अध्याय 9

समानता के लिए संघर्ष

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इस पुस्तक में अभी तक आपने कांता, अंसारी दंपति, मेलानी और स्वप्ना जैसे लोगों के बारे में पढ़ा। इन सब की कहानियों में जो बात समान है, वह यह कि उनके साथ असमानता का व्यवहार किया गया। एेसी स्थितियों में लोग क्या कर सकते हैं? इतिहास में इस बात के अनेक उदाहरण हैं, जहाँ लोग असमानताओं के विरुद्ध और न्याय के लिए संघर्ष करने के लिए एक साथ आ खड़े हुए। क्या अध्याय 1 की रोज़ा पार्क्स की कहानी आपको याद है? क्या अध्याय 5 में स्त्री आंदोलनों पर पढ़े, चित्र लेख आपको ध्यान हैं? इस अध्याय में आप कुछ एेसी कोशिशों के बारे में पढ़ेंगे, जिनके द्वारा लोगों ने असमानता के विरुद्ध अपनी लड़ाई लड़ी।

भारत का संविधान हर भारतीय नागरिक को समान दृष्टि से देखता है। आप पुस्तक के पहले हिस्से में पढ़ ही चुके हैं कि राज्य और उसके कानून की दृष्टि में किसी भी व्यक्ति के साथ उसकी जाति, लिंग, धर्म तथा उनके अमीर या गरीब होने के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता है। देश के हर वयस्क नागरिक को चुनावों के दौरान समान रूप से मतदान करने का अधिकार है। मताधिकार की ताकत के ज़रिए ही जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनती या बदलती है।

‘मताधिकार की ताकत’ से आप क्या समझते हैं? इस पर आपस में विचार कीजिए।

मताधिकार से हमारे भीतर समानता का भाव विकसित होता है, क्योंकि हमारे भी वोट की कीमत उतनी ही है, जितनी किसी भी और व्यक्ति के वोट की। लेकिन यह भाव, अधिकतर लोगों के जीवन को नहीं छू पाता है। आपने पहले के अध्यायों में पढ़ा है कि कैसे स्वास्थ्य सेवाओं में निजीकरण बढ़ रहा है और सरकारी अस्पतालों के लापरवाही वाले रवैये ने कांता, हाकिम शेख और अमन जैसे अत्यंत गरीब लोगों के लिए अच्छी स्वास्थ्य सेवाओं को कठिन बना दिया है। ये वे लोग हैं जो महँगी निजी सवास्थ्य सेवाओं का बोझ नहीं उठा सकते।

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सतत विकास लक्ष्य 1: गरीबी का अंत करना www.in.undp.org

इसी तरह देखें, एक बूढ़ी औरत जो घर पर अच्छा अचार बनाती है बड़ी कंपनियों के लंबे-चौड़े विज्ञापन खर्च और अनेक संसाधनों के सामने कमज़ोर हो जाती है और उनसे पिछड़ जाती है। स्वप्ना के पास भी पर्याप्त संसाधनों की कमी है और इसीलिए उसे अपनी रूई की \फ़सल उगाने के लिए साहूकार से उधार लेना पड़ता है। यही कारण है कि उसे मज़बूरी में अपनी अच्छी फसल को कम कीमत में बेचना पड़ता है। देशभर में मिलानी की तरह से घरेलू काम करने वाली लाखों महिलाएँ हैं, जो लगातार मेहनत से दूसरों के घरों का काम करती हैं। इसके बाद भी वे अपमानित होने को विवश हैं क्योंकि वे संसाधनों के अभाव में स्वयं का कोई काम नहीं कर पाती हैं। गरीबी और संसाधनों का अभाव आज भी भारतीय समाज में विषमता और असमानता के सबसे बड़े कारणों में से एक है।

दूसरी ओर अंसारी दंपति को संसाधनों के न होने या कम होने के कारण असमानता नहीं झेलनी पड़ी। वास्तव में, जबकि उनके पास किराया देने के लिए पर्याप्त पैसे थे, तब भी वे एक मकान पाने के लिए महीने भर भटकते रहे। लोग उनके धर्म के कारण उन्हें मकान देने से हिचकते रहे। ठीक इसी प्रकार स्कूल के अध्यापकों ने ओमप्रकाश वाल्मीकि से स्कूल का मैदान महज़ इसीलिए सा\फ़ करवाया क्योंकि वे ‘दलित’ थे। आपने इसी पुस्तक में पढ़ा है कि महिलाओं के द्वारा किए गए काम अकसर ही पुरुषों के कामों की तुलना में तुच्छ माने जाते हैं। इन सभी के साथ किए जाने वाले भेदभाव का प्राथमिक कारण यह था वे किसी खास सामाजिक या सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के थे या वे महिलाएँ थीं। धर्म, जाति और लिंग वे कुछ महत्त्वपूर्ण कारक हैं, जिनके आधार पर आज भी भारत में लोगों से असमानता का व्यवहार किया जाता है।

