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अध्याय 1
पालमपुर गाँव की कहानी
अवलोकन
इस कहानी का उद्देश्य उत्पादन से संबंधित कुछ मूल विचारों से परिचय कराना है और एेसा हम एक काल्पनिक गाँव–पालमपुर की कहानी के माध्यम से कर रहे हैं।
पालमपुर में खेती मुख्य क्रिया है, जबकि अन्य कई क्रियाएँ जैसे, लघु-स्तरीय विनिर्माण, डेयरी, परिवहन आदि सीमित स्तर पर की जाती हैं। इन उत्पादन क्रियाओं के लिए विभिन्न प्रकार के संसाधनों की आवश्यकता होती है, यथा–प्राकृतिक संसाधन, मानव निर्मित वस्तुएँ, मानव प्रयास, मुद्रा आदि। पालमपुर की कहानी से हमें विदित होगा कि गाँव में इच्छित वस्तुओं और सेवाओें को उत्पादित करने के लिए विभिन्न संसाधन किस प्रकार समायोजित होते हैं।
परिचय
पालमपुर आस-पड़ोस के गाँवों और कस्बोें से भलीभाँति जुड़ा हुआ है। एक बड़ा गाँव, रायगंज, पालमपुर से तीन किलोमीटर की दूरी पर है। प्रत्येक मौसम में यह सड़क गाँव को रायगंज और उससे आगे निकटतम छोटे कस्बे शाहपुर से जोड़ती है। इस सड़क पर गुड़ और अन्य वस्तुओं से लदी हुई बैलगाड़ियाँ, भैंसाबग्घी से लेकर अन्य कई तरह के वाहन जैसे, मोटरसाइकिल, जीप, ट्रैक्टर और ट्रक तक देखे जा सकते हैं।
इस गाँव में विभिन्न जातियों के लगभग 450 परिवार रहते हैं। गाँव में अधिकांश भूमि के स्वामी उच्च जाति के 80 परिवार हैं। उनके मकान, जिनमें से कुछ बहुत बड़े हैं, ईंट और सीमेंट के बने हुए हैं। अनुसूचित जाति (दलित) के लोगों की संख्या गाँव की कुल जनसंख्या का एक तिहाई है और वे गाँव के एक कोने में काफ़ी छोटे घरों में रहते हैं, जिनमें कुछ मिट्टी और फूस के बने हैं। अधिकांश के घरों में बिजली है। खेतों में सभी नलकूप बिजली से ही चलते हैं और इसका उपयोग विभिन्न प्रकार के छोटे कार्यों के लिए भी किया जाता है। पालमपुर में दो प्राथमिक विद्यालय और एक हाई स्कूल है। गाँव में एक राजकीय प्राथमिक स्वास्थ केंद्र और एक निजी औषधालय भी है, जहाँ रोगियों का उपचार किया जाता है।
चित्र 1.1 : एक गाँव का दृश्य
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि पालमपुर में सड़कों, परिवहन के साधनों, बिजली, सिंचाई, विद्यालयों और स्वास्थ्य केंद्राें का पर्याप्त विकसित तंत्र है। इन सुविधाओं की तुलना अपने निकट के गाँव में उपलब्ध सुविधाओं से कीजिए।
एक काल्पनिक गाँव पालमपुर की कहानी हमें किसी भी गाँव में विभिन्न प्रकार की उत्पादन संबंधी गतिविधियों के बारे में बताएगी। भारत के गाँवों में खेती उत्पादन की प्रमुख गतिविधि है। अन्य उत्पादन गतिविधियों में, जिन्हें गैर-कृषि क्रियाएँ कहा गया है, लघु विनिर्माण, परिवहन, दुकानदारी आदि शामिल हैं। हम उत्पादन के बारे में कुछ सामान्य बातें जानने के बाद इन दोनों प्रकार की क्रियाओं पर विचार करेंगे।
उत्पादन का संगठन
उत्पादन का उद्देश्य एेसी वस्तुएँ और सेवाएँ उत्पादित करना है, जिनकी हमें आवश्यकता है। वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन के लिए चार चीज़ें आवश्यक हैं।
पहली आवश्यकता है भूमि तथा अन्य प्राकृतिक संसाधन, जैसे–जल, वन, खनिज। दूसरी आवश्यकता है श्रम अर्थात् जो लोग काम करेंगे। कुछ उत्पादन क्रियाओं में ज़रूरी कार्यों को करने के लिए बहुत ज़्यादा पढ़े-लिखे कर्मियों की ज़रूरत होती है। दूसरी क्रियाओं के लिए शारीरिक कार्य करने वाले श्रमिकों की ज़रूरत होती है। प्रत्येक श्रमिक उत्पादन के लिए आवश्यक श्रम प्रदान करता है।
तीसरी आवश्यकता भौतिक पूँजी है, अर्थात् उत्पादन के प्रत्येक स्तर पर अपेक्षित कई तरह के आगत। क्या आप जानते हैं कि भौतिक पूँजी के अंतर्गत कौन-कौन सी मदें आती हैं?
