इकाई पाँच


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बाज़ार 

शिक्षकों के लिए 

ये दो अध्याय बाज़ारों से जु ड़े जीवन और व्यवसाय के चक्रों से संबंधित हैं। इनमें से कई प्रक्रियाएँ तो हमें देखने को मिल जाती हैं और उनका अवलोकन किया जा सकता है, किंतु कई अन्य गतिविधियाँ हमारे लिए अनजानी भी बनी रहती हैं। 

अध्याय 7 है – ‘हमारे आस-पास के बाज़ार’। इसमें हम एक स्तर पर बाज़ारों के अलग-अलग स्थानों का अध्ययन करते हैं- एक साप्ताहिक बाज़ार, मोहल्ले की दुकानें, एक शॉपिंग कॉम्प्लेक्स, इत्यादि। एक अलग स्तर पर हम एक पेचीदा सवाल की जाँच-प ड़ताल भी करते हैं - ‘इन बाज़ारों में माल कैसे पहुँचता है?’ सब्ज़ी के थोक बाज़ार के एक विशेष अध्ययन के द्वारा हम समझने की कोशिश करते हैं कि बाज़ारों की जु ड़ी हुई एक शृंखला कैसे काम करती है और उसमें थोक बाज़ार की क्या भूमिका होती है। वैसे तो हम ‘बाज़ार’ शब्द को बाज़ार के स्थानों का पर्याय मानते रहते हैं, पर असल में खरीदना और बेचना विभिन्न तरीकों से चलता रहता है। इस अध्याय में इस बात पर विचार किया गया है कि कैसे यह सब बाज़ार की एक व्यापक समझ बनाने के लिए महत्त्वपूर्ण है। 

अध्याय 8 में यह देखने की कोशिश है कि बाज़ार किस तरह अलग-अलग लोगों को अलग-अलग अवसर उपलब्ध कराता है। ‘एक कमीज़ की कहानी’ और उसकी प्रक्रिया में आने वाले बाज़ारों के उदाहरण से इस मुद्दे को प्रस्तुत किया गया है। एक कमीज़ के उत्पादन और वितरण के प्रत्येक कदम को समझते हुए, हम यह अहसास कर पाते हैं कि इसमें होने वाली लेन-देन की प्रक्रियाओं में कुछ लोग काफ़ी फायदे में रहते हैं और कुछ को बहुत कम या ना के बराबर ही लाभ मिल पाता है। लोगोें को मिलने वाले अवसर बहुत ही असमान हैं। उत्पादनकर्ता के लिए बेहतर आमदनी सुनिश्चित करने के भी तरीके हैं, जैसे- सहकारी संस्थाएँ बना कर माल बेचना। फिर भी, समतापूर्ण वितरण के कई और व्यावहारिक व कारगर रास्तों की तलाश की जानी चाहिए। 

आपके स्थानीय बाज़ारों के अनुभवों को कक्षा की चर्चाओं में शामिल करने का मौका भी इन अध्यायों में मिलता है। आस-पास के किसी थोक बाज़ार का भ्रमण करना अच्छा रहेगा और विद्यार्थियों को कई बारीकियाँ खोजने का मौका मिलेगा, जैसे कि खरीद-फरोख्त में मुनाफ़े की कितनी गुँजाइश मौज़ूद होती है, लोगों की दैनिक आमदनी कितनी होती है आदि। इस खोज़बीन से वे समाज की असमानताओं को सीधे तौर पर परख सकेंगे। लोगों के बाज़ार के अनुभव बहुत गहरे और विविध होते हैं। इसलिए कक्षा की चर्चाओं में एेसे सवालों को समय दिया जाना चाहिए, जो अध्याय में तो नहीं हैं, परंतु जिन पर बच्चे बातचीत करना चाहते हों। 


अध्याय 7

हमारे आस-पास के बाज़ार

हम बाज़ार जाते हैं और बाज़ार से बहुत-सी चीजें खरीदते हैं, जैसे- सब्ज़ियाँ, साबुन, दंतमंजन, मसाले, ब्रेड, बिस्किट, चावल, दाल, कप ड़ें, किताबें, कॉपियाँ, आदि। हम जो कुछ खरीदते हैं, यदि उन सब की सूची बनाई जाए, तो वह काफ़ी लंबी होगी। बाज़ार भी कई प्रकार के होते हैं, जहाँ हम अपनी रोज़मर्रा की ज़रूरतों के लिए जाते हैं, जैसे – हमारे प ड़ोस की गुमटी, साप्ताहिक हाट (बाज़ार), ब ड़े-ब\ड़े शॉपिंग कॉम्प्लेक्स और शॉपिंग मॉल। इस अध्याय में हम बाज़ार के इन्हीं प्रकारों को समझने की कोशिश करेंगे और यह जानने कि कोशिश करेंगे कि यहाँ बेची जाने वाली चीज़ें खरीदारों तक कैसे आती हैं, ये खरीदार कौन हैं, ये बेचने वाले कौन है? और इस सब के बीच कैसी और क्या समस्याएँ सामने आती हैं?

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लोग साप्ताहिक बाज़ाराें में क्यों जाते हैं? तीन कारण बताइए। 

इन साप्ताहिक बाज़ारों में दुकानदार कौन होते हैं? ब ड़े व्यापारी इन बाज़ारों में क्यों नहीं दिखते? 

साप्ताहिक बाज़ारों में सामान सस्ते दामों में क्यों मिल जाता है? 

एक उदाहरण देकर समझाइए कि लोग बाज़ारों में कैसे मोल-तोल करते हैं? क्या आप एेसी स्थिति के बारे में सोच सकते हैं, जहाँ मोल-तोल करना अन्यायपूर्ण होगा?


समीर, रेडीमेड वस्त्रों का एक व्यापारी

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समीर साप्ताहिक बाज़ार का एक छोटा व्यापारी है। वह शहर के एक ब ड़े व्यवसायी से कप ड़े खरीदता है और सप्ताह भर में छः अलग-अलग जगहों के साप्ताहिक बाज़ारों में कप ड़ों को बेचता है। समीर और दूसरे कप ड़ा व्यापारी इकट्ठे आते-जाते हैं। इसके लिए वे किराए की मिनी वैन ले लेते हैं। उसके ग्राहक सामान्यतः आस-पास के ग्रामीण होते हैं। दीपावली, पाेंगल या एेसे ही त्यौहारों के मौकों पर वह अच्छा व्यवसाय कर लेता है।


साप्ताहिक बाज़ार

साप्ताहिक बाज़ार का यह नाम ही इसीलिए प ड़ा है, क्योंकि यह सप्ताह के किसी एक निश्चित दिन लगता है। इस साप्ताहिक बाज़ार में रोज़ खुलनेवाली पक्की दुकानें नहीं होती हैं। व्यापारी दिन में दुकान लगाते हैं और शाम होने पर उन्हें समेट लेते हैं। अगले दिन वे अपनी दुकानें किसी और जगह पर लगाते हैं। देश-भर में एेसे हज़ारों बाज़ार लगते हैं और लोग इनमें अपनी रोज़मर्रा कीज़रूरतों की चीज़ें खरीदने आते हैं।

