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आठवीं और अठारहवीं शताब्दियों के बीच राजाओं तथा उनके अधिकारियों ने दो तरह की इमारतों का निर्माण किया। पहली तरह की इमारतों में–सुरक्षित, संरक्षित तथा इस दुनिया और दूसरी दुनिया में आराम-विराम की भव्य जगहें–किले, महल तथा मकबरे थे। दूसरी श्रेणी में मंदिर, मसजिद, हौज़, कुएँ, सराय तथा बाज़ार जैसी जनता के उपयोग की इमारतें थीं। राजाओं से यह अपेक्षा की जाती थी कि वे अपनी प्रजा की देख-भाल करेंगे तथा प्रजा के उपयोग और आराम के लिए इमारतों का निर्माण करवाकर राजा उनकी प्रशंसा पाने की आशा करते थे। इस तरह के निर्माण कार्य, व्यापारियों सहित अन्य व्यक्तियों के द्वारा भी किए जाते थे। वे मंदिरों, मसजिदों और कुँओं का निर्माण करवाते थे। परंतु घरेलू स्थापत्य–व्यापारियों की विशाल हवेलियों के अवशेष अठारहवीं शताब्दी से ही मिलने शुरू होते हैं।
आगरा किले के निर्माण में लगा श्रम
अकबर द्वारा निर्मित आगरा किले के निर्माण हेतु 2,000 पत्थर काटने वालों, 2,000 सीमेंट व चूना बनाने वालों तथा 8,000 मज़दूरों की आवश्यकता पड़ी।
अभियांत्रिकी कौशल तथा निर्माण कार्य
स्मारकों से हमें उनके निर्माण में प्रयुक्त शिल्प विज्ञान का भी पता चलता है। छत का ही उदाहरण ले लीजिए। हम चार दीवारों के आर-पार लकड़ी की शहतीरों अथवा एक पत्थर की पटिया रखकर छत बना सकते हैं। लेकिन यह कार्य उस समय बहुत कठिन हो जाता है जब हम एक विस्तृत अधिरचना वाले विशाल कक्ष का निर्माण करना चाहते हैं। इसके लिए अधिक परिष्कृत कौशल की ज़रूरत होती है।
अधिरचना
भूतल से ऊपर किसी भी भवन का भाग
राजस्थान के बूंदी में स्थित रानीजी की बावड़ी, उन पचास बावडियों में सबसे बड़ी थी जिसका निर्माण पानी की आवश्यकता की पूर्ति के लिए किया गया। अपनी स्थापत्य सुन्दरता के लिए विख्यात इस बावड़ी का निर्माण 1699 ईसवी में रानी नाथावत जी ने, जो बूंदी के राजा अनिरुद्ध सिंह की रानी थी, किया था।
सातवीं और दसवीं शताब्दी के मध्य वास्तुकार भवनों में और अधिक कमरे, दरवाज़े और खिड़कियाँ बनाने लगे। छत, दरवाज़े और खिड़कियाँ अभी भी दो ऊर्ध्वाधर खंभों के आर-पार एक अनुप्रस्थ शहतीर रखकर बनाए जाते थे। वास्तुकला की यह शैली ‘अनुप्रस्थ टोडा निर्माण’ कहलाई जाती है। आठवीं से तेरहवीं शताब्दी के बीच मंदिरों, मसजिदों, मकबरों तथा सीढ़ीदार कुँओं (बावली) से जुड़े भवनों के निर्माण में इस शैली का प्रयोग हुआ।
चित्र 3 ख
दो मंदिरों के शिखरों में आप क्या अंतर देखते हैं? क्या आप यह समझ सकते हैं कि राजराजेश्वर मंदिर का शिखर, कंदरिया महादेव मंदिर के शिखर से दोगुना ऊँचा है?