(क) औज़ार, मशीन, भवन : औज़ारों तथा मशीनों में अत्यंत साधारण औज़ार जैसे–किसान का हल से लेकर परिष्कृत मशीनें जैसे–जेनरेटर, टरबाइन, कंप्यूटर आदि आते हैं। औज़ारों, मशीनों और भवनों का उत्पादन में कई वर्षों तक प्रयोग होता है और इन्हें स्थायी पूँजी कहा जाता है।
(ख) कच्चा माल और नकद मुद्रा : उत्पादन में कई प्रकार के कच्चे माल की आवश्यकता होती है, जैसे बुनकर द्वारा प्रयोग किया जाने वाला सूत और कुम्हारों द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली मिट्टी। उत्पादन के दौरान भुगतान करने तथा ज़रूरी माल खरीदने के लिए कुछ पैसों की भी आवश्यकता होती है। कच्चा माल तथा नकद पैसों को कार्यशील पूँजी कहते हैं। औज़ारों, मशीनों तथा भवनों से भिन्न ये चीज़ें उत्पादन-क्रिया के दौरान समाप्त होजाती हैं।
एक चौथी आवश्यकता भी होती है। आपको स्वयं उपभोग हेतु या बाज़ार में बिक्री हेतु उत्पादन करने के लिए भूमि, श्रम और भौतिक पूँजी को एक साथ करने योग्य बनाने के लिए ज्ञान और उद्यम की आवश्यकता पड़ेगी। आजकल इसे मानव पूँजी कहा जाता है। मानव पूँजी के विषय में और अधिक अध्ययन हम अगले अध्याय में करेंगे।
• चित्र में उत्पादन में प्रयुक्त भूमि, श्रम और स्थायी पूँजी की पहचान कीजिए।
उत्पादन भूमि, श्रम और पूँजी को संयोजित करके संगठित होता है, जिन्हें उत्पादन के कारक कहा जाता है। पालमपुर की कहानी को पढ़ने के क्रम में हम उत्पादन के प्रथम तीन कारकों के बारे में और अधिक सीखेंगे। सुविधा के लिए, इस अध्याय में हम भौतिक पूँजी को पूँजी कहेंगे।
पालमपुर में खेती
1. भूमि स्थिर है
पालमपुर में खेती उत्पादन की प्रमुख क्रिया है। काम करने वालों में 75 प्रतिशत लोग अपनी जीविका के लिए खेती पर निर्भर हैं। वे किसान अथवा कृषि श्रमिक हो सकते हैं। इन लोगों का हित खेतों में उत्पादन से जुड़ा हुआ है।
लेकिन याद रखिए, कृषि उत्पादन में एक मूलभूत कठिनाई है। खेती में प्रयुक्त भूमि-क्षेत्र वस्तुत: स्थिर होता है। पालमपुर में वर्ष 1960 से आज तक जुताई के अंतर्गत भूमि-क्षेत्र में कोई विस्तार नहीं हुआ है। उस समय तक, गाँव की कुछ बंजर भूमि को कृषि योग्य भूमि में बदल दिया गया था। नयी भूमि को खेती योग्य बनाकर कृषि उत्पादन को और बढ़ाने की कोई गुंजाइश नहीं है।
भूमि मापने की मानक इकाई हेक्टेयर है, यद्यपि गाँवों में भूमि का माप बीघा, गुंठा आदि जैसी क्षेत्रीय इकाइयों में भी किया जाता है। एक हेक्टेयर, 100 मीटर की भुजा वाले वर्ग के क्षेत्रफल के बराबर होता है। क्या आप एक हेक्टेयर के मैदान के क्षेत्र की तुलना अपने स्कूल के मैदान से कर सकते हैं?
2. क्या उसी भूमि से अधिक पैदावार करने का कोई तरीका है?
यहाँ जिस प्रकार की फसल पैदा की जाती है और जैसी सुविधाएँ उपलब्ध हैं, उन्हें देखते हुए पालमपुर उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग के गाँव की तरह लगता है। पालमपुर में समस्त भूमि पर खेती की जाती है। कोई भूमि बेकार नहीं छोड़ी जाती। बरसात के मौसम (खरीफ़) में किसान ज्वार और बाजरा उगाते हैं। इन पौधों को पशुओं के चारे के लिए प्रयोग में लाया जाता है। इसके बाद अक्तूबर और दिसंबर के बीच आलू की खेती होती है। सर्दी के मौसम (रबी) में खेतों में गेहूँ उगाया जाता है। उत्पादित गेहूँ में से परिवार के खाने के लिए रखकर शेष गेहूँ किसान रायगंज की मंडी में बेच देते हैं। भूमि के एक भाग में गन्ने की खेती भी की जाती है, जिसकी वर्ष में एक बार कटाई होती है। गन्ना अपने कच्चे रूप में या गुड़ के रूप में शाहपुर के व्यापारियों को बेचा जाता है।
पालमपुर में एक वर्ष में किसान तीन अलग-अलग फसलें इसलिए पैदा कर पाते हैं, क्योंकि वहाँ सिंचाई की सुविकसित व्यवस्था है। पालमपुर में बिजली जल्दी ही आ गई थी। उसका मुख्य प्रभाव यह पड़ा कि सिंचाई की पद्धति ही बदल गई। तब तक किसान कुँओं से रहट द्वारा पानी निकालकर छोटे-छोटे खेतों की सिंचाई किया करते थे। लोगों ने देखा कि बिजली से चलने वाले नलकूपों से ज़्यादा प्रभावकारी ढंग से अधिक क्षेत्र की सिंचाई की जा सकती थी। प्रारंभ में कुछ नलकूप सरकार द्वारा लगाए गए थे। पर, जल्दी ही किसानाें ने अपने निजी नलकूप लगाने प्रारंभ कर दिए। परिणामस्वरूप, 1970 के दशक के मध्य तक 200 हेक्टेयर के पूरे जुते हुए क्षेत्र की सिंचाई होने लगी।
भारत में सभी गाँवों में एेसी उच्च स्तर की सिंचाई व्यवस्था नहीं है। नदीय मैदानों के अतिरिक्त हमारे देश में तटीय क्षेत्रों में अच्छी सिंचाई होती है। इसके विपरीत, पठारी क्षेत्रों जैसे, दक्षिणी पठार में सिंचाई कम होती है। देश में आज भी कुल कृषि क्षेत्र के 40 प्रतिशत से भी कम क्षेत्र में ही सिंचाईं होती है। शेष क्षेत्रों में खेती मुख्यत: वर्षा पर निर्भर है।
एक वर्ष में किसी भूमि पर एक से ज़्यादा फसल पैदा करने को बहुविध फसल प्रणाली कहते है। यह भूमि के किसी एक टुकड़े में उपज बढ़ाने की सबसे सामान्य प्रणाली है। पालमपुर में सभी किसान कम से कम दो मुख्य फसलें पैदा करते हैं। कई किसान पिछले पंद्रह-बीस वर्षों से तीसरी फसल के रूप में आलू पैदा कर रहे हैं।
चित्र 1.3 : विभिन्न फसलें
आइए चर्चा करें
• सारणी 1.1 में 10 लाख (मिलीयन) हेक्टेयर की इकाइयों में भारत में कृषि क्षेत्र को दिखाया गया है। सारणी के नीचे दिए गए आरेख में इसे चित्रित करें। आरेख क्या दिखाता है? कक्षा में चर्चा करें।
• क्या सिंचाई के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र को बढ़ाना आवश्यक है? क्यों?
