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नवम: पाठ:
सिकतासेतु:
प्रस्तुत: नाट्यांश: सोमदेवविरचित: "कथासरित्सागर:" इत्यस्य सप्तमाध्यायोपरि
आधारितोऽस्ति। अस्मिन् नाट्यांशे तपसा विद्यां प्राप्तुं यत्नशील: कश्चित् तपोदत्तनामक: कुमार: चित्रित: अस्ति। तस्य मार्गदर्शनाय पुरुषवेषधारी देवराज: इन्द्र: तत्र आगतवान्। तत्र आगत्य देवराज: सिकताभि: सेतुनिर्माणार्थं प्रयतते। एतद् दृष्ट्वा तपोदत्त: प्रहसन् वदति किमर्थं भो ! बालुकाभि: जलबन्धं निर्मासि? ततो देवराज: प्रतिवक्ति यद् यद् अध्ययनं श्रवणं पठनं विना यदि त्वं विद्यां प्राप्तुं शक्नोषि तदा अहमपि बालुकाभि: सेतुनिर्माणं कर्तुं शक्नोमि। देवराजस्य अभिप्रायं ज्ञात्वा तपोदत्त: विद्याप्राप्तिकाम: गुरुकुलं गतवान्।
(तत: प्रविशति तपस्यारत: तपोदत्त:)
तपोदत्त: - अहमस्मि तपोदत्त:। बाल्ये पितृचरणै: क्लेश्यमानोऽपि विद्यां नाऽधीतवानस्मि। तस्मात् सर्वै: कुटुम्बिभि: मित्रै: ज्ञातिजनैश्च गर्हितोऽभवम्।
(ऊर्ध्वं नि:श्वस्य)
हा विधे! किम् इदं मया कृतम्? कीदृशी दुर्बुद्धि आसीत् तदा। एतदपि न चिन्तितं यत्-
परिधानैरलङ्कारैर्भूषितोऽपि न शोभते।
नरो निर्मणिभोगीव सभायां यदि वा गृहे।।1।।
(किञ्चिद् विमृश्य)
भवतु, किम् एतेन? दिवसे मार्गभ्रान्त: सन्ध्यां यावद् यदि गृहमुपैति तदपि वरम्। नाऽसौ भ्रान्तो मन्यते। अतोऽहम् इदानीं तपश्चर्यया विद्यामवाप्तुं प्रवृत्तोऽस्मि।
(जलोच्छलनध्वनि: श्रूयते)
अये कुतोऽयं कल्लोलोच्छलनध्वनि:? महामत्स्यो मकरो वा भवेत्। पश्यामि तावत्।
(पुरुषमेकं सिकताभि: सेतुनिर्माण-प्रयासं कुर्वाणं दृष्ट्वा सहासम्)
हन्त! नास्त्यभावो जगति मूर्खाणाम्! तीव्रप्रवाहायां नद्यां मूढोऽयं सिकताभि: सेतुं निर्मातुं प्रयतते!
(साट्टहासं पार्श्वमुपेत्य)
भो महाशय! किमिदं विधीयते! अलमलं तव श्रमेण। पश्य,
रामो बबन्ध यं सेतुं शिलाभिर्मकरालये।
विदधद् बालुकाभिस्तं यासि त्वमतिरामताम्।।2।।
चिन्तय तावत्। सिकताभि: क्वचित्सेतु: कर्तुं युज्यते?
पुरुष: - भोस्तपस्विन्! कथं माम् अवरोधं करोषि। प्रयत्नेन किं न सिद्धं भवति? कावश्यकता शिलानाम्? सिकताभिरेव सेतुं करिष्यामि स्वसंकल्पदृढतया।
तपोदत्त: - आश्चर्यम्् किम् सिकताभिरेव सेतुं करिष्यसि? सिकता जलप्रवाहे स्थास्यन्ति किम्? भवता चिन्तितं न वा?
पुरुष: - (सोत्प्रासम्) चिन्तितं चिन्तितम्। सम्यक् चिन्तितम्। नाहं सोपानसहायतया अधि- रोढुं विश्वसिमि। समुत्प्लुत्यैव गन्तुं क्षमोऽस्मि।
तपोदत्त: - (सव्यङ्ग्यम्)
साधु साधु! आञ्जनेयमप्यतिक्रामसि!
