Vigyan  Chapter-7

अध्याय 7

जीवों में विविधता

(Diversity in Living Organisms)

क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे चारों ओर कितने प्रकार के जीव समूह पाए जाते हैं। सभी जीवधारी एक-दूसरे से किसी न किसी रूप में भिन्न हैं। आप स्वयं को और अपने एक मित्र को ही लीजिए।

क्या दोनों की लंबाई एकसमान है?

क्या आपकी नाक बिलकुल आपके मित्र की नाक जैसी दिखती है?

क्या आपकी और आपके मित्र की हथेली का आकार समान है?

यदि हम अपनी और अपने मित्र की तुलना किसी बंदर से करें, तो हम क्या देखेंगे? निश्चित रूप से, हम पाते हैं कि हममें और हमारे मित्रों के बीच बंदर की अपेक्षा अधिक समानताएँ हैं। परंतु जब हम अपनी तुलना गाय और बंदर दोनों से करते हैं, तब हम देखते हैं कि गाय की तुलना मेें बंदर और हममें अधिक समानताएँ हैं।

क्रियाकलाप 7.1

हमने देसी और जर्सी गाय के बारे में सुना है।

क्या एक देसी गाय जर्सी गाय जैसी दिखती है?

क्या सभी देसी गायें एक जैसी दिखती हैं?

क्या हम देसी गायों के झुंड में जर्सी गाय को पहचान सकेंगे?

पहचानने का हमारा आधार क्या होगा?

अब हम लोगों को तय करना है कि कौन-से विशिष्ट लक्षण वांछित समूह के जीवों के लिए अधिक महत्वपूर्ण हैं। इसके बाद हम यह भी तय करेंगे कि किन लक्षणों को छोड़ा जा सकता है।

अब पृथ्वी पर रहने वाले जीवों के विभिन्न समूहों के बारे में सोचें। हम एक ओर जहाँ सूक्ष्मदर्शी से देखे जाने वाले बैक्टीरिया, जिनका आकार कुछ माइक्रोमीटर होता है, वहीं दूसरी ओर 30 मीटर लंबे नीले ह्वेल या कैलिफ़ोर्निया के 100 मीटर लंबे रेडवुड पेड़ भी पाए जाते हैं। कुछ चीड़ के वृक्ष हज़ारों वर्ष तक जीवित रहते हैं, जबकि कुछ कीट जैसे मच्छरों का जीवनकाल कुछ ही दिनों का होता है। जैव विविधता रंगहीन जीवधारियों, पारदर्शी कीटों और विभिन्न रंगों वाले पक्षियों और फूलों में भी पाई जाती है।

हमारे चारों ओर की इस असीमित विभिन्नता को विकसित होने में लाखों वर्ष का समय लगा है। इन सभी जीवधारियों को जानने और समझने के लिए हमारे पास समय का बहुत छोटा हिस्सा है, इसलिए उनके बारे में हम एक-एक कर विचार नहीं कर सकते हैं। इसकी जगह हम जीवधारियों की समानता का अध्ययन करेंगे, जिससे हम उनको विभिन्न वर्गों में रख सकेंगे, फिर विभिन्न वर्गों व समूहों का अध्ययन करेंगे।

जीवन के इन विभिन्न रूपों की विभिन्नता का अध्ययन करने के अनुरूप समूह बनाने के क्रम में, हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि वे कौन-से विशिष्ट लक्षण हैं, जो जीवधारियों में अधिक मौलिक अंतर पैदा करते हैं। इसी पर जीवधारियों के मुख्य विस्तृत समूहों का निर्धारण निर्भर करेगा। इन समूहों में से छोटे समूहों का निर्णय अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण लक्षणों के आधार पर किया जाएगा

प्रश्न

1. हम जीवधारियों का वर्गीकरण क्यों करते हैं?

2. अपने चारों ओर फैले जीव रूपों की विभिन्नता के तीन उदाहरण दें।


7.1 वर्गीकरण का आधार क्या है?

जीवों के समूहों के वर्गीकरण का प्रयास प्राचीन समय से किया जाता रहा है। यूनानी विचारक अरस्तू ने जीवों का वर्गीकरण उनके स्थल, जल एवं वायु में रहने के आधार पर किया था। यह जीवन को देखने का बहुत ही सरल किंतु भ्रामक तरीका है। उदाहरण के लिए, समुद्रों में रहने वाले जीव; जैसे - प्रवाल (coral), ह्वेल, अॉक्टोपस, स्टारफिश और शॉर्क। ये कई मायने में एक-दूसरे से काफ़ी अलग हैं। इन सभी में एक मात्र समानता इनका आवास है। अध्ययन एवं विचार के लिए इस आधार पर जीवधारियों को समूहों में बाँटना ठीक नहीं है।

इसलिए हमें अब यह निर्णय करना है कि किन विशिष्ट अभिलक्षणों के आधार पर वृहद् वर्ग का निर्माण किया गया। उसके बाद हम अन्य लक्षणों के आधार पर किसी वर्ग को उपसमूहों में बाँट सकते हैं। नए लक्षणों के आधार पर समूहों के भीतर इस तरह के वर्गीकरण की प्रक्रिया जारी रह सकती है।

इस विषय में आगे बढ़ने से पहले हमें लक्षणों का अर्थ समझना पड़ेगा। जब हम जीव के किसी विविध समूह को वर्गीकृत करते हैं, तो सबसे पहले हमें यह जानना होता है कि इस समूह के सदस्यों में क्या-क्या समानताएँ हैं जिसके आधार पर कुछ को एक साथ रखा जा सके? वास्तव में, यही उनका लक्षण और व्यवहार होता है या यह कहें कि यही उन जीवों का रूप और कार्य होता है।

किसी जीव के लक्षण से तात्पर्य उस जीव का कोई विशिष्ट रूप या विशिष्ट कार्य है। उदाहरण के लिए, हममें से ज़्यादातर लोगों के एक हाथ में पाँच अंगुलियाँ होती हैं, जो एक लक्षण है। उसी तरह हमारे दौड़ने की क्षमता और बरगद के पेड़ के न दौड़ पाने की क्षमता भी एक लक्षण है।