सारणी 1.1 : संबंधित वर्षों में जुताई क्षेत्र
स्रोत : पॉकेट बुक अॉफ एग्रीकल्चरल स्टैटिस्टिक्स 2017, आर्थिक एवं सांख्यिकी निदेशालय, कृषि निगम और किसानों के कल्याण विभाग
(P)- अनंतिम गणना
• आप पालमपुर में पैदा की जाने वाली फसलों के बारे में पढ़ चुके हैं। अपने क्षेत्र में पैदा की जाने वाली फसलों की सूचना के आधार पर निम्न सारणी को भरिए :
आपने देखा कि एक ही ज़मीन के टुकड़े से उत्पादन बढ़ाने का एक तरीका बहुविध फसल प्रणाली है। दूसरा तरीका अधिक उपज के लिए खेती में आधुनिक कृषि विधियों का प्रयोग करना है। उपज को भूमि के किसी टुकड़े में एक ही मौसम में पैदा की गई फसल के रूप में मापा जाता है। 1960 के दशक के मध्य तक खेती में पारंपरिक बीजाें का प्रयोग किया जाता था, जिनकी उपज अपेक्षाकृत कम थी। परंपरागत बीजों को कम सिंचाई की आवश्यकता होती थी। किसान उर्वरकों के रूप में गाय के गोबर या दूसरी प्राकृतिक खाद का प्रयोग करते थे। यह सब किसानों के पास तत्काल ही उपलब्ध थे, उन्हें इनको खरीदना नहीं पड़ता था।
1960 के दशक के अंत में हरित क्रांति ने भारतीय किसानों को अधिक उपज वाले बीजों (एच.वाई.वी.) के द्वारा गेहूँ और चावल की खेती करने के तरीके सिखाए। परंपरागत बीजों की तुलना में एच.वाई.वी. बीजों से एक ही पौधे से ज़्यादा मात्रा में अनाज पैदा होने की आशा थी। इसके परिणामस्वरूप, ज़मीन के उसी टुकड़े में, पहले की अपेक्षा कहीं अधिक अनाज की मात्रा पैदा होने लगी। यद्यपि, अति उपज प्रजातियों वाले बीजों से अधिकतम उपज पाने के लिए बहुत ज़्यादा पानी तथा रासायनिक खाद और कीटनाशकों की ज़रूरत थी। अधिक उपज केवल अति उपज प्रजातियों वाले बीजों, सिंचाई, रासायनिक उवर्रकों, और कीटनाशकों आदि के संयोजन से ही संभव थी।
चित्र 1.4 : आधुनिक कृषि के तरीके : एच.वाई.वी. बीज,रासायनिक उवर्रक
भारत में पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों ने खेती के आधुनिक तरीकों का सबसे पहले प्रयोग किया। इन क्षेत्रों में किसानों ने खेती में सिंचाई के लिए नलकूप और एच.वाई.वी बीजों, रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों का प्रयोग किया। उनमें से कुछ ने ट्रैक्टर और फसल गहानेे के लिए मशीनें खरीदीं, जिसने जुताई और कटाई के काम को तेज़ कर दिया। उन्हें इनसे गेहूँ की ज़्यादा पैदावार प्राप्त हुई।
पालमपुर में, परंपरागत बीजों से गेहूँ की उपज 1, 300 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर थी। एच.वाई.बी. बीजों से उपज 3,200 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक पहुँच गई। गेहूँ के उत्पादन में बहुत अधिक वृद्धि हुई। किसानों के पास बाज़ार में बेचने को अब अधिशेष गेहूँ की काफ़ी मात्रा उपलब्ध थी।
आइए चर्चा करें
• बहुविधि फसल प्रणाली और खेती की आधुनिक विधियोें में क्या अंतर है?
• सारणी 1.2 में भारत में हरित क्रांति के बाद गेहूँ और दालों के उत्पादन को करोड़ टन इकाइयों में दिखाया गया है। इसे एक आरेख बनाकर दिखाइए। क्या हरित क्रांति दोनों ही फसलों के लिए समान रूप से सफल सिद्ध हुई? विचार-विमर्श करेें।
सारणी 1.2 : दालों तथा गेहूँ का उत्पादन (करोड़ टन)
स्रोत : कृषि निगम और किसानों के कल्याण विभाग, फरवरी 2018
• आधुनिक कृषि विधियों को अपनाने वाले किसान के लिए आवश्यक कार्यशील पूँजी क्या है?
• पहले की तुलना में कृषि की आधुनिक विधियों के लिए किसानों को अधिक नकद की ज़रूरत पड़ती है। क्यों?
सुझाई गई क्रिया
खेत पर जाने के पश्चात् अपने क्षेत्र के कुछ किसानों से बातें कर यह मालूम कीजिए :
1. आधुनिक या परंपरागत या मिश्रित-खेती की इन विधियों में से किसान किसका प्रयोग करते हैं? एक टिप्पणी लिखिए।
2. सिंचाई के क्या स्रोत हैं?
3. कृषि भूमि के कितने भाग में सिंचाई होती है? (बहुत कम/लगभग आधी/अधिकांश/समस्त)
4. किसान अपने लिए आवश्यक आगत कहाँ से प्राप्त करते हैं?
3. क्या भूमि यह धारण कर पाएगी?
