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अठारहवीं शताब्दी में नए राजनीतिक गठन



यदि आप मानचित्र 1 और 2 को ध्यानपूर्वक देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि अठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के दौरान उपमहाद्वीप में कुछ विशेष रूप से उल्लेखनीय घटनाएँ घटीं। गौर कीजिए कि कई स्वतंत्र राज्यों के उदय से मुग़ल साम्राज्य की सीमाएँ किस तरह से बदलीं। आप यह भी देखें कि 1765 तक एक अन्य शक्ति यानी ब्रिटिश सत्ता ने पूर्वी भारत के बड़े-बड़े हिस्सों को सफलतापूर्वक हड़प लिया था। ये मानचित्र हमें यह दर्शाते हैं कि अठारहवीं शताब्दी एक एेसी अवधि थी, जब भारत में राजनीतिक परिस्थितियाँ अपेक्षाकृत एक छोटे से समयांतराल में बड़ी तेज़ी से अचानक बदलनी शुरू हो गई थीं। इस अध्याय में हम अठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध (मोटे तौर पर 1707 में जब औरंगज़ेब की मृत्यु हुई थी, से 1761 तक, जब पानीपत की तीसरी लड़ाई हुई) के दौरान उपमहाद्वीप में उत्पन्न हुई नई राजनीतिक शक्तियों के बारे में पढ़ेंगे।


मानचित्र 1
अठारहवीं शताब्दी में नए राज्यों का गठन

मानचित्र 2

अठारहवीं शताब्दी के मध्य ब्रिटिश क्षेत्र

मुग़ल साम्राज्य और परवर्ती मुग़लों के लिए संकट की स्थिति

अध्याय 4 में आपने देखा था कि मुग़ल साम्राज्य अपनी सफलता की ऊँचाई पर किस प्रकार पहुँचा था और फिर सत्रहवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में उसके सामने तरह-तरह के संकट किस प्रकार खड़े होने लगे थे। एेसा अनेक कारणों से हुआ। बादशाह औरंगज़ेब ने दक्कन में (1679 से) लंबी लड़ाई लड़ते हुए साम्राज्य के सैन्य और वित्तीय संसाधनों को बहुत अधिक खर्च कर दिया था।


औरंगज़ेब के उत्तराधिकारियों के शासनकाल में साम्राज्य के प्रशासन की कार्य-कुशलता समाप्त होने लगी और मनसबदारों के शक्तिशाली वर्गों को वश में रखना केंद्रीय सत्ता के लिए कठिन हो गया। सूबेदार के रूप में नियुक्त अभिजात अकसर राजस्व और सैन्य प्रशासन (दीवानी एवं फ़ौजदारी) दोनों कार्यालयों पर नियंत्रण रखते थे। इससे मुग़ल साम्राज्य के विशाल क्षेत्रों पर उन्हें विस्तृत राजनैतिक, आर्थिक और सैन्य शक्तियाँ मिल गईं। जैसे-जैसे सूबेदारों ने प्रांतों पर अपना नियंत्रण सुदृढ़ किया, राजधानी में पहुँचने वाले राजस्व की मात्रा में कमी आती गई।


अध्याय 4 में तालिका 1 देखें। औरंगज़ेब के शासनकाल में किन-किन लोगों ने मुग़ल सत्ता को सबसे लंबे समय तक चुनौती दी।


उत्तरी तथा पश्चिमी भारत के अनेक हिस्सों में हुए ज़मींदारों और किसानों के विद्रोहों और कृषक आंदोलनों ने इन समस्याओं को और भी गंभीर बना दिया। कभी-कभी ये विद्रोह बढ़ते हुए करों के भार के विरुद्ध किए गए थे और कभी-कभी ये शक्तिशाली सरदारों के द्वारा अपनी स्थिति को सुदृढ़ बनाने की कोशिशें थीं। अतीत में भी विद्रोही समूहों ने मुग़ल सत्ता को चुनौती दी थी। परंतु अब एेसे समूहों ने क्षेत्र के आर्थिक संसाधनों का प्रयोग अपनी स्थितियों को मज़बूत करने के लिए किया। जिस तरह से धीरे-धीरे राजनैतिक व आर्थिक सत्ता, प्रांतीय सूबेदारों, स्थानीय सरदारों व अन्य समूहों के हाथों में आ रही थी, औरंगज़ेब के उत्तराधिकारी इस बदलाव को रोक न सके।


भरपूर फ़सल और खाली तिजोरियाँ

एक तत्कालीन लेखक ने साम्राज्य के वित्तीय दिवालियेपन का वर्णन इन शब्दों में किया है :

बड़े ज़मींदार निस्सहाय और निर्धन हो गए हैं। उनके किसान वर्ष में दो फ़सलें उगाते हैं, लेकिन उन्हें दोनों में से कुछ नहीं मिलता है। उनके स्थानीय गुमाश्ते एक तरह से किसानों के हाथ की कठपुतली बने रहते हैं, जैसे कि स्वयं किसान अपने ऋणदाता के वश में रहता है, जब तक कि वह साहूकार का कर्ज़ा नहीं चुका देता। इस प्रकार संपूर्ण व्यवस्था एवं प्रशासन इतना चकनाचूर हो चुका है कि यद्यपि किसान अपनी फ़सल के ज़रिए मानो सोना बटोरता है, लेकिन उसके मालिक ज़मींदार को एक तिनके का टुकड़ा भी नहीं मिलता है। एेसी हालत में ज़मींदार सशस्त्र सेना कैसे रख सकते हैं, जिनकी उससे आशा की जाती है? वे अपने सैनिकों को जो लड़ाई के समय उनके आगे-आगे चलते हैं और घुड़सवारों को जो उनके ठीक पीछे चलते हैं, पैसा कहाँ से देंगे?