अब हम देखेंगे कि कुछ लक्षणों को कैसे अन्य की तुलना में ज्यादा मौलिक लक्षणों के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। हम विचार करें कि एक पत्थर की दीवार कैसे बनती है। दीवार में प्रयोग में लाए गए पत्थर विभिन्न आकार-प्रकार के होते हैं। यहाँ ध्यान देने की बात है कि ऊपर की ओर लगे पत्थरों का आकार-प्रकार नीचे के पत्थरों को प्रभावित नहीं करेगा, लेकिन निचले स्तर के पत्थरों के आकार से उनके ऊपर वाले पत्थरों का आकार अवश्य प्रभावित होता है।

यहाँ पर सबसे निचले स्तर पर लगे पत्थर, जीवों के उन लक्षणों के समान हैं जो जीवों के वृहद्तम वर्ग को निर्धारित करते हैं। ये लक्षण जीव के दूसरे किसी भी संरचनात्मक तथा क्रियात्मक लक्षण से स्वतंत्र होते हैं। लेकिन उसके बाद के स्तर के लक्षण पहले के स्तर के लक्षण पर तो निर्भर रहते हैं तथा बाद के स्तर के प्रकार को निर्धारित करते हैं। ठीक इसी तरह हम जीवों के वर्गीकरण के लिए भी परस्पर संबंधी लक्षणों का एक पदानुक्रम बना लेते हैं।

आजकल हम जीवों के वर्गीकरण के लिए कोशिका की प्रकृति से प्रारम्भ करके विभिन्न परस्पर-संबंधित अभिलक्षणों को दृष्टिगत रखते हैं। आइए हम एेसे लक्षणों पर गौर करें।

एक यूकैरियोटी कोशिका में केंद्रक समेत कुछ झिल्ली से घिरे कोशिकांग होते हैं जिसके कारण कोशिकीय क्रिया अलग-अलग कोशिकाओं में दक्षतापूर्वक होती रहती है। यही कारण है कि जिन कोशिकाओं में झिल्लीयुक्त कोशिकांग और केंद्रक नहीं होते हैं, उनकी जैव रासायनिक प्रक्रियाएँ भिन्न होती हैं। इसका असर कोशिकीय संरचना के सभी पहलुओं पर पड़ता है। इसके अतिरिक्त केंद्रकयुक्त कोशिकाओं में बहुकोशिक जीव के निर्माण की क्षमता होती है, क्योंकि वे किसी खास कार्यों के लिए विशिष्टीकृत हो सकते हैं। इसलिए केंद्रक वर्गीकरण का आधारभूत लक्षण हो सकता है।

प्रप्रश्न उठता है कि क्या कोशिकाएँ अकेले पाई जाती हैं या फिर एक साथ समूहों में पाई जाती हैं या अविभाज्य समूह में मिलती हैं? जो कोशिकाएँ एक साथ समूह बनाकर किसी जीव का निर्माण करती हैं, उनमें श्रम-विभाजन पाया जाता है। शारीरिक संरचना में सभी कोशिकाएँ एकसमान नहीं होती हैं बल्कि कोशिकाओं के समूह कुछ खास कार्यों के लिए विशिष्टीकृत हो जाते हैं। यही वजह है कि जीवों की शारीरिक संरचना में इतनी विभिन्नता होती है। इसी के परिणामस्वरूप, हम पाते हैं कि एक अमीबा और एक कृमि की शारीरिक बनावट में कितना अंतर है।

क्या जीव प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया द्वारा अपना भोजन स्वयं बनाते हैं? स्वयं भोजन बनाने की क्षमता रखने वाले और बाहर से भोजन प्राप्त करने वाले जीवों की शारीरिक संरचना में आवश्यक भिन्नता पाई जाती है।

जो जीव (पौधे) प्रकाश-संश्लेषण करते हैं, उनमें शारीरिक संगठन किस स्तर का होता है?

उसी तरह जंतुओं में किस तरह शरीर विकसित होता है और शरीर के विभिन्न अंग बनते हैं। इसके अतिरिक्त विभिन्न कार्यों के लिए विशिष्ट अंग कौन-कौन से हैं।

इन प्रप्रश्नों के माध्यम से हम देख सकते हैं कि किस तरह विभिन्न लक्षणों का पदानुक्रम विकसित होता है। वर्गीकरण के लिए पौधों के शरीर के विभिन्न लक्षण किस प्रकार जंतुओं से भिन्न होते हैं। इसकी वजह यह है कि पौधों का शरीर भोजन बनाने की क्षमता के अनुसार विकसित होता है, जबकि जंतुओं का शरीर बाहर से भोजन ग्रहण करने के अनुसार विकसित होता है। यही लक्षण, वर्गीकरण के दौरान उपसमूह और फिर बाद में बड़े समूहों में विभाजन का आधार बनते हैं।

प्रश्न

1. जीवों के वर्गीकरण के लिए सर्वाधिक मूलभूत लक्षण क्या हो सकता है?

(a) उनका निवास स्थान

(b) उनकी कोशिका संरचना

2. जीवों के प्रारंभिक विभाजन के लिए किस मूल लक्षण को आधार बनाया गया?

3. किस आधार पर जंतुओं और वनस्पतियों को एक-दूसरे से भिन्न वर्ग में रखा जाता है?

7.2 वर्गीकरण और जैव विकास

सभी जीवधारियों को उनकी शारीरिक संरचना और कार्य के आधार पर पहचाना जाता है और उनका वर्गीकरण किया जाता है। शारीरिक बनावट में कुछ लक्षण अन्य लक्षणों की तुलना में ज्यादा परिवर्तन लाते हैं। इसमें समय की भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अतः जब कोई शारीरिक बनावट अस्तित्व में आती है, तो यह शरीर में बाद में होने वाले कई परिवर्तनों को प्रभावित करती है। दूसरे शब्दों में, शरीर की बनावट के दौरान जो लक्षण पहले दिखाई पड़ते हैं, उन्हें मूल लक्षण के रूप में जाना जाता है।

इससे यह पता चलता है कि जीवों के वर्गीकरण का जैव विकास से कितना नजदीकी संबंध है। जैव विकास क्या है? हम जितने भी जीवों को देखते हैं वे सभी निरंतर होने वाले परिवर्तनों की उस प्रक्रिया के स्वाभाविक परिणाम हैं जो उनके बेहतर जीवन-यापन के लिए आवश्यक थे। जैव विकास की इस अवधारणा को सबसे पहले चार्ल्स डार्विन ने 1859 में अपनी पुस्तक ‘‘दि ओरिजिन अॉफ स्पीशीज़’’ में दिया।

