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अध्याय 2
संविधान
निर्माण
परिचय
पिछले अध्याय में हमने देखा कि लोकतंत्र में शासक लोग मनमानी करने के लिए आज्ञाद नहीं हैं। कुछ बुनियादी नियम है जिनका पालन नागरिकों और सरकार, दोनों को करना होता है। ऐसे सभी नियमों का सम्मिलित रूप संविधान कहलाता है। देश का सर्वोच्च कानून होने की हैसियत से संविधान नागरिकों के अधिकार, सरकार की शक्ति और उसके कामकाज के तौर-तरीकों का निर्धारण करता है।
इस अध्याय में हम लोकतंत्र के संवैधानिक स्वरूप पर कुछ बुनियादी सवाल उठाएँगे। हमें संविधान की ज़रूरत क्यों होती है? संविधान बनते कैसे हैं? उन्हें कौन बनाता है और किस तरीके से बनाता है? किसी लोकतांत्रिक देश के संविधान को आकार देने वाले मूल्य कौन-कौन से हैं? एक बार संविधान बन जाने के बाद क्या हम बाद में बदलती स्थितियों के अनुरूप उसमें बदलाव कर सकते हैं?
हाल के दिनों में संविधान बनाने का एक उदाहरण दक्षिण अफ्रीका का है। वहाँ क्या हुआ और दक्षिण अफ्रीकी लोगों ने किस तरह अपने संविधान निर्माण के काम को अंजाम दिया? हम इस अध्याय की शुरुआत में इसी अनुभव पर गौर करेंगे। इसके बाद हम भारतीय संविधान के निर्माण और इसके पीछे के मौलिक विचारों-मूल्यों की चर्चा करेंगे और देखेंगे कि यह किस तरह नागरिकों के जीवन और सरकार के अच्छे कामकाज के लिए बढ़िया ढाँचा उपलब्ध कराता है।
नेल्सन मंडेला
2.1 दक्षिण अफ्रीका में लोकतान्त्रिक संविधान
"मैंने गोरों के प्रभुत्त के खिलाफ संघर्ष किया है और मैने ही अश्वेतों के प्रभुत्व का विरोध किया है। मैंने एक ऐसे लोकतांत्रिक और स्वतंत्र समाज की कामना की है जिसमें सभी लोग पूरे मेल-जोल के साथ रहें और सबको समान अवसर उपलब्ध हों। मैं इसी आदर्श के लिए जीवित रहना और इसे पाना चाहता हूँ और अगर ज़रूरत पड़ी तो इस आदर्श के लिए मैं जान देने को भी तैयार हूँ।"
यह नेल्सन मंडेला का कथन है जिन पर दक्षिण अफ्रीका की गोरों की सरकार ने देशद्रोह का मुकदमा चलाया था। उन्हें और सात अन्य नेताओं को 964 में देश में रंगभेद से चलने वाली शासन व्यवस्था का विरोध करने के लिए आजीवन कारावास की सजा दी गई थी। अगले 28 वर्षो तक उन्हें दक्षिण अफ्रीका की सबसे भयावह जेल, रोब्बेन द्वीप में कैद रखा गया था |
रंगभेद वाले दौर (953) का एक साइन चोड़ लिखसे तब 28 वर्षों तक उन्हें दक्षिण अफ्रीका की सबसे तनावपूर्ण संबंधों का पता में चलता है।
भयावह जेल, रोब्बेन द्वीप में कैद रखा गया था। इस साइन बोर्ड पर लिखा है: “खतरा! वेशी अश्वेत, हिंदुस्तानी और रंगीन चमड़ी वालो।अगर तुम रात में इस परिसर में घुसे तो वुम्हें लापता घोषित कर दिया जाएगा। हथियारबंद सुरक्षा गार्ईस देखते डी गोली मार देंगेऔर जंगली कुत्ते लाश को नोंच-नोंच कर खा जाएँगे। बुमको चेतावनी दे दी गई है”
