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एक मध्ययुगीन नगर की यात्रा पर आया कोई यात्री, उस नगर के बारे में कैसी आकांक्षाएँ रखता होगा? यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह नगर किस प्रकार का था–क्या वह एक मंदिर नगर था या एक प्रशासनिक केंद्र, एक वाणिज्यिक शहर, एक पत्तन नगर अथवा किसी अन्य प्रकार का शहर था। वस्तुतः कई नगर तो एक साथ अनेक प्रकार के थे–वे प्रशासनिक नगर तथा मंदिर नगर होने के साथ-साथ वाणिज्यिक कार्यकलापों और शिल्प उत्पादन के केंद्र भी थे।
मानचित्र 1
मध्य और दक्षिण भारत में व्यापार और शिल्पकारी उत्पादन के कुछ प्रमुख केंद्र
प्रशासनिक केंद्र
अध्याय 2 में आपने चोल वंश के बारे में पढ़ा। आइए, हम अपनी कल्पना के घोड़े पर सवार होकर चोल राजाओं की राजधानी तंजावूर, जैसाकि वह एक हज़ार वर्ष पहले था, की यात्रा पर चलें।
वर्ष में बारहों महीने बहने वाली कावेरी नदी इस सुंदर नगर के पास बहती है। राजा राजराज चोल द्वारा निर्मित राजराजेश्वर मंदिर की घंटियाँ बजती हुई सुनाई देती हैं। लोग नगर के वास्तुकार कुंजरमल्लन राजराज पेरूथच्चन की वास्तुकला की प्रशंसा करते हुए नहीं थकते। हमें वास्तुकार का नाम इसलिए पता है क्योंकि उसने गर्व से अपने नाम को मंदिर की दीवार पर उत्कीर्ण किया। मंदिर के भीतर एक विशाल शिवलिंग स्थापित है।
इस मंदिर के अलावा नगर में अनेक राजमहल हैं, जिनमें कई मंडप बने हुए हैं। राजा लोग इन मंडपों में अपना दरबार लगाते हैं। यहीं से वे अपने अधीनस्थों के लिए आदेश जारी करते हैं। नगर में सैन्य शिविर भी बने हैं।
नगर उन बाज़ारों की हलचल से भरा हुआ है; जहाँ अनाज, मसालों, कपड़ों और आभूषणों की बिक्री हो रही है। नगर के लिए जल की आपूर्ति कुँओं और तालाबों से होती है। तंजावूर और उसके निकटवर्ती नगर उरैयूर के सालीय बुनकर मंदिर के उत्सव के लिए झंडे-झंडियाँ बनाने का कपड़ा, राजा और अभिजात वर्ग के लिए बढ़िया सूती वस्त्र और जनसाधारण के लिए मोटा सूती वस्त्र तैयार कर रहे हैं। यहाँ से कुछ दूरी पर स्वामीमलाई में स्थपति अथवा मूर्तिकार उत्तम काँस्य मूर्तियाँ तथा लंबे, सुंदर घंटा-धातु के दीप बना रहे हैं।
आपके मत में लोग तंजावूर को एक महान नगर क्यों मानते थे?
