अध्याय 4

कानूनों की समझ

आप कुछ कानूनों से परिचित होंगे। शायद आपको शादी की उम्र सीमा या मताधिकार की उम्र सीमा का पता होगा। संभव है आप संपत्ति को खरीदने-बेचने के कानूनों को भी जानते हों। अभी तक आप यह जान चुके हैं कि कानून बनाने का ज़िम्मा संसद का होता है। क्या ये कानून सभी पर लागू होते हैं? नए कानून किस तरह अस्तित्व में आते हैं? क्या कोई कानून अलोकप्रिय या विवादास्पद भी होता है? नागरिक के नाते हमें एेसी परिस्थितियों में क्या करना चाहिए?

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क्या कानून सब पर लागू होते हैं?

इस स्थिति को पढ़ें और उसके नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर दें-

एक सरकारी अधिकारी के बेटे को ज़िला अदालत ने 10 साल की सज़ा सुनाई है। इस वज़ह से वह सरकारी अधिकारी अपने बेटे को भाग निकलने में मदद करता है।

क्या आपको लगता है कि उस सरकारी अधिकारी ने सही काम किया? क्या उसके बेटे को केवल इसलिए कानून से माफ़ी मिल जानी चाहिए कि उसका बाप आर्थिक और राजनीतिक रूप से बहुत ताकतवर है?

यह सीधे-सीधे कानून के उल्लंघन का मामला है। जैसा कि आप इकाई एक में पढ़ चुके हैं, राष्ट्रवादियों के बीच इस बात पर पूरी सहमति थी कि स्वतंत्र भारत में सत्ता के मनमाने इस्तेमाल की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। इसीलिए उन्होंने संविधान में कई एेसे प्रावधान जोड़े जो कानून पर आधारित शासन की स्थापना के लिए ज़रूरी थे। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण प्रावधान यह था कि स्वतंत्र भारत में सभी लोग कानून की नज़र में बराबर होंगे।

हमारा कानून धर्म, जाति और लिंग के आधार पर लोगों के बीच कोई भेदभाव नहीं करता। कानून के शासन का मतलब है कि सभी कानून देश के सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू होते हैं। कानून से ऊपर कोई व्यक्ति नहीं है। चाहे वह सरकारी अधिकारी हो या धन्नासेठ हो और यहाँ तक कि राष्ट्रपति ही क्यों न हो। किसी भी अपराध या कानून के उल्लंघन की एक निश्चित सज़ा होती है। सज़ा तक पहुँचने की भी एक तय प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति का अपराध साबित किया जाता है। लेकिन क्या हमेशा से एेसा ही था?

प्राचीन भारत में असंख्य स्थानीय कानून थे। अकसर एक जैसे मामले में कई तरह के स्थानीय कानून लागू होते थे। विभिन्न समुदाय इन कानूनों को अपने अधिकार क्षेत्र में अपने हिसाब से लागू करने के लिए आज़ाद थे। कुछ मामलों में जाति के आधार पर एक ही अपराध के लिए अलग-अलग व्यक्ति को अलग-अलग सज़ा दी जाती थी। जैसे, निचली मानी जाने वाली जाति के अपराधी को ज़्यादा सज़ा दी जाती थी। औपनिवेशिक शासन के दौरान कानून पर आधारित व्यवस्था जैसे-जैसे परिपक्व होती गई, जाति के आधार पर सज़ा देने में भेदभाव का यह चलन खत्म होने लगा।

बहुत सारे लोग मानते हैं कि हमारे देश में कानून के शासन की शुरुआत अंग्रेज़ों ने की थी। इतिहासकारों में इस बात पर काफ़ी विवाद रहा है। इसके कई कारण हैं। एक कारण तो यह है कि औपनिवेशिक कानून मनमानेपन पर आधारित था। दूसरी वज़ह यह बताई जाती है कि ब्रिटिश भारत मेें कानूनी मामलों के विकास में भारतीय राष्ट्रवादियों ने एक अहम भूमिका निभाई थी।1870 का राजद्रोह एक्टअंग्रेज़ी शासन के मनमानेपन की मिसाल था। इस कानून में राजद्रोह की परिभाषा बहुत व्यापक थी। इसके मुताबिक अगर कोई भी व्यक्ति ब्रिटिश सरकार का विरोध या आलोचना करता था तो उसे मुकदमा चलाए बिना ही गिरफ़्तार किया जा सकता था।