चित्र 4
तंजावूर के राजराजेश्वर मंदिर का शिखर, उस समय के मंदिरों में सबसे ऊँचा था। इसका निर्माण कार्य आसान नहीं था, क्योंकि उन दिनों कोई क्रेन नहीं थी। शिखर के शीर्ष पर 90 टन का पत्थर ले जाना इतना भारी होता था कि उसे व्यक्ति अपनेआप उठाकर नहीं ले जा सकते थे। इसलिए इस काम के लिए वास्तुकारों ने मंदिर के शीर्ष तक पहुँचने के लिए चढ़ाईदार रास्ता बनवाया। रोलरों द्वारा भारी पत्थरों को इस रास्ते से ऊपर ले जाया गया। इस काम के लिए चार किलोमीटर से ज़्यादा लंबा पथ तैयार किया जाता था, जिससे चढ़ाई बहुत खड़ी न हो। मंदिर बन जाने के बाद इसे गिरा दिया गया, लेकिन उस क्षेत्र के लोगों ने मंदिर निर्माण के अनुभव को काफ़ी लंबे समय तक याद रखा। आज भी मंदिर के पास के एक गाँव को चारूपल्लम कहा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है - चढ़ाईदार रास्ते का गाँव।
चित्र 5 क
मेहराब का ‘विशुद्व’ रूप मेहराब के मध्य में ‘डाट’ अधिरचना के भार को मेहराब की आधारशिला पर डाल देती है।
बारहवीं शताब्दी में दो प्रौद्योगिकीय एवं शैली संबंधी परिवर्तन दिखाई पड़ने लगते हैं-(1) दरवाज़ों और खिड़कियों के ऊपर की अधिरचना का भार कभी-कभी मेहराबों पर डाल दिया जाता था। वास्तुकला का यह ‘चापाकार’ रूप था।
चित्र 2 क व 2 ख की तुलना चित्र 5 क और 5 ख से करें।
(2) निर्माण कार्य में चूना-पत्थर, सीमेंट का प्रयोग बढ़ गया। यह उच्च श्रेणी की सीमेंट होती थी, जिसमें पत्थर के टुकड़ों के मिलाने से कंकरीट बनती थी। इसकी वज़ह से विशाल ढाँचों का निर्माण सरलता और तेज़ी से होने लगा। चित्र 6 में निर्माण स्थल पर एक नज़र डालें। बताइए कि मज़दूर क्या कर रहे हैं, कौन-से औज़ार दिखाए गए हैं तथा पत्थरों को ढोने के लिए किन साधनों का प्रयोग किया गया है।
मंदिरों, मसजिदों और हौज़ों का निर्माण
मंदिरों और मसजिदों का निर्माण बहुत सुंदर तरीके से किया जाता था क्योंकि वे उपासना के स्थल थे। वे अपने संरक्षक की शक्ति, धन-वैभव तथा भक्ति भाव का भी प्रदर्शन करते थे। उदाहरण के लिए, राजराजेश्वर मंदिर को लिया जा सकता है। एक अभिलेख से इस बात का संकेत मिलता है कि इस मंदिर का निर्माण राजा राजदेव ने अपने देवता राजराजेश्वरम की उपासना हेतु किया था। ध्यान दें कि राजा और उसके देवता के नाम काफ़ी मिलते-जुलते हैं। राजा ने इस तरह का नाम इसलिए रखा, क्योंकि यह नाम मंगलकारी था और राजा स्वयं को ईश्वर के रूप में दिखाना चाहता था। धार्मिक अनुष्ठान के ज़रिए मंदिर में एक देवता (राजा राजदेव), दूसरे देवता (राजराजेश्वरम) का सम्मान करता था।
सभी विशालतम मंदिरों का निर्माण राजाओं ने करवाया था। मंदिर के अन्य लघु देवता शासक के सहयोगियों तथा अधीनस्थों के देवी-देवता थे। यह मंदिर शासक और उसके सहयोगियों द्वारा शासित विश्व का एक लघु रूप ही था। जिस तरह से वे राजकीय मंदिरों में इकट्ठे होकर अपने देवताओं की उपासना करते थे, एेसा प्रतीत होता था मानो उन्होंने देवताओं के न्यायप्रिय शासन को पृथ्वी पर ला दिया हो।