साप्ताहिक बाज़ारों में बहुत-सी चीज़ें सस्ते दामों पर मिल जाती हैं। एेसा इसलिए, कि जो पक्की दुकानें होती हैं, उन्हें अपनी दुकानों के कई तरह के खर्चे जो ड़ने होते हैं। उन्हें दुकानों का किराया, बिजली का बिल, सरकारी शुल्क आदि देना प ड़ता है। इन दुकानों पर काम करने वाले कर्मचारियों की तनख्वाह भी इन्हीं खर्चों में जो ड़नी होती है। साप्ताहिक बाज़ारों में बेची जाने वाली चीज़ों को दुकानदार अपने घरों में ही जमा करके रखते हैं। इन दुकानदारों के घर के लोग अकसर इनकी सहायता करते हैं, जिससे इन्हें अलग से कर्मचारी नहीं रखने प ड़ते। साप्ताहिक बाज़ार में एक ही तरह के सामानों के लिए कई दुकानें होती हैं, जिससे उनमें आपस में प्रतियोगिता भी होती है। यदि एक दुकानदार किसी वस्तु के लिए अधिक कीमत माँगता है, तो लोगों के पास यह विकल्प होता है कि वे अगली दुकानों पर वही सामान देख लें, जहाँ संभव है कि वही वस्तु कम कीमत में मिल जाए। एेसी स्थितियों में खरीदारों के पास यह अवसर भी होता है कि वे मोल-तोल करके भाव कम करवा सकें।

साप्ताहिक बाज़ारों का एक फ़ायदा यह भी होता है किज़रूरत का सभी सामान एक ही जगह पर मिल जाता है। सब्ज़ियों, कप ड़ों, किराना सामान से लेकर बर्तन तक सभी चीज़ें यहाँ उपलब्ध होती हैं। अलग-अलग तरह के सामान के लिए अलग-अलग क्षेत्रों में जाने कीज़रूरत भी नहीं होती है। लोग अकसर उन बाज़ारों में जाना पसंद करते हैं, जहाँ सामान के विविध विकल्प उपलब्ध हों।

मोहल्ले की दुकानें

हमने देखा कि साप्ताहिक बाज़ार हमें कई तरह का सामान उपलब्ध करवाते हैं। बहरहाल हम अन्य तरह के बाज़ारों से भी सामान खरीदते हैं। एेसी बहुत-सी दुकानें हमारे मोहल्ले में भी होती हैं, जो हमें कई तरह की सेवाएँ और सामान उपलब्ध करवाती हैं। हम पास की डेयरी से दूध, किराना व्यापारी से तेल-मसाले व अन्य खाद्य पदार्थ तथा स्टेशनरी के व्यापारी से कागज़-कलम या फिर दवाइयों की दुकान से दवाई भी खरीद सकते हैं। इस तरह की दुकानें अकसर पक्की और स्थायी होती हैं, जबकि स ड़क किनारे फुटपाथ पर सब्ज़ियों के कुछ छोटे दुकानदार, फल विक्रेता और कुछ गा ड़ी मैकेनिक आदि भी दिखाई देते हैं।


सुजाता और कविता एक दिन अपने मोहल्ले की दुकान से किराने का कुछ सामान खरीदने पहुँचीं। वे इस दुकान पर अकसर खरीदारी के लिए आती हैं। आज यहाँ भी ड़ थी। दुकान मालकिन दो सहायकों की मदद से दुकान का काम संभाल रही थीं। जब सुजाता और कविता दुकान के अंदर पहुँची, तो सुजाता ने दुकान मालकिन कोज़रूरत के सामान की सूची बोल कर लिखवा दी। वे इनकी सूची के अनुसार सामान तोलने और पैक करवाने के लिए अपने कर्मचारियों को निर्देश देने लगीं। इस बीच कविता चारों तरफ़ नज़र दौ ड़ा रही थी...

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बाएँ हाथ की सबसे ऊपरी शेल्फ पर अलग-अलग ब्रांड की साबुन की टिकिया रखी थीं। दूसरी शेल्फों पर दंतमंजन, टेल्कम पाउडर, शैंपू, बाल के तेल आदि रखे थे। अलग-अलग ब्रांड के और अलग-अलग रंगों में सजे सामान मन लुभा रहे थे। फ़र्श पर कुछ बोरे प ड़े हुए थे।

सारा सामान तोलने और बाँधने में करीब 20 मिनट लग गए। फिर सुजाता ने अपनी नोटबुक सामने कर दी। दुकान मालकिन ने नोटबुक में ₹3000 की संख्या दर्ज़ की और वापिस कर दी। उसने अपने ब ड़े रजिस्टर में भी यह संख्या लिख कर रख ली। अब सुजाता अपने भारी थैले लेकर बाहर निकली। अगले महीने के पहले हफ्ते में उसके घर से दुकान का हिसाब चुका दिया जाएगा। 


सुजाता नोटबुक लेकर दुकान क्यों गई? क्या यह तरीका उपयोगी है? क्या इसमें कोई समस्या भी आ सकती है?

आपके मोहल्ले में अलग-अलग प्रकार की कौन-सी दुकानें हैं? आप उनसे क्या-क्या खरीदते हैं?

स ड़क किनारे की दुकानों या साप्ताहिक बाज़ार में मिलने वाले सामान की तुलना में पक्की दुकानों से मिलने वाला सामान मँहगा क्यों होता है? 

प ड़ोस की दुकानें कई अर्थों में बहुत उपयोगी होती हैं। हमारे घरों के करीब तो वे होती ही हैं और हम सप्ताह के किसी भी दिन और किसी भी समय इन दुकानों पर जा सकते हैं। समान्यतः दुकानदार और खरीदार एक-दूसरे से परिचित भी हो जाते हैं और दुकानदार, ग्राहकों के लिए उधार भी देने को तैयार होते हैं। यानी कि आज खरीदे गए सामान का भुगतान बाद में भी करने की सुविधा होती है, जैसा कि सुजाता के उदाहरण में हमने देखा।

आपने ध्यान दिया होगा कि हमारे प ड़ोस में भी कई तरह के दुकानदार होते हैं। कुछ तो पक्की दुकानों वाले होते हैं और कुछ स ड़क किनारे दुकानें सजाकर सामान बेचते हैं।


अंज़ल मॉल एक पाँच-मंजिला शॉपिंग कॉम्प्लेक्स है। कविता और सुजाता इसमें लिफ्ट से ऊपर जाने और नीचे आने का आनंद ले रहीं थीं। यह काँच की बनी लगती थी और वे इसमें से बाहर का नज़ारा देखती हुई ऊपर-नीचे जा रहीं थीं। उन्हें यहाँ आइसक्रीम, बर्गर, पिज़्जा आदि खाने की चीज़ें, घरेलू उपयोग का सामान, चम ड़े के जूते, किताबें आदि तरह-तरह की दुकानों को देखना चमत्कृत कर रहा था।

