Our Past -3

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दिल्ली के सुलतान




हमने अध्याय 2 में देखा कि कावेरी डेल्टा जैसे क्षेत्र बड़े राज्यों के केंद्र बन गये थे। क्या आपने गौर किया कि अध्याय 2 में एेसे किसी राज्य का ज़िक्र नहीं है जिसकी राजधानी दिल्ली रही हो? इसकी वजह यह है कि दिल्ली महत्त्वपूर्ण शहर बारहवीं शताब्दी में ही बना।


तालिका 1 पर नज़र डालिए। पहले पहल तोमर राजपूतों के काल में दिल्ली किस साम्राज्य की राजधानी बनी। बारहवीं सदी के मध्य में तोमरों को अजमेर के चौहानों (जिन्हें चाहमान नाम से भी जाना जाता है) ने परास्त किया। तोमरों और चौहानों के राज्यकाल में ही दिल्ली वाणिज्य का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र बन गया। इस शहर में बहुत सारे समृद्धिशाली जैन व्यापारी रहते थे जिन्होंने अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया। यहाँ देहलीवाल कहे जाने वाले सिक्के भी ढाले जाते थे जो का.फी प्रचलन में थे।

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मानचित्र 1 तेरहवीं-चौदहवीं सदी में दिल्ली सल्तनत के कुछ चुने हुए शहर।


तेरहवीं सदी के आरंभ में दिल्ली सल्तनत की स्थापना हुई और इसके साथ दिल्ली एक एेसी राजधानी में बदल गई जिसका नियंत्रण इस उपमहाद्वीप के बहुत बड़े क्षेत्र पर फैला था। तालिका 1 पर फिर से नज़र डालिए और उन पाँच वंशों की पहचान कीजिए जिनसे मिलकर दिल्ली की सल्तनत बनी।

जिस इलाके को हम आज दिल्ली के नाम से जानते हैं, वहाँ इन सुलतानों ने अनेक नगर बसाए। मानचित्र 1 को देखकर देहली-ए कुह्ना, सीरी और जहाँपनाह को पहचानिए।

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दिल्ली के सुलतानों के बारे में जानकारी – कैसे?

हालाँकि अभिलेख, सिक्कों और स्थापत्य (भवन निर्माण कला) के माध्यम से काफ़ी सूचना मिलती है, मगर और भी महत्त्वपूर्ण वे ‘इतिहास’, तारीख (एकवचन) / तवारीख (बहुवचन) हैं जो सुलतानों के शासनकाल में, प्रशासन की भाषा फ़ारसी में लिखे गए थे।

तवारीख के लेखक सचिव, प्रशासक, कवि और दरबारियों जैसे सुशिक्षित व्यक्ति होते थे जो घटनाओं का वर्णन भी करते थे और शासकों को प्रशासन संबंधी सलाह भी देते थे। वे न्यायसंगत शासन के महत्त्व पर बल देते थे।

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चित्र 1
पांडुलिपि को तैयार करने के चार चरणः
1. कागज़ तैयार करना
2. लेखन-कार्य
3. महत्त्वपूर्ण शब्दों और अनुच्छेदाें की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए सोने को पिघला कर उसका प्रयोग
4. जिल्द तैयार करना

न्याय-चक्र
तेरहवीं सदी के इतिहासकार फ़ख्र-ए मुदब्बिर ने लिखा थाः
राजा का काम सैनिकों के बिना नहीं चल सकता। सैनिक वेतन के बिना नहीं जी सकते। वेतन आता है किसानों से एकत्रित किए गए राजस्व से। मगर किसान भी राजस्व तभी चुका सकेंगे, जब वे खुशहाल और प्रसन्न हों। एेसा तभी हो सकता है, जब राजा न्याय और ईमानदार प्रशासन को बढ़ावा दे।

क्या आपको लगता है कि न्याय-चक्र राजा और प्रजा के बीच के संबंध को समझाने के लिए उपयुक्त शब्द है?