भूमि एक प्राकृतिक संसाधन है, अत: इसका सावधानीपूर्वक प्रयोग करने की ज़रूरत है। वैज्ञानिक रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि खेती की आधुनिक कृषि विधियों ने प्राकृतिक संसाधन आधार का अति उपयोग किया है। अनेक क्षेत्रों में, हरित क्रांति के कारण उर्वरकों के अधिक प्रयोग से मिट्टी की उर्वरता कम हो गई है। इसके अतिरिक्त, नलकूपाें से सिंचाई के कारण भूमि जल के सतत् प्रयोग से भौम जल-स्तर कम हो गया है। मिट्टी की उर्वरता और भौम जल जैसे पर्यावरणीय संसाधन कई वर्षों में बनते हैं। एक बार नष्ट होने के बाद उन्हें पुनर्जीवित करना बहुत कठिन है। कृषि का भावी विकास सुनिश्चित करने के लिए हमें पर्यावरण की देखभाल करनी चाहिए।
सुझाई गई क्रिया
• अखबारों/पत्रिकाओं से पाठ में दी गई रिपोर्टें पढ़ने के बाद, कृषि मंत्री को यह बताते हुए अपने शब्दों में एक पत्र लिखिए कि कैसे रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग हानिकारक हो सकता है।
चित्र 1.5 : पालमपुर गाँव : कृषि भूमि का वितरण
...रासायनिक उर्वरक एेसे खनिज देते हैं, जो पानी में घुल जाते हैं और पौधों को तुरंत उपलब्ध हो जाते हैं। लेकिन, मिट्टी इन्हें लंबे समय तक धारण नहीं कर सकती। वे मिट्टी से निकलकर भौम जल, नदियों और तालाबों को प्रदूषित करते हैं। रासायनिक उर्वरक मिट्टी में उपस्थित जीवाणुओं और सूक्ष्म-अवयवों को नष्ट कर सकते हैं। इसका अर्थ है कि उनके प्रयोग के कुछ समय पश्चात्, मिट्टी पहले की तुलना में कम उपजाऊ रह जाएगी...
(स्रोत : डाउन टू अर्थ, नयी दिल्ली)
देश में रासायनिक खाद का सबसे अधिक प्रयोग पंजाब में है। रासायनिक खाद के निरंतर प्रयोग ने मिट्टी की गुणवत्ता को कम कर दिया है। पंजाब के किसानों को पहले का उत्पादन स्तर पाने के लिए अब अधिक से अधिक रासायनिक उर्वरकों और अन्य आगतों का प्रयोग करता पड़ता है। इसका मतलब है कि वहाँ खेती की लागत बहुत तेज़ी से बढ़ रही है।
(स्रोत : द ट्रिब्यून, चंडीगढ़)
4. पालमपुर के किसानों में भूमि किस प्रकार वितरित है?
आपने यह जान लिया होगा कि खेती के लिए भूमि कितनी महत्त्वपूर्ण है। दुर्भाग्यवश खेती के काम में लगे सभी लोगों के पास खेती के लिए पर्याप्त भूमि नहीं है। पालमपुर में 450 परिवारों में से लगभग एक तिहाई अर्थात् 150 परिवारों के पास, खेती के लिए भूमि नहीं है, जो अधिकांशत: दलित हैं।
बाकी परिवारों में से 240 परिवार जिनके पास भूमि है,2 हेक्टेयर से कम क्षेत्रफल वाले छोटे भूमि के टुकड़ों पर खेती करते हैं। भूमि के एेसे टुकड़ों पर खेती करने से किसानों के परिवारों को पर्याप्त आमदनी नहीं होती।
1960 में कृषक गोविंद के पास 2.25 हेक्टेयर अधिकतर असिंचित भूमि थी। गोविंद अपने तीन पुत्रों की मदद से इस भूमि पर खेती करता था। यद्यपि वे बहुत आराम से नहीं रह रहे थे, लेकिन परिवार अपनी एक भैंस से होने वाली कुछ अतिरिक्त आय के द्वारा अपना गुज़ारा कर रहा था। गोविंद की मृत्यु के कुछ वर्ष पश्चात्, यह भूमि उसके तीनों पुत्रों के बीच बँट गई। प्रत्येक के पास अब केवल 0.75 हेक्टेयर भूमि का टुकड़ा था। परंतु, अब बेहतर सिंचाई व्यवस्था और खेती की आधुनिक विधियों के बावजूद गोविंद के बेटे अपनी ज़मीन से गुज़ारा नहीं कर पा रहे हैं। वर्ष के कुछ भाग में उन्हें कुछ अतिरिक्त कार्य भी ढूँढ़ना पड़ता है।
चित्र 1.5 में आप एक गाँव के चारों ओर बिखरे हुए भूमि के छोटे-छोटे टुकड़ों को देख सकते हैं। इन पर छोटे किसान खेती करते हैं। दूसरी ओर, गाँव के आधे से ज़्यादा क्षेत्र में काफ़ी बड़े आकार के प्लॉट हैं। पालमपुर में मझोले और बड़े किसानों के 60 परिवार हैं, जो 2 हेक्टेयर से अधिक भूमि पर खेती करते हैं। कुछ बड़े किसानों के पास 10 हेक्टेयर या इससे अधिक भूमि है।
चित्र 1.6 : खेतों में कार्य : गेहूँ की फसल – कटाई, बीज बोना, कीटनाशकों का छिड़काव तथा आधुनिक एवं परंपरागत विधियों से फसलों की जुताई
आइए चर्चा करें
• चित्र 1.5 में क्या तुम छोटे किसानों द्वारा खेती में प्रयुक्त भूमि को छायांकित कर सकते हो?
• किसानों के इतने अधिक परिवार भूमि के इतने छोटे प्लॉटों पर क्यों खेती करते हैं?
• आरेख 1.1 में भारत में किसानों और उनके द्वारा खेती में प्रयुक्त भूमि का वितरण दिया गया है। इसकी कक्षा में चर्चा करें।
आरेख 1.1 : कृषि क्षेत्र और कृषकों का वितरण
स्रोत : पॉकेट बुक अॉफ एग्रीकल्चरल स्टैटिस्टिक्स 2017 एवं स्टेट अॉफ इंडियन एग्रीकल्चर 2017, कृषि सहयोग एवं किसानों के कल्याण विभाग (कृषि जनगणना 2011-12, के अनुसार)
आइए चर्चा करें
• क्या आप इस बात से सहमत हैं कि पालमपुर में कृषि भूमि का वितरण असमान है? क्या भारत में भी एेसी ही स्थिति है? व्याख्या कीजिए।
5. श्रम की व्यवस्था कौन करेगा?
