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शिक्षकों के लिए 

सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन पर केंद्रित पिछली दोनों पाठ्यपुस्तकों में भारतीय संविधान का बार-बार ज़िक्र आया है। दोनों ही पुस्तकों में संविधान का उल्लेख तो था लेकिन उस पर पर्याप्त रूप से चर्चा नहीं की गई थी। इस साल

इकाई 1 के अध्यायों में मुख्य रूप से संविधान पर ही विचार किया जा रहा है।

अध्याय 1 में सबसे पहले उन सिद्धांतों की चर्चा की गई है जिनसे उदारवादी संविधान का जन्म होता है। जिन विचारों के बारे में बात की जा रही है, बच्चों को उनसे परिचित कराने के लिए तीन छोटे-छोटे चित्रकथा-पट्ट भी दिए गए हैं। इन चित्रकथा-पट्टों में कक्षा के भीतर घटने वाली सामान्य घटनाओं के ज़रिए तीन जटिल मूलभूत सिद्धांतों (Constitutive principles) को समझाया गया है। चित्रकथा-पट्टों के ज़रिए आप विद्यार्थियों को यह समझा सकते हैं कि ये मूलभूत सिद्धांत हमें किन चीज़ों से सुरक्षा प्रदान करते हैं।

भारतीय संविधान की चर्चा एक एेतिहासिक संदर्भ में प्रस्तुत की गई है। इसका मकसद विद्यार्थियों को इस बात का एहसास कराना है कि हमारे उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष से भारतीय लोकतंत्र पर कौन-कौन से महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़े हैं। संविधान की चर्चा करते हुए हमें उसके कुछ मुख्य आयामों की व्याख्या करने के लिए कई नए और प्राय: कठिन शब्दों का इस्तेमाल करना पड़ा। इन शब्दों को पढ़ाते हुए इस बात को ध्यान में रखें कि बच्चों को ये बातें अगली कक्षाओं में और विस्तार से पढ़नी हैं। इसलिए, यहाँ कोशिश यह की गई है कि बच्चे भारतीय लोकतंत्र से संबंधित इन आयामों की आधारभूत समझ ग्रहण कर लें।

अध्याय 2 में धर्मनिरपेक्षता पर चर्चा की गई है। धर्मनिरपेक्षता की सबसे प्रचलित परिभाषा इस समझ पर आधारित है कि धर्म और राज्य, दोनों को एक-दूसरे से अलग रखा जाना चाहिए। यहाँ इसी परिभाषा को एक प्रस्थानबिंदु के रूप में देखा गया है और उसके आधार पर दो जटिल विचारों की व्याख्या की गई है। पहला विचार इस बात की ओर संकेत करता है कि राज्य और धर्म के बीच फ़ासला क्यों महत्त्वपूर्ण है और दूसरा इस बात पर ज़ोर देता है कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता के कौन से खास पहलू हैं।

राज्य और धर्म के बीच पृथक्करण के दो महत्त्वपूर्ण कारण हैं। पहला कारण यह है कि एक धर्म का दूसरे धर्म पर यानी अंतर-धार्मिक (Inter-religious) वर्चस्व स्थापित नहीं होना चाहिए। दूसरी बात यह है कि धर्म के भीतर भी जो विभिन्न प्रकार के वर्चस्व स्थापित हो जाते हैं यानी अंत:धार्मिक (Intra-religious) वर्चस्व, उनका विरोध किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए इस अध्याय में हिंदू धर्म के भीतर छुआछूत के चलन पर चर्चा की गई है। इस प्रथा की वज़ह से ‘ऊँची जातियों’ के लोगों को कुछ ‘निचली जातियों’ के लोगों पर दबदबा कायम करने का मौका मिलता रहा है। धर्मनिरपेक्षता का संस्थागत धर्म से विरोध है और इसका मतलब है कि यह सोच धर्मों के बीच और धर्मों के भीतर स्वतंत्रता एवं समानता को प्रोत्साहित करती है।

इसअध्याय में दूसरा महत्त्वपूर्ण अवधारणात्मक सवाल इस बात पर केंद्रित है कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता की अनूठी विशेषता क्या है। भारतीय धर्मनिरपेक्षता राज्य को धर्म से अलग रखकर व्यक्तियों की धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा करती है। लेकिन यह अवधारणा धर्मों के भीतर सुधार की गुंजाइश भी पैदा करती है। मिसाल के तौर पर, इसके ज़रिए छुआछूत और बाल-विवाह जैसी कुरीतियों के उन्मूलन की दिशा में बढ़ा जा सकता है। फलस्वरूप धार्मिक समानता (धर्मों के भीतर और धर्मों के बीच) स्थापित करने के ज़रिए भारतीय धर्मनिरपेक्ष राज्य धर्मों से दूर भी रहता है और उनमें हस्तक्षेप भी करता है। यह हस्तक्षेप पाबंदी के रूप में भी हो सकता है (जैसे छुआछूत के मामले में) और धार्मिक अल्पसंख्यकों को सहायता मुहैया कराने के रूप में भी। इस अध्याय में इस बात की व्याख्या की गई है और इसे ‘सैद्धांतिक फ़ासला’ बताया गया है। इसका मतलब यह है कि राज्य की ओर से धर्म में किसी भी तरह का हस्तक्षेप संविधान में सूत्रबद्ध किए गए आदर्शों पर आधारित होना चाहिए।

ऊपरजिन बातों की चर्चा की गई है उनमें से कई बिंदु काफ़ी जटिल हैं। लिहाज़ा यह बहुत ज़रूरी है कि यह अध्याय पढ़ाने से पहले आप इन बातों को अच्छी तरह समझ लें। विद्यार्थियों की तरफ़ से इस बारे में कई तरह के सुझाव आ सकते हैं कि सरकार को धार्मिक मामलों में दखल क्यों देना चाहिए या क्यों नहीं देना चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि किसी भी तरह की चर्चा को ज़्यादा से ज़्यादा प्रोत्साहित किया जाए, लेकिन यह चर्चा एक सीमा के भीतर ही रहे ताकि धार्मिक अल्पसंख्यकों के बारे में बच्चों के ज़ेहन में मौजूद प्रचलित रूढ़ छवियाँ और मज़बूत न होने लगें।