ये कुछ और बातें ध्यान में रखें: (1) तवारीख के लेखक नगरों में (विशेषकर दिल्ली में) रहते थे, गाँव में शायद ही कभी रहते हों। (2) वे अकसर अपने इतिहास सुलतानों के लिए, उनसे ढेर सारे इनाम-इकराम पाने की आशा में लिखा करते थे। (3) ये लेखक अकसर शासकों को जन्मसिद्ध अधिकार और लिंगभेद पर आधारित ‘आदर्श’ समाज व्यवस्था बनाए रखने की सलाह देते थे। उनके विचारों से सारे लोग सहमत नहीं होते थे।

सन् 1236 में सुलतान इल्तुतमिश की बेटी रज़िया सिंहासन पर बैठी। उस युग के इतिहासकार मिन्हाज-ए-सिराज ने स्वीकार किया है कि वह अपने सभी भाइयों से अधिक योग्य और सक्षम थी, लेकिन फिर भी वह एक रानी को शासक के रूप में मान्यता नहीं दे पा रहा था। दरबारी जन भी उसके स्वतंत्र रूप से शासन करने की कोशिशों से प्रसन्न नहीं थे। सन् 1240 में उसे सिंहासन से हटा दिया गया।

जन्मसिद्ध अधिकार
जन्म के आधार पर विशेषाधिकार का दावा। उदाहरण के लिए, लोग मानते थे कि कुलीन व्यक्तियों को, कुछ खास परिवारों में जन्म लेने के कारण शासन करने का अधिकार विरासत में मिलता है।

लिंगभेद
स्त्रियों तथा पुरुषों के बीच सामाजिक तथा शरीर-रचना संबंधी अंतर। आमतौर पर यह तर्क दिया जाता है कि एेसे अंतर के कारण पुरुष स्त्रियों की तुलना में श्रेष्ठ होते हैं।

रज़िया के बारे में मिन्हाज-ए-सिराज के विचार
मिन्हाज-ए-सिराज का सोचना था कि ईश्वर ने जो आदर्श समाज व्यवस्था बनाई है उसके अनुसार स्त्रियों को पुरुषों के अधीन होना चाहिए और रानी का शासन इस व्यवस्था के विरुद्ध जाता था। इसलिए वह पूछता है: "खुदा की रचना के खाते में उसका ब्यौरा चूँकि मर्दों की सूची में नहीं आता, इसलिए इतनी शानदार खूबियों से भी उसे आखिर हासिल क्या हुआ?"
रज़िया ने अपने अभिलेखों और सिक्कों पर अंकित करवाया कि वह सुलतान इल्तुतमिश की बेटी थी। आधुनिक आंध्र प्रदेश के वारंगल क्षेत्र में किसी समय काकतीय वंश का राज्य था। उस वंश की रानी रुद्रम्मा देवी (1262-1289) के व्यवहार से रज़िया का व्यवहार बिलकुल विपरीत था। रुद्रम्मा देवी ने अपने अभिलेखों में अपना नाम पुरुषों जैसा लिखवाकर अपने पुरुष होने का भ्रम पैदा किया था। एक और महिला शासक थी–कश्मीर की रानी दिद्दा (980-1003)। उनका नाम ‘दीदी’ (बड़ी बहन) से निकला है। ज़ाहिर है प्रजा ने अपनी प्रिय रानी को यह स्नेहभरा संबोधन दिया होगा।
मिन्हाज के विचार अपने शब्दों में व्यक्त कीजिए। क्या आपको लगता है कि रज़िया के विचार भी यही थे? आप के अनुसार, स्त्री के लिए शासक बनना इतना कठिन क्यों था?

दिल्ली सल्तनत का विस्तार – गैरिसन शहर से साम्राज्य तक   

तेरहवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में दिल्ली के सुलतानों का शासन गैरिसनों (रक्षक सैनिकों की टुकड़ियों) के निवास के लिए बने मज़बूत किलेबंद शहरों से परे शायद ही कभी फैला हो। शहरों से संबद्ध, लेकिन उनसे दूर भीतरी प्रदेशों पर उनका नियंत्रण न के बराबर था और इसलिए उन्हें आवश्यक सामग्री, रसद आदि के लिए व्यापार, कर या लूटमार पर ही निर्भर रहना पड़ता था।
मानचित्र 2
शमसुद्दीन इल्तुतमिश द्वारा जीते गए प्रमुख शहर



दिल्ली से सुदूर बंगाल और सिंध के गैरिसन शहरों का नियंत्रण बहुत ही कठिन था। बगावत, युद्ध, यहाँ तक कि खराब मौसम से भी उनसे संपर्क के नाज़ुक सूत्र छिन्न-भिन्न हो जाते थे। शासन को अफ़गानिस्तान से आनेवाले हमलावरों और उन सूबेदारों से बराबर चुनौती मिलती रहती थी, जो ज़रा-सी कमज़ोरी का आभास मिलते ही विद्रोह का झंडा खड़ा कर देते थे। इन चुनौतियों के चलते सल्तनत बड़ी मुश्किल से किसी तरह अपने आपको बचाए हुए थी। इसका संस्थापन ग़यासुद्दीन बलबन के शासन काल में हुआ और इसका विस्तार अलाउद्दीन ख़लजी और मुहम्मद तुग़लक़ के राज्यकाल में हुआ।