इस आर्थिक व राजनीतिक संकट के बीच ईरान के शासक नादिरशाह ने 1739 में दिल्ली पर आक्रमण किया और संपूर्ण नगर को लूट कर वह बड़ी भारी मात्रा में धन-दौलत ले गया। नादिरशाह के आक्रमण के बाद अफ़गान शासक अहमदशाह अब्दाली के आक्रमणों का ताँता लगा रहा। उसने तो 1748 से 1761 के बीच पाँच बार उत्तरी भारत पर आक्रमण किया और लूटपाट मचाई।



चित्र 1 नादिरशाह का 1779 का एक चित्र

नादिरशाह का दिल्ली पर आक्रमण

नादिरशाह के आक्रमण के परिणामस्वरूप दिल्ली में जो विध्वंस हुआ, उसका वर्णन समकालीन प्रेक्षकों ने किया था। इनमें से एक ने मुग़ल कोष से जिस तरह धन लूटा गया था, उसका वर्णन इस तरह से किया है :

साठ लाख रुपए और कई हज़ार सोने के सिक्के, लगभग एक करोड़ रुपए के सोने के बर्तन, लगभग पचास करोड़ रुपए के गहने, जवाहरात और अन्य चीज़ें ले गया, जिनमें से कुछ तो इतनी बेशकीमती थीं कि दुनिया में उनका मुकाबला कोई नहीं कर सकता है, जैसे-तख्ते ताउस यानी मयूर सिंहासन।

एक अन्य वृत्तांत में दिल्ली पर आक्रमण के प्रभाव का वर्णन मिलता है :

जो कभी मालिक थे, अब बड़ी दर्दनाक हालत में आ गए। जिन्हें कभी भरपूर आदर-इज़्ज़त दी जाती थी, उन्हें अब प्यास बुझाने के लिए पानी भी नहीं मिलता। अलग-थलग पड़े लोगों को उनके कोनों से खींचकर बाहर निकाल दिया गया। दौलतमंदों को भिखारी बना दिया गया। जो शौकीन लोग कभी तरह-तरह के सुंदर कपड़े पहनकर पोशाकों का नया-नया फैशन चलाते थे, अब नंगे घूमने लगे, और जिनके पास ज़मीन-जायदाद की कोई कमी नहीं थी, वे अब बेघर हो गए... नया शहर (शाहजहाँनाबाद) अब मलबे का ढेर बन गया। (नादिरशाह ने) तब शहर के पुराने मोहल्लों पर हमला बोला और वहाँ की सारी की सारी दुनिया को तबाह कर डाला...


साम्राज्य पर सब ओर से दबाव तो पड़ ही रहा था, अभिजातों के विभिन्न समूहों की पारस्परिक प्रतिद्वंद्विता ने उसे और भी कमज़ोर बना डाला। ये अभिजात दो बड़े गुटों में बँटे हुए थे – ईरानी और तूरानी (तुर्क मूल के)। काफ़ी समय तक परवर्त्ती मुग़ल बादशाह इनमें से एक या दूसरे समूह के हाथों की कठपुतली बने रहे। बेहद अपमानजनक स्थिति तब पैदा हो गई, जब दो मुग़ल बादशाहों-फरूख़सियर (1713-1719) और आलमगीर द्वितीय (1754-1759) की हत्या हो गई और दो अन्य बादशाहों, अहमदशाह (1748-1754) और शाह आलम द्वितीय को उनके अभिजातों ने अंधा कर दिया।

नए राज्यों का उदय

मुग़ल सम्राटों की सत्ता के पतन के साथ-साथ बड़े प्रांतों के सूबेदारों और बड़े ज़मींदारों ने उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में अपनी शक्ति और प्रबल बना ली। अठारहवीं शताब्दी के दौरान मुग़ल साम्राज्य धीरे-धीरे कई स्वतंत्र क्षेत्रीय राज्यों में बिखर गया। मोटे तौर पर अठारहवीं शताब्दी के राज्यों को तीन परस्परव्यापी समूहों में बाँटा जा सकता है-(1) अवध, बंगाल व हैदराबाद जैसे वे राज्य जो पहले मुग़ल प्रांत थे। हालाँकि इन राज्यों के शासक अति शक्तिशाली थे और काफ़ी हद तक स्वतंत्र थे उन्होंने मुग़ल बादशाह से औपचारिक तौर पर अपने संबंध नहीं तोड़े; (2) एेसे राज्य जो मुग़लों के पुराने शासनकाल में वतन जागीरों के रूप में काफ़ी स्वतंत्र थे। इनमें कई राजपूत प्रदेश भी शामिल थे; तथा (3) तीसरी श्रेणी में मराठों, सिक्खों तथा जाटों के राज्य आते हैं। ये विभिन्न आकार के थे और इन्होंने कड़े और लंबे सशस्त्र संघर्ष के बाद मुग़लों से स्वतंत्रता छीनकर ली थी।