मंदिर नगर और तीर्थ केंद्र
तंजावूर एक मंदिर नगर का भी उदाहरण है। मंदिर नगर नगरीकरण का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रतिरूप प्रस्तुत करते हैं। नगरीकरण नगरों के विकास की प्रक्रिया है। मंदिर अकसर समाज और अर्थव्यवस्था दोनों के लिए ही अत्यंत महत्त्वपूर्ण होते थे। शासक, विभिन्न देवी-देवताओं के प्रति अपना भक्ति भाव दर्शाने के लिए मंदिर बनाते थे। वे मंदिरों को भूमि एवं धन अनुदान में देते थे जिनकी आय से धार्मिक अनुष्ठान, विधि-विधान से संपन्न किए जाते थे, तीर्थयात्रियों तथा पुरोहित-पंडितों को भोजन कराया जाता था और पर्वोत्सव मनाए जाते थे। मंदिर के दर्शनार्थी भी दान-दक्षिणा दिया करते थे।
काँसा, घंटा-धातु और ‘लुप्तमोम’ तकनीक
काँसा एक मिश्रधातु होती है, जो ताँबे और राँगे (टिन) के मेल से बनती है। घंटा-धातु में राँगे का अनुपात किसी भी अन्य किस्म के काँसे से अधिक होता है। यह घंटे जैसी ध्वनि उत्पन्न करती है।
चोलकालीन कांस्य मूर्तियाँ (अध्याय-2 देखें) ‘लुप्तमोम’ तकनीक से बनाई जाती थीं। इस प्रविधि के अंतर्गत सर्वप्रथम मोम की एक प्रतिमा बनाई जाती थी। इसे चिकनी मिट्टी से पूरी तरह लीप कर सूखने के लिए छोड़ दिया जाता था। जब वह पूरी तरह सूख जाती थी तो उसे गर्म किया जाता था और उसके मिट्टी के आवरण में एक छोटा-सा छेद बना कर उस छेद के रास्ते सारा पिघला हुआ मोम बाहर निकाल लिया जाता था। फिर चिकनी मिट्टी के खाली साँचे में उसी छेद के रास्ते पिघली हुई धातु भर दी जाती थी। जब वह धातु ठंडी होकर ठोस हो जाती थी, तो चिकनी मिट्टी के आवरण को सावधानीपूर्वक हटा दिया जाता था और उसमें से निकली प्रतिमा को साफ़ करके चमका दिया जाता था।
आपके विचार से इस प्रविधि के प्रयोग के क्या-क्या लाभ थे?
छोटे नगरों का संजाल
चित्र 2
नगर का एक बाज़ार
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लकड़ी पर नक्काशी करता हुआ एक कारीगर
बाज़ारों पर कर
यह राजस्थान से प्राप्त एक दसवीं शताब्दी के अभिलेख का सारांश है। जिसमें वे शुल्क दिए गए हैं जो मंदिर प्राधिकारियों द्वारा वस्तुओं के रूप में वसूल किए जा सकते हैं।
शक्कर और गुड़, रंग, धागा, रुई, नारियल, नमक, सुपारी, मक्खन, तिल के तेल पर और कपड़े पर कर लगाए जाते थे।
इसके अलावा, व्यापरियों पर, धातु की चीजें बेचने वालों, आसवकों, तेल, पशुचारे और अनाज के बोरों पर भी कर लगाए जाते थे।
इनमें से कुछ कर तो वस्तु रूप में और कुछ अन्य नकद रूप में वसूले जाते थे।
आज बाज़ार पर लगने वाले करों के बारे में कुछ और जानकारी प्राप्त करें–इन्हें कौन इकट्ठा करता है, वे किस प्रकार वसूल किए जाते हैं और उनका प्रयोग किस काम के लिए होता है।
बड़े और छोटे व्यापारी
व्यापारी कई प्रकार के हुआ करते थे। उनमें बंजारे लोग (देखिए अध्याय 7) भी शामिल थे। कई व्यापारी, विशेष रूप से घोड़ों के व्यापारी अपने संघ बनाते थे, जिनका एक मुखिया होता था और वह मुखिया उनकी ओर से घोड़े खरीदने के इच्छुक योद्धाओं से बातचीत करता था।
