अध्याय 2

संसाधन के रूप में लोग

अवलोकन

‘संसाधन के रूप में लोग’ अध्याय जनसंख्या की, अर्थव्यवस्था पर दायित्व से अधिक परिसंपत्ति के रूप में, व्याख्या करने का प्रयास है। जब शिक्षा, प्रशिक्षण और चिकित्सा सेवाओं में निवेश किया जाता है तो वही जनसंख्या मानव पूँजी में बदल जाती है। वास्तव में, मानव पूँजी कौशल और उनमें निहित उत्पादन के ज्ञान का स्टॉक है।

परिचय

‘संसाधन के रूप में लोग’ वर्तमान उत्पादन कौशल और क्षमताओं के संदर्भ में किसी देश के कार्यरत लोगाें का वर्णन करने का एक तरीका है। उत्पादक पहलू की दृष्टि से जनसंख्या पर विचार करना सकल राष्ट्रीय उत्पाद के सृजन में उनके योगदान की क्षमता पर बल देता है। दूसरे संसाधनों की भाँति ही जनसंख्या भी एक संसाधन है–‘एक मानव संसाधन’। यह विशाल जनसंख्या का एक सकारात्मक पहलू है, जिसे प्राय: उस वक्त अनदेखा कर दिया जाता है जब हम इसके नकारात्मक पहलू को देखते हैं, जैसे भोजन, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की जनसंख्या तक पहुँच से संबंधित समस्याओं पर विचार करते समय। जब इस विद्यमान मानव संसाधन को और अधिक शिक्षा तथा स्वास्थ्य द्वारा और विकसित किया जाता है, तब हम इसे मानव पूँजी निर्माण कहते हैं, जो भौतिक पूँजी निर्माण की ही भाँति देश की उत्पादक शक्ति में वृद्धि करता है।

मानव पूँजी में निवेश (शिक्षा, प्रशिक्षण और स्वास्थ्य सेवा के द्वारा) भौतिक पूँजी की ही भाँति प्रतिफल प्रदान करता है। अधिक शिक्षित या बेहतर प्रशिक्षित लोगों की उच्च उत्पादकता के कारण होनेे वाली अधिक आय और साथ ही अधिक स्वस्थ लोगों की उच्च उत्पादकता के रूप में इसे प्रत्यक्षत: देखा जा सकता है।

भारत की हरित क्रांति एक नाटकीय उदाहरण है कि किस प्रकार बेहतर उत्पादन प्रौद्योगिकी के रूप में अधिक ज्ञान रूपी आगत दुर्लभ भूमि संसाधन की उत्पादकता में तीव्र वृद्धि ला सकता है। भारत में सूचना प्रौद्योगिकी में क्रांति एक आश्चर्यजनक उदाहरण है कि भौतिक मशीनरी तथा प्लांट की अपेक्षा मानव पूँजी के महत्त्व ने किस प्रकार उच्च स्थान प्राप्त कर लिया है।

स्रोत : योजना आयोग, भारत सरकार

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चित्र 2.1 : मानव पूँजी

1334.pngआइए चर्चा करें

चित्र 2.1 को देख कर क्या आप बता सकते हैं कि डॉक्टर, अध्यापक, इंजीनियर तथा दर्ज़ी अर्थव्यवस्था के लिए किस प्रकार परिसंपत्ति हैं?

उच्च आय से न केवल अधिक शिक्षित और अधिक स्वस्थ लोगों को लाभ होता है बल्कि समाज को भी अप्रत्यक्ष तरीकों से लाभ होता है, क्योंकि अधिक शिक्षित या अधिक स्वस्थ जनसंख्या का लाभ उन लोगों तक भी पहुँचता है जो स्वयं प्रत्यक्ष रूप से उतने शिक्षित नहीं हैं या उतनी स्वास्थ्य सेवाएँ उन्हें प्रदान नहीं की गई हैं। वास्तव में, मानव पूँजी एक तरह से अन्य संसाधनाें जैसे, भूमि और भौतिक पूँजी से श्रेष्ठ है, क्योंकि मानव संसाधन भूमि और पूँजी का उपयोग कर सकता है। भूमि और पूँजी अपने आप उपयोगी नहीं हो सकते।

अनेक दशकों से भारत में विशाल जनसंख्या को एक परिसंपत्ति की अपेक्षा एक दायित्व माना जाता रहा है। लेकिन, यह आवश्यक नहीं कि एक विशाल जनसंख्या देश के लिए दायित्व ही हो। मानव पूँजी में निवेश द्वारा इसे एक उत्पादक परिसंपत्ति में बदला जा सकता है (उदाहरण के लिए, सबके लिए शिक्षा और स्वास्थ्य, आधुनिक प्रौद्योगिकी के प्रयोग में औद्योगिक और कृषि श्रमिकों के प्रशिक्षण, उपयोगी वैज्ञानिक अनुसंधान आदि पर संसाधनों के व्यय द्वारा)।

निम्नलिखित दो उदाहरण स्पष्ट करते हैं कि लोग अधिक उत्पादक संसाधन बनने का प्रयास करते हैं :

सकल की कहानी

दो मित्र विलास और सकल एक ही गाँव सेमापुर में रहते थे। सकल की आयु बारह वर्ष थी। उसकी माँ शीला घर का काम-काज देखती थी। उसके पिता बूटा चौधरी खेत में काम करते थे। सकल घर के काम-काज में अपनी माँ की मदद करता था। वह अपने छोटे भाई जीतू और बहन सीतू की भी देखभाल करता था। उसके चाचा श्याम ने मैट्रिक की परीक्षा पास की थी, लेकिन वह घर में बेकार बैठा था क्योंकि उसे कोई नौकरी नहीं मिली। बूटा और शीला चाहते थे कि उनका बेटा सकल पढ़े-लिखे। वे उस पर गाँव के स्कूल में नाम लिखाने के लिए ज़ोर देते थे, जिसमें उसने शीघ्र प्रवेश पा लिया। उसने पढ़ना शुरू किया और उच्चतर माध्यमिक की परीक्षा पास कर ली। उसके पिता ने उसे अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए राज़ी कर लिया। उन्होंने सकल के लिए कंप्यूटर के व्यावसायिक कोर्स में अध्ययन के लिए कर्ज़ लिया। सकल प्रतिभाशाली था और आरंभ से ही पढ़ाई में उसकी रुचि थी। उसने बड़े लगन और उत्साह से अपना कोर्स पूरा किया। कुछ समय के पश्चात् उसे एक प्राइवेट फ़र्म में नौकरी मिल गई। उसने एक नए प्रकार के सॉफ़् टवेयर को डिज़ाइन भी किया। इस सॉफ़् टवेयर से फ़र्म को अपनी बिक्री बढ़ाने में सहायता मिली। उसके बॉस ने उसकी सेवाओं से प्रसन्न होकर उसे पदोन्नति दी।

