई। इनमें शिव, विष्णु और दुर्गा जैसे देवी-देवता शामिल हैं।

इन देवी-देवताओं की पूजा भक्ति परम्परा के माध्यम से की जाती थी। भक्ति उस समय काफी लोकप्रिय परम्परा बन गई। किसी देवी या देवता के प्रति श्रद्धा को ही भक्ति कहा जाता है। भक्ति का पथ सबके लिए खुला था, चाहे वह धनी हो या गरीब, ऊँची जाति का हो या नीची जाति का, स्त्री हो या पुरुष।

भक्ति मार्ग की चर्चा हिन्दुओं के पवित्र ग्रंथ भगवद्गीता में की गई है। भगवद्गीता महाभारत (अध्याय 11 देखो) का एक हिस्सा है। इसमें भगवान कृष्ण अपने भक्त और मित्र अर्जुन को सभी धर्मों को छोड़कर उनकी शरण में आने का उपदेश देते हैं। क्योंकि
केवल कृष्ण ही अर्जुन को सारी बुराइयों से मुक्ति दिला सकते हैं। पूजा का यह रूप धीरे-धीरे देश के विभिन्न भागों में फ़ैलने लगा।

भक्ति मार्ग अपनाने वाले लोग आडंबर के साथ पूजा-पाठ करने के बजाए ईश्वर के प्रति लगन और व्यक्तिगत पूजा पर ज़ोर देते थे।

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वराह के रूप में विष्णु

एरण, मध्य प्रदेश की
यह
शानदार मूर्ति विष्णु के ‘वराह’ रूप की है। पुराणों (अध्याय 11) के अनुसार जल में डूबी पृथ्वी को बचाने के लिए विष्णु ने वराह रूप धारण किया था। यहाँ पृथ्वी को एक स्त्री के रूप में दर्शाया गया है।

भक्ति मार्ग अपनाने वालों का यह मानना है कि अगर अपने आराध्य देवी या देवता की सच्चे मन से पूजा की जाए, तो वह उसी रूप में दर्शन देंगे, जिसमें भक्त उसे देखना चाहता है। इसलिए आराध्य देवी या देवता मानव के रूप में भी हो सकते हैं या फिर सिंह, पेड़ या अन्य किसी भी रूप में। जैसे-जैसे इस विचार को समाज द्वारा स्वीकृति मिलती गई, कलाकार, देवी-देवताओं की एक से बढ़कर एक खूबसूरत मूर्तियाँ तैयार करने लगे।

भक्ति

भक्ति भज् शब्द से बना है, जिसका अर्थ ‘विभाजित करना या हिस्सेदारी’ होता है। इसका अर्थ यह है कि भक्ति, भगवान और भक्त के बीच परस्पर एक अंतरंग संबंध है। भक्ति, भगवत् या भगवान के प्रति झुकाव है। भगवत् का एक अर्थ यह भी है- जो अपने एेश्वर्य तथा सुख को भक्तों के साथ बाँटता है। यानी भक्त या भागवत् अपने देवी-देवता के भग का हिस्सेदार होता है।

एक भक्त द्वारा लिखी गई एक कविता

अधिकांश भक्ति साहित्य हमें यही बताते हैं कि धन, एेश्वर्य या ऊँचे पद के ज़रिए कभी ईश्वर से आत्मीयता नहीं बन सकती। करीब 1400 साल पहले शिवभक्त अप्पार द्वारा तमिल में लिखी एक कविता का यह एक अंश है। अप्पार एक वेल्लाल (अध्याय 8) था।

‘नष्ट होते अंगों वाला कुष्ठ रोगी

ब्राह्मणों की नज़र में निचली जाति का व्यक्ति।

कूड़ा करकट बटोर कर अपनी जीविका चलाने वाला इंसान,

अगर ये लोग भी गंगा को अपनी जटाओं में छिपा लेने वाले

शिव के दास बन जाएँ, तो मैं उनकी आराधना करूँगा।

क्योंकि वे मेरे ईश्वर समान हैं।’

कवि सामाजिक प्रतिष्ठा और भक्ति में किसको ज़्यादा महत्व देते हैं?


देवी-देवताओं का विशेष सम्मान होता था। इसलिए विशेष जगहों पर ही इनकी मूर्तियों को रखा जाता था। इन स्थानों को ही मंदिर कहते हैं।
अध्याय 11 में तुम इन मंदिरों के बारे में पढ़ोगी।

भक्ति परम्परा ने चित्रकला, शिल्पकला और स्थापत्य कला के माध्यम से अभिव्यक्ति की प्रेरणा दी है।

हिन्दू

‘हिन्दू’ शब्द ‘इण्डिया’ शब्द की तरह ही सि्ांधु या इण्डस से निकला है। यह शब्द अरबों तथा ईरानियों द्वारा उन लोगों के लिए उपयोग किया जाता था, जो सि्ांधु नदी के पूर्व में रहते थे। यही शब्द उनके धार्मिक विश्वास तथा सांस्कृतिक परम्पराओं के लिए भी प्रयुक्त होता था।