अध्याय 1

भारतीय संविधान

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इस अध्यायमें हम फुटबॉल के खेल से अपनी बात शुरू करेंगे। आपमें से ज़्यादातर बच्चों ने इस खेल के बारे में ज़रूर सुना होगा। बहुतों ने खेला भी होगा। जैसा कि इसके नाम से ही अंदाज़ा हो जाता है, यह खेल पैरों से संबंधित है। फुटबॉल का एक नियम यह है कि गोलकीपर के अलावा और कोई खिलाड़ी गेंद को बाँह से नहीं छू सकता। अगर किसी खिलाड़ी की बाँह गेंद को छू जाती है तो इसे फाउल या गलत माना जाता है। कहने का मतलब यह है कि अगर खिलाड़ी फुटबॉल को हाथों में लेकर एक-दूसरे को थमाने लगें तो उस खेल को फुटबॉल नहीं माना जाएगा। इसी तरह हॉकी या क्रिकेट आदि दूसरे खेलों के भी कुछ तय नियम होते हैं। इन नियमों से खेल को परिभाषित करने और अलग-अलग खेलों के बीच फ़र्क करने में मदद मिलती है। इन खेलों की तरह हर समाज के भी कुछ मूलभूत नियम (Constitutive rules) होते हैं। उन्हीं से समाज का स्वरूप तय होता है और अलग-अलग समाजों के बीच फ़र्क पता चलता है। बड़े समाजों में कई अलग-अलग समुदाय एक साथ रहते हैं। वहाँ नियमों को आम सहमति के ज़रिए तय किया जाता है। आधुनिक देशों में यह सहमति आमतौर पर लिखित रूप में पाई जाती है। जिस दस्तावेज़ में हमें एेसे नियम मिलते हैं उसे संविधान कहा जाता है।

कक्षा6 और 7 में भी सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन की पाठ्यपुस्तकों में हम भारतीय संविधान पर चर्चा कर चुके हैं। इन किताबों को पढ़कर क्या कभी यह सवाल आपके भीतर पैदा हुआ कि हमें संविधान की ज़रूरत क्यों पड़ती है? क्या आपने यह जानने की कोशिश की कि संविधान कैसे लिखा गया? या उसे किसने लिखा था? इस अध्याय में हम इन्हीं मुद्दों पर चर्चा करेंगे और भारतीय संविधान की मुख्य बातों पर ध्यान देंगे। ये बातें भारतीय लोकतंत्र के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। इस पुस्तक के विभिन्न अध्यायों में इनमें से कुछ बातों पर विशेष ज़ोर दिया जाएगा।

किसी देश को संविधान की ज़रूरत क्यों पड़ती है?

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1934 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने संविधान सभा के गठन की माँग को पहली बार अपनी अधिकृत नीति में शामिल किया। केवल भारतीयों को लेकर बनने वाली एक स्वतंत्र संविधान सभा की यह माँग दूसरे विश्व युद्ध के दौरान और तेज़ हो गई और अंतत: दिसंबर 1946 में संविधान सभा का गठन किया गया। पृष्ठ 2 पर दिए गए चित्र में संविधान सभा के कुछ सदस्यों को दर्शाया गया है।
दिसबंर 1946 से नवंबर 1949 के बीच संविधान सभा ने स्वतंत्र भारत के लिए नए संविधान का एक प्रारूप तैयार किया। 150 साल की अंग्रेज़ी हुकूमत के बाद भारतीयों को आखिरकार अपनी नियति और भविष्य तय करने का मौका मिला था। संविधान सभा के सदस्यों ने स्वतंत्रता संघर्ष से उपजे महान आदर्शों को ध्यान में रखते हुए इस काम को गंभीरता से अंजाम दिया। संविधान सभा के कामों के बारे में आप इसी अध्याय में आगे पढ़ेंगे।
बगल में दिए गए चित्र में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु संविधान सभा को संबोधित कर रहे हैं।

आज दुनिया के ज़्यादातर देशों के पास अपना संविधान है। आमतौर पर सभी लोकतांत्रिक देशों के बारे में उम्मीद की जा सकती है कि उनके पास संविधान ज़रूर होगा। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि जिन देशों के पास अपने संविधान होते हैं वे सभी लोकतांत्रिक देश ही होंगे। संविधान कई उद्देश्यों की पूर्ति करता है। पहला, यह दस्तावेज़ उन आदर्शों को सूत्रबद्ध करता है जिनके आधार पर नागरिक अपने देश को अपनी इच्छा और सपनों के अनुसार रच सकते हैं। यानी संविधान ही बताता है कि हमारे समाज का मूलभूत स्वरूप क्या हो। देश के भीतर आमतौर पर कई समुदाय रहते हैं। उनके बीच कई बातें समान होती हैं लेकिन ज़रूरी नहीं कि वे सारे मुद्दों पर एक-दूसरे से सहमत हों। संविधान नियमों का एक एेसा समूह होता है जिसको एक देश के सभी लोग अपने देश को चलाने की पद्धति के रूप मेंअपना सकते हैं। इसके ज़रिए वे न केवल यह तय करते हैं कि सरकार किस तरह की होगी बल्किउन आदर्शों पर भीएक साझी समझ विकसित करते हैं जिनकी हमेशा पूरे देश में रक्षा की जानी चाहिए।

