Vasant Bhag 3 Chapter-18

18

टोपी


एक थी गवरइया (गौरैया) और एक था गवरा (नर गौरैया)। दोनों एक दूजे के परम संगी। जहाँ जाते, जब भी जाते, साथ ही जाते। साथ हँसते, साथ ही रोते, एक साथ खाते-पीते, एक साथ सोते। भिनसार होते ही खोंते से निकल पड़ते दाना चुगने और झुटपुटा होते ही खोंते में आ घुसते। थकान मिटाते और सारे दिन के देखे-सुने में हिस्सेदारी बटाते। एक शाम गवरइया बोली, "आदमी को देखते हो? कैसे रंग-बिरंगे कपड़े पहनते हैं! कितना फबता है उन पर कपड़ा!"


"खाक फबता है!" गवरा तपाक से बोला, "कपड़ा पहन लेने के बाद तो आदमी और बदसूरत लगने लगता है।"

"लगता है आज लटजीरा चुग गए हो?" गवरइया बोल पड़ी।

"कपड़े पहन लेने के बाद आदमी की कुदरती खूबसूरती ढँक जो जाती है।" गवरा बोला, "अब तू ही सोच! अभी तो तेरी सुघड़ काया का एक-एक कटाव मेरे सामने है, रोंवें-रोंवें की रंगत मेरी आँखों में चमक रही है। अब अगर तू मानुस की तरह खुद को सरापा ढँक ले तो तेरी सारी खूबसूरती ओझल हो जाएगी कि नहीं?"

"कपड़े केवल अच्छा लगने के लिए नहीं, गवरइया बोली, "मौसम की मार से बचने के लिए भी पहनता है आदमी।"

"तू समझती नहीं।" गवरा हँसकर बोला, "कपड़े पहन-पहनकर जाड़ा-गरमी-बरसात सहने की उनकी सकत भी जाती रही है। ...और इस कपड़े में बड़ा लफड़ा भी है। कपड़ा पहनते ही पहननेवाले की औकात पता चल जाती है ...आदमी-आदमी की हैसियत में भेद पैदा हो जाता है।"

"फिर भी आदमी कपड़ा पहनने से बाज नहीं आता।" गवरइया बोली। "नित नए-नए लिबास सिलवाता रहता है।"

"यह निरा पोंगापन है।" गवरा बोला, "आदमी तो लिबास से फकत लाज ही नहीं ढँकता, हाथ-पैर जो चलने-फिरने, काम करने के वास्ते हैं, उन्हें भी दस्ताने और मोजे से ढँक लेता है। सिर पर लटें हैं, उन्हें भी टोपी से ढँक लेता है। अपन तो नंगे ही भले।"

"उनके सिर पर टोपी कितनी अच्छी लगती है।" गवरइया बोली, "मेरा भी मन टोपी पहनने का करता है।"

"टोपी तू पाएगी कहाँ से?" गवरा बोला, "टोपी तो आदमियों का राजा पहनता है। जानती है, एक टोपी के लिए कितनों का टाट उलट जाता है। जरा-सी चूक हुई नहीं कि टोपी उछलते देर नहीं लगती। अपनी टोपी सलामत रहे, इसी फिकर में कितनों को टोपी पहनानी पड़ती है। ...मेरी मान तो तू इस चक्कर में पड़ ही मत।"

गवरा था तनिक समझदार, इसलिए शक्की। जबकि गवरइया थी जिद्दी और धुन की पक्की। ठान लिया सो ठान लिया, उसको ही जीवन का लक्ष्य मान लिया। कहा गया है–जहाँ चाह, वहीं राह। मामूल के मुताबिक अगले दिन दोनों घूरे पर चुगने निकले। चुगते-चुगते उसे रुई का एक फाहा मिला। "मिल गया... मिल गया... मिल गया..." गवरइया मारे खुशी के घूरे पर लोटने लगी।

"अरे... क्या मिल गया, रे!" गवरे ने चिहाकर पूछा।

"मिल गया... मिल गया... टोपी का जुगाड़ मिल गया..." गवरइया ने गवरे के सामने रुई का फाहा धर दिया।