रंगभेद के रिवलाफ़ संघर्ष
रंगभेद नस्ली भेदभाव पर आधारित उस व्यवस्था का नाम है जो दक्षिण अफ्रीका में विशिष्ट तौर पर चलाई गई। दक्षिण अफ्रीका पर यह व्यवस्था यूरोप के गोरे लोगों ने लादी थी। ॥7वीं और 18वीं सदी में व्यापार करने आई यूरोप की कंपनियों ने दक्षिण अफ्रीका को भी उसी तरह हथियारों और ज़ोर-जबर्दस्ती से गुलाम बनाया जैसे भारत को। पर भारत से उलट काफ़ी बड़ी संख्या में गोरे लोग दक्षिण अफ्रीका में बस गए और उन्होंने स्थानीय शासन को अपने हाथों में ले लिया। रंगभेद की राजनीति ने लोगों को उनकी चमड़ी के रंग के आधार पर बाँट दिया। दक्षिण अफ्रीका के स्थानीय लोगों की चमड़ी का रंग काला होता है। आबादी में उनका हिस्सा तीन-चौथाई है और उन्हें ' अश्वेत' कहा जाता था। श्वेत और अश्वेतों के अलावा वहाँ मिश्रित नसलों जिन्हें 'रंगीन' चमड़ी वाला कहा जाता था और भारत से गए लोग भी थे। गोरे शासक, गोरों के अलावा शेष सब को छोटा और नीचा मानते थे। इन्हें वोट डालने का अधिकार भी नहीं था।
रंगभेद की शासकीय नीति अश्वेतों के लिए खास तौर से दमनकारी थी। उन्हें गोरों की बस्तियों में रहने-बसने की इजाज़त नहीं थी। परमिट होने पर ही वे वहाँ जाकर काम कर सकते थे। रेल गाड़ी, बस, टैक्सी, होटल, अस्पताल, स्कूल और कॉलेज, पुस्तकालय, सिनेमाघर, नाट्यगृह, समुद्र तट, तरणताल और सार्वजनिक शौचालयों तक में गोरों और कालों के लिए एकदम अलग-अलग इंतज़ाम थे। इसे पृथक्करण या अलग-अलग करने का इंतज़ाम कहा जाता था। काले लोग गोरों के लिए आरक्षित जगह तो क्या उनके गिरज़ाघर तक में नहीं जा सकते थे। अश्वेतों को संगठन बनाने और इस भेदभावपूर्ण व्यवहार का विरोध करने का भी अधिकार नहीं था।
1950 से ही अश्वेत, रंगीन चमड़ी वाले और भारतीय मूल के लोगों ने रंगभेद प्रणाली के खिलाफ़ संघर्ष किया। उन्होंने विरोध प्रदर्शन किए और हड़तालें आयोजित कीं। भेदभाव वाली इस शासन प्रणाली का विरोध करने वाले संगठन अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस के झंडे तले एकजुट हुए। इनमें कई मज़दूर संगठन और कम्युनिस्ट पार्टी भी शामिल थी। अनेक समझदार और संवेदनशील गोरे लोग भी रंगभेद समाप्त करने के आंदोलन में अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस के साथ आए और उन्होंने इस संघर्ष में प्रमुख भूमिका निभाई। अनेक देशों ने रंगभेद की निंदा की और इस व्यवस्था के खिलाफ़ आवाज्ञ उठाई। लेकिन गोरी सरकार ने हजारों अश्वेत और रंगीन चमड़ी वाले लोगों की हत्या और दमन करते हुए अपना शासन जारी रखा।
