इकाई तीन



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लिंग बोध-जेंडर 

शिक्षकों के लिए 

लिंगबोध या जेंडर एक एेसा शब्द है जिसे आप सभी अकसर सुनते हैं। बहरहाल यह आसानी से स्पष्ट नहीं होता है। एेसा लगता है कि इसका हमारे जीवन से खास लेना-देना नहीं है और हम प्रशिक्षण कार्यक्रमों में ही इसकी चर्चाएँ सुनते हैं। वास्तव में तो हम सभी अपने जीवन में रो ज़ ही इस सत्य का अनुभव करते हैं। यह निर्धारित करता है कि हम कौन हैं और क्या हो सकतेे हैं, कि हम कहाँ जा सकते हैं और कहाँ नहीं। ज़िंदगी के बहुत-से विकल्प हमारे लिए अंततः इसके आधार पर ही तय होते हैं। लिंगबोध या जेंडर की हमारी समझ हमारे अपने परिवार और समाज से ही बनती है। यह हमें उस दिशा में सोचने के लिए प्रेरित करता है कि हम औरतों और पुरुषों को जो भूमिकाएँ अपने आस-पास निभाते हुए देखते हैं वे स्वाभाविक हैं और पहले से तय हैं। वास्तव में ये भूमिकाएँ दुनिया भर में भिन्न-भिन्न समुदायों के लिए अलग-अलग होती हैं। अतः लिंगबोध से हमारा आशय उन अनेक सामाजिक मूल्यों और रू ढ़िवादी धारणाओं से है जिसे हमारी संस्कृति ने हमारे स्त्रीलिंग और पुल्लिंग होने के जैविक अंतर के साथ जोड़ दिया है। यह शब्द हमें बहुत-सी असमानताओं और स्त्री व पुरुष के बीच के शक्ति संबंधों को भी समझने में सहायता करता है। 

आगे के दो अध्याय, हमारे समाज की लैंगिक संकल्पनाओं को बिना इस शब्द का प्रयोग किए हमारे सामने रखते हैं। अच्छा होगा कि विद्यार्थियों को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया जाए कि विभिन्न शैक्षणिक पद्धतियों, जैसे - कहानियों की प्रस्तुति, विशेष अध्ययनों पर बातें, कक्षा में गतिविधियाँ, तथ्यों की व्याख्या और चित्रों की समीक्षा के माध्यम से वे अपने जीवन व अपने आस-पास के समाज पर विचार करें और सवाल करें। जेंडर शब्द के आने पर अकसर एक खास दृष्टि से लोग यह अधूरा अर्थ भी लगा लेते हैं कि यह केवल महिलाओं या लड़कियों से जुड़ा हुआ है। इसीलिए इन अध्यायों में इस बात की सावधानी रखी गई है कि केवल लड़कियाँ ही नहीं बल्कि लड़के भी जेंडर की चर्चा में सहभागी हों। 

अध्याय 4 में दो विशेष अध्ययनों (केस-स्टडी ज़) को शामिल किया गया है जो अलग-अलग समय और स्थानों से संबंधित हैं और हमारे सामने यह बात रखते हैं कि लड़के और लड़कियाँ कैसे बड़े होते हैं और उनकी सामाजिक भिन्नता कैसे रूप लेती है। ये उदाहरण छात्र-छात्राओं को यह समझने में सहायता देंगे कि सामाजीकरण हर जगह एक-सा नहीं है। वह समाज से निर्धारित होता है और इसमें समय के साथ सतत् परिवर्तन चलता रहता है। ये अध्याय हमें यह भी बताते हैं कि कैसे समाज में स्त्री और पुरुष के लिए अलग-अलग भूमिकाएँ देखी जाती हैं, कैसे उनके लिए अलग-अलग मूल्य निर्धारित किए जाते हैं और यहीं से भेद और असमानता की शुरुआत होती है। एक चित्रित कथापट्ट (story board) के माध्यम से बच्चे घर के तमाम कामों पर बातें करेंगे जो मुख्यतः महिलाओं के द्वारा किए जाते हैं। वे विचार करेंगे कि कैसे घर में महिलाओं के काम को काम नहीं माना जाता या फिर उसे अवमूल्यित किया जाता है। 

अध्याय 5 कार्य के क्षेत्र में लिंग आधारित भेदभाव पर केंद्रित है और समानता के लिए किए गए महिलाओं के संघर्ष को भी प्रस्तुत करता है। कक्षा की गतिविधि में बच्चे काम और पेशों को लेकर समाज में प्रचलित रु ढ़िवादी मान्यताओं पर सवाल करना शुरू करेंगे। इस अध्याय में इस ओर भी संकेत मिलेंगे कि कैसे लड़कों और लड़कियों के लिए शिक्षा जैसे अवसर समान रूप से उपलब्ध नहीं हैं। उन्नीसवीं और बीसवीं सदी की दो महिलाओं के जीवन की कहानियों में बच्चे देखेंगे कि इन स्त्रियों के लिए मुक्ति का संघर्ष कैसे शुरू हुआ और लिखाई-प ढ़ाई सीखने ने इनके जीवन को कैसे बदला। बड़े परिवर्तन सामान्यतः सामूहिक संघर्षों से ही होते हैं। इस अध्याय के अंत में एक चित्र निबंध है जो स्त्री आंदोलन द्वारा परिवर्तन के लिए उपयोग में लायी नीतियों के उदाहरण प्रस्तुत करता है।           



अध्याय 4

लड़के और लड़कियों के रूप में बड़ा होना

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लड़का या लड़की होना किसी की भी एक महत्त्वपूर्ण पहचान है उसकी अस्मिता है। जिस समाज के बीच हम बड़े होते हैं, वह हमें सिखाता है कि लड़के और लड़कियों का कैसा व्यवहार स्वीकार करने योग्य है। उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं। हम प्रायः यही सोचते हुए बड़े होते हैं कि ये बातें सब जगह बिलकुल एक-सी हैं। परंतु क्या सभी समाजों में लड़के और लड़कियों के प्रति एक जैसा ही न ज़रिया है? इस पाठ में हम इसी प्रश्न का उत्तर जानने की कोशिश करेंगे। हम यह भी देखेंगे कि लड़के और लड़कियों को दी जाने वाली अलग-अलग भूमिका उन्हें भविष्य में स्त्री और पुरुष की भूमिका के लिए कैसे तैयार करती है। इस पाठ में हम देखेंगे कि अधिकांश समाज पुरुष व स्त्रियों को अलग-अलग प्रकार से महत्त्व देते हैं। स्त्रियाँ जिन भूमिकाओं का निर्वाह करती हैं, उन्हें पुरुषों द्वारा निर्वाह की जाने वाली भूमिकाओं और कार्य से कम महत्त्व दिया जाता है। इस पाठ में हम यह भी देखेंगे कि स्त्री और पुरुष के बीच काम के क्षेत्र में असमानताएँ कैसे उभरती हैं।

1920 के दशक में सामोआ द्वीप में बच्चों का बड़ा होना

 सामोआ द्वीप प्रशांत महासागर के दक्षिण में स्थित छोटे-छोटे द्वीपों के समूह का ही एक भाग है। सामोअन समाज पर किए गए अनुसंधान की रिपोर्ट के अनुसार 1920 के दशक में बच्चे स्कूल नहीं जाते थे। वे बड़े बच्चों और वयस्कों से बहुत-सी बातें सीखते थे, जैसे–छोटे बच्चों की देखभाल या घर का काम कैसे करना, आदि। द्वीपों पर मछली पकड़ना बड़ा महत्त्वपूर्ण कार्य था इसलिए किशोर बच्चे मछली पकड़ने के लिए सुदूर यात्राओं पर जाना सीखते थे। लेकिन ये बातें वे अपने बचपन के अलग-अलग समय पर सीखते थे।

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कक्षा सात का एक सामोआ छात्र अपने विद्यालय की वर्दी में।

आपके बड़े होने के अनुभव, सामोआ के बच्चों और किशोरों के अनुभव से किस प्रकार भिन्न हैं? इन अनुभवों में वर्णित क्या कोई एेसी बात है, जिसे आप अपने बड़े होने के अनुभव में शामिल करना चाहेंगे?