भीतरी प्रदेश 

किसी शहर या बंदरगाह के आस-पास के इलाके जो उस शहर के लिए वस्तुओं और सेवाओं की पूर्ति करें।


गैरिसन शहर

किलेबंद बसाव जहाँ सैनिक रहते हैं।


सल्तनत की ‘भीतरी सीमाओं’ में जो अभियान चले उनका लक्ष्य था गैरिसन शहरों की पृष्ठभूमि में स्थित भीतरी क्षेत्रों की स्थिति को मज़बूत करना। इन अभियानों के दौरान गंगा-यमुना के दोआब से जंगलों को साफ़ कर दिया गया और शिकारी-संग्राहकों तथा चरवाहों को उनके पर्यावास से खदेड़ दिया गया। वह ज़मीन किसानों को दे दी गई और कृषि-कार्य को प्रोत्साहन दिया गया। व्यापार-मार्गों की सुरक्षा और क्षेत्रीय व्यापार की उन्नति की खातिर नए किले, गैरिसन शहर और शहर बनाए-बसाए गए।

दूसरा विस्तार सल्तनत की बाहरी सीमा पर हुआ। अलाउद्दीन ख़लजी के शासनकाल में दक्षिण भारत को लक्ष्य करके सैनिक अभियान शुरू हुए (देखें, मानचित्र 3) और ये अभियान मुहम्मद तुग़लक के समय में अपनी चरम सीमा पर पहुँचे। इन अभियानों में सल्तनत की सेनाओं ने हाथी, घोड़े, गुलाम और मूल्यवान धातुएँ अपने कब्ज़े में ले लीं।


दिल्ली सल्तनत की सेनाओं की शुरुआत अपेक्षाकृत कमज़ोर थी, मगर डेढ़ सौ वर्ष बाद, मुहम्मद तुग़लक़ के राज्यकाल के अंत तक इस उपमहाद्वीप का एक विशाल क्षेत्र इसके युद्ध-अभियान के अंतर्गत आ चुका था। इसने शत्रुओं की सेनाओं को परास्त किया और शहरों पर कब्ज़ा किया। इसके सूबेदार और प्रशासक मुकदमों में फ़ैसले सुनाते थे और साथ ही किसानों से कर वसूल करते थे। लेकिन इतने विशाल क्षेत्र पर इनका नियंत्रण किस सीमा तक और कितना प्रभावी था?



मानचित्र 3

अलाउद्दीन ख़लजी का दक्षिण भारत अभियान




चित्र 2

बारहवीं सदी के आखिरी दशक में बनी क़ुव्वत अल-इस्लाम मसजिद तथा उसकी मीनारें। यह जामा मसजिद दिल्ली के सुलतानों द्वारा बनाए गए सबसे पहले शहर में स्थित है। इतिहास में इस शहर को देहली-ए कुह्ना (पुराना शहर) कहा गया है। इस मसजिद का इल्तुतमिश और अलाउद्दीन ख़लजी ने और विस्तार किया। मीनार तीन सुलतानों-क़ुत्बउद्दीन एेबक, इल्तुतमिश और फ़िरोज़शाह तुग़लक़ द्वारा बनवाई  गई थी।


मसजिद

यह अरबी का शब्द है, जिसका शाब्दिक अर्थ है–एेसा स्थान जहाँ मुसलमान अल्लाह की आराधना में सज़दा (घुटने और माथा टेककर) करते हैं। जामा मसजिद (या मसजिद-ए-जामी) वह मसजिद होती है, जहाँ अनेक मुसलमान एकत्र होकर साथ-साथ नमाज़ पढ़ते हैं। नमाज़ की रस्म के लिए सारे नमाज़ियों में से सबसे अधिक सम्माननीय और विद्वान पुरुष को इमाम (नेता) के रूप में चुना जाता है। इमाम शुक्रवार की नमाज़ के दौरान धर्मोपदेश (खुतबा) भी देता है। 

नमाज़ के दौरान मुसलमान मक्का की तरफ़ मुँह करके खड़े होते हैं। भारत में मक्का पश्चिम की ओर पड़ता है। मक्का की ओर की दिशा को ‘किबला’ कहा जाता है।


ख़लजी और तुग़ लक़ वंश के अंतर्गत प्रशासन और समेकन – नज़दीक से एक नज़र



चित्र 3
बेगमपुरी मसजिद। यह मुहम्मद तुग़लक़ के राज्यकाल में, दिल्ली में उसकी नयी राजधानी जहाँपनाह (विश्व की शरणस्थली) की मुख्य मसजिद के तौर पर बनाई गई थी। मानचित्र 1 में जहाँपनाह को ढूँढिए।