- नेल्सन मंडेला के जीवन और संघर्षो पर एक पोस्टर बनाएं |
- अगर उनकी आत्मकथा, 'द लॉग वाक टू फ्रीडम' उप्लब्ध हो तो कक्षा में उसके कुछ हिस्से पढ़कर आपस में चर्चा करें |
एक नए संविधान की ओर
रंगभेद के खिलाफ़ जब संघर्ष और विरोध बढ़ता गया तो सरकार को यह एहसास हो गया कि अब वह ज़ोर-ज़बर्दस्ती से अश्वेतों पर अपना राज कायम नहीं रख सकती। इसलिए, गोरी सरकार ने अपनी नीतियों में बदलाव शुरू किया। भेदभाव वाले कानूनों को वापस ले लिया गया। राजनैतिक दलों पर लगा प्रतिबंध और मीडिया पर लगी पाबंदियाँ उठा ली गईं। 28 वर्ष तक जेल में कैद रखने के बाद नेल्सन मंडेला को आज्ञाद कर दिया गया। आखिरकार 26 अप्रैल 994 की मध्य रात्रि को दक्षिण अफ्रीका गणराज्य का नया झंडा लहराया और यह दुनिया का एक नया लोकतांत्रिक देश बन गया। रंगभेद वाली शासन व्यवस्था समाप्त हुई और सभी नस्ल के लोगों की मिलीजुली सरकार के गठन का रास्ता खुला।
यह सब कैसे हुआ? आइए इस असाधारण बदलाव के बाद नए दक्षिण अफ्रीका के पहले राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला के मुँह से यह जानें:
© जान मूलेन, , विकीपेडिया, जीएनयू फ्री डाक्यूमेंटेशन लाइसेंस
“ऐतिहासिक रूप से एक-दूसरे के दुश्मन रहे दो समूह रंगभेद वाली शासन व्यवस्था की जगह शांतिपूर्ण ढंग से लोकतांत्रिक व्यवस्था अपनाने पर सहमत हो गए क्योंकि दोनों को एक-दूसरे की भलमनसाहत पर भरोसा था और वे इसे मानने को तैयार थे। मेरी कामना है कि दक्षिण अफ्रीकी लोग कभी भी अच्छाई पर विश्वास करना न छोड़ें और इस बात में आस्था रखें कि मनुष्य जाति पर विश्वास करना ही हमारे लोकतंत्र का आधार है।””
नए लोकतांत्रिक दक्षिण अफ्रीका के उदय के साथ ही अश्वेत नेताओं ने अश्वेत समाज से आग्रह किया कि सत्ता में रहते हुए गोरे लोगों ने जो जुल्म किए थे उन्हें वे भूल जाएँ और गोरों को माफ़ कर दें। उन्होंने कहा कि आइए, अब सभी नस्लों तथा स्त्री-पुरुष की समानता, लोकतांत्रिक मूल्यों, सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों पर आधारित नए दक्षिण अफ्रीका का निर्माण करें। एक पार्टी ने दमन और नृशंस हत्याओं के ज्ञोर पर शासन किया था और दूसरी पार्टी ने आज़ादी की लड़ाई की अगुवाई की थी। नए संविधान के निर्माण के लिए दोनों ही साथ-साथ बैठी |
अगर दक्षिण के बहुसंख्यक काले लोगों ने गोरों से अपने दमन और शोषण का बदला लेने का निश्चय किया होता तो कया होता?
आज का दक्षिण अफ्रीका:
यह तस्वीर आज के दक्षिण अफ्रीका की सोच को उजागर करती है। आज का दक्षिण अफ्रीका खुद को “इंद्रधनुषी देश” कहता है। क्या आप बता सकते हैं क्यों?