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रॉलट एक्ट अंग्रे\ज़ों के मनमानेपन का एक और उदाहरण था। इस कानून के \ज़रिए ब्रिटिश सरकार बिना मुकदमा चलाए लोगों को कारावास में डाल सकती थी। महात्मा गाँधी सहित सभी भारतीय राष्ट्रवादी नेता रॉलट एक्ट के सख्त खिला\फ़ थे। भारतीय विरोध के बावजूद 10 मार्च 1919 से रॉलट एक्ट को लागू कर दिया गया। पंजाब में इस कानून का भारी पैमाने पर विरोध होता रहा। इसी क्रम में 10 अप्रैल को डॉ. सत्यपाल और डॉ. सै\फ़ुद्दीन किचलू को गिर\फ़्तार कर लिया गया। इन नेताओं की गिर\फ़्तारियों के विरोध में 13 अप्रैल को अमृतसर के जलियाँवाला बाग में एक सभा का आयोजन किया गया। जिस समय यह सभा चल रही थी उसी समय जनरल डायर ब्रिटिश \फ़ौ\ज़ी टुक\ड़ियों के साथ बाग में दाखिल हुआ। उसने बाहर निकलने का रास्ता बंद करके बिना चेतावनी दिए लोगों पर अंधाधुंध गोलियाँ चलवा दीं। इस हत्याकांड में कई सौ लोग मारे गए और असंख्य जख्मी हुए। मरने और घायल होने वालों में बहुत सारी औरतें और बच्चे भी थे। इस पेंटिंग में जलियाँवाला बाग जनसंहार के समय हुई गोलीबारी का दृश्य दिखाया गया है।

भारतीय राष्ट्रवादी अंग्रेज़ों द्वारा सत्ता के इस मनमाने इस्तेमाल का विरोध और उसकी आलोचना करते थे। अपनी बातों को मनवाने के लिए उन्होंने संघर्ष शुरू कर दिया। यह समानता का संघर्ष था। उनके लिए कानून का मतलब एेसे नियम नहीं थे जिनका पालन करना उनकी मजबूरी हो। वे कानून को उससे अलग एेसी व्यवस्था के रूप में देखना चाहते थे जो न्याय के विचार पर आधारित हों। उन्नीसवीं सदी के आखिर तक भारत में कानूनी पेशा भी उभरने लगा था। कानूनी पेशे में लगे भारतीयों ने माँग की कि औपनिवेशिक अदालतों में उन्हें सम्मान की नज़र से देखा जाए। एेसे भारतीय कानून विशेषज्ञ अपने देश के लोगों के अधिकारों की हिफाजत के लिए कानून का इस्तेमाल करने लगे। भारतीय न्यायाधीश भी फ़ैसले लेने में पहले से ज़्यादा भूमिका निभाने लगे थे। इस प्रकार औपनिवेशिक शासन के दौरान कानून केशासन के विकासक्रम मेंयहाँ के लोग भी कई तरह से अपना योगदान दे रहे थे।

इस किताब में मनमाना शब्द का इस्तेमाल पीछे भी आ चुका है। अध्याय 1 के शब्द संकलन में आप इसका मतलब पढ़ चुके हैं। अब एक कारण बताइए कि आप 1870 के राजद्रोह कानून को मनमाना क्यों मानते हैं। 1870 का राजद्रोह कानून किस प्रकार कानून के शासन का उल्लंघन करता है?

संविधान को स्वीकृति मिलने के बाद यह दस्तावेज़ एक एेसी आधारशिला बन गया जिसके आधार पर हमारे प्रतिनिधि देश के लिए कानून बनाने लगे। हर साल हमारे प्रतिनिधि कई नए कानून बनाते हैं और कई पुराने कानूनों में संशोधन करते हैं। कक्षा 6 की पुस्तक में आपने 2005 के हिंदू उत्तराधिकार संशोधन कानून के बारे में पढ़ा होगा। इस नए कानून के मुताबिक बेटे, बेटियाँ और उनकी माँ, तीनों को परिवार की संपत्ति में बराबर हिस्सा मिल सकता है। इसी प्रकार प्रदूषण को नियंत्रित करने और रोज़गार मुहैया कराने के लिए भी नए कानून बनाए गए हैं। लोग इस निर्णय पर कैसे पहुँचते हैं कि एक नया कानून ज़रूरी है? वे कानून का प्रस्ताव किस तरह पेश करते हैं? इनके बारे में आप अगले हिस्से में पढ़ेंगे।

नए कानून किस तरह बनते हैं?