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चित्र 2.2 : विलास एवं सकल की कहानियाँ

विलास की कहानी

विलास ग्यारह वर्ष का एक लड़का था और वह सकल के ही गाँव में रहता था। विलास के पिता महेश एक मछुआरे थे।

विलास जब केवल दो वर्ष का था, तो उसके पिता की मृत्यु हो गई थी। उसकी माँ गीता ने मछलियाँ बेचकर अपने परिवार को पाला-पोसा। वह ज़मींदार के तालाब से मछलियाँ खरीदती और निकट की मंडी में बेचती थी। वह मछलियाँ बेचकर एक दिन में केवल 150 रुपये कमा पाती थी। विलास गठिया का रोगी बन गया। उसकी माँ के पास इतने पैसे नहीं थे कि वह उसे किसी डॉक्टर को दिखा पाती। वह स्कूल भी नहीं जा सका। उसकी पढ़ने में रुचि नहीं थी। वह खाना पकाने में अपनी माँ की मदद करता तथा अपने छोटे भाई मोहन की भी देखभाल करता। कुछ समय पश्चात् उसकी माँ बीमार पड़ गई तथा उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं था। परिवार में उनकी सहायता करने वाला भी कोई नहीं था। विलास भी उसी गाँव में मछलियाँ बेचने के लिए बाध्य हुआ। अपनी माँ की तरह वह भी कम ही कमा पाता था।

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क्या दोनों मित्रों के बीच आप कोई अंतर पाते हैं? वे कौन से अंतर हैं?

क्रियाकलाप

पास के किसी गाँव या झुग्गी इलाके में जाएँ और अपनी उम्र के किसी लड़के या लड़की का अध्ययन करें, जो विलास या सकल जैसी परिस्थितियों का सामना कर रहा हो।

इन दोनों व्यक्तियों के अध्ययनों में हमने देखा कि सकल स्कूल जाता था, जबकि विलास स्कूल नहीं गया। सकल शारीरिक रूप से हृष्ट-पुष्ट और स्वस्थ था। उसे बार-बार डॉक्टर के पास जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। विलास गठिया का रोगी था। उसके यहाँ डॉक्टर के पास जाने के साधन नहीं थे। सकल ने कंप्यूटर में डिग्री प्राप्त की थी। सकल को एक प्राइवेट फ़र्म में नौकरी मिल गई। विलास वही काम करता रहा, जो उसकी माँ करती थी। अपनी माँ की ही तरह, परिवार को पालने-पोसने के लिए उसकी आय बहुत कम थी।

सकल के मामले में कई वर्षों की शिक्षा ने उसके श्रम की गुणवत्ता बढ़ाई। इससे उसकी कुल उत्पादकता मेें वृद्धि हुई। कुल उत्पादकता देश की संवृद्धि में योगदान देती है। इसके बदले में व्यक्ति को वेतन के रूप में या फिर उसके पसंद के किसी दूसरे रूप में प्रतिफल मिलता है। विलास को उसके जीवन के आरंभिक भाग में कोई शिक्षा या स्वास्थ्य सेवा नहीं मिल सकी। वह अपनी माँ की भाँति ही मछलियाँ बेचकर अपना जीवन यापन करता। इसीलिए वह अपनी माँ की ही तरह अकुशल श्रमिक का वेतन पाता था।

मानव संसाधन में (शिक्षा और चिकित्सा सेवा के द्वारा) निवेश सेे भविष्य में उच्च प्रतिफल प्राप्त हो सकते हैं। 

लोगों में यह निवेश भूमि और पूँजी में निवेश की ही तरह है।

एक बच्चा भी, जिसकी शिक्षा और स्वास्थ्य पर निवेश किया गया है, भविष्य में उच्च आय और समाज को वृहद योगदान के रूप में अधिक प्रतिफल दे सकता है। यह देखा जाता है कि शिक्षित माँ-बाप अपने बच्चों की शिक्षा पर अधिक निवेश करते हैं। एेसा इसलिए होता है क्योंकि उन्होंने स्वयं भी शिक्षा के महत्त्व को अनुभव किया होता है। वे उचित पोषण और स्वच्छता के प्रति भी सचेत होते हैं। इसी प्रकार वे अपने बच्चों की स्कूली शिक्षा और अच्छे स्वास्थ्य की आवश्यकताओं का भी ध्यान रखते हैं। इस तरह इस मामले में एक अच्छा चक्र बन जाता है। इसके विपरीत, स्वयं भी अशिक्षित और अस्वच्छता तथा सुविधावंचित स्थिति में रहने वाले माँ-बाप एक दुष्चक्र सृजित कर लेते हैं और अपने बच्चों को अपनी ही तरह सुविधाओं से वंचित स्थिति में रखते हैं।

जापान जैसे देशों ने मानव संसाधन पर निवेश किया है। उनके पास कोई प्राकृतिक संसाधन नहीं था। यह विकसित धनी देश है। वे अपने देश के लिए आवश्यक प्राकृतिक संसाधनों का आयात करते हैं। वे कैसे धनी / विकसित बने? उन्होंने लोगों में विशेष रूप से शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में निवेश किया। उन लोगों ने भूमि और पूँजी जैसे अन्य संसाधनों का कुशल उपयोग किया है। इन लोगों ने जो कुशलता और प्रौद्योगिकी विकसित की उसी से ये देश धनी / विकसित बने।