पुरुष: - (सविमर्शम्)
कोऽत्र सन्देह:? किञ्च,
विना लिप्यक्षरज्ञानं तपोभिरेव केवलम्।
यदि विद्या वशे स्युस्ते, सेतुरेष तथा मम।।3।।
तपोदत्त: - (सवैलक्ष्यम् आत्मगतम्)
अये! मामेवोद्दिश्य भद्रपुरुषोऽयम् अधिक्षिपति! नूनं सत्यमत्र पश्यामि। अक्षरज्ञानं विनैव वैदुष्यमवाप्तुम् अभिलषामि! तदियं भगवत्या: शारदाया अवमानना। गुरुगृहं गत्वैव विद्याभ्यासो मया करणीय:। पुरुषार्थैरेव लक्ष्यं प्राप्यते।
(प्रकाशम्)
भो नरोत्तम! नाऽहं जाने यत् कोऽस्ति भवान्। परन्तु भवद्भि: उन्मीलितं मे नयनयुगलम्। तपोमात्रेण विद्यामवाप्तुं प्रयतमान: अहमपि सिकताभिरेव सेतुनिर्माणप्रयासं करोमि। तदिदानीं विद्याध्ययनाय गुरुकुलमेव गच्छामि।
(सप्रणामं गच्छति)
शब्दार्था:
सिकता | बालुका | रेत | Sand |
सेतु: | जलबन्ध: | पुल | Bridge |
तपस्यारत: | तप: कुर्वन् | तपस्या में लीन | Performing penance |
पितृचरणै: | तातपादै: | पिताजी के द्वारा | By father |
क्लेश्यमान: | संताप्यमान: | व्याकुल किया जाता हुआ | Troubled |
अधीतवान् | अध्ययनं कृतवान् | पढ़ा (He) | Studied |
कुटुम्बिभि: | परिवारजनै: | कुटुम्बियों द्वारा | By family members |
ज्ञातिजनै: | बन्धुबान्धवै: | बन्धु-बान्धवों द्वारा | By paternel family members |
गर्हित: | निन्दित: | अपमानित | Instulted |
नि:श्वस्य | दीर्घश्वासं त्यक्त्वा | लम्बी साँस छोड़कर | Exhaling |
दुर्बुद्धि: | दुर्मति: दुष्ट | बुद्धिवाला | Foolishness |
परिधानै: | वस्त्रै: | कपड़ों से, पहनावों से | By dress |
मार्गभ्रान्त: | पथभ्रष्ट: | राह से भटका हुआ | Astray |
उपैति | प्राप्नोति, समीपं गच्छति | जाता है, समीप जाता है | (He/she) goes near |
तपश्चर्यया | तपसा | तपस्या के द्वारा | By performing penance |
जलोच्छलनध्वनि: | जलोर्ध्वगते: शब्द: | पानी के उछलने की आवाज | Sound of water |
कल्लोलोच्छलन:- ध्वनि: | तरङ्गोच्छलनस्य शब्द: | तरंगों के उछलने की ध्वनि | Sound of splash of tides |
कुर्वाणम् | कुर्वन्तम् | करते हुए | Performing |
सहासम् | हासपूर्वकम् | हँसते हुए | Laughingly |
सोत्प्रासम् | उपहासपूर्वकम् | खिल्ली उड़ाते हुए, चुटकी लेते हुए | Ridiculing |
साट्टहासम् | अट्टहासपूर्वकम् | जोर से हँसकर | With a loud laughter |
अट्टम् | अट्टालिकाम् | अटारी को | High building |
अधिरोढुम् | उपरि गन्तुम् | चढ़ने के लिए | For going up |
आञ्जनेयम् | हनुमन्तम् | अञ्जनिपुत्र हनुमान् को | To son of Anyana (Hanuman) |
सविमर्शम् | विचारसहितम् | सोच-विचार कर | With thought |
सवैलक्ष्यम् | सलज्जम् | लज्जापूर्वक | With shyness |
वैदुष्यम् | पाण्डित्यम् | विद्वत्ता | Esudition |
उन्मीलितम् | उद्घाटितम् | खोल दी | Opened (n.) |
अन्वय:
निर्मणि भोगीव नर:सभायां यदि वा गृहे परिधानै: अलड्कारै: भूषित: अपि (विद्यां विना) न शोभते।।1।।
राम: मकरालये यं सेतुं शिलाभि: बबन्ध, तं बालुकाभि: विद्धत् त्वम् अतिरामतां यासि।।2।।
यदि विद्या लिप्यक्षरज्ञानं विना केवलं तपोभि: एव ते वशे स्यु: तथा एष: सेतु: मम (स्यात्)।।3।।
अभ्यास:
1. एकपदेन उत्तरं लिखत-
(क) क: बाल्ये विद्यां न अधीतवान्?
(ख) तपोदत्त: कया विद्याम् अवाप्तुं प्रवृत्त: अस्ति?
(ग) मकरालये क: शिलाभि: सेतुं बबन्ध?
(घ) मार्गभ्रान्त: सन्ध्यां कुत्र उपैति?
(ङ) पुरुष: सिकताभि: किं करोति?
2. अधोलिखितानां प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत-
(क) अनधीत: तपोदत्त: कै: गर्हितोऽभवत्?
(ख) तपोदत्त: केन प्रकारेण विद्यामवाप्तुं प्रवृत्तोऽभवत्?