चित्र 2 

एक अभिजात के दरबार में स्वागत करते हुए फर्रूख़सियर

पुराने मुग़ल प्रांत

पुराने मुग़ल प्रांतों से जिन ‘उत्तराधिकारी’ राज्यों का उद्भव हुआ, उनमें से तीन राज्य प्रमुख थे :अवध, बंगाल और हैदराबाद। ये तीनों ही राज्य उच्च मुग़ल अभिजातों द्वारा स्थापित किए गए थे। इन तीनों राज्यों के संस्थापक सआदत ख़ान (अवध), मुर्शीद क़ुली ख़ान (बंगाल) और आसफ़जाह (हैदराबाद) एेसे व्यक्ति थे, जिनका मुग़ल दरबार में ऊँचा स्थान था। मुग़ल बादशाहों को उन पर भरोसा और विश्वास था। आसफ़जाह और मुर्शीद क़ुली ख़ान, दोनों को सात-सात हज़ार ज़ात का दर्जा मिला हुआ था, जबकि सआदत ख़ान की ज़ात का दर्जा छह हज़ार था।

हैदराबाद

निज़ाम-उल-मुल्क आसफ़ जाह (1724-1748), जिसने हैदराबाद राज्य की स्थापना की थी; मुग़ल बादशाह फ ρरूख़सियर के दरबार का एक अत्यंत शक्तिशाली सदस्य था। उसे सर्वप्रथम अवध की सूबेदारी सौंपी गई थी, और बाद में उसे दक्कन का कार्यभार दे दिया गया था। 1720-22 के मध्य ही दक्कन प्रांतों का सूबेदार होने की वजह से आसफ़ जाह के पास पहले से ही राजनीतिक और वित्तीय प्रशासन का पूरा नियंत्रण था। दक्कन में होने वाले उपद्रवों और मुग़ल दरबार में चल रही प्रतिस्पर्द्धा का फायदा उठाकर उसने सत्ता हथियाई तथा उस क्षेत्र का वास्तविक शासक बन गया।


आसफ़जाह अपने लिए कुशल सैनिकों तथा प्रशासकों को उत्तरी भारत से लाया था और वे दक्षिण में नए अवसर पाकर प्रसन्न थे। उसने मनसबदार नियुक्त किए और इन्हें जागीरें प्रदान कीं। हालाँकि वह अभी भी मुग़ल सम्राट का सेवक था, फिर भी वह काफ़ी आज़ादी से शासन चलाता था। न तो वह दिल्ली से कोई निर्देश लेता था और न ही दिल्ली उसके काम-काज में कोई हस्तक्षेप करती थी। मुग़ल बादशाह तो केवल निज़ाम-उल-मुल्क आसफ़ जाह द्वारा पहले से लिए गए निर्णयों की पुष्टि कर दिया करते थे।


हैदराबाद राज्य पश्चिम की ओर मराठों के विरुद्ध और पठारी क्षेत्र के स्वतंत्र तेलुगु सेनानायकों के साथ युद्ध करने में सदा संलग्न रहता था। पूर्व दिशा में निज़ाम-उल-मुल्क आसफ़ जाह कोरोमंडल तट पर स्थित वस्त्रोत्पादक धनसंपन्न क्षेत्र पर अपना नियंत्रण प्राप्त करने की महत्त्वाकाँक्षा रखता था, पर उनकी इस महत्त्वाकाँक्षा पर उस क्षेत्र में ब्रिटिश शक्ति की उपस्थिति के कारण रोक लग गई।


निज़ाम की फ़ौज

हैदराबाद के निज़ाम के निजी सैनिकों का एक वर्णन (1790) :

निज़ाम के पास 400 हाथियों की सवारी है। उसके आस-पास कई हज़ार घुड़सवार रहते हैं। इन अत्यंत कुशल और अति सुंदर सजे हुए सवारों का सांकेतिक वेतन 100 रु. से ज़्यादा है...

अवध

बुरहान-उल-मुल्क सआदत ख़ान को 1722 में अवध का सूबेदार नियुक्त किया गया था। मुग़ल साम्राज्य का विघटन होने पर जो राज्य बने, उनमें यह राज्य सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण राज्यों में से एक था। अवध एक समृद्धिशाली प्रदेश था, जो गंगानदी के उपजाऊ मैदान में फैला हुआ था और उत्तरी भारत तथा बंगाल के बीच व्यापार का मुख्य मार्ग उसी में से होकर गुज़रता था। बुरहान-उल-मुल्क ने भी अवध की सूबेदारी, दीवानी और फ़ौजदारी एक साथ अपने हाथ में ले ली और सूबे के राजनीतिक, वित्तीय और सैनिक मामलों का एकमात्र कर्ताधर्ता बन गया।


बुरहान-उल-मुल्क ने अवध क्षेत्र में मुग़ल प्रभाव को कम करने की कोशिशों के चलते मुग़लों द्वारा नियुक्त अधिकारियों (जागीरदारों) की संख्या में कटौती कर दी। उसने जागीरों के आकार में भी कटौती की और रिक्त स्थानों पर अपने निष्ठावान सेवकों को नियुक्त किया। धोखाधड़ी को रोकने के लिए जागीर अधिकारियों के खातों व लेखों की जाँच की गई और नवाब के दरबार द्वारा नियुक्त अधिकारियों द्वारा सभी ज़िलों के राजस्व का फिर से निर्धारण किया गया। उसने अनेक राजपूत ज़मींदारियों और रुहेलखंड के अफ़गानों की उपजाऊ कृषि भूमियों को अपने राज्य में मिला लिया।

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चित्र 3 बुरहान-उल-मुल्क

अपने राज्य को सुदृढ़ करने की कोशिशों में मुग़ल सूबेदार दीवान के कार्यालय पर भी क्यों नियंत्रण जमाना चाहते थे?


