Table of Contents
पञ्चम: पाठ:
सूक्तिमौक्तिकम्
प्रस्तुतोऽयं पाठ: नैतिकशिक्षाणां प्रदायकरूपेण वर्तते। अस्मिन् पाठांशे विविधग्रन्थेभ्य: सङ्ग्रहणं कृत्वा नानानैतिकशिक्षाबोधकपद्यानि गृहीतानि सन्ति। अत्र सदाचरणस्य महिमा, प्रियवाण्या: आवश्यकता, परोपकारिणां स्वभाव:, गुणार्जनस्य प्रेरणा, मित्रताया: स्वरूपम्, श्रेष्ठसङ्गते: प्रशंसा तथा च सत्सङ्गते: प्रभाव: इत्यादीनां विषयाणां निरूपणम् अस्ति। संस्कृतसाहित्ये नीतिग्रन्थानां समृद्धा परम्परा दृश्यते। तत्र प्रतिपादितशिक्षाणाम् अनुगमनं कृत्वा जीवनसाफल्यं कर्तुं शक्नुम:।
वृत्तं यत्नेन संरक्षेद् वित्तमेति च याति च।
अक्षीणो वित्तत: क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हत:।।1।।
-मनुस्मृति:
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।
आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।।2।।
-विदुरनीति:
प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तव:।
तस्माद् तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता।।3।।
-चाणक्यनीति:
पिबन्ति नद्य: स्वयमेव नाम्भ:
स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षा:।
नादन्ति सस्यं खलु वारिवाहा:
परोपकाराय सतां विभूतय:।।4।।
-सुभाषितरत्नभाण्डागारम्
गुणेष्वेव हि कर्तव्य: प्रयत्न: पुरुषै: सदा।
गुणयुक्तो दरिद्रोऽपि नेश्वरैरगुणै: सम:।।5।।
-मृच्छकटिकम्
आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण
लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात्।
दिनस्य पूर्वार्द्धपरार्द्धभिन्ना
छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्।।6।।
-नीतिशतकम्
यत्रापि कुत्रापि गता भवेयु-
र्हंसा महीमण्डलमण्डनाय।
हानिस्तु तेषां हि सरोवराणां
येषां मरालै: सह विप्रयोग:।।7।।
-भामिनीविलास:
गुणा गुणज्ञेषु गुणा भवन्ति
ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषा:।
आस्वाद्यतोया: प्रवहन्ति नद्य:
समुद्रमासाद्य भवन्त्यपेया:।।8।।
-हितोपदेश:
शब्दार्था:
वित्तम् | धनम् | धन, एेश्वर्य | Money |
वृत्तम् | आचरणम् | आचरण, चरित्र | Conduct |
अक्षीणः | न क्षीणः, सम्पन्नः | नष्ट न हुआ | Not exhasted |
धर्मसर्वस्वम् | कर्तव्यसारः | धर्म (कर्तव्यबोध) का सब कुछ | Gist of righteous ness |
प्रतिकूलानि | विपरीतानि | अनुकूल नहीं | Aversive |
तुष्यन्ति | तोषम् अनुभवन्ति | सन्तुष्ट होते हैं | Become satatisfied |
वक्तव्यम् | कथनीयम् | कहना चाहिए | Worth saying |
वारिवाहाः | मेघाः | जल वहन करने वाले बादल | Clouds |
विभूतयः | समृद्धयः | सम्पत्तियाँ | Riches |
गुणयुक्तः | गुणवान्, गुणसम्पन्नः | गुणों से युक्त | Meritorious |
अगुणैः | गुणरहितैः | गुणहीनों से | With people without attributes |
आरम्भगुर्वी | आदौ दीर्घा | आरम्भ में लम्बी | Bigger in the beginning |
क्षयिणी | क्षयशीला | घटती स्वभाव वाली | Reducing |
वृद्धिमती | वृद्धिम् उपगता | लम्बी होती हुई, लम्बी हुई | Increasing |
पूर्वार्द्धपरार्द्ध- भिन्ना | पूर्वार्द्धेन परार्द्धेन च पृथग्भूता | पूर्वाह्ण और अपराह्ण (छाया)की तरह अलग-अलग | Different |
खलसज्जनानाम् | दुर्जनसुजनानाम् | दुष्टों और सज्जनों की | Of bad and good people |
महीमण्डल- मण्डनाय | पृथिवीमण्डलाल- ड्करणाय | पृथ्वी को सुशोभित करने के लिए | For emblazoning the earth |
मरालै: | हंसैः | हंसों से | With swans |
विप्रयोगः | वियोगः | अलग होना | Separation |
गुणज्ञेषु | गुणज्ञातृषु जनेषु | गुणों को जानने वालों में | Among connoisseuss |
आस्वाद्यतोयाः | स्वादनीयजलसम्पन्नाः | स्वादयुक्त जल वाली | Filled with tasty water |
आसाद्य | प्राप्य | पाकर | Reaching |
अपेयाः | न पेयाः, न पानयोग्याः | न पीने योग्य | Undrinkable |
अन्वय:-
1. वृत्तं यत्नेन संरक्षेत् वित्तम् एति च याति च।
वित्तत: क्षीण: अक्षीण: (भवति) वृत्तत: (क्षीण:) तु हत: हत:।।
2. धर्मसर्वस्वं श्रूयतां श्रुत्वा च एव अवधार्यताम् आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।।
3. सर्वे जन्तव: प्रियवाक्यप्रदानेन तुष्यन्ति। तस्मात् तत् एव वक्तव्यम् वचने दरिद्रता का?
