Vasant Bhag 3 Chapter-10

10

कामचोर


बड़ी देर के वाद-विवाद के बाद यह तय हुआ कि सचमुच नौकरों को निकाल दिया जाए। आखिर, ये मोटे-मोटे किस काम के हैं! हिलकर पानी नहीं पीते। इन्हें अपना काम खुद करने की आदत होनी चाहिए। कामचोर कहीं के!

‘‘तुम लोग कुछ नहीं। इतने सारे हो और सारा दिन ऊधम मचाने के सिवा कुछ नहीं करते।’’

और सचमुच हमें खयाल आया कि हम आखिर काम क्यों नहीं करते? हिलकर पानी पीने में अपना क्या खर्च होता है? इसलिए हमने तुरंत हिल-हिलाकर पानी पीना शुरू किया।


हिलने में धक्के भी लग जाते हैं और हम किसी के दबैल तो थे नहीं कि कोई धक्का दे, तो सह जाएँ। लीजिए, पानी के मटकों के पास ही घमासान युद्ध हो गया। सुराहियाँ उधर लुढ़कीं। मटके इधर गए। कपड़े भीगे, सो अलग।

‘यह भला काम करेंगे।’ अम्मा ने निश्चय किया।

‘‘करेेंगे कैसे नहीं! देखो जी! जो काम नहीं करेगा, उसे रात का खाना हरगिज नहीं मिलेगा। समझे।’’

यह लीजिए बिलकुल शाही फरमान जारी हो रहे हैं।

‘‘हम काम करने को तैयार हैं। काम बताए जाएँ,’’ हमने दुहाई दी।

‘‘बहुत-से काम हैं जो तुम कर सकते हो। मिसाल के लिए, यह दरी कितनी मैली हो रही है। आँगन में कितना कूड़ा पड़ा है। पेड़ों में पानी देना है और भाई मुफ्त तो यह काम करवाए नहीं जाएँगे। तुम सबको तनख्वाह भी मिलेगी।’’

अब्बा मियाँ ने कुछ काम बताए और दूसरे कामों का हवाला भी दिया–माली को तनख्वाह मिलती है। अगर सब बच्चे मिलकर पानी डालें, तो...

‘एे हे! खुदा के लिए नहीं। घर में बाढ़ आ जाएगी।’ अम्मा ने याचना की। फिर भी तनख्वाह के सपने देखते हुए हम लोग काम पर तुल गए।

एक दिन फर्शी दरी पर बहुत-से बच्चे जुट गए और चारों ओर से कोने पकड़कर झटकना शुरू किया। दो-चार ने लकड़ियाँ लेकर धुआँधार पिटाई शुरू कर दी।

सारा घर धूल से अट गया। खाँसते-खाँसते सब बेदम हो गए। सारी धूल जो दरी पर थी, जो फर्श पर थी, सबके सिरों पर जम गई। नाकों और आँखों में घुस गई। बुरा हाल हो गया सबका। हम लोगों को तुरंत आँगन में निकाला गया। वहाँ हम लोगों ने फौरन झाड़ू देने का फैसला किया।

झाड़ू क्योंकि एक थी और तनख्वाह लेनेवाले उम्मीदवार बहुत, इसलिए क्षण-भर में झाड़ू के पुर्जे उड़ गए। जितनी सींके जिसके हाथ पड़ीं, वह उनसे ही उलटे-सीधे हाथ मारने लगा। अम्मा ने सिर पीट लिया। भई, ये बुजुर्ग काम करने दें तो इंसान काम करे। जब ज़रा-ज़रा सी बात पर टोकने लगे तो बस, हो
चुका काम!