चूँकि व्यापारियों को अनेक राज्यों तथा जंगलों से होकर गुज़रना पड़ता था। इसलिए वे आमतौर पर काε.फले बनाकर एक साथ यात्रा करते थे और अपने हितों की रक्षा के लिए व्यापार-संघ (गिल्ड) बनाते थे। दक्षिण भारत में आठवीं शताब्दी और परवर्ती काल में अनेक एेसे संघ थे। उनमें सबसे प्रसिद्ध ‘मणिग्रामम्’ और ‘नानादेशी’ थे। ये व्यापार संघ प्रायद्वीप के भीतर और दक्षिण-पूर्व एशिया तथा चीन के साथ भी दूर-दूर तक व्यापार करते थे।
इनके अलावा चेट्टियार और मारवाड़ी ओसवाल जैसे समुदाय भी थे, जो आगे चलकर देश के प्रधान व्यापारी समूह बन गए। गुजराती व्यापारियों में हिंदू बनिया और मुस्लिम बोहरा दोनों समुदाय शमिल थे। वे दूर-दूर तक लाल सागर के बंदरगाहों व फ़ारस की खाड़ी, पूर्वी अप्ऱηीका, दक्षिण-पूर्व एशिया तथा चीन से व्यापार करते थे। वे इन पत्तनों में कपड़े और मसाले बेचते थे और बदले में अप्ऱका से सोना और हाथी दाँत एवं दक्षिण-पूर्व एशिया और चीन से मसाले, टिन, मिट्टी के नीले बर्तन और चाँदी लाते थे।
पश्चिमी तट के नगरों में अरबी, .फारसी, चीनी, यहूदी और सीरियाई ईसाई बस गए थे। लाल सागर के बंदरगाहों में बेचे जाने वाले भारतीय मसाले और कपड़े इतालवी व्यापारियों द्वारा खरीदे जाते थे और वहाँ से वे उन्हें आगे यूरोपीय बाज़ारों में पहुँचाते थे। उनसे व्यापार में बहुत लाभ होता था। उष्णकटिबंधीय जलवायु में उगाए जाने वाले मसाले (कालीमिर्च, दालचीनी, जायफल, सोंठ आदि) यूरोपीय व्यंजनों के महत्त्वपूर्ण अंग बन गए थे और भारतीय सूती कपड़ा बहुत लुभावना होता था। ये चीज़ें ही यूरोपीय व्यापारियों को भारत तक खींच लाईं। समय के साथ-साथ व्यापार और नगरों का रूप किस प्रकार बदला, इसके बारे में हम शीघ्र आगे पढ़ेंगे।
जैसा कि आप समझ सकते हैं, इस काल के दौरान लोगों तथा माल का आना-जाना लगा ही रहता था। आपके विचार से इस आवाजाही का नगरों तथा गाँवों के जन-जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा होगा? नगरों में रहने वाले कारीगरों की सूची बनाएँ।
काबुल
काबुल अपने पहाड़ी और विषम भू-दृश्य के साथ सोलहवीं शताब्दी से राजनीतिक और वाणिज्यिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण बन गया। काबुल और कांधार सुप्रसिद्ध रेशम मार्ग से जुड़े हुए थे। साथ ही घोड़ों का व्यापार भी मुख्य रूप से इसी मार्ग से होता था। सत्रहवीं शताब्दी में हीरों के एक सौदागर जौं बेपटिस्टे टैवर्नियर ने अनुमान लगाया था कि काबुल में घोड़ों का व्यापार प्रतिवर्ष 30,000 रूपयों का होता था, जो उन दिनों में एक बड़ी भारी रकम समझी जाती थी। काबुल से मेवे, खजूर, गलीचे, रेशमी कपड़े और ताज़े फल ऊँटों पर लाद कर लाए जाते थे और उपमहाद्वीप तथा अन्य भागों में बेचे जाते थे। इनके अलावा गुलाम भी बिक्री के लिए लाए जाते थे।
नगरों में शिल्प
बीदर के शिल्पकार ताँबे तथा चाँदी में जड़ाई के काम के लिए इतने अधिक प्रसिद्ध थे कि इस शिल्प का नाम ही ‘बीदरी’ पड़ गया। पांचाल अर्थात् विश्वकर्मा समुदाय जिसमें सुनार, कसेरे, लोहार, राजमिस्त्री और बढ़ई शामिल थे; मंदिरों के निर्माण के लिए आवश्यक थे। इसके अलावा वे राजमहलों, बड़े-बड़े भवनों, तालाबों और जलाशयों के निर्माण में भी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते थे। इसी प्रकार सालियार या कैक्कोलार जैसे बुनकर भी समृद्धिशाली समुदाय बन गए थे और वे मंदिरों को भारी दान-दक्षिणा दिया करते थे। वस्त्र-निर्माण से संबंधित कुछ अन्य कार्य, जैसे–कपास को साफ़ करना, कातना और रंगना भी स्वतंत्र व्यवसाय बन गए थे, जिनके लिए विशेषज्ञता की आवश्यकता होती थी।