दो वर्षों की चर्चा और बहस के बाद उन्होंने जो संविधान बनाया वैसा अच्छा संविधान दुनिया में कभी नहीं बना था। इस संविधान में नागरिकों को जितने व्यापक अधिकार दिए गए हैं उतने दुनिया के किसी संविधान ने नहीं दिए हैं। साथ ही उन्होंने यह फ़ैसला भी किया कि मुश्किल मामलों के समाधान की कोशिशों में किसी को भी अलग नहीं किया जाएगा और न ही किसी को बुरा या दुष्ट मानकर बर्ताव किया जाएगा। इस बात पर भी सहमति बनी कि पहले जिसने चाहे जो कुछ किया हो लेकिन अब से हर समस्या के समाधान में सबकी भागीदारी होगी। दक्षिण अफ्रीकी संविधान की प्रस्तावना ही इस भावना को बहुत खूबसूरत ढंग से व्यक्त करती है (पृष्ठ 30 देखें)।
दक्षिण अफ्रीकी संविधान से दुनिया भर के लोकतांत्रिक लोग प्रेरणा लेते हैं। 7994 तक जिस देश की दुनिया भर में अलोकतांत्रिक तौर-तरीकों के लिए निंदा की जाती थी, आज उसे लोकतंत्र के मॉडल के रूप में देखा जाता है। यह काम दक्षिण अफ्रीकी लोगों द्वारा साथ रहने, साथ काम करने के दृढ़ निश्चय और पुराने कड़वे अनुभवों को आगे के इंद्रधनुषी समाज बनाने में एक सबक के रूप में प्रयोग करने की समझदारी दिखाने के कारण संभव हुआ। एक बार फिर मंडेला के शब्दों में ही ये बातें समझें:
“दक्षिण अफ्रीका का संविधान इतिहास और भविष्य, दोनों की बातें करता है। एक तरफ तो यह एक पवित्र समझौता है कि दक्षिण अफ्रीकी के रूप में हम, एक-दूसरे से यह वायदा करते हैं कि हम अपने रंगभेदी, क्र और दमनकारी इतिहास को फिर से दोहराने की अनुमति नहीं देंगे। पर बात इतनी ही नहीं है। यह अपने देश को इसके सभी लोगों द्वारा वास्तविक अर्थों में साझा करने का घोषणापत्र भी है-श्वेत और अश्वेत, स्त्री और पुरुष, यह देश पूर्ण रूप से हम सभी का है।”
दक्षिण अफ्रीका के बारे में अधिक जानकारी के लिए, देखें https://www.gov.za
- विभिन्न समुदायों के बीच संबंध
- नेतृत्वः गांधी/मंडेला
- संघर्ष का नेतृत्व करने वाली पार्टी: अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस/भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
- संघर्ष का तरीका
- उपनिवेशवाद का चरित्र
2.2 हमे संतधिधान की ज़रूरत क्यो है ?
हमें एक संविधान की ज़रूरत क्यों है और संविधान क्या करता है, इस बात को हम दक्षिण अफ्रीका के उदाहरण से समझ सकते हैं। इस नए लोकतंत्र में दमन करने वाले और दमन सहने वाले, दोनों ही साथ-साथ समान हैसियत से रहने की योजना बना रहे थे। दोनों के लिए ही एक-दूसरे पर भरोसा कर पाना आसान नहीं था। उनके अंदर अपने-अपने किस्म के डर थे। वे अपने हितों की रखवाली भी चाहते थे। बहुसंख्यक अश्वेत इस बात पर चौकस थे कि लोकतंत्र में बहुमत के शासन वाले मूल सिद्धांत से कोई समझौता न हो। उन्हें बहुत सारे सामाजिक और आर्थिक अधिकार चाहिए थे। अल्पसंख्यक गोरों को अपनी संपत्ति और अपने विशेषाधिकारों की चिंता थी।
लंबे समय तक चली बातचीत के बाद दोनों पक्ष समझौते का रास्ता अपनाने को तैयार हुए। गोरे लोग बहुमत के शासन का सिद्धांत और एक व्यक्ति एक वोट को मान गए। वे गरीब लोगों और मज़दूरों के कुछ बुनियादी अधिकारों पर भी सहमत हुए। अश्वेत लोग भी इस बात पर सहमत हुए कि सिर्फ़ बहुमत के आधार पर सारे फ़ैसले नहीं होंगे। वे इस बात पर सहमत हुए कि बहुमत के ज़रिए अश्वेत लोग अल्पसंख्यक गोरों की ज़्मीन-जायदाद पर कब्ज़ा नहीं करेंगे। यह समझौता आसान नहीं था। इस समझौते को लागू करना और भी कठिन था। इसे लागू करने के लिए पहली ज़रूरत थी कि वे एक-दूसरे पर भरोसा करें और अगर वे एक-दूसरे पर भरोसा कर भी लें तो क्या गारंटी है कि भविष्य में इसे तोड़ा नहीं जाएगा?