असल में झाड़ू देने से पहले ज़रा-सा पानी छिड़क लेना चाहिए। बस, यह खयाल आते ही तुरंत दरी पर पानी छिड़का गया। एक तो वैसे ही धूल से अटी हुई थी। पानी पड़ते ही सारी धूल कीचड़ बन गई।

अब सब आँगन से भी निकाले गए। तय हुआ कि पेड़ों को पानी दिया जाए। बस, सारे घर की बालटियाँ, लेाटे, तसले, भगोने, पतीलियाँ लूट ली गईं। जिन्हें ये चीजें भी न मिलीं, वे डोंगे-कटोरे और गिलास ही ले भागे।

अब सब लोग नल पर टूट पड़े। यहाँ भी वह घमासान मची कि क्या मजाल जो एक बूँद पानी भी किसी के बर्तन में आ सके। ठूसम-ठास! किसी बालटी पर पतीला और पतीले पर लोटा और भगोने और डोंगे। पहले तो धक्के चले। फिर कुहनियाँ और उसके बाद बरतन। फौरन बड़े भाइयों, बहनों, मामुओं और दमदार मौसियों, फूफियों की कुमक भेजी गई, फौज मैदान में हथियार फेंककर पीठ दिखा गई।

इस धींगामुश्ती में कुछ बच्चे कीचड़ में लथपथ हो गए जिन्हें नहलाकर कपड़े बदलवाने के लिए नौकरों की वर्तमान संख्या काफी नहीं थी। पास के बंगलों से नौकर आए और चार आना प्रति बच्चा के हिसाब से नहलवाए गए।

हम लोग कायल हो गए कि सचमुच यह सफ़ाई का काम अपने बस की बात नहीं और न पेड़ों की देखभाल हमसे हो सकती है। कम-से-कम मुर्गियाँ ही बंद कर दें।

बस, शाम ही से जो बाँस, छड़ी हाथ पड़ी, लेकर मुर्गियाँ हाँकने लगे। ‘चल दड़बे, दड़बे।’

पर साहब, मुर्गियों को भी किसी ने हमारे विरुद्ध भड़का रखा था। ऊट-पटाँग इधर-उधर कूदने लगीं। दो मुर्गियाँ खीर के प्यालों से जिन पर आया चाँदी के वर्क लगा रही थी, दौड़ती-फड़फड़ाती हुई निकल गईं।

तूफ़ान गुजरने के बाद पता चला कि प्याले खाली हैं और सारी खीर दीदी के कामदानी के दुपट्टे और ताजे धुले सिर पर लगी हुई है। एक बड़ा-सा मुर्गा अम्मा के खुले हुए पानदान में कूद पड़ा और कत्थे-चूने में लुथड़े हुए पंजे लेकर नानी अम्मा की सफ़ेद दूध जैसी चादर पर छापे मारता हुआ निकल गया।

एक मुर्गी दाल की पतीली में छपाक मारकर भागी और सीधी जाकर मोरी में इस तेज़ी से फिसली कि सारी कीचड़ मौसी जी के मुँह पर पड़ी जो बैठी हुई हाथ-मुँह धो रही थीं। इधर सारी मुर्गियाँ बेनकेल का ऊँट बनी चारों तरफ़ दौड़ रही थीं।

एक भी दड़बे में जाने को राजी न थी।

इधर, किसी को सूझी कि जो भेड़ें आई हुई हैं, लगे हाथों उन्हें भी दाना खिला दिया जाए।

दिन-भर की भूखी भेड़ें दाने का सूप देखकर जो सबकी सब झपटीं तो भागकर जाना कठिन हो गया। लश्टम-पश्टम तख्तों पर चढ़ गईं। पर भेड़-चाल मशहूर है। उनकी नज़र तो बस दाने के सूप पर जमी हुई थी। पलंगों को फलाँगती, बरतन लुढ़काती साथ-साथ चढ़ गईं।

तख्त पर बानी दीदी का दुपट्टा फैला हुआ था जिस पर गोखरी, चंपा और सलमा-सितारे रखकर बड़ी दीदी मुगलानी बुआ को कुछ बता रही थीं। भेड़ें बहुत निःसंकोच सबको रौंदती, मेंगनों का छिड़काव करती हुई दौड़ गईं।

जब तूफ़ान गुजर चुका तो एेसा लगा जैसे जर्मनी की सेना टैंकों और बमबारों सहित उधर से छापा मारकर गुजर गई हो। जहाँ-जहाँ से सूप गुजरा, भेड़ें शिकारी कुत्तों की तरह गंध सूँघती हुई हमला करती गईं।