पुरुषों और महिलाओं के आर्थिक क्रियाकलाप

विलास और सकल की तरह लोग विभिन्न क्रियाकलापों में संलग्न हैं। हमने देखा कि विलास मछलियाँ बेचता था और सकल को एक फ़र्म में नौकरी मिल गई थी। विभिन्न क्रियाकलापों को तीन प्रमुख क्षेत्रकों-प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक में वर्गीकृत किया गया है। प्राथमिक क्षेत्रक के अंतर्गत कृषि, वानिकी, पशुपालन, मत्स्यपालन, मुर्गीपालन और खनन एवं उत्खनन शामिल हैं। द्वितीयक क्षेत्रक में विनिर्माण शामिल है। तृतीयक क्षेत्रक में व्यापार, परिवहन, संचार, बैंकिंग, बीमा, शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यटन सेवाएँ इत्यादि शामिल किए जाते हैं। इस क्षेत्रक में क्रियाकलाप के फलस्वरूप वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन होता है। ये क्रियाकलाप राष्ट्रीय आय में मूल्य-वर्धन करते हैं। ये क्रियाएँ आर्थिक क्रियाएँ कहलाती हैं। आर्थिक क्रियाओं के दो भाग होते हैं– बाज़ार क्रियाएँ और गैर-बाज़ार क्रियाएँ। बाज़ार क्रियाओं में वेतन या लाभ के उद्देश्य से की गई क्रियाओं के लिए पारिश्रमिक का भुगतान किया जाता है। इनमें सरकारी सेवा सहित वस्तु या सेवाओं का उत्पादन शामिल है। गैर-बाज़ार क्रियाओं से अभिप्राय स्व-उपभोग के लिए उत्पादन है। इनमें प्राथमिक उत्पादों का उपभोग और प्रसंस्करण तथा अचल संपत्तियों का स्वलेखा उत्पादन आता है।

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चित्र 2.3 : क्या आप इस चित्र के आधार पर क्रियाकलापों को तीन क्षेत्रकों में वर्गीकृत कर सकते हैं?

क्रियाकलाप

अपने निवास क्षेत्र के निकट स्थित किसी गाँव अथवा कॉलोनी में जाएँ और उस गाँव अथवा कॉलोनी के लोगों द्वारा किए जाने वाले विभिन्न क्रियाकलापों को लिखें।

अगर यह संभव नहीं है तो अपने पड़ोसियों से पूछें कि उनका व्यवसाय क्या है? उनके काम को आप तीन क्षेत्रकाें में से किस क्षेत्रक में रखेंगे?

बताइए कि ये क्रियाकलाप आर्थिक क्रियाएँ हैं या गैर-आर्थिक:

विलास गाँव के बाज़ार में मछली बेचता है।

विलास अपने परिवार के लिए खाना पकाता है।

सकल एक प्राइवेट फ़र्म में काम करता है।

सकल अपने छोटे भाई और बहन की देखभाल करता है।

एेतिहासिक और सांस्कृतिक कारणों से परिवार में महिलाओं और पुरुषों के बीच श्रम का विभाजन होता है। आमतौर पर महिलाएँ घर के काम-काज देखती हैं और पुरुष खेतों में काम करते हैं। सकल की माँ शीला खाना पकाती है, बर्तन साफ़ करती है, कपड़े धोती है, घर की सफ़ाई करती है और अपने बच्चों की देखभाल करती है। सकल के पिताजी बूटा खेतों में काम करते हैं, उपज को बाज़ार में बेचते हैं और परिवार के लिए धन कमाते हैं।

शीला परिवार के पालन-पोषण के लिए जो सेवाएँ प्रदान करती है, उसके लिए उसे कोई भुगतान नहीं किया जाता। बूटा धन कमाता है, जिसे वह परिवार के पालन-पोषण पर खर्च करता है। परिवार के लिए दी गई सेवाओं के बदले महिलाओं को भुगतान नहीं किया जाता। उनकी सेवाओं को राष्ट्रीय आय में नहीं जोड़ा जाता।

विलास की माँ गीता मछली बेच कर आय कमाती थी। इस तरह महिलाओं को उनकी सेवाओं के लिए तब भुगतान किया जाता है, जब वे श्रम-बाज़ार में प्रवेश करती हैं। उनके पुरुष सहयोगी की ही तरह उनकी आय, उनकी शिक्षा और कौशल के आधार पर निर्धारित की जाती है। शिक्षा व्यक्ति के उपलब्ध आर्थिक अवसरों के बेहतर उपयोग में सहायता करती है। शिक्षा और कौशल बाज़ार में किसी व्यक्ति की आय के प्रमुख निर्धारक हैं। अधिकांश महिलाओं के पास बहुत कम शिक्षा और निम्न कौशल स्तर हैं। पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं को कम पारिश्रमिक दिया जाता है। अधिकतर महिलाएँ वहाँ काम करती हैं, जहाँ नौकरी की सुरक्षा नहीं होती तथा कानूनी सुरक्षा का अभाव है। अनियमित रोज़गार और निम्न आय इस क्षेत्रक की विशेषताएँ हैं। इस क्षेत्रक में प्रसूति अवकाश, शिशु देखभाल और अन्य सामाजिक सुरक्षा तंत्र जैसी सुविधाएँ उपलब्ध नहीं होतीं। तथापि, उच्च शिक्षा और उच्च कौशल वाली महिलाओं को पुरुषों के बराबर वेतन मिलता है। संगठित क्षेत्रक में शिक्षण और चिकित्सा उन्हें सबसे अधिक आकर्षित करते हैं। कुछ महिलाओं ने सामान्य नौकरियों के अलावा प्रशासनिक और अन्य सेवाओं में प्रवेश किया है, जिनमें वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकीय सेवा के उच्च स्तर की आवश्यकता पड़ती है। अपनी बहन या साथ पढ़ रही किसी सहपाठी से पूछें कि वह क्या बनना चाहती है?