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इनबातों का क्या मतलब है, यह समझने के लिए आइए दो बिल्कुल अलग-अलग परिस्थितियों पर गौर करें। दोनों घटनाएँ भारत की उत्तरी सीमा पर स्थित नेपाल के ताज़ा इतिहास की घटना है। समाचार पत्रों के माध्यम से ऊपर दी गई खबर में बताया गया है कि नेपाल के लोगों ने हाल ही में एक अंतरिम संविधान को मंज़ूरी दी है। सवाल यह उठता है कि जब नेपाल में पहले से ही संविधान था तो उसे नए संविधान की ज़रूरत क्यों पड़ी? इसका कारण यह है कि कुछ समय पहले तक नेपाल एक राजतंत्र था। वहाँ राजा का शासन था। 1990 में बना नेपाल का पिछला संविधान इस सिद्धांत पर आधारित था कि शासन की सर्वोच्च सत्ता राजा के पास रहेगी। नेपाल के लोग कई दशक से लोकतंत्र की स्थापना के लिए जनांदोलन करते चले आ रहे थे। इसी संघर्ष के फलस्वरूप 2006 में आखिरकार उन्हें राजा की सत्ता को खत्म करने में कामयाबी मिल गई। नेपाल के लोग लोकतंत्र के रास्ते पर चलना चाहते थे और इसके लिए उन्हें एक नया संविधान चाहिए था। वे पिछले संविधान को इसलिए नहीं अपनाना चाहते थे क्योंकि उसमें वे आदर्श नहीं थे जो वे नेपाल के लिए चाहते थे और जिनके लिए वे लड़ते रहे थे।

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नेपाल में लोकतंत्र के लिए कई जनसंघर्ष हो चुके हैं। 1990 में हुए संघर्ष के बाद लोकतंत्र की स्थापना हुईं यह लोकतांत्रिक व्यवस्था 2002 तक यानी 12 साल कायम रही। अक्तूबर 2002 में राजा ज्ञानेन्द्र ने गाँवों में माओवादी संगठनों के बढ़ते प्रभाव का बहाना बनाकर सेना की मदद से सरकार के विभिन्न कामों को अपने कब्ज़े में लेना शुरू कर दिया। फ़रवरी 2005 में राजा ने शासन की बागडोर पूरी तरह अपने हाथों में ले ली। नवंबर 2005 में माओवादियों ने अन्य राजनीतिक दलों के साथ एक 12 सूत्री समझौते पर दस्तखत किए। इस समझौते में आम लोगों को लोकतंत्र और अमन-चैन बहाल होने की उम्मीद दिखाई दे रही थी। लोकतंत्र के लिए चल रहा यह जनांदोलन 2006 तक अपने शिखर पर पहुँच चुका था। आंदोलनकारियों ने राजा की ओर से दी गई छोटी-मोटी रियायतों को नामंज़ूर कर दिया और आखिरकार अप्रैल 2006 में राजा को तृतीय संसद बहाल करके राजनीतिक दलों को सरकार बनाने का मौका देना पड़ा। 2008 में, राजतंत्र को खत्म करने के बाद नेपाल लोकतंत्र बन गया।
2006 में लोकतंत्र की माँग को लेकर चलने वाले जनतांत्रिक आंदोलन के दृश्य ऊपर के चित्रों में हैं।

अपने शिक्षक के साथ चर्चा करें कि मूलभूत (Constitutive) शब्द से आप क्या समझते हैं? अपने रोज़मर्रा के जीवन के आधार पर मूलभूत नियम का एक उदाहरण दें।

नेपाल की जनता एक नयासंविधान क्यों चाहती थी?

जिस तरह फुटबॉल के खेल में नियम बदलते ही खेल बदल जाता है, उसी तरह नेपाल को भी राजतंत्र की जगह लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था पर चलने के कारण अपने सारे नियम बदलने होंगे ताकि एक नए समाज की रचना की जा सके। यही कारण है कि नेपाल के लोगों ने 2015 में अपने देश के लिए एक नया संविधान अपनाया। ऊपर के चित्र के साथ दिए गए अंश में लोकतंत्र के लिए नेपाल के संघर्ष के बारे में बताया गया है।

संविधान का दूसरा मुख्य उद्देश्य होता है देश की राजनीतिक व्यवस्था को तय करना। नेपाल के पुराने संविधान में कहा गया था कि देश के शासन की बागडोर राजा और मंत्रिपरिषद् के हाथ में रहेगी। जिन देशों ने लोकतांत्रिक शासनपद्धति या राज्य व्यवस्था चुनी है वहाँ निर्णय प्रक्रिया के नियम तय करने में संविधान बहुत अहम भूमिका अदा करता है।

लोकतंत्र में हम अपने नेता खुद चुनते हैं ताकि हमारी ओर से वे सत्ता का ज़िम्मेदारी के साथ इस्तेमाल कर सकें। फिर भी इस बात की संभावना हमेशा रहती है कि ये नेता सत्ता का दुरुपयोग कर सकते हैं। इस तरह की विकृतियों से बचाव का उपाय संविधान में मिलता है। राजनेताओं द्वारा सत्ता के इस दुरुपयोग से लोगों के साथ भारी अन्याय हो सकता है। इसका एक उदाहरण नीचे दी गई चित्रकथा-पट्ट में देखा जा सकता है –

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लोकतांत्रिक समाजों में प्राय: संविधान ही एेसे नियम तय करता है जिनके द्वारा राजनेताओं के हाथों सत्ता के इस दुरुपयोग को रोका जा सकता है। भारतीय संविधान में एेसे बहुत सारे कानून मौलिक अधिकारों वाले खण्ड में दिए गए हैं। क्या आपको कक्षा 7 की पुस्तक में दिए गए दलित लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि के अनुभवों की कुछ याद है? उस अध्याय में बताया गया था कि ओमप्रकाश को दलित होने के कारण किस तरह के भेदभाव का सामना करना पड़ा। वहाँ आपने पढ़ा था कि भारतीय संविधान देश के सभी व्यक्तियों को समानता का अधिकार देता है। हमारा संविधान कहता है कि धर्म, नस्ल, जाति, लिंग और जन्मस्थान के आधार पर देश के किसी भी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता। इस प्रकार समानता का अधिकार भारतीय संविधान में दिया गया एक मौलिक अधिकार है।

1. मॉनीटर अपनी शक्ति का किस तरह दुरुपयोग कर रहा है?