छोटे बच्चे जैसे ही चलना शुरू कर देते थे उनकी माताएँ या बड़े लोग उनकी देखभाल करना बंद कर देते थे। यह ज़िम्मेदारी बड़े बच्चों पर आ जाती थी, जो प्रायः स्वयं भी पाँच वर्ष के आसपास की उम्र के होते थे। लड़के और लड़कियाँ दोनों अपने छोटे भाई-बहनों की देखभाल करते थे, लेकिन जब कोई लड़का लगभग नौ वर्ष का हो जाता था, वह बड़े लड़कों के समूह में सम्मिलित हो जाता था और बाहर के काम सीखता था, जैसे - मछली पकड़ना और नारियल के पेड़ लगाना। लड़कियाँ जब तक तेरह-चौदह साल की नहीं हो जाती थीं, छोटे बच्चों की देखभाल और बड़े लोगों के छोटे-मोटे कार्य करती रहती थीं, लेकिन एक बार जब वे तेरह-चौदह साल की हो जाती थीं, वे अधिक स्वतंत्र होती थीं। लगभग चौदह वर्ष की उम्र के बाद वे भी मछली पकड़ने जाती थीं, बागानों में काम करती थीं और डलियाँ बुनना सीखती थीं। खाना पकाने का काम, अलग से बनाए गए रसोई घरों में ही होता था जहाँ लड़कों को ही अधिकांश काम करना होता था और लड़कियाँ उनकी मदद करती थीं।
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लड़कियाँ स्कूल जाते हुए समूह बनाकर चलना क्यों पसंद करती हैं?

1960 के दशक में मध्य प्रदेश में पुरुष के रूप में बड़ा होना

निम्नलिखित आलेख 1960 में मध्य प्रदेश के एक छोटे शहर में रहने और स्कूल जाने के वर्णन से लिया गया है।

कक्षा 6 में आने के बाद लड़के और लड़कियाँ अलग-अलग स्कूलों में जाते थे। ल ड़कियों के स्कूल, लड़कों के स्कूल से बिलकुल अलग ढंग से बनाए जाते थे। उनके स्कूल के बीच में एक आँगन होता था, जहाँ वे बाहरी दुनिया से बिलकुल अलग रह कर स्कूल की सुरक्षा में खेलती थीं। लड़कों के स्कूल में एेसा कोई आँगन नहीं होता था बल्कि उनके खेलने का मैदान बस एक बड़ा-सा खुला स्थान था जो स्कूल से लगा हुआ था। हर शाम स्कूल के बाद लड़के, सैकड़ों लड़कियों की भीड़ को सँकरी गलियों से जाते हुए देखते थे। सड़कों पर जाती हुई ये लड़कियाँ बड़ी गंभीर दिखती थीं। यह बात लड़कों से अलग थी, जो सड़कों को अनेक कामों के लिए उपयोग करते थे जैसे यूँ ही खड़े-खड़े खाली समय बिताने के लिए, दौड़ने और खेलने के लिए और साइकिल चलाने के करतबों को आज़माने के लिए। लड़कियों के लिए गली सीधे घर पहुँचने का एक माध्यम थी। लड़कियाँ हमेशा समूहों में जाती थीं। शायद उनके मन में यह डर रहता था कि कोई उन्हें छेड़ न दे या उन पर हमला न कर दे।

अपने पड़ोस की किसी गली या पार्क का चित्र बनाइए। उसमें छोटे लड़के व लड़कियों द्वारा की जा सकने वाली विभिन्न प्रकार की गतिविधियों को दर्शाइए। यह कार्य आप अकेले या समूह में भी कर सकते हैं।

आपके द्वारा बनाए गए चित्र में क्या उतनी ही लड़कियाँ हैं जितने लड़के? संभव है कि आपने लड़कियों की संख्या कम बनाई होगी। क्या आप वे कारण बता सकते हैं जिनकी वजह से आपके पड़ोस में, सड़क पर, पार्कों और बा ज़ारों मेें देर शाम या रात के समय स्त्रियाँ तथा लड़कियाँ कम दिखाई देती हैं?

क्या लड़के और लड़कियाँ अलग-अलग कामों में लगे हैं? क्या आप विचार करके इसका कारण बता सकते हैं? यदि आप लड़के और लड़कियों का स्थान परस्पर बदल देंगे, अर्थात् लड़कियों के स्थान पर लड़कों और लड़कों के स्थान पर लड़कियों को रखेंगे, तो क्या होगा? 

 ऊपर के दो उदाहरणों को प ढ़ने के बाद हमें लगता है कि बड़े होने के भी कई तरीके हैं। हम प्रायः सोचते हैं कि बच्चे एक ही तरीके से बड़े होते हैं। एेसा इसलिए है क्योंकि हम अपने अनुभवों से ही सबसे ज़्यादा परिचित होते हैं। यदि हम अपने परिवार के बु ज़ुर्गों से बात करें तो पाएँगे कि उनका बचपन शायद हमारे बचपन से बहुत भिन्न था।

हम यह भी अनुभव करते हैं कि समाज, लड़के और लड़कियों में स्पष्ट अंतर करता है। यह बहुत कम आयु से ही शुरू हो जाता है। उदाहरण के लिए - उन्हें खेलने के लिए भिन्न खिलौने दिए जाते हैं। लड़कों को प्रायः खेलने के लिए कारें दी जाती हैं और लड़कियों को गु ड़ियाँ। दोनों ही खिलौने, खेलने में बड़े आनंददायक हो सकते हैं, फिर लड़कियों को गुड़ियाँ और लड़कों को कारें ही क्यों दी जाती हैं? खिलौने बच्चों को यह बताने का माध्यम बन जाते हैं कि जब वे बड़े होकर स्त्री और पुरुष बनेंगे, तो उनका भविष्य अलग-अलग होगा। अगर हम विचार करें, तो यह अंतर प्रायः प्रतिदिन की छोटी-छोटी बातों में बना कर रखा जाता है। लड़कियों को कैसे कपड़े पहनने चाहिए, लड़के पार्क में कौन-से खेल खेलें, लड़कियों को धीमी आवा ज़ में बात करनी चाहिए और लड़कों को रौब से- ये सब बच्चों को यह बताने के तरीके हैं कि जब वे बड़े होकर स्त्री और पुरुष बनेंगे, तो उनकी विशिष्ट भूमिकाएँ होंगी। बाद के जीवन में इसका प्रभाव हमारे अध्ययन के विषयों या व्यवसाय के चुनाव पर भी पड़ता है।

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अधिकांश समाजों में, जिनमें हमारा समाज भी सम्मिलित है, पुरुषों और स्त्रियों की भूमिकाओं और उनके काम के महत्त्व को समान नहीं समझा जाता है। पुरुषों और स्त्रियों की हैसियत एक जैसी नहीं होती है। आओ देखें कि पुरुषों और स्त्रियों के द्वारा किए जाने वाले कामों में यह असमानता कैसे है।