एक शाही वास्तुशिल्पी
मुुग़ल बादशाह शाहजहाँ के इतिहासकार ने शासक को ‘साम्राज्य व धर्म की कार्यशाला का वास्तुशिल्पी’ बताया।
मुसलमान सुलतान तथा बादशाह स्वयं को भगवान के अवतार होने का दावा तो नहीं करते थे किंतु फ़ारसी दरबारी इतिहासों में सुलतान का वर्णन ‘अल्लाह की परछाई’ के रूप में हुआ है। दिल्ली की एक मसजिद के अभिलेख से पता चलता है कि अल्लाह ने अलाउद्दीन को शासक इसलिए चुना था, क्योंकि उसमें अतीत के महान विधिकर्त्ताओं मूसा और सुलेमान की विशिष्टताएँ मौज़ूद थीं। सबसे महान विधिकर्त्ता और वास्तुकार अल्लाह स्वयं था। उसने अव्यवस्था को दूर करके विश्व का सृजन किया तथा एक व्यवस्था और संतुलन कायम किया।
चित्र 7
अपनी नयी राजधानी शाहजहाँनाबाद (1650-56) में शाहजहाँ द्वारा बनवाई गई जामी मसजिद की योजना
सत्ता में आने पर प्रत्येक राजवंश के राजा ने शासक होने के अपने नैतिक अधिकार पर और ज़ोर डाला। उपासना के स्थानों के निर्माण ने शासकों को, ईश्वर के साथ अपने घनिष्ठ संबंध की उद्घोषणा करने का मौका दिया। एेसी उद्घोषणाएँ तेज़ी से बदलती राजनीति के संदर्भ में महत्त्व ग्रहण कर लेती थीं। शासकों ने विद्वान तथा धर्मनिष्ठ व्यक्तियों को भी आश्रय प्रदान किया और अपनी राजधानियों तथा नगरों को महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक केंद्रों के रूप में परिवर्तित करने का प्रयास किया। इन सबसे उनके शासन तथा राज्य को ख्याति मिली।
व्यापक समझ यह थी कि न्यायप्रिय राजा का राज एेसा होगा, जहाँ खुशहाली होगी और जहाँ पर्याप्त वर्षा होगी। इसी तरह हौज़ाें और जलाशयों के निर्माण द्वारा बहुमूल्य पानी उपलब्ध कराने के कार्य की बहुत प्रशंसा की जाती थी। सुलतान इल्तुतमिश ने देहली-ए-कुह्ना के एकदम निकट एक विशाल तालाब का निर्माण करके व्यापक सम्मान प्राप्त किया। इस विशाल जलाशय को हौज़-ए-सुल्तानी अथवा ‘राजा का तालाब’ कहा जाता था। क्या आप इसे अध्याय 3 के मानचित्र 1 में ढूँढ सकते हैं? शासक प्रायः सामान्य लोगों के लिए बड़े और छोटे हौज़ों और तालाबों का निर्माण करवाते थे। कभी-कभी वे किसी मंदिर, मसजिद (चित्र 7 में जामी मसजिद के छोटे हौज़ पर ध्यान दें) अथवा गुरुद्वारे (सिक्खों के एकत्रित होने और उपासना का स्थान, चित्र 8) का हिस्सा होते थे।
जल का महत्त्व
फ़ारसी शब्द, आबाद और आबादी ‘आब’ शब्द से निकले हैं जिसका अर्थ है पानी। आबाद शब्द उस जगह के लिए इस्तेमाल होता हैं, जहाँ बसावट हो। इसका एक अन्य अर्थ खुशहाली भी है। आबादी का अर्थ जनसंख्या एवं समृद्धि दोनों ही है।
चित्र 8
हरमंदर साहब (स्वर्ण मंदिर) और उसका पवित्र सरोवर, अमृतसर
मंदिरों पर क्यों निशाना साधा गया?