2. नीचे दी गई किस परिस्थिति में मंत्री को अपनी सत्ता के दुरुपयोग का दोषी कहा जाएगा-

() जब वह ठोस तकनीकी कारणों से अपने मंत्रालय की किसी परियोजना को नामंज़ूर कर देता है;

() जब वह अपने पड़ोसी को अपने सुरक्षाकर्मियों से पिटवाने की धमकी देता है;

(ग) जब वह थाने में फ़ोन करके पुलिस अधिकारियों पर दबाव डालता है कि उसके किसी दोषी रिश्तेदार के खिलाफ़ एफ.आई.आर. दर्ज न की जाए।

लोकतंत्रमें संविधान का एक महत्त्वपूर्ण काम यह होता है कि कोई भी ताकतवर समूह किसी दूसरे या कम ताकतवर समूह या लोगों के खिलाफ़ अपनी ताकत का इस्तेमाल न करे। नीचे दिए गए चित्रकथा-पट्ट में कक्षा के भीतर की एक घटना के आधार पर इस बात को समझाया गया है।

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इस तरह के अस्वस्थ हालात लोकतांत्रिक समाजों में भी पैदा हो सकते हैं जहाँ बहुमत वाला गुट लगातार एेसे फ़ैसले लागू करता रहता है जिनमें अल्पसंख्यकों की सहमति नहीं होती और उनका नुकसान होता है। जैसा कि इस चित्रकथा-पट्ट से पता चलता है,बहुमत की निरंकुशता का खतरा हर समाज में बना रहता है।संविधान में दिए गए नियमों से इस बात का खयाल रखा जाता है कि अल्पसंख्यकों को किसी एेसी चीज़ से वंचित न किया जाए जो बहुसंख्यकों के लिए सामान्य रूप से उपलब्ध है। अल्पसंख्यकों पर बहुसंख्यकों की इस निरंकुशता या दबदबे पर प्रतिबंध लगाना भी संविधान का महत्त्वपूर्ण कार्य है। यह दबदबा एक समुदाय द्वारा दूसरे समुदाय के ऊपर भी हो सकता है जिसे अंतर-सामुदायिक (Inter-community) वर्चस्व कहते हैं, या फिर एक ही समुदाय के भीतर कुछ लोग दूसरों को दबा सकते हैं, जिसे अंत:सामुदायिक (Intra-community) वर्चस्व कहते हैं।

उपरोक्त चित्रकथा-पट्ट में कौन लोग अल्पसंख्या में हैं? बहुसंख्यक गुट द्वारा लिए गए फ़ैसलों से यह अल्पसंख्यक गुट किस तरह दबाया जा रहा है?

संविधानक्यों होना चाहिए – इसका तीसरा महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि हम खुद को अपने आप से बचा सकें। यह बात सुनने में जरा अजीब लगती है। असल में इसका मतलब यह है कि कई बार हम किसी मुद्दे पर बहुत तीखे ढंग से सोचने लगते हैं। एेसे विचार हमारे व्यापक हितों के लिए नुकसानदेह हो सकते हैं। संविधान हमें एेसी भावनाओं से बचाने में मदद करता है। इसे समझने के लिए नीचे के चित्रकथा-पट्ट को देखिए।

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संविधानहमें एेसे फ़ैसले लेने से भी रोकता है जिनसे उन बड़े सिद्धांतों को ठेस पहुँच सकती है जिनमें देश आस्था रखता है। उदाहरण के तौर पर हो सकता है कि लोकतंत्र को मानने वाले अधिकांश लोग गंभीरता से महसूस करने लगें कि दलगत राजनीति यानी पार्टी पॉलिटिक्स बहुत विकृत हो चुकी है, इसलिए अब चीज़ों को दुरुस्त करने के लिए किसी तानाशाह को ही शासन सौंप देना चाहिए या फ़ौज़ी शासन हो जाना चाहिए। इस भावना में बह कर लोग बहुधा इस बात को महसूस नहीं कर पाएँगे कि लंबे दौर में तानाशाही शासन तो उनके सारे हितों को तहस-नहस कर देगा। एक अच्छा संविधान देश की बुनियादी संरचना को इस तरह के उन्माद से बचाता है। यह एेसे प्रावधानों को आसानी से पलटने नहीं देता जिनके ज़रिए नागरिकों को अधिकारों का आश्वासन मिलता है और उनकी स्वतंत्रता की रक्षा होती है

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शबनम इस बात पर क्यों खुश हो रही है कि उसने टी.वी. नहीं देखा? एेसी स्थिति में आप क्या करते?

इस चर्चा से आप समझ जाएँगे कि संविधान किसी भी लोकतांत्रिक समाज में कितनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

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आइए अब भारतीय संविधान के कुछ मुख्य आयामों का अध्ययन करें और इस बात को समझें कि उपरोक्त बिंदु कुछ खास आदर्शों और नियमों का रूप किस तरह ग्रहण करते हैं।

भारतीयसंविधान : मुख्य लक्षण

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संविधान सभा के सदस्यों के बीच एकता की एक ज़बरदस्त भावना थी। भावी संविधान के एक-एक प्रावधान पर जमकर चर्चा हुई और सभी लोग सहमति विकसित करने के बारे में गंभीर थे। उपरोक्त चित्र के मध्य में सरदार वल्लभभाई पटेल दिखाई दे रहे हैं जो संविधान सभा के एक महत्त्वपूर्ण सदस्य थे।