भूमि के पश्चात्, श्रम उत्पादन का दूसरा आवश्यक कारक है। खेती में बहुत ज़्यादा परिश्रम की आवश्यकता होती है। छोटे किसान अपने परिवारों के साथ अपने खेतों में स्वयं काम करते हैं। इस तरह, वे खेती के लिए आवश्यक श्रम की व्यवस्था स्वयं ही करते हैं। मझोले और बड़े किसान अपने खेतों में काम करने के लिए दूसरे श्रमिकों को किराये पर लगाते हैं।
आइए चर्चा करें
• खेतों में किए जाने वाले कार्यों को चित्र 1.6 में पहचानिए तथा इनको उचित क्रम में व्यवस्थित कीजिए।
खेतों में काम करने के लिए श्रमिक या तो भूमिहीन परिवारों से आते हैं या बहुत छोटे प्लॉटों में खेती करने वाले परिवारों से। खेतों में काम करने वाले श्रमिकों का उगाई गई फसल पर कोई अधिकार नहीं होता, जैसा किसानों का होता है, बल्कि उन्हें उन किसानों द्वारा मज़दूरी मिलती है जिनके लिए वे काम करते हैं। मज़दूरी नकद या वस्तु जैसे–अनाज के रूप में हो सकती है। कभी-कभी श्रमिकों को भोजन भी मिलता है। मज़दूरी एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र, एक फसल से दूसरी फसल और खेत में एक से दूसरे कृषि कार्य (जैसे बुआई और कटाई) के लिए अलग-अलग होती है। रोज़गार की अवधि में भी काफ़ी भिन्नताएँ हैं। खेत में काम करने वाले श्रमिक या तो दैनिक मज़दूरी के आधार पर कार्य करते हैं या उन्हें कार्य विशेष जैसे कटाई या पूरे साल के लिए काम पर रखा जा सकता हैै।
पालमपुर गांव की कहानी
चित्र 1.7 : डाला और रामकली के बीच बातचीत। डाला और रामकली गाँव के सबसे निर्धन नागरिक में से हैं।
डाला पालमपुर में दैनिक मज़दूरी पर काम करने वाला एक भूमिहीन श्रमिक है। इसका मतलब है कि उसे लगातार काम ढूँढ़ते रहना पड़ता है। सरकार द्वारा खेतों में काम करने वाले श्रमिकों के लिए एक दिन का न्यूनतम वेतन 300 रु. (मार्च 2017) निर्धारित है। लेकिन, डाला को मात्र 160 रु. ही मिलते हैं। पालमपुर में खेतिहर श्रमिकों में बहुत ज़्यादा स्पर्धा है, इसलिए लोग कम वेतन में भी काम करने को सहमत हो जाते हैं। डाला अपनी स्थिति के बारे में रामकली से शिकायत करता है, जो कि एक अन्य खेतिहर श्रमिक है। डाला और रामकली दोनों गाँव के निर्धनतम व्यक्यिों में से हैं।
आइए चर्चा करें
• डाला तथा रामकली जैसे खेतिहर श्रमिक गरीब क्यों हैं?
• गोसाईंपुर और मझौली उत्तर बिहार के दो गाँव हैं। दोनों गाँवों के कुल 850 परिवारों में 250 से अधिक पुरुष एेसे हैं, जो पंजाब और हरियाणा के ग्रामीण इलाकों या दिल्ली, मुंबई, सूरत, हैदराबाद या नागपुर में काम कर रहे हैं। इस प्रकार का प्रवास अधिसंख्य भारतीय गाँवों में होता है। लोग प्रवास क्यों करते हैं? क्या आप इस बात की व्याख्या (अपनी कल्पना के आधार पर) कर सकते हैं कि गोसाईंपुर और मझोली के प्रवासी अपने गंतव्यों पर किस तरह का काम करते होंगे?
6. खेतों के लिए आवश्यक पूँजी
आप पहले ही देख चुके हैं कि खेती के आधुनिक तरीकों के लिए बहुत अधिक पूँजी की आवश्यकता होती है, अत: अब किसानों को पहले की अपेक्षा ज़्यादा पैसा चाहिए।
1. अधिसंख्य छोटे किसानों को पूँजी की व्यवस्था करने के लिए पैसा उधार लेना पड़ता है। वे बड़े किसानों से या गाँव के साहूकारों से या खेती के लिए विभिन्न आगतों की पूर्ति करने वाले व्यापारियों से कर्ज़ लेते है। एेसे कर्ज़ों पर ब्याज़ की दर बहुत ऊँची होती है। कर्ज़ चुकाने के लिए उन्हें बहुत कष्ट सहने पड़ते है।
2. छोटे किसानों के विपरीत, मझोले और बड़े किसानों को खेती से बचत होती है। इस तरह वे आवश्यक पूँजी की व्यवस्था कर लेते हैं। इन किसानों को बचत कैसे होती है? आप इसका उत्तर अगले भाग में पाएँगे।
अब तक की कहानी...