राजा, मंदिरों का निर्माण अपनी शक्ति, धन-संपदा और ईश्वर के प्रति निष्ठा के प्रदर्शन हेतु करते थे। एेसे में यह बात आश्चर्यजनक नहीं लगती है कि जब उन्होंने एक दूसरे के राज्यों पर आक्रमण किया, तो उन्होंने प्रायः एेसी इमारतों पर निशाना साधा। नवीं शताब्दी के आरंभ में जब पांड्यन राजा श्रीमर श्रीवल्लभ ने श्रीलंका पर आक्रमण कर राजा सेन प्रथम (831-851) को पराजित किया था, उसके विषय में बौद्ध भिक्षु व इतिहासकार धम्मकित्ति ने लिखा है कि, "सारी बहुमूल्य चीज़ें वह ले गया... रत्न महल में रखी स्वर्ण की बनी बुद्ध की मूर्ति... और विभिन्न मठों में रखी सोने की प्रतिमाओं - इन सभी को उसने ज़ब्त कर लिया।" सिंहली शासक के आत्माभिमान को इससे जो आघात लगा था, उसका बदला लिया जाना स्वाभाविक था। अगले सिंहली शासक सेन द्वितीय ने अपने सेनापति को, पांड्यों की राजधानी मदुरई पर आक्रमण करने का आदेश दिया। बौद्ध इतिहासकार ने लिखा है कि इस अभियान में बुद्ध की स्वर्ण मूर्त्ति को ढूँढ निकालने तथा वापस लाने हेतु महत्त्वपूर्ण प्रयास किए गए।
इसी तरह ग्यारहवीं शताब्दी के आरंभ में जब चोल राजा राजेंद्र प्रथम ने अपनी राजधानी में शिव मंदिर का निर्माण करवाया था तो उसने पराजित शासकों से ज़ब्त की गई उत्कृष्ट प्रतिमाओं से इसे भर दिया। एक अधूरी सूची में निम्न चीज़ें सम्मिलित थींः चालुक्यों से प्राप्त एक सूर्य पीठिका, एक गणेश मूर्त्ति तथा दुर्गा की कई मूत्तियाँ, पूर्वी चालुक्यों से प्राप्त एक नंदी मूर्ति, उड़ीसा के कलिंगों से प्राप्त भैरव (शिव का एक रूप) तथा भैरवी की एक प्रतिमा तथा बंगाल के पालों से प्राप्त काली की मूर्त्ति।
चित्र 9
मुग़ल चारबाग
(क) हुमायूँ के मकबरे का चारबाग, दिल्ली, 1562-71
(ग) लालमहल बारी में चारबाग को तटीय बाग के रूप में अपनाया गया, 1637
बाग, मकबरे तथा किले
चित्र 10
काबुल में चारबाग का खाका बनाते बाबर की 1590 की एक चित्रकारी। ध्यान दें, कैसे रास्ते पर एक दूसरे को काटती नहरें ,चारबाग योजना की विशेषता बनाती हैं।
चित्र 11
1562 व 1571 के बीच निर्मित हुमायूँ का मकबरा। क्या आप नहरों को देख सकते हैं?