चित्र 4
मोठ की मसजिद, सिकंदर लोदी के शासनकाल में यह उसके मंत्री द्वारा बनवाई गई।
चित्र 5
जमाली कमाली की मसजिद, 1520 के दशक के आखिरी दिनों में निर्मित।

चित्र 2, 3, 4 एवं 5 की तुलना कीजिए। इन मसजिदों की समानताएँ और असमानताएँ ढूँढ निकालने की कोशिश कीजिए। चित्र 3, 4, 5 में स्थापत्य की उस परंपरा का विकास दिखाई देता है, जिसकी चरम सीमा हमें दिल्ली में शाहजहाँ की मसजिद में दिखाई देती है (अध्याय5 में चित्र 7 देखें)।


ख़लजी और तुग़ लव़फ़ वंश के अंतर्गत प्रशासन और समेकन - नजदीक से एक नजर

दिल्ली सल्तनत जैसे विशाल साम्राज्य के समेकन के लिए विश्वसनीय सूबेदारों तथा प्रशासकों की ज़रूरत थी। दिल्ली के आरंभिक सुलतान, विशेषकर इल्तुतमिश, सामंतों और ज़मींदारों के स्थान पर अपने विशेष गुलामों को सूबेदार नियुक्त करना अधिक पसंद करते थे। इन गुलामों को फ़ारसी में बंदगाँ कहा जाता है तथा इन्हें सैनिक सेवा के लिए खरीदा जाता था। उन्हें राज्य के कुछ बहुत ही महत्त्वपूर्ण राजनीतिक पदों पर काम करने के लिए बड़ी सावधानी से प्रशिक्षित किया जाता था। वे चूँकि पूरी तरह अपने मालिक पर निर्भर होते थे, इसलिए सुलतान भी विश्वास करके उन पर निर्भर हो सकते थे।

दिल्ली के सुलतानों ने सारे उपमहाद्वीप के अनेक शहरों में मसजिदें बनवाईं। इससे उनके मुसलमान और इस्लाम के रक्षक होने के दावे को बल मिलता था। समान आचार संहिता और आस्था का पालन करने वाले श्रद्धालुओं के परस्पर एक समुदाय से जुड़े होने का बोध उत्पन्न करने में भी मसजिदें सहायक थीं। एक समुदाय का अंग होने के बोध को प्रबल करना ज़रूरी था क्योंकि मुसलमान अनेक भिन्न-भिन्न प्रकार की पृष्ठभूमियों से आते थे।

बेटों से बढ़कर ग़ुलाम

सुलतानों को सलाह दी जाती थी:

जिस ग़ुलाम को हमने पाला-पोसा और आगे बढ़ाया है, उसकी हमें देखभाल करनी चाहिए, क्योंकि तकदीर अच्छी हो, तभी पूरी ज़िंदगी में कभी-कभी ही योग्य और अनुभवी ग़ुलाम मिलता है। बुद्धिमानों का कहना है कि योग्य और अनुभवी ग़ुलाम बेटे से भी बढ़कर होता है...

क्या आपको ग़ुलाम को बेटे से बढ़कर मानने का कोई कारण समझ में आता है?


ख़लजी तथा तुग़लक़ शासक बंदगाँ का इस्तेमाल करते रहे और साथ ही अपने पर आश्रित निम्न वर्ग के लोगों को भी ऊँचे राजनीतिक पदों पर बैठाते रहे। एेसे लोगों को सेनापति और सूबेदार जैसे पद दिए जाते थे। लेकिन इससे राजनीतिक अस्थिरता भी पैदा होने लगी।


गुलाम और आश्रित अपने मालिकों और संरक्षकों के प्रति तो वफ़ादार रहते थे मगर उनके उत्तराधिकारियों के प्रति नहीं। नए सुलतानों के अपने नौकर होते थे। फलस्वरूप किसी नए शासक के सिंहासन पर बैठते ही प्रायः नए और पुराने सरदारों के बीच टकराहट शुरू हो जाती थी। सुलतानों द्वारा निचले तबके के लोगों को संरक्षण दिए जाने के कारण उच्च वर्ग के कई लोगों को गहरा धक्का भी लगता था और फ़ारसी तवारीख के लेखकों ने ‘निचले खानदान’ के लोगों को ऊँचे पदों पर बैठाने के लिए दिल्ली के सुलतानों की आलोचना भी की है।