राज्य ऋण प्राप्त करने के लिए स्थानीय सेठ, साहूकारों और महाजनों पर निर्भर रहता था। राज्य, राजस्व का ठेका सबसे ऊँची बोली लगाने वाले इजारेदार को देता था। इजारेदार राज्य को एक निश्चित रकम के भुगतान का वचन देते थे। स्थानीय साहूकार राज्य को ठेके की इस रकम के भुगतान की गारंटी देते थे। दूसरी ओर इजारेदारों को कर का मूल्यांकन करने और उसे एकत्र करने की खासी छूट दे दी गई थी। इन परिवर्तनों के फलस्वरूप साहूकारों और महाजनों जैसे कई नए सामाजिक समूह राज्य की राजस्व प्रणाली के प्रबंध को प्रभावित करने लगे। पहले एेसा कभी नहीं हुआ था।

बंगाल

मुर्शीद क़ुली ख़ान के नेतृत्व में बंगाल धीर-धीरे मुग़ल नियंत्रण से अलग हो गया। मुर्शीद कुली ख़ान बंगाल के नायब थे, यानी कि प्रांत के सूबेदार के प्रतिनियुक्त थे। यद्यपि मुर्शीद क़ुली ख़ान औपचारिक रूप से सूबेदार कभी नहीं बना। उसने बहुत जल्द सूबेदार के पद से जुड़ी हुई सत्ता अपने हाथ में ली ली। हैदराबाद और अवध के शासकों की तरह उसने भी राज्य के राजस्व प्रशासन पर अपना नियंत्रण जमाया। बंगाल में मुग़ल प्रभाव को कम करने के लिए उसने बंगाल के राजस्व का बड़े पैमाने पर पुनर्निर्धारण करने का आदेश दिया। सभी ज़मींदारों से बड़ी कठोरता से राजस्व नकद वसूल किया जाता था। परिणामस्वरूप, बहुत से ज़मींदारों को महाजनों तथा साहूकारों से उधार लेना पड़ता था। जो लोग राजस्व का भुगतान नहीं कर पाते थे, उन्हें मजबूरन अपनी ज़मीनें बड़े ज़मीदारों को बेचनी पड़ती थीं।


इस प्रकार अठारहवीं शताब्दी में बंगाल के एक क्षेत्रीय राज्य बन जाने से ज़मींदारों में काफ़ी बदलाव आया। राज्य और साहूकारों के बीच हैदराबाद तथा अवध में जो घनिष्ठ संबंध था, वह अलीवर्दी ख़ान के शासन काल (1740-1756) में बंगाल में भी स्पष्ट दिखाई दिया। उसके शासन काल में जगत सेठ का साहूकार घराना अत्यंत समृद्धिशाली हो गया।


चित्र 4 अलीवर्दी ख़ान का दरबार


यदि हम इन राज्यों के अभिलक्षणों पर विहंगम दृष्टि डालें, तो हमें उनमें कुछ सामान्य विशेषताएँ देखने को मिलेंगी – प्रथम, यद्यपि बड़े राज्य पुराने मुग़ल अभिजातों द्वारा स्थापित किए गए थे, ये अभिजात कुछ प्रशासनिक व्यवस्थाओं के प्रति संदेहास्पद थे, जो उन्हें उत्तराधिकार में मिले थे। विशेषतः वे जागीरदारी व्यवस्था को अत्यंत संदेह की दृष्टि से देखा करते थे। दूसरा उनके कर प्राप्त करने के तरीके मुग़लों से भिन्न थे। कर संग्रह के लिए राज्य के अधिकारियों पर निर्भर न रहकर तीनों राज्यों– हैदराबाद, अवध, बंगाल– ने राजस्व वसूली के लिए इजारेदारों के साथ ठेके कर लिए। इजारेदारी की प्रथा, जो मुुग़लों द्वारा पूर्णतः नापसंद की गई थी, अठारहवीं शताब्दी में समस्त भारत में फैल गई थी। तथापि देहात के उसके प्रभाव में क्षेत्रीय विभिन्नताएँ थीं। इन सभी क्षेत्रीय राज्यों में तीसरा सामान्य लक्षण यह था कि उनमें राज्य और धनी महाजनों तथा वणिक जनों के बीच संबंध उभरने लगे। ये साहूकार-महाजन लोग लगान वसूल करने वाले इजारेदारों को पैसा उधार देते थे, बदले में प्रतिभूति ज़मानत या बंधक के रूप में ज़मीन रख लेते थे और उनकी जोतों से अपने खुद के कारिंदों के ज़रिए कर वसूल किया करते थे। इस प्रकार समस्त भारत में धनाढ्य साहूकारों और महाजनों की इस नई राजनीतिक व्यवस्था में साझेदारी बढ़ रही थी।


राजपूतों की वतन जागीरी

बहुत-से राजपूत घराने विशेष रूप से अम्बर और जोधपुर के राजघराने मुग़ल व्यवस्था में विशिष्टता के साथ सेवारत रहे थे। बदले में उन्हें अपनी वतन जागीरों पर पर्याप्त स्वायत्तता का आनंद लेने की अनुमति मिली हुई थी। अब अठारहवीं शताब्दी में इन शासकों ने अपने आस-पास के इलाकों पर अपने नियंत्रण का विस्तार करने के लिए अपने हाथ-पाँव मारने शुरू किए। जोधपुर के राजा अजीत सिंह ने भी मुग़ल दरबार की गुटीय राजनीति में अपने पैर फँसा दिए।