जनसंख्या की गुणवत्ता

जनसंख्या की गुणवत्ता साक्षरता-दर, जीवन-प्रत्याशा से निरूपित व्यक्तियों के स्वास्थ्य और देश के लोगों द्वारा प्राप्त कौशल निर्माण पर निर्भर करती है। जनसंख्या की गुणवत्ता अंतत: देश की संवृद्धि-दर निर्धारित करती है। साक्षर और स्वस्थ जनसंख्या परिसंपत्तियाँ होती हैं।

शिक्षा

अपने जीवन के आरंभिक वर्षों की सकल की शिक्षा ने बाद के वर्षों में अच्छी नौकरी और अच्छे वेतन के रूप में उसे फल दिया। हमने देखा कि सकल के विकास के लिए शिक्षा एक महत्त्वपूर्ण आगत था। इसने उसके लिए नए क्षितिज खोले, नयी आकांक्षाएँ दीं और जीवन के मूल्य विकसित किए। न केवल सकल के लिए, बल्कि समाज के विकास में भी शिक्षा का योगदान है। यह राष्ट्रीय आय और सांस्कृतिक समृद्धि में वृद्धि करती है और प्रशासन की कार्य-क्षमता बढ़ाती है। प्राथमिक शिक्षा में सार्वजनिक पहुँच, धारण और गुणवत्ता प्रदान करने का प्रावधान किया गया है और इस मामले में लड़कियों पर विशेष ज़ोर दिया गया है। प्रत्येक ज़िले में नवोदय विद्यालय जैसे प्रगतिनिर्धारक विद्यालयों की स्थापना की गई है।

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चित्र 2.4 : विद्यालय के छात्र-छात्रा

बड़ी संख्या में हाई स्कूल के विद्यार्थियों को ज्ञान और कौशल से संबंधित व्यवसाय उपलब्ध कराने के लिए व्यावसायिक शाखाएँ विकसित की गई हैं। शिक्षा पर योजना परिव्यय पहली पंचवर्षीय योजना के 151 करोड़ रुपये से बढ़ कर ग्यारवीं पंचवर्षीय योजना में 3766.90 करोड़ रुपये हो गया है। सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में शिक्षा पर व्यय 1951-52 के 0.64 प्रतिशत से बढ़कर 2015-16 में 3 प्रतिशत (बजटीय अनुमान) हो गया है। इसके बाद, केंद्रीय एवं राज्य सरकार के दस्तावेज (भारतीय रिजर्व बैंक) के द्वारा यह बजटीय अनुमान 2017-18 मेंघटकर 2.7 प्रतिशत बताया गया है। इससे साक्षरता-दर 1951 के 18 प्रतिशत से बढ़कर 2011 में 74 प्रतिशत हो गई है। साक्षरता प्रत्येक नागरिक का न केवल अधिकार है बल्कि यह नागरिकों द्वारा अपने कर्तव्यों का ठीक प्रकार से पालन करने तथा अपने अधिकारों का ठीक प्रकार से लाभ उठाने के लिए अनिवार्य भी है। 

...व्यक्ति एक सकारात्मक परिसंपत्ति और एक कीमती राष्ट्रीय संसाधन है, जिसे बड़ी सहजता से गतिशीलता और सावधानीपूर्वक संजोने, पोषित करने तथा विकसित करने की आवश्यकता है। प्रत्येक व्यक्ति का विकास समस्याओं और आवश्यकताओं की एक भिन्न शृंखला है। ...इस जटिल और गतिशील विकास प्रक्रिया में शिक्षा की उत्प्रेरक भूमिका को बहुत सावधानी से तैयार करना चाहिए और बड़ी संवेदनशीलता के साथ कार्यान्वित करना चाहिए।

स्रोत : राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986


आरेख 2.1 : भारत में साक्षरता-दर

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 स्रोत : एन्विस सेंटर अॉन पापुलेशन, आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18

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आरेख 2.1 का अध्ययन करें और निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर दें:

क्या 1951 से जनसंख्या की साक्षरता-दर बढ़ी है?

किस वर्ष भारत में साक्षरता-दर सर्वाधिक रही?

भारत में पुरुषों में साक्षरता-दर अधिक क्यों है?

पुरुषों की अपेक्षा महिलाएँ कम शिक्षित क्यों हैं?

आप भारत में लोगों की साक्षरता-दर का परिकलन कैसे करेंगे?

2020 में भारत की साक्षरता-दर का आपका पूर्वानुमान क्या है?

तथापि, जनसंख्या के विभिन्न भागोें के बीच व्यापक अंतर पाया जाता है। महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों में साक्षरता-दर करीब 16.6 प्रतिशत अधिक है और ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा नगरीय क्षेत्रों में साक्षरता-दर करीब 16 प्रतिशत अधिक है। वर्ष 2011 केरल के कुछ ज़िलों में साक्षरता-दर 94 प्रतिशत है जबकि बिहार में 62 प्रतिशत ही है। वर्ष 2015-16 प्राथमिक स्कूल प्रणाली भारत के 8.41 लाख से भी अधिक गाँवों में फैली है। दुर्भाग्यवश, स्कूल शिक्षा के इस विस्तार को शिक्षा के निम्न स्तर और पढ़ाई बीच में छोड़ने की उच्च दर ने कमज़ोर कर दिया है। 6 से 14 वर्ष आयु वर्ग के सभी स्कूली बच्चाें को वर्ष 2010 तक प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने की दिशा में सर्वशिक्षा अभियान एक महत्त्वपूर्ण कदम है। राज्यों, स्थानीय सरकारों और प्राथमिक शिक्षा सार्वभौमिक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए समुदाय की सहभागिता के साथ केंद्रीय सरकार की यह एक समयबद्ध पहल है। इसके साथ ही, प्राथमिक शिक्षा में नामांकन बढ़ाने के लिए ‘सेतु-पाठ्यक्रम’ और ‘स्कूल लौटो शिविर’ प्रारंभ किए गए हैं। कक्षा में बच्चों की उपस्थिति को बढ़ावा देने, बच्चों के धारण और उनकी पोषण स्थिति में सुधार के लिए दोपहर के भोजन की योजना कार्यान्वित की जा रही है। इन नीतियों से भारत में शिक्षित लोगों की संख्या में वृद्धि हो सकती है।