शाहजहाँ के शासनकाल के दौरान मुगल वास्तुकला के विभिन्न तत्त्व एक विशाल सद्भावपूर्ण संश्लेषण में मिला दिए गए। शाहजहाँ के शासन में अनवरत निर्माण कार्य चलते रहे, विशेष रूप से आगरा और दिल्ली में। सार्वजनिक और व्यक्तिगत सभा हेतु समारोह कक्षों (दीवान-ए-खास और दीवान-ए-आम) की योजना बहुत सावधानीपूर्वक बनाई जाती थी। एक विशाल आँगन में स्थित ये दरबार चिहिल सुतुन अथवा चालीस खंभों के सभा भवन भी कहलाते थे।
शाहजहाँ के सभा भवन विशेष रूप से मसजिद से मिलते-जुलते बनाए गए थे। उसका सिंहासन जिस मंच पर रखा था उसे प्रायः किबला (नमाज़ के दौरान मुसलमानों के सामने की दिशा) कहा जाता था क्योंकि जिस समय दरबार चलता था, उस समय प्रत्येक व्यक्ति उस ओर ही मुँह करके बैठता था। इन वास्तुकलात्मक अभिलक्षणों का इस ओर इशारा था कि राजा पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि था।
शाहजहाँ ने दिल्ली के लालकिले के अपने नवनिर्मित दरबार में राजकीय न्याय और शाही दरबार के अंतःसंबंध पर बहुत बल दिया। बादशाह के सिंहासन के पीछे पितरा-दूरा के जड़ाऊ काम की एक शृंखला बनाई गई थी, जिसमें पौराणिक यूनानी देवता आर्फियस को वीणा बजाते हुए चित्रित किया गया था। एेसा माना जाता था कि आर्फियस का संगीत आक्रामक जानवरों को भी शांत कर सकता है और वे शांतिपूर्वक एक-दूसरे के साथ रहने लगते हैं। शाहजहाँ के सार्वजनिक सभा भवन का निर्माण यह सूचित करता था कि न्याय करते समय राजा ऊँचे और निम्न सभी प्रकार के लोगों के साथ समान व्यवहार करेगा और सभी सद्भाव के साथ रह सकेंगे।
चित्र 12
दिल्ली में दीवान-ए-आम में सिंहासन का छज्जा। इसका निर्माण 1648 में पूरा किया गया था।
पितरा-दूरा
उत्कीर्णित संगमरमर अथवा बलुआ पत्थर पर रंगीन, ठोस पत्थरों को दबाकर बनाए गए सुंदर तथा अलंकृत नमूने।
शासन के आरंभिक वर्षों में शाहजहाँ की राजधानी आगरा थी। इस शहर में विशिष्ट वर्गों ने अपने घरों का निर्माण यमुना नदी के तटों पर करवाया था। इनका निर्माण चारबाग की रचना के ही समान औपचारिक बागों के बीच में हुआ था। चारबाग की योजना के अंतर्गत ही अन्य तरह के बाग भी थे जिन्हें इतिहासकार ‘नदी-तट-बाग’ कहते हैं। इस तरह के बाग में निवासस्थान, चारबाग के बीच में स्थित न होकर नदी तटों के पास बाग के बिल्कुल किनारे पर होता था।
शाहजहाँ ने अपने शासन की भव्यतम वास्तुकलात्मक उपलब्धि ताजमहल के नक्शे में नदी-तट-बाग की योजना अपनाई। यहाँ स.फेद संगमरमर का मकबरा नदी तट के एक चबूतरे पर तथा बाग इसके दक्षिण में बनाया गया था। नदी पर सभी अभिजातों की पहुँच पर नियंत्रण हेतु शाहजहाँ ने इस वास्तुकलात्मक रूप को विकसित किया। दिल्ली में शाहजहाँनाबाद में उसने जो नया शहर निर्मित करवाया उसमें शाही महल नदी पर स्थित था। केवल विशिष्ट कृपा प्राप्त अभिजातों, जैसे–उसके बड़े बेटे दाराशिकोह को ही नदी तक पहुँच मिली थी। अन्य सभी को अपने घरों का निर्माण यमुना नदी से दूर, शहर में करवाना पड़ता था।
ताजमहल
चित्र 13
आगरा का ताजमहल, जिसका निर्माण 1643 में पूरा हुआ।
चित्र 14
एक नक्शे से आगरा के नदी तट-बाग-शहर का पुनर्कल्पित दृश्य। ध्यान दें कि कैसे यमुना के दोनों तटों परअभिजातों के बाग-महल स्थित हैं। ताजमहल बाईं ओर है। चित्र 15 में दी गई दिल्ली के शाहजहाँनाबाद कीयोजना की तुलना आगरा की योजना से करें।
यमुना नदी
चित्र 15
1850 का शाहजहाँनाबाद का एक नक्शा। बादशाह का निवास कहाँ है? शहर का.फी घना बसा हुआ लगता है, लेकिन क्या आपको यहाँ कई बड़े बाग भी दिखाई देते हैं? क्या आप मुख्य मार्ग व जामी मसजिद ढूँढ सकते हैं?