घरेलू काम का मूल्य

हरमीत के परिवार को नहीं लगता था कि जसप्रीत घर का जो काम करती थी, वह वास्तव में काम था। उनके परिवार में एेसी भावना का होना कोई निराली बात नहीं थी। सारी दुनिया में घर के काम की मुख्य ज़िम्मेदारी स्त्रियों की ही होती है जैसे - देखभाल संबंधी कार्य, परिवार का ध्यान रखना, विशेषकर बच्चों, बु ज़ुर्गों और बीमारों का। फिर भी, जैसा हमने देखा, घर के अंदर किए जाने वाले कार्यों को महत्त्वपूर्ण नहीं समझा जाता। मान लिया जाता है कि वे तो स्त्रियों के स्वाभाविक कार्य हैं, इसीलिए उनके लिए पैसा देने की कोई ज़रूरत नहीं है। समाज इन कार्यों को अधिक महत्त्व नहीं देता।

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मिलानी अपनी बच्ची के साथ

घर पर कार्य करने वालों का जीवन

उपर्युक्त कहानी में केवल हरमीत की माँ ही घर के काम नहीं करती थीं। काफ़ी सारा काम मंगला करती थी, जो उनके घरेलू काम में मदद के लिए लगाई गई थी। बहुत-से घरों में विशेषकर शहरों और नगरों में लोगों को घरेलू काम के लिए लगा लिया जाता है। वे बहुत काम करते हैं - झाड़ू लगाना, सफ़ाई करना, कपड़े और बर्तन धोना, खाना पकाना, छोटे बच्चों और बु ज़ुर्गों की देखभाल करना, आदि। घर का काम करने वाली अधिकांशतः स्त्रियाँ होती हैं। कभी-कभी इन कार्यों को करने के लिए छोटे लड़के या लड़कियों को काम पर रख लिया जाता है। घरेलू काम का अधिक महत्त्व नहीं है, इसीलिए इन्हें म ज़दूरी भी कम दी जाती है। घरेलू काम करने वालों का दिन सुबह पाँच बजे से शुरू होकर देर रात बारह बजे तक भी चलता है। जी-तोड़ मेहनत करने के बाव ज़ूद प्रायः उन्हें नौकरी पर रखने वाले उनसे सम्मानजनक व्यवहार नहीं करते हैं। दिल्ली में घरेलू काम करने वाली एक स्त्री मेलानी ने अपने अनुभव के बारे में इस तरह बताया-

क्या हरमीत और सोनाली का यह कहना सही था कि हरमीत की माँ काम नहीं करतीं?

आप क्या सोचते हैं, अगर आपकी माँ या वे लोग, जो घर के काम में लगे हैं, एक दिन के लिए हड़ताल पर चले जाएँ, तो क्या होगा?

आप एेसा क्यों सोचते हैं कि सामान्यतया पुरुष या लड़के घर का काम नहीं करते? आपके विचार में क्या उन्हें घर का काम करना चाहिए?

"मेरी पहली नौकरी एक अमीर परिवार में लगी थी, जो तीन-मंजिले भवन में रहता था। मेमसाहब अजीब महिला थीं, जो हर काम करवाने के लिए चिल्लाती रहती थीं। मेरा काम रसोई का था। दूसरी दो लड़कियाँ सफ़ाई का काम करती थीं। हमारा दिन सुबह पाँच बजे शुरू होता। नाश्ते में हमें एक प्याला चाय और दो रूखी रोटियाँ मिलती थीं। हमें तीसरी रोटी कभी नहीं मिली। शाम के समय जब मैं खाना पकाती थी, दोनों लड़कियाँ मुझसे एक और रोटी की माँगती रहती थीं। मैं चुपके से उन्हें एक रोटी दे देती थी और खुद भी एक रोटी ले लेती थी। हमें दिनभर काम करने के बाद बड़ी भूख लगती थी। हम घर में चप्पल नहीं पहन सकते थे। ठंड के मौसम में हमारे पैर सूज जाते थे। मैं मेमसाहब से डरती थी, परंतु मुझे गुस्सा भी आता और अपमानित भी महसूस करती थी। क्या हम दिनभर काम नहीं करते थे? क्या हम कुछ सम्मानजनक व्यवहार के योग्य नहीं थे?"

वास्तव में, जिसे हम घरेलू काम कहते हैं, उसमें अनेक कार्य सम्मिलित रहते हैं। इनमें से कुछ कामों में बहुत शारीरिक श्रम लगता है। ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में औरतों और लड़कियों को दूर-दूर से पानी लाना पड़ता है। ग्रामीण क्षेत्रों में स्त्रियों और लड़कियों को जलाऊ लकड़ी के भारी गट्ठर सिर पर ढोने पड़ते हैं। कपड़े धोने, स फ़ाई करने, झाड़ू लगाने और व ज़न उठाने के कामों में झुकने, उठाने और सामान लेकर चलने की ज़रूरत होती है। बहुत-से काम जैसे खाना बनाने आदि में लंबे समय तक गर्म चूल्हे के सामने खड़ा रहना पड़ता है। स्त्रियाँ जो काम करती हैं, वह भारी और थकाने वाला शारीरिक काम होता है- जबकि हम आमतौर पर सोचते हैं कि पुरुष ही एेसा काम कर सकते हैं।

हरियाणा और तमिलनाडु राज्यों में स्त्रियाँ प्रति सप्ताह कुल कितने घंटे काम करती हैं?

इस संबंध में स्त्रियों और पुरुषों में कितना फ़र्क दिखाई देता है?

घरेलू और देखभाल के कामों का एक अन्य पहलू, जिसे हम महत्त्व नहीं देते, वह है इन कामों में लगने वाला लंबा समय। वास्तव में यदि हम स्त्रियों द्वारा किए जाने वाले घर के और बाहर के कामों को जोड़ें, तो हमें पता चलेगा कि कुल मिलाकर स्त्रियाँ पुरुषों से अधिक काम करती हैं।

निम्न तालिका में भारत के केंद्रीय सांख्यिकीय संगठन द्वारा किए गए विशेष अध्ययन के कुछ आँकड़े हैं (1998-99)। देखिए, क्या आप रिक्त स्थानों को भर सकते हैं?