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पीतल के इस मोमबत्तीदान पर काला आवरण है।
शहरों के बदलते हुए भाग्य
कई शताब्दियों के लंबे समय में अहमदाबाद (गुजरात) जैसे कुछ नगर बड़े व्यापारिक केंद्रों के रूप में विकसित हो गए, लेकिन तंजावूर जैसे कुछ अन्य नगर पहले की अपेक्षा विस्तार तथा महत्त्व की दृष्टि से सिकुड़ गए। इसी काल में पश्चिम बंगाल में भागीरथी नदी के तट पर स्थित मुर्शिदाबाद रेशमी वस्त्रों के प्रमुख केंद्र के रूप में उभरा था। वह 1704 ई. में बंगाल की राजधानी बन गया लेकिन इसी शताब्दी के दौरान उसका सितारा डूब गया; क्योंकि वहाँ के बुनकर इंग्लैंड की मिलों से बनकर आए सस्ते कपड़े के साथ प्रतियोगिता में टिक न सके।
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शॉल का बॉर्डर
हम्पी, मसूलीपट्टनम और सूरत – नज़दीक से एक नज़र
हम्पी की वास्तुकला का सौंदर्य
हम्पी नगर, कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों की घाटी में स्थित है। यह नगर 1336 में स्थापित विजयनगर साम्राज्य का केंद्र स्थल था। हम्पी के शानदार खंडहरों से पता चलता है कि उस शहर की किलेबंदी उच्च कोटि की थी। किले की दीवारों के निर्माण में कहीं भी गारे-चूने जैसे किसी भी जोड़ने वाले मसाले का प्रयोग नहीं किया गया था और शिलाखंडों को आपस में फँसाकर गूँथा गया था।
एक किलाबंद नगर
एक पुर्तगाली यात्री डोमिंगों पेज़ ने सोलहवीं शताब्दी में हम्पी नगर का वर्णन इस प्रकार कियाः
...गोवा से आने वाले लोग जिस प्रवेश द्वार से गुज़रते हैं उस द्वार के भीतर राजा ने एक अत्यंत सुदृढ़ प्राचीरबद्ध नगर बसा रखा है; जो दीवारों और बुर्जों से सुरक्षित है। ये दीवारें अन्य नगरों की दीवारों जैसी नहीं हैं, बल्कि बहुत मज़बूत राजगीरी का एेसा नमूना हैं; जो अन्य भागों में बहुत कम देखने को मिलेगा। उसके भीतर उसी रीति से बनाए गए भवनों की अत्यंत सुंदर कतारें हैं, जिनकी छतें सपाट चपटी हैं।
आपके विचार से यही नगर किलेबंद क्यों था?
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हम्पी के अहाते की टूटी हुई दीवार से बुर्ज का दृश्य
हम्पी की वास्तुकला विशिष्ट प्रकार की थी। वहाँ के शाही भवनों में भव्य मेहराब और गुंबद थे। वहाँ स्तंभों वाले कई विशाल कक्ष थे, जिनमें मूर्त्तियों को रखने के लिए आले बने हुए थे। वहाँ सुनियोजित बाग-बगीचे भी थे, जिनमें कमल और टोडों की आकृति वाले मूर्तिकला के नमूने थे। पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दियों के अपने समृद्धिकाल में हम्पी कई वाणिज्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों से गुंजायमान रहता था। उन दिनों हम्पी के बाज़ारों में मुस्लिम सौदागरों, चेट्टियों और पुर्तगालियों जैसे यूरोपीय व्यापारियों के एजेंटों का जमघट लगा रहता था।