हज्जन माँ एक पलंग पर दुपट्टे से मुँह ढाँके सो रही थीं। उन पर से जो भेड़ें दौड़ीं तो न जाने वह सपने में किन महलों की सैर कर रही थीं, दुपट्टे में उलझी हुई ‘मारो-मारो’ चीखने लगीं।

इतने में भेड़ें सूप को भूलकर तरकारीवाली की टोकरी पर टूट पड़ीं। वह दालान में बैठी मटर की फलियाँ तोल-तोल कर रसोइए को दे रही थी। वह अपनी तरकारी का बचाव करने के लिए सीना तान कर उठ गई। आपने कभी भेड़ों को मारा होगा, तो अच्छी तरह देखा होगा कि बस, एेसा लगता है जैसे रुई के तकिए को कूट रहे हों। भेड़ को चोट ही नहीं लगती। बिलकुल यह समझकर कि आप उससे मज़ाक कर रहे हैं। वह आप ही पर चढ़ बैठेगी। ज़रा-सी देर में भेड़ों ने तरकारी छिलकों समेत अपने पेट की कड़ाही में झौंक दी।

इधर यह प्रलय मची थी, उधर दूसरे बच्चे भी लापरवाह नहीं थे। इतनी बड़ी फौज थी-जिसे रात का खाना न मिलने की धमकी मिल चुकी थी। वे चार भैंसों का दूध दुहने पर जुट गए। धुली-बेधुली बालटी लेकर आठ हाथ चार थनों पर पिल पड़े। भैंस एकदम जैसे चारों पैर जोड़कर उठी और बालटी को लात मारकर दूर जा खड़ी हुई।

तय हुआ कि भैंस की अगाड़ी-पिछाड़ी बाँध दी जाए और फिर काबू में लाकर दूध दुह लिया जाए। बस, झूले की रस्सी उतारकर भैंस के पैर बाँध दिए गए। पिछले दो पैर चाचा जी की चारपाई के पायों से बाँध, अगले दो पैरों को बाँधने की कोशिश जारी थी कि भैंस चौकन्नी को गई। छूटकर जो भागी तो पहले चाचा जी समझे कि शायद कोई सपना देख रहे हैं। फिर जब चारपाई पानी के ड्रम से टकराई और पानी छलककर गिरा तो समझे कि आँधी-तूफ़ान में फँसे हैं। साथ में भूचाल भी आया हुआ है। फिर जल्दी ही उन्हें असली बात का पता चल गया और वह पलंग की दोनों पटियाँ पकड़े, बच्चों को छोड़ देनेवालों को बुरा-भला सुनाने लगे।

यहाँ बड़ा मज़ा आ रहा था। भैंस भागी जा रही थी और पीछे-पीछे चारपाई और उस पर बैठे हुए थे चाचा जी।

ओहो! एक भूल ही हो गई यानी बछड़ा तो खोला ही नहीं, इसलिए तत्काल बछड़ा भी खोल दिया गया।

तीर निशाने पर बैठा और बछड़े की ममता में व्याकुल होकर भैंस ने अपने खुरों को ब्रेक लगा दिए। बछड़ा तत्काल जुट गया। दुहने वाले गिलास-कटोरे लेकर लपके क्योंकि बालटी तो छपाक से गोबर में जा गिरी थी। बछड़ा फिर बागी हो गया।

कुछ दूध जमीन पर और कपड़ों पर गिरा। दो-चार धारें गिलास-कटोरों पर भी पड़ गईं। बाकी बछड़ा पी गया। यह सब कुछ, कुछ मिनट के तीन-चौथाई में हो गया।

घर में तूफ़ान उठ खड़ा हुआ। एेसा लगता था जैसे सारे घर में मुर्गियाँ, भेडें, टूटे हुए तसले, बालटियाँ, लोटे, कटोरे और बच्चे थे। बच्चे बाहर किए गए। मुर्गियाँ बाग में हँकाई गईं। मातम-सा मनाती तरकारी वाली के आँसू पोंछे गए और अम्मा आगरा जाने के लिए सामान बाँधने लगीं।

‘‘या तो बच्चा-राज कायम कर लो या मुझे ही रख लो। नहीं तो मैं चली मायके,’’ अम्मा ने चुनौती दे दी।