जब परिवार का कोई पुरुष सदस्य (आमतौर पर पति) घर की किसी औरत (आमतौर पर पत्नी) के साथ मारपीट करता है, उसे चोट पहुँचाता है, या मारपीट अथवा चोट की धमकी देता है तो सामान्यतः इसे घरेलू हिंसा कहा जाता है। औरत को यह नुकसान शारीरिक मारपीट या भावनात्मक शोषण के कारण पहुँच सकता है। यह शोषण मौखिक, यौन या फिर आर्थिक शोषण भी हो सकता है। घरेलू हिंसा कानून, 2005 में महिलाओं की सुरक्षा की परिभाषा ने ‘घरेलू’ शब्द की समझ को और अधिक व्यापक बना दिया है। अब एेसी महिलाएँ भी घरेलू दायरे का हिस्सा मानी जाएँगी जो हिंसा करने वाले पुरुष के साथ एक ही मकान में ‘रहती हैं’ या ‘रह चुकी’ हैं।

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सतत विकास लक्ष्य 5: लैंगिक समानता

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कानून बनाने में संसद की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। यह प्रक्रिया कई तरह से आगे बढ़ती है। आमतौर पर सबसे पहले समाज के विभिन्न समूह ही किसी खास कानून के लिए आवाज़ उठाते हैं। यह संसद की ज़िम्मेदारी है कि वह लोगों के सामने आ रही समस्याओं के प्रति संवेदनशील हो। आइए देखें कि घरेलू हिंसा का सवाल किस तरह संसद के सामने आया और घरेलू हिंसा की रोकथाम पर कानून बनने की प्रक्रिया क्या थी।

जब परिवार का कोई पुरुष सदस्य (आमतौर पर पति) घर की किसी औरत (आमतौर पर पत्नी) के साथ मारपीट करता है, उसे चोट पहुँचाता है, या मारपीट अथवा चोट की धमकी देता है तो सामान्यतः इसे घरेलू हिंसा कहा जाता है। औरत को यह नुकसान शारीरिक मारपीट या भावनात्मक शोषण के कारण पहुँच सकता है। यह शोषण मौखिक, यौन या फिर आर्थिक शोषण भी हो सकता है। घरेलू हिंसा कानून, 2005 में महिलाओं की सुरक्षा की परिभाषा ने ‘घरेलू’ शब्द की समझ को और अधिक व्यापक बना दिया है। अब एेसी महिलाएँ भी घरेलू दायरे का हिस्सा मानी जाएँगी जो हिंसा करने वाले पुरुष के साथ एक ही मकान में ‘रहती हैं’ या ‘रह चुकी’ हैं।

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घरेलू हिंसा’ से आप क्या समझते हैं? हिंसा की शिकार महिलाओं को नए कानून से कौन से दो मुख्य अधिकार प्राप्त हुए हैं?

क्या आप एक एेसी प्रक्रिया बता सकते हैं जिसका इस्तेमाल इस कानून की ज़रूरत के बारे में लोगों को अवगत कराने के लिए किया गया हो?

उपरोक्त चित्रकथा-पट्ट को पढ़कर बताइए कि लोगों ने कौन से दो तरीकों से संसद पर दबाव बनाया?

बगल में दिए गए पोस्टर के ‘बराबरी के रिश्ते हिंसा से मुक्त’ वाक्य खंड से आप क्या समझते हैं?

जिन औरतों के साथ हिंसा या दुराचार होता है उन्हें आमतौर पर पीड़ित माना जाता है। इन हालात से उबरने के लिए औरतें तरह-तरह से संघर्ष करती हैं। इसलिए उन्हें पीड़ित की बजाय ‘सरवाइवर’ कहना ज़्यादा बेहतर है। इस अंग्रेज़ी शब्द का अर्थ है जो बचा रहे।

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इस उदाहरण से साफ़ हो जाता है कि नागरिकों की भूमिका कानून बनाने में कितनी अहम है। वे जनता की चिंताओं को कानून के दायरे में लाने के लिए संसद की मदद कर सकते हैं। इस प्रक्रिया के हर चरण में नागरिकों की आवाज़ बहुत मायने रखती है। यह आवाज़ टेलीविजन रिपोर्टों, अखबारों के संपादकीयों, रेडियो प्रसारणों और आम सभाओं के ज़रिए सुनी और व्यक्त की जा सकती है। इन सारे संचार माध्यमों के ज़रिए संसद का काम ठोस और पारदर्शी तरीके से जनता के सामने आता है।