जैव विकास की इस अवधारणा को वर्गीकरण से जोड़कर देखने पर हम पाते हैं कि कुछ जीव समूहों की शारीरिक संरचना में प्राचीन काल से लेकर आज तक कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ है। लेकिन कुछ जीव समूहों की शारीरिक संरचना में पर्याप्त परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं। पहले प्रकार के जीवों को आदिम अथवा निम्न जीव कहते हैं, जबकि दूसरे प्रकार के जीवों को उन्नत अथवा उच्च जीव कहते हैं। लेकिन ये शब्द उपयुक्त नहीं हैं क्योंकि इससे उनकी भिन्नताओं का ठीक से पता नहीं चलता है। इसके बजाय हम इनके लिए पुराने जीव और नये जीव शब्द का प्रयोग कर सकते हैं। चूँकि विकास के दौरान जीवों में जटिलता की संभावना बनी रहती है, इसलिए पुराने जीवों को साधारण और नये जीवों को अपेक्षाकृत जटिल भी कहा जा सकता है।

7.5.10 (i) सायक्लोस्टोमेटा

सायक्लोस्टोमेटा जबड़े रहित कशेरुकी हैं। इनकी विशेषता लंबे ईस के आकार का शरीर, गोलाकार मुख एवं शल्क रहित चिकनी त्वचा का होना है। ये बाह्य परजीवी होते हैं जो दूसरे कशेरुकी से संबद्ध हो जाते हैं। उदाहरणः पेट्रोमाइजॉन (लैम्प्रे) एवं मिक्जीन (हैग मछली) चित्र 7.2।

प्रश्न

1. आदिम जीव किन्हें कहते हैं? ये तथाकथित उन्नत जीवों से किस प्रकार भिन्न हैं?

2. क्या उन्नत जीव और जटिल जीव एक होते हैं?

7.3 वर्गीकरण समूहों की पदानुक्रमित संरचना

अर्न्सट हेकेल (1894), राबर्ट व्हिटेकर (1969), और कार्ल वोस (1977) नामक जैव वैज्ञानिकों ने सारे सजीवों को जगत (Kingdom) नामक बड़े वर्गों में विभाजित करने का प्रयास किया है। व्हिटेकर द्वारा प्रस्तावित वर्गीकरण में पाँच जगत हैं- मोनेरा, प्रोटिस्टा, फंजाई, प्लांटी और एनीमेलिया। ये समूह कोशिकीय संरचना पोषण के स्रोत और तरीके तथा शारीरिक संगठन के आधार पर बनाए गए हैं। वोस ने अपने वर्गीकरण में मोनेरा जगत को आर्कीबैक्टीरिया और यूबैक्टीरिया में बाँट दिया, जो प्रयोग में लाया जाता है।

पुनः विभिन्न स्तरों पर जीवों को उप समूहों में वर्गीकृत किया गया है। जैसे-


इसे भी जानें

जैव विविधता से तात्पर्य, विभिन्न जीव रूपों में पाई जाने वाली विविधता से है। यह शब्द किसी विशेष क्षेत्र में पाये जाने वाले विभिन्न जीवरूपों की ओर इंगित करता है। ये विभिन्न जीव न सिर्फ़ एकसमान पर्यावरण में रहते हैं बल्कि एक-दूसरे को प्रभावित भी करते हैं। इसके परिणामस्वरूप विभिन्न प्रजातियों का स्थायी समुदाय अस्तित्व में आता है। आधुनिक समय में मनुष्य ने इस समुदाय के संतुलन को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वास्तव में किसी समुदाय की विविधता भूमि, जल, जलवायु जैसी कई चीज़ों से प्रभावित होती है। एक मोटे अनुमान के मुताबिक पृथ्वी पर जीवों की करीब 1 करोड़ प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जबकि हमें सिर्फ़ 10 लाख या 20 लाख प्रजातियों की ही जानकारी है। पृथ्वी पर कर्क रेखा और मकर रेखा के बीच के क्षेत्र में जो गर्मी और नमी वाला भाग है, वहाँ पौधों और जंतुओं में काफी विविधता पाई जाती है। अतः यह क्षेत्र मेगाडाइवर्सिटी क्षेत्र कहलाता है। पृथ्वी पर जैव विविधता का आधे से ज्यादा भाग कुछेक देशों; जैसे-ब्राज़ील कोलंबिया, इक्वाडोर, पेरू, मेक्सिको, जायरे, मेडागास्कर, अॉस्ट्रेलिया, चीन, भारत, इंडोनेशिया और मलेशिया में केंद्रित है।

जगत (किंगडम) - फ़ाइलम (जंतु)/डिवीज़न (पादप)

वर्ग (क्लास)

गण (अॉर्डर)

कुल (फैमिली)

वंश (जीनस)

जाति (स्पीशीज़)

इस प्रकार, वर्गीकरण के पदानुक्रम में जीवों को विभिन्न लक्षणों के आधार पर छोटे से छोटे समूहों में बाँटते हुए हम वर्गीकरण की आधारभूत इकाई तक पहुँचते हैं। वर्गीकरण की आधारभूत इकाई जाति (स्पीशीज़) है। अतः किन जीवों को हम एक जाति के जीव कहेंगे? एक ही जाति के जीवों में बाह्य रूप से काफ़ी समानता होती है तथा वे जनन कर सकते हैं।

व्हिटेकर द्वारा प्रस्तुत जगत वर्गीकरण की पाँच प्रमुख विशेषताएँ निम्नवत हैं -

7.3.1 मोनेरा

इन जीवों में न तो संगठित केंद्रक और कोशिकांग होते हैं और न ही उनके शरीर बहुकोशिक होते हैं। इनमें पाई जाने वाली विविधता अन्य लक्षणों पर निर्भर करती है। इनमें कुछ में कोशिका भित्ति पाई जाती है तथा कुछ में नहीं। कोशिका भित्ति के होने या न होने के कारण मोनेरा वर्ग के जीवों की शारीरिक संरचना में आए परिवर्तन तुलनात्मक रूप से बहुकोशिक जीवों में कोशिका भित्ति के होने या न होने के कारण आए परिवर्तनों से भिन्न होते हैं। पोषण के स्तर पर ये स्वपोषी अथवा विषमपोषी दोनों होे सकते हैं। उदाहरणार्थ- जीवाणु, नील-हरित शैवाल अथवा सायनोबैक्टीरिया, माइकोप्लाज्मा। कुछ उदाहरणों को चित्र 7.1 में दिखाया गया है।