अपने शासन काल में विजयनगर के शासकों ने जलाशयों एवं नहरों के निर्माण में काफी रुचि ली। मालदेवी नदी के ऊपर 1.37 किमी. लम्बे मिट्टी के बाँध वाले अनंतराज सागर जलाशय का निर्माण हुआ। कृष्णदेव राय ने दो पहाड़ियों के बीच एक विशाल प्रस्तर बांध का निर्माण विजयनगर के निकट एक विशाल झील के निर्माण के लिए किया जहाँ से जल को जलसेतु और नहरों द्वारा बगीचों और खेतों तक सिंचाई के लिए पहुँचाया जाता था।
मंदिर सांस्कृतिक गतिविधियों के केंद्र होते थे और देवदासियाँ विरूपाक्ष (शिव) मंदिर के अनेक स्तंभ वाले विशाल कक्षों में देव प्रतिमा, राजा तथा प्रजाजनों के समक्ष नृत्य किया करती थीं। महानवमी पर्व, जो आज दक्षिण में नवरात्रि पर्व कहलाता है, उन दिनों हम्पी में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण पर्व माना जाता था। पुरातत्त्वविदों ने उस महानवमी मंच को खोज निकाला है, जहाँ राजा अपने अतिथियों का स्वागत-सत्कार करता था और अधीनस्थ व्यक्तियों से नज़राने-उपहार लिया करता था। वहीं विराजमान होकर राजा, नृत्य एवं संगीत तथा मल्लयुद्ध के कार्यक्रम भी देखा करता था।
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हम्पी के विठ्ठल मंदिर का पत्थर का बना रथ
1565 में दक्कनी सुल्तानों–गोलकुंडा, बीजापुर, अहमदनगर, बरार और बीदर के शासकों–के हाथों विजयनगर की पराजय के बाद हम्पी का विनाश हो गया।
सूरत – पश्चिम का प्रवेश द्वार
सूरत, मुग़लकाल में कैंबे (आज के खंबात) और कुछ समय बाद के अहमदाबाद के साथ-साथ, गुजरात में पश्चिमी व्यापार का वाणिज्य केंद्र बन गया। सूरत ओरमुज़ की खाड़ी से होकर पश्चिमी एशिया के साथ व्यापार करने के लिए मुख्य द्वार था। सूरत को मक्का का प्रस्थान द्वार भी कहा जाता था, क्योंकि बहुत-से हज़यात्री, जहाज़ से यहीं से रवाना होते थे।
सूरत एक सर्वदेशीय नगर था, जहाँ सभी जातियों और धर्मों के लोग रहते थे। सत्रहवीं शताब्दी में वहाँ पुर्तगालियों, डचों और अँग्रेज़ों के कारखाने एवं मालगोदाम थे। अँग्रेज़ इतिहासकार ओविंगटन ने 1689 में सूरत बंदरगाह का वर्णन करते हुए लिखा है कि किसी भी एक वक्त पर भिन्न-भिन्न देशाें के औसतन एक सौ जहाज़ इस बंदरगाह पर लंगर डाले खड़े देखे जा सकते थे।
सूरत में एेसी अनेक दुकानें थीं जो सूती कपड़ा, थोक और फुटकर कीमतों पर बेचती थीं। सूरत के वस्त्र अपने सुनहरे गोटा-किनारियों (ज़री) के लिए प्रसिद्ध थे और उनके लिए पश्चिम एशिया, अप्ऱηीका और यूरोप में बाज़ार उपलब्ध थे। राज्य ने विश्व के सभी भागों से नगर में आने वाले लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अनेक विश्रामगृह बना रखे थे। वहाँ भव्य भवन और असंख्य मनोरंजक-स्थल थे। सूरत में काठियावाड़ी सेठों तथा महाजनों की बड़ी-बड़ी साहूकारी कंपनियाँ थीं। उल्लेखनीय है कि सूरत से जारी की गई हुंडियों को दूर-दूर तक मिस्र में काहिरा, इराक में बसरा और बेल्जियम में एंटवर्प के बाज़ारों में मान्यता प्राप्त थी।
वाणिज्य केंद्र
एक एेसा स्थान जहाँ विभिन्न उत्पादन केंद्रों से आने वाला माल खरीदा और बेचा जाता है।
हुंडी
एक एेसा दस्तावेज़, जिसमें एक व्यक्ति द्वारा जमा कराई गई रकम दर्ज रहती है। हुंडी को कहीं अन्यत्र प्रस्तुत करके जमा की गई राशि प्राप्त की जा सकती है।