क्रियाकलाप

अपने विद्यालय या अपने पड़ोस के सहशिक्षा विद्यालय में पढ़ने वाले लड़के और लड़कियों की गणना करें। अपने स्कूल प्रशासक से कहें कि वे आपको ल\ड़के और लड़कियों की संख्या के आँकड़े उपलब्ध कराएँ। अगर उनमें कोई अंतर है, तो उसका अध्ययन करें और कक्षा में उसका कारण समझाएँ।

बारहवीं योजना में उच्च शिक्षा में 18-23 वर्ष आयु वर्ग के नामांकन में 25.2 प्रतिशत तक की वृद्धि 2017-18 एवं 30 प्रतिशत 2020-21 तक करने का प्रयास किया गया है। यह विश्व औसतन 26 प्रतिशत से मिलती-जुलती है। यह रणनीति पहुंँच में वृद्धि, गुणवत्ता, राज्यों के लिए विशेष पाठयक्रम में परिवर्तन को स्वीकार करना, व्यावसायीकरण तथा सूचना प्रौद्योगिकी के उपयोग का जाल बिछाने पर केंद्रित है। योजना दूरस्थ शिक्षा, औपचारिक, अनौपचारिक, दूरस्थ तथा संचार प्रौद्योगिकी की शिक्षा देने वाले शिक्षण संस्थानों के अभिसरण पर भी केंद्रित है। पिछले 50 वर्षों में विशेष क्षेत्रों में उच्च शिक्षा देने वाले शिक्षण संस्थानों तथा विश्वविद्यालयों की संख्या में महत्त्वपूर्ण वृद्धि हुई है। 1951 से 2015-16 के बीच कॉलेजों तथा विश्वविद्यालयों की संख्या में वृद्धि, छात्रों के नामांकन तथा अध्यापकों की भर्ती को सारणी 2.1 में देखें:

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स्रोत : विश्वविद्यालय अनुदान आयोग वार्षिक रिपोर्ट 2010-11, 2012-13, 2013-14, 2015-16 एवं चुनिंदा शैक्षिक सांख्यिकी, मानव संसाधन विकास मंत्रालय www.ugc.ac.in-Annual Report - 2016-17, 2017-18, 2018-19.pdf

*अखिल भारतीय उच्चतर शिक्षा सर्वेक्षण द्वारा उपलब्ध अनंतिम गणना

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सारणी 2.1 की कक्षा में चर्चा करें तथा निम्न प्रश्नों का उत्तर दें :

क्या विद्यार्थियों की बढ़ती हुई संख्या को प्रवेश देने के लिए कॉलेजों की संख्या में वृद्धि पर्याप्त है?

क्या आप सोचते हैं कि हमें विश्वविद्यालयोें की संख्या बढ़ानी चाहिए?

वर्ष 1950-51 से वर्ष 1998-99 तक शिक्षकों की संख्या में कितनी वृद्धि हुई है?

भावी महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के बारे में आपका क्या विचार है?

स्वास्थ्य

फ़र्म का उद्देश्य लाभ को अधिकतम करना है। क्या आप सोचते हैं कि कोई भी फ़र्म एेसे व्यक्तियों को रोज़गार देने के लिए प्रेरित होगी, जो खराब स्वास्थ्य होने के कारण स्वस्थ श्रमिकों के बराबर कार्य नहीं कर पाएँ?

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चित्र 2.5 : स्वास्थ्य की जाँच के लिए एक पंक्ति में खड़े हुए बच्चे

*शिशु मृत्यु-दर से अभिप्राय एक वर्ष से कम आयु के शिशु की मृत्यु से है।

**जन्म-दर से अभिप्राय एक विशेष अवधि में प्रति एक हज़ार व्यक्तियों के पीछे जन्म लेने वाले शिशुओं की संख्या से है।

***मृत्यु-दर से अभिप्राय एक विशेष अवधि में प्रति एक हज़ार व्यक्तियों के पीछे मरने वाले लोगों की संख्या से है।

किसी व्यक्ति का स्वास्थ्य उसे अपनी क्षमता को प्राप्त करने और बीमारियों से लड़ने की ताकत देता है। एेसा कोई भी अस्वस्थ स्त्री/पुरुष संगठन के समग्र विकास में अपने योगदान को अधिकतम करने में सक्षम नहीं होगा। वास्तव में, स्वास्थ्य अपना कल्याण करने का एक अपरिहार्य आधार है। इसलिए जनसंख्या की स्वास्थ्य स्थिति को सुधारना किसी भी देश की प्राथमिकता होती है। हमारी राष्ट्रीय नीति का लक्ष्य भी जनंसख्या के अल्प सुविधा प्राप्त वर्गों पर विशेष ध्यान देते हुए स्वास्थ्य सेवाओं, परिवार कल्याण और पौष्टिक सेवा तक इनकी पहुँच को बेहतर बनाना है। पिछले पाँच दशकों में भारत ने सरकारी और निजी क्षेत्रकों में प्राथमिक, द्वितीयक तथा तृतीयक सेवाओं के लिए अपेक्षित एक विस्तृत स्वास्थ्य आधारिक संरचना और जनशक्ति का निर्माण किया है।

इन उपायों को अपनाने से जीवन प्रत्याशा बढ़ कर वर्ष 2014 में 68.3 वर्ष अधिक हो गई है। शिशु मृत्यु-दर* 1951 के 147 से घटकर 2016 में 34 पर आ गई है। इसी अवधि में अशोधित जन्म दर गिर कर 20.4 और मृत्यु-दर 6.4 पर आ गई है। जीवन प्रत्याशा में वृद्धि और शिशु देखभाल में सुधार देश के आत्मविश्वास को, भावी प्रगति के साथ, आँकने के लिए उपयोगी है। आयु में वृद्धि आत्मविश्वास के साथ जीवन की उत्तम गुणवत्ता का सूचक है। शिशुओं की संक्रमण से रक्षा तथा माताओं के साथ बच्चों की देखभाल और पोषण सुनिश्चित करने से शिशु मृत्यु-दर घटती है।

स्रोत : आर्थिक सर्वेक्षण, भाग-2, 2017-18

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सारणी 2.2 को पढ़ेें और निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दें:

1951 से 2015 तक औषधालयों की संख्या में कितने प्रतिशत कीे वृद्धि हुई है?