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चित्र 7.1: मोनेरा


7.3.2 प्रोटिस्टा

इसमें एककोशिक, यूकैरियोटी जीव आते हैं। इस वर्ग के कुछ जीवों में गमन के लिए सीलिया, फ्लैजेला, नामक संरचनाएँ पाई जाती हैं। ये स्वपोषी और विषमपोषी दोनों तरह के होते हैं। उदाहरणार्थ, एककोशिक शैवाल, डाइएटम, प्रोटोजोआ इत्यादि। उदाहरणों के लिए चित्र 7.2 देखें।

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चित्र 7.2: प्रोटोज़ोआ

ये विषमपोषी यूकैरियोटी जीव हैं। इनमें से कुछ पोषण के लिए सड़े गले कार्बनिक पदार्थों पर निर्भर रहते हैं, इसलिए इन्हें मृतजीवी कहा जाता है। कई अन्य आतिथेय जीव के जीवित जीवद्रव्य पर भोजन के लिए आश्रित होते हैं। इन्हें परजीवी कहते हैं। इनमें से कई अपने जीवन की विशेष अवस्था में बहुकोशिक क्षमता प्राप्त कर लेते हैं। फ़ंजाई अथवा कवक में काइटिन नामक जटिल शर्करा की बनी हुई कोशिका भित्ति पाई जाती है। उदाहरणार्थ, यीस्ट, मोेल्ड, मशरूम। उदाहरण के लिए चित्र 7.3 देखें।

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चित्र 7.3: फ़ंजाई

कवकों की कुछ प्रजातियाँ नील-हरित शैवाल (साइनोबैक्टीरिया) के साथ स्थायी अंतर्संबंध बनाती हैं, जिसे सहजीविता कहते हैं। एेसे सहजीवी जीवों को लाइकेन कहा जाता है। ये लाइकेन अक्सर पेड़ों की छालों पर रंगीन धब्बों के रूप में दिखाई देते हैं।

7.3.4 प्लांटी

इस वर्ग में कोशिका भित्ति वाले बहुकोशिक यूकैरियोटी जीव आते हैं। ये स्वपोषी होते हैं और प्रकाश-संश्लेषण के लिए क्लोरोफ़िल का प्रयोग करते हैं। इस वर्ग में सभी पौधों को रखा गया है। चूँकि पौधे और जंतु सर्वाधिक दृष्टिगोचर होते हैं, अतः इन उपवर्गों की चर्चा बाद में (खंड 7.4) में करेंगे।

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चित्र 7-4: पाँच जगत वर्गीकरण


7.3.5 एनिमेलिया

इस वर्ग में एेसे सभी बहुकोशिक यूकैरियोटी जीव आते हैं, जिनमें कोशिका भित्ति नहीं पाई जाती है। इस वर्ग के जीव विषमपोषी होते हैं। इस उपवर्ग की चर्चा हम बाद में (खंड 7.5) में करेंगे।

प्रश्न

1. मोनेरा अथवा प्रोटिस्टा जैसे जीवों के वर्गीकरण के मापदंड क्या हैं?

2. प्रकाश-संश्लेषण करने वाले एककोशिक यूकैरियोटी जीव को आप किस जगत में रखेंगे?

3. वर्गीकरण के विभिन्न पदानुक्रमों में किस समूह में सर्वाधिक समान लक्षण वाले सबसे कम जीवों को और किस समूह में सबसे ज्यादा संख्या में जीवों को रखा जाएगा?


7.4 प्लांटी

पौधों में प्रथम स्तर का वर्गीकरण इन तथ्यों पर आधारित है कि पादप शरीर के प्रमुख घटक पूर्णरूपेण विकसित एवं विभेदित हैं, अथवा नहीं। वर्गीकरण का अगला स्तर पादप शरीर में जल और अन्य पदार्थों को संवहन करने वाले विशिष्ट ऊतकाें की उपस्थिति के आधार पर होता है। तत्पश्चात् वर्गीकरण प्रक्रिया के अंतर्गत यह देखा जाता है कि पौधे में बीजधारण की क्षमता है अथवा नहीं। यदि बीजधारण की क्षमता है तो बीज फल के अंदर विकसित है, अथवा नहीं।

7.4.1 थैलोफ़ाइटा

इन पौधों की शारीरिक संरचना में विभेदीकरण नहीं पाया जाता है। इस वर्ग के पौधों को समान्यतया शैवाल कहा जाता है। ये मुख्य रूप से जल में पाए जाते हैं। उदाहरणार्थ, यूलोथ्रिक्स, क्लैडोफोरा, अल्वा, स्पाइरोगाइरा, कारा इत्यादि (चित्र 7.5 देखें)।

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चित्र 7.5: थैलोफ़ाइटा (शैवाल)

7.4.2 ब्रायोफ़ाइटा

इस वर्ग के पौधों को पादप वर्ग का उभयचर कहा जाता है। यह पादप, तना और पत्तों जैसी संरचना में विभाजित होता है। इसमें पादप शरीर के एक भाग से दूसरे भाग तक जल तथा दूसरी चीज़ों के संवहन के लिए विशिष्ट ऊतक नहीं पाए जाते हैं। उदाहरणार्थ, मॉस (फ्यूनेरिया), मार्केंशिया (चित्र 7.6 देखें)।

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चित्र 7.6: कुछ सामान्य ब्रायोफ़ाइट

7.4.3 टेरिडोफ़ाइटा

इस वर्ग के पौधों का शरीर जड़, तना तथा पत्ती में विभाजित होता है। इनमें शरीर के एक भाग से दूसरे भाग तक जल तथा अन्य पदार्थों के संवहन के लिए संवहन ऊतक भी पाए जाते हैं। उदाहरणार्थ- मार्सीलिया, फ़र्न, हॉर्स-टेल इत्यादि।