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जैसा कि आपने कानून के शासन पर केंद्रित पिछले भाग में पढ़ा है, भारतीय राष्ट्रवादी खेमा अंग्रेज़ों द्वारा थोपे जा रहे मनमाने और दमनकारी कानूनों का विरोध व उनकी आलोचना करता था। इतिहास में हमें एेसे बहुत सारे लोग और समुदाय दिखाई देते हैं जिन्होंने अन्यायपूर्ण कानूनों को खत्म करवाने के लिए संघर्ष किए हैं। कक्षा 7 की पुस्तक में आपने पढ़ा था कि रोज़ा पार्क्स नामक अप्रुीकी-अमेरिकी महिला ने 1 दिसंबर 1955 को एक श्वेत व्यक्ति के लिए बस में अपनी सीट छोड़ने से इनकार कर दिया था। रोज़ा पार्क्स उस कानून का विरोध कर रही थीं जो सभी सार्वजनिक स्थानों पर श्वेत नागरिकों और अप्रुीकी-अमेरिकी नागरिकों के लिए अलग-अलग दायरे तय करता था। यहाँ तक कि सड़कों पर भी दोनों समुदायों की जगह अलग-अलग होती थी। रोज़ा पार्क्स का यह इनकार एक एेतिहासिक घटना थी। इसी के बाद वहाँ नागरिक अधिकार आंदोलन शुरू हुआ जिसके फलस्वरूप 1964 में नागरिक अधिकार कानून पारित किया गया। इस कानून के ज़रिए संयुक्त राज्य अमेरिका में नस्ल, धर्म या राष्ट्रीयता के आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव को ग़ैर-कानूनी घोषित कर दिया गया। उपरोक्त चित्र में रोज़ा पार्क्स बस में यात्रा करती हुई दिखाई दे रही हैं।

अलोकप्रिय और विवादास्पद कानून

आइए अब एक और स्थिति पर विचार करें। कई बार संसद एक एेसा कानून पारित कर देती है जो बेहद अलोकप्रिय साबित होता है। एेसा कानून संवैधानिक रूप से वैध होने के कारण कानूनन सही हो सकता है। फिर भी वह लोगों को रास नहीं आता क्योंकि उन्हें लगता है कि उसके पीछे नीयत सही नहींथी। इसीलिए लोग उसकी आलोचना करसकते हैं, उसके खिलाफ़ जनसभाएँ कर सकते हैं, अखबारों में लिख सकते हैं,टीवी चैनलों में रिपोर्ट भेज सकते हैं। हमारे जैसे लोकतंत्र में आम नागरिक संसद द्वारा बनाए जाने वाले दमनकारी कानूनों के बारेमें अपनी असहमति व्यक्त कर सकते हैं। जब बहुत सारे लोग यह मानने लगते हैं कि गलत कानून पारित हो गया है तो संसद के ऊपर भी उस कानून पर दोबारा विचार करने का दबाव पड़ता है।

उदाहरण के लिए, नगरपालिका की सीमाओं के भीतर जगह के इस्तेमाल से संबंधित विभिन्न नगरपालिका कानूनों में पटरी पर दुकान लगाने और फेरी लगाने को गैरकानूनी घोषित किया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि सार्वजनिक स्थानों को साफ़-सुथरा और खुला रखने के लिए कुछ कानून ज़रूरी हैं। तभी लोग आसानी से फुटपाथों पर चल पाएँगे। लेकिन हम इस बात को भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते कि पटरी वाले एवं फेरी वाले किसी भी बड़े शहर में रहने वाले लाखों लोगों को ज़रूरी चीज़ें और सेवाएँ बहुत सस्ती कीमत पर और कुशलतापूर्वक पहुँचाते हैं। इसी से उनकी रोज़ी-रोटी भी चलती है। लिहाज़ा अगर कानून किसी एक समूह की हिमायत करता है और दूसरे समूह की उपेक्षा करता है तो उस पर विवाद खड़ा होगा और टकराव की स्थिति पैदा हो जाएगी। जो लोग सोचते हैं कि संबंधित कानून सही नहीं है, वे इस मुद्दे पर फ़ैसले के लिए अदालत की शरण में जा सकते हैं। यदि अदालत को एेसा लगता है कि वह कानून संविधान के विरुद्ध है तो वह उसमें संशोधन कर सकती है या उसे रद्द कर सकती है।

एक सप्ताह तक अखबार पढ़ें या टेलीविजन पर खबरें देखें और पता लगाएँ कि क्या कोई एेसा अलोकप्रिय कानून है जिसका भारत या कहीं और के लोग विरोध कर रहे हैं।