ऐसी स्थिति में भरोसा बनाने और बरकरार रखने का एक ही तरीका है कि जो बातें तय हुई हैं उन्हें लिखत-पढ़त में ले लिया जाए जिससे सभी लोगों पर उन्हें मानने की बाध्यता रहे। भविष्य में शासकों का चुनाव कैसे होगा, इसके बारे में नियम तय होकर लिखित रूप में आ जाते हैं। चुनी हुई सरकार क्या-क्या कर सकती है और क्या-क्या नहीं कर सकती यह भी लिखित रूप में मौजूद होता है। इन्हीं लिखित नियमों में नागरिकों के अधिकार भी होते हैं। पर ये नियम तभी काम करेंगे जब जीतकर आने वाले लोग इन्हें आसानी से और मनमाने ढंग से नहीं बदलें। दक्षिण अफ्रीकी लोगों ने इन्हीं चीज़ों का इंतज्ञाम किया। वे कुछ बुनियादी नियमों पर सहमत हुए। वे इस बात पर भी सहमत हुए कि ये नियम सबसे ऊपर होंगे और कोई भी सरकार इनकी उपेक्षा नहीं कर सकती। इन्हीं बुनियादी नियमों के लिखित रूप को संविधान कहते हैं।
संविधान रचना सिर्फ दक्षिण अफ्रीका की ही खासियत नहीं है। हर देश में अलग-अलग समूहों के लोग रहते हैं। संभव है कि उनके रिश्ते दक्षिण अफ्रीका के गोरे और कालों जितने 'कट॒तापूर्ण नहीं हों। पर दुनिया भर में लोगों के बीच विचारों और हितों में फ़र्क रहता है। लोकतांत्रिक शासन प्रणाली हो या न हो पर दुनिया के सभी देशों को ऐसे बुनियादी नियमों की ज़रूरत होती है। यह बात सिर्फ़ सरकारों पर ही लागू नहीं होती। हर संगठन के कायदे- कानून होते हैं, संविधान होता है। इस तरह आपके इलाके का कोई क्लब हो या सहकारी संगठन या फिर राजनैतिक दल, सभी को एक संविधान की ज़रूरत होती है।
संविधान लिखित नियमों की ऐसी किताब है जिसे किसी देश में रहने वाले सभी लोग सामूहिक रूप से मानते हैं। संविधान सर्वोच्च कानून है जिससे किसी क्षेत्र में रहने वाले लोगों (जिन्हें नागरिक कहा जाता है) के बीच के आपसी संबंध तय होने के साथ-साथ लोगों और सरकार के बीच के संबंध भी तय होते हैं। संविधान अनेक काम करता है जिनमें ये प्रमुख हैं:
- “पहला' यह साथ रह रहे विभिन्न तरह के लोगों के बीच ज़रूरी भरोसा और सहयोग विकसित करता है।
- “दूसरा' यह स्पष्ट करता है कि सरकार का गठन कैसे होगा और किसे फ़ैसले लेने का अधिकार होगा।
- “तीसरा' यह सरकार के अधिकारों की सीमा तय करता है और हमें बताता है कि नागरिकों के क्या अधिकार हैं, और
- चौथा, यह अच्छे समाज के गठन के लिए लोगों की आकांक्षाओं को व्यक्त करता है।
जिन देशों में संविधान है, वे सभी लोकतांत्रिक शासन वाले हों यह ज़रूरी नहीं है। लेकिन जिन देशों में लोकतांत्रिक शासन है वहाँ संविधान का होना ज़रूरी है। ब्रिटेन के खिलाफ़ आज़ादी की लड़ाई के बाद अमेरिकी लोगों ने अपने लिए संविधान का निर्माण किया। फ्रांसीसी क्रांति के बाद फ्रांसीसी लोगों ने एक लोकतांत्रिक संविधान को मान्यता दी। इसके बाद से यह चलन हो गया कि हर लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में एक लिखित संविधान हो।
वल्लभभाई झावरभाई पटेल
(1875-1950), जन्म: गुजरात | अंतरिम सरकार में गा एवं प्रसारण मंत्री। और बारदोली किसान सत्याग्रह के नेता। भारतीय रियासतों के विलय में निर्णायक भूमिका बाद में: उप प्रधानमंत्री |