इन तीन समूह के पौधों में जननांग अप्रत्यक्ष होते हैं तथा इनमें बीज उत्पन्न करने की क्षमता नहीं होती है। अतः ये क्रिप्टोगैम कहलाते हैं।

दूसरी ओर, वे पौधे जिनमें जनन अंग पूर्ण विकसित एवं विभेदित होते हैं तथा जनन प्रक्रिया के पश्चात् बीज उत्पन्न करते हैं, फैनरोगैम कहलाते हैं। बीज लैंगिक जनन के बाद उत्पन्न होता है। बीज के अंदर भ्रूण के साथ संचित खाद्य पदार्थ होता है, जिसका उपयोग भ्रूण के प्रारंभिक विकास एवं अंकुरण के समय होता है। बीज की अवस्था के आधार पर इस वर्ग के पौधों को पुनः दो वर्गों में विभक्त किया जाता है।

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चित्र 7.7: कुछ टेरिडोफाइट


जिम्नोस्पर्मः नग्न बीज उत्पन्न करने वाले पौधे

एंजियोस्पर्मः फल के अंदर (बंद) बीज उत्पन्न करने वाले पौधे।

7.4.4 जिम्नोस्पर्म

इस शब्द की उत्पत्ति दो ग्रीक शब्दों जिम्नो तथा स्पर्मा से मिल कर हुई है, जिसमें जिम्नो का अर्थ है नग्न तथा स्पर्मा का अर्थ है बीज अर्थात् इन्हें नग्नबीजी पौधे भी कहा जाता है। ये पौधे बहुवर्षी सदाबहार तथा काष्ठीय होते हैं। उदाहरणार्थ- पाइनस तथा साइकस (चित्र 7.8 देखेें)।

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चित्र 7.8: कुछ नग्नबीजी (जिम्नोस्पर्म)

7.4.5 एंजियोस्पर्म

यह दो ग्रीक शब्दों ‘एंजियो और स्पर्मा ’ से मिलकर बना है। एंजियो का अर्थ है ढका हुआ और स्पर्मा का अर्थ है बीज। इन्हें पुष्पी पादप भी कहा जाता है। अर्थात् इन पौधों के बीज फलों के अंदर ढके होते हैं। इनके बीजों का विकास अंडाशय के अंदर होता है, जो बाद में फल बन जाता है। बीजों में बीजपत्र होता है जो बीज के अंकुरण के पश्चात् हरा हो जाता है। बीजपत्रों की संख्या के आधार पर एंजियोस्पर्म वर्ग को दो भागों में बाँटा गया है - एक बीजपत्र वाले पौधाें को एकबीजपत्री और दो बीजपत्र वाले पौधाें को द्विबीजपत्री कहा जाता है (चित्र 7.9 एवं 7.10 देखें)।

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पौधों के वर्गीकरण का आलेख चित्र 7.11 में दर्शाया गया है।

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चित्र 7.10: द्विबीजपत्री


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चित्र 7.11: पादपों का वर्गीकरण

क्रियाकलाप 7.2

भिगोए हुए चने, गेहूँ, मक्का, मटर और इमली के बीज लीजिए। भीगे हुए बीज जल अवशोषण के कारण नरम हो जाते हैं। इन बीजों को दो भाग में बाँटने का प्रयास कीजिए। क्या इनमें सभी के बीज फटकर दो बराबर भागों में बँट जाते हैं?

जिन बीजों में दो दालें दिखाई देती हैं, वे द्विबीजपत्री और जो नहीं फूटते और दालें नहीं दिखाई देती, वे एकबीजपत्री कहलाते हैं।

अब इन पौधों की जड़ों, पत्तियों और फूलों को देखें-

क्या ये जड़ें मूसला हैं या फिर रेशेदार?

क्या पत्तियों में समानांतर अथवा जालिकावत् शिरा विन्यास है?

इन पौधों के फूलों में कितनी पंखुड़ियाँ हैं?

क्या आप एक बीजपत्री और द्विबीजपत्री पौधों के और अधिक लक्षण अपने अवलोकन के आधार पर लिख सकते हैं?

प्रश्न

1. सरलतम पौधों को किस वर्ग में रखा गया है?

2. टेरिडोफ़ाइट और फैनरोगैम में क्या अंतर है?

3. जिम्नोस्पर्म और एंजियोस्पर्म एक-दूसरे से किस प्रकार भिन्न हैं?

7.5 एनिमेलिया

इस वर्ग में यूकैरियोटी, बहुकोशिक और विषमपोषी जीवों को रखा गया है। इनकी कोशिकाओं में कोशिका भित्ति नहीं पाई जाती। अधिकतर जंतु चलायमान होते हैं। शारीरिक संरचना एवं विभेदीकरण के आधार पर इनका आगे वर्गीकरण किया गया है।

7.5.1 पोरीफेरा

पोरीफेरा का अर्थ- छिद्र युक्त जीवधारी है। ये अचल जीव हैं, जो किसी आधार से चिपके रहते हैं। इनके पूरे शरीर में अनेक छिद्र पाए जाते हैं। ये छिद्र शरीर में उपस्थित नाल प्रणाली से जुड़े होते हैं, जिसके माध्यम से शरीर में जल, अॉक्सीजन और भोज्य पदार्थों का संचरण होता है। इनका शरीर कठोर आवरण अथवा बाह्य कंकाल से ढका होता है। इनकी शारीरिक संरचना अत्यंत सरल होती है, जिनमें ऊतकों का विभेदन नहीं होता है। इन्हें सामान्यतः स्पांज के नाम से जाना जाता है, जो बहुधा समुद्री आवास में पाए जाते हैं। उदाहरणार्थ, साइकॅान, यूप्लेक्टेला, स्पांजिला इत्यादि। कुछ उदाहरण चित्र 7.12 में दर्शाए गए हैं।

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चित्र 7.12: पोरिफेरा


7.5.2 सीलेंटरेटा

ये जलीय जंतु हैं। इनका शारीरिक संगठन ऊतकीय स्तर का होता है। इनमें एक देहगुहा पाई जाती है। इनका शरीर कोशिकाओं की दो परतों (आंतरिक एवं बाह्य परत) का बना होता है। इनकी कुछ जातियाँ समूह में रहती हैं, (जैसे - कोरल) और कुछ एकाकी होती है (जैसे - हाइड्रा)। उदाहरणार्थ, हाइड्रा, समुद्री एनीमोन, जेलीफिश इत्यादि (चित्र 7.13 में देखें)।