"तेरे जैसा ही एक बावरा और था।" गवरा बोला, "रास्ता चलते-चलते उसे अचानक एक दिन पड़ा हुआ चाबुक मिल गया। चाबुक था बड़ा उम्दा और लचकदार। किसी घुड़सवार के हाथ से छूटकर गिर गया होगा। चाबुक हाथ लगते ही वह बावरा चीखने लगा–‘चाबुक तो मिल गया, बाकी बचा तीन-घोड़ा-लगाम-जीन’। अब ये तीनों तो रास्ते में पड़े मिलने से रहे। सब काम-धंधा छोड़ वह बावरा ताउम्र यह रटता रहा–‘बाकी बचा तीन-घोड़ा-लगाम-जीन’।" गवरा उसे समझाते हुए बोला, "इस रुई के फाहे से लेकर टोपी तक का सफर... तुझे कुछ अता-पता है?"

"बस देखते जाओ... अब कैसे बनती है टोपी।" गवरइया रुई का फाहा लिए एक धुनिया के पास चली गई और बड़े मनुहार से बोली, "धुनिया भइया-धुनिया भइया! इस रुई के फाहे को धुन दो।"

धुनिया बेचारा बूढ़ा था। जाड़े का मौसम था। उसके तन पर वर्षों पुरानी तार-तार हो चुकी एक मिर्जई पड़ी हुई थी। वह काँपते हुए बोला, "तू जाती है कि नहीं! देखती नहीं, अभी मुझे राजा जी के लिए रजाई बनानी है। एक तो यहाँ का राजा एेसा है जो चाम का दाम चलाता है। ऊपर से तू आ गई फोकट की रुई धुनवाने।"

"उज्र न करो भइए!" गवरइया बोली, "मैं तुम्हें पूरी उजरत दूँगी। इसे धुन दो, भइया! आधा तू ले ले, आधा मैं ले लूँगी।"

धुनिए को अपनी ज़िंदगी में आज तक इतनी खरी मजूरी कभी न मिली थी। सोलह आने में आठ आने मजूरी तो इसके लिए सपना थी। वह झट तैयार हो गया। ‘घर्र-चों, घर्र-चों’ उसकी ताँती बज उठी। उसने बड़े मन से रुई धुनी, "लो इसे...।" उसमें से आधा धुनिए ने ले लिया और आधा गवरइया ने।

इससे उत्साहित गवरा-गवरइया एक कोरी के यहाँ गए और कहने लगे, "कोरी भइया-कोरी भइया, इस धुनी रुई से सूत कात दो।"

कोरी की कमर झुकी हुई थी। उसने बदन पर धज्जी-धज्जी हो चुका एक धुस्सा डाल रखा था। वह बड़ी अनिच्छा से बोला, "तुम लोग यहाँ से भागते हो कि नहीं। देखते नहीं, अभी मुझे राजा जी के अचकन के लिए सूत कातने हैं। मुझे फुर्सत नहीं है मुफ्त में मल्लार गाने की।"

"भइया, इस मुलुक में सब काम क्या राजा जी के लिए ही होता है?" गवरइया अचरज से बोली।

"तू किस मुलुक से आई है?" कोरी ने उसे भर आँख देखा, "जानती नहीं यहाँ का चलन... खट मरे बरधा, बैठा खाय तुरंग। यहाँ सब काम राजा जी के नाम पर और राजा जी के लिए होता है। राजा जी के लगुए-भगुए भी तो बहुत हैं... इसी में उनका भी काम होता है।"

"मुकरो मत, भइया! हम तुम्हें माकूल मुआवजा देंगे।" गवरइया बोल पड़ी, "इसे कात दो... आधा तुम ले लो, आधा मैं ले लूँगी।"

कोरी भी तैयार हो गया। इतनी वाजिब मजूरी पर काम न करना मूर्खता होती। ‘तन्न... तन्न’ करके उसकी तकली चरखी ताता-थैया करने लगी। काफी महीन और लच्छेदार सूत कात दिए उसने।

कदम-कदम पर मिलते कामगारों के सहयोग ने गवरइया को आगे बढ़ने पर उकसा दिया। इसके बाद वे दोनों एक बुनकर के पास गए और इसरार करने लगे, "बुनकर भइया, बुनकर भइया, इस कते सूत से कपड़ा बुन दो।"