4. नद्य: स्वयम् एव अम्भ: न पिबन्ति, वृक्षा: स्वयं फलानि न खादन्ति। वारिवाहा: खलु सस्यं न
अदन्ति, सतां विभूतय: परोपकाराय (एव भवन्ति)।।
5. पुरुषै: सदा गुणेषु एव हि प्रयत्न: कर्तव्य:। गुणयुक्त: दरिद्र: अपि अगुणै: ईश्वरै: सम: न (न
भवति)।।
6. आरम्भगुर्वी (भवति) क्रमेण क्षयिणी (भवति), पुरा लघ्वी (भवति) पश्चात् च वृद्धिमती (भवति) दिनस्य पूर्वार्द्धपरार्द्ध-छाया इव खलसज्जनानां मैत्री भिन्ना (भवति)।।
7. हंसा: यत्र अपि कुत्र अपि महीमण्डलमण्डनाय गता: भवेयु:। हानि: तु तेषां सरोवराणां हि (भवति) येषां (सरोवराणाम्) मरालै: सह विप्रयोग: भवति।।
8. गुणज्ञेषु गुणा: गुणा: भवन्ति, ते (गुणा:) निर्गुणं प्राप्य दोषा: भवन्ति। आस्वाद्यतोया: नद्य: प्रवहन्ति,
(ता: एव नद्य:) समुद्रम् आसाद्य अपेया: भवन्ति।।
अभ्यास:
1. एकपदेन उत्तरं लिखत-
(क) वित्तत: क्षीण: कीदृश: भवति?
(ख) कस्य प्रतिकूलानि कार्याणि परेषां न समाचरेत्?
(ग) कुत्र दरिद्रता न भवेत्?
(घ) वृक्षा: स्वयं कानि न खादन्ति?
(ङ) का पुरा लघ्वी भवति?
2. अधोलिखितप्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत-
(क) यत्नेन किं रक्षेत् वित्तं वृत्तं वा?
(ख) अस्माभि: (किं न समाचरेत्) कीदृशम् आचरणं न कर्त्तव्यम्?
(ग) जन्तव: केन तुष्यन्ति?
(घ) सज्जनानां मैत्री कीदृशी भवति?
(ङ) सरोवराणां हानि: कदा भवति?
3. ‘क’ स्तम्भे विशेषणानि ‘ख’ स्तम्भे च विशेष्याणि दत्तानि, तानि यथोचितं योजयत-
‘क’ स्तम्भ: ‘ख’ स्तम्भ:
(क) आस्वाद्यतोया: (1) खलानां मैत्री
(ख) गुणयुक्त: (2) सज्जनानां मैत्री
(ग) दिनस्य पूर्वार्द्धभिन्ना (3) नद्य:
(घ) दिनस्य परार्द्धभिन्ना (4) दरिद्र:
4. अधोलिखितयो: श्लोकद्वयो: आशयं हिन्दीभाषया आङ्ग्लभाषया वा लिखत-
(क) आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण
लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात्।
दिनस्य पूर्वार्द्धपरार्द्धभिन्ना
छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्।।
(ख) प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तव:।
तस्मात्तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता।।
5. अधोलिखितपदेभ्य: भिन्नप्रकृतिकं पदं चित्वा लिखत-
(क) वक्तव्यम्, कर्तव्यम्, सर्वस्वम्, हन्तव्यम्।
(ख) यत्नेन, वचने, प्रियवाक्यप्रदानेन, मरालेन।
(ग) श्रूयताम्, अवधार्यताम्, धनवताम्, क्षम्यताम्।
(घ) जन्तव:, नद्य:, विभूतय:, परित:।
6. स्थूलपदान्यधिकृत्य प्रश्नवाक्यनिर्माणं कुरुत-
(क) वृत्तत: क्षीण: हत: भवति।
(ख) धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा अवधार्यताम्।
(ग) वृक्षा: फलं न खादन्ति।
(घ) खलानाम् मैत्री आरम्भगुर्वी भवति।
7. अधोलिखितानि वाक्यानि लोट्लकारे परिवर्तयत-
यथा- स: पाठं पठति। - स: पाठं पठतु।
(क) नद्य: आस्वाद्यतोया: सन्ति। - .....................