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चित्र 7.13: सीलेंटरेटा

7.5.3 प्लेटीहेल्मिन्थीज

पूर्ववर्णित वर्गों की अपेक्षा इस वर्ग के जंतुओं की शारीरिक संरचना अधिक जटिल होती है। इनका शरीर द्विपार्श्वसममित होता है अर्थात् शरीर के दाएँ और बाएँ भाग की संरचना समान होती है। इनका शरीर त्रिकोरक (Triploblastic) होता है अर्थात् इनका ऊतक विभेदन तीन कोशिकीय स्तरों से हुआ है। इससे शरीर में बाह्य तथा आंतरिक दोनों प्रकार के अस्तर बनते हैं तथा इनमें कुछ अंग भी बनते हैं। इनमें वास्तविक देहगुहा का अभाव होता है जिसमें सुविकसित अंग व्यवस्थित हो सकें। इनका शरीर पृष्ठधारीय एवं चपटा होता है। इसलिए इन्हें चपटे कृमि भी कहा जाता है। इनमें प्लेनेरिया जैसे कुछ स्वछंद जंतु तथा लिवरफ्लूक, जैसे परजीवी हैं। उदाहरण के लिए चित्र 7.14 देखें।

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चित्र 7.14: कुछ प्लेटीहेल्मिन्थीज


7.5.4 निमेटोडा

ये भी त्रिकोरक जंतु हैं तथा इनमें भी द्विपार्श्व सममिति पाई जाती है, लेकिन इनका शरीर चपटा ना होकर बेलनाकार होता है। इनके देहगुहा को कूटसीलोम कहते हैं। इसमें ऊतक पाए जाते हैं परंतु अंगतंत्र पूर्ण विकसित नहीं होते हैं। इनकी शारीरिक संरचना भी त्रिकोरिक होती है। ये अधिकांशतः परजीवी होते हैं। परजीवी के तौर पर ये दूसरे जंतुओं में रोग उत्पन्न करते हैं। उदाहरणार्थ- गोल कृमि, फाइलेरिया कृमि, पिन कृमि इत्यादि। कुछ उदाहरण चित्र 7.15 में दिखाए गए हैं।

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चित्र 7.15: कुछ निमेटोड (एस्कहेल्मिन्थीज)

7.5.5 एनीलिडा

एनीलिड जंतु द्विपार्श्वसममित एवं त्रिकोरिक होते हैं। इनमें वास्तविक देहगुहा भी पाई जाती है। इससे वास्तविक अंग शारीरिक संरचना में निहित रहते हैं। अतः अंगों में व्यापक भिन्नता होती है। यह भिन्नता इनके शरीर के सिर से पूँछ तक एक के बाद एक खंडित रूप में उपस्थित होती है। जलीय एनीलिड अलवण एवं लवणीय जल दोनों में पाए जाते हैं। इनमें संवहन, पाचन, उत्सर्जन और तंत्रिका तंत्र पाए जाते हैं। ये जलीय और स्थलीय दोनों होते हैं। उदाहरणार्थ, केंचुआ, नेरीस, जोंक इत्यादि (चित्र 7.16 देखें)।

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चित्र 7.16: कुछ एनीलिड जंतु

7.5.6 आर्थ्राेपोडा

यह जंतु जगत का सबसे बड़ा संघ है। इनमें द्विपार्श्व सममिति पाई जाती है और शरीर खंडयुक्त होता है। इनमें खुला परिसंचरण तंत्र पाया जाता है। अतः रुधिर वाहिकाओं में नहीं बहता। देहगुहा रक्त से भरी होती है। इनमें जुड़े हुए पैर पाए जाते हैं। कुछ सामान्य उदाहरण हैं- झींगा, तितली, मक्खी, मकड़ी, बिच्छू केकड़े इत्यादि (चित्र 7.17 देखें)।

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चित्र 7.17: कुछ आर्थ्रोपोड जंतु

7.5.7 मोलस्का

इनमें भी द्विपार्श्वसममिति पाई जाती है। इनकी देहगुहा बहुत कम होती है तथा शरीर में थोड़ा विखंडन होता है। अधिकांश मोलस्क जंतुओं में कवच पाया जाता है। इनमें खुला संवहनी तंत्र तथा उत्सर्जन के लिए गुर्दे जैसी संरचना पाई जाती है। उदाहरणार्थ, घोंघा, सीप इत्यादि (चित्र 7.18 देखें)।

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चित्र 7.18: कुछ मोलस्क जंतु


7.5.8 इकाइनोडर्मेटा

ग्रीक में इकाइनॉस का अर्थ है, जाहक (हेजहॉग) तथा डर्मा का अर्थ है, त्वचा। अतः इन जंतुओं की त्वचा काँटों से आच्छादित होती है। ये मुक्तजीवी समुद्री जंतु हैं। ये देहगुहायुक्त त्रिकोरिक जंतु हैं। इनमें विशिष्ट जल संवहन नाल तंत्र पाया जाता है, जो उनके चलन में सहायक हैं। इनमें कैल्सियम कार्बोनेट का कंकाल एवं काँटे पाए जाते हैं। उदाहरणार्थ- स्टारफ़िश, समुद्री अर्चिन, इत्यादि (चित्र 7.19 देखें)।


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चित्र 7.19: कुछ इकाइनोडर्म जंतु

7.5.9 प्रोटोकॉर्डेटा

ये द्विपार्श्वसममित, त्रिकोरिक एवं देहगुहा युक्त जंतु हैं। इसके अतिरिक्त ये शारीरिक संरचनाओं के कुछ नए लक्षण दर्शाते हैं, जैसे कि नोटोकॉर्ड। ये नए लक्षण इनके जीवन की कुछ अवस्थाओं में निश्चित रूप से उपस्थित होती है। नोटोकॉर्ड छड़ की तरह की एक लंबी संरचना है जो जंतुओं के पृष्ठ भाग पर पाई जाती है। यह तंत्रिका ऊतक को आहार नाल से अलग करती है। यह पेशियों के जुड़ने का स्थान भी प्रदान करती है जिससे चलन में आसानी हो। प्रोटोकॉर्डेट जंतुओं में जीवन की सभी अवस्थाओं में नोटोकॉर्ड नहीं उपस्थित रह सकता है। ये समुद्री जंतु हैं। उदाहरणार्थ, बैलैनाग्लोसस, हर्डमेनिया, एम्फियोक्सस, इत्यादि (चित्र 7.20 देखें)।