बुनकर इन्हें अगबग होकर देखने लगा, "हटते हो कि नहीं यहाँ से! देखते नहीं, अभी मुझे राजा जी के लिए बागा बुनना है। अभी थोड़ी देर बाद ही राजा जी के कारिंदे हाजिर हो जाएँगे। साव करे भाव तो चबाव करे चाकर।" इतना कहकर बुनकर अपने काम में मशगूल हो गया।

"इसे बुन दे भइया!" गवरइया ने साहस सँजोकर कहा, "हम सेंत-मेंत का काम नहीं करवाते। इसे बुन दे और आधा तू ले ले, आधा हम ले लेंगे।"

बुनकर ने देखा कि सौदा बुरा नहीं है। वह तैयार हो गया। सूत अपनी ओर खींचकर ताना-बाना पसार दिया। उसका करघा चलने लगा, ढरकी ढुलकने लगी। थोड़ी ही देर में उसने काफ़ी गफश और दबीज कपड़ा बुन दिया। आधा उसने ले लिया और आधा इन्होंने।

गवरइया ने तीन चौथाई मंज़िल मार ली थी। कपड़ा लिए-दिए वह एक दर्जी के पास जा पहुँची, "दर्जी भइया-दर्जी भइया, इसकी टोपी सिल दो।"

"खिसकती हो कि नहीं यहाँ से।" दर्जी रोष से बोला, "देखते नहीं, राजा जी की सातवीं रानी से नौ बेटियों के बाद दसवाँ बेटा पैदा हुआ है। अब उस दसरतन के लिए मुझे ढेरों झब्बे सिलने हैं।" दर्जी ने माथे का पसीना पोंछते हुए ठंडी आह भरी, "कुछ देना, न लेना... भर माथे पसीना।"

"हम तो भइए, बेगार में कुछ करवाते नहीं।" गवरइया बोली, "इस बुने कपड़े की टोपी सिल दे। बल्कि दो टोपियाँ सिल दे। एक तू ले ले, एक हम ले लेंगे।"

मुँहमाँगी मजूरी पर कौन मूजी तैयार न होता। ‘कच्च-कच्च’ उसकी कैंची चल उठी और चूहे की तरह ‘सर्र-सर्र’ उसकी सूई कपड़े के भीतर-बाहर होने लगी। बड़े मनोयोग से उसने दो टोपियाँ सिल दीं। खुश होकर दर्जी ने अपनी ओर से एक टोपी पर पाँच फुँदने भी जड़ दिए। फुँदनेवाली टोपी पहनकर तो गवरइया जैसे आपे में न रही। डेढ़ टाँगों पर ही लगी नाचने, फुदक-फुदककर लगी गवरा को दिखाने, "देख मेरी टोपी सबसे निराली...पाँच फुँदनेवाली।"

"वाकई तू तो रानी लग रही है।" गवरे को भी आखिरकार कहना पड़ा।

"रानी, नहीं, राजा कहो, मेरे राजा!" गवरइया ऊँचा उड़ने लगी, "अब कौन राजा मेरा मुकाबला करेगा।"

टोपी पहनते ही उसके मन में एक नए हुलस ने ज़ोर मारा कि क्यों न इस मुलुक के राजा का भी एक बार जायजा लिया जाए जिसके लिए इत्ते सारे काम होते हैं।

उड़ते-उड़ते वह राजा के महल के कंगूरे पर जा बैठी।

उसी वक्त राजा अपने चौबारे पर टहलुओं से खुली धूप में फुलेल की मालिश करवा रहा था। राजा उस वक्त अधनंगा बदन और नंगे सिर था। एक टहलुआ सिर पर चंपी कर रहा था, तो दूसरा हाथ-पाँव की उँगलियाँ फोड़ रहा था, तो तीसरा पीठ पर मुक्की मार रहा था तो चौथा पिंडली पर गुद्दी काढ़ रहा था।

गवरइया कंगूरे पर से ही चिल्लाई, "मेरे सिर पर टोपी, राजा के सिर पर टोपी नहीं... राजा के सिर पर टोपी नहीं।"

मालिश करवाते राजा की नज़र गवरइया से टकरा गई। गवरइया के सिर पर फुँदनेदार टोपी देखकर उसकी अकल चकरा गई। वह तो लगातार रटे जा रही थी, "मेरे सिर पर टोपी, राजा के सिर पर टोपी नहीं।"

"अरे कोई मेरी टोपी लाओ... जरा जल्दी।" राजा दोनों हाथों से अपना सिर ढँकते हुए चिल्लाया।