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मॉल के तीसरे तल पर घूमते हुए वे दोनों एक ब्रांडेड रेडीमेड कपड़ों की दुकान में पहुँच गईं। सुरक्षा कर्मचारी ने उन्हें कुछ इस तरह देखा कि वह इन्हें रोक देना चाहता हो, परंतु उसने कुछ कहा नहीं। उन्होंने कुछ कप ड़े और उन पर लगी कीमत की पर्चियाँ देखीं। एक भी कप ड़ा ₹3000 से कम का नहीं था। यह कीमत साप्ताहिक बाज़ार के कप ड़ों की तुलना में लगभग पाँच गुना अधिक थी। सुजाता, कविता से फुसफुसाती हुई बोली "मैं तुम्हें एक दूसरी दुकान पर ले चलूँगी जहाँ अच्छी किस्म का कप ड़ाज़्यादा ठीक दामों पर मिल जाएगा।"  


आप क्या सोचते हैं, सुरक्षा कर्मचारी ने सुजाता और कविता को अंदर जाने से रोकना क्यों चाहा होगा? यदि कहीं किसी बाज़ार में कोई आपको एेसी ही दुकान में अंदर जाने से रोके, तो आप क्या कहेंगे?

शॉपिंग कॉम्प्लेक्स और मॉल

इस प्रकार अभी हमने दो प्रकार के बाज़ार देखे पहला, साप्ताहिक बाज़ार और दूसरा, प ड़ोस की दुकानों का बाज़ार। शहरों में कुछ अन्य प्रकार के बाज़ार भी होते हैं, जहाँ एक साथ कई तरह की दुकानें होती हैं। इन्हें लोग शॉपिंग कॉम्प्लेक्स के नाम से जानते हैं। अब तो कुछ शहरी इलाकों में आपको बहुमंज़िला वातानुकूलित दुकानें भी देखने को मिलेंगी, जिनकी अलग-अलग मंज़िलों पर अलग-अलग तरह की वस्तुएँ मिलती हैं। इन्हें मॉल कहा जाता है। इन शहरी दुकानों में आपको ब ड़ी-ब ड़ी कंपनियों का ब्रांडेड सामान भी मिलता है और कुछ बिना ब्रांड का सामान भी मिलता है। विज्ञापन वाले अध्याय में आपने प\ढ़ा था कि ब्रांडेड सामान जिसे कंपनियाँ ब ड़े-ब ड़े विज्ञापन देकर और क्वालिटी के दावे करके बेचती हैं, महँगा होता है। कंपनियाँ अपने ब्रांडेड उत्पादों को ब ड़े शहरी बाज़ारों और अपने विशेष शोरूमों में बेचने के लिए रखती हैं। बिना ब्रांड के उत्पादों की तुलना में इस ब्रांडेड सामान की कीमत का बोझ केवल कुछ लोग ही उठा पाते हैं।


एेसा क्यों होता है कि लोग मॉल में दुकानदारों से मोल-तोल नहीं करते हैं; जबकि साप्ताहिक बाज़ारों में एेसा खूब किया जाता है?

आपको क्या लगता है, आपके मोहल्ले की दुकान में सामान कैसे आता है? पता लगाइए और कुछ उदाहरणों से समझाइए।

थोक व्यापारी की भूमिकाज़रूरी क्यों होती है?


बाज़ारों की शृंखला

पहले हिस्से में आपने विभिन्न तरह के बाज़ारों के बारे में पढ़ा, जहाँ हम सामान खरीदने जाते हैं। क्या आप सोच सकते हैं कि ये सभी दुकानदार अपनी दुकानों के लिए सामान कहाँ से लेकर आते हैं? सामानों का उत्पादन कारखानों, खेतों और घरों में होता है, लेकिन हमं कारखानों और खेतों से सीधे सामान नहीं खरीदते हैं। चीज़ों का उत्पादन करने वाले भी हमें कम मात्रा में, जैसे - एक किलो सब्ज़ी या एक प्लास्टिक कप आदि बेचने में रुचि नहीं रखेंगे।

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दिल्ली के 10 थोक बाज़ारों में से चार ऊपर दिए गए नक्शे में दिखाए गए हैं।

वे लोग, जो वस्तु के उत्पादक और वस्तु के उपभोक्ता के बीच में होते हैं, उन्हें व्यापारी कहा जाता है। पहले थोक व्यापारी ब ड़ी मात्रा या संख्या में सामान खरीद लेता है। जैसे - सब्ज़ियों का थोक व्यापारी कुछ किलो सब्ज़ी नहीं खरीदता है बल्कि वह ब ड़ी मात्रा मेें 25 से 100 किलो तक सब्ज़ियाँ खरीद लेता है। इन्हें वह दूसरे व्यापारियों को बेचता है। यहाँ खरीदने वाले और बेचने वाले दोनों व्यापारी होते हैं। व्यापारियों की लंबी शृंखला का वह अंतिम व्यापारी जो अंततः वस्तुएँ उपभोक्ता को बेचता है, खुदरा या फुटकर व्यापारी कहलाता है। यह वही दुकानदार होता है, जो आपको प ड़ोस की दुकानों, साप्ताहिक बाज़ार या फिर शॉपिंग कॉम्प्लेक्स में सामान बेचता मिलता है।

हम इसे यहाँ दिए गए उदाहरणों से समझेंगे -

हर शहर में थोक बाज़ार का एक क्षेत्र होता है। यहाँ वस्तुएँ पहले पहुँचती हैं और यहीं से वे अन्य व्यापारियों तक पहुँचती हैं। स ड़क किनारे की दुकान का छोटा व्यापारी, जिसके बारे में आपने पहले पढ़ा था, ब ड़ी संख्या में प्लास्टिक का सामान शहर के थोक व्यापारी से खरीदता है। हो सकता है कि वह ब ड़ा व्यापारी अपने से भी ब ड़े थोक व्यापारी से स्वयं सामान खरीदता हो। शहर का ब ड़ा थोक व्यापारी प्लास्टिक का यह सामान कारखाने से खरीदता है और उन्हें ब ड़े गोदामों में रखता है। इस तरह से बाज़ार की एक शृंखला बनती है। जब हम एक सामान खरीदते हैं, तब हम यह ध्यान नहीं देते हैं कि वह सामान किस-किस के पास से सफ़र करता हुआ हम तक पहुँचता है।


आफ़ताब- शहर में सब्ज़ियों का थोक व्यापारी

आफ़ताब उन थोक व्यापारियों में से एक है, जो बहुत ब ड़ी मात्रा में खरीदारी करते हैं। उसका व्यवसाय सुबह लगभग 3 बजे से आरंभ होता है। इसी समय सब्ज़ियाँ, बाज़ार में पहुँचती हैं। यही समय है, जब सब्ज़ी बाज़ार या सब्ज़ी मंडी में गतिविधियाँ तेज हो रही होती हैं। 