कई राजपूत शासकों ने मुगलों का अधिराजत्व स्वीकार किया था लेकिन मेवाड़ एकमात्र एेसा राजपूत राज्य था जिसने मु.गल सत्ता को चुनौती दी थी। राणा प्रताप 1572 में उदयपुर तथा मेवाड़ के बड़े क्षेत्र पर नियंत्रण के साथ मेवाड़ की राजगद्दी पर आसीन हुए। राणा के पास मु.गल अधिराजत्व को स्वीकार करने के लिए कई दूतों को भेजा गया लेकिन वे अपने निर्णय पर दृढ़ रहे।


इन प्रभावशाली राजपूत घरानों ने गुजरात और मालवा के लाभदायक सूबों की सूबेदारी का दावा किया। जोधपुर के राजा अजीत सिंह को गुजरात की सूबेदारी और अम्बर के सवाई राजा जयसिंह को मालवा की सूबेदारी मिल गई। बादशाह जहांदार शाह ने 1713 में इन राजाओं के इन पदों का नवीकरण कर दिया। उन्होंने अपने वतनों के पास-पड़ौस के शाही इलाकों के कुछ हिस्सों पर कब्ज़ा करने की भी कोशिशें की। जोधपुर राजघराने ने नागौर को जीत लिया और अपने राज्य में मिला लिया। दूसरी ओर अम्बर ने भी बूंदी के बड़े-बड़े हिस्सों पर अपना कब्ज़ा कर लिया। सवाई राजा जयसिंह ने जयपुर में अपनी नई राजधानी स्थापित की और उसे 1722 में आगरा की सूबेदारी दे दी गई। 1740 के दशक से राजस्थान में मराठों के अभियानों ने इन रजवाड़ों पर भारी दबाव डालना शुरू कर दिया, जिससे उनका अपना विस्तार आगे होने से रुक गया।

चित्र 4a चित्तौडगढ़ किला, राजस्थान

कई राजपूत सरदारों ने पहाड़ियों की चोटियों पर किले बनाये, जो सत्ता के केंद्र बने। व्यापक किलेबंदी के साथ इन भव्य संरचनाओं में नगर, महलें, मंदिर, व्यापारिक केंद्र, जल संग्रहण संरचनाएं और अन्य इमारतें होती थीं। चित्तौडगढ़ किले में, तालाब, कुण्डी (कुएं), बावली जैसे कई जल निकाय थे।


जयपुर के राजा जयसिंह

1732 के एक फारसी वृत्तांत में राजा जयसिंह का वर्णन :

राजा जयसिंह अपनी सत्ता की चरम सीमा पर थे। बारह वर्ष के लिए वे आगरा के सूबेदार रहे और पाँच या छह वर्ष के लिए मालवा के। उनके पास विशाल सेना, तोपखाना तथा भारी मात्रा में धन-संपदा थी। उनका प्रभाव दिल्ली से लेकर नर्मदा के तट तक फैला हुआ था।




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चित्र 4b जयपुर में जंतर मंतर


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चित्र 5 

मेहरानगढ़ विफ़ला, जोधपुर


अम्बेर के शासक सवाई जयसिंह ने दिल्ली, जयपुर, उज्जैन, मथुरा और वाराणसी में पांच खगोलीय वेधशालाओं का निर्माण किया। जंतर मंतर के नाम से विख्यात इन वेधशालाओं में खगोलीय पिंडों के अध्ययन हेतु कई उपकरण हैं।


आज़ादी हासिल करना

सिक्ख

अध्याय 8 में आपने पढ़ा कि सत्रहवीं शताब्दी के दौरान सिक्ख एक राजनैतिक समुदाय के रूप में गठित हो गए। इससे पंजाब के क्षेत्रीय राज्य-निर्माण को बढ़ावा मिला। गुरु गोबिंद सिंह ने 1699 में खालसा पंथ की स्थापना से पूर्व और उसके पश्चात् राजपूत व मुग़ल शासकों के खिलाफ़ कई लड़ाइयाँ लड़ीं। 1708 में गुरु गोबिंद सिंह की मृत्यु के बाद बंदा बहादुर के नेतृत्व में ‘खालसा’ ने मुग़ल सत्ता के खिलाफ़ विद्रोह किए। उन्होंने बाबा गुरु नानक और गुरु गोबिंद सिंह के नामों वाले सिक्के गढ़कर अपने शासन को सार्वभौम बताया। सतलुज और यमुना नदियों के बीच के क्षेत्र में उन्होंने अपने प्रशासन की स्थापना की। 1715 में बंदा बहादुर को बंदी बना लिया गया और उसे 1716 में मार दिया गया।


अठारहवीं शताब्दी में कई योग्य नेताओं के नेतृत्व में सिक्खों ने अपने-आपको पहले ‘जत्थों’ में, और बाद में ‘मिस्लों’ में संगठित किया। इन जत्थों और मिस्लों की संयुक्त सेनाएँ ‘दल खालसा’ कहलाती थीं। उन दिनों दल खालसा, बैसाखी और दीवाली के पर्वों पर अमृतसर में मिलता था। इन बैठकों में वे सामूहिक निर्णय लिए जाते थे, जिन्हें गुरमत्ता (गुरु के प्रस्ताव) कहा जाता था। सिक्खों ने राखी व्यवस्था स्थापित की, जिसके अंतर्गत किसानों से उनकी उपज का 20 प्रतिशत कर के रूप में लेकर बदले में उन्हें संरक्षण प्रदान किया जाता था।