टोपी आ गई। राजा ने झट पहन भी ली, "देख री फदगुद्दी।"

"मेरी टोपी में पाँच फुँदने", गवरइया ने अब दूसरा ही राग अलापना शुरू कर दिया। "राजा की टोपी में एक भी नहीं... मेरी टोपी में पाँच फुँदने, राजा की टोपी में फुँदने नहीं।"

राजा को बेहद हेठी महसूस हुई। इस मुलुक के महाबली राजा के सामने एक चिड़िया की यह मजाल! वह बुरी तरह बिगड़ गया, "इस फदगुद्दी की गर्दन मसल दो... पखने नोच लो... सिपाहियों, देर न करो।"

"खमा करें महाराज!" मंत्री ने हाथ जोड़ दिए, "मच्छर मारकर हाथ क्यों गंदा करना! अपने आप चली जाएगी।"

तब राजा सिपाहियों से बोला, "यह एेसे नहीं मानेगी। इसकी टोपी छीन ले आओ... उसे मैं पैरों से ठोकर मारूँगा।"

एक सिपाही ने गुलेल मारकर गवरइया की टोपी नीचे गिरा दी, तो दूसरे सिपाही ने झट वह टोपी लपक ली और राजा के सामने पेश कर दिया। राजा टोपी को पैरों से मसलने ही जा रहा था कि उसकी खूबसूरती देखकर दंग रह गया। कारीगरी के इस नायाब नमूने को देखकर वह जड़ हो गया–"मेरे राज में मेरे सिवा इतनी खूबसूरत टोपी दूसरे के पास कैसे पहुँची!" सोचते हुए राजा उसे उलट-पुलटकर देखने लगा।

"इतनी नगीना टोपी इस मुलुक में बनाई किसने?" राजा के मन में खयाल आया। अब तो उस हुनरमंद कारीगर की खोज होने लगी। राजा चाहे और पता न चले!

गिरते-पड़ते दर्जी हाज़िर हुआ, "दुहाई अन्नदाता।"

"इतनी बढ़िया टोपी तुमने कभी हमारे लिए क्यों नहीं बनाई?" मेघों की गड़गड़ाहट की मानिंद राजा की आवाज़ निकली।

"दुहाई अन्नदाता!"

"हमें दुहाई नहीं... वजह बताओ।"

"कपड़ा बहुत उम्दा था सरकार! एकदम गफश और दबीज।"

"एेसा उम्दा कपड़ा किसने बुना?" नाग की मानिंद राजा फूँक मारने लगा। गिरते-पड़ते बुनकर हाज़िर हुआ, "माफी बख्शें, सरकार।"

"माफी नहीं... वजह बताओ।"

"सूत बड़ा उम्दा था सरकार। एकदम महीन और लच्छेदार।"

"इतना महीन सूत किसने काता?" शेर की मानिंद राजा ने दहाड़ मारी। गिरते-पड़ते कोरी हाजिर हुआ, "जान बख्शें, महाराज!"

"जान नहीं... वजह बताओ।"

"रुई बड़ी बेहतरीन थी, सरकार! एकदम बादलों की तरह धुनी हुई।"

"इतनी बेहतरीन रुई किसने धुनी?" बिजली की तरह राजा की आवाज़ कड़की।

हाँफते-छाती पीटते धुनिया हाज़िर हुआ, "खमा अन्नदाता!"

"खमा नहीं... वजह बताओ।" राजा गुस्से से काँप रहा था, "तुम चारों ने मिलकर इस गवरइया का काम किया... हमारे लिए आज तक एेसा काम क्यों नहीं किया?"

"आपके लिए भी किया है, सरकार।" धुनिए ने ज़मीन पर लेटकर कहा, "आगे भी आपके लिए करेंगे, सरकार?"

"हमारे लिए अब तक जो काम हुआ है, उसमें इतनी नफासत क्यों नहीं थी?"