क्षेत्र व साम्राज्य
आठवीं व अठारहवीं शताब्दियों के बीच जब निर्माण संबंधी गतिविधियों में बढ़ोतरी हुई, तो विभिन्न क्षेत्रों के बीच विचारों का भी पर्याप्त आदान-प्रदान हुआ। एक क्षेत्र की परंपराएँ दूसरे क्षेत्र द्वारा अपनाई गईं। उदाहरण के लिए, विजयनगर में राजाओं की गजशालाओं पर बीजापुर और गोलकुंडा जैसी आस-पास की सल्तनतों की वास्तुकलात्मक शैली का बहुत प्रभाव पड़ा था (अध्याय 6 देखें)। मथुरा के निकट स्थित वृंदावन में बने मंदिरों की वास्तुकलात्मक शैली फतेहपुर सीकरी के मुग़ल महलों से बहुत मिलती-जुलती थी।
विशाल साम्राज्यों के निर्माण ने विभिन्न क्षेत्रों को उनके शासन के अधीन ला दिया। इससे कलात्मक रूपों व वास्तुकलात्मक शैलियों के परसंसेचन में मदद मिली। मुग़ल शासक अपने भवनों के निर्माण में क्षेत्रीय वास्तुकलात्मक शैली अपनाने में विशेष रूप से दक्ष थे। उदाहरण के लिए, बंगाल में स्थानीय शासकों ने छप्पर की झाेंपड़ी के समान दिखने वाली छत का निर्माण करवाया। मुग़लों को यह ‘बांग्ला गुंबद’ (अध्याय 9 में चित्र 11 और 12 देखें) इतना पसंद आया था कि उन्होंने अपनी वास्तुकला में इसका प्रयोग किया। अन्य क्षेत्रों का प्रभाव भी स्पष्ट था। अकबर की राजधानी फतेहपुर सीकरी की कई इमारतों पर गुजरात व मालवा की वास्तुकलात्मक शैलियों का प्रभाव दिखता है।
अठारहवीं शताब्दी से मुग़ल शासकों की सत्ता के धूमिल हो जाने के बाद भी उनके आश्रय में विकसित वास्तुकलात्मक शैली निरंतर प्रयोग में रही तथा अन्य शासकों ने, जब भी स्वयं के राज्य स्थापित करने के प्रयास किए, यह शैली अपनाई।
चित्र 16
वृंदावन में गोविंददेव के मंदिर का अंदरूनी भाग, 1590
इस मंदिर का निर्माण लाल बलुआ पत्थर से हुआ था। दो (चार में से) प्रतिच्छेदी मेहराबों पर ध्यान दें, जिनसे इसकी ऊँची भीतरी छत का निर्माण किया था। वास्तुकला की यह शैली उत्तर-पूर्वी ईरान (खुरासान) से आई और फतेहपुर सीकरी में इसका प्रयोग किया गया था।
चित्र 17
फतेहपुर सीकरी के जोधाबाई महल में छत के विस्तार को संभालते अलंकृत स्तंभ तथा टेक। ये गुजरात क्षेत्र की वास्तुकलात्मक परंपराओं से प्रभावित हैं।