चित्र 6 दसवें गुरु, गुरु गोबिंद सिंहचित्र 6 दसवें गुरु, गुरु गोबिंद सिंह


चित्र 7
महाराजा रणजीत सिंह की तलवार

चित्र 7a शिवाजी का रूपचित्र


17वीं सदी के अंत तक दक्कन में शिवाजी के नेतृत्व में एक शक्तिशाली राज्य के उदय की शुरुआत हुई, जिससे अंततः एक मराठा राज्य की स्थापना हुई। शिवाजी का जन्म 1630 में शाहजी और जीजाबाई से हुआ। अपनी माता और अभिभावक दादा कोंडदेव के मार्ग निर्देशन में शिवाजी कम उम्र में ही विजयपथ पर निकल पड़े। जावली पर कब्जे ने उन्हें मवाला पठारों का अविवादित मुखिया बना दिया जिसने उनके क्षेत्र-विस्तार का पथ प्रशस्त किया। बीजापुर और मुगलों के खिलाफ उनके कारनामों ने उन्हें विख्यात व्यक्तित्व बना दिया। वे अपने विरोधियों के खिलाफ प्रायः गुरिल्ला युद्धकला का प्रयोग करते थे। चौथ और सरदेशमुखी पर आधारित राजस्व संग्रह प्रणाली की सहायता से उन्होंने एक मजबूत मराठा राज्य की नींव रखी।

गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा को प्रेरित किया था कि शासन उनके भाग्य में है (राज करेगा खालसा)। अपने सुनियोजित संगठन के कारण खालसा, पहले मुग़ल सूबेदारों के खिलाफ़ और फिर अहमदशाह अब्दाली के खिलाफ़ सफल विरोध प्रकट कर सका। (अहमदशाह अब्दाली ने मुग़लों से पंजाब का समृद्ध प्रांत और सरहिंद की सरकार को अपने कब्ज़े में कर लिया था।) खालसा ने 1765 में अपना सिक्का गढ़कर सार्वभौम शासन की घोषणा की। यह महत्त्वपूर्ण है कि सिक्के पर उत्कीर्ण शब्द वही थे, जो बंदा बहादुर के समय में खालसा के आदेशों में पाए जाते हैं।

अठारहवीं शताब्दी के अंतिम भाग में सिक्ख इलाके सिंधु से यमुना तक फैले हुए थे, यद्यपि ये विभिन्न शासकों में बँटे हुए थे। इनमें से एक शासक महाराजा रणजीत सिंह ने विभिन्न सिक्ख समूहों में फिर से एकता कायम करके 1799 में लाहौर को अपनी राजधानी बनाया।

खालसा से क्या अभिप्राय है? क्या आपको याद है कि इसके बारे में आपने अध्याय 8 में पढ़ा है?

मराठा

मराठा राज्य एक अन्य शक्तिशाली क्षेत्रीय राज्य था, जो मुग़ल शासन का लगातार विरोध करके उत्पन्न हुआ था। शिवाजी (1627-1680) ने शक्तिशाली योद्धा परिवारों (देशमुखों) की सहायता से एक स्थायी राज्य की स्थापना की। अत्यंत गतिशील कृषक-पशुचारक (कुनबी) मराठों की सेना के मुख्य आधार बन गए। शिवाजी ने प्रायद्वीप में मुग़लों को चुनौती देने के लिए इस सैन्य-बल का प्रयोग किया। शिवाजी की मृत्यु के पश्चात्, मराठा राज्य में प्रभावी शक्ति, चितपावन ब्राह्मणों के एक परिवार के हाथ में रही, जो शिवाजी के उत्तराधिकारियों के शासनकाल में ‘पेशवा’ (प्रधानमंत्री) के रूप में अपनी सेवाएँ देते रहे। पुणे मराठा राज्य की राजधानी बन गया।


पेशवाओं की देखरेख में मराठों ने एक अत्यंत सफल सैन्य संगठन का विकास कर लिया। उनकी सफलता का रहस्य यह था कि वे मुग़लों के किलाबंद इलाकों से टक्कर न लेते हुए, उनके पास से चुपचाप निकलकर शहरों-कस्बों पर हमला बोलते थे और मुगल सेना से एेसे मैदानी इलाकों में मुठभेड़ लेते थे; जहाँ रसद पाने और कुमक आने के रास्ते आसानी से रोके जा सकते थे।

1720 से 1761 के बीच, मराठा साम्राज्य का काफ़ी विस्तार हुआ। उसने शनैः-शनैः और काफ़ी सफलतापूर्वक मुगल साम्राज्य की सत्ता को क्षति पहुँचाई। 1720 के दशक तक मालवा और गुजरात मुग़लों से छीन लिए गए। 1730 के दशक तक, मराठा नरेश को समस्त दक्कन प्रायद्वीप के अधिपति के रूप में मान्यता मिल गई और साथ ही इस क्षेत्र पर चौथ और सरदेशमुखी कर वसूलने का अधिकार भी मिल गया।