आश्रित

जो किसी अन्य व्यक्ति के संरक्षण में रहता हो, उस पर निर्भर हो।


सुलतान मुहम्मद तुग़लक़ के अधिकारीजन

सुलतान मुहम्मद तुग़लक़ ने अज़ीज खुम्मार नामक कलाल (शराब बनाने और बेचने वाला), फ़िरुज़ हज्जाम नामक नाई, मनका तब्बाख नामक बावर्ची और लड्ढा तथा पीरा नामक मालियों को ऊँचे प्रशासनिक पदों पर बैठाया था। चौदहवीं शताब्दी के मध्य के इतिहासकार ज़ियाउद्दीन बरनी ने इन नियुक्तियों का उल्लेख सुलतान के राजनीतिक विवेक के नाश और शासन करने की अक्षमता के उदाहरणों के रूप में किया है।

आपके ख्याल से बरनी ने सुलतान की आलोचना क्यों की थी?


पहले वाले सुलतानों की ही तरह ख़लजी और तुग़लक़ शासकों ने भी सेनानायकों को भिन्न-भिन्न आकार के इलाकों के सूबेदार के रूप में नियुक्त किया। ये इलाके इक़्ता कहलाते थे और इन्हें सँभालने वाले अधिकारी इक़्तदार या मुक़्ती कहे जाते थे। मुक़्ती का फ़र्ज था सैनिक अभियानों का नेतृत्व करना और अपने इक़्तों में कानून और व्यवस्था बनाए रखना। अपनी सैनिक सेवाओं के बदले वेतन के रूप में मुक़्ती अपने इलाकों से राजस्व की वसूली किया करते थे। राजस्व के रूप में मिली रकम से ही वे अपने सैनिकों को भी तनख्वाह देते थे। मुक़्ती लोगों पर काबू रखने का सबसे प्रभावी तरीका यह था कि उनका पद वंश-परंपरा से न चले और उन्हें कोई भी इक़्ता थोड़े-थोड़े समय के लिए ही मिले, जिसके बाद उनका स्थानांतरण कर दिया जाए। सुलतान अलाउद्दीन ख़लजी और मुहम्मद तुग़लक़ के शासनकाल में नौकरी के इन कठोर नियमों का बड़ी सख्ती से पालन होता था। मुक़्ती लोगों द्वारा एकत्रित किए गए राजस्व की रकम का हिसाब लेने के लिए राज्य द्वारा लेखा अधिकारी नियुक्त किए जाते थे। इस बात का ध्यान रखा जाता था कि मुक़्ती राज्य द्वारा निर्धारित कर ही वसूलें और तय संख्या के अनुसार सैनिक रखें।


जब दिल्ली के सुलतान शहरों से दूर आंतरिक इलाकों को भी अपने अधिकार में ले आए तो उन्होंने भूमि के स्वामी सामंतों और अमीर ज़मींदारों को भी अपनी सत्ता के आगे झुकने को बाध्य कर दिया। अलाउद्दीन ख़लजी के शासनकाल में भू-राजस्व के निर्धारण और वसूली के कार्य को राज्य अपने नियंत्रण में ले आया। स्थानीय सामंतों से कर लगाने का अधिकार छीन लिया गया, बल्कि स्वयं उन्हें भी कर चुकाने को बाध्य किया गया। सुलतान के प्रशासकों ने ज़मीन की पैमाइश की और इसका हिसाब बड़ी सावधानी से रखा। कुछ पुराने सामंत और ज़मींदार राजस्व के निर्धारण और वसूली अधिकारी के रूप में सल्तनत की नौकरी करने लगे। उस समय तीन तरह के कर थे: (1) कृषि पर, जिसे खराज कहा जाता था और जो किसान की उपज का लगभग पचास प्रतिशत होता था; (2) मवेशियों पर; तथा (3) घरों पर।

यह याद रखना ज़रूरी है कि इस उपमहाद्वीप का काफ़ी बड़ा हिस्सा दिल्ली के सुलतानों के अधिकार से बाहर ही था। दिल्ली से बंगाल जैसे सुदूर प्रांतों का नियंत्रण कठिन था और दक्षिण भारत की विजय के तुरंत बाद ही वह पूरा क्षेत्र फिर-से स्वतंत्र हो गया था। यहाँ तक कि गंगा के मैदानी इलाके में भी घने जंगलों वाले एेसे क्षेत्र थे, जिनमें पैठने में सुलतान की सेनाएँ अक्षम थीं। स्थानीय सरदारों ने इन क्षेत्रों में अपना शासन जमा लिया। अलाउद्दीन ख़लजी और मुहम्मद तुग़लक़ इन इलाकों पर ज़ोर-ज़बरदस्ती अपना अधिकार जमा तो लेते थे, पर वह अधिकार कुछ ही समय तक रह पाता था।

