दशमः पाठः

नीतिनवनीतम्

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[प्रस्तुत पाठ ‘मनुस्मृति’ के कतिपय श्लोकों का संकलन है जो सदाचार की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यहाँ माता-पिता तथा गुरुजनों को आदर और सेवा से प्रसन्न करने वाले अभिवादनशील मनुष्य को मिलने वाले लाभ की चर्चा की गई है। इसके अतिरिक्त सुख-दुख में समान रहना, अन्तरात्मा को आनन्दित करने वाले कार्य करना तथा इसके विपरीत कार्यों को त्यागना, सम्यक् विचारोपरान्त तथा सत्यमार्ग का अनुसरण करते हुए कार्य करना आदि शिष्टाचारों का उल्लेख भी किया गया है।]

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।

चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम् ।।1।

यं मातापितरौ क्लेशं सहेते सम्भवे नृणाम्।

न तस्य निष्कृतिः शक्या कर्तुं वर्षशतैरपि ।।2।।

तयोर्नित्यं प्रियं कुर्यादाचार्यस्य च सर्वदा।

तेष्वेव त्रिषु तुष्टेषु तपः सर्वं समाप्यते ।।3।।

सर्वं परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम्।

एतद्विद्यात्समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः ।।4।।

यत्कर्म कुर्वतोऽस्य स्यात्परितोषोऽन्तरात्मनः

तत्प्रयत्नेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत् ।।5।।

दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं जलं पिबेत्

सत्यपूतां वदेद्वाचं मनः पूतं समाचरेत् ।।6।।

 

शब्दार्थाः

अभिवादनशीलस्य - प्रणाम करने के स्वभाव वाले के

वृद्धोपसेविनः - वृद्ध+उपसेविनः - बड़ों की सेवा करने वाले के

क्लेशम् - कष्ट

निष्कृतिः - निस्तार

कुर्वतः - करते हुए का

परितोषः - सन्तोष

अन्तरात्मनः - अन्रात्मा की (हृदय की)।

कुुर्वीत - करना चाहिए

न्यसेत् - रखना चाहिए, रखे

पूतम् - वित्र

नृणाम् - मनुष्यों का

वर्षशतैः - सौ वर्षों में

समाप्यते - समाप्त होता है

समासेन - संक्षेप में

विद्यात् - जानना चाहिए

सत्यपूताम् - सत्य से पवित्र (सच)

 

 अभ्यासः

1. अधोलिखितानि प्रश्नानाम् उत्तराणि एकपदेन लिखत-

(क) नृणां सम्भवे कौ क्लेशं सहेते?

(ख) कीदृशं जलं पिबेत्?

(ग) नीतिनवनीतं पाठः कस्मात् ग्रन्थात् सङ्कलित?

(घ) कीदृशीं वाचं वदेत्?

(ङ) दुःखं किं भवति?

(च) आत्मवशं किं भवति?

(छ) कीदृशं कर्म समाचरेत्?


2. अधोलिखितानि प्रश्नानाम् उत्तराणि पूर्णवाक्येन लिखत-

(क) पाठेऽस्मिन् सुखदुःखयोः किं लक्षणम् उक्तम्?

(ख) वर्षशतैः अपि कस्य निष्कृतिः कर्तुं न शक्या?

(ग) "त्रिषु तुष्टेषु तपः समाप्यते" - वाक्येऽस्मिन् त्रयः के सन्ति?

(घ) अस्माभिः कीदृशं कर्म कर्तव्यम्?

(ङ) अभिवादनशीलस्य कानि वर्धन्ते?

(च) सर्वदा केषां प्रियं कुर्यात्?


3. स्थूलपदान्यवलम्ब्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत-

(क) वृद्धोपसेविनः आयुर्विद्या यशो बलं न वर्धन्ते।

(ख) मनुष्यः सत्यपूतां वाचं वदेत्।

(ग) त्रिषु तुष्टेषु सर्वं तपः समाप्यते?

(घ) मातापितरौ नृणां सम्भवे अकथनीयं क्लेशं सहेते।

(ङ) तयोः नित्यं प्रियं कुर्यात्।


4. संस्कृतभाषयां वाक्यप्रयोगं कुरुत-

(क) विद्या (ख) तपः (ग) समाचरेत् (घ) परितोषः (ङ) नित्यम्


5. शुद्धवाक्यानां समक्षम् आम् अशुद्धवाक्यानां समक्षं च नैव इति लिखत-

(क) अभिवादनशीलस्य किमपि न वर्धते।

(ख) मातापितरौ नृणां सम्भवे कष्टं सहेते।

(ग) आत्मवशं तु सर्वमेव दुःखमस्ति।

(घ) येन पितरौ आचार्यः च सन्तुष्टाः तस्य सर्वं तपः समाप्यते।

(ङ) मनुष्य: सदैव मनः पूतं समाचरेत्।

(च) मनुष्यः सदैव तदेव कर्म कुर्यात् येनान्तरात्मा तुष्यते।


6. समुचितपदेन रिक्तस्थानानि पूरयत-

(क) मातापित्रोः तपसः निष्कृतिः ................ कर्तुमशक्या। (दशवर्षैरपि/षष्टिः वर्षैरपि/ वर्षशतैरपि)।

(ख) नित्यं वृद्धोपसेविनः ................ वर्धन्ते (चत्वारि/पञ्च/षट्)।

(ग) त्रिषु तुष्टेषु ................ सर्वं समाप्यते (जपः/तप/कर्म)।

(घ) एतत् विद्यात् ................ लक्षणं सुखदुःखयोः। (शरीरेण!समासेन/विस्तारेण)

(ङ) दृष्टिपूतम् न्यसेत् ................। (हस्तम्/पादम्/मुखम्)