"अभय दान दें, तो बोलूँ, सरकार!" धुनिया बोला।

"चलो दिया," राजा बोले, "अब बताओ...।"

"महाराज! इस गवरइया ने जो भी काम करवाया उसमें आधा हिस्सा दे देती थी। जिसके पास बहुत कुछ है, वह कुछ भी नहीं देता। इसके पास कुछ भी नहीं था फिर भी यह आधा दे देती थी। इसीलिए इसके काम में अपने-आप नफासत आती गई, सरकार।" धुनिया दंडवत पर दंडवत किए जा रहा था।

"देख ले-देख ले, राजा! ...आँख में अँगुली डालकर देख ले। इसके लिए पूरे मोल चुकाए हैं। बेगार की नहीं है यह।" गवरइया फिर चिल्लाने लगी, "यह राजा तो कंगाल है। निरा कंगाल। इसका धन घट गया लगता है। इसे टोपी तक नहीं जुरती... तभी तो इसने मेरी टोपी छीन ली।"

राजा तो वाकई अकबका गया था। एक तो तमाम कारीगरों ने उसकी मदद की थी। दूसरे, इस टोपी के सामने अपनी टोपी की कमसूरती। तीसरे, खजाने की खुलती पोल। इस पाखी को कैसे पता चला कि धन घट गया है? तमाम बेगार करवाने, बहुत सख्ती से लगान वसूलने के बावजूद राजा का खजाना खाली ही रहता था। इतना एेशोआराम, इतनी लशकरी, इतने लवाजिमे का बोझ खजाना सँभाले भी तो कैसे!"

तमाम लोग निकल आए थे... यह अनोखा तमाशा देखने।

मंत्री ने हौले से कहा, "यह मुँहफट तो महाराज को बेपरदा ही करके दम लेगी।"

राजा तो खुद घबरा रहा था, झट से बोल पड़ा, "इसकी टोपी वापस कर दो।"

सिपाहियों ने कहना माना। टोपी वापस कंगूरे की ओर हवा में उछाल दी गई।

गवरइया ने फिर से टोपी पहन ली और उड़-उड़कर कहने लगी, "यह राजा तो डरपोक है। निरा डरपोक! मुझसे डर गया। तभी तो इसने मेरी टोपी लौटा दी।"

"कौन इस मुँहफट के मुँह लगे? क्यों मंत्री जी!" कहकर राजा ने अपनी टोपी कसकर पकड़ ली।

–सृंजय

कहानी से

1. गवरइया और गवरा के बीच किस बात पर बहस हुई और गवरइया को अपनी इच्छा पूरी करने का अवसर कैसे मिला?

2. गवरइया और गवरे की बहस के तर्कों को एकत्र करें और उन्हें संवाद के रूप में लिखें।

3. टोपी बनवाने के लिए गवरइया किस किस के पास गई? टोपी बनने तक के एक-एक कार्य को लिखें।

4. गवरइया की टोपी पर दर्जी ने पाँच फुँदने क्यों जड़ दिए?

प्रश्न-अभ्यास

कहानी से आगे

1. किसी कारीगर से बातचीत कीजिए और परिश्रम का उचित मूल्य नहीं मिलने पर उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी? ज्ञात कीजिए और लिखिए।

2. गवरइया की इच्छा पूर्ति का क्रम घूरे पर रुई के मिल जाने से प्रारंभ होता है। उसके बाद वह क्रमशः एक-एक कर कई कारीगरों के पास जाती है और उसकी टोपी तैयार होती है। आप भी अपनी कोई इच्छा चुन लीजिए। उसकी पूर्ति के लिए योजना और कार्य-विवरण तैयार कीजिए।

3. गवरइया के स्वभाव से यह प्रमाणित होता है कि कार्य की सफलता के लिए उत्साह आवश्यक है। सफलता के लिए उत्साह की आवश्यकता क्यों पड़ती है, तर्क सहित लिखिए।

अनुमान और कल्पना

1. टोपी पहनकर गवरइया राजा को दिखाने क्यों पहुँची जबकि उसकी बहस गवरा से हुई और वह गवरा के मुँह से अपनी बड़ाई सुन चुकी थी। लेकिन राजा से उसकी कोई बहस हुई ही नहीं थी। फिर भी वह राजा को चुनौती देने पहुँची। कारण का अनुमान लगाइए।

2. यदि राजा के राज्य के सभी कारीगर अपने-अपने श्रम का उचित मूल्य प्राप्त कर रहे होते तब गवरइया के साथ उन कारीगरों का व्यवहार कैसा होता?