बीसवीं सदी तक आते-आते भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन कईदशक पुराना हो चुका था। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान राष्ट्रवादियों ने इस बात पर काफ़ी विचार किया था कि स्वतंत्र भारत किस तरह का होना चाहिए। ब्रिटिश शासन के अंतर्गत उन्हें जिन नियमों को मानना पड़ता था वे उन्होंने खुद नहीं बनाए थे। औपनिवेशिक राज्य के लंबे अत्याचारी शासन ने भारतीयों के सामने इतना ज़रूर स्पष्ट कर दिया था कि स्वतंत्र भारत को एक लोकतांत्रिक देश होना चाहिए। उसमें प्रत्येक नागरिक को समान माना जाएगा और सभी को सरकार में हिस्सेदारी का अधिकार होगा। इसके बाद यह तय करना था कि भारत में लोकतांत्रिक सरकार का गठन कैसे किया जाए और उसके कामकाज के नियम क्या हों। यह काम किसी एक आदमी के वश का नहीं था। इसमें लगभग 300 लोगों ने योगदान दिया जो 1946 में गठित की गई संविधान सभा के सदस्य थे। भावी संविधान के निर्माण के लिए अगले तीन साल तक संविधान सभा की बैठकें होती रहीं।

संविधानसभा के इन सदस्यों के सामने एक बड़ी ज़िम्मेदारी थी। हमारे देश में कई समुदाय थे। उनकी न तो भाषा एक थी, न एक धर्म था और न ही एक जैसी संस्कृति थी। वैसे भी जब संविधान लिखा जा रहा था, उस समय हमारा देश भारी उथल-पुथल से गुज़र रहा था। भारत और पाकिस्तान का बँटवारा लगभग तय हो चुका था। कुछ रियासतें तय नहीं कर पा रही थीं कि उनका भविष्य क्या होगा, वे किधर जाएँगी। जनता की सामाजिक-आर्थिक स्थिति भयानक थी। संविधान सभा के सदस्यों के सामने ये सारे मुद्दे थे। लेकिन उन्होंने अपने इस एेतिहासिक दायित्व को बहादुरी से पूरा किया और देश को एक एेसा कल्पनाशील दस्तावेज़ दिया जिसमें राष्ट्रीय एकता को बनाए रखते हुए विविधता के प्रति गहरा सम्मान दिखाई देता है। उन्होंने जो दस्तावेज़ तैयार किया उसमें सामाजिक-आर्थिक सुधारों के ज़रिए गरीबी उन्मूलन और जनप्रतिनिधियों के चयन में जनता की महत्त्वपूर्ण भूमिका पर काफ़ी ज़ोर दिया गया है।

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बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर को भारतीय संविधान का जनक कहा जाता है।

डॉ. अम्बेडकर का विश्वास था कि संविधान सभा में उनकी हिस्सेदारी से अनुसूचित जातियों को संविधान के प्रारूप में कुछ सुरक्षात्मक व्यवस्था मिली है। लेकिन उन्होंने यह भी कहा था कि भले ही कानून बन गए हों, अभी भी अनुसूचित जातियाँ बेफ़िक्र नहीं हो सकतीं क्योंकि इन कानूनों का संचालन ‘सवर्ण हिंदू अधिकारियों’ के हाथों में ही है। इसलिए उन्होंने अनुसूचित जातियों से आह्वान किया कि वे सरकार के अलावा लोक सेवाओं में भी बढ़-चढ़कर शामिल हों।

आगेके हिस्सों में भारतीय संविधान के कुछ मुख्य आयामों का उल्लेख किया गया है। इन बातों को पढ़ते हुए विविधता, एकता, सामाजिक-आर्थिक सुधार और प्रतिनिधित्व से संबंधित उपरोक्त चिंताओं को लगातार ध्यान में रखिए जिनसे इस दस्तावेज़ को लिखने वाले जूझ रहे थे। इसे समझने की कोशिश कीजिए कि उन्होंने स्वतंत्र भारत को एक शक्तिशाली लोकतांत्रिक समाज बनाने के उद्देश्य को पूरा करने के साथ इन चिंताओं को किस तरह हल किया।

1. संघवाद (Federalism)-इसका मतलब है देश में एक से ज़्यादा स्तर की सरकारों का होना। हमारे देश में राज्य स्तर पर भी सरकारें हैं और केंद्र स्तर पर भी। पंचायती राज व्यवस्था शासन का तीसरा स्तर है जिसके बारे में आप कक्षा 6 में पढ़ चुके हैं। कक्षा 7 की किताब में आपने राज्य सरकार के कामकाज को देखा था। इस साल हम केंद्र सरकार के बारे में ज़्यादा पढ़ेंगे।

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जब संविधान सभा ने सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के सिद्धांत को स्वीकृति दी तो सभा के सदस्य ए.के. अय्यर ने कहा था कि यह कदम "आम आदमी और लोकतांत्रिक शासन की सफलता में गहरी आस्था का द्योतक और इस विश्वास पर आधारित है कि वयस्क मताधिकार के ज़रिए लोकतांत्रिक सरकार की स्थापना ज्ञानोदय लाएगी। यह आम आदमी के कुशलक्षेम, जीवन स्तर, सुविधा और बेहतर जीवन स्थिति को प्रोत्साहन देगी।"
अॉस्टिन, जी. 1966, दि इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन : कॉर्नरस्टोन अॉफ़ ए नेशन, क्लेरेंडन प्रेस, अॉक्सफ़ोर्ड।