किंतु, सत्रहवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में सूरत का भी अधःपतन प्रारंभ हो गया। इसके कई कारण थे–मुग़ल साम्राज्य के पतन के कारण बाज़ारों तथा उत्पादकता की हानि, पुर्तगालियों द्वारा समुद्री मार्गों पर नियंत्रण और बंबई (वर्तमान मुंबई) से प्रतिस्पर्धा जहाँ 1668 में अँग्रेज़ी ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपना मुख्यालय स्थापित कर लिया था। आज सूरत एक महत्त्वपूर्ण वाणिज्यिक केंद्र है।
जोखिम-भरा दौर – मसूलीपट्टनम के लिए चुनौती
मसूलीपट्टनम या मछलीपट्टनम नगर कृष्णा नदी के डेल्टा पर स्थित है। सत्रहवीं शताब्दी में यह भिन्न-भिन्न प्रकार की गतिविधियों का नगर था।
हॉलैंड और इंग्लैंड दोनों देशों की ईस्ट इंडिया कंपनियों ने मसूलीपट्टनम पर नियंत्रण प्राप्त करने का प्रयत्न किया, क्योंकि तब तक वह आंध्र तट का सबसे महत्त्वपूर्ण पत्तन बन गया था। मसूलीपट्टनम का किला, हॉलैंडवासियों ने बनाया था।
मछुआरों का एक गरीब नगर
अँग्रेज़ी ईस्ट इंडिया कंपनी के एक गुमाश्ते विलियम मेथवल्ड ने 1620 ई॰ में इन शब्दों में मसूलीपट्टनम का वर्णन किया था:
यह गोलकुंडा का मुख्य पत्तन है, जहाँ परमपूज्य ईस्ट इंडिया कंपनी अपना एजेंट रखती है। यह एक छोटा नगर है, पर घना बसा हुआ, बिना किसी चारदीवारी के, और खराब तरीके से बना हुआ। न ही यह अच्छी जगह स्थित है। इसके सभी जलस्रोत खारे पानी के हैं। पहले यह एक गरीब मछुआरा-नगर था... आगे चलकर यहाँ जहाज़ों के लिए लंगर डालने की सुविधा हो गई, जिससे व्यापारी लोग यहाँ रहने लगे और चूँकि हमारे तथा हॉलैंड के निवासी यहाँ इस तट पर आते-जाते रहते हैं, यह उनके लिए निवास की व्यवस्था करता है।
अँग्रेज़ों और हॉलैंडवासियों ने मसूलीपट्टनम में अपनी बस्तियाँ बसाने का निर्णय क्यों लिया?
गुमाश्ता
यूरोपीय ट्रेडिंग कंपनी की व्यापारिक गतिविधियों के प्रभारी अधिकारी
गोलकुंडा के क़ुत्बशाही शासकों ने कपड़ों, मसालों और अन्य चीज़ों की बिक्री पर शाही एकाधिकार लागू किया; जिससे कि वहाँ का व्यापार पूरी तरह ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों में न चला जाए। विभिन्न व्यापारी समूहों–गोलकुंडा के कुलीन वर्गों, .फारसी सौदागरों, तेलुगु कोमटी चेट्टियार और यूरोपीय व्यापारियों ने नगर को घनी आबादी वाला और समृद्धिशाली बना दिया। जब मुग़लों ने गोलकुंडा तक अपनी शक्ति बढ़ा ली, तो उनके प्रतिनिधि सूबेदार मीर ज़ुमला ने, जो कि स्वयं एक सौदागर था, हालैंडवासियों और अँग्रेज़ों को आपस में भिड़ाना शुरू कर दिया। 1686-87 में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने गोलकुंडा को मुग़ल साम्राज्य में मिला लिया।
अब यूरोपीय कंपनियों के सामने अन्य विकल्प ढूँढने की समस्या आ खड़ी हुई। कंपनी की नई नीति के अंतर्गत केवल इतना ही पर्याप्त नहीं था कि पत्तन, भीतरी प्रदेश के उत्पादन केंद्रों के साथ संबंध बनाए रखें; बल्कि इस बात की भी आवश्यकता महसूस की गई कि कपंनी के नए केंद्र एक साथ राजनीतिक, प्रशासनिक तथा वाणिज्यिक भूमिकाएँ भी अदा करें। जब कंपनी के व्यापारी, बंबई (वर्तमान मुंबई) कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) और मद्रास (वर्तमान चेन्नई) चले गए, तब मसूलीपट्टनम अपनेे व्यापार और समृद्धि दोनों ही खो बैठा और अठारहवीं शताब्दी के दौरान उसका अधःपतन हो गया और आज वह एक छोटे-से जीर्ण-शीर्ण नगर से अधिक कुछ नहीं है।