3. चारों कारीगर राजा के लिए काम कर रहे थे। एक रजाई बना रहा था। दूसरा अचकन के लिए सूत कात रहा था। तीसरा बागा बुन रहा था। चौथा राजा की सातवीं रानी की दसवीं संतान के लिए झब्बे सिल रहा था। उन चारों ने राजा का काम रोककर गवरइया का काम क्यों किया?

भाषा की बात

1. गाँव की बोली में कई शब्दों का उच्चारण अलग होता है। उनकी वर्तनी भी बदल जाती है। जैसे गवरइया गौरैया का ग्रामीण उच्चारण है। उच्चारण के अनुसार इस शब्द की वर्तनी लिखी गई है। फुँदना, फुुलगेंदा का बदला हुआ रूप है। कहानी में अनेक शब्द हैं जो ग्रामीण उच्चारण में लिखे गए हैं, जैसे–मुलुक-मुल्क, खमा-क्षमा, मजूरी-मजदूरी, मल्लार-मल्हार इत्यादि। आप क्षेत्रीय या गाँव की बोली में उपयोग होनेवाले कुछ एेसे शब्दों को खोजिए और उनका मूल रूप लिखिए, जैसे–टेम-टाइम, टेसन/टिसन-स्टेशन।

2. मुहावरों के प्रयोग से भाषा आकर्षक बनती है। मुहावरे वाक्य के अंग होकर प्रयुक्त होते हैं। इनका अक्षरशः अर्थ नहीं बल्कि लाक्षणिक अर्थ लिया जाता है। पाठ में अनेक मुहावरे आए हैं। टोपी को लेकर तीन मुहावरे हैं; जैसे–कितनों को टोपी पहनानी पड़ती है। शेष मुहावरों को खोजिए और उनका अर्थ ज्ञात करने का प्रयास कीजिए।

ब्दार्थ

भिनसार – प्रातःकाल, सवेरा

खोंते – घोंसले

झुटपुटा – सबेरे या शाम का समय जब प्रकाश इतना कम हो कि कोई चीज़ साफ़ दिखाई न दे, वह समय जब कुछ-कुछ अँधेरा और कुछ-कुछ उजाला हो

लटजीरा – चिचड़ा, एक पौधा

सरापा – सिर से पाँव तक पहना जानेवाला वस्त्र

सकत – शक्ति, सामर्थ्य

लफड़ा – उलझन, झंझट

फकत – केवल

अपन – अपना

फिकर – चिंता, फिक्र

मत – नहीं

मामूल – वह बात जो रोज की जाए, हमेशा की तरह

घूरा – कूड़े-करकट का ढेर

चिहाकर – चौंककर, चकित होकर

जुगाड़ – उपाय

मनुहार – मनाना

चाम – त्वचा, चमड़ा

फोकट – मूल्यरहित, मुफ्त

उजरत – मजदूरी, मेहनत का बदला, पारिश्रमिक

मल्लार – मल्हार, संगीत का एक राग

मुलुक – मुल्क, देश

लगुए-भगुए – पीछे चलने वाले, मेल-जोल के व्यक्ति

मशगूल – व्यस्त

सेंत-मेंत – वह काम जिसके का काम लिए कुछ देना न पड़ा हो, बिना लाभ ढरकी – कपड़ा बुनते हुए जुलाहे जिससे बाने का सूत फेंकते हैं

गफश – गफ्स, घना बुना हुआ

दबीज – मोटा, मजबूत

बेगार – बिना मजदूरी का काम

मूजी – दुष्ट

फुँदने – सूत, ऊन आदि का फूल या फुलगेंदा

हुलस – उल्लास, खुशी

इत्ते-सारे – इतने सारे

टहलुआ – नौकर

फुलेल – खुशबूदार तेल

फुँदनेदार – फुलगेंदेवाला

फदगुद्दी – एक छोटी चिड़िया, गौरैया

पखने – पंख

खमा – क्षमा

नायाब – बहुमूल्य, बेशकीमती

हुनरमंद – कुशल, गुणी कारीगर

मानिंद – जैसा, अनुरूप, सरीखा

नफासत – सज्जा, सजा-सँवरा

जुरती – जुटना, एकत्र होना,

प्राप्त होना

पाखी – पक्षी, चिड़िया

लशकरी – पलटन, सेना

लवाजिमा – यात्रा आदि में साथ रहने वाला सामान

नगीना – सुंदर

अकबकाना – भौंचक्का होना, घबराना