हमने उत्पादन के तीन कारकों–भूमि, श्रम और पूँजी तथा खेती में उनके प्रयोग के बारे में पढ़ा। आइए अब दिए गए रिक्त स्थानों को भरें–
उत्पादन के तीन कारकों में श्रम उत्पादन का सर्वाधिक प्रचुर मात्रा में उपलब्ध कारक है। एेसे अनेक लोग हैं, जो गाँवों में खेतिहर मज़दूरों के रूप में काम करने को तैयार हैं, जबकि काम के अवसर सीमित हैं। वे या तो भूमिहीन परिवारों से हैं या...............................। उन्हें बहुत कम मज़दूरी मिलती है और वे एक कठिन जीवन जीते हैं।
श्रम के विपरीत,.......................उत्पादन का एक दुर्लभ कारक है। कृषि भूमि का क्षेत्र........................है। इसके अतिरिक्त उपलब्ध भूमि भी........................(समान/असमान) रूप से खेती में लगे लोगों में वितरित है। एेसे कई छोटे किसान हैं जो भूमि के छोटे टुकड़ों पर खेती करते हैं और जिनकी स्थिति भूमिहीन खेतिहर मज़दूरों से बेहतर नहीं है। उपलब्ध भूमि का अधिकतम प्रयोग करने के लिए किसान......................और.........................का उपयोग करते हैं। इन दोनों से फसलों के उत्पादन में वृद्धि हुई है।
खेती की आधुनिक विधियों में.............की अत्यधिक आवश्यकता होती है। छोटे किसानों को सामान्यत: पूँजी की व्यवस्था करने के लिए पैसा उधार लेना पड़ता है और कर्ज़ चुकाने के लिए उन्हें बहुत कष्ट सहने पड़ते हैं। इसलिए, विशेष रूप से छोटे किसानों के लिए पूँजी भी उत्पादन का एक दुर्लभ कारक है।
यद्यपि भूमि और पूँजी दोनों दुर्लभ हैं, उत्पादन के इन दोनों कारकों में एक मूल अंतर है।........................प्राकृतिक संसाधन है, जबकि.......................मानव निर्मित है। पूँजी को बढ़ाना संभव है, जबकि भूमि स्थिर है। इसलिए, यह बहुत आवश्यक है कि हम भूमि और खेती में प्रयुक्त अन्य प्राकृतिक संसाधनों की अच्छी तरह देखभाल करें।
7. अधिशेष कृषि उत्पादों की बिक्री
मान लीजिए कि किसानों ने उत्पादन के तीनों कारकों का प्रयोग कर अपनी भूमि में गेहूँ पैदा किया है। गेहूँ की कटाई की जाती है और उत्पादन पूर्ण हो जाता है। किसान गेहूँ का क्या करते हैं? वे परिवार के उपभोग के लिए कुछ गेहूँ रख लेते हैं और अधिशेष गेहूँ को बेच देते हैं। सविता और गोविंद के बेटों जैसे छोटे किसानों के पास बहुत कम अधिशेष गेहूँ होता है, क्योंकि उनका कुल उत्पादन बहुत कम होता है तथा इसमें से एक बड़ा भाग वे परिवार की आवश्यकताओं के लिए रख लेते हैं। इसलिए मझोले और बड़े किसान ही बाज़ार में गेहूँ की पूर्ति करते हैं। चित्र 1.1 में आप गेहूँ से लदी बाज़ार जाती बैलगाड़ी देख सकते हैं। बाज़ार में व्यापारी गेहूँ खरीदकर उसे आगे कस्बों और शहरों के दुकानदारों को बेच देते हैं।
एक बड़े किसान तेजपाल सिंह को अपनी समस्त भूमि से 350 क्विंटल अधिशेष गेहूँ प्राप्त होता है। अपने अतिरिक्त गेहूँ को वह रायगंज के बाज़ार में बेच देता है और अच्छी कमाई करता है।
तेजपाल सिंह इस कमाई का क्या करता है? पिछले वर्ष तेजपाल सिंह ने अधिकांश पैसा बैंक के अपने खाते में जमा कर दिया था। बाद में उसने इस पैसे का उपयोग सविता जैसे किसानों को कर्ज़ देने में किया, जिन्हें कर्ज़ की आवश्यकता थी। उसने बचत का उपयोग अगले मौसम की खेती के लिए कार्यशील पूँजी की व्यवस्था करने में भी किया। इस वर्ष तेजपाल सिंह बचत के पैसों से एक और ट्रैक्टर खरीदने की योजना बना रहा है। दूसरे ट्रैक्टर से, उसकी स्थिर पूँजी में वृद्धि हो जाएगी।
तेजपाल सिंह की भाँति दूसरे बड़े और मझोले किसान भी ख्ेाती के अधिशेष कृषि उत्पादों को बेचते हैं। कमाई के एक भाग को अगले मौसम के लिए पूँजी की व्यवस्था के लिए बचा कर रखा जाता है। इस तरह वे अपनी खेती के लिए पूँजी की व्यवस्था अपनी ही बचतों से कर लेते हैं। कुछ किसान बचत का उपयोग पशु, ट्रक आदि खरीदने अथवा दुकान खोलने में भी करते हैं। जैसा कि हम देखेंगे, इन सबको गैर-कृषि कार्यों के लिए पूँजी कहते हैं।
पालमपुर में गैर-कृषि क्रियाएँ
हमने देखा की पालमपुर में खेती ही प्रमुख उत्पादन क्रिया है। अब हम कुछ गैर-कृषि उत्पादन क्रियाओं पर विचार करेंगे। पालमपुर में काम करने वाले केवल 25 प्रतिशत लोग कृषि के अतिरिक्त अन्य कार्य करते हैं।
1. डेयरी : अन्य प्रचलित क्रिया
पालमपुर के कई परिवारों में डेयरी एक प्रचलित क्रिया है। लोग अपनी भैंसों को कई तरह की घास और बरसात के मौसम में उगने वाली ज्वार और बाजरा (चरी) खिलाते हैं। दूध को निकट के बड़े गाँव रायगंज में बेचा जाता है। शाहपुर शहर के दो व्यापारियों ने रायगंज में दूध संग्रहण एवं शीतलन केंद्र खोला हुआ है, जहाँ से दूध दूर-दराज़ के शहरों और कस्बों में भेजा जाता है।
आइए चर्चा करें
• हम तीन किसानों के उदाहरण लेते हैं। प्रत्येक ने अपने खेतों में गेहूँ बोया है, यद्यपि उनका उत्पादन भिन्न-भिन्न है (देखिए स्तंभ 2, ‘दूसरा किसान’)। प्रत्येक किसान के परिवार द्वारा गेहूँ का उपभोग समान है (देखिए स्तंभ 3, ‘तीसरा किसान’)। इस वर्ष के समस्त अधिशेष गेहूँ का उपयोग अगले वर्ष के उत्पादन के लिए पूँजी के रूप में किया जाता है। यह भी मान लीजिए कि उत्पादन, इसमें प्रयुक्त होने वाली पूँजी का दोगुना होता है। सारणियों को पूरा करें :
पहला किसान
दूसरा किसान
तीसरा किसान
• तीनों किसानों के गेहूँ के तीनों वर्षों के उत्पादन की तुलना कीजिए।
• तीसरे वर्ष, तीसरे किसान के साथ क्या हुआ? क्या वह उत्पादन जारी रख सकता है? उत्पादन जारी रखने के लिए उसे क्या करना होगा?