1951 से 2015 तक डॉक्टरों और नर्सिंगकर्मियों मेें कितने प्रतिशत की वृद्धि हुई है?

क्या आपको लगता है कि डॉक्टरों और नर्सों की संख्या में वृद्धि पर्याप्त है? यदि नहीं तो क्यों?

किसी अस्पताल मेें आप और कौन सी सुविधाएँ उपलब्ध कराना चाहेंगे?

आप हाल में जिस अस्पताल में गए, उस पर चर्चा करें।

इस सारणी का प्रयोग करते हुए क्या आप एक आरेख बना सकते हैं?

भारत में एेसे अनेक स्थान हैं जिनमें ये मौलिक सुविधाएँ भी नहीं हैं। भारत में कुल 381 मेडिकल कॉलेज और 301 डेन्टल कालेज हैं केवल चार राज्य जैसे आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र एवं तमिलनाडु में कुल राज्यों से अधिक मेडिकल हैं।

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ए.एन.एम. अॉक्स्लरी नर्स हाईड्राइड्स् आर.एन. एंड आर.एम. रजिस्टर्ड नर्सेस एंड रजिस्टर्ड मिडवाइव्स एल.एच.वी. लेडी हेल्थ विजीटर्स।

स्रोत : राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रोफाइल 2013, 2014, 2015, 2016, 2017, 2018 केन्द्रीय स्वास्थ्य गुप्तचर ब्यूरो, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय।

क्रियाकलाप

आप निकट के किसी सरकारी या निजी अस्पताल में जाएँ और निम्नलिखित विवरण नोट करें–

जिस अस्पताल में आप गए, उसमें कितने बिस्तर हैं?

अस्पताल में कितने डॉक्टर हैं?

अस्पताल में कितनी नर्सें कार्यरत हैं?

इसके अलावा निम्नलिखित अतिरिक्त सूचनाएँ एकत्रित करने का प्रयास करें :

आपके इलाके में कितने अस्पताल हैं?

आपके इलाके में कितने औषधालय हैं?

बेरोज़गारी

सकल की माँ शीला अपने घरेलू काम-काज और बच्चों की देखभाल तथा खेती के काम में अपने पति बूटा की मदद करती थी। सकल का भाई जीतू और बहन सीतू अपना समय खेलने और घूमने-फिरने में गुज़ारते थे। क्या आप शीला या जीतू या सीतू को बेरोज़गार कह सकते हैं? यदि नहीं, तो क्याें?

बेरोज़गारी उस समय विद्यमान कही जाती है, जब प्रचलित मज़दूरी की दर पर काम करने के लिए इच्छुक लोग रोज़गार नहीं पा सकें। शीला की रुचि अपने घर के बाहर काम करने में नहीं है। जीतू और सीतू बहुत छोटे हैं और उनकी गिनती श्रम-शक्ति की जनसंख्या में नहीं हो सकती और न ही जीतू, सीतू और शीला को बेरोज़गार कहा जा सकता है। श्रम बल जनसंख्या में वे लोग शामिल किए जाते हैं, जिनकी उम्र 15 वर्ष से 59 वर्ष के बीच है। सकल के भाई और बहन इस आयु वर्ग में नहीं आते। इसलिए उन्हें बेरोज़गार नहीं कहा जा सकता। सकल की माँ शीला परिवार के लिए काम करती है। वह अपने घर से बाहर जाकर पारिश्रमिक के लिए काम करने की इच्छुक नहीं है। उसे भी बेरोज़गार नहीं कहा जा सकता। सकल के दादा-दादी और नाना-नानी, जिनका यद्यपि इस कहानी में वर्णन नहीं है, उन्हें भी बेरोज़गार नहीं कहा जा सकता।

भारत के संदर्भ में ग्रामीण और नगरीय क्षेत्राें में बेरोज़गारी है। तथापि, ग्रामीण और नगरीय क्षेत्रों में बेरोज़गारी की प्रकृति में अंतर है। ग्रामीण क्षेत्रों में मौसमी और प्रच्छन्न बेरोज़गारी है। नगरीय क्षेत्रों में अधिकांशत: शिक्षित बेरोज़गारी है।

मौसमी बेरोज़गारी तब होती है, जब लोग वर्ष के कुछ महीनों में रोज़गार प्राप्त नहीं कर पाते हैं। कृषि पर आश्रित लोग आमतौर पर इस तरह की समस्या से जूझते हैं। वर्ष में कुछ व्यस्त मौसम होते हैं जब बुआई, कटाई, निराई और गहाई होती है। कुछ विशेष महीनों में कृषि पर आश्रित लोगों को अधिक काम नहीं मिल पाता।

प्रच्छन्न बेरोज़गारी के अंतर्गत लोग नियोजित प्रतीत होते हैं, उनके पास भूखंड होता है, जहाँ उन्हें काम मिलता है। एेसा प्राय: कृषिगत काम में लगे परिजनों में होता है। किसी काम में पाँच लोगों की आवश्यकता होती है, लेकिन उसमें आठ लोग लगे होते हैं। इनमें तीन लोग अतिरिक्त हैं। ये तीनों इसी खेत पर काम करते है जिस पर पाँच लोग काम करते है। इन तीनों द्वारा किया गया अंशदान पाँच लोगाें द्वारा किए गए योगदान में कोई बढ़ोतरी नहीं करता। अगर तीन लोगों को हटा दिया जाए, तो ख्ेात की उत्पादकता में कोई कमी नहीं आएगी। खेत में पाँच लोगों के काम की आवश्यकता है और तीन अतिरिक्त लोग ­­प्रच्छन्न रूप से बेरोज़गार होते हैं।