गरीबी, मानवीय गरिमा का अभाव और कुछ विशेष समुदायों के प्रति अपमान जैसे कारक अकसर एेसे मिले-जुले ढंग से सामने आते हैं कि यह तय करना कठिन हो जाता है कि कहाँ एक तरह की असमानता खत्म होती है और कहाँ दूसरी असमानता शुरू हो जाती है। आपने पढ़ा है कि दलित, आदिवासी और मुस्लिम लड़कियों में पढ़ाई बीच में ही छोड़ देने वालों की संख्या बहुत अधिक है। यह स्थिति गरीबी, सामाजिक असमानता और इन समुदायों के लिए अच्छी स्कूल सुविधाओं के अभाव जैसे कई मिले-जुले कारणों से पैदा हुई है।

भारत में यह एक वास्तविकता है कि जो गरीब हैं, सामान्यतः दलित, आदिवासी और मुस्लिम समुदाय के हैं और इनमें से भी विशेषतः महिलाएँ हैं।

2011 की जनगणना के आँकड़े बताते हैं कि हमारी जनसंख्या में 48.5 प्रतिशत महिलाएँ हैं, 

14.2 प्रतिशत मुसलमान हैं, 16.6 प्रतिशत दलित हैं और 8.6 प्रतिशत आदिवासी हैं।

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सतत विकास लक्ष्य 10: असमानता को कम करना  www.in.undp.org

क्या आप अपने परिवार, समुदाय, गाँव या शहर में किसी एेसे व्यक्ति के बारे में सोच सकते हैं जिनका आप इसलिए सम्मान करते हैं क्योंकि उन्होंने न्याय और समानता के लिए लड़ाई लड़ी?

समानता के लिए संघर्ष

दुनिया भर के तमाम समुदायों, गाँवों और शहरों में आप देखते होंगे कि कुछ लोग समानता के लिए किए गए संघर्षों के कारण सम्मान से पहचाने जाते हैं। ये वे लोग हैं, जो अपने साथ या अपने सामने किए जा रहे किसी भेदभाव के विरुद्ध उठ खड़े हुए। हम इनका सम्मान इसलिए भी करते हैं कि इन्होंने प्रत्येक व्यक्ति को उसकी मानवीय गरिमा के साथ स्वीकार किया और सदैव इसे धर्म और समुदाय के ऊपर माना। इन्हें लोग बहुत विश्वास के साथ अपनी समस्याओं के समाधान के लिए बुलाते हैं।

अकसर समानता के किसी विशेष मुद्दे को लेकर संघर्ष करने वाले व्यक्ति समाज में एक महत्त्वपूर्ण पहचान बना लेते हैं, क्योंकि समता की लड़ाई में बड़ी संख्या में लोग उनके साथ हो जाते हैं। भारत में एेसे अनेक संघर्ष याद किए जा सकते हैं, जहाँ पर लोग एेसे मुद्दों के लिए लड़ने को आगे आए, जो उन्हें महत्त्वपूर्ण लगते थे। अध्याय 5 में आपने पढ़ा कि कैसे और किन तरीकों से समानता के लिए महिलाओं का आंदोलन खड़ा हुआ। मध्य प्रदेश का ‘तवा मत्स्य संघ’ एेसा ही दूसरा उदाहरण है, जहाँ लोग अपने अधिकार के लिए साथ खड़े हुए। एेसी तमाम संघर्ष गाथाएँ हमारे पास हैं, जिनमें बीड़ी मज़दूरों, मछुआरों, खेतिहर मज़दूरों, झुग्गीवासियों के समूहों ने अपनी तरह से न्याय के लिए लड़ाइयाँ लड़ीं। एेसे तमाम प्रयास भी हमारे सामने हैं जहाँ लोगों ने मिल-जुलकर संसाधनों पर नियंत्रण करने के लिए सहकारी संगठन खड़े किए।