2. पालमपुर में लघुस्तरीय विनिर्माण का एक उदाहरण
इस समय पालमपुर में 50 से कम लोग विनिर्माण कार्यों में लगे हैं। शहरों और कस्बों में बड़ी फैक्ट्रियों में होने वाले विनिर्माण के विपरीत, पालमपुर में विनिर्माण में बहुत सरल उत्पादन विधियों का प्रयोग होता है और उसे छोटे पैमाने पर ही किया जाता है। विनिर्माण कार्य पारिवारिक श्रम की सहायता से अधिकतर घरों या खेतों में किया जाता है। श्रमिकों को कभी-कभार ही किराये पर लिया जाता है।
आइए चर्चा करें
• मिश्रीलाल को गुड़ बनाने की उत्पादन इकाई लगाने में कितनी पूँजी की ज़रूरत पड़ी?
• इस कार्य में श्रम कौन उपलब्ध कराता है?
• क्या आप अनुमान लगा सकते हैं कि मिश्रीलाल क्यों अपना लाभ नहीं बढ़ा पा रहा है?
• क्या आप एेसे कारणों के बारे में सोच सकते हैं जिनसे उसे हानि भी हो सकती है।
• मिश्रीलाल अपना गुड़ गाँव में न बेचकर शाहपुर के व्यापारियों को क्यों बेचता है?
3. पालमपुर के दुकानदार
पालमपुर में ज़्यादा लोग व्यापार (वस्तु-विनिमय) नहीं करते। पालमपुर के व्यापारी वे दुकानदार हैं, जो शहरों के थोक बाज़ारों से कई प्रकार की वस्तुएँ खरीदते हैं और उन्हें गाँव में लाकर बेचते हैं। आप देखेंगे कि गाँव में छोटे जनरल स्टोरों में चावल, गेहूँ, चाय, तेल, बिस्कुट, साबुन, टूथ पेस्ट, बैट्री, मोमबत्तियाँ, कॉपियाँ, पैन, पैंसिल यहाँ तक कि कुछ कपड़े भी बिकते हैं। कुछ परिवारों ने जिनके घर बस स्टैंड के निकट हैं, अपने घर के एक भाग में छोटी दुकान खोल ली है। वे खाने की चीज़ें बेचते हैं।
पैसे मिलते हैं। गत कई वर्षाें में परिवहन से जुड़े लोगों की संख्या बहुत बढ़ गई है।
आइए चर्चा करें
• करीम की पूँजी और श्रम किस रूप से मिश्रीलाल की पूँजी और श्रम से भिन्न है?
• इससे पहले किसी और ने कंप्यूटर केंद्र क्यों नहीं शुरू किया? संभावित कारणाें की चर्चा कीजिए।
4. परिवहन : तेज़ी से विकसित होता एक क्षेत्रक
पालमपुर और रायगंज के बीच सड़क पर कई प्रकार के वाहन चलते हैं। रिक्शावाले, ताँगेवाले, जीप, ट्रैक्टर, ट्रक ड्राइवर तथा परंपरागत बैलगाड़ी और दूसरी गाड़ियाँ चलाने वाले, वे लोग हैं, जो परिवहन सेवाओं में शामिल हैं। वे लोगों और वस्तुओं को एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाते हैं और इसके बदले में उन्हें
किशोर की कहानी
किशोर एक खेतिहर मज़दूर है। अन्य एेसे ही श्रमिकों की भाँति किशोर को अपनी मज़दूरी से अपने घर-परिवार की आवश्यकताएँ पूरी करने में कठिनाई होती थी। कुछ वर्ष पहले किशोर ने बैंक से कर्ज़ लिया था। यह एक सरकारी कार्यक्रम के अंतर्गत था, जिसमें भूमिहीन निर्धन परिवारों को सस्ते कर्ज़ दिए जा रहे थे। किशोर ने इस पैसे से एक भैंस खरीदी। अब वह भैंस का दूध बेचता है। अब उसने अपनी भैंसागाड़ी भी बना ली है, जिसमें वह कई प्रकार के सामान ले जाता है। सप्ताह में एक दिन, वह गंगा के किनारे से कुम्हार के लिए मिट्टी लेकर आता है या कभी-कभी वह गुड़ अथवा अन्य वस्तुओं को लेकर शाहपुर जाता है। हरेक महीने उसे परिवहन संबंधित कोई न कोई काम मिल जाता है। परिणामस्वरूप, किशोर पिछले वर्षों की तुलना में अब अधिक कमाने लगा है।
आइए चर्चा करें
• किशोर की स्थायी पूँजी क्या है?
• क्या आप सोच सकते हैं कि उसकी कार्यशील पूँजी कितनी होगी?
• किशोर कितनी उत्पादन क्रियाओं में लगा हुआ है?
• क्या आप कह सकते हैं कि किशोर को पालमपुर की अच्छी सड़कों से लाभ हुआ है?