सरदार और उनकी किलेबंदी

अप्ऱηीकी देश, मोरक्को से चौदहवीं सदी में भारत आए यात्री इब्न बतूता ने बतलाया है कि सरदार कभी-कभी

चट्टानी, ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी इलाकों में किले बनाकर रहते थे और कभी-कभी बाँस के झुरमुटों में। भारत में बाँस पोला नहीं होता। यह बहुत बड़ा होता है। इसके अलग-अलग हिस्से आपस में इस तरह से गुँथे होते हैं कि उन पर आग का भी असर नहीं होता और वे कुल मिलाकर बहुत ही मज़बूत होते हैं। सरदार इन जंगलों में रहते हैं, जो इनके लिए किले की प्राचीर का काम देते हैं। इस दीवार के घेरे में ही उनके मवेशी और फ़सल रहते हैं। अंदर ही पानी भी उपलब्ध रहता है, अर्थात् वहाँ एकत्रित हुआ वर्षा का जल। इसलिए उन्हें प्रबल बलशाली सेनाओं के बिना हराया नहीं जा सकता। ये सेनाएँ जंगल में घुसकर खासतौर से तैयार किए गए औज़ारों से बाँसों को काट डालती हैं।

सरदारों की रक्षा-व्यवस्था का वर्णन कीजिए।


चंग़ेज़ ख़ान के नेतृत्व में मंगोलों ने 1219 में उत्तर-पूर्वी ईरान में ट्रांसअॉक्ससियाना (आधुनिक उज़बेकिस्तान) पर हमला किया और इसके शीघ्र बाद ही दिल्ली सल्तनत को उनका धावा झेलना पड़ा। अलाउद्दीन ख़लजी और मुहम्मद तुग़लक़ के शासनकालों के आरंभ में दिल्ली पर मंगोलों के धावे बढ़ गए। इससे मज़बूर होकर दोनों ही सुलतानों को एक विशाल स्थानीय सेना खड़ी करनी पड़ी। इतनी विशाल सेना को सँभालना प्रशासन के लिए भारी चुनौती थी। आइए, देखें कि दोनों सुलतानोें ने इस चुनौती का सामना कैसे किया।


इन तमाम असफलताओं की गिनती करने में हम कभी-कभी भूल जाते हैं कि सल्तनत के इतिहास में पहली बार दिल्ली के किसी सुलतान ने मंगोल इलाके को फ़तह करने के अभियान की योजना बनाई थी। जहाँ अलाउद्दीन ख़लजी का बल प्रतिरक्षा पर था, वहाँ मुहम्मद तुग़लक़ के द्वारा उठाए गए कदम मंगोलों के विरुद्ध सैनिक आक्रमण की योजना का हिस्सा थे।

पंद्रहवीं तथा सोलहवीं शताब्दी में सल्तनत

तालिका 1 को फिर से देखें। आप पाएँगें कि तुग़लक़ वंश के बाद 1526 तक दिल्ली तथा आगरा पर सैयद तथा लोदी वंशों का राज्य रहा। तब तक जौनपुर, बंगाल, मालवा, गुजरात, राजस्थान तथा पूरे दक्षिण भारत में स्वतंत्र शासक उठ खड़े हुए थे। उनकी राजधानियाँ समृद्ध थीं और राज्य फल-फूल रहे थे। इसी काल में अफ़गान तथा राजपूतों जैसे नए शासक समूह भी उभरे।


