KshitijBhag1-001

 द्वादश: पाठ:


वाङ्मन:प्राणस्वरूपम्

प्रस्तुतोऽयं पाठ: "छान्दोग्योपनिषद:" षष्ठाध्यायस्य पञ्चमऽण्डात् समुद्धृतोऽस्ति। पाठ्यांशे मनोविषयकं प्राणविषयकं वाग्विषयकञ्च रोचकं तथ्यं प्रकाशितम् अस्ति। अत्र उपनिषदि वर्णितगुह्यतत्त्वानां सारल्येन अवबोधार्थम् आरुणि-श्वेतकेतो: संवादमाध्यमेन वाङ्मन:प्राणानां परिचर्चा कृतास्ति। ऋषिकुलपरम्परायां ज्ञानप्राप्ते: त्रीणि साधनानि सन्ति। तेषु परिप्रश्नोऽपि एकम् अन्यतमं साधनम् अस्ति। अत्र गुरुसेवनपटु: शिष्य: वाङ्मन: प्राणविषयकान् प्रश्नान् पृच्छति आचार्यश्च तेषां प्रश्नानां समाधानं करोति।

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श्वेतकेतु: - गवन्! श्वेतकेतुरहं वन्दे।

आरुणि: - वत्स! चिरञ्जीव।

श्वेतकेतु: - भगवन्! किञ्चित्प्रष्टुमिच्छामि।

आरुणि: - वत्स! किमद्य त्वया प्रष्टव्यमस्ति?

श्वेतकेतु: - भगवन्! ज्ञातुम् इच्छामि यत् किमिदं मन:?

आरुणि: - वत्स! अशितस्यान्नस्य योऽणिष्ठ: तन्मन:।

श्वेतकेतु: - कश्च प्राण:?

आरुणि: - पीतानाम् अपां योऽणिष्ठ: स प्राण:।

श्वेतकेतु: - भगवन्! का इयं वाक्?

आरुणि: - वत्स! अशितस्य तेजसा योऽणिष्ठ: सा वाक्। सौम्य! मन: अन्नमयं, प्राण: आपोमय: वाक् च तेजोमयी भवति इत्यप्यवधार्यम्।

श्वेतकेतु: - भगवन्! भूय एव मां विज्ञापयतु।

आरुणि: - सौम्य! सावधानं शृणु। मथ्यमानस्य दध्न: योऽणिमा, स ऊर्ध्व: समुदीषति, तत्सर्पि: भवति।

श्वेतकेतु: - भगवन्! भवता घृतोत्पत्तिरहस्यम् व्याख्यातम्। भूयोऽपि श्रोतुमिच्छामि।

आरुणि: - एवमेव सौम्य! अश्यमानस्य अन्नस्य योऽणिमा, स ऊर्ध्व: समुदीषति। तन्मनो भवति। अवगतं न वा?

श्वेतकेतु: - सम्यगवगतं भगवन्!

आरुणि: - वत्स! पीयमानानाम् अपां योऽणिमा स ऊर्ध्व: समुदीषति स एव प्राणो भवति।

श्वेतकेतु: - भगवन्! वाचमपि विज्ञापयतु।

आरुणि: - सौम्य! अश्यमानस्य तेजसो योेऽणिमा, स ऊर्ध्व: समुदीषति। सा खलु वाग्भवति। वत्स! उपदेशान्ते भूयोऽपि त्वां विज्ञापयितुमिच्छामि यत्, अन्नमयं भवति मन:, आपोमयो भवति प्राणा: तेजोमयी च भवति वागिति। किञ्च यादृशमन्नादिकं गृह्णाति मानवस्तादृशमेव तस्य चित्तादिकं भवतीति मदुपदेशसार:। वत्स! एतत्सर्वं हृदयेन अवधारय।

श्वेतकेतु: - यदाज्ञापयति भगवन्। एष प्रणमामि।

आरुणि: - वत्स! चिरञ्जीव। तेजस्वि नौ अधीतम् अस्तु (आवयो: अधीतम् तेजस्वि अस्तु)।

शब्दार्था:

प्रष्टुम् 
प्रश्नं कर्तुम् 
प्रश्न करने/पूछने के लिए
To ask
प्रष्टव्यम्
प्रष्टुं योग्यम् 
पूछने योग्य
To be asked
अशितस्य
भक्षितस्य 
खाये हुए का
Of eaten
अणिष्ठः
लघिष्ठः, लघुतमः 
अत्यन्त लघु अथवा सर्वाधिक लघु
Smallest
अन्नमयम्
अन्नविकारभूतम् 
न्न से निर्मित
Made of food
आपोमयः
जलमयः
जल में परिणत
Made of water
तेजोमयः
अग्निमयः
अग्नि का परिणामभूत
Made of energy
अवधार्यम्
अवगन्तव्यम् 
समझने योग्य
to be understand
विज्ञापयतु
प्रबोधयतु 
समझाइये
Explain
भूयोऽपि
पुनरपि 
एक बार और
Again
समुदीषति
समुत्तिष्ठति, समुद्याति, समुच्छलति
ऊपर उठता है
Goes up
सर्पिः
घृतम्, आज्यम् 
घी
Butter oil
अश्यमानस्य
भक्ष्यमाणस्य, निगीर्यमाणस्य
खाये जाते हुए का
Of eating
उपदेशान्ते
प्रवचनान्ते 
व्याख्यान के अन्त में
At end of preaching
तेजस्वि
तेजोयुक्तम् 
तेजस्विता से युक्त
Glorious
नौ अधीतम्
आवयोः पठितम् 
हम दोनों द्वारा पढा हुआ
Learned by both of us

अभ्यास:

1. एकपदेन उत्तरं लिखत-

(क) अन्नस्य कीदृश: भाग: मन:?

(ख) मथ्यमानस्य दध्न: अणिष्ठ: भाग: किं भवति?

(ग) मन: कीदृशं भवति?

(घ) तेजोमयी का भवति?

(ङ) पाठेऽस्मिन् आरुणि: कम् उपदिशति?

(च) "वत्स! चिरञ्जीव"- इति क: वदति?

(छ) अयं पाठ: कस्मात् उपनिषद: संगृहीत:?

2. अधोलिखितानां प्रश्नानामुत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत-

(क) श्वेतकेतु: सर्वप्रथमम् आरुणिं कस्य स्वरूपस्य विषये पृच्छति?

(ख) आरुणि: प्राणस्वरूपं कथं निरूपयति?

(ग) मानवानां चेतांसि कीदृशानि भवन्ति?

(घ) सर्पि: किं भवति?

(ङ) आरुणे: मतानुसारं मन: कीदृशं भवति?

3. (अ) ‘अ’ स्तम्भस्य पदानि ‘ब’ स्तम्भेन दत्तै: पदै: सह यथायोग्यं योजयत-

अ ब

मन: अन्नमयम्

प्राण: तेजोमयी

वाक् आपोमय:

(आ) अधोलिखितानां पदानां विलोमपदं पाठात् चित्वा लिखत-

(क) गरिष्ठ: ............................

(ख) अध: ............................

(ग) एकवारम् ............................

(घ) अनवधीतम् ............................

(ङ) किञ्चित् ............................

4. उदाहरणमनुसृत्य निम्नलिखितेषु क्रियापदेेषु ‘तुमुन्’ प्रत्ययं योजयित्वा पदनिर्माणं कुरुत-

यथा- प्रच्छ् + तुमुन् = प्रष्टुम्

(क) श्रु + तुमुन् = .............................

(ख) वन्द् + तुमुन् = .............................

(ग) पठ् + तुमुन् = .............................

(घ) कृ + तुमुन् = .............................

(ङ) वि + ज्ञा + तुमुन् = .............................

(च) वि + आ + ख्या + तुमुन् = .............................

5. निर्देशानुसारं रिक्तस्थानानि पूरयत-

(क) अहं किञ्चित् प्रष्टुम् .................। (इच्छ् - लट्लकारे)

(ख) मन: अन्नमयं .......................। (भू - लट्लकारे)

(ग) सावधानं .................। (श्रु - लोट्लकारे)

(घ) तेजस्वि नौ अधीतम् .................। (अस् - लोट्लकारे)

(ङ) श्वेतकेतु: आरुणे: शिष्य: .................। (अस् - लङ्लकारे)

(अ) उदाहरणमनुसृत्य वाक्यानि रचयत-

यथा- अहं स्वदेशं सेवितुम् इच्छामि।

(क) ......................................... उपदिशामि

(ख) ......................................... प्रणमामि

(ग) ......................................... आज्ञापयामि

(घ) ......................................... पृच्छामि

(ङ) ......................................... अवगच्छामि

6. (अ) सन्धिं कुरुत-

(क) अशितस्य + अन्नस्य = ...........................

(ख) इति + अपि + अवधार्यम् = ...........................

(ग) का + इयम् = ...........................

(घ) नौ + अधीतम् = ...........................

(ङ) भवति + इति = ...........................