(ख) स: सदैव प्रियवाक्यं वदति। - .....................
(ग) त्वं परेषां प्रतिकूलानि न समाचरसि। - .....................
(घ) ते वृत्तं यत्नेन संरक्षन्ति। - .....................
(ङ) अहं परोपकाराय कार्यं करोमि। - .....................
परियोजनाकार्यम्
(क) परोपकारविषयकं श्लोकद्वयम् अन्विष्य स्मृत्वा च कक्षायां सस्वरं पठ।
(ख) नद्या: एकं सुन्दरं चित्रं निर्माय संकलय्य वा वर्णयत यत् तस्या: तीरे मनुष्या: पशव: खगाश्च निर्विघ्नं जलं पिबन्ति।
योग्यताविस्तार:
संस्कृत साहित्य में नीति-ग्रन्थों द्वारा नैतिक शिक्षाएँ दी गई हैं, जिनका उपयोग करके मनुष्य अपने जीवन को सफल और समृद्ध बना सकता है। एेसे ही बहुमूल्य सुभाषित यहाँ संकलित हैं, जिनमें सदाचरण की महत्ता, प्रियवाणी की आवश्यकता, परोपकारी पुरुष का स्वभाव, गुणार्जन की प्रेरणा, मित्रता का स्वरूप और उत्तम पुरुष के सम्पर्क से होने वाली शोभा की प्रशंसा और सत्संगति की महिमा आदि विषयों का प्रतिपादन किया गया है।संस्कृत-साहित्य में सारगर्भित, लौकिक, पारलौकिक एवं नैतिकमूल्यों वाले सुभाषितों की बहुलता है जोे देखने में छोटे प्रतीत होते हैं किन्तु गम्भीर भाव वाले होते हैं। मानव-जीवन में इनका अतीव महत्त्व है।
भावविस्तार:
(क) आस्वाद्यतोया: प्रवहन्ति नद्य: समुुद्रमासाद्य भवन्त्यपेया:।
खारे समुद्र में मिलने पर स्वादिष्ट जलवाली नदियों का जल अपेय हो जाता है। इसी भावसाम्य के आधार पर कहा गया है कि "संसर्गजा: दोषगुणा: भवन्ति।"
(ख) छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्।
दुष्ट व्यक्ति मित्रता करता है और सज्जन व्यक्ति भी मित्रता करता है। परन्तु दोनों की मैत्री, दिन के पूर्वार्द्ध एवं परार्द्ध कालीन छाया की भाँति होती है। वास्तव में दुष्ट व्यक्ति की मैत्री के लिए श्लोक का प्रथम चरण "आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण" कहा गया है तथा सज्जन की मैत्री के लिए द्वितीय चरण ‘लघ्वीपुरा वृद्धिमती च पश्चात्’ कहा गया है।
भाषिकविस्तार:
(1) वित्तत: - वित्त शब्द से तसिल् प्रत्यय किया गया है। पंचमी विभक्ति के अर्थ में लगने वाले तसिल् प्रत्यय का त: ही शेष रहता है। उदाहरणार्थ- सागर + तसिल् = सागरत:, प्रयाग + तसिल् = प्रयागत:, देहली + तसिल् = देहलीत: आदि। इसी प्रकार वृत्तत: शब्द में भी तसिल् प्रत्यय लगा करके वृत्तत: शब्द बनाया गया है।
(2) उपसर्ग - क्रिया के पूर्व जुड़ने वाले प्र, परा आदि शब्दों को उपसर्ग कहा जाता है।
जैसे - ‘हृ’ धातु से उपसर्गों का योग होने पर निम्नलिखित रूप बनते हैं
प्र + हृ - प्रहरति, प्रहार (हमला करना)
वि + हृ - विहरति, विहार (भ्रमण करना)
उप + हृ - उपहरति, उपहार (भेंट देना)
सम् + हृ - संहरति, संहार (मारना)
(3) शब्दों को स्त्रीलिङ्ग में परिवर्तित करने के लिए स्त्री प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है। इन प्रत्ययों में टाप् व ङीप् मुख्य हैं।
जैसे- बाल + टाप् - बाला
अध्यापक + टाप् - अध्यापिका
लघु + ङीप् - लघ्वी
गुरु + ङीप् - गुर्वी