1737 में दिल्ली पर धावा बोलने के बाद मराठा प्रभुत्व की सीमाएँ तेज़ी से बढ़ीं। वे उत्तर में राजस्थान और पंजाब, पूर्व में बंगाल और उड़ीसा तथा दक्षिण में कर्नाटक और तमिल एवं तेलुगु प्रदेशों तक फैल गईं। इन क्षेत्रों को औपचारिक रूप से मराठा साम्राज्य में सम्मिलित नहीं किया गया, मगर मराठा प्रभुसत्ता को स्वीकार करने के तरीके के रूप में उनसे भेंट की रकम ली जाने लगी। साम्राज्य के इस विस्तार से उन्हें संसाधनों का भंडार तो मिल गया, मगर उसके लिए उन्हें कीमत भी चुकानी पड़ी। मराठों के सैन्य अभियानों के कारण अन्य शासक भी उनके खिलाफ़ हो गए। परिणामस्वरूप मराठों को 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई में अन्य शासकों से कोई सहायता नहीं मिली।


चौथ

ज़मींदारों द्वारा वसूले जाने वाले भू-राजस्व का 25 प्रतिशत। दक्कन में इनको मराठा वसूलते थे।


सरदेशमुखी

दक्कन में मुख्य राजस्व संग्रहकर्त्ता को दिए जाने वाले भू-राजस्व का 9-10 प्रतिशत हिस्सा।


बाजी राव प्रथम, जो बाजीराव बल्लाल के नाम से भी जाने जाते हैं, पेशवा बालाजी विश्वनाथ के पुत्र थे। वह एक महान मराठा सेनापति थे। उन्हें विंध्य के पार मराठा राज्य के विस्तार का श्रेय प्राप्त है तथा वे मालवा, बुंदेलखंड, गुजरात और पुर्तगालियों के खिलाफ सैन्य अभियानों के लिए भी जाने जाते हैं।


अंतहीन सैन्य अभियानों के साथ-साथ मराठों ने एक प्रभावी प्रशासन व्यवस्था तैयार की। जब किसी इलाके पर एक बार विजय अभियान पूरा हो जाता था और मराठों का शासन सुरक्षित हो जाता था, तो वहाँ स्थानीय परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए धीरे-धीरे भू-राजस्व की माँग की गई। कृषि को प्रोत्साहित किया गया और व्यापार को पुनर्जीवित किया गया। इससे सिंधिया, गायकवाड़ और भोंसले जैसे मराठा सरदारों को शक्तिशाली सेनाएँ खड़ी करने के लिए संसाधन मिल सके। 1720 के दशक में मालवा में मराठा अभियानों ने उस क्षेत्र में स्थित शहरों के विकास व समृद्धि को कोई हानि नहीं पहुँचाई। उज्जैन सिंधिया के संरक्षण में और इंदौर होल्कर के आश्रय में फलता-फूलता रहा। ये शहर हर तरह से बड़े और समृद्धिशाली थे और वे महत्त्वपूर्ण वाणिज्यिक और सांस्कृतिक केंद्रों के रूप में कार्य कर रहे थे। मराठों द्वारा नियंत्रित इलाकों में व्यापार के नए मार्ग खुले। चंदेरी के क्षेत्र में उत्पादित रेशमी वस्त्रों को मराठों की राजधानी पुणे में नया बाज़ार मिला। बुरहानपुर पहले आगरा और सूरत के बीच की धुरी पर ही अपने व्यापार में संलग्न था, लेकिन अब उसने अपने वाणिज्यिक भीतरी क्षेत्र को बढ़ाकर दक्षिण में पुणे और नागपुर को तथा पूर्व में लखनऊ तथा इलाहाबाद को शामिल कर लिया था।

जाट

अन्य राज्यों की तरह जाटों ने भी सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दियों में अपनी सत्ता सुदृढ़ की। अपने नेता चूड़ामन के नेतृत्व में उन्होंने दिल्ली के पश्चिम में स्थित क्षेत्रों पर अपना नियंत्रण कर लिया। 1680 के दशक तक आते-आते उनका प्रभुत्व दिल्ली और आगरा के दो शाही शहरों के बीच के क्षेत्र पर होना शुरू हो गया। वस्तुतः कुछ अर्से के लिए वे आगरा शहर के अभिरक्षक ही बन गए।

जाट, समृद्ध कृषक थे और उनके प्रभुत्व-क्षेत्र में पानीपत तथा बल्लभगढ़ जैसे शहर महत्त्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र बन गए। सूरजमल के राज में भरतपुर शक्तिशाली राज्य के रूप में उभरा। 1739 में जब नादिरशाह ने दिल्ली पर हमला बोलकर उसे लूटा, तो दिल्ली के कई प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने भरतपुर में शरण ली। नादिरशाह के पुत्र जवाहिरशाह के पास तीस हज़ार सैनिक थे। उसने बीस हज़ार अन्य सैनिक मराठाओं से लिए, पंद्रह हज़ार सैनिक सिक्खों से लिए और इन सबके बलबूते पर वह मुग़लों से लड़ा।

जाटों की शक्ति सूरज मल के समय पराकाष्ठा पर पहुँची, जिन्होंने 1756-1763 के दौरान भरतपुर जाट राज्य को (आधुनिक राजस्थान में) संगठित किया। सूरज मल के राजनैतिक नियंत्रण में, जो क्षेत्र शामिल थे उसमें आधुनिक पूर्वी राजस्थान, दक्षिणी हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दिल्ली शामिल थे। सूरज मल ने कई किले और महल बनवाए जिनमें भरतपुर का प्रसिद्ध लोहागढ़ का किला इस क्षेत्र में बने सबसे मजबूत किलों में से एक था।

जहाँ भरतपुर का किला काफ़ी हद तक पारंपरिक शैली में बनाया गया, वहीं दीग में जाटों ने अम्बर और आगरा की शैलियों का समन्वय करते हुए एक विशाल बाग-महल बनवाया। शाही वास्तुकला से जिन रूपों को पहली बार शाहजहाँ के युग में जोड़ा गया था, दीग की इमारतें उन्हीं रूपों के नमूने पर बनाई गई थीं। (अध्याय 5 और 9 दोनों के चित्र 12 को देखें)