सारांश
गाँव में खेती मुख्य उत्पादन क्रिया है। पिछले वर्षों में खेती की विधियों में कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। इनकी वजह से किसान उतनी ही भूमि से अधिक फसल पैदा करने लगे हैं। यह एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है, क्योंकि भूमि स्थायी तथा दुर्लभ है। उत्पादन को बढ़ाने के लिए भूमि और अन्य प्राकृतिक संसाधनों पर बहुत अधिक दबाव पड़ा है।
खेती की नयी विधियों में कम भूमि परंतु अधिक पूँजी की ज़रूरत पड़ती है। मझोले और बड़े किसान अपने उत्पादन से हुई बचत से अगले मौसम के लिए पूँजी की व्यवस्था कर लेते हैं। दूसरी ओर, छोटे किसानों के लिए, जो भारत में किसानों की कुल संख्या का 80 प्रतिशत भाग है, पूँजी की व्यवस्था करना बहुत कठिन है। उनके भूखंड का आकार छोटा होने के कारण उनका उत्पादन पर्याप्त नहीं होता। अतिरिक्त साधनों की कमी के कारण वे अपनी बचत से पूँजी नहीं निकाल पाते, अत: उन्हें कर्ज़ लेना पड़ता है। कर्ज़ के अतिरिक्त कई छोटे किसानों को अपने व अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए खेतिहर मज़दूरों के रूप में अतिरिक्त काम करना पड़ता है।
श्रम पूर्ति उत्पादन के अन्य कारकों की तुलना में सबसे अधिक प्रचुर है, अत: नयी विधियों में श्रम का अधिक प्रयोग करना आदर्श होता, दुर्भाग्यवश एेसा नहीं हुआ। खेती में श्रमिकों का उपयोग सीमित है। अवसरों की तलाश में श्रमिक आस-पड़ोस के गाँवों, शहरों तथा कस्बों में जा रहे हंैं। कुछ श्रमिकाें ने गाँव में ही गैर-कृषि क्षेत्र में काम करना प्रारंभ कर दिया है।
इस समय गाँव में गैर-कृषि क्षेत्रक बहुत बड़ा नहीं है। भारत में ग्रामीण क्षेत्र के 100 कामगारों में से केवल 24 ही गैर-कृषि कार्यों में लगे हैं। यद्यपि, गाँव में अनेक प्रकार के गैर-कृषि कार्य होते हैं (हमने केवल कुछ ही उदाहरण देखें हैं), प्रत्येक कार्य में नियुक्त लोगों की संख्या बहुत ही कम है।
हम चाहेंगे कि भविष्य में गाँव में गैर-कृषि उत्पादन क्रियाओं में भी वृद्धि हो। खेती के विपरीत, गैर-कृषि कार्याेंρ में कम भूमि की आवश्यकता होती है। लोग कम पूँजी से भी गैर-कृषि कार्य प्रारंभ कर सकते हैं। इस पूँजी को प्राप्त कैसे किया जाता है? या तो अपनी ही बचत का प्रयोग किया जाता है, या फिर कर्ज़ लिया जाता है। आवश्यकता है कि कर्ज़ ब्याज की कम दर पर उपलब्ध हों, ताकि बिना बचत वाले लोग भी गैर-कृषि कार्य शुरू कर सकें। गैर-कृषि कार्यों के प्रसार के लिए यह भी आवश्यक है कि एेसे बाज़ार हों, जहाँ वस्तुएँ और सेवाएँ बेची जा सकें। पालमपुर में हमने देखा कि आस-पड़ोस के गाँवों, कस्बों और शहरों में दूध, गुड़, गेहूँ आदि उपलब्ध हैं। जैसे-जैसे ज़्यादा गाँव कस्बों और शहरों से अच्छी सड़कों, परिवहन और टेलीफ़ोन से जुड़ेंगे, भविष्य में गाँवों में गैर-कृषि उत्पादन क्रियाओं के अवसर बढ़ेंगे।
अभ्यास
1. भारत में जनगणना के दौरान दस वर्ष में एक बार प्रत्येक गाँव का सर्वेक्षण किया जाता है। पालमपुर से संबंधित सूचनाओं के आधार पर निम्न तालिका को भरिए :
(क) अवस्थिति क्षेत्र
(ख) गाँव का कुल क्षेत्र
(ग) भूमि का उपयोग (हेक्टेयर में)
3. पालमपुर में बिजली के प्रसार ने किसानों की किस तरह मदद की?
4. क्या सिंचित क्षेत्र को बढ़ाना महत्त्वपूर्ण है? क्यों?
5. पालमपुर के 450 परिवारों में भूमि के वितरण की एक सारणी बनाइए।
6. पालमपुर में खेतिहर श्रमिकों की मज़दूरी न्यूनतम मज़दूरी से कम क्यों है?
7. अपने क्षेत्र में दो श्रमिकों से बात कीजिए। खेतों में काम करने वाले या विनिर्माण कार्य में लगे मज़दूरों में से किसी को चुनें। उन्हें कितनी मज़दूरी मिलती है? क्या उन्हें नकद पैसा मिलता है या वस्तु-रूप में ? क्या उन्हें नियमित रूप से काम मिलता है? क्या वे कर्ज़ में हैं?
8. एक ही भूमि पर उत्पादन बढ़ाने के अलग-अलग कौन से तरीके हैं? समझाने के लिए उदाहरणों का प्रयोग कीजिए।
9. एक हेक्टेयर भूमि के मालिक किसान के कार्य का ब्यौरा दीजिए।
10. मझोले और बड़े किसान कृषि से कैसे पंूँजी प्राप्त करते है? वे छोटे किसानों से कैसे भिन्न है?
11. सविता को किन शर्तों पर तेजपाल सिंह से ऋण मिला है? क्या ब्याज़ की कम दर पर बैंक से कर्ज़ मिलने पर सविता की स्थिति अलग होती?
12. अपने क्षेत्र के कुछ पुराने निवासियों से बात कीजिए और पिछले 30 वषोेρं में सिंचाई और उत्पादन के तरीकों में हुए परिवर्तनों पर एक संक्षिप्त रिपोर्ट लिखिए (वैकल्पिक)।
13. आपके क्षेत्र में कौन से गैर-कृषि उत्पादन कार्य हो रहे हैं? इनकी एक संक्षिप्त सूची बनाइए।
14. गाँवों में और अधिक गैर-कृषि कार्य प्रारंभ करने के लिए क्या किया जा सकता है?
संदर्भ
एटीन, गिल्बर्ट, 1985, रूरल डेवलपमेंट इन एशिया : मीटिंग्स विद पीजेंट्स, सेज पब्लिकेशन्स, नयी दिल्ली।
एटीन, गिल्बर्ट, 1988, फ़ूड एंड पावर्टी : इंडियाज़ हाफ़ वन बैटल, सेज पब्लिकेशन्स, नयी दिल्ली।
राज, के.एन., 1991, विलेज इंडिया एंड इट्स पॉलिटिकल इकोनॉमी, सी.टी. कुरियन द्वारा संपादित इकोनॉमी, सोसायटी एंड डेवलेपमेंट, सेज पब्लिकेशन्स, नयी दिल्ली।
थार्नर, डेनियल एंड थार्नर, एलीस, 1962, लैंड एंड लेबर इन इंडिया, एशिया पब्लिशिंग हाउस, मुंबई।
एचटीटीपी:// इकनॉमिक्स टाइम्स, इंडिया टाइम्स, कॉम/न्यू.ज / पॉलिसी/ गवर्नमेंट-टाइम्स-मिनिमम-वेज-फोर- एग्रीकल्चर-लेबरर/आर्टिकलशो/ 57408252, सी.एम.एस.