और अब्बा ने सबको कतार में खड़ा करके पूरी बटालियन का कोर्ट मार्शल कर दिया। ‘‘अगर किसी बच्चे ने घर की किसी चीज़ को हाथ लगाया तो बस, रात का खाना बंद हो जाएगा।’’

ये लीजिए! इन्हें किसी करवट शांति नहीं। हम लोगों ने भी निश्चय कर लिया कि अब चाहे कुछ भी हो जाए, हिलकर पानी भी नहीं पिएँगे।

–इस्मत चुगताई

प्रश्न-अभ्यास

कहानी से

1. कहानी में ‘मोटे-मोटे किस काम के हैं?’ किन के बारे में और क्यों कहा गया?

2. बच्चों के ऊधम मचाने के कारण घर की क्या दुर्दशा हुई?

3. "या तो बच्चाराज कायम कर लो या मुझे ही रख लो।" अम्मा ने कब कहा? और इसका परिणाम क्या हुआ?

4. ‘कामचोर’ कहानी क्या संदेश देती है?

5. क्या बच्चों ने उचित निर्णय लिया कि अब चाहे कुछ भी हो जाए, हिलकर पानी भी नहीं पिएँगे।

कहानी से आगे

1. घर के सामान्य काम हों या अपना निजी काम, प्रत्येक व्यक्ति को अपनी क्षमता के अनुरूप उन्हें करना आवश्यक क्यों है?

2. भरा-पूरा परिवार कैसे सुखद बन सकता है और कैसे दुखद? कामचोर कहानी के आधार पर निर्णय कीजिए।

3. बड़े होते बच्चे किस प्रकार माता-पिता के सहयोगी हो सकते हैं और किस प्रकार भार? कामचोर कहानी के आधार पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।

4. ‘कामचोर’ कहानी एकल परिवार की कहानी है या संयुक्त परिवार की? इन दोनों तरह के परिवारों में क्या-क्या अंतर होते हैं?

अनुमान और कल्पना

1. घरेलू नौकरों को हटाने की बात किन-किन परिस्थितियों में उठ सकती है? विचार कीजिए।

2. कहानी में एक समृद्ध परिवार के ऊधमी बच्चों का चित्रण है। आपके अनुमान से उनकी आदत क्यों बिगड़ी होगी? उन्हें ठीक ढंग से रहने के लिए आप क्या-क्या सुझाव देना चाहेंगे?

3. किसी सफल व्यक्ति की जीवनी से उसके विद्यार्थी जीवन की दिनचर्या के बारे में पढ़ें और सुव्यवस्थित कार्यशैली पर एक लेख लिखें।

भाषा की बात

"धुली-बेधुली बालटी लेकर आठ हाथ चार थनों पर पिल पड़े।" धुली शब्द से पहले ‘बे’ लगाकर बेधुली बना है। जिसका अर्थ है ‘बिना धुली’ ‘बे’ एक उपसर्ग है। ‘बे’ उपसर्ग से बननेवाले कुछ और शब्द हैं–

बेतुका, बेईमान, बेघर, बेचैन, बेहोश आदि। आप भी नीचे लिखे उपसर्गों से बननेवाले शब्द खोजिए–

1. प्र .............

2. आ .............

3. भर .............

4. बद .............

शब्दार्थ

दबैल – दब्बू

घमासान – घोर, भयानक

फरमान – राजाज्ञा

तनख्वाह – वेतन, पगार

फर्शी – फर्श पर बिछी हुई

हवाला – उल्लेख करना, उद्धरण

धुआँधार – ताबड़तोड़

कुमक – फौजी टुकड़ी

धींगा-मुश्ती – धक्का-मुक्की, लड़ना-भिड़ना, शरारत

लथपथ – सना हुआ, तर

दड़बा – मुर्गियों के रहने की जगह

मोरी – नाली, गंदे पानी
की नाली

बेनकेल – बिना नकेल (पशुओं की नाक में पहनाई जाने वाली रस्सी के बिना)

दालान – बरामदा

तरकारी – सब्जी

मातम – शोक मनाना

बटालियन – पलटन

कोर्ट मार्शल – फौजी अदालत में सजा सुनाने की तरह