अलाउद्दीन ख़लजी मुहम्मद तुग़ लक़
दिल्ली पर दो बार हमले हुएः 1299/1300 में और 1302-1303 में। इनका सामना करने के लिए अलाउद्दीन ख़लजी ने एक विशाल स्थायी सेना खड़ी की। मुहम्मद तुग़लक़ के शासन के प्रारंभिक वर्षों में सल्तनत पर हमला हुआ। मंगोल सेना परास्त हो गई। मुहम्मद तुग़लक़ को अपनी सेना की शक्ति और अपने संसाधनों पर इतना विश्वास था कि उसने ट्रांसअॉक्ससियाना पर आक्रमण की योजना बना ली। एक स्थायी सेना तैयार करना उसका आक्रामक कदम था।
अलाउद्दीन ख़लजी ने अपने सैनिकों के लिए सीरी नामक एक नया गैरिसन शहर बनाया। मानचित्र 1 में इस शहर को ढूँढिए। नया गैरिसन शहर बनाने के स्थान पर दिल्ली के चार शहरों में से सबसे पुराने शहर देहली-ए कुह्ना को निवासियोें से खाली करवा कर वहाँ सैनिक छावनी बना दी गई। पुराने शहर के निवासियों को दक्षिण में बनी नयी राजधानी दौलताबाद भेज दिया गया।
सैनिकों के पेट भरने की समस्या को गंगा-यमुना के बीच की भूमि से कर के रूप में खेती की पैदावार इकट्ठी करके हल किया गया। किसानों की पैदावार का 50 प्रतिशत हिस्सा कर के तौर पर तय कर दिया गया था। सेना को खिलाने के लिए उसी इलाके से खाद्यान्न इकट्ठा किया गया। लेकिन सैनिकों की विशाल संख्या की ज़रूरतें पूरी करने के लिए सुलतान ने अतिरिक्त कर भी लगाए। इसी दौरान उस क्षेत्र में अकाल भी पड़ा।
सैनिकों को वेतन भी देना होता था। अलाउद्दीन ने सैनिकों को इक़्ता के स्थान पर नकद वेतन देना तय किया। सैनिक अपना आवश्यक सामान दिल्ली के व्यापारियों से खरीदते थे और यह आशंका  थी कि व्यापारी अपनी चीज़ों की कीमतें बढ़ा देंगे। इसे रोकने के लिए अलाउद्दीन ने दिल्ली में चीज़ों की कीमतों पर नियंत्रण लागू कर दिया। अफ़सर बड़ी सावधानी से कीमतों का सर्वेक्षण करते थे और जो व्यापारी निश्चित दरों का उल्लंघन करते थे, उन्हें सज़ा मिलती थी। मुहम्मद तुग़लक़ भी अपने सैनिकों को नकद वेतन देता था। लेकिन कीमतों पर नियंत्रण करने की जगह उसने कुछ-कुछ आज की कागज़ी मुद्रा की तरह ‘टोकन’ (सांकेतिक) मुद्रा चलाई। ये सिक्के धातु के बने होते थे लेकिन सोने-चाँदी के न होकर सस्ती धातु के। चौदहवीं सदी के लोगों को इस मुद्रा पर भरोसा नहीं था। वे बड़े चतुर थे। अपने सोने-चाँदी के सिक्के वे बचाकर रख लेते थे और अपने तमाम कर इस टोकन मुद्रा से ही चुकाते थे। इस सस्ती मुद्रा जैसे जाली सिक्के भी बड़ी आसानी से बनाए जा सकते थे।
अलाउद्दीन के प्रशासनिक कदम काफ़ी सफल रहे और इतिहासकारों ने कीमतों में कमी और बाज़ार में वस्तुओं की कुशलता से आपूर्ति के लिए उसके शासनकाल की बहुत प्रशंसा की है। मंगोल आक्रमणों के खतरे का भी उसने सफलतापूर्वक सामना किया। मुहम्मद तुग़लक़ द्वारा उठाए गए प्रशासनिक कदम बेहद असफल रहे। कश्मीर पर उसका आक्रमण पूरी तरह विफल रहा था। तब उसने तूरान पर हमला करने का इरादा छोड़ दिया और अपनी विशाल सेना को भंग कर दिया। इस बीच उसने प्रशासन संबंधी जो कदम उठाए थे, उनसे कई परेशानियाँ पैदा हो गईं। दौलताबाद ले जाए जाने से लोग बहुत नाराज़ थे। करों में वृद्धि और गंगा-यमुना के दोआब में अकाल से विक्षुब्ध जनता, बगावत पर उतर आई और मुहम्मद तुग़लक़ को अंततः टोकन मुद्रा भी वापस लेनी पड़ी।


इस काल में स्थापित राज्यों में से कुछ छोटे तो थे पर शक्तिशाली थे और उनका शासन बहुत ही कुशल तथा सुव्यवस्थित तरीके से चल रहा था। शेरशाह सूर (1540-1545) ने बिहार में अपने चाचा के एक छोटे-से इलाके के प्रबंधक के रूप में काम शुरू किया था और आगे चलकर उसने इतनी उन्नति की कि मुग़ल सम्राट हुमायूँ (1530-1540, 1555-1556) तक को चुनौती दी और परास्त किया। शेरशाह ने दिल्ली पर अधिकार करके स्वयं अपना राजवंश स्थापित किया। सूर वंश ने केवल पंद्रह वर्ष (1540-1555) शासन किया, लेकिन इसके प्रशासन ने अलाउद्दीन ख़लजी वाले कई तरीकों को अपनाकर उन्हें और भी चुस्त बना दिया। महान सम्राट अकबर (1556-1605) ने जब मुग़ल साम्राज्य को समेकित किया, तो उसने अपने प्रतिमान के रूप में शेरशाह की प्रशासन व्यवस्था को ही अपनाया था।