भारत में इतने सारे समुदायों की उपस्थिति का सीधा मतलब यह था कि यहाँ शासन की एक एेसी व्यवस्था विकसित करनी होगी जिसमें राजधानी दिल्ली में बैठे मुट्ठी भर लोग ही पूरे देश के फ़ैसले न लेने लगें। इसीलिए प्रांतीय स्तर पर भी सरकार की व्यवस्था की गई ताकि इलाकों के हिसाब से अलग फ़ैसले भी लिए जा सकें। भारत के सभी राज्यों को कुछ मुद्दों पर फ़ैसले लेने का स्वायत्त अधिकार है। राष्ट्रीय महत्त्व के सवालों पर सभी राज्यों को केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों को मानना पड़ता है। कार्यक्षेत्र की स्पष्टता के लिए संविधान में कुछ सूचियाँ दी गई हैं जिनमें बताया गया है कि कौन से स्तर की सरकार किन मुद्दों पर कानून बना सकती है। इसके साथ संविधान यह भी तय करता है कि प्रत्येक स्तर की सरकार अपने कार्यों के लिए पैसे का इंतज़ाम कहाँ से कर सकती है। संघवाद के अंतर्गत राज्य केवल केंद्रीय सरकार के प्रतिनिधि नहीं होते। उन्हें भी संविधान से ही अपनी ताकत और अधिकार मिलते हैं। भारत के सभी लोग इन सभी स्तरों की सरकारों द्वारा बनाए गए कानूनों और नीतियों के अंतर्गत आते हैं।

2. संसदीय शासन पद्धति- सरकार के सभी स्तरों पर प्रतिनिधियों का चुनाव लोग खुद करते हैं। कक्षा 7 की किताब के शुरू में कांता की कहानी दी गई थी जो वोट डालने के लिए कतार में खड़ी है। भारत का संविधान अपने सभी वयस्क नागरिकों को वोट डालने का अधिकार देता है। संविधान सभा के सदस्य जब संविधान की रचना कर रहे थे तो उन्हें लगा कि स्वतंत्रता संघर्ष ने भारतीय जनता को वयस्क मताधिकार का प्रयोग करने के योग्य बना दिया है। उन्हें विश्वास था कि इससे न केवल लोकतांत्रिक सोच व तौर-तरीकों को प्रोत्साहन मिलेगा, बल्कि जाति, वर्ग और औरत-मर्द के फ़र्क पर आधारित ऊँच-नीच की बेड़ियों को भी तोड़ा जा सकता है। सार्वभौमिक मताधिकार का मतलब है कि अपने प्रतिनिधियों के चुनाव में देश के सभी लोगों की सीधी भूमिका होती है। इसके अलावा हर व्यक्ति खुद चुनाव भी लड़ सकता है चाहे उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि कैसी भी क्यों न हो। ये प्रतिनिधि जनता के प्रति जवाबदेह होते हैं। लोकतांत्रिक कार्यपद्धति में प्रतिनिधित्व क्यों महत्त्वपूर्ण होता है, इसके बारे में आप इसी पुस्तक की दूसरी इकाई में और विस्तार से पढ़ेंगे।

नीचे चित्र में दर्शाया गया है कि लोग अपना वोट डालने के लिए कतार में खड़े हैं।

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3. शक्तियों का बँटवारा- संविधान के अनुसार सरकार के तीनअंग हैं – विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। विधायिका में हमारे निर्वाचित प्रतिनिधि होते हैं। कार्यपालिका एेसे लोगों का समूह है जो कानूनों को लागू करने और शासन चलाने का काम देखते हैं। न्यायालयों की व्यवस्था को न्यायपालिका कहा जाता है जिसके बारे में आप इस पुस्तक की इकाई 3 में पढ़ेंगे। सरकार की किसी भी शाखा द्वारा सत्ता के दुरुपयोग को रोकने के लिए प्रावधान किया गया है कि इन सभी अंगों की शक्तियाँ एक-दूसरे से अलग होंगी। शक्तियों के इस बँटवारे के आधार पर प्रत्येक अंग दूसरे अंग पर अंकुश रखता है और इस तरह तीनों अंगों के बीच सत्ता का संतुलन बना रहता है।

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संविधान सभा के सदस्यों को भय था कि कहीं कार्यपालिका इतनी ताकतवर न हो जाए कि विधायिका के प्रति अपने दायित्वों की उपेक्षा ही करने लगे। इस आशंका को ध्यान में रखते हुए सभा ने एेसे कई प्रावधानों को संविधान में शामिल किया जिनके ज़रिए शासन की कार्यकारी शाखा द्वारा की जाने वाली कार्रवाइयों को सीमित और नियंत्रित किया जा सके।

इस अध्याय में ‘राज्य’ शब्द का अकसर इस्तेमाल किया गया है। ध्यान रखें, इसका मतलब राज्य सरकारों से नहीं है। जब हम ‘राज्य’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं तो हम उसे ‘सरकार’ से भिन्न अर्थ में लेते हैं। ‘सरकार’ की ज़िम्मेदारी होती है कानून बनाना और लागू करना। लेकिन चुनावों के ज़रिए सरकार बदल सकती है। पर राज्य एक एेसी राजनीतिक संस्था होती है जो निश्चित भूभागमें रहने वाले संप्रभु लोगों का प्रतिनिधित्व करती है। इस आधार पर हम भारतीय राज्य, नेपाली राज्य आदि की बात कर सकते हैं। भारतीय राज्य की एक लोकतांत्रिक सरकार है। सरकार (या कार्यपालिका) राज्य का एक हिस्सा होती है। राज्य का मतलब सरकार से कहीं ज़्यादा व्यापक होता है। उसे सरकार के स्थान पर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।

अपने शिक्षक के साथ चर्चा करें कि राज्य और सरकार के बीच क्या फ़र्क होता है।

4. मौलिक अधिकार- मौलिक अधिकारों वाला खंड भारतीय संविधान की ‘अंतरात्मा’ भी कहलाता है। औपनिवेशिक शासन ने राष्ट्रवादियों के दिमाग में राज्य के प्रति संदेह का भाव पैदा कर दिया था। इसीलिए राष्ट्रवादी चाहते थे कि स्वतंत्र भारत में राज्य की सत्ता के दुरुपयोग से बचने के लिए कुछ लिखित अधिकार होने चाहिए। लिहाज़ा मौलिक अधिकार देश के सभी नागरिकों को राज्य कीसत्ता के मनमाने और निरंकुश इस्तेमाल से बचाते हैं। इस तरह संविधान राज्य और अन्य व्यक्तियों के समक्ष व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा करता है।