(ग) तपोदत्त: पुरुषस्य कां चेष्टां दृष्ट्वा अहसत्?
(घ) तपोमात्रेण विद्यां प्राप्तुं तस्य प्रयास: कीदृश: कथित:?
(ङ) अन्ते तपोदत्त: विद्याग्रहणाय कुत्र गत:?
3. भिन्नवर्गीयं पदं चिनुत-
यथा- अधिरोढुम्, गन्तुम्, सेतुम्, निर्मातुम्।
(क) नि:श्वस्य, चिन्तय, विमृश्य, उपेत्य।
(ख) विश्वसिमि, पश्यामि, करिष्यामि, अभिलषामि।
(ग) तपोभि:, दुर्बुद्धि:, सिकताभि:, कुटुम्बिभि:।
4. (क) रेखाङ्कितानि सर्वनामपदानि कस्मै प्रयुक्तानि?
(i) अलमलं तव श्रमेण।
(ii) न अहं सोपानमार्गैरट्टमधिरोढुं विश्वसिमि।
(iii) चिन्तितं भवता न वा।
(iv) गुरुगृहं गत्वैव विद्याभ्यासो मया करणीय:।
(v) भवद्भि: उन्मीलितं मे नयनयुगलम्।
(ख) अधोलिखितानि कथनानि क: कं प्रति कथयति?
कथनानि | क: | कम् |
---|---|---|
(i)हा विधे! किमिदं मया कृतम्? | ................ | ................ |
(ii) भो महाशय! किमिदं विधीयते। | ................ | ................ |
(iii)भोस्तपस्विन्! कथं माम् उपरुणत्सि। | ................ | ................ |
(iv)सिकता: जलप्रवाहे स्थास्यन्ति किम्? | ................ | ................ |
(v)नाहं जाने कोऽस्ति भवान्? | ................ | ................ |
5. स्थूलपदान्यधिकृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत-
(क) तपोदत्त: तपश्चर्यया विद्यामवाप्तुं प्रवृत्तोऽस्ति।
(ख) तपोदत्त: कुटुम्बिभि: मित्रै: गर्हित: अभवत्।
(ग) पुरुष: नद्यां सिकताभि: सेतुं निर्मातुं प्रयतते।
(घ) तपोदत्त: अक्षरज्ञानं विनैव वैदुष्यमवाप्तुम् अभिलषति।
(ङ) तपोदत्त: विद्याध्ययनाय गुरुकुलम् अगच्छत्।
(च) गुरुगृहं गत्वैव विद्याभ्यास: करणीय:।
6. उदाहरणमनुसृत्य अधोलिखितविग्रहपदानां समस्तपदानि लिखत-
विग्रहपदानि | समस्तपदानि |
---|---|
यथा- संकल्पस्य सातत्येन | संकल्पसातत्येन |
(क)अक्षराणां ज्ञानम् | .............................. |
(ख)सिकताया: सेतु: | .............................. |
(ग)पितु: चरणै: | .............................. |
(घ)गुरो: गृहम् | .............................. |
(ङ)विद्याया: अभ्यास: | .............................. |
(अ) उदाहरणमनुसृत्य अधोलिखितानां समस्तपदानां विग्रहं कुरुत-
समस्तपदानि | विग्रह: |
---|---|
यथा- नयनयुगलम् | नयनयो: युगलम् |
(क) जलप्रवाहे | .............................. |
(ख) तपश्चर्यया | .............................. |
(ग) जलोच्छलनध्वनि: | .............................. |
(घ) सेतुनिर्माणप्रयास: | .............................. |
7. उदाहरणमनुसृत्य कोष्ठकात् पदम् आदाय नूतनं वाक्यद्वयं रचयत-
(क) यथा- अलं चिन्तया। (‘अलम्’ योगे तृतीया)
(i) ......................... ......................... (भय)
(ii) ......................... ......................... (कोलाहल)
(ख) यथा- माम् अनु स गच्छति। (‘अनु’ योगे द्वितीया)
(i) ........... ........... ........... ........... (गृह)
(ii) ........... ........... ........... ........... (पर्वत)
(ग) यथा- अक्षरज्ञानं विनैव वैदुष्यं प्राप्तुमभिलषसि। (‘विना’ योगे द्वितीया)
(i) ........... ........... ........... ........... (परिश्रम)
(ii) ........... ........... ........... ........... (अभ्यास)
(घ) यथा- सन्ध्यां यावत् गृहमुपैति। (‘यावत्’ योगे द्वितीया)
(i) ........... ........... ........... ........... (मास)
(ii) ........... ........... ........... ........... (वर्ष)