नए नगर और व्यापारी
सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दियों में यूरोप के देश, व्यापारिक उद्देश्यों से मसालाें और कपड़ों की तलाश में लगे हुए थे; जो यूरोप और पश्चिमी एशिया, दोनों जगह लोकप्रिय हो गए थे। अँग्रेज़ों, हॉलैंडवासियों और फ्रांसीसियों ने पूर्व में अपनी वाणिज्यिक गतिविधियों का विस्तार करने के लिए अपनी-अपनी ईस्ट इंडिया कंपनी बनाईं। प्रारंभ में तो मुल्ला अब्दुल ग.फूर और वीरजी वोरा जैसे कुछ बड़े भारतीय व्यापारियों ने जिनके पास बड़ी संख्या में जहाज़ थे, उनका मुकाबला किया। किंतु यूरोपीय कंपनियों ने समुद्री व्यापार पर अपना नियंत्रण स्थापित करने के लिए अपनी नौ-शक्ति का प्रयोग किया और भारतीय व्यापारियों को अपने एजेंट के रूप में कार्य करने के लिए मज़बूर कर दिया। अंततः अँग्रेज़, उपमहाद्वीप में सर्वाधिक सफल वाणिज्यिक एवं राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरकर स्थापित हो गए।
वस्त्रों जैसी वस्तुओं की माँग में तेज़ी आ जाने से अधिकाधिक लोगों ने कताई, बुनाई, धुलाई, रंगाई आदि का धंधा अपना लिया। इससे इन शिल्पों का बहुत विस्तार हुआ। भारतीय वस्त्रों के रूप-रंग और डिज़ाइन अधिकाधिक परिष्कृत होते गए, किंतु इस काल में शिल्पकारों की स्वतंत्रता घटने लगी। शिल्पीजन पेशगी की प्रणाली पर काम करने लगे, जिसका अर्थ यह था कि उन्होंने जिन यूरोपीय एजेंटों से पहले ही पेशगी ले ली थी, उन्हीं के लिए उन्हें कपड़ा बुनना होता था। अब बुनकरों को अपना कपड़ा या बुनाई के नमूने बेचने की स्वतंत्रता नहीं थी। उन्हें तो कंपनी के एजेंटों द्वारा निर्धारित डिज़ाइन के कपड़े उन्हीं की माँग के अनुसार बनाने पड़ते थे।
अठारहवीं शताब्दी में बंबई, कलकत्ता और मद्रास नगरों का उदय हुआ, जो आज प्रमुख महानगर हैं। शिल्प और वाणिज्य में बड़े-बड़े परिवर्तन आए, जब बुनकर जैसे कारीगर तथा सौदागर यूरोपीय कंपनियों द्वारा इन नए नगरों में स्थापित ‘ब्लैक टाउन्स’ं में स्थानांतरित हो गए। ‘ब्लैक’ यानी देसी व्यापारियों और शिल्पकारों को इन ‘ब्लैक टाउन्स’ में सीमित कर दिया गया, जबकि गोरे शासकों ने मद्रास में फ़ोर्ट सेंट जॉर्ज और कलकत्ता में फ़ोर्ट सेंट विलियम की शानदार कोठियों मेें अपने आवास बनाए। अठारहवीं शताब्दी में शिल्पकलाओं तथा वाणिज्य की कहानी हम अगले वर्ष पढं़ेगे।
चित्र 8
प्रारंभिक उन्नीसवीं शताब्दी में बंबई की एक सड़क
चित्र 9
वास्को-डि-गामा
वास्को-डि-गामा और क्रिस्टो.फर कोलंबस
पंद्रहवीं शताब्दी में यूरोपीय नाविकों द्वारा समुद्री मार्ग खोजने के अभूतपूर्व कार्य किए गए। उनमें से अनेक नाविक भारतीय उपमहाद्वीप तक पहुँचने का मार्ग खोजने और मसाले प्राप्त करने की इच्छा से प्रेरित थे।
पुर्तगाली नाविक वास्को-डि-गामा अटलांटिक महासागर के साथ-साथ यात्रा करते हुए केप अॉफ गुड होप से निकलकर और हिंद महासागर को पार करके भारत पहुँचा। उसे अपनी पहली यात्रा को पूरा करने में एक वर्ष से भी अधिक समय लगा। वह 1498 में कालीकट पहुँचा और अगले वर्ष पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन लौट गया। इस समुद्री यात्रा के दौरान उसके चार में से दो जहाज़ नष्ट हो गए और 170 यात्रियों में से केवल 54 ही जीवित बचे। इन प्रत्यक्ष खतरों के बावज़ूद जो मार्ग खोले या खोजे गए, वे अत्यंत लाभकारी सिद्ध हुए और उसके बाद तो अँग्रेज़, हॉलैंडवासी और फ्रांसीसी नाविकों ने भी उसका अनुकरण करना प्रारंभ कर दिया।