(आ) स्थूलपदान्यधिकृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत-

(i) मथ्यमानस्य दध्न: अणिमा ऊर्घ्वं समुदीषति।

(ii) भवता घृतोत्पत्तिरहस्यं व्याख्यातम्।

(iii) आरुणिम् उपगम्य श्वेतकेतु: अभिवादयति।

(iv) श्वेतकेतु: वाग्विषये पृच्छति।

7. पाठस्य सारांशं पञ्चवाक्यै: लिखत।

योग्यताविस्तार:

यह पाठ छान्दोग्योपनिषद् के छठे अध्याय के पञ्चम खण्ड पर आधारित है। इसमें मन, प्राण तथा वाक् (वाणी) के संदर्भ में रोचक विवरण प्रस्तुत किया गया है। उपनिषद् के गू\ढ़ प्रसंग को बोधगम्य बनाने के उद्देश्य से इसे आरुणि एवं श्वेतकेतु के संवादरूप में प्रस्तुत किया गया है। आर्ष-परंपरा में ज्ञान-प्राप्ति के तीन उपाय बताए गए हैं जिनमें परिप्रश्न भी एक है। यहाँ गुरुसेवापरायण शिष्य वाणी, मन तथा प्राण के विषय में प्रश्न पूछता है और आचार्य उन प्रश्नों के उत्तर देते हैं।

ग्रन्थ परिचय- छान्दोग्योपनिषद् उपनिषत्साहित्य का प्राचीन एवं प्रसिद्ध ग्रन्थ है। यह सामवेद के उपनिषद् ब्राह्मण का मुख्य भाग है। इसकी वर्णन पद्धति अत्यधिक वैज्ञानिक और युक्तिसंगत है। इसमें आत्मज्ञान के साथ-साथ उपयोगी कार्यों और उपासनाओं का सम्यक् वर्णन हुआ है। छान्दोग्योपनिषद् आठ अध्यायों में विभक्त है। इसके छठे अध्याय में ‘तत्त्वमसि’ का विस्तार से विवेचन प्राप्त होता है।

भावविस्तार:

आरुणि अपने पुत्र श्वेतकेतु को उपदेश देते हैं कि खाया हुआ अन्न तीन प्रकार का होता है। उसका स्थिरतम भाग मल होता है, मध्यम मांस होता है, और सबसे लघुतम मन होता है। पिया हुआ जल भी तीन प्रकार का होता है- उसका स्थविष्ठ भाग मूत्र होता है, मध्यभाग लोहित (रक्त) होता है और अणिष्ठ भाग प्राण होता है। भोजन से प्राप्त तेज भी तीन तरह का होता है - उसका स्थविष्ठ भाग अस्थि होता है, मध्यम भाग मज्जा (चर्बी) होती है और जो घुतम भाग है वह वाणी होती है।

जो खाया जाता है वह अन्न है। अन्न ही निश्चित रूप से मन है। न्याय और सत्य से अर्जित किया हुआ अन्न सात्विक होता है। उसे खाने से मन भी सात्विक होता है। दूषित भावना और अन्याय से अर्जित अन्न तामस होता है। कथ्य का सारांश यह है कि सात्विक भोजन से मन सात्विक होता है। राजसी भोजन से मन राजस होता है तामस भोजन से मन की प्रवृत्ति भी तामसी हो जाती है।

इस संसार में जल ही जीवन है और प्राण जलमय होता है। तैल (तेल), घृत आदि के भक्षण से वाणी विशद होती है और भाषणादि कार्यों में सामर्थ्य की वृद्धि करती है। इसलिए वाणी को तेजोमयी कहा जाता है।

छान्दोग्योपनिषद् के अनुसार मन अन्नमय है, प्राण जलमय है और वाणी तेजोमयी है।

भाषिकविस्तार:

1. मयट् प्रत्यय प्राचुर्य के अर्थ में प्रयुक्त होता है।

यथा- पुंल्लिङ्ग स्त्रीलिङ्ग

शान्ति + मयट् शान्तिमय: शान्तिमयी

आनन्द + मयट् आनन्दमय: आनन्दमयी

सुख + मयट् सुखमय: सुखमयी

तेज: + मयट् तेजोमय: तेजोमयी

2. मयट् प्रत्यय का प्रयोग विकार अर्थ में भी किया जाता है।

यथा- पुंल्लिङ्ग स्त्रीलिङ्ग

मृत् + मयट् मृण्मय: मृण्मयी

स्वर्ण + मयट् स्वर्णमय: स्वर्णमयी

लौह + मयट् लौहमय: लौहमयी

3. जल को जीवन कहा गया है। ‘‘जीवयति लोकान् जलम्’’ यह पञ्चभूतों के अन्तर्गत भूतविशेष है। इसके पर्यायवाची शब्द हैं-

वारि, पानीयम्, उदकम्, उदम्, सलिलम्, तोयम्, नीरम्, अम्बु, अम्भस्, पयस् आदि।

जल की उपयोगिता के विषय में निम्नलिखित श्लोक द्रष्टव्य है-

पानीयं प्राणिनां प्राणस्तदायत्वं हि जीवनम्।

तोयाभावे पिपासार्त: क्षणात् प्राणै: विमुुच्यते।।

अध्येतव्य: ग्रन्थ:-

उपनिषदों की कहानियाँ- डॉ. भगवानसिंह, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली।

 

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