अन्यत्र

करीब 2000 साल पहले पश्चिमी एशिया में ईसाई धर्म का उदय हुआ। ईसा मसीह का जन्म बेथलेहम में हुआ, जो उस समय रोमन साम्राज्य का हिस्सा था। ईसा मसीह ने स्वयं को इस संसार का उद्धारक बताया। उन्होंने दूसरों को प्यार देने और उसी तरह दूसरों पर विश्वास करने का उपदेश दिया, जिस तरह हर व्यक्ति दूसरों से प्यार और विश्वास की उम्मीद करता है।

बाइबिल में ईसा मसीह के उपदेश की बातें लिखी हैं। यहाँ इसका एक अंश दिया गया है:

धन्य हैं वे लोग जो धर्म और न्याय के लिए भूखे प्यासे रहते हैं,

उनकी कामनाएँ पूरी होंगी।

जो दयालु हैं, वे धन्य हैं, क्योंकि उन्हें दया मिलेगी।

धन्य हैं वे जो दिल से पवित्र हैं,

क्योंकि वे ईश्वर के दर्शन कर सकेंगे।

धन्य हैं वे जो शांति स्थापित करते हैं,

वही ईश्वर की संतान कहलाएँगे।

ईसा मसीह के उपदेश साधारण लोगों को बहुत पसंद आए और धीरे-धीरे यह पश्चिमी एशिया, अफ़्रीका तथा यूरोप में फैल गए। ईसा मसीह की मृत्यु के सौ सालों के अंदर ही भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमी तट पर पहले ईसाई धर्म प्रचारक, पश्चिमी एशिया से आए।

मानचित्र 6 (पृष्ठ 76-77) देखो और पता लगाओ कि किस रास्ते से ईसाई धर्म प्रचारक भारत आए होंगे?

केरल के ईसाईयों को ‘सिरियाई ईसाई’ कहा जाता है क्योंकि संभवतः वे पश्चिम एशिया से आए थे, वे विश्व के सबसे पुराने ईसाईयों में से हैं।


कल्पना करो

तुम्हारे पास कोई पाण्डुलिपि है, जिसे एक चीनी तीर्थयात्री अपने साथ ले जाना चाहता है। उसके साथ अपनी बातचीत का वर्णन करो।


उपयोगी शब्द

व्यापारी

मुवेन्दार

रास्ता या मार्ग

रेशम

कुषाण

महायान

बोधिसत्त्व

थेरवाद

तीर्थयात्री

भक्ति


कुछ महत्वपूर्ण तिथियाँ


रेशम बनाने की कला की खोज

(लगभग 7000 साल पहले)

 चोल, चेर तथा पांड्य

(लगभग 2300 साल पूर्व)

रोमन-साम्राज्य में रेशम की बढ़ती मांग

(लगभग 2000 साल पहले)

कुषाण शासक कनिष्क

(लगभग 1900 साल पहले)

फा-शिएन का भारत आगमन

(लगभग 1600 वर्ष पहले)

श्वैन त्सांग की भारत यात्रा, अप्पार की शिव स्तुति की रचना

(लगभग 1400 साल पहले)


आओ याद करें

1. निम्नलिखित के उपयुक्त जोड़े बनाओ

दक्षिणापथ के स्वामी  बुद्धचरित
मुवेन्दार  महायान बौद्ध धर्म
अश्वघोष  सातवाहन शासक
बोधिसत्त्व  चीनी यात्री
श्वैन त्सांग  चोल, चेर, पांड्य


2. राजा सिल्क रूट पर अपना नियंत्रण क्यों कायम करना चाहते थे?

3. व्यापार तथा व्यापारिक रास्तों के बारे में जानने के लिए इतिहासकार किन-किन साक्ष्यों का उपयोग करते हैं?

4. भक्ति की प्रमुख विशेषताएँ क्या थीं?

आओ चर्चा करें

5. चीनी तीर्थयात्री भारत क्यों आए? कारण बताओ।

6. साधारण लोगों का भक्ति के प्रति आकर्षित होने का कौन-सा कारण होता है?

आओ करके देखें

7. तुम बाज़ार से क्या-क्या सामान खरीदती हो उनकी एक सूची बनाओ। बताओ कि तुम जिस शहर या गाँव में रहती हो, वहाँ इनमें से कौन-कौन सी चीज़ें बनी थीं और किन चीज़ों को व्यापारी बाहर से लाए थे?

8. आज भारत में लोग बहुत तीर्थयात्राएँ करते हैं। उनमें से एक के विषय में पता करो और एक संक्षिप्त विवरण दो। (संकेत: तीर्थयात्रा में स्त्री, पुरुष या बच्चों में से कौन जा सकते हैं? इसमें कितना वक्त लगता है? लोग किस तरह यात्रा करते हैं? वे अपनी यात्रा के दौरान क्या-क्या ले जाते हैं? तीर्थ स्थानों पर पहुँंचकर वे क्या करते हैं? क्या वे वापस आते समय कुछ लाते हैं?)