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महिलाओं का काम और समानता

जैसा कि हमने देखा, महिलाओं के घरेलू और देखभाल के कामों को कम महत्त्व देना एक व्यक्ति या परिवार का मामला नहीं है। यह स्त्रियों और पुरुषों के बीच असमानता की एक बड़ी सामाजिक व्यवस्था का ही भाग है। इसीलिए इसके समाधान हेतु, जो कार्य किए जाने हैं वे केवल व्यक्तिगत या पारिवारिक स्तर पर नहीं, वरन् शासकीय स्तर पर भी होेने चाहिए। हम जानते हैं कि समानता हमारे संविधान का महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है। संविधान कहता है कि स्त्री या पुरुष होने के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता। परंतु वास्तविकता में लिंगभेद किया जाता है। सरकार इसके कारणों को समझने के लिए और इस स्थिति का सकारात्मक निदान ढूँ ढ़ने के लिए वचनबद्ध है। उदाहरण के लिए सरकार जानती है कि बच्चों की देखभाल और घर के काम का बोझ महिलाओं और लड़कियों पर पड़ता है। स्वाभाविक रूप से इसका असर लड़कियों के स्कूल जाने पर भी पड़ता है। इससे ही निश्चित होता है कि क्या महिलाएँ घर के बाहर काम कर सकेंगी और यदि करेंगी, तो किस प्रकार का काम या कार्यक्षेत्र चुनेंगी। पूरे देश के कई गाँवों में शासन ने आँगनवाड़ियाँ और बालवाड़ियाँ खोली हैं। शासन ने एक कानून बनाया है, जिसके तहत यदि किसी संस्था में महिला कर्मचारियों की संख्या 30 से अधिक है, तो उसे वैधानिक रूप से बालवाड़ी (क्रेश) की सुविधा देनी होगी। बालवाड़ी की व्यवस्था होने से बहुत-सी महिलाओं को घर से बाहर जाकर काम करने में सुविधा होगी। इससे बहुत-सी लड़कियों का स्कूल जाना भी संभव हो सकेगा।

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मध्य प्रदेश के एक गांव में आँगनवाड़ी केंद्र में बच्चे

बहुत-सी स्त्रियाँ जैसे कहानी में सोनाली की माँ और हरियाणा व तमिलनाडु की महिलाएँ जिनका सर्वेक्षण किया गया- घर के अंदर व बाहर दोनों जगह काम करती हैं। इसे प्रायः महिलाओं के काम के दोहरे बोझ के रूप में जाना जाता है।

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सतत विकास लक्ष्य 5ः लैंगिक समानता

www.in.undp.org

आप क्या सोचते हैं, यह पोस्टर क्या कहने की कोशिश कर रहा है?

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यह पोस्टर बंगाल की महिलाओं के एक समूह ने बनाया है। क्या इसे आधार बनाकर आप कोई अच्छा-सा नारा तैयार कर सकते हैं?

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अभ्यास

1. साथ में दिए गए कुछ कथनों पर विचार कीजिए और बताइए कि वे सत्य हैं या असत्य? अपने उत्तर के समर्थन में एक उदाहरण भी दीजिए।

2. घर का काम अदृश्य होता है और इसका कोई मूल्य नहीं चुकाया जाता।

घर के काम शारीरिक रूप से थकाने वाले होते हैं।

घर के कामों में बहुत समय खप जाता है।

अपने शब्दों में लिखिए कि ‘अदृश्य होने’ ‘शारीरिक रूप से थकाने’ और ‘समय खप जाने’ जैसे वाक्याँशों से आप क्या समझते हैं? अपने घर की महिलाओं के काम के आधार पर हर बात को एक उदाहरण से समझाइए।

3. एेसे विशेष खिलौनों की सूची बनाइए, जिनसे लड़के खेलते हैं और एेसे विशेष खिलौनों की भी सूची बनाइए, जिनसे केवल लड़कियाँ खेलती हैं। यदि दोनों सूचियों में कुछ अंतर है, तो सोचिए और बताइए कि एेसा क्यों है? सोचिए कि क्या इसका कुछ संबंध इस बात से हैं कि आगे चलकर वयस्क के रूप में बच्चों को क्या भूमिका निभानी होगी?

4. अगर आपके घर में या आस-पास, घर के कामों में मदद करने वाली कोई महिला है तो उनसे बात कीजिए और उनके बारे में थोड़ा और जानने की कोशिश कीजिए कि उनके घर में और कौन-कौन हैं? वे क्या करते हैं? उनका घर कहाँ है? वे रोज कितने घंटे तक काम करती हैं? वे कितना कमा लेती हैं? इन सारे विवरणों को शामिल कर, एक छोटी-सी कहानी लिखिए।

(क) सभी समुदाय और समाजों में लड़कों और लड़कियों की भूमिकाओं के बारे में एक जैसे विचार नहीं पाए जाते।

(ख) हमारा समाज ब ढ़ते हुए लड़कों और लड़कियों में कोई भेद नहीं करता।

(ग) वे महिलाएँ जो घर पर रहती हैं कोई काम नहीं करतीं।

(घ) महिलाओं के काम, पुरुषों के काम की तुलना में कम मूल्यवान समझे जाते हैं। 

शब्द-संकलन

अस्मिता (पहचान): यह एक प्रकार से स्वयं के होने यानी अपने अस्तित्व के प्रति जागरूकता का भाव है। एक व्यक्ति की कई अस्मिता हो सकती है। उदाहरण के लिए - एक ही व्यक्ति को एक लड़की, बहन और संगीतकार की तरह अस्मिता जा सकता है।

दोहरा बोझः शाब्दिक रूप में इसका अर्थ है - दो गुना वजन। सामान्यतः इस शब्द का महिलाओं के काम की स्थितियों को समझाने के लिए प्रयोग किया गया है। यह इस तथ्य को स्वीकार करता है कि महिलाएँ आमतौर पर घर के भीतर और घर के बाहर दोहरा कार्य-भार सँभालती हैं।

देखभालः देखभाल के अंतर्गत अनेक काम आते हैं, जैसे - संभालना, ख्याल रखना, पोषण करना आदि। शारीरिक कार्यों के अतिरिक्त इसमें गहन भावनात्मक पहलू भी सम्मिलित है।

अवमूल्यितः जब कोई अपने काम के लिए अपेक्षित मान्यता या स्वीकृति नहीं पाता है, तब वह स्वयं को अवमूल्यित महसूस करता है। उदाहरण के लिए देखें, अगर कोई लड़का अपने मित्र के लिए घंटों सोच-विचार कर, बहुत खोजकर एक ‘उपहार’ बनाता है और उसका मित्र उसे देखकर कुछ भी न कहे तो एेसे में पहला लड़का अवमूल्यित महसूस करता है।  

 



अभ्यास 5

औरतों ने बदली दुनिया

पिछले अध्याय में हमने देखा कि किस तरह महिलाओं द्वारा किया जाने वाला घर का काम, काम ही नहीं माना जाता है। हमने यह भी प ढ़ा कि घरेलू काम और परिवार के सदस्यों की देखभाल करना पूरे समय का काम है और इस कार्य को प्रारंभ और समाप्त करने का कोई निश्चित समय भी नहीं है। इस अध्याय में हम घर के बाहर के कामों को देखेंगे और समझेंगे कि कैसे कुछ व्यवसाय महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों के लिए अधिक उपयुक्त समझे जाते हैं। हम यह भी ज्ञात करेंगे कि समानता प्राप्त करने के लिए स्त्रियों ने कैसे संघर्ष किए। पहले भी और आज भी शिक्षा प्राप्त करना एक एेसा तरीका है, जिससे महिलाओं के लिए नए अवसर निर्मित किए जा सकते हैं। साथ ही इस अध्याय में हम हाल के वर्षो में महिला आंदोलनों द्वारा भेदभाव को चुनौती देने के लिए किए जाने वाले विभिन्न प्रकार के प्रयत्नों के बारे में भी संक्षेप में जानेंगे।

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कौन क्या काम करता है?