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ऊपर दी गई तस्वीरों में अन्यायपूर्ण कानूनों के विरुद्ध के कुछ अन्य तरीके भी दिखाए गए हैं।

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हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि नागरिक के रूप में हमारी भूमिका प्रतिनिधियों के चुनाव के साथ खत्म नहीं होती। इसके बाद हम अखबारों और अन्य संचार माध्यमों के ज़रिए इस बात पर नज़र रखते हैं कि हमारे सांसद क्या कर रहे हैं। अगर हमें लगता है कि वे सही काम नहीं कर रहे हैं तो हम उनकी आलोचना करते हैं। इस प्रकार हमें इस बात को सदा ध्यान में रखना चाहिए कि लोगों की जितनी हिस्सेदारी होगी और जितने उत्साह से वे जुड़ेंगे, उतना ही संसद को अपना काम सही ढंग से करने में मदद मिलेगी।

अभ्यास

1.‘कानून का शासन’ पद से आप क्या समझते हैं? अपने शब्दों में लिखिए। अपना जवाब देते हुए कानून के उल्लंघन का कोई वास्तविक या काल्पनिक उदाहरण दीजिए।
2.इतिहासकार इस दावे को गलत ठहराते हैं कि भारत में कानून का शासन अंग्रेज़ों ने शुरू किया था। इसके कारणों में से दो कारण बताइए।
3.घरेलू हिंसा पर नया कानून किस तरह बना, महिला संगठनों ने इस प्रक्रिया में अलग-अलग तरीके से क्या भूमिका निभाई, उसे अपने शब्दों में लिखिए।
4.अपने शब्दों में लिखिए कि इस अध्याय में आए निम्नलिखित वाक्य (पृष्ठ 44-45) से आप क्या समझते हैंः अपनी बातों को मनवाने के लिए उन्होंने संघर्ष शुरू कर दिया। यह समानता का संघर्ष था। उनके लिए कानून का मतलब एेसे नियम नहीं थे जिनका पालन करना उनकी मजबूरी हो। वे कानून को उससे अलग एेसी व्यवस्था के रूप में देखना चाहते थे जो न्याय के विचार पर आधारित हों।
शब्द संकलन

आलोचना-किसीव्यक्ति या चीज़ में कमियाँ निकालना या उसे अस्वीकार कर देना। इस अध्याय में आलोचना शब्द का इस्तेमाल सरकार के कामकाज पर नागरिकों की ओर से होने वाली आलोचना के लिए किया गया है।

विकासक्रम-सरलसे जटिल रूप तक विकास की प्रक्रिया को विकासक्रम कहा जाता है। आमतौर पर इस शब्द का इस्तेमाल पौधों या पशुओं की किसी प्रजाति के विकास का वर्णन करने के लिए किया जाता है। इस अध्याय में विकासक्रम का मतलब इस बात से है कि महिलाओं को घरेलू हिंसा से सुरक्षा प्रदान करने का विचार किस तरह एक अखिल भारतीय कानून के रूप में विकसित हुआ।

राजद्रोह-जबसरकार को एेसा लगता है कि उसके खिलाफ़ प्रतिरोध पैदा हो रहा है या विद्रोह किया जा रहा है तो उसे राजद्रोह कहा जाता है। एेसी स्थिति में सरकार को किसी की गिरफ़्तारी के लिए ठोस सुबूत की ज़रूरत नहीं होती। 1870 के राजद्रोह एक्ट के अंतर्गत अंग्रेज़ सरकार राजद्रोह की बहुत व्यापक परिभाषा का इस्तेमाल करती थी। लिहाजा वे इस कानून के तहत किसी भी व्यक्ति को गिरफ़्तार करके जेल में डाल सकते थे। राष्ट्रवादी नेता इस कानून को मनमाना मानते थे क्योंकि बहुत सारे लोगों को गिरफ़्तारी से पहले वज़ह भी नहीं बताई जाती थी। उन्हें बिना मुकदमा चलाए ही जेल में डाल दिया जाता था।

दमनकारी-स्वतंत्रऔर स्वाभाविक विकास या अभिव्यक्ति को रोकने के लिए सख्ती से नियंत्रण स्थापित करना। इस अध्याय में उन कानूनों को दमनकारी कहा गया है जो लोगों को बहुत निर्मम ढंग से नियंत्रित करते हैं और उन्हें सभा करने व अपनी बात कहने सहित मौलिक अधिकारों का इस्तेमाल करने से भी रोक देते हैं।