शहरी क्षेत्रों के मामले में शिक्षित बेरोज़गारी एक सामान्य परिघटना बन गई है। मैट्रिक, स्नातक और स्नातकोत्तर डिग्रीधारी अनेक युवक रोज़गार पाने में असमर्थ हैं। एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि मैट्रिक की तुलना में स्नातक और स्नातकोत्तर युवकों में बेरोज़गारी अधिक तेज़ी से बढ़ी है। एक विरोधाभासी जनशक्ति-स्थिति सामने आई है कि कुछ विशेष श्रेणियों में जनशक्ति के आधिक्य के साथ ही कुछ अन्य श्रेणियों में जनशक्ति की कमी विद्यमान है। एक ओर तकनीकी अर्हता प्राप्त लोगों के बीच बेरोज़गारी है, तो दूसरी ओर आर्थिक संवृद्धि के लिए आवश्यक तकनीकी कौशल की कमी भी है।

बेरोज़गारी से जनशक्ति संसाधन की बर्बादी होती है। युवकों में निराशा और हताशा की भावना होती है। लोगों के पास अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए पर्याप्त मुद्रा नहीं होती। शिक्षित लोगों के साथ, जो कार्य करने के इच्छुक हैं और सार्थक रोज़गार प्राप्त करने में समर्थ नहीं हैं, यह एक बड़ा सामाजिक अपव्यय है।

बेरोज़गारी से आर्थिक बोझ में वृद्धि होती है। कार्यरत जनसंख्या पर बेरोज़गारों की निर्भरता बढ़ती है। किसी व्यक्ति और साथ ही साथ समाज के जीवन की गुणवत्ता पर बुरा प्रभाव पड़ता है। जब किसी परिवार को मात्र जीवन-निर्वाह स्तर पर रहना पड़ता है, तो उसके स्वास्थ्य स्तर में एक आम गिरावट आती है और स्कूल प्रणाली से अलगाव में वृद्धि होती है।

इसलिए, किसी अर्थव्यवस्था के समग्र विकास पर बेरोज़गारी का अहितकर प्रभाव पड़ता है। बेरोज़गारी में वृद्धि मंदीग्रस्त अर्थव्यवस्था का सूचक है। यह संसाधनों की बर्बादी भी करता है, जिन्हें उपयोगी ढंग से नियोजित किया जा सकता था। अगर लोगाें को संसाधन के रूप में प्रयोग नहीं किया जा सका, तो वे स्वाभाविक रूप से अर्थव्यवस्था के लिए दायित्व बन जाएँगे।

सांख्यिकीय रूप से भारत में बेरोज़गारी की दर निम्न है। बडी संख्या में निम्न आय और निम्न उत्पादकता वाले लोगों की गिनती नियोजित लोगाें में की जाती है। वे पूरे वर्ष काम करते प्रतीत होते हैं, लेकिन उनकी क्षमता और आय के हिसाब से यह उनके लिए पर्याप्त नहीं है। वे काम तो कर रहे हैं, पर एेसा प्रतीत होता है कि ये काम उन पर थोपे हुए हैं। इसलिए शायद वे अपनी पसंद का कोई अन्य काम करना पसंद कर सकते हैं। गरीब लोग बेकार नहीं बैठ सकते। वे किसी भी काम से जुड़ जाना चाहते हैं, चाहे उससे कितनी भी कमाई हो। अपनी इस कमाई से वे किसी तरह जीवन निर्वाह कर पाते हैं।

इसके अतिरिक्त, प्राथमिक क्षेत्रक में स्वरोज़गार एक विशेषता है। यद्यपि सभी लोगों की आवश्यकता नहीं होती है, फिर भी पूरा परिवार खेतों में काम करता है। इस तरह कृषि क्षेत्रक में प्रच्छन्न बेरोज़गारी होती है। लेकिन, जो भी उत्पादन होता है उसमें पूरे परिवार की हिस्सेदारी होती। खेत के काम में साझेदारी और उत्पादित फसल में हिस्सेदारी की धारणा ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोज़गारी की कठिनाइयों में कमी लाती है। लेकिन, इससे परिवार की गरीबी कम नहीं होती और प्रत्येक परिवार से अधिशेष श्रमिक रोज़गार की तलाश में गाँवों से शहरों की ओर प्रवास करते हैं।

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चित्र 2.6 : क्या आपको स्मरण है कि जब आपने अपने जूते या चप्पल ठीक कराए थे, तो कितना भुगतान किया था? 

आइए, उपरोक्त तीनों क्षेत्रकों में रोज़गार के परिदृश्य की चर्चा करें। कृषि का सबसे अधिक अवशोषण करने वाला अर्थव्यवस्था का क्षेत्रक कृषि है। पिछले वर्षों में पूर्व चर्चित प्रच्छन्न बेरोज़गारी के कारण, कृषि पर जनसंख्या की निर्भरता में कुछ कमी आई है। कृषि अधिशेष श्रम का कुछ भाग द्वितीयक या तृतीयक क्षेत्रक में चला गया है। द्वितीयक क्षेत्रक में छोटे पैमाने पर होने वाले विनिर्माण में श्रम का सबसे अधिक अभिशोषण है। तृतीयक क्षेत्रक में जैव-प्रौद्योगिकी, सूचना प्रौद्योगिकी आदि सरीखी विभिन्न नयी सेवाएँ सामने आ रही हैं।

आइए, यह जानने के लिए एक कहानी पढ़ें कि कैसे लोग अपने गाँव की अर्थव्यवस्था के लिए परिसंपत्ति बन जाते हैं।