तवा मत्स्य संघ

जब जंगल के बड़े क्षेत्रों को जानवरों के लिए अभ्यारण्य घोषित कर दिया जाता है और बड़े बाँधों का निर्माण किया जाता है तो हज़ारों लोग विस्थापित होते हैं। पूरे के पूरे गाँवों के लोगों को अपनी जड़ों को छोड़कर कहीं और नए घर बनाने और नयी ज़ि्ांदगी आरंभ करने के लिए मज़बूर कर दिया जाता है। इन विस्थापितों में से अधिकांश लोग गरीब होते हैं। शहरी क्षेत्रों में भी वे बस्तियाँ जहाँ गरीब रहते हैं, उन्हें हटा दिया जाता है। इनमें से कुछ को शहर के बाहरी इलाकों में दुबारा बसाया जाता है। इस सारी कवायद में न सिर्फ हटाए गए लोगों के काम-धंधे प्रभावित होते हैं, बल्कि शहर में स्थित स्कूलों से दूर हो जाने की वज़ह से इन बस्तियों के बच्चों की पढ़ाई भी अकसर गंभीर रूप से प्रभावित होती है।

लोगों और समुदायों का विस्थापन हमारे देश में एक बड़ी समस्या का रूप ले चुका है। एेसे में कई बार लोग संगठित होकर इसके विरुद्ध लड़ाई के लिए सामने आते हैं। देश में एेसे बहुत-से संगठन हैं, जो विस्थापितों के हक की लड़ाई लड़ रहे हैं। इस अध्याय में हम ‘तवा मत्स्य संघ’ के बारे में पढ़ेंगे जो मछुआरों की सहकारी समितियों का एक संघ है और सतपुड़ा के जंगलों से विस्थापित लोगों के अधिकारों के लिए लड़ रहा है।

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तवा नदी का जलाशय

छिंदवाड़ा जिले की महादेव पहाड़ियों से निकलने वाली तवा नदी, होशंगाबाद में नर्मदा से मिलने के लिए बैतूल होती हुई आती है। तवा पर एक बाँध का निर्माण 1958 में आरंभ हुआ और 1978 में पूरा हुआ। जंगल के बड़े हिस्से के साथ ही बहुत-सी कृषि भूमि भी बाँध में डूब गई, जिससे जंगल के निवासी अपना सब कुछ खो बैठे। इनमें से कुछ विस्थापितों ने बाँध के आस-पास रहकर थोड़ी-बहुत खेती के अलावा मछली पकड़ने का व्यवसाय आरंभ किया। यह सब करके भी वे बहुत थोड़ा-सा कमा पाते थे।

1994 में सरकार ने तवा बाँध के क्षेत्र में मछली पकड़ने का काम निजी ठेकेदारों को सौंप दिया। इन ठेकेदारों ने स्थानीय लोगों को काम से अलग कर दिया और बाहरी क्षेत्र से सस्ते श्रमिकों को ले आए। ठेकेदारों ने गुंडे बुलाकर गाँव वालों को धमकियाँ देना भी आरंभ कर दिया, क्योंकि लोग वहाँ से हटने को तैयार नहीं थे। गाँव वालों ने एकजुट होकर तय किया कि अपने अधिकारों की रक्षा के लिए लड़ने और संगठन बनाकर सामने खड़े होने का वक्त आ गया है। इस तरह ‘तवा मत्स्य संघ’ नाम के संगठन को बनाया गया।

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नदी पर बाँध एेसी जगह पर बनाया जाता है जहाँ बहुत मात्रा में पानी इकट्ठा किया जा सके। एेसा करने से एक जलाशय बन जाता है और जैसे-जैसे उसमें पानी भरता है, ज़मीन का एक बड़ा क्षेत्र उसमें डूब जाता है। एेसा इसलिए होता है क्योंकि नदी पर बनाए गए बाँध की दीवार ऊँची होती है और उससे रुका हुआ पानी एक बड़े इलाके में फैल जाता है। यह \फ़ोटो उत्तराखंड में टिहरी बाँध के बनने से डूब में आए इलाके की है। इस बाँध के कारण पुराना टिहरी शहर और 100 गाँव जिनमें से कुछ पूरी तरह और कुछ आंशिक रूप में पानी के नीचे समा गए। लगभग एक लाख लोग विस्थापित हो गए। 

‘तवा मत्स्य संघ’ के संघर्ष का मुद्दा क्या था?
गाँव वालों ने यह संगठन बनाने की ज़रूरत क्यों महसूस की?
क्या आप सोचते हैं कि ‘तवा मत्स्य संघ’ की सफलता का कारण था, ग्रामीणों की बड़ी संख्या में भागीदारी? इस संबंध में 2 पंक्तियाँ लिखिए।