भारत पहुँचने के लिए समुद्री मार्गों की खोज का एक अन्य सुपरिणाम निकला, जिसकी किसी को आशा नहीं थी। एक इटलीवासी क्रिस्टो.फर कोलंबस ने भारत पहुँचने का मार्ग खोजने के लिए अटलांटिक महासागर को पार करके पश्चिम की ओर यात्रा करने का निश्चय किया। उसका सोचना था कि चूँकि पृथ्वी गोल है, इसलिए वह पश्चिम की ओर से भी भारत पहुँच सकता है। वह 1492 में वेस्टइंडीज के तट पर पहुँचा (वेस्टइंडीज का नाम इसी भ्रांति के कारण पड़ा)। उसके पीछे स्पेन और पुर्तगाल के नाविक और विजेता भी वहाँ आते रहे और उन्होंने मध्य और दक्षिणी अमेरिका के बड़े-बड़े भागों को अपने कब्ज़े में कर लिया और अकसर उन प्रदेशों की पहले वाली बस्तियों को नष्ट कर दिया।
बीज शब्द
मंदिर नगर
नगरीकरण
विश्वकर्मा
वाणिज्य केंद्र
‘ब्लैक टाउन’
कल्पना करें
आप सत्रहवीं शताब्दी में सूरत से पश्चिमी एशिया की यात्रा करने की योजना बना रहे हैं। इस संबंध में आप कैसी तैयारियाँ करेंगे?
फिर से याद करें
1. रिक्त स्थानों की पूर्ति करें :
(क) राजराजेश्वर मंदिर ______________ में बनाया गया था।
(ख) अजमेर सूफ़ी संत ______________ से संबंधित है।
(ग) हम्पी ______________ साम्राज्य की राजधानी थी।
(घ) हॉलैंडवासियों ने आंध्र प्रदेश में ______________ पर अपनी बस्ती बसाई।
2. बताएँ क्या सही है और क्या गलत :
(क) हम राजराजेश्वर मंदिर के मूर्तिकार (स्थपति) का नाम एक शिलालेख से जानते हैं।
(ख) सौदागर लोग काफ़िलों में यात्रा करने की बजाय अकेले यात्रा करना अधिक पसंद करते थे।
(ग) काबुल हाथियों के व्यापार का मुख्य केंद्र था।
(घ) सूरत बंगाल की खाड़ी पर स्थित एक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक पत्तन था।
3. तंजावूर नगर को जल की आपूर्ति कैसे की जाती थी?
4. मद्रास जैसे बड़े नगरों में स्थित ‘ब्लैक टाउन्स’ में कौन रहता था?
आइए समझें
5. आपके विचार से मंदिरों के आस-पास नगर क्यों विकसित हुए?
6. मंदिरों के निर्माण तथा उनके रख-रखाव के लिए शिल्पीजन कितने महत्वपूर्ण थे?
7. लोग दूर-दूर के देशों-प्रदेशों से सूरत क्यों आते थे?8. कलकत्ता जैसे नगरों में शिल्प उत्पादन तंजावूर जैसे नगरों के शिल्प उत्पादन से किस प्रकार भिन्न था?
आइए विचार करें
9. इस अध्याय में वर्णित किसी एक नगर की तुलना आप, अपने परिचित किसी कस्बे या गाँव से करें? क्या दोनों के बीच कोई समानता या अंतर हैं?
10. सौदागरों को किन-किन समस्याओं का सामना करना पड़ता था? आपके विचार से क्या वैसी कुछ समस्याएँ आज भी बनी हुई हैं?
आइए करके देखें
11. तंजावूर या हम्पी के वास्तुशिल्प के बारे में कुछ और जानकारी प्राप्त करें और इन नगरों के मंदिरों तथा अन्य भवनों के चित्रों की सहायता से एक स्क्रैपबुक तैयार करें।
12. किसी वर्तमान तीर्थस्थान का पता लगाएँ। बताएँ कि लोग वहाँ क्यों जाते हैं, वहाँ क्या करते हैं, क्या उस केंद्र के आस-पास दुकानें हैं और वहाँ क्या खरीदा और बेचा जाता है?