अन्यत्र

‘तीन श्रेणियाँ’, ‘ईश्वरीय शांति’, नाइट और धर्मयुद्ध

तीन श्रेणियों का विचार सबसे पहले ग्यारहवीं शताब्दी के आरंभ में फ्रांस में सूत्रबद्ध किया गया। इसके अनुसार समाज को तीन वर्गों में विभाजित किया गया–प्रार्थना करने वाला वर्ग, युद्ध करने वाला वर्ग और खेती करने वाला वर्ग। तीन वर्गों में समाज के इस विभाजन को ईसाई धर्म का समर्थन भी प्राप्त था। इस विभाजन से ईसाई धर्म को समाज मेें अपने प्रबल प्रभाव को और भी दृढ़ करने में सहायता मिलती थी। इसी विभाजन से योद्धाओं का एक नया समूह भी उभरा। इन योद्धाओं को ‘नाइट’ कहा जाता था।

ईसाई धर्म एक समूह को संरक्षण देता था और अपनी "ईश्वरीय शांति" की अवधारणा के प्रसार में इनका उपयोग करता था। नाइटों से अपेक्षा की जाती थी कि वे धर्म और ईश्वर की सेवा में समर्पित योद्धा रहें। कोशिश यह रहती थी कि इन योद्धाओं को आपसी लड़ाई-भिड़ाई से विमुख करके उन मुसलमानों के विरुद्ध युद्ध करने भेज दिया जाए, जिन्होंने यरुशलम शहर पर कब्ज़ा कर रखा था। इस प्रयत्न के परिणामस्वरूप सैनिक अभियानों की एक शृंखला चली, जिसे ‘क्रूसेड’ (धर्मयुद्ध) कहा गया। ईश्वर तथा धर्म की सेवा में किए गए इन अभियानों ने नाइटों की हैसियत पूरी तरह बदल डाली। पहले इन नाइटों की गिनती कुलीनों में नहीं होती थी। मगर फ्रांस में ग्यारहवीं सदी के अंत तक और जर्मनी में उससे एक सदी बाद इन योद्धाओं के दीन-हीन अतीत को भुला दिया गया था। बारहवीं सदी तक तो कुलीन वर्ग के लोग भी नाइट कहलाना चाहने लगे थे।



कल्पना करें

आप अलाउद्दीन ख़लजी या मुहम्मद तुग़लक़ के शासन काल में एक किसान हैं और आप सुलतान द्वारा लगाया गया कर नहीं चुका सकते। आप क्या करेंगे?


बीज शब्द

इक़् ता

तारीख

गैरिसन

मंगोल

लिंग

खराज


फिर से याद करें

1. दिल्ली में पहले-पहल किसने राजधानी स्थापित की?

2. दिल्ली के सुलतानों के शासनकाल में प्रशासन की भाषा क्या थी?

3. किसके शासन के दौरान सल्तनत का सबसे अधिक विस्तार हुआ?

4. इब्न बतूता किस देश से भारत में आया था?

आइए समझें

5. ‘न्याय चक्र’ के अनुसार सेनापतियों के लिए किसानों के हितों का ध्यान रखना क्यों ज़रूरी था?

6. सल्तनत की ‘भीतरी’ और ‘बाहरी’ सीमा से आप क्या समझते हैं?

7. मुक़्ती अपने कर्त्तव्यों का पालन करें, यह सुनिश्चित करने के लिए कौन-कौन से कदम उठाए गए थे? आपके विचार में सुलतान के आदेशों का उल्लंघन करना चाहने के पीछे उनके क्या कारण हो सकते थे?

8. दिल्ली सल्तनत पर मंगोल आक्रमणों का क्या प्रभाव पड़ा?

आइए विचार करें

9. क्या आपकी समझ में तवारीख के लेखक, आम जनता के जीवन के बारे में कोई जानकारी देते हैं?

10. दिल्ली सल्तनत के इतिहास में रज़िया सुलतान अपने ढंग की एक ही थीं। क्या आपको लगता है कि आज महिला नेताओं को ज़्यादा आसानी से स्वीकार किया जाता है?

11. दिल्ली के सुलतान जंगलों को क्यों कटवा देना चाहते थे? क्या आज भी जंगल उन्हीं कारणों से काटे जा रहे हैं?

आइए करके देखें

12. पता लगाइए कि क्या आपके इलाके में दिल्ली के सुलतानों द्वारा बनवाई गई कोई इमारत है? क्या आपके इलाके में और भी कोई एेसी इमारत है, जो बारहवीं से पंद्रहवीं सदी के बीच बनाई गई हो? इनमें से कुछ इमारतों का वर्णन कीजिए और उनके रेखाचित्र बनाइए।