(च) मनुष्यः मातापित्रोः आचार्यस्य सर्वदा ........... कुर्यात्। (प्रियम््/अप्रियम््/अकार्यम्)


7. मञ्जूषातः चित्वा उचिताव्ययेन वाक्यपूर्तिं कुरुत-

तावत् अपि एव था नित्यं यादृशम्

(क) तयोः ............ प्रियं कुर्यात्।

(ख) ............ कर्म करिष्यसि। तादृशं फलं प्राप्स्यसि।

(ग) वर्षशतैः ............ निष्कृतिः न कर्तुं शक्या।

(घ) तेषु ............ त्रिषु तुष्टेषु तपः समाप्यते।

(ङ) ............ राजा तथा प्रजा

(च) यावत् सफलः न भवति ............ परिश्रमं कुरु।


योग्यता-विस्तार

भावविस्तारः

संस्कृत साहित्य में जीवन के लिए अत्यन्त उपयोगी कर्तव्य-निर्देश दिए गए हैं जो यत्र-तत्र सुभाषितों और नीतिश्लोकों के रूप में प्राप्त होते हैं। जरूरत है उन्हें ढूँढने वाले मनुष्य की। जीवनमार्ग पर चलते हुए जब किंकर्त्तव्यविमूढ़ता की स्थिति आती है तो संस्कृत सूक्तियाँ हमें मार्गबोध कराती हैं। नीतिशतक, विदुरनीति, चाणक्यनीतिदर्पण आदि ग्रन्थ एेसे ही श्लोकों के अमर भण्डारगार हैैं।

1. कुछ समानान्तर श्लोक

कर्मणा मनसा वाचा चक्षुषाऽपि चतुर्विधम्

प्रसादयति लोकं यस्तं लोकोऽनुप्रसीदति।।

सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्।

प्रियं च नानृतं ब्रूयात् एष धर्मः सनातनः।।

प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।

तस्मात्तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता।

यस्मिन् देशे न सम्मानो न प्रीतिर्न च बान्धवाः

न च विद्यागमः कश्चित् न तत्र दिवसं वसेत्।


2. संधि की आवृत्ति

शिष्टाचारः = शिष्ट + आचारः

वृद्धोपसेविनः = वृद्धः + उपसेविनः

आयुर्विद्या = आयुः + विद्या

यशो बलम् = यशः + बलम्

वर्षशतैरपि = वर्षशतैः + अपि

तयोर्नित्यं = तयोः + नित्यम्

कुर्यादाचार्यस्य = कुर्यात् + आचार्यस्य

तेष्वेव = तेषु + एव

सर्वमात्मवशम् = सर्वम् + आत्मवशम्

कुर्वतोऽस्य = कुर्वतः + अस्य

परितोषोऽन्तरात्मनः = परितोषः + अन्तरात्मनः

वदेद्वाचम् = वदेत् + वाचम्


3. विधिलिङ् के विविध प्रयोग - (किसी भी काम को) करना चाहिए, इस अर्थ में विधिलिङ् का प्रयोग होता है। पाठ में आए कुछ शब्दों के प्रयोग अधोलिखित हैं -

स्यात् - (अस् धातु)

पिबेत् - (पा धातु)

वर्जयेत् - (वर्ज् धातु)

वदेत् - (वद् धातु)

महान्तं प्राप्य सद्बुद्धेः

सत्यजेन्न लघूजनम्।

यत्रास्ति सूचिका कार्यं

कृपाणः किं करिष्यति।

विचित्रे खलु संसारे नास्ति किञ्चित् निरर्थकम्।

अश्वस्चेत् धावने वीरः भारस्य वहने खरः।

ये श्लोक भी इसी बात की पुष्टि करते हैं कि संसार में कोई भी छोटा या ब\ड़ा नहीं है। संसार की क्रियाशीलता, गीतशीलता में सभी का अपना-अपना महत्त्व है सभी के अपने-अपने कार्य हैं, अपना-अपना योगदान है, अतः हमें न तो किसी कार्य को छोटा या ब\ड़ा, तुच्छ या महान् समझना चाहिए और न ही किसी प्राणी को। आपस में मिल जुल कर सौहार्दपूर्ण तरीके से जीवन यापन से ही प्रकृति का सौन्दर्य है। विभिन्न प्राणियों से संबंधित निम्नलिखित श्लोकों को भी प\ढ़िए और रसास्वादन कीजिए-

- इन्द्रियाणि च संयम्य बकवत् पण्डितो नरः।

देशकालबलं ज्ञात्वा सर्वकार्याणि साधयेत्।।

- काकचेष्टः बकध्यानी शुनोनिद्रः तथैव च

अल्पाहारः गृहत्यागः विद्यार्थी पञ्चलक्षणम्।।

- स्पृशन्नपि गजो हन्ति जिघ्रन्नपि भुजङ्गमः।

हसन्नपि नृपो हन्ति, मानयन्नपि दुर्जनः।।

- प्राप्तव्यमर्थं लभते मनुष्यो,

देवोऽपि तं ल४यितुं न शक्तः।

तस्मान्न शोचामि न विस्मयो मे

यदस्मदीयं नहि तत्परेषाम्।।

- अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।

वस्तुतः मित्रों के बिना कोई भी जीना पसन्द नहीं करता, चाहे उसके पास बाकी सभी अच्छी चीज़ें क्यों न हों। अतः हमें सभी के साथ मिलजुल कर अपने आस-पास के वातावरण की सुरक्षा और सुन्दरता में सदैव सहयोग करना चाहिए।

अकिञ्चनस्य दान्तस्य, शान्तस्य समचेतसः।

मया सन्तुष्टमानसः, सर्वाः सुखमयाः दिशः।।