निम्नलिखित लोगों के चित्र बनाइए –

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चलिए, अब आपकी कक्षा द्वारा बनाए गए चित्रों को देखने के लिए नीचे दी गई तालिका को भरिए। अब हर व्यवसाय के लिए पुरुषों और महिलाओं के चित्रों को अलग-अलग जोड़िए।


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भारत में 83.6 प्रतिशत महिलाएँ खेतों में काम करती हैं। उनके काम ें पौधे रोपना, खरपतवार निकालना, फ़सल काटना और कुटाई करना शामिल हैं। फिर भी जब हम किसान के बारे में सोचते हैं, तो हम एक पुरुष के बारे में ही सोचते हैं।

(स्रोत – 61वाँ नेशनल सैंपल सर्वे, 2004-05)

अपनी कक्षा में किए गए अभ्यास की तुलना रोज़ी मैडम की कक्षा के अभ्यास से करिए। 

रोज़ी मैडम की कक्षा में तीस बच्चे हैं। उन्होंने अपनी कक्षा में यही अभ्यास कराया। परिणाम इस प्रकार रहे –

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कम अवसर और कठोर अपेक्षाएँ

रोज़ी मैडम की कक्षा के अधिकांश बच्चों ने नर्स के लिए महिलाओं के और पायलट के रूप में पुरुषों के चित्र बनाए। एेसा उन्होंने इस कारण किया कि उन्हें लगता है कि घर के बाहर भी महिलाएँ कुछ खास तरह के काम ही अच्छी तरह कर सकती हैं। उदाहरण के लिए बहुत-से लोग मानते हैं कि महिलाएँ अच्छी नर्सें हो सकती हैं, क्योंकि वे अधिक सहनशील और विनम्र होती हैं। इसे परिवार में स्त्रियों की भूमिका के साथ मिला कर देखा जाता है। इसी प्रकार से माना जाता है कि विज्ञान के लिए तकनीकी दिमाग की ज़रूरत होती है और लड़कियाँ और महिलाएँ तकनीकी कार्य करने में सक्षम नहीं होती।

अनेक लोग इस प्रकार की रूढ़िवादी धारणाओं में विश्वास करते हैं। इसलिए बहुत-सी लड़कियों को डॉक्टर व इंजीनियर बनने के लिए अध्ययन करने और प्रशिक्षण लेने के लिए वह सहयोग नहीं मिल पाता है, जो लड़कों को मिलता है। अधिकांश परिवारों में स्कूली शिक्षा पूरी हो जाने के बाद लड़कियों को इस बात के लिए प्रेरित किया जाता है कि वे शादी को अपने जीवन का मुख्य लक्ष्य मान लें।


रूढ़ियों को तोड़ा है

रेल का इंजन आदमी चलाते हैं। पर झारखंड के एक गरीब आदिवासी परिवार की 27 वर्षीय महिला लक्ष्मी लाकरा ने इस धारा का रुख बदल दिया है। उत्तरी रेलवे की वह पहली महिला इंजन चालक है।

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लक्ष्मी के माता-पिता प ढ़े-लिखे नहीं हैं, पर उन्होंने अपने बच्चों को प ढ़ाने के लिए बहुत संघर्ष किया। लक्ष्मी की शिक्षा एक सरकारी स्कूल में हुई। स्कूल में प ढ़ने के साथ-साथ लक्ष्मी घर के कामों व अन्य ज़िम्मेदारियों में हाथ भी बँटाती रही। उसने मन लगाकर और मेहनत से प ढ़ाई की और स्कूल पूरा करके इलेक्ट्रॅानिक्स में डिप्लोमा अर्जित किया। फिर वह रेलवे बोर्ड की परीक्षा में बैठी और पहली ही कोशिश में उत्तीर्ण हो गई।

लक्ष्मी कहती है, "मुझे चुनौतियों से खेलना पसंद है और जैसे ही कोई यह कहता है कि फलाँ काम लड़कियों के लिए नहीं है, मैं उसे करके रहती हूँ।" लक्ष्मी के जीवन में एेसा करने के अनेक अवसर आए। जब वह इलेक्ट्रॉनिक्स करना चाहती थी, जब उसने पॉलीटेक्नीक में मोटर साइकिल चलाई और जब उसने तय किया कि वह इंजन ड्राइवर बनेगी।

उसका दृष्टिकोण सीधा-सादा है–जब तक मुझे म ज़ा आ रहा है और मैं किसी को नुकसान नहीं पहुँचा रही और मैं अच्छे से रह पा रही हूँ और अपने माता-पिता की मदद कर पा रही हूँ तो मैं अपने तरीके से क्यों न जीऊँ?"

(ड्राइविंग हर ट्रेन, नीता लाल, वीमेन्स फ़ीचर सर्विस से रूपांतरित)  


यह समझना आवश्यक है कि हम एेसे समाज में रह रहे हैं, जहाँ सभी बच्चों को अपने चारों ओर की दुनिया के दबावों का सामना करना पड़ता है। कभी यह दबाव बड़ों की अपेक्षाओं के रूप में होता है, तो कभी यह हमारे अपने ही मित्रों के गलत तरीके से चि ढ़ाने के कारण पैदा हो जाता है। लड़कों पर एेसी नौकरी प्राप्त करने के लिए दबाव होता है, जिसमें उन्हें अधिक वेतन मिले। यदि वे दूसरे लड़कों की तरह व्यवहार नहीं करते हैं, तो उन्हें चि ढ़ाया जाता है और धौंस दी जाती है। आपको याद होगा कि कक्षा 6 की पुस्तक में आपने पढ़ा था कि लड़कों को बचपन से ही दूसरों के सामने रोने पर चि ढ़ाया जाता है

नीचे दी गई कहानी को पढ़िए और उसके बाद दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए –

यदि आप ज़ेवियर होते, तो कौन-से विषय चुनते?

अपने अनुभव के आधार पर बताइए कि लड़कों को एेसे किन-किन दबावों का सामना करना पड़ता है?

परिबर्तन के लिए सीखना

ज़ेवियर अपना दसवीं बोर्ड का परीक्षाफल देख कर खुश था। यद्यपि विज्ञान और गणित में उसे बहुत अधिक अंक नहीं मिले थे, लेकिन अपने पसंदीदा विषय इतिहास और भाषाओं में उसने अच्छा किया था। जब उसके माता-पिता ने परिणाम देखे, तो वे खुश नहीं हुए...
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स्कूल जाना आपके जीवन का बहुत महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। जैसे-जैसे स्कूलों में हर साल अधिकाधिक संख्या में बच्चे प्रवेश ले रहे हैं, हम सोचने लगे हैं कि सब बच्चों के लिए स्कूल जाना एक साधारण बात है। आज हमारे लिए यह कल्पना करना भी कठिन है कि कुछ बच्चों के लिए स्कूल जाना और प ढ़ना ‘पहुँच के बाहर’ की बात या ‘अनुचित’ बात भी मानी जा सकती है। परंतु अतीत में लिखना और प ढ़ना कुछ लोग ही जानते थे। अधिकांश बच्चे वही काम सीखते थे, जो उनके परिवार में होता था या उनके बु ज़ुर्ग करते थे। लड़कियों की स्थिति और भी खराब थी। उन समाजों में जहाँ लड़कों को प ढ़ना-लिखना सिखाया जाता था, लड़कियों को अक्षर तक सीखने की अनुमति नहीं थी। यहाँ तक कि उन परिवारों में भी जहाँ कुम्हारी, बुनकरी (वस्त्र बुनना) और हस्तकला सिखाई जाती थी, यह धारणा थी कि लड़कियों और औरतों का काम केवल सहायता करने तक ही सीमित है। उदाहरण के लिए - कुम्हार के व्यवसाय में स्त्रियाँ मिट्टी एकत्र करती थीं और बर्तन बनाने के लिए उसे तैयार करती थीं। चूँकि वे चाक नहीं चलाती थीं, इसलिए उन्हें कुम्हार नहीं माना जाता था।