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आस-पास और दूर-दराज़ के खेतों से ट्रकों, मेटाडोर, ट्रैक्टर की ट्रॉलियों में सब्जियाँ यहाँ आने लगती हैं। जल्दी ही नीलामी की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। आफ़ताब भी इस नीलामी में शामिल होता है। सब्ज़ियाँ देखकर वह तय करता है कि आज वह क्या खरीदेगा। उदाहरण के लिए - वह आज 5 क्विंटल फूल गोभी और 10 कि्ंवटल प्याज़ खरीदता है। शहर में उसकी एक दुकान और गोदाम है, जहाँ वह सब्जियों को रखता और बेचता है। यहाँ वह फुटकर व्यापारियों को सब्ज़ियाँ बेचता है, जो सुबह छह बजे के आस-पास वहाँ आने लगते हैं। यहाँ से दिन-भर के लिए खरीदारी करने के बाद ये छोटे व्यापारी लगभग 10 बजे के आस-पास अपने क्षेत्र में अपनी दुकानें खोल लेते हैं। 


हर जगह बाज़ार

हमने देखा कि अलग-अलग जगहों पर तरह-तरह के बाज़ार हैं, जहाँ तरह-तरह की वस्तुएँ खरीदी-बेची जाती हैं। ये बाज़ार अपनी-अपनी जगहों और समय पर अपनी तरह से काम करते हैं। कई बार तो यह भी आवश्यक नहीं होता है, कि आप सामान खरीदने के लिए बाज़ार जाएँ। अब तो तरह-तरह के सामान के लिए फोन या इंटरनेट पर भी अॉर्डर दे दिए जाते हैं और सामान आपके घर तक पहुँचा दिया जाता है। आपने देखा होगा कि नसिंρग होम और डॉक्टर के क्लीनिक में भी कुछ कंपनियों के प्रतिनिधि अपना सामान बेचने का कार्य कर रहे होते हैं। इस तरह हम देखते हैं कि बेचना-खरीदना कई तरीकों से चलता रहता है। यहज़रूरी नहीं है कि वह केवल बाज़ार की दुकानों से ही होता हो।

ये तो बाज़ार के वे रूप हैं, जो हमें सीधे तौर पर दिखाई देते हैं। एेसे भी कुछ बाज़ार होते हैं, जिनके बारे में हमारी जानकारी कम ही होती है, क्योंकि यहाँ बिकने और खरीदी जाने वाली चीज़ें हम सीधेे प्रयोग नहीं करते हैं। जैसे - एक किसान अपनी फ़सल की पैदावार बढ़ाने के लिए कुछ खाद और उर्वरकों का इस्तेमाल करता है। ये उर्वरक वह शहर की कुछ खास दुकानों से खरीदता है, जहाँ खाद के कारखानों से माल मँगाया जाता है। एक कार के कारखाने के द्वारा इंजन, गियर्स, पेट्रोल टंकियाँ, एक्सेल, पहिए आदि अलग-अलग कारखानों से खरीदे जाते हैं, परंतु इस सबसे बेखबर हम कार के शोरूम में अंतिम उत्पाद, कार को ही देखते हैं। सभी चीज़ों के बनाने और बेचने की एेसी ही कहानी होती है।

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शहरी क्षेत्रों के लोग इन्टरनेट के ज़रिए घर से बाहर कदम रखे बिना ही बाज़ार में प्रवेश कर लेते हैं। वे अपने क्रेडिट कार्ड से ‘अॉनलाइन’ खरीदारी कर लेते हैं।

बाज़ार और समानता

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एक कारखाने में जो ड़ी जा रही है कार

इस अध्याय में हमने अपने आस-पास के कुछ बाज़ारों पर नज़र डाली। हमने साप्ताहिक बाज़ार से लेकर शॉपिंग कॉम्प्लेक्स तक की दुकानों और दुकानदारों को देखा। इन दोनों दुकानदारों में ब ड़ा अंतर है। एक छोटी पूँजी से व्यवसाय करने वाला दुकानदार है, जबकि दूसरा अपनी दुकान के लिए ब ड़ी पूँजी खर्च कर सकता है। इनकी आमदनी भी अलग-अलग होती है। साप्ताहिक बाज़ार का छोटा दुकानदार शॉपिंग कॉम्प्लेक्स के व्यापारी की तुलना में बहुत कम लाभ कमा पाता है। इसी तरह खरीदारों की भी अलग-अलग स्थितियाँ हैं। एेसे बहुत से लोग हैं, जो सबसे सस्ता मिलने वाला सामान भी खरीद पाने की स्थिति में नहीं हैं, जबकि दूसरी ओर लोग मॉलों में महँगी खरीदारी करने में व्यस्त रहते हैं। इस तरह कुछ हद तक अन्य कारणों के अलावा हमारी आर्थिक स्थिति ही यह तय करती है कि हम किन बाज़ारों में खरीदार या दुकानदार हो सकते हैं।

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एेसे मॉल ब्रांडेड और महँगी वस्तुएँ बेचते हैं।

हमने सामान के उत्पादन से लेकर, हम तक पहुँचने से बनने वाली बाज़ारों की शृंखला को समझा। इस शृंखला से ही यह संभव होता है कि एक जगह उत्पादित होने वाला सामान, लोगों के लिए हर जगह उपलब्ध हो जाए। वस्तुओं के बिकने से वस्तुओं का उत्पादन सीधे जु ड़ा होता है। बनी हुई चीज़ों के बिकने से ही लोगों को रोज़गार मिलता है और उत्पादन भी बढ़ाया जाता है, परंतु क्या इससे शृंखला के प्रत्येक स्तर पर लाभ के समान अवसर मिलते हैं? आगे ‘एक कमीज़ की कहानी’ अध्याय में हम इस सवाल को समझने का प्रयास करेंगे।
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सतत विकास लक्ष्य 12:.जम्मेदारी से उपभोग और उत्पादन www.in.undp.org


अभ्यास

1. एक फेरीवाला, किसी दुकानदार से कैसे भिन्न है?

2. निम्न तालिका के आधाार पर एक साप्ताहिक बाज़ार और एक शॉंपिंग कॅाम्प्लेक्स की तुलना करते हुए उनका अंतर स्पष्ट कीजिए।

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3. स्पष्ट कीजिए कि बाज़ारों की शृंखला कैसे बनती है? इससे किन उद्देश्यों की पूर्ति होती है?

4. सब लोगों को बाज़ार में किसी भी दुकान पर जाने का समान अधिकार है। क्या आपके विचार से महँगे उत्पादों की दुकानों के बारे में यह बात सत्य है? उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।

5. बाज़ार में जाए बिना भी खरीदना और बेचना हो सकता है। उदाहरण देकर इस कथन की व्याख्या कीजिए।

शब्द-संकलन

साप्ताहिक बाज़ार – ये बाज़ार नियमित बाज़ार नहीं होते हैं वरन् एक नियत स्थान पर सप्ताह में एक या दो बार लगाए जाते हैं। इन बाज़ारों में घरेलू सामान की लगभग सभी चीज़े बिकती हैं, जैसे- सब्ज़ी से लेकर कप ड़े और बर्तन आदि।

मॉल – यह चारों ओर से घिरा हुआ दुकानदारी का स्थान होता है। इसकी इमारत बहुत ब ड़ी होती है, जिसमें कई मंजिलें, दुकानें, रेस्तराँ और कभी-कभी सिनेमाघर तक होते हैं। इन दुकानों में प्रायः ब्रांडों वाले उत्पाद बिकते हैं।

थोक – इसका आशय बहुत ब ड़ी मात्रा में खरीदना और बेचना होता है। अधिकांश उत्पादों जिनमें सब्ज़ी, फल और फूल आदि भी सम्मिलित हैं, के अपने-अपने विशेष थोक बाज़ार होते हैं।

बाज़ारों की शृंखला – यह बाज़ारों की एक शृंखला है, जो परस्पर एक-दूसरे से क ड़ियों की तरह जु ड़ी होती है, क्योंकि उत्पाद एक बाज़ार से होते हुए दूसरे बाज़ार में पहुँचते हैं। 



अध्याय 8

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बाज़ार में एक कमीज़

ह अध्याय हमें एक कमीज़ की कहानी बताता है। यह कहानी कपास के उत्पादन से प्रारंभ होती है और कमीज़ के बिकने पर खत्म हो जाती है। आइए, हम देखें कि बाज़ारों की शृंखला कपास उगाने वाले को सुपरबाज़ार में कमीज़ खरीदने वाले से कैसे जो ड़ देती है। इस शृंखला में हर क ड़ी के साथ खरीदना और बेचना जु ड़ा हुआ है। क्या इससे सबको बराबर लाभ होता है? या कुछ को दूसरों की अपेक्षा अधिक लाभ होता है? हम यह पता लगाने का प्रयत्न करेंगे।


कुरनूल में कपास उगाने वाली एक किसान

स्वप्ना, जो कुरनूल (आंध्र प्रदेश) की एक छोटी किसान है, अपने छोटे-से खेत में कपास उगाती है। कपास के पौधों पर आए डोडे पक रहे हैं और उनमें से कुछ चटक भी चुके हैं, इसलिए स्वप्ना रूई चुनने में व्यस्त है। डोडे, जिनमें रूई भरी है एक साथ चटक कर नहीं खुलते हैं। इसलिए रूई की फ़सल इकट्ठा करने के लिए कई दिन का समय लग जाता है।

क्या स्वप्ना को रूई का उचित मूल्य प्राप्त हुआ?

व्यापारी ने स्वप्ना को कम मूल्य क्यों दिया?

आपके विचार से ब ड़े किसान अपनी रूई कहाँ बेचेंगे? उनकी स्थिति किस प्रकार स्वप्ना से भिन्न है?

रूई एकत्र हो जाने के बाद स्वप्ना उसे अपने पति के साथ कुरनूल के कपास बाज़ार में न ले जाकर एक स्थानीय व्यापारी के पास ले जाती है। फ़सल की बोनी शुरू करने के समय स्वप्ना ने व्यापारी से खेती करने के लिए बीज, खाद, कीटनाशक आदि खरीदने के लिए बहुत ऊँची ब्याज दर पर ₹ 2,500 कर्ज़ पर लिए थे। उस समय स्थानीय व्यापारी ने स्वप्ना को एक शर्त मानने के लिए सहमत कर लिया था। उसने स्वप्ना से वादा करवा लिया था कि वह अपनी सारी रूई उसे ही बेचेगी।

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कपास की खेती में बहुत अधिक निवेश करने की ज़रूरत प ड़ती है, जैसे - उर्वरक, कीटनाशक आदि। इन पर किसानों को काफ़ी व्यय करना प ड़ता है। प्रायः छोटे किसानों को इन खर्चों की पूर्ति करने के लिए पैसा उधार लेना प ड़ता है।

व्यापारी के परिसर में उसके दो आदमी रूई के बोरे तोल रहे थे। ₹ 1,500 प्रति क्विंटल के हिसाब से रूई ₹ 6,000 की हुई। व्यापारी ने दिए हुए ऋण तथा ब्याज के ₹ 3,000 काट लिए और स्वप्ना को ₹ 3,000 ही दिए।

स्वप्ना – केवल ₹ 3,000!

व्यापारी – रूई बहुत सस्ती बिक रही है। बाज़ार में बहुत रूई आ गई है।

स्वप्ना – इस रूई को उगाने में मैंने चार महीने तक जी-तो ड़ मेहनत की है। आप देखिए इस बार रूई कितनी ब\ढ़िया और साफ़ है। इस बार मुझे बेहतर कीमत मिलने की उम्मीद थी।

व्यापारी – अम्मा, मैं आपको अच्छी कीमत दे रहा हूँ। दूसरे व्यापारी इतनी भी नहीं देंगे। आपको मेरा विश्वास न हो, तो कुरनूल के बाज़ार में जाकर पता लगा आओ।

स्वप्ना – नाराज़ न हों। मैं भला आप पर कैसे संदेह कर सकती हूँ? मैंने तो केवल उम्मीद की थी कि इस बार रूई की फ़सल में इतनी आमदनी हो जाएगी कि कुछ महीनों का गुज़ारा चल सके।

यद्यपि स्वप्ना जानती है कि कपास कम-से-कम ₹ 1800 प्रति क्विंटल में बिकेगी, लेकिन वह आगे बहस नहीं करती। व्यापारी गाँव का शक्तिशाली आदमी है और किसानों को कर्ज़े के लिए उस पर निर्भर रहना प ड़ता है-न केवल खेती के लिए वरन् अन्य आवश्यकताओं के लिए भी, जैसे - बीमारी, बच्चों की स्कूल की फीस आदि। फिर वर्ष में एेसा समय भी आता है, जब किसानों को कोई काम नहीं मिलता है और उनकी कोई आय भी नहीं होती है। उस समय केवल ऋण लेकर ही जीवित रहा जा सकता है।

कपास की पैदावार करके भी स्वप्ना की आय उस आय से बस थो ड़ी ही ज़्यादा है, जो वह मज़दूरी करके कमा लेती।


इरोड का कप ड़ा बाज़ार

तमिलनाडु में सप्ताह में दो बार लगने वाला इरोड का कप ड़ा बाज़ार संसार के विशाल बाज़ारों में से एक है। इस बाज़ार में कई प्रकार का कप ड़ा बेचा जाता है। आसपास के गाँवों में बुनकरों द्वारा बनाया गया कप ड़ा भी इस बाज़ार में बिकने के लिए आता है। बाज़ार के पास कप ड़ा व्यापारियों के कार्यालय हैं, जो इस कप ड़े को खरीदते हैं। दक्षिणी भारत के शहरों के अन्य व्यापारी भी इस बाज़ार में कप ड़ा खरीदने आते हैं।

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इरोड में एक दुकान

बाज़ार के दिनों में आपको वे बुनकर भी मिलेंगे, जो व्यापारियों के अॉर्डर के अनुसार कप ड़ा बनाकर यहाँ लाते हैं। ये व्यापारी देश व विदेश के वस्त्र निर्माताओं और निर्यातकों को उनके अॉर्डर के अनुसार कप ड़ा उपलब्ध कराते हैं। ये सूत खरीदते हैं और बुनकरों को निर्देश देते हैं कि किस प्रकार का कप ड़ा तैयार किया जाना है। निम्नलिखित उदाहरण में हम देखेंगे कि यह कार्य कैसे होता है।

दादन व्यवस्था-बुनकरों द्वारा घर पर कप ड़ा तैयार करना

कप ड़ा उपलब्ध कराने के जो अॉर्डर मिलते हैं, उनके आधार पर व्यापारी बुनकरों के बीच काम बाँट देता है। बुनकर व्यापारी से सूत लेते हैं और तैयार कप ड़ा देते हैं। इस व्यवस्था से बुनकरों को स्पष्टतया दो लाभ प्राप्त होते हैं। बुनकरों को सूत खरीदने के लिए अपना पैसा नहीं लगाना प ड़ता है। साथ ही तैयार कप ड़ों को बेचने की व्यवस्था भी हो जाती है। बुनकरों को प्रारंभ में ही पता चल जाता है कि उन्हें कौन-सा कप ड़ा बनाना है और कितना बनाना है।

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1. बाज़ार में यह एक व्यापारी की दुकान है। कई सालों में इन व्यापारियों ने देश-भर के वस्त्र निर्माताओं से संपर्क स्थापित कर लिए हैं, जिनसे उन्हें अॉर्डर मिलते रहते हैं। वे अन्य लोगों से सूत खरीद कर लाते हैं।

2. कप ड़ा बुनने वाले बुनकर आस-पास के गाँवों में रहते हैं। वे इन व्यापारियों से सूत ले आते हैं। बुनाई करने के करघे रखने के लिए उन्होंने अपने घरों के पास ही व्यवस्था कर रखी है। इस तसवीर में आप एेसे एक घर में रखे हुए पावरलूम (बिजली-चालित करघे) को देख सकते हैं। बुनकर अपने परिवार के साथ इन करघों पर कई घंटों तक काम करते हैं। बुनाई की अधिकतर एेसी इकाइयों में 2 से लेकर 8 करघे तक होते हैं, जिन पर सूत से कप ड़ा बुनकर तैयार किया जाता है। तरह-तरह की सा ड़ियाँ, तौलिए, शर्टिंग, औरतों की पोशाकों के कप ड़े और चादरें इन करघों पर बनाई जाती हैं।

3. बुनकर तैयार किए हुए कप ड़े को शहर में व्यापारी के पास ले आते हैं। इस तसवीर में बुनकर, शहर में व्यापारी के पास जाने की तैयारी में बैठे हैं। व्यापारी यह हिसाब रखता है कि उन्हें कितना सूत दिया गया था और बुने हुए कप ड़े का भुगतान उन्हें कर देता है।


इरोड के कप ड़ा बाज़ार में निम्नलिखित लोग क्या काम कर रहे हैं- व्यापारी, बुनकर, निर्यातक?

बुनकर, व्यापारियों पर किस-किस तरह से निर्भर हैं?

यदि बुनकर खुद सूत खरीदकर बने हुए कप ड़े बेचते हैं, तो उन्हें तीन गुना ज़्यादा कमाई होती है। क्या यह संभव है? चर्चा कीजिए।

कच्चे माल को प्राप्त करने और तैयार माल की बिक्री के लिए भी व्यापारियों पर बनी निर्भरता के चलते व्यापारियों का बहुत वर्चस्व बन जाता है। वे अॉर्डर देते हैं कि क्या कप ड़ा बनाया जाना है और इसके लिए वे बहुत कम मूल्य देते हैं। बुनकरों के पास यह जानने का कोई साधन नहीं है कि वे किसके लिए कप ड़ा बना रहे हैं और वह किस कीमत पर बेचा जाएगा। कप ड़ा बाज़ार में व्यापारी यह कप ड़ा, पहनने के वस्त्र बनाने के कारखानों को बेचते हैं। इस तरह से बाज़ार का झुकाव व्यापारियों के हित में ही अधिक होता है।

क्या इसी तरह की दादन व्यवस्था पाप ड़, बी ड़ी और मसाले बनाने में भी देखने को मिलती है? अपने इलाके से इस संबंध में जानकारी इकट्ठी कीजिए और कक्षा में उस पर चर्चा कीजिए।

आपने अपने इलाके में सहकारी संस्थाओं के बारे में सुना होगा, जैसे- दूध, किराना, धान आदि के व्यवसाय में। पता लगाइए कि ये किस के लाभ के लिए स्थापित की गईं थीं?

बुनकर अपनी सारी जमा-पूँजी लगा कर या ऊँची ब्याज दर पर ऋण लेकर करघे खरीदते हैं। एक करघे का मूल्य ₹ 20,000 है। इसलिए छोटे बुनकर को भी दो करघों के लिए लगभग ₹ 40,000 का निवेश करना प ड़ता है। इन करघों पर अकेले काम नहीं किया जा सकता है। कप ड़ा बनाने के लिए बुनकर और परिवार के दूसरे वयस्क सदस्यों को दिन में 12 घंटे तक काम करना प ड़ता है। इस पूरे कार्य द्वारा वे महीने में लगभग ₹ 3,500 ही कमा पाते हैं।

व्यापारी और बुनकरों के बीच की यह व्यवस्था ‘दादन व्यवस्था’ (Putting-out System) का एक उदाहरण है, जहाँ व्यापारी कच्चा माल देता है और उसे तैयार माल प्राप्त होता है। भारत के अनेक क्षेत्रों में कप ड़ा बुनाई के उद्योग में यह व्यवस्था प्रचलित है।


बुनकर सहकारी संस्थाएँ

हमने देखा कि दादन व्यवस्था में व्यापारी, बुनकरों को बहुत कम पैसा देते हैं। व्यापारियों के ऊपर निर्भरता को कम करने और बुनकरों की आमदनी ब\ढ़ाने के लिए सहकारी व्यवस्था एक साधन है। एक सहकारी संस्था में वे लोग, जिनके हित समान हैं, इकट्ठे होकर परस्पर लाभ के लिए काम करते हैं। बुनकरों की सहकारी संस्था में बुनकर एक समूह बना कर कुछ गतिविधियाँ सामूहिक रूप से करते हैं। वे सूत व्यापारी से सूत प्राप्त करते हैं और उसे बुनकरों में बाँट देते हैं। सहकारी संस्था विक्रय का कार्य भी, करती है। इस तरह व्यापारी की भूमिका समाप्त हो जाती है और बुनकरों को कप ड़ों का उचित मूल्य प्राप्त होता है।

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कभी-कभी सरकार, उचित मूल्य पर सहकारी संस्थाओं से कप ड़ा खरीद कर उनकी मदद करती है। जैसा कि तमिलनाडु में सरकार, स्कूल में निःशुल्क गणवेश योजना चलाती है। सरकार इसके लिए पावरलूम बुनकरों की सहकारी संस्था से कप ड़ा लेती है। इसी तरह सरकार, हस्तकरघा बुनकर सहकारी समिति से भी कप ड़ा खरीद कर ‘को-ओपटेक्स’ नामक दुकानों के माध्यम से बेचती है। आपने अपने शहर में शायद कहीं एेसी दुकानें देखी होंगी।


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एक गार्मेंट फैक्टरी में महिला मज़दूर बटन टाँक रही हैं।

दिल्ली के निकट वस्त्र निर्यात करने का कारखाना

इरोड का व्यापारी, बुनकरों द्वारा निर्मित कप ड़ा दिल्ली के पास बने-बनाए वस्त्र निर्यात करने वाले एक कारखाने को भेजता है। वस्त्र निर्यात करने वाली फैक्टरी इसका उपयोग कमीज़ें बनाने के लिए करती है। ये कमीज़ें विदेशी खरीदारों को निर्यात की जाती हैं। कमीज़ों के विदेशी ग्राहकों में अमेरिका और यूरोप के एेसे व्यवसायी भी हैं, जो स्टोर्स की शृंखला चलाते हैं। ये ब ड़े-ब ड़े स्टोर्स के स्वामी केवल अपनी शर्तों पर ही व्यापार करते हैं। वे माल देने वालों से न्यूनतम मूल्य पर माल खरीदने की माँग करते हैं। साथ ही वे सामान की उच्चतम स्तर की गुणवत्ता और समय पर सामान देने की शर्त भी रखते हैं। सामान ज़रा-सा भी दोषयुक्त होने पर या माल देने में ज़रा भी विलंब होने पर ब ड़ी सख्ती से निपटा जाता है। इसलिए निर्यातक इन शाक्तिशाली ग्राहकों द्वारा निश्चित की गई शर्तों को भरसक पूरा करने की कोशिश करते हैं।

विदेशों में खरीदार वस्त्र निर्यात करने वालों से क्या-क्या अपेक्षाएँ रखते हैं? वस्त्र निर्यातक इन शर्तों को क्यों स्वीकार कर लेते हैं?

वस्त्र निर्यातक विदशी खरीदारों की शर्तों को किस प्रकार पूरा करते हैं?

ग्राहकों की ओर से इस प्रकार के ब\ढ़ते दबावों के कारण वस्त्र निर्यात करने वाले कारखाने, खर्चे में कटौती करने का प्रयत्न करते हैं। वे काम करने वालों को जहाँ तक संभव हो सके, न्यूनतम मज़दूरी देकर अधिकतम काम लेते हैं। इस तरह से वे अपना लाभ तो ब\ढ़ाते ही हैं और विदेशी ग्राहकों को भी सस्ते दामों पर वस्त्र देते हैं।

इम्पेक्स गारमेंट फैक्टरी में 70 कामगार हैं। उनमें से अधिकांश महिलाएँ हैं। इनमें से अधिकतर कामगारों को अस्थाई रूप से काम पर लगाया गया है। इसका आशय यह है कि जब भी फैक्टरी मालिक को लगे कि कामगार की आवश्यकता नहीं है, वह उसे जाने को कह सकता है। कामगारों की मज़दूरी उनके कौशल के अनुसार तय की जाती है। काम करने वालों में अधिकतम वेतन दर्ज़ी को मिलता है जो लगभग ₹ 3,000 प्रतिमाह होता है। स्त्रियों को सहायक के रूप में धागे काटने, बटन टाँकने, इस्तरी करने और पैकिंग करने के लिए काम पर रखा जाता है। इन कामों के लिए न्यूनतम मज़दूरी दी जाती है।

इम्पेक्स गार्मेंट फैक्टरी में अधिक संख्या में महिलाओं को काम पर क्यों रखा गया होगा? चर्चा कीजिए।

मंत्री को संबोधित करते हुए एक पत्र लिखकर आपके विचार से मज़दूरों के लिए जो उचित भुगतान है, उसकी माँग कीजिए।

नीचे दी गई कमीज़ के चित्र में दिखाया गया है कि व्यवसायी को कितना मुनाफ़ा हुआ और उसको कितना खर्च उठाना प ड़ा। यदि कमीज़ का लागत मूल्य 600 रु. है, तो इस चित्र से जानिए कि इस कमीज़ की कीमत में क्या-क्या शामिल होता है?

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संयुक्त राज्य अमेरिका में वह कमीज़

संयुक्त राज्य अमेरिका के कप ड़ों की एक ब ड़ी दुकान पर बहुत-सी कमीज़ें प्रदर्शित की गई हैं। इनकी कीमत 26 डालर रखी गई है, अर्थात् हर कमीज़ 26 डालर यानी ₹ 1800 रुपये में बेची जाएगी।

दिए गए चित्र के अनुसार रिक्त स्थानों की पूर्ति करें –

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कमीज़ों के व्यवसायी ने दिल्ली के वस्त्र निर्यातक से कमीज़ें

₹..................... प्रति कमीज़ के हिसाब से खरीदीं। फिर

उसने ₹ .......................... संचार साधनों द्वारा विज्ञापन के लिए खर्च किए, इसके बाद लगभग प्रति कमीज़ ₹........... स्टोर मेें रखने, प्रदर्शन व अन्य मद में खर्च किए। इस तरह से इस व्यक्ति को कमीज़ ₹ 900 लागत की प ड़ी, जबकि वह उसे ₹ 1800 में बेचता है। एक कमीज़ पर उसे ₹ ........ का मुनाफ़ा हुआ। वह जितनी अधिक संख्या में कमीज़ें बेचेगा, उसे उतना ही अधिक लाभ होगा।

वस्त्र निर्यातक ने ₹ 300 प्रति कमीज़ के हिसाब से कमीज़ें बेचीं। कप ड़ा व कमीज़ में लगने वाले अन्य कच्चे माल का मूल्य ₹ 100 प्रति कमीज़ के हिसाब से प ड़ा। कामगारों की मज़दूरी ₹ 25 प्रति कमीज़ और कार्यालय चलाने का खर्च ₹ 25 प्रति कमीज़ की दर से हुआ। क्या आप वस्त्र निर्यातक को प्रति कमीज़ पर मिलने वाले लाभ की गणना कर सकते हैं?

गार्मेंट फैक्टरी के मज़दूर, गार्मेंट के निर्यातक और विदेशी बाज़ार के व्यवसायी ने प्रत्येक कमीज़ पर कितना पैसा कमाया? तुलना करके पता लगाइए।

व्यवसायी बाज़ार में ऊँचा मुनाफ़ा कमा पाता है। इसका क्या कारण है?

आपने विज्ञापन वाला अध्याय प\ढ़ा है। चर्चा कीजिए कि व्यवसायी प्रत्येक कमीज़ पर विज्ञापन के लिए 300 रुपए की राशि क्यों खर्च करता है?

बाज़ार में लाभ कमाने वाले कौन हैं?

बाज़ारों की एक शृंखला रूई के उत्पादनकर्ता को सुपरमार्किट के खरीदार से जो ड़ देती है। इस शृंखला की हर क ड़ी पर खरीदना और बेचना होता है। आइए, फिर से याद करें कि वे कौन-कौन से लोग थे, जो खरीदने और बेचने की इस प्रक्रिया में सम्मिलित थे। क्या उन सभी को समान रूप से लाभ हुआ या लाभ की मात्रा अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग रही? कुछ लोगों ने बाज़ार में लाभ कमाया, जबकि कुछ को खरीदने-बेचने से कुछ खास लाभ नहीं हुआ। बहुत परिश्रम करने के बाद भी उन्होंने बहुत कम कमाया। क्या आप इस तालिका में उन्हें दर्शा सकते हैं?

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बाज़ार और समानता

विदेशी व्यवसायी ने बाज़ार में अधिक मुनाफ़ा कमाया। उसकी तुलना में वस्त्र- निर्यातक का लाभ मध्यम श्रेणी का रहा। दूसरी ओर वस्त्र निर्यातक फैक्टरी के कामगार मुश्किल से केवल अपनी रोज़मर्रा की ज़रूरतों की पूर्ति लायक ही कमा सके। इसी प्रकार हमने देखा कि कपास उगाने वाली छोटी किसान और इरोड के बुनकरों ने क ड़ी मेहनत की, लेकिन बाज़ार में उन्हें उनके उत्पाद का उचित मूल्य नहीं मिला। व्यवसायी या व्यापारियों की स्थिति बीच की है। बुनकरों की तुलना में उनकी कमाई अधिक हुई है, लेकिन निर्यातक की कमाई से बहुत कम है। इस तरह बाज़ार में सब बराबर नहीं कमाते हैं। प्रजातंत्र के अंतर्गत सबको बाज़ार में उचित मज़दूरी मिलनी चाहिए, फिर चाहे वह कांता हो या स्वप्ना। यदि परिवार पर्याप्त नहीं कमाएँगे, तो वे अपने-आपको दूसरों के बराबर समझेंगे कैसे?

एक ओर बाज़ार लोगों को काम करने, उन चीज़ों को बनाने और बेचने के अवसर देता है, जो वे उगाते या बनाते हैं। किसान यहाँ रूई बेच सकता है, तो बुनकर अपना बनाया हुआ कप ड़ा। दूसरी ओर बाज़ार से धनवान और शक्तिशाली लोग ही प्रायः सर्वाधिक कमाई करते हैं। ये वे लोग हैं, जिनके पास पैसा है, अपने कारखाने हैं, ब ड़ी-ब ड़ी दुकानें हैं और बहुत ज़मीनें हैं। गरीबों को अनेक चीज़ों के लिए धनी और शक्तिशाली लोगों के ऊपर निर्भर रहना प ड़ता है। गरीबों को उनके ऊपर ऋण के लिए (जैसा छोटी किसान स्वप्ना के मामले में हुआ) कच्चा माल प्राप्त करने और अपना सामान बेचने के लिए (जैसा दादन व्यवस्था में बुनकरों के साथ होता है), और प्रायः नौकरी प्राप्त करने के लिए (जैसा वस्त्र के कारखाने में कामगारों के साथ हुआ) निर्भर रहना प ड़ता है। इस निर्भरता के कारण बाज़ार मेें गरीबों का शोषण होता है। इन समस्याओं के समाधान के लिए भी रास्ते हैं, जैसे - उत्पादक मिल कर सहकारी संस्थाएँ बनाएँ और कानूनों का दृ\ढ़ता से पालन हो। अन्तिम अध्याय में हम प\ढ़ेंगे कि तवा नदी पर मछुआरों ने कैसे एक सहकारी संस्था प्रारंभ की।

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क्या आप यह जानते थे कि आप जो रेडीमेड वस्त्र खरीदते हैं, उनके पीछे कितने अलग-अलग लोगों का प्रयास रहता है?
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सतत विकास लक्ष्य 8ः उचित कार्य और आर्थिक वृद्धि www.in.undp.org



अभ्यास

1. स्वप्ना ने अपनी रूई कुर्नूल के रूई-बाज़ार में न बेचकर व्यापारी को क्यों बेच दी?

2. वस्त्र निर्यातक कारखाने में काम करने वाले मज़दूरों के काम के हालात और उन्हें दी जाने वाली मज़दूरी का वर्णन कीजिए। क्या आप सोचते हैं कि मज़दूरों के साथ न्याय होता है?

3. एेसी किसी चीज़ के बारे में सोचिए, जिसे हम सब इस्तेमाल करते हैं। वह चीनी, चाय, दूध, पेन, कागज़, पेंसिल आदि कुछ भी हो सकती है। चर्चा कीजिए कि यह वस्तु बाज़ारों की किस शृंखला से होती हुई, आप तक पहुँचती है। क्या आप उन सब लोगों के बारे में सोच सकते हैं, जिन्होंने इस वस्तु के उत्पादन व व्यापार में मदद की होगी?

4. यहाँ दिए गए नौ कथनों को सही क्रम में कीजिए और फिर नीचे बनी कपास की डोडियों के चित्रों में सही कथन के अंक भर दीजिए। पहले दो चित्रों में आपके लिए अंक पहले से ही भर दिए गए हैंैं।

1. स्वप्ना, व्यापारी को रूई बेचती है।

2. ग्राहक, सुपरमार्केट में इन कमीज़ों को खरीदते हैं।

3. व्यापारी, जिनिंग मिलों को रूई बेचते हैं।

4. गार्मेंट निर्यातक, कमीज़ें बनाने के लिए व्यापारियों से कप ड़ा खरीदते हैं।

5. सूत के व्यापारी, बुनकरों को सूत देते हैं।

6. वस्त्र निर्यातक, संयुक्त राज्य अमेरिका के व्यवसायी को कमीज़ें बेचता है।

7. सूत कातने वाली मिलें, रूई खरीदती हैं और सूत के व्यापारी को सूत बेचती हैं।

8. बुनकर कप ड़ा तैयार कर के लाते हैं।

9. जिनिंग मिलें रूई को साफ़ करती हैं और उनके गट्ठर बनाती हैं।

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शब्द-संकलन

जिनिंग मिल–वह फैक्टरी जहाँ रूई के गोलों से बीज अलग किए जाते हैं। यहाँ पर रूई को दबाकर गट्ठर भी बनाए जाते हैं, जो धागा बनाने के लिए भेज दिए जाते हैं।

निर्यातक–वह व्यक्ति जो विदेशों में माल बेचता है।

मुनाफ़ा–जो आमदनी हुई है, उसमें से सारे खर्चों को घटा देने के बाद बचने वाली राशि। यदि खर्चे आमदनी से ज़्यादा हो जाएँ, तो घाटा हो जाता है।