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चित्र 7.20: एक प्रोटोकॉर्डेट (ब़ैलैनाग्लोसस)

7.5.10 वर्टीब्रेटा (कशेरुकी)

इन जंतुओं में वास्तविक मेरुदंड एवं अंतःकंकाल पाया जाता है। इस कारण जंतुओं में पेशियों का वितरण अलग होता है एवं पेशियाँ कंकाल से जुड़ी होती हैं, जो इन्हें चलने में सहायता करती हैं।

वर्टीब्रेट द्विपार्श्वसममित, त्रिकोरिक, देहगुहा वाले जंतु हैं। इनमें ऊतकों एवं अंगों का जटिल विभेदन पाया जाता है। सभी कशेरुकी जीवों में निम्नलिखित लक्षण पाए जाते हैंः

(i) नोटोकॉर्ड

(ii) पृष्ठनलीय कशेरुक दंड एवं मेरुरज्जु

(iii) त्रिकोरिक शरीर

(iv) युग्मित क्लोम थैली

(v) देहगुहा

वर्टीब्रेटा को पाँच वर्गों में विभाजित किया गया हैः

7.5.10 (i) सायक्लोस्टोमेटा

सायक्लोस्टोमेटा जबड़े रहित कशेरुकी हैं। इनकी विशेषता लंबे ईल के आकार का शरीर, गोलाकार मुख एवं शल्क रहित चिकनी त्वचा का होना है। ये बाह्य परजीवी होते हैं जो दूसरे कशेरुकी से संबद्ध हो जाते हैं। उदाहरणः पेट्रोमाइजॉन (लैम्प्रे) एवं मिक्जीन (हैग मछली) चित्र 7.21।


चित्र 7.21: जबड़ा रहित कशेरुकी–पेट्रोमाइजॉन


7.5.10 (ii) मत्स्य

ये मछलियाँ हैं, जो समुद्र और मीठे जल दोनों जगहों पर पाई जाती हैं। इनकी त्वचा शल्क (scales) अथवा प्लेटों से ढकी होती है तथा ये अपनी मांसल पूँछ का प्रयोग तैरने के लिए करती हैं। इनका शरीर धारारेखीय होता है। इनमें श्वसन क्रिया के लिए क्लोम पाए जाते हैं, जो जल में विलीन अॉक्सीजन का उपयोग करते हैं। ये असमतापी होते हैं तथा इनका हृदय द्विकक्षीय होता है। ये अंडे देती हैं। कुछ मछलियों में कंकाल केवल उपास्थि का बना होता है; जैसे- शार्क। अन्य प्रकार की मछलियों में कंकाल अस्थि का बना होता है; जैसे - ट्युना, रोहू। उदाहरण के लिए
चित्र 7.22
(a) तथा 7.22(b) देखें।

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चित्र 7.22 (a): कुछ मत्स्य

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चित्र 7.22 (b): कुछ मत्स्य


7.5.10 (iii) जल-स्थलचर (Amphibia)

ये मत्स्यों से भिन्न होते हैं क्योंकि इनमें शल्क नहीं पाए जाते। इनकी त्वचा पर श्लेष्म ग्रंथियाँ पाई जाती हैं तथा हृदय त्रिकक्षीय होता है। इनमें बाह्य कंकाल नहीं होता है। वृक्क पाए जाते हैं। श्वसन क्लोम अथवा फेफड़ों द्वारा होता है। ये अंडे देने वाले जंतु हैं। ये जल तथा स्थल दोनों पर रह सकते हैं। उदाहरण- मेंढक, सैलामेंडर, टोड इत्यादि (चित्र 7.23 देखें)।

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चित्र 7.23: कुछ जल-स्थलचर जंतु


7.5.10 (iv) सरीसृप

ये असमतापी जंतु हैं। इनका शरीर शल्कों द्वारा ढका होता है। इनमें श्वसन फेफड़ों द्वारा होता है। हृदय सामान्यतः त्रिकक्षीय होता है, लेकिन मगरमच्छ का हृदय चार कक्षीय होता है। वृक्क पाया जाता है। ये भी अंडे देने वाले प्राणी हैं। इनके अंडे कठोर कवच से ढके होते हैं तथा जल-स्थलचर की तरह इन्हें जल में अंडे देने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। उदाहरणार्थ- कछुआ, साँप, छिपकली, मगरमच्छ (चित्र 7.24 देखें)।

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चित्र 7.24: कुछ सरीसृप

7.5.10 (v) पक्षी

ये समतापी प्राणी हैैं। इनका हृदय चार कक्षीय होता है। इनके दो जोड़ी पैर होते हैं। इनमें आगे वाले दो पैर उड़ने के लिए पंखों में परिवर्तित हो जाते हैं। शरीर परों से ढका होता है। श्वसन फेंफड़ों द्वारा होता है। इस वर्ग में सभी पक्षियों को रखा गया है (उदाहरण के लिए चित्र 7.25 देखें)।

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चित्र 7.25: कुछ पक्षी

7.5.10 (vi) स्तनपायी

ये समतापी प्राणी हैं। हृदय चार कक्षीय होता है। इस वर्ग के सभी जंतुओं में नवजात के पोषण के लिए दुग्ध ग्रंथियाँ पाई जाती हैं। इनकी त्वचा पर बाल, स्वेद और तेल ग्रंथियाँ पाई जाती हैं। इस वर्ग के जंतु शिशुओं को जन्म देने वाले होते हैं। हालांकि, कुछ जंतु अपवाद स्वरूप अंडे भी देते हैं जैसे इकिड्ना, प्लेटिपस। कंगारू जैसे कुछ स्तनपायी में अविकसित बच्चे मार्सूपियम नामक थैली में तब तक लटके रहते हैं जब तक कि उनका पूर्ण विकास नहीं हो जाता है। कुछ उदाहरण चित्र 7.26 में दिखाए गए हैं।

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चित्र 7.26: कुछ स्तनपायी

प्रश्न

1. पोरीफ़्ηेरा और सिलेंटरेटा वर्ग के जंतुओं में क्या अंतर है?