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रमाबाई (1858-1922)अपनी बेटी के साथ। महिला-शिक्षा की ये योद्धा स्वयं कभी स्कूल नहीं गईं, पर अपने माता-पिता से उन्होंने प ढ़ना-लिखना सीख लिया। उन्हें पंडिता की उपाधि दी गई, क्योंकि वे संस्कृत प ढ़ना-लिखना जानती थीं; जो उस समय की औरतों के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी। औरतों को तब यह ज्ञान अर्जित करने की अनुमति नहीं थी। उन्होंने 1898 में, पुणे के पास खेड़गाँव में एक मिशन स्थापित किया, जहाँ विधवा स्त्रियों और गरीब औरतों को प ढ़ने-लिखने तथा स्वतंत्र होने की शिक्षा दी जाती थी। उन्हें लकड़ी से चीजें बनाने, छापाखाना चलाने जैसी कुशलताएँ भी सिखाई जाती थीं जो वर्तमान में भी लड़कियों को कम ही सिखाई जाती हैं। ऊपर बाएँ हाथ की तर फ़ छपी तसवीर में उनका छापाखाना दिख रहा है। रमाबाई का मिशन आज भी सक्रिय है।

19वीं शताब्दी में (लगभग 200 वर्ष पूर्व) शिक्षा के बारे में कई नए विचारों ने जन्म लिया। विद्यालय अधिक प्रचलन में आ गए और वे समाज, जिन्होंने स्वयं कभी प ढ़ना-लिखना नहीं सीखा था, अपने बच्चों को स्कूल भेजने लगे। तब भी लड़कियों की शिक्षा को लेकर बहुत विरोध हुआ। इसके बावज़ूद, बहुत-सी स्त्रियों और पुरुषों ने बालिकाओं के लिए स्कूल खोलने के प्रयत्न किए। स्त्रियों ने प ढ़ना-लिखना सीखने के लिए संघर्ष किया।

आइए, हम राससुंदरी देवी (1800-1890) का अनुभव प ढ़ें, जो दो सौ वर्ष पूर्व पश्चिमी बंगाल में पैदा हुई थीं। साठ वर्ष की अवस्था में उन्होंने बांग्ला भाषा में अपनी आत्मकथा लिखी। उनकी पुस्तक आमार जीबोन किसी भारतीय महिला द्वारा लिखित पहली आत्मकथा है। राससुंदरी देवी एक धनवान जमींदार परिवार की गृहिणी थीं। उस समय लोगों का विश्वास था कि यदि लड़की लिखती-प ढ़ती है, तो वह पति के लिए दुर्भाग्य लाती है और विधवा हो जाती है। इसके बाव ज़ूद उन्होेंने अपनी शादी के बहुत समय बाद स्वयं ही छुप-छुपकर लिखना-प ढ़ना सीखा।

शिक्षा प्राप्त करके कुछ महिलाओं ने समाज में स्त्रियों की स्थिति के बारे में प्रश्न उठाए। उन्होंने असमानता केअपने अनुभवों का वर्णन करते हुए कहानियाँ, पत्र और आत्मकथाएँ लिखीं। अपने लेखों में उन्होंने ्त्रीऔर पुरुष दोनोें के लिए सोचने और जीने के नए-न तरीकों की कल्पना की।

रुकैया सखावत हुसैन और लेडीलैंड का उनका सपना

रुकैया सखावत हुसैन (1880-1932) एक धनी परिवार में पैदा हुई थीं, जिसके पास बहुत ज़मीन थी। यद्यपि उन्हें उर्दू प ढ़ना और लिखना आता था, परंतु उन्हें बांग्ला और अंग्रे ज़ी सीखने से रोका गया। उस समय अंग्रे ज़ी को एेसी भाषा के रूप में देखा जाता था, जो लड़कियों के सामने नए विचार रखती थी। जिन्हें लोग लड़कियों के लिए ठीक नहीं मानते थे। इसलिए अंग्रे ज़ी अधिकतर लड़कों को ही प ढ़ाई जाती थी। रुकैया ने अपने बड़े भाई और बहन के सहयोग से बांग्ला और अंग्रे ज़ी प ढ़ना और लिखना सीखा। आगे जाकर वे एक लेखिका बनीं। 1905 में जब वे केवल पच्चीस वर्ष की थीं अंग्रे ज़ी भाषा के कौशल का अभ्यास करने के लिए उन्होंने एक उल्लेखनीय कहानी लिखी, जिसका शीर्षक था सुल्ताना का स्वप्न । कहानी में सुल्ताना नामक एक स्त्री की कल्पना की गई थी, जो लेडीलैंड नाम की एक जगह पहुँचती है। लेडीलैंड एेसा स्थान था, जहाँ पर स्त्रियों को प ढ़ने, काम करने और आविष्कार करने की स्वतंत्रता थी। इस कहानी में महिलाएँ बादलों से होने वाली वर्षा को रोकने के उपाय खोजती हैं और हवाई कारें चलाती हैं। लेडीलैंड में पुरुषों की आक्रामक बंदूकें और युद्ध के अन्य अस्त्र-शस्त्र, स्त्रियों की बौद्धिक शक्ति से हरा दिए जाते हैं और पुरुष एक अलग-थलग स्थान में भेज दिए जाते हैं। सुल्ताना, लेडीलैंड में अपनी बहन साराह के साथ यात्रा पर जाती है, तभी उसकी आँख खुल जाती है और उसे पता चलता है कि वह तो केवल स्वप्न देख रही थी।

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जैसाकि आपने देखा रुकैया सखावत हुसैन उस समय स्त्रियों के हवाई जहाज और कारें चलाने का स्वप्न देख रहीं थीं, जब लड़कियों को स्कूल तक जाने की अनुमति नहीं थी। इस तरह से शिक्षा ने रुकैया का जीवन बदल दिया। रुकैया केवल स्वयं शिक्षित होकर संतुष्ट नहीं हुईं। उनकी शिक्षा ने उन्हें स्वप्न देखने और लिखने की ही शक्ति नहीं दी, वरन् उससे भी अधिक करने की शक्ति दी। 1910 में उन्होंने कोलकाता में लड़कियों के लिए एक स्कूल खोला, जो आज भी कार्य कर रहा है। 


"मैं अत्यंत सबेरे ही काम करना शुरू कर देती थी और उधर आधी रात हो जाने के बाद भी काम में लगी रहती थी। बीच में भी विश्राम नहीं होता था। उस समय मैं केवल चौदह वर्ष की थी। मेरे मन में एक अभिलाषा पनपने लगी- मैं प ढ़ना सीखूँगी और एक धार्मिक पांडुलिपि पढूँगी। मैं अभागी थी। उन दिनों स्त्रियों को नहीं प ढ़ाया जाता था। बाद में मैं स्वयं ही अपने विचारों का विरोध करने लगी। मुझे क्या हो गया है? स्त्रियाँ प ढ़ती नहीं हैं, फिर मैं कैसे पढँ़ूगी? फिर मुझे एक स्वप्न आया - मैं चैतन्य भागवत (एक संत का जीवन) प ढ़ रही थी। बाद में दिन के समय जब मैं रसोई में बैठी हुई भोजन बना रही थी, मैंने अपने पति को सबसे बड़े बेटे से कहते हुए सुना- "बिपिन! मैंने अपनी चैतन्य भागवत यहाँ छोड़ी है। जब मैं इसे मँगाऊँ, तुम इसे अंदर ले आना।" वे पुस्तक वहीं छोड़कर चले गए। जब पुस्तक अंदर रख दी गई, मैंने चुपके से उसका एक पन्ना निकाल लिया और सावधानी से उसे छुपा दिया। उसे छुपाना भी एक बड़ा काम था, क्योंकि किसी को भी वह मेरे हाथ में नहीं दिखना चाहिए था। मेरा सबसे बड़ा बेटा उस समय ताड़ के पत्तों पर लिखकर अक्षर बनाने का अभ्यास कर रहा था। उसमें से भी मैंने एक छिपा दिया। जब मौका मिलता, मैं जाती और उस पन्ने के अक्षरों का मिलान अपने याद किए गए अक्षरोें से करती। मैंने उन शब्दों का भी मिलान करने की कोशिश की, जो मैं दिन-भर में सुनती रहती थी। अत्यधिक जतन और कोशिशों से एक लंबे समय के बाद मैं प ढ़ना सीख सकी।"
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राससुंदरी देवी और रुकैया हुसैन जिन्हें प ढ़ने-लिखने की अनुमति नहीं मिली थी, की स्थिति के विपरीत वर्तमान समय में भारत में बड़ी संख्या में लड़कियाँ स्कूल जा रही हैं। इसके बाव ज़ूद भी बहुत-सी लड़कियाँ गरीबी, शिक्षण की सुविधाओं के अभाव और भेदभाव के कारण स्कूल जाना छोड़ देती हैं। सभी समाजों और वर्गों की पृष्ठभूमि वाले बच्चों को शिक्षण की समान सुविधाएँ प्रदान करना, विशेषकर लड़कियों को, आज भी भारत में एक चुनौती है।

राससुंदरी देवी के अक्षर ज्ञान ने उन्हें चैतन्य भागवत प ढ़ने का अवसर दिया। स्वयं अपने लेखन से उन्होंने संसार को उस समय की स्त्रियों के जीवन के बारे में जानने का एक अवसर दिया। राससुंदरी देवी ने अपने दैनन्दिन जीवन के अनुभवों को विस्तार से लिखा है। एेसे भी दिन होते थे, जब उन्हें दिनभर में क्षण-भर का भी विश्राम नहीं मिलता था इतना समय भी नहीं कि वे ज़रा बैठकर कुछ खा ही लें।


वर्तमान समय में शिक्षा और विद्यालय

आज के युग में लड़के और लड़कियाँ विशाल संख्या में विद्यालय जा रहे हैं, लेकिन फिर भी हम देखते हैं कि लड़कों और लड़कियों की शिक्षा में अंतर है। भारत में हर दस वर्ष में जनगणना होती है, जिसमें पूरे देश की जनसंख्या की गणना की जाती है। इसमें भारत में रहने वालों के जीवन के बारे में भी विस्तृत जानकारी एकत्रित की जाती है, जैसे - उनकी आयु, प ढ़ाई, उनके द्वारा किए जाने वाले काम, आदि। इस जानकारी का इस्तेमाल हम अनेक बातों के आकलन के लिए करते हैं, जैसे - शिक्षित लोगों की संख्या तथा स्त्री और पुरुषों का अनुपात। 1961 की जनगणना के अनुसार सब लड़कों और पुरुषों (7 वर्ष एवं उससे अधिक आयु के) का 40 प्रतिशत शिक्षित था (अर्थात् वे कम-से-कम अपना नाम लिख सकते थे)। इसकी तुलना में लड़कियों तथा स्त्रियों का केवल 15 प्रतिशत भाग शिक्षित था। 2011 की जनगणना के अनुसार लड़कों व पुरुषों की यह संख्या ब ढ़कर 82 प्रतिशत हो गई है और शिक्षित लड़कियों तथा स्त्रियों की संख्या 65 प्रतिशत। इसका आशय यह हुआ कि पुरुषों और स्त्रियों, दोनों के बीच एेसे लोगों का अनुपात ब ढ़ गया है, जो प ढ़-लिख सकते हैं और जिन्हें कुछ हद तक शिक्षा मिल चुकी है। लेकिन जैसाकि आप देख सकते हैं, अब भी स्त्रियों की तुलना में पुरुषों का प्रतिशत अधिक है। इनके बीच का अंतर अभी समाप्त नहीं हुआ है।
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सतत विकास लक्ष्य 4: गुणवत्तापूर्ण शिक्षा  www.in.undp.org

नीचे दी गई तालिका में विभिन्न वर्गों के उन लड़कों  लड़कियों का प्रतिशत दर्शाया

 गयाहै, जो बीच में ही विद्यालय छोड़ देते हैं। अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के लड़के और लड़कियाँ इनमें शामिल हैं।

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संभवतः आपने ऊपर दी गई तालिका में इस बात पर ध्यान दिया होगा कि ‘सब लड़कियों’ की श्रेणी की तुलना में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की लड़कियों की स्कूल छोड़ने की दर अधिक है। इसका अर्थ यह हुआ कि दलित व आदिवासी पृष्ठभूमि की लड़कियों के स्कूल में रहने की संभावना कम रहती है। वर्ष 2011 की जनगणना से यह भी पता चलता है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति लड़कियों की अपेक्षा मुस्लिम लड़कियों की प्राथमिक शिक्षा पूरी करने की संभावना और भी कम रहती है। मुस्लिम लड़कियाँ स्कूल में लगभग 3 वर्ष रह पाती हैं, जबकि अन्य समुदायों की लड़कियाँ स्कूल में 4 वर्ष का समय बिता पा रही है।

उच्च प्राथमिक स्तर पर कितने बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं?

शिक्षा के किस स्तर पर आपको सर्वाधिक बच्चे स्कूल छोड़ते हुए दिखाई देते हैं?

आपके विचार में अन्य सभी वर्गों की तुलना में, आदिवासी लड़के-लड़कियों की विद्यालय छोड़ने की दर अधिक क्यों है? 

दलित, आदिवासी और मुस्लिम वर्ग के बच्चों के स्कूल छोड़ देने के अनेक कारण हैं। देश के अनेक भागों में विशेषकर ग्रामीण और गरीब क्षेत्रों में नियमित रूप से प ढ़ाने के लिए न उचित स्कूल हैं, न ही शिक्षक। यदि विद्यालय घर के पास न हो और लाने-ले जाने के लिए किसी साधन जैसे बस या वैन आदि की व्यवस्था न हो तो अभिभावक लड़कियों को स्कूल नहीं भेजना चाहते। कुछ परिवार अत्यंत निर्धन होते हैं और अपने सब बच्चों को प ढ़ाने का खर्चा नहीं उठा पाते हैं। एेसी स्थिति में लड़कों को प्राथमिकता मिल सकती है। बहुत-से बच्चे इसलिए भी स्कूल छोड़ देते हैं, क्योंकि उनके साथ उनके शिक्षक और सहपाठी भेदभाव करते हैं, जैसा कि ओमप्रकाश वाल्मीकि के साथ हुआ।

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2014 में शुरु हुई ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ अभियान के बारे में पता करें।