एक गाँव की कहानी

एक गाँव था, जिसमें अनेक परिवार रहते थे। प्रत्येक परिवार इतना उपजा लेता था कि उससे उसके सदस्य खा-पी सकें। परिवार के सदस्य अपने कपड़े बुनते, अपने बच्चों को पढ़ाते और इस तरह प्रत्येक परिवार अपनी आवश्यकताएँ स्वयं पूरी कर लेता था। इनमें से एक परिवार ने अपने एक बेटे को कृषि महाविद्यालय में भेजने का फैसला किया। लड़के को निकट के एक कृषि महाविद्यालय में प्रवेश मिल गया। कुछ समय पश्चात्, वह कृषि-इंजीनियरिंग की योग्यता प्राप्त कर गाँव वापस लौट आया। वह इतना सृजनात्मक निकला कि उसने एक उन्नत किस्म के हल का नमूना तैयार किया, जिससे गेहूँ की उपज में वृद्धि हो गई। इस तरह गाँव में एेग्रो-इंजीनियरिंग का एक नया काम सृजित हुआ और वहीं उसकी पूर्ति हुई। गाँव के उस परिवार ने अपनी अधिशेष फसल निकट के गाँव में बेच दी। उन्हें इससे अच्छा लाभ हुआ, जिसे उन्होंने आपस में बाँट लिया। इस सफलता से प्रेरित होकर कुछ समय पश्चात् गाँव के सभी परिवारों ने एक बैठक की। वे अपने बच्चों के लिए भी बेहतर भविष्य चाह रहे थे। उन्होंने पंचायत से गाँव में एक स्कूल खोलने का अनुरोध किया। उन्होंने पंचायत को विश्वास दिलाया कि वे सभी अपने बच्चों को स्कूल में भेजेंगे। पंचायत ने सरकार की मदद से एक स्कूल खोल दिया। निकट के कस्बे से एक शिक्षक की नियुक्ति की गई। इस गाँव के सभी बच्चे स्कूल जाने लगे। कुछ समय पश्चात्, गाँव के एक परिवार ने अपनी एक लड़की को सिलाई का प्रशिक्षण दिलाया। वह अब गाँव के सभी लोगों के लिए कपड़े सीने लगी, क्योंकि अब सभी लोग अच्छे ढंग से सिले कपड़े पहनना चाहते थे। इस तरह, दर्ज़ी का एक नया काम सृजित हुआ। इसका एक और सकारात्मक प्रभाव हुआ। किसानों का कपड़े खरीदने के लिए दूर जाने में लगने वाला समय अब बचने लगा।

किसान खेतों में अधिक समय लगाने लगे थे, इसलिए उपज बढ़ गई। यह समृद्धि का प्रारंभ था। किसानों के पास उपभोग से अधिक वस्तुएँ थीं। अब वे अपने उत्पादन उन लोगों को बेच सकते थे जो उनके गाँव के बाज़ार में आते थे। समय के साथ वह गाँव, जहाँ प्रारंभ में किसी नए काम का औपचारिक रूप से कोई अवसर नहीं था–शिक्षक, दर्ज़ी, एेग्रो-इंजीनियर और अन्य तरह के लोगों से परिपूर्ण हो गया। यह एक साधारण गाँव की कहानी थी, जहाँ मानव पूँजी के उठते स्तर ने उसे जटिल और आधुनिक आर्थिक क्रियाकलापों के स्थल के रूप में विकसित बनाया।  

सारांश

आपने देखा कि शिक्षा और स्वास्थ्य के समान आगतें किस प्रकार लोगों को अर्थव्यवस्था के लिए परिसंपत्ति बनाने में सहायता करती हैं। इस अध्याय में अर्थव्यवस्था के तीनों क्षेत्रकों में होने वाली आर्थिक क्रियाओं के विषय में चर्चा की गई है। हमने बेरोज़गारी से जुड़ी समस्याओं के बारे में भी पढ़ा। अंतत: अध्याय एक गाँव की कहानी के साथ समाप्त होता है जिसमें पहले कोई रोज़गार नहीं था, पर बाद में वहाँ रोज़गार के अनेक अवसर उत्पन्न हो गए।

अभ्यास

1. ‘संसाधन के रूप में लोग’ से आप क्या समझते हैं?

2. मानव संसाधन भूमि और भौतिक पूँजी जैसे अन्य संसाधनों से कैसे भिन्न है?

3. मानव पूँजी निर्माण में शिक्षा की क्या भूमिका है?

4. मानव पूँजी निर्माण में स्वास्थ्य की क्या भूमिका है?

5. किसी व्यक्ति के कामयाब जीवन में स्वास्थ्य की क्या भूमिका है?

6. प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रकों में किस तरह की विभिन्न आर्थिक क्रियाएँ संचालित की जाती हैं?

7. आर्थिक और गैर-आर्थिक क्रियाओं में क्या अंतर है?

8. महिलाएँ क्यों निम्न वेतन वाले कार्यों में नियोजित होती हैं?

9. ‘बेरोज़गारी’ शब्द की आप कैसे व्याख्या करेंगे?

10. प्रच्छन्न और मौसमी बेरोज़गारी में क्या अंतर है?

11. शिक्षित बेरोज़गारी भारत के लिए एक विशेष समस्या क्यों है?

12. आप के विचार से भारत किस क्षेत्रक में रोज़गार के सर्वाधिक अवसर सृजित कर सकता है?

13. क्या आप शिक्षा प्रणाली में शिक्षित बेरोज़गारों की समस्या दूर करने के लिए कुछ उपाय सुझा सकते हैं?

14. क्या आप कुछ एेसे गाँवों की कल्पना कर सकते हैं जहाँ पहले रोज़गार का कोई अवसर नहीं था, लेकिन बाद में बहुतायत में हो गया?

15. किस पूँजी को आप सबसे अच्छा मानते हैं–भूमि, श्रम, भौतिक पूँजी और मानव पूँजी? क्यों?

संदर्भ

आर्थिक सर्वेक्षण 2004-05, वित्त मंत्रालय, भारत सरकार, नयी दिल्ली।

दसवीं पंचवर्षीय योजना 2002-07 का मध्यावधि मूल्यांकन, भाग-2, योजना आयोग, नयी दिल्ली।

दसवीं पंचवर्षीय योजना 2002-07, योजना आयोग, नयी दिल्ली।

भारत दर्शन 2020, प्रतिवेदन, योजना आयोग, भारत सरकार, नयी दिल्ली।

गैरी, एस. बेकर, 1966, ह्यूमन कैपीटल : ए थ्योरिटिकल एंड एंपिरिकल एनालिसिस विद स्पेशल रेफरेंस टू एजूकेशन, जनरल सीरीज़, नंबर 80, नेशनल ब्यूरो अॉफ इकानामिक रिसर्च, न्यूयार्क।

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