नवगठित ‘तवा मत्स्य संघ’ (टी.एम.एस.) ने सरकार से माँग की कि लोगों के जीवन निर्वाह के लिए बाँध में मछलियाँ पकड़ने के काम को जारी रखने की अनुमति दी जाए। यह माँग करते हुए ‘चक्का जाम’ शुरू किया गया। उनके प्रतिरोध को देखकर सरकार ने पूरे मामले की समीक्षा के लिए एक समिति गठित की। समिति ने गाँव वालों के जीवनयापन के लिए उनको मछली पकड़ने का अधिकार देने की अनुशंसा की। 1996 में मध्य प्रदेश सरकार ने तय किया कि तवा बाँध के जलाशय से मछली पकड़ने का अधिकार यहाँ के विस्थापितों को ही दिया जाएगा। दो महीने बाद सरकार ने तवा मत्स्य संघ को बाँध में मछली पकड़ने के लिए पाँच वर्ष का पट्टा (लीज़) देना स्वीकार कर लिया। और इस तरह 2 जनवरी 1997 को तवा क्षेत्र के 33 गाँवों के लोगों के लिए ‘नया साल’ सही अर्थों में आरंभ हुआ।

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तवा मत्स्य संघ (टी.एम.एस.) के साथ जुड़कर मछुआरों ने लगातार अपनी आय में इज़ाफा दर्ज़ किया। यह इसलिए संभव हुआ कि उन्होंने एक सहकारी समिति बनाई, जो पकड़ी गई मछलियों की प्रत्येक खेप की उचित कीमत सीधे उन्हें देती है। यह सहकारी समिति इसके बाद की प्रक्रिया में भी शामिल होती है। सारा माल बाज़ार तक पहुँचाना और वहाँ भी उचित मूल्य प्राप्त करना समिति का ही काम है। ये मछुआरे अब पहले की तुलना में तीन गुना ज़्यादा कमाने लगे हैं। तवा मत्स्य संघ ने ‘जाल’ खरीदने और रखरखाव की ज़रूरत के लिए मछुआरों को ऋण देने की भी व्यवस्था की है। मछुआरों के लिए अच्छी आमदनी प्राप्त करने के साथ-साथ तवा मत्स्य संघ ने इस बात की भी व्यवस्था की है कि जलाशय में मछलियों को ठीक ढंग से पलने बढ़ने की स्थितियाँ मिलें। टी.एम.एस. ने सभी के सामने यह बात सिद्ध कर दी है कि लोगों को जब आजीविका का अधिकार मिलता है, तो वे अच्छे प्रबंधन के गुणों का परिचय भी देते हैं।


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सबसे ऊपर–टी.एम.एस. के सदस्य एक रैली में  विरोध करते हुए। 

ऊपर–सहकारी समिति की एक सदस्या मछली तोलती हुई।

क्या आप अपने जीवन से एक एेसा उदाहरण याद कर सकते हैं, जिसमें किसी एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों ने मिलकर असमानता की किसी स्थिति को बदला हो?

यहाँ प्रस्तुत यह गीत विनय महाजन द्वारा ‘सूचना के अधिकार’ के अभियान में लिखा गयाः

जानने का हक

मेरे सपनों को ये जानने का हक रे...

क्यूँ सदियों से टूट रहे हैं, इन्हें सजने का नाम नहीं

मेरे हाथों को ये जानने का हक रे...

क्यूँ बरसों से खाली पड़े हैं, इन्हें आज भी काम नहीं 

मेरे पैरों को ये जानने का हक रे... 

क्यूँ गाँव-गाँव चलना पड़े है, क्यूँ बस का निशान नहीं 

मेरी भूख को ये जानने का हक रे...

क्यूँ गोदामों में सड़ते हैं दाने, मुझे मुट्ठी-भर धान अन्य नहीं 

मेरी बूढ़ी माँ को ये जानने का हक रे... 

क्यूँ गोली नहीं सुई, दवाखाने, पट्टी-टाँके का सामान नहीं 

मेरे बच्चों को ये जानने का हक रे... 