सरोजिनी नायडू
(1879-1949) जन्म: आंध्र प्रदेश | कवयित्री, लेखिका और राजनैतिक कार्यकर्ता |कांग्रेस की अग्रणी महिला नेता। बाद में: उत्तर प्रदेश की राज्यपाल
2.3 भारतीय संतिधान का निर्माण
दक्षिण अफ्रीका की ही तरह भारत का संविधान भी बहुत कठिन परिस्थितियों के बीच बना। भारत जैसे विशाल और विविधता भरे देश के लिए संविधान बनाना आसान काम नहीं था। भारत के लोग तब गुलाम की हैसियत से निकलकर नागरिक की हैसियत पाने जा रहे थे। देश ने धर्म के आधार पर हुए बँटवारे की विभीषिका झेली थी। भारत और पाकिस्तान के लोगों के लिए बँटवारा भारी बर्बादी और दहलाने वाला अनुभव था।
विभाजन से जुड़ी हिंसा में सीमा के दोनों तरफ कम-से-कम दस लाख लोग मारे जा चुके थे। एक बड़ी समस्या और भी थी। अंग्रेजों ने देसी रियासतों के शासकों को यह आज्ञादी दे दी थी कि वे भारत या पाकिस्तान जिसमें इच्छा हो अपनी रियासत का विलय कर दें या स्वतंत्र रहें। इन रियासतों का विलय मुश्किल और अनिश्चय भरा काम था। जब संविधान लिखा जा रहा था तब देश का भविष्य इतना सुरक्षित और चैन भरा नहीं लगता था जितना आज है। संविधान निर्माताओं को देश के वर्तमान और भविष्य की चिंता थी।
अपने दादा-दादी, नाना-नानी या इलाके के किसी बुज़ुर्ग से बात कीजिये | उनसे पूछिए कि क्या उनको आजादी या बॅटवारे या संविधान निर्माण के बारे में कुछ याद है | उस समय लोगो को किन बातो की उम्मीद थी और क्या-क्या अंदेशे थे? अपनी कक्षा में इन बातो की चर्चा कीजिये |
अबुल कलाम आज़ाद
(1888-1958), जन्म: सऊदी अरब । शिक्षाविद्, लेखक और धर्मशास्त्रों के ज्ञाता; अरबी के विद्वान | कांग्रेसी नेता, राष्ट्रीय आंदोलन में अग्रणी भूमिका। मुस्लिम अलगाववादी राजनीति के विरोधी। बाद में: पहले केंद्रीय मंत्रिमंडल में शिक्षा मंत्री |
टी.टी. कृष्णामचारी
(1899-1974) जन्म: तमिलनाडु प्रारूप कमेटी के सदस्य । उद्यमी और कांग्रेसी नेता। बाद में: केंद्रीय मंत्रिमंडल में वित्त मंत्री ।
राजेंद्र प्रसाद
(1884-1963), जन्म: बिहार। संविधान सभा के अध्यक्ष | वकील और चंपारण सत्याग्रह के प्रमुख भागीदार | तीन बार कांग्रेस अध्यक्ष । बाद में: भारत के प्रथम राष्ट्रपति।
संविधान निर्माण का रास्ता
सारी मुश्किलों के बावजूद भारतीय संविधान निर्माताओं को एक बड़ा लाभ था। दक्षिण अफ्रीका में जिस तरह संविधान निर्माण के दौर में ही सारी बातों पर सहमति बनानी पड़ी वैसी स्थिति उस समय के भारत में नहीं थी। भारत में आज़ादी की लड़ाई के दौरान ही लोकतंत्र समेत अधिकांश बुनियादी बातों पर राष्ट्रीय सहमति बनाने का काम हो चुका था। हमारा राष्ट्रीय आंदोलन सिर्फ़ एक विदेशी सत्ता के खिलाफ़ संघर्ष भर नहीं था। यह न केवल अपने समाज को फिर से जगाने का वरन् अपने समाज और राजनीति को बदलने और नए सिरे से गढ़ने का आंदोलन भी था। आजादी के बाद भारत को किस रास्ते पर चलना चाहिए इसे लेकर आज़्ादी के संघर्ष के दौरान भी तीखे मतभेद थे। ऐसे कुछ मतभेद अब तक भी बने हुए हैं। पर कुछ बुनियादी विचारों पर लगभग सभी लोगों की सहमति कायम हो चुकी थी।
1928 में ही मोतीलाल नