मिठाईवाला 5

बहुत ही मीठे स्वरों के साथ वह गलियों में घूमता हुआ कहता- "बच्चों को बहलानेवाला, खिलौनेवाला।"

इस अधूरे वाक्य को वह ऐसे विचित्र, किंतु मादक-मधुर ढंग से गाकर कहता कि सुननेवाले एक बार अस्थिर हो उठते। उसके स्नेहाभिषिक्त कंठ से फूटा हुआ गान सुनकर निकट के मकानों में हलचल मच जाती। छोटे-छोटे बच्चों को अपनी गोद में लिए युवतियाँ चिकों को उठाकर छज्जों पर नीचे झाँकने लगतीं। गलियों और उनके अंतर्व्यापी छोटे-छोटे उद्यानों में खेलते और इठलाते हुए बच्चों का झुंड उसे घेर लेता और तब वह खिलौनेवाला वहीं बैठकर खिलौने की पेटी खोल देता।

बच्चे खिलौने देखकर पुलकित हो उठते। वे पैसे लाकर खिलौने का मोलभाव करने लगते। पूछते-"इछका दाम क्या है? औल इछका? औल इछका?" खिलौनेवाला बच्चों को देखता और उनकी नन्हीं-नन्हीं उँगलियों से पैसे ले लेता और बच्चों की इच्छानुसार उन्हें खिलौने दे देता। खिलौने लेकर फिर बच्चे उछलने-कूदने लगते और तब फिर खिलौनेवाला उसी प्रकार गाकर कहता-"बच्चों को बहलानेवाला, खिलौनेवाला"। सागर की हिलोर की भाँति उसका यह मादक गान गलीभर के मकानों में इस ओर से उस ओर तक, लहराता हुआ पहुँचता और खिलौनेवाला आगे बढ़ जाता।

राय विजयबहादुर के बच्चे भी एक दिन खिलौने लेकर घर आए। वे दो बच्चे थे-चुन्नू और मुन्नू! चुन्नू जब खिलौने ले आया तो बोला-"मेला घोला कैछा छुंदल ऐ!"

मुन्नू बोला-"औल देखो, मेला कैछा छुंदल ऐ!"

दोनों अपने हाथी-घोड़े लेकर घरभर में उछलने लगे। इन बच्चों की माँ रोहिणी कुछ देर तक खड़े-खड़े उनका खेल निरखती रही। अंत में दोनों बच्चों को बुलाकर उसने पूछा-"अरे ओ चुन्नू-मुन्नू, ये खिलौने तुमने कितने में लिए हैं?"

मुन्नू बोला-"दो पैछे में। खिलौनेवाला दे गया ऐ।"

रोहिणी सोचने लगी-इतने सस्ते कैसे दे गया है? कैसे दे गया है, यह तो वही जाने। लेकिन दे तो गया ही है, इतना तो निश्चय है!

एक ज़रा सी बात ठहरी। रोहिणी अपने काम में लग गई। फिर कभी उसे इस पर विचार करने की आवश्यकता भी भला क्यों पड़ती!




छह महीने बाद-

नगरभर में दो-चार दिनों से एक मुरलीवाले के आने का समाचार फैल गया। लोग कहने लगे-"भाई वाह! मुरली बजाने में वह एक ही उस्ताद है। मुरली बजाकर, गाना सुनाकर वह मुरली बेचता भी है, सो भी दो-दो पैसे में। भला, इसमें उसे क्या मिलता होगा? मेहनत भी तो न आती होगी!"

एक व्यक्ति ने पूछ लिया-"कैसा है वह मुरलीवाला, मैंने तो उसे नहीं देखा!"

उत्तर मिला-"उम्र तो उसकी अभी अधिक न होगी, यही तीस-बत्तीस का होगा। दुबला-पतला गोरा युवक है, बीकानेरी रंगीन साफ़ा बाँधता है।"

"वही तो नहीं; जो पहले खिलौने बेचा करता था?"

"क्या वह पहले खिलौने भी बेचा करता था?"

"हाँ, जो आकार-प्रकार तुमने बतलाया, उसी प्रकार का वह भी था।"

"तो वही होगा। पर भई, है वह एक उस्ताद।"

प्रतिदिन इसी प्रकार उस मुरलीवाले की चर्चा होती। प्रतिदिन नगर की प्रत्येक गली में उसका मादक, मृदुल स्वर सुनाई पड़ता-"बच्चों को बहलानेवाला, मुरलियावाला।"

रोहिणी ने भी मुरलीवाले का यह स्वर सुना। तुरंत ही उसे खिलौनेवाले का स्मरण हो आया। उसने मन-ही-मन कहा-खिलौनेवाला भी इसी तरह गा-गाकर खिलौने बेचा करता था।


रोहिणी उठकर अपने पति विजय बाबू के पास गई-"ज़रा उस मुरलीवाले को बुलाओ तो, चुन्नू-मुन्नू के लिए ले लूँ। क्या पता यह फिर इधर आए, न आए। वे भी, जान पड़ता है, पार्क में खेलने निकल गए हैं।"

विजय बाबू एक समाचार-पत्र पढ़ रहे थे। उसी तरह उसे लिए हुए वे दरवाज़े पर आकर मुरलीवाले से बोले-"क्यों भई, किस तरह देते हो मुरली?"

किसी की टोपी गली में गिर पड़ी। किसी का जूता पार्क में ही छूट गया, और किसी की सोथनी (पाजामा) ही ढीली होकर लटक आई है। इस तरह दौड़ते-हाँफ़ते हुए बच्चों का झुंड आ पहुँचा। एक स्वर से सब बोल उठे-"अम बी लेंदे मुल्ली और अम वी लेंदे मुल्ली।"

मुरलीवाला हर्ष-गद्गद हो उठा। बोला-"सबको देंगे भैया! लेकिन ज़रा रुको, ठहरो, एक-एक को देने दो। अभी इतनी जल्दी हम कहीं लौट थोड़े ही जाएँगे। बेचने तो आए ही हैं और हैं भी इस समय मेरे पास एक-दो नहीं, पूरी सत्तावन।
...हाँ, बाबू जी, क्या पूछा था आपने, कितने में दीं! ...दीं तो वैसे तीन-तीन पैसे के हिसाब से हैं, पर आपको दो-दो पैसे में ही दे दूँगा।"

विजय बाबू भीतर-बाहर दोनों रूपों में मुसकरा दिए। मन-ही-मन कहने लगे-कैसा है! देता तो सबको इसी भाव से है, पर मुझ पर उलटा एहसान लाद रहा है। फिर बोले-"तुम लोगों की झूठ बोलने की आदत होती है। देते होगे सभी को दो-दो पैसे में, पर एहसान का बोझा मेरे ही ऊपर लाद रहे हो।"

मुरलीवाला एकदम अप्रतिभ हो उठा। बोला-"आपको क्या पता बाबू जी कि इनकी असली लागत क्या है! यह तो ग्राहकों का दस्तूर होता है कि दुकानदार चाहे हानि उठाकर चीज़ क्यों न बेचे, पर ग्राहक यही समझते हैं-दुकानदार मुझे लूट रहा है। आप भला काहे को विश्वास करेंगे? लेकिन सच पूछिए तो बाबू जी, असली दाम दो ही पैसा है। आप कहीं से दो पैसे में ये मुरली नहीं पा सकते। मैंने तो पूरी एक हज़ार बनवाई थीं, तब मुझे इस भाव पड़ी हैं।"

विजय बाबू बोले-"अच्छा, मुझे ज़्यादा वक्त नहीं, जल्दी से दो ठो निकाल दो।"

दो मुरलियाँ लेकर विजय बाबू फिर मकान के भीतर पहुँच गए। मुरलीवाला देर तक उन बच्चों के झुंड में मुरलियाँ बेचता रहा! उसके पास कई रंग की मुरलियाँ थीं। बच्चे जो रंग पसंद करते, मुरलीवाला उसी रंग की मुरली निकाल देता।

"यह बड़ी अच्छी मुरली है। तुम यही ले लो बाबू, राजा बाबू तुम्हारे लायक तो बस यह है। हाँ भैये, तुमको वही देंगे। ये लो। ...तुमको वैसी न चाहिए, यह नारंगी रंग की, अच्छा, वही लो। ...ले आए पैसे? अच्छा, ये लो तुम्हारे लिए मैंने पहले ही से यह निकाल रखी थी...! तुमको पैसे नहीं मिले। तुमने अम्मा से ठीक तरह माँगे न होंगे। धोती पकड़कर पैरों में लिपटकर, अम्मा से पैसे माँगे जाते हैं बाबू! हाँ, फिर जाओ। अबकी बार मिल जाएँगे...। दुअन्नी है? तो क्या हुआ, ये लो पैसे वापस लो। ठीक हो गया न हिसाब? ...मिल गए पैसे? देखो, मैंने तरकीब बताई! अच्छा अब तो किसी को नहीं लेना है? सब ले चुके? तुम्हारी माँ के पास पैसे नहीं हैं? अच्छा, तुम भी यह लो। अच्छा, तो अब मैं चलता हूँ।"

इस तरह मुरलीवाला फिर आगे बढ़ गया।

आज अपने मकान में बैठी हुई रोहिणी मुरलीवाले की सारी बातें सुनती रही। आज भी उसने अनुभव किया, बच्चों के साथ इतने प्यार से बातें करनेवाला फेरीवाला पहले कभी नहीं आया। फिर वह सौदा भी कैसा सस्ता बेचता है! भला आदमी जान पड़ता है। समय की बात है, जो बेचारा इस तरह मारा-मारा फिरता है। पेट जो न कराए, सो थोड़ा!

इसी समय मुरलीवाले का क्षीण स्वर दूसरी निकट की गली से सुनाई पड़ा-"बच्चों को बहलानेवाला, मुरलियावाला!"

रोहिणी इसे सुनकर मन-ही-मन कहने लगी-और स्वर कैसा मीठा है इसका!

बहुत दिनों तक रोहिणी को मुरलीवाले का वह मीठा स्वर और उसकी बच्चों के प्रति वे स्नेहसिक्त बातें याद आती रहीं। महीने-के-महीने आए और चले गए। फिर मुरलीवाला न आया। धीरे-धीरे उसकी स्मृति भी क्षीण हो गई।

आठ मास बाद–

सरदी के दिन थे। रोहिणी स्नान करके मकान की छत पर चढ़कर आजानुलंबित केश-राशि सुखा रही थी। इस समय नीचे की गली में सुनाई पड़ा-"बच्चों को बहलानेवाला, मिठाईवाला।"


मिठाईवाले का स्वर उसके लिए परिचित था, झट से रोहिणी नीचे उतर आई। उस समय उसके पति मकान में नहीं थे। हाँ, उनकी वृद्धा दादी थीं। रोहिणी उनके निकट आकर बोली-"दादी, चुन्नू-मुन्नू के लिए मिठाई लेनी है। ज़रा कमरे में चलकर ठहराओ। मैं उधर कैसे जाऊँ, कोई आता न हो। ज़रा हटकर मैं भी चिक की ओट में बैठी रहूँगी।"

दादी उठकर कमरे में आकर बोलीं-"ए मिठाईवाले, इधर आना।"

मिठाईवाला निकट आ गया। बोला-"कितनी मिठाई दूँ माँ? ये नए तरह की मिठाइयाँ हैं-रंग-बिरंगी, कुछ-कुछ खट्टी, कुछ-कुछ मीठी, ज़ायकेदार, बड़ी देर तक मुँह में टिकती हैं। जल्दी नहीं घुलतीं। बच्चे बड़े चाव से चूसते हैं। इन गुणों के सिवा ये खाँसी भी दूर करती हैं! कितनी दूँ? चपटी, गोल, पहलदार गोलियाँ हैं। पैसे की सोलह देता हूँ।"

दादी बोलीं-"सोलह तो बहुत कम होती हैं, भला पचीस तो देते।" मिठाईवाला-"नहीं दादी, अधिक नहीं दे सकता। इतना भी देता हूँ, यह अब मैं तुम्हें क्या...खैर, मैं अधिक न दे सकूँगा।"

रोहिणी दादी के पास ही थी। बोली-"दादी, फिर भी काफ़ी सस्ता दे रहा है। चार पैसे की ले लो। यह पैसे रहे।"

मिठाईवाला मिठाइयाँ गिनने लगा।

"तो चार की दे दो। अच्छा, पच्चीस नहीं सही, बीस ही दो। अरे हाँ, मैं बूढ़ी हुई मोलभाव अब मुझे ज़्यादा करना आता भी नहीं।"

कहते हुए दादी के पोपले मुँह से ज़रा सी मुसकराहट फूट निकली।

रोहिणी ने दादी से कहा-"दादी, इससे पूछो, तुम इस शहर में और कभी भी आए थे या पहली बार आए हो? यहाँ के निवासी तो तुम हो नहीं।"

दादी ने इस कथन को दोहराने की चेष्टा की ही थी कि मिठाईवाले ने उत्तर दिया-"पहली बार नहीं और भी कई बार आ चुका हूँ।"

रोहिणी चिक की आड़ ही से बोली-"पहले यही मिठाई बेचते हुए आए थे या और कोई चीज़ लेकर?"

मिठाईवाला हर्ष, संशय और विस्मयादि भावों में डूबकर बोला-"इससे पहले मुरली लेकर आया था और उससे भी पहले खिलौने लेकर।"

रोहिणी का अनुमान ठीक निकला। अब तो वह उससे और भी कुछ बातें पूछने के लिए अस्थिर हो उठी। वह बोली-"इन व्यवसायों में भला तुम्हें क्या मिलता होगा?"

वह बोला, "मिलता भला क्या है! यही खानेभर को मिल जाता है। कभी नहीं भी मिलता है। पर हाँ; संतोष, धीरज और कभी-कभी असीम सुख ज़रूर मिलता है और यही मैं चाहता भी हूँ।"

"सो कैसे? वह भी बताओ।"

"अब व्यर्थ उन बातों की क्यों चर्चा करूँ? उन्हें आप जाने ही दें। उन बातों को सुनकर आपको दुख ही होगा।"

"जब इतना बताया है, तब और भी बता दो। मैं बहुत उत्सुक हूँ। तुम्हारा हरजा न होगा। मिठाई मैं और भी ले लूँगी।"

अतिशय गंभीरता के साथ मिठाईवाले ने कहा-"मैं भी अपने नगर का एक प्रतिष्ठित आदमी था। मकान, व्यवसाय, गाड़ी-घोड़े, नौकर-चाकर सभी कुछ था। स्त्री थी, छोटे-छोटे दो बच्चे भी थे। मेरा वह सोने का संसार था। बाहर संपत्ति का वैभव था, भीतर सांसारिक सुख था। स्त्री सुंदरी थी, मेरी प्राण थी। बच्चे ऐसे सुंदर थे, जैसे सोने के सजीव खिलौने। उनकी अठखेलियों के मारे घर में कोलाहल मचा रहता था। समय की गति! विधाता की लीला। अब कोई नहीं है। दादी, प्राण निकाले नहीं निकले। इसलिए अपने उन बच्चों की खोज में निकला हूँ। वे सब अंत में होंगे, तो यहीं कहीं। आखिर, कहीं न जनमे ही होंगे। उस तरह रहता, घुल-घुलकर मरता। इस तरह सुख-संतोष के साथ मरूँगा। इस तरह के जीवन में कभी-कभी अपने उन बच्चों की एक झलक-सी मिल जाती है। ऐसा जान पड़ता है, जैसे वे इन्हीं में उछल-उछलकर हँस-खेल रहे हैं। पैसों की कमी थोड़े ही है, आपकी दया से पैसे तो काफ़ी हैं। जो नहीं है, इस तरह उसी को पा जाता हूँ।"

रोहिणी ने अब मिठाईवाले की ओर देखा-उसकी आँखें आँसुओं से तर हैं।

इसी समय चुन्नू-मुन्नू आ गए। रोहिणी से लिपटकर, उसका आँचल पकड़कर बोले-"अम्माँ, मिठाई!"

"मुझसे लो।" यह कहकर, तत्काल कागज़ की दो पुड़ियाँ, मिठाइयों से भरी, मिठाईवाले ने चुन्नू-मून्नू को दे दीं।

रोहिणी ने भीतर से पैसे फेंक दिए।

मिठाईवाले ने पेटी उठाई और कहा-"अब इस बार ये पैसे न लूँगा।"

दादी बोली-"अरे-अरे, न न अपने पैसे लिए जा भाई!"

तब तक आगे फिर सुनाई पड़ा उसी प्रकार मादक-मृदुल स्वर में-"बच्चों को बहलानेवाला मिठाईवाला।"

भगवतीप्रसाद वाजपेयी

प्रश्न-अभ्यास

कहानी से

  1. मिठाईवाला अलग-अलग चीज़ें क्यों बेचता था और वह महीनों बाद क्यों आता था?
  2. मिठाईवाले में वे कौन से गुण थे जिनकी वजह से बच्चे तो बच्चे, बड़े भी उसकी ओर खिचे चले आते थे?
  3. विजय बाबू एक ग्राहक थे और मुरलीवाला एक विक्रेता। दोनों अपने-अपने पक्ष के समर्थन में क्या तर्क पेश करते हैं?
  4. खिलौनेवाले के आने पर बच्चों की क्या प्रतिक्रिया होती थी?
  5. रोहिणी को मुरलीवाले के स्वर से खिलौनेवाले का स्मरण क्यों हो आया?
  6. किसकी बात सुनकर मिठाईवाला भावुक हो गया था? उसने इन व्यवसायों को अपनाने का क्या कारण बताया?
  7. ‘अब इस बार ये पैसे न लूँगा’-कहानी के अंत में मिठाईवाले ने ऐसा क्यों कहा?
  8. इस कहानी में रोहिणी चिक के पीछे से बात करती है। क्या आज भी औरतें चिक के पीछे से बात करती हैं? यदि करती हैं तो क्यों? आपकी राय में क्या यह सही है?

    कहानी से आगे

  1. मिठाईवाले के परिवार के साथ क्या हुआ होगा? सोचिए और इस आधार पर एक और कहानी बनाइए?
  2. हाट-मेले, शादी आदि आयोजनों में कौन-कौन सी चीज़ें आपको सबसे ज़्यादा आकर्षित करती हैं? उनको सजाने-बनाने में किसका हाथ होगा? उन चेहरों के बारे में लिखिए।
  3. इस कहानी में मिठाईवाला दूसरों को प्यार और खुशी देकर अपना दुख कम करता है? इस मिज़ाज की और कहानियाँ, कविताएँ ढूँढ़िए और पढ़िए।

    अनुमान और कल्पना

  1. आपकी गलियों में कई अजनबी फेरीवाले आते होंगे। आप उनके बारे में क्या-क्या जानते हैं? अगली बार जब आपकी गली में कोई फेरीवाला आए तो उससे बातचीत कर जानने की कोशिश कीजिए।
  2. आपके माता-पिता के ज़माने से लेकर अब तक फेरी की आवाज़ों में कैसा बदलाव आया है? बड़ों से पूछकर लिखिए।
  3. क्या आपको लगता है कि–वक्त के साथ फेरी के स्वर कम हुए हैं? कारण लिखिए।

    भाषा की बात

  1. मिठाईवाला बोलनेवाली गुड़िया

     ऊपर ‘वाला’ का प्रयोग है। अब बताइए कि-
    (क) ‘वाला’ से पहले आनेवाले शब्द संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण आदि में से क्या हैं?

    (ख) ऊपर लिखे वाक्यांशों में उनका क्या प्रयोग है?

  2. "अच्छा मुझे ज़्यादा वक्त नहीं, जल्दी से दो ठो निकाल दो।"

    उपर्युक्त वाक्य में ‘ठो’ के प्रयोग की ओर ध्यान दीजिए। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार की भाषाओं में इस शब्द का प्रयोग संख्यावाची शब्द के साथ होता है, जैसे, भोजपुरी में-एक ठो लइका, चार ठे आलू, तीन ठे बटुली।

    ऐसे शब्दों का प्रयोग भारत की कई अन्य भाषाओं / बोलियों में भी होता है। कक्षा में पता कीजिए कि किस-किस की भाषा-बोली में ऐसा है। इस पर सामूहिक बातचीत कीजिए।

  3. "वे भी, जान पड़ता है, पार्क में खेलने निकल गए हैं।"

    "क्यों भई, किस तरह देते हो मुरली?"

    "दादी, चुन्नू-मुन्नू के लिए मिठाई लेनी है। ज़रा कमरे में चलकर ठहराओ।"

    • भाषा के ये प्रयोग आजकल पढ़ने-सुनने में नहीं आते। आप ये बातें कैसे कहेंगे?

    कुछ करने को

  1. फेरीवालों की दिनचर्या कैसी होती होगी? उनका घर-परिवार कहाँ होगा? उनकी ज़िंदगी में किस प्रकार की समस्याएँ और उतार-चढ़ाव आते होंगे? यह जानने के लिए तीन-तीन के समूह में छात्र-छात्राएँ कुछ प्रश्न तैयार करें और फेरीवालों से बातचीत करें। प्रत्येक समूह अलग-अलग व्यवसाय से जुड़े फेरीवालों से बात करे।

    2. इस कहानी को पढ़कर क्या आपको यह अनुभूति हुई कि दूसरों को प्यार और खुशी देने से अपने मन का दुख कम हो जाता है? समूह में बातचीत कीजिए।

    3. अपनी कल्पना की मदद से मिठाईवाले का चित्र शब्दों के माध्यम से बनाइए।


फेरीवालों की आवाज़ें

केवल

पढ़ने

के

लिए

दिल्ली के फेरीवालों की एक बड़ी विशेषता यह थी कि अपने सौदे को एक बड़ी लच्छेदार आवाज़ में और अकसर सुरीले स्वर में और कभी-कभी तो गाकर बेचते थे। किसी साहित्यकार ने सच लिखा है कि दिल्ली के बाज़ारों-कूचों में फेरीवालों की आवाज़ें सुनकर ऐसा लगता था कि इस्फ़हान के शाइर चौक में गज़ल पढ़ रहे हैं। दिल्ली के बारे में यह भी मशहूर था कि यहाँ हर आदमी चाहे वह पढ़ा-लिखा था या नहीं कलापूर्ण रुचि और संवेदनशीलता रखता था। फेरीवाले जो भी आवाज़ लगाते, वह आमतौर पर उनका अपना आविष्कार होता या अगर किसी और का भी होता तो उसमें अपनी तरफ़ से भी कुछ-न-कुछ जोड़ लेते। लेकिन जो कुछ भी कहते गागर में सागर भर देते और सुननेवालों को बड़ा आनंद आता। आदमी को अगर चीज़ न भी लेनी होती तो भी फेरीवाले की आवाज़ सुनकर उसे रस आने लगता और उसे खरीदने की इच्छा उसके मन में पैदा हो जाती।

फेरीवालों का गाकर अपने सौदे को बेचने का रिवाज मुगलों के ज़माने में शाहजहाँ के काल से शुरू हुआ। शाहजहाँ की इच्छा थी कि फेरीवाले उसकी नयी राजधानी शाहजहाँनाबाद में अपनी चीज़ों को साफ़ और ऊँची आवाज़ में बेचें ताकि घर की औरतें अपने घरों की ड्योढ़ी पर ज़रूरत की चीज़ें खरीद सकें और फेरीवाला तथा राह चलते लोग उन्हें न देख सकें।

गरमियों में आम, खरबूज़े, ककड़ी, तरबूज़ वगैरह की बहार होती। आमवाला चिल्लाता-

"केराने का लडुवा, सरौली की बहार

ड्डू हैं पाल के, पाल के लड्डू

बासी परांठे के संग खा लो

रस के घड़े हैं ये चूसनेवाले।"

खरबूज़ेवाला लहक-लहककर गाता और सबसे बाज़ी ले जाता-

"नन्हें के अब्बा चक्कू लाना चख के लेना,

सच्ची कहना फीके या मीठे!"

बीच में कोई शकरकंदवाला बोल उठता-

"बिन कढ़ाई का हलवा, शकरकंदी।"

ककड़ियोंवाला ककड़ियों को पानी से तर करता रहता और चिल्लाता-

"लैला की उँगलियाँ, मजनूँ की पसलियाँ

तैरकर आई हैं बहते दरियाव में।"

(महेश्वर दयाल की पुस्तक ‘दिल्ली जो एक शहर है’ से।)