चित्र 8
अठारहवीं शताब्दी का दीग का राजमहल समूह। इमारत की छत पर मुख्य सभा भवन के ‘बांग्ला गुंबद’ पर गौर करें।

फ्रांसीसी क्रांति (1789-1794)
अठारहवीं शताब्दी में भारत की विभिन्न राज्य व्यवस्थाओं में जनसाधारण को अपनी-अपनी सरकारों के कार्यों में हिस्सा लेने का अधिकार नहीं था। एेसी स्थिति पश्चिमी दुनिया में अठारहवीं शताब्दी के आखिरी दशकों तक बनी हुई थी। अमरीकी (1776-1781) और फ्रांसीसी क्रांतियों ने इस स्थिति को और साथ-साथ अभिजात वर्ग के सामजिक व राजनीतिक प्राधिकारों को चुनौती दी।
फ्रांसीसी क्रांति के दौरान मध्य वर्गों, किसानों और शिल्पकारों ने पादरी गण और अभिजातों के विशेषाधिकारों के खिलाफ़ लड़ाई लड़ी। उनका मानना था कि समाज में किसी भी समूह के जन्मसिद्ध प्राधिकार नहीं होने चाहिए, बल्कि लोगों की सामाजिक स्थिति योग्यता पर निर्भर करनी चाहिए। फ्रांसीसी क्रांति के दार्शनिकों ने यह सुझाया कि सभी के लिए समान कानून और समान अवसर होने चाहिए। उनका यह भी कहना था कि सरकार की सत्ता लोगों से बननी चाहिए और जनता को सरकार के कार्यों में भूमिका अदा करने का अधिकार होना चाहिए। फ्रांसीसी और अमरीकी क्रांतियों जैसे आंदोलनों ने धीरे-धीरे प्रजाओं को नागरिकों में बदल डाला।
नागरिकता, राष्ट्रीय-राज्य एवं लोकतांत्रिक अधिकारों के विचारों ने भारत में उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों से जड़ पकड़ी।

कल्पना करें
आप अठारहवीं शताब्दी के एक राज्य के शासक हैं। अब यह बताएँ कि आप अपने प्रांत में अपनी स्थिति को मज़बूत करने के लिए क्या-क्या कदम उठाना चाहेंगे और एेसा करते समय आपके सामने क्या-क्या विरोध अथवा समस्याएँ खड़ी की जा सकती हैं।

बीज शब्द
सूबेदारी
दल खालसा
मिस्ल
फौज़दारी
इजारादारी
चौथ
सरदेशमुखी

फिर से याद करें

1.  निम्नलिखित में मेल बैठाएँ :
सूबेदार
एक राजस्व कृषक
फ़ौजदार
उच्च अभिजात
इजारादार
प्रांतीय सूबेदार
मिस्ल
मराठा कृषक योद्धा
चौथ
एक मुगल सैन्य कमांडर
कुनबी
सिख योद्धाओं का समूह
उमरा
मराठों द्वारा लगाया गया कर
2. रिक्त स्थान की पूर्ति करें :
(क) औरंगज़ेब ने _____________________ में एक लंबी लड़ाई लड़ी।
(ख) उमरा और जागीरदार मुग़ल _____________________ के शक्तिशाली अंग थे।
(ग) आसफ़ जाह ने हैदराबाद राज्य की स्थापना _____________________ में की।
(घ) अवध राज्य का संस्थापक _____________________ था।
3. बताएँ सही या गलत :
(क) नादिरशाह ने बंगाल पर आक्रमण किया।
(ख) सवाई राजा जयसिंह इन्दौर का शासक था।
(ग) गुरु गोबिंद सिंह सिक्खों के दसवें गुरु थे।
(घ) पुणे अठारहवीं शताब्दी में मराठों की राजधानी बना।
4. सआदत ख़ान के पास कौन-कौन से पद थे?
आइए विचार करें
5. अवध और बंगाल के नवाबों ने जागीरदारी प्रथा को हटाने की कोशिश क्यों की?
6. अठारहवीं शताब्दी में सिक्खों को किस प्रकार संगठित किया गया?
7. मराठा शासक दक्कन के पार विस्तार क्यों करना चाहते थे?
8. आसफ़जाह ने अपनी स्थिति को मज़बूत बनाने के लिए क्या-क्या नीतियाँ अपनाईं?
9. क्या आपके विचार से आज महाजन और बैंकर उसी तरह का प्रभाव रखते हैं, जैसाकि वे अठारहवीं शताब्दी में रखा करते थे?
10. क्या अध्याय में उल्लिखित कोई भी राज्य आपके अपने प्रांत में विकसित हुए थे? यदि हाँ, तो आपके विचार से अठारहवीं शताब्दी का जनजीवन आगे इक्कीसवीं शताब्दी के जनजीवन से किस रूप में भिन्न था?
आइए करके देखें
11. अवध, बंगाल या हैदराबाद में से किसी एक की वास्तुकला और नए क्षेत्रीय दरबारों के साथ जुड़ी संस्कृति के बारे में कुछ और पता लगाएँ।
12. राजपूतों, जाटों, सिक्खों अथवा मराठों में से किसी एक समूह के शासकों के बारे में कुछ और कहानियों का पता लगाएँ।