2. एनीलिडा के जंतु, आर्थ्रोपोडा के जंतुओं से किस प्रकार भिन्न हैं?

3. जल-स्थलचर और सरीसृप में क्या अंतर है?

4. पक्षी वर्ग और स्तनपायी वर्ग के जंतुओं में क्या अंतर है?



7.6 नामपद्धति

जीवों के वर्गीकृत नाम की क्या आवश्यकता है?


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केरोलस लीनियस (कार्लवॉन लिने)का जन्म स्वीडन में हुआ था। वे पेशे से डॉक्टर थे लेकिन पौधों के अध्ययन में उनकी खासी दिलचस्पी थी। बाईस वर्ष की आयु में पौधों पर उनका पहला शोधपत्र प्रकाशित हुआ। एक धनी अधिकारी के यहाँ नौकरी करते हुए उन्होंने अपने मालिक के बगीचे में पौधों की विविधता का अध्ययन किया। इसके बाद उन्होंने सिस्टेमा नेचुरी नामक पुस्तक लिखी, जो आगे चलकर विभिन्न वर्गीकरण प्रणालियों का आधार बनी। इस विषय पर उनके 14 शोधपत्र भी प्रकाशित हुए। उनके द्वारा दी गई वर्गीकरण प्रणाली में पौधों को सरल क्रम में इस प्रकार व्यवस्थित किया जा सकता है जिससे उनकी पहचान हो सके।


क्रियाकलाप 7.3

निम्नलिखित जंतुओं और पौधों के नाम जितनी भाषाओं में संभव हो सके आप बताएँ-

1. चीता 2. मोर 3. चींटी

4. नीम 5. कमल 6. आलू

इनमें सभी के नाम भिन्न-भिन्न भाषाओं में अलग-अलग दिए गए हैं। इसलिए जब कोई एक भाषा में जीव की बात कर रहा हो तो हो सकता है कि दूसरी भाषा जानने वाला समझ ही न पाए। इस समस्या का हल वैज्ञानिकों ने सभी जीवों को एक वैज्ञानिक नाम देकर उसी प्रकार हल किया जैसे विभिन्न रासायनिक तत्वों को संकेत में निरूपित करके किया गया। इसी प्रकार किसी जीव का केवल एक ही वैज्ञानिक नाम होता है और पूरे संसार में वह उसी नाम से जाना जाता है।


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चित्र 7.27: जंतुओं का वर्गीकरण

नामपद्धति के लिए हम जिस वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग करते हैं, वह सबसे पहले केरोलस लीनियस द्वारा अठारहवीं शताब्दी में शुरू की गई। वैज्ञानिक नामपद्धति प्रणाली जीवों की एक-दूसरे में पायी जाने वाली समानता और असमानता पर निर्भर करती है। हालांकि नामपद्धति में हम जीव के वर्गीकरण के सभी पदानुक्रम को ध्यान में नहीं रखते हैं, बल्कि केवल जीनस एवं स्पीशीज़ का ही ध्यान रखा जाता है। नामपद्धति के लिए दुनियाभर में कुछ विशेष बातों पर विचार किया जाता है, जैसे-

1. जीनस का नाम अंग्रेजी के बड़े अक्षर से शुरू होना चाहिए।

2. प्रजाति का नाम छोटे अक्षर से शुरू होना चाहिए।

3. छपे हुए रूप में वैज्ञानिक नाम इटैलिक से लिखे जाते हैं।

4. जब इन्हें हाथ से लिखा जाता है तो जीनस और स्पीशीज़ दोनों को अलग-अलग रेखांकित कर दिया जाता है।

क्रियाकलाप 7.4

किन्हीं पाँच जंतुओं और पौधों के वैज्ञानिक नाम का पता लगाइए। क्या इनके वैज्ञानिक नामों और सामान्य नामों में कोई समानता है?

आपने क्या सीखा

वर्गीकरण जीवों की विविधता को स्पष्ट करने में सहायक होता है।

जीवों को पाँच जगत में वर्गीकृत करने के लिए निम्न विशेषताओं को ध्यान में रखा जाता है-

(a) कोशिकीय संरचना- प्रोकैरियोटी अथवा यूकैरियोटी

(b) जीव का शरीर एककोशिक अथवा बहुकोशिक है। बहुकोशिक जीवों की संरचना जटिल होती है।

(c) कोशिका भित्ति की उपस्थिति तथा स्वपोषण की क्षमता।

उपरोक्त आधार पर सभी जीवों को पाँच जगत में बाँटा गया है-

मोनेरा, प्रोटिस्टा, कवक (फ़ंजाई), प्लांटी और एनीमेलिया।

जीवों का वर्गीकरण उनके विकास से संबंधित है।

प्लांटी और एनिमेलिया को उनकी क्रमिक शारीरिक जटिलता के आधार पर वर्गीकृत किया गया है।

पौधों को पाँच वर्गों में बाँटा गया है — शैवाल, ब्रायोफ़ाइटा, टेरिडोफ़ाइटा, जिम्नोस्पर्म और एंजियोस्पर्म।

जंतुओं को दस फ़ाइलम में बाँटा गया है — पोरीफ़ेरा, सीलेंटरेटा, प्लेटीहेल्मिन्थीज़, निमेटोडा, एनीलिडा, आर्थ्रोपोडा, मोलस्का, इकाइनोडर्मेटा, प्रोटोकॉर्डेटा और कॉर्डेटा।

द्विपद-नामपद्धति जीवों की सही पहचान में सहायता करती है।

द्विपद-नामपद्धति में पहला नाम जीनस और दूसरा स्पीशीज़ का होता है।

अभ्यास

1. जीवों के वर्गीकरण से क्या लाभ है?

2. वर्गीकरण में पदानुक्रम निर्धारण के लिए दो लक्षणों में से आप किस लक्षण का चयन करेंगे?

3. जीवों के पाँच जगत में वर्गीकरण के आधार की व्याख्या कीजिए।

4. पादप जगत के प्रमुख वर्ग कौन हैं? इस वर्गीकरण का क्या आधार है?

5. जंतुओं और पौधों के वर्गीकरण के आधारों में मूल अंतर क्या है?

6. वर्टीब्रेटा (कशेरुक प्राणी) को विभिन्न वर्गों में बाँटने के आधार की व्याख्या कीजिए।