भारतीय संविधान में उल्लिखि मौलिक अधिकारों में से कुछ अधिकार-

1. समानता का अधिकार

कानून कीनज़र में सभी लोग समान हैं। इसका मतलब है कि सभी लोगों को देश का कानून बराबर सुरक्षा प्रदान करेगा। इस अधिकार में यह भी कहा गया है कि धर्म, जाति या लिंग के आधार पर किसी भी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता। खेल के मैदान, होटल, दुकान इत्यादि सार्वजनिक स्थानों पर सभी को बराबर पहुँच का अधिकार होगा। रोज़गार के मामले में राज्य किसी के साथ भेदभाव नहीं कर सकता। लेकिन इसके कुछ अपवाद हैं जिनके बारे में इसी किताब में हम आगे पढ़ेंगे। छुआछूत की प्रथा का भी उन्मूलन कर दिया गया है।

2. स्वतंत्रता का अधिकार

इस अधिकार के अंतर्गत अभिव्यक्ति और भाषण की स्वतंत्रता, सभा/संगठन बनाने की स्वतंत्रता, देश के किसी भी भाग में आने-जाने और रहने तथा कोई भी व्यवसाय, पेशा या कारोबार करने का अधिकार शामिल है।

3. शोषण के विरुद्ध अधिकार

संविधान में कहा गया है कि मानव व्यापार, जबरिया श्रम और 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को मज़दूरी पर रखना अपराध है।

4. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार

सभी नागरिकों को पूरी धार्मिक स्वतंत्रता दी गई है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छा का धर्म अपनाने, उसका प्रचार-प्रसार करने का अधिकार है।

5. सांस्कृतिकऔर शैक्षणिक अधिकार संविधान में कहा गया है कि धार्मिक या भाषाई, सभी अल्पसंख्यक समुदाय अपनी संस्कृति की रक्षा और विकास के लिए अपने-अपने शैक्षणिक संस्थान खोल सकते हैं।

6. संवैधानिक उपचार का अधिकार

यदि किसी नागरिक को लगता है कि राज्य द्वारा उसके किसी मौलिक अधिकार का उल्लंघन हुआ है तो इस अधिकार का सहारा लेकर वह अदालत में जा सकता है।

विभिन्नअल्पसंख्यक समुदाय भी चाहते थे कि संविधान में एेसे अधिकारों को शामिल किया जाए जो उनके समूह की रक्षा कर सकें। फलस्वरूप बहुसंख्यकों से अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा का आश्वासन भी संविधान में दिया गया है। इन मौलिक अधिकारों के बारे में डॉ. अम्बेडकर ने कहा था कि इनका दोहरा उद्देश्य है– पहला, हरेक नागरिक एेसी स्थिति में हो कि वह उन अधिकारों के लिए दावेदारी कर सकें और दूसरा, ये अधिकार हर उस सत्ता और संस्था के लिए बाध्यकारी हों जिसे कानून बनाने का अधिकार दिया गया है।

मौलिकअधिकारों के अलावा हमारे संविधान में एक खंड नीति– निर्देशक तत्त्वों का भी है। संविधान सभा के सदस्यों ने यह खंड इसलिए जोड़ा था ताकि और ज़्यादा सामाजिक व आर्थिक सुधार लाए जा सकें। वे चाहते थे कि स्वतंत्र भारतीय राज्य जनता की गरीबी दूर करने वाले कानून और नीतियाँ बनाते हुए इन सिद्धांतों को मार्गदर्शक के रूप में हमेशा अपने सामने रखे।

5.धर्मनिरपेक्षता- धर्मनिरपेक्ष राज्य वह होता है जिसमें राज्य अधिकृत रूप से किसी भी धर्म को राजकीय धर्म के रूप में बढ़ावा नहीं देता। इसके बारे में हम अगले अध्याय में और विस्तार से पढ़ेंगे।

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निम्नलिखित परिस्थितियों में कौन से मौलिक अधिकारों का उल्लघंन हो रहा है –

– यदि 13 साल का एक बच्चा कालीन के कारखाने में मज़दूरी करता है।

– यदि किसी राज्य का कोई नेता दूसरे राज्यों के लोगों को अपने राज्य में काम करने से रोकता है।

– यदि किसी जनसमूहको राजस्थान में तेलुगु माध्यम का स्कूल खोलने की अनुमति नहीं दी जाती है।

यदि सरकार सशस्त्र बलों में कार्यरत किसी अधिकारी को इसलिए पदोन्नति नहीं दे रही है क्योंकि वह अधिकारी महिला है।

अबआप इस बात को समझने लगे होंगे कि कभी-कभी देश का इतिहास यह तय कर देता है कि देश का संविधान कैसा होगा। संविधान उन आदर्शों को तय करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है जिन्हें हम अपने देश और अपने प्रतिनिधियों के ज़रिए साकार करना चाहते हैं। जिस तरह फुटबॉल के नियम बदलते ही खेल बदल जाता है, उसी तरह जिन देशों के संविधान में भारी बदलाव आ जाते हैं वहाँ देश का बुनियादी स्वरूप भी बदल जाता है। हम नेपाल में यह देख चुके हैं। वहाँ लोकतंत्र बनाने की ज़रूरत के साथ ही एक नए संविधान की ज़रूरत भी पैदा हो गई थी।