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महिला आंदोलन

अब महिलाओं और लड़कियों को प ढ़ने का और स्कूल जाने का अधिकार है। अन्य क्षेत्र भी हैं- जैसे कानूनी सुधार, हिंसा और स्वास्थ्य, जहाँ लड़कियों और महिलाओं की स्थिति बेहतर हुई है। ये परिवर्तन अपने-आप नहीं आए हैं। औरतों ने व्यक्तिगत स्तर पर और आपस में मिल कर इन परिवर्तनों के लिए संघर्ष किए हैं। इन संघर्षों को महिला आंदोलन कहा जाता है। देश के विभिन्न भागों से कई औरतें और कई महिला संगठन इस आंदोलन के हिस्से हैं। कई पुरुष भी महिला आंदोलन का समर्थन करते हैं। इस आंदोलन में जुटे लोगों की मेहनत, निष्ठा और उनकी विशेषताएँ इसे एक बहुत ही जीवंत आंदोलन बनाती हैं। इसमें चेतना जागृत करने, भेदभावों का मुकाबला करने और न्याय हासिल करने के लिए भिन्न-भिन्न रणनीतियों का उपयोग किया गया है। इनकी कुछ झलकियाँ आप यहाँ देख सकते हैं।

प्राथमिक कक्षाओं में स्कूल छोड़ देने वाले बच्चों के आँकड़ों को ऊपर दी गई तालिका में से लेकर दंडारेख के रूप में दर्शाइए। दो आँकड़े आपके लिए दंडारेख के रूप में दर्शाए गए हैं।

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 अभियान

भेदभाव और हिंसा के विरोध में अभियान चलाना महिला आंदोलन का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। अभियानों के फलस्वरूप नए कानून भी बने हैं। सन् 2006 में एक कानून बना है, जिससे घर के अंदर शारीरिक और मानसिक हिंसा को भोग रही औरतों को कानूनी सुरक्षा दी जा सके।

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सत्यारानी, महिला आंदोलनों की एक सक्रिय सदस्या, दहेज के लिए मार दी गई अपनी बेटी के मामले में न्याय माँगने के लिए लड़े गए लंबे मुकदमे की कानूनी \*/फ़ाइलों से घिरी हुईं सर्वोच्च न्यायालय की सी ढ़ियों पर बैठी हैं।

इसी तरह महिला आंदोलन के अभियानों के कारण 1997 में सर्वोच्च न्यायालय ने कार्य के स्थान पर और शैक्षणिक संस्थानों में महिलाओं के साथ होने वाली यौन प्रताड़ना से उन्हें सुरक्षा प्रदान करने के लिए दिशा निर्देश जारी किए।
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एक और उदाहरण देखें, तो 1980 के दशक में देश भर के महिला संगठनों ने दहेज हत्याओं के खिलाफ़ आवाज़ उठाई। नवविवाहित युवतियों को उनके पति और ससुराल के लोगों द्वारा दहेज के लालच में मौत के घाट उतार दिया जाता था। महिला संगठनों ने इस बात की कड़ी आलोचना करी कि कानून अपराधियों का कुछ नहीं कर पा रहा है। इस मुद्दे पर महिलाएँ सड़कों पर निकल आईं। उन्होंने आदलत के दरवा ज़े खटखटाए और आपस में अनुभव व जानकारियों का आदान-प्रदान किया। अंततः यह समाज का एक बड़ा सार्वजनिक मुद्दा बन गया और अखबारों में छाने लगा। दहेज से संबंधित कानून को बदला गया, ताकि दहेज माँगने वाले परिवारों को दंडित किया जा सके।


जागरूकता ब ढ़ाना

औरतों के अधिकारों के संबंधों में समाज में जागरूकता ब ढ़ाना भी महिला आंदोलन का एक प्रमुख कार्य है। गीतों, नुक्कड़-नाटकों व जनसभाओं के माध्यम से वह अपने संदेश लोगों के बीच पहुँचाता है।

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विरोध करना

जब महिलाओं के हितों का उल्लंघन होता है, जैसे किसी कानून अथवा नीति द्वारा, तो महिला आंदोलन एेसे उल्लंघनों के खिलाफ़ आवाज़ उठाता है। लोगों का ध्यान खींचने के लिए रैलियाँ, प्रदर्शन आदि बहुत असरकारक तरीके हैं।

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बन्धुत्व व्यक्त करना

न्याय के अन्य मुद्दों व औरतों के साथ बन्धुत्व व्यक्त करना भी महिला आंदोलन का ही हिस्सा है।

8 मार्च, अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस को दुनियाभर की औरतें अपने संघर्षों को ता ज़ा करने और जश्न मनाने के लिए इकट्ठी होती हैं।

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हर साल 14 अगस्त को वाघा में भारत-पाकिस्तान की सीमा पर ह ज़ारों लोग इकट्ठा होते हैं और एक सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करते हैं। ऊपर की तसवीर में भारत और पाकिस्तान के लोगों के बीच बंधुत्व प्रदर्शित करते हुए औरतेें जलती हुई मोमबत्तियाँ उठा रही हैं।

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अभ्यास

1. आपके विचार से महिलाओं के बारे में प्रचलित रूढ़िवादी धारणा कि वे क्या कर सकती हैं और क्या नहीं, उनके समानता के अधिकार को कैसे प्रभावित करती है?

2. कोई एक कारण बताइए जिसकी व ज़ह से राससुंदरी देवी, रमाबाई और रुकैया हुसैन के लिए अक्षर ज्ञान इतना महत्त्वपूर्ण था।

3. "निर्धन बालिकाएँ प ढ़ाई बीच में ही छोड़ देती हैं, क्योंकि शिक्षा में उनकी रुचि नहीं है।" पृष्ठ 17 पर दिए गए अनुच्छेद को प ढ़ कर स्पष्ट कीजिए कि यह कथन सही क्यों नहीं है?

4. क्या आप महिला आंदोलन द्वारा व्यवहार में लाए जाने वाले संघर्ष के दो तरीकों के बारे में बता सकते हैं? महिलाएँ क्या कर सकती हैं और क्या नहीं, इस विषय पर आपको रू ढ़ियों के विरुद्ध संघर्ष करना पड़े, तो आप प ढ़े हुए तरीकों में से कौन-से तरीकों का उपयोग करेंगे? आप इसी विशेष तरीके का उपयोग क्यों करेंगे?

शब्द-संकलन

रू ढ़िवादी धारणा – जब हम विश्वास करने लगते हैं कि किसी विशेष धार्मिक, आर्थिक, क्षेत्रीय समूह के लोंगों की कुछ निश्चित विशेषताएँ होती ही हैं या वे केवल खास प्रकार का कार्य ही कर सकते हैं, तब रू ढ़िवादी धारणाओं का जन्म होता है। जैसे इस पाठ में हमने देखा कि लड़कों और लड़कियों को अलग-अलग विषय लेने के लिए कहा गया। कारण उनकी रुचि न होकर उनका लड़का-लड़की होना था। रू ढ़िवादी धारणाएँ हमें, लोगों को उनकी वैयक्तिक विशिष्टताओं के साथ देखने से रोकती हैं।

भेदभाव – भेदभाव तब होता है, जब हम लोगों के साथ समानता व आदर का व्यवहार नहीं करते हैं। यह तब होता है, जब व्यक्ति या संस्थाएँ पूर्वाग्रहों से ग्रसित होती हैं। भेदभाव तब होता है जब हम किसी के साथ अलग व्यवहार करते हैं या भेद करते हैं।

उल्लंघन – जब कोई ज़बरदस्ती कानून तोड़ता है या खुले रूप से किसी का अपमान करता है, तब हम कह सकते हैं कि उसने ‘उल्लंघन’ किया है।

यौन प्रताड़ना – इसका आशय औरत की इच्छा के विरुद्ध उसके साथ यौन से जुड़ी शारिरिक या मौखिक हरकतें करने से है।