योग्यताविस्तार:
यह नाट्यांश सोमदेवरचित कथासरित्सागर के सप्तम लम्बक (अध्याय) पर आधारित है। यहाँ तपोबल से विद्या पाने के लिए प्रयत्नशील तपोदत्त नामक एक बालक की कथा का वर्णन है। उसके समुचित मार्गदर्शन के लिए वेष बदलकर इंद्र उसके पास आते हैं और पास ही गंगा में बालू से सेतुनिर्माण के कार्य में लग जाते हैं। उन्हें वैसा करते देख तपोदत्त उनका उपहास करता हुआ कहता है-‘अरे! किसलिए गंगा के जल में व्यर्थ ही बालू से पुल बनाने का प्रयत्न कर रहे हो?’ इंद्र उन्हें उत्तर देते हैं-यदि पढ़ने, सुनने और अक्षरों की लिपि के अभ्यास के बिना तुम विद्या पा सकते हो तो बालू से पुल बनाना भी संभव है।
(क) कवि परिचय - कथासरित्सागर के रचयिता कश्मीर निवासी श्री सोमदेव भट्ट हैं। ये कश्मीर के राजा श्री अनन्तदेव के सभापण्डित थे। कवि ने रानी सूर्यमती के मनो-विनोद के लिए कथासरित्सागर नामक ग्रन्थ की रचना की। इस ग्रन्थ का मूल, महाकवि गुणाढ्य की बृहत्कथा (प्राकृत भाषा का ग्रन्थ) है।
(ख) ग्रन्थ परिचय - कथासरित्सागर अनेक कथाओं का महासमुद्र है। इस ग्रन्थ में अठारह लम्बक हैं। मूलकथा की पुष्टि के लिए अनेक उपकथाएँ वर्णित की गई हैं। प्रस्तुत कथा रत्नप्रभा नामक लम्बक से सङ्कलित की गई है। ज्ञान-प्राप्ति केवल तपस्या से नहीं, बल्कि गुरु के समीप जाकर अध्ययनादि कार्यों के करने से होती है। यही इस कथा का सार है।
(ग) पर्यायवाचिन: शब्दा:-
इदानीम् - अधुना, साम्प्रतम्, सम्प्रति।
जलम् - वारि, उदकम्, सलिलम्।
नदी - सरित्, तटिनी, तरङ्गिणी।
पुरुषार्थ: - उद्योग:, उद्यम:, परिश्रम:।
(घ) विलोमशब्दा:-
दुर्बुद्धि: - सुबुद्धि:
गर्हित: - प्रशंसित:
प्रवृत्त: - निवृत्त:
अभ्यास: - अनभ्यास:
सत्यम् - असत्यम्
(ङ) आत्मगतम् - नाटकों में प्रयुक्त यह एक पारिभाषिक शब्द है। जब नट या अभिनेता रंगमञ्च पर अपने कथन को दूसरों को सुनाना नहीं चाहता, मन में ही सोचता है तब उसके कथन को ‘आत्मगतम्’ कहा जाता है।
(च) प्रकाशम् - जब नट या अभिनेता के संवाद रंगमञ्च पर दर्शकों के सामने प्रकट किये जाते हैं, तब उन संवादों को ‘प्रकाशम्’ शब्द से सूचित किया जाता है।
(छ) अतिरामता - राम से आगे बढ़ जाने की स्थिति को ‘अतिरामता’ कहा गया है-रामम् अतिक्रान्त: = अतिराम:, तस्य भाव: = अतिरामता। राम ने शिलाओं से समुद्र में सेतु का निर्माण किया था। विप्र-रूपधारी इन्द्र को सिकता-कणों से सेतु बनाते देख तपोदत्त उनका उपहास करते हुए कहता है कि तुम राम से आगे बढ़ जाना चाहते हो।
निम्नलिखित कहावतों को पाठ में आए हुए संस्कृत वाक्यांश में पहचानिये-
(i) सुबह का भूला शाम को घर लौट आये, तो भूला नहीं कहलाता है।
(ii) मेरी आँखें खुल गईं।
(ज) आञ्जनेयम् - अञ्जना के पुत्र होने के कारण हनुमान् को आञ्जनेय कहा जाता है। हनुमान् उछलकर कहीं भी जाने में समर्थ थे। इसलिए इन्द्र के यह कहने पर कि मैं सीढ़ी से जाने में विश्वास नहीं करता हूँ अपितु उछलकर ही जाने में समर्थ हूँ, तपोदत्त फिर से उपहास करते हुए कहता है कि पहले आपने पुल निर्माण में राम को लाँघ लिया और अब उछलने में हनुमान् को भी लाँघने की इच्छा कर रहे हैं।
(झ) अक्षरज्ञानस्य माहात्म्यम्-
(i) विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्।
(ii) किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या।
(iii) य: पठति लिखति पश्यति परिपृच्छति पण्डितानुपाश्रयते।
तस्य दिवाकरकिरणै: नलिनीदलमिव विकास्यते बुद्धि:।।