क्यूँ रात-दिन करें मज़दूरी, क्यूँ शाला मेरे गाँव में नहीं


असमानता के विरुद्ध रचनात्मक अभिव्यक्ति

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कुछ लोग असमानता के विरुद्ध आंदोलनों में हिस्सा ले रहे होते हैं, तो कुछ और लोग असमानता के विरुद्ध अपनी कलम, अपनी आवाज़ या अन्य कलाओं, जैसे–नृत्य, संगीत आदि का प्रयोग ध्यान आकृष्ट करने के लिए करते हैं। लेखक, गायक, नर्तक और कलाकार भी असमानता के विरुद्ध संघर्ष में सक्रिय भूमिका निभाते हैं। अकसर ही कविताएँ, गीत और कहानियाँ न सिर्\फ़ हमें प्रेरित करती हैं बल्कि वे समानता में हमारे विश्वास को दृढ़ भी करती हैं। वे न सिर्\फ़ हमें प्रेरित करती हैं बल्कि हमें सही दिशा में चलना भी सिखाती हैं।

उपर्युक्त गीत में से आपको कौन-सी पँक्ति प्रिय लगी?

‘मेरी भूख को ये जानने का हक रे’ इस पँक्ति से कवि का आशय क्या हो सकता है?

क्या आप अपनी भाषा में अपने क्षेत्र में प्रचलित कोई एेसा गीत या कविता कक्षा में सुना सकते हैं, जिसमें मनुष्य की समता और गरिमा का वर्णन मिलता हो?

भारत का संविधानएक जीता हुआ दस्तावेज़

न्याय के लिए किसी आंदोलन और समानता के लिए गीत और कविता की तमाम प्रेरणाओं के पीछे जो एक भाव होता है, वह मनुष्य की समता का ही होता है। आप यह जानते ही हैं कि भारत का संविधान हम सभी को समान मानता है। देश में समता के लिए चलने वाले आंदोलन और संघर्ष अकसर संविधान के आधार पर ही समता और न्याय की बात करते हैं। तवा मत्स्य संघ के मछुआरों की आशा का आधार भी संविधान के प्रावधान ही हैं। अपनी बातचीत में लगातार संविधान का ज़िक्र करने से वे उसे एक एेसे जीते हुए दस्तावेज़ की तरह उपयोग कर रहे हैं, जो हमारे जीवन में सचमुच अर्थ रखता हो। लोकतंत्र में कई व्यक्ति और समुदाय लगातार इस दिशा में कोशिश करते हैं कि लोकतंत्र का दायरा बढ़ता जाए और अधिक से अधिक मामलों में समानता लाने की ज़रूरत को स्वीकार किया जाए।

समता का मूल्य लोकतंत्र के केंद्र में है। इस पुस्तक में हमने एेसे कुछ मुद्दों को देखने का प्रयास किया है जो लोकतंत्र के इस मूलभाव के लिए चुनौती पैदा करते हैं। जैसा कि आपने पढ़ा देश की स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण, संचार के माध्यमों (मीडिया) पर व्यावसायिक घरानों का बढ़ता दबाव और नियंत्रण, महिलाओं के श्रम को कम मूल्य देना और कपास के किसानों की बेहद कम आय होना ये सब लोकतंत्र के लिए चुनौतियाँ हैं। ये वे मुद्दे हैं जो सीधे गरीबों को प्रभावित करते हैं और समाज में उपेक्षित समुदायों से जुड़े हुए हैं। ये देश में सामाजिक और आर्थिक समानता से जुड़े मुद्दे हैं।

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2001 में लखनऊ में 1500 से ज्यादा लोग महिलाओं के खिला\फ़ हिंसा का विरोध करने के लिए एक जन-सुनवाई में इकट्ठे हुए। इसमें प्रतिष्ठित महिलाओं की एक ज्यूरी बनाई गई और उन्होंने न्यायाधीशों की भूमिका निभाते हुए महिलाओं के खिला\फ़ हिंसा के 15 से ज़्यादा प्रकरणों की सुनवाई की। लोगों की इस ज्यूरी ने इस सच्चाई को उभारने में मदद की कि कानून व्यवस्था में हिंसा के खिलाफ न्याय की माँग करने वाली महिलाओं को कितना कम सहयोग मिल पाता है।

लोकतंत्र के लिए समता और उसके लिए संघर्ष एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। व्यक्ति और समुदाय का स्वाभिमान और गरिमा तभी बनी रह सकती है जब उसके पास अपनी और परिवार की सभी ज़रूरतें पूरी करने के लिए पर्याप्त संसाधन हाें और उनके साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाए।

समानता के लिए लोगों के संघर्ष में हमारे संविधान की क्या भूमिका हो सकती है?

क्या आप एक छोटे समूह में समानता के लिए एक सामाजिक विज्ञापन तैयार कर सकते हो?


संदर्भ

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