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ऊपरहमने भारतीय संविधान के जिन आयामों का ज़िक्र किया है वे कई बार काफ़ी जटिल दिखाई देते हैं और उन्हें समझने में मुश्किल भी महसूस होती है। लेकिन अभी आप इस बारे में ज़्यादा फ़िक्र न करें। इस पुस्तक के बाकी अध्यायों में और अगली कक्षाओं में भारतीय संविधान के इन सभी पहलुओं के बारे में आप लगातार सीखते जाएँगे। ठोस रूप से उनका अर्थ जान पाएँगे।

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उपरोक्त तस्वीरों में 24 जनवरी 1950 को संविधान सभा के विभिन्न सदस्य अपनी आखिरी बैठक में संविधान की एक प्रति पर हस्ताक्षर कर रहे हैं। सबसे ऊपर वाले चित्र में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू दस्तखत कर रहे हैं। दूसरे चित्र में संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद हैं। सबसे निचले चित्र में दाएँ से बाएँ क्रम में ये लोग दिखाई दे रहे हैं : श्री जयरामदास दौलतराम, खाद्य एवं कृषि मंत्री; राजकुमारी अमृत कौर, स्वास्थ्य मंत्री; डॉ. जॉन मथाई, वित्त मंत्री; सरदार वल्लभभाई पटेल, उपप्रधानमंत्री तथा उनके पीछे श्री जगजीवन राम, श्रम मंत्री खड़े हैं।

संविधानमें मूल कर्त्तव्यों का भी उल्लेख किया गया है। अपने शिक्षक की सहायता से पता लगाएँ कि ये कर्त्तव्य कौन से हैं और लोकतंत्र में नागरिकों द्वारा इन कर्त्तव्यों का पालन करना क्यों महत्त्वपूर्ण है?

ग्यारह मौलिक कर्तव्यों में से प्रत्येक से संबंधित रेखाचित्र, तस्वीरें बनाएं अथवा उन पर कविताएं, गीत लिखें तथा कक्षा में इन पर चर्चा करें।

अभ्यास

1. किसी लोकतांत्रिक देश को संविधान की ज़रूरत क्यों पड़ती है?

2. नीचे दिए गए दो दस्तावेज़ों के हिस्सों को देखिए। पहला कॉलम 1990 का नेपाल के संविधान का है। दूसरा कॉलम नेपाल के ताज़ा संविधान में से लिया गया है।

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नेपाल के इन दोनों संविधानों में ‘कार्यकारी शक्ति’ के उपयोग में क्या फ़र्क दिखाई देता है? इस बात को ध्यान में रखते हुए क्या आपको लगता है कि नेपाल को एक नए संविधान की ज़रूरत है? क्यों?

3. अगर निर्वाचित प्रतिनिधियों कीशक्ति पर कोई अंकुश न होता तो क्या होता?

4. निम्नलिखित स्थितियोंमें अल्पसंख्यक कौन हैं?इन स्थितियों में अल्पसंख्यकों के विचारों का सम्मान करना क्यों महत्त्वपूर्ण है। इसका एक-एक कारण बताइए।

(क) एक स्कूल में 30 शिक्षक हैं और उनमें से 20 पुरुष हैं।

(ख) एक शहर में 5 प्रतिशतलोग बौद्ध धर्म को मानते हैं।

(ग) एक कारखाने के भोजनालय में 80 प्रतिशत कर्मचारी शाकाहारी हैं।

(घ) 50 विद्यार्थियों की कक्षा में 40 विद्यार्थी संपन्न परिवारों से हैं।

5. नीचे दिए गए बाएँ कॉलम में भारतीय संविधान के मुख्य आयामों की सूची दी गई है। दूसरे कॉलम में प्रत्येक आयाम के सामने दो वाक्यों में लिखिए कि आपकी राय में यह आयाम क्यों महत्त्वपूर्ण है-

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6. उन भारतीय राज्यों के नाम लिखिए जिनकी सीमाएँ निम्नलिखित पड़ोसी देशों से लगती हैं।

(क) बांग्लादेश

(ख) भूटान

(ग) नेपाल

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शब्द संकलन

मनमानापन-जब सब कुछ किसी के व्यक्तिगत फ़ैसलों या पसंद-नापसंद से चलने लगता है तो उसे मनमानापन कहा जाता है। जहाँ नियम तय नहीं किए गए हों या जहाँ फैसलों का कोई आधार नहीं है, उसे ही मनमाना कहा जा सकता है।

आदर्श-जब कोई लक्ष्य या सिद्धांत अपने सबसे शुद्ध या सर्वश्रेष्ठ रूप में होता है तो उसे आदर्श कहा जाता है।

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन-भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का उदय उन्नीसवीं सदी में हुआ था। इस आंदोलन में हज़ारों मर्द-औरत ब्रिटिश शासन से लोहा लेने के लिए एकजुट हो गए थे। यह आंदोलन 1947 में भारत की आज़ादी में परिणत हुआ। इसी वर्ष की इतिहास की पाठ्यपुस्तक में इस आंदोलन को आप और अच्छी तरह से जानेंगे।

राज्य व्यवस्था (Polity)-इसका आशय एक एेसे समाज से है जिसकी राजनीतिक संरचना व्यवस्थित है। भारत एक लोकतांत्रिक राज्यव्यवस्था है।

संप्रभु-इस अध्याय के संदर्भ में स्वतंत्र जनता को संप्रभु कहा गया है।

मानव व्यापार-राष्ट्रीय सीमाओं के आर-पार विभिन्न चीज़ों की ग़ैरकानूनी खरीद-बिक्री को अवैध व्यापार कहा जाता है। इस अध्याय में जिन मौलिक अधिकारों की चर्चा की गई है, उनके संबंध में अवैध व्यापार का मतलब औरतों और बच्चों की ग़ैरकानूनी ख़रीद-फ़रोख़्त से है जिसे मानव व्यापार कहा जाता है।

निरंकुशता-इसका मतलब सत्ता या अधिकारों के क्रूर एवं अन्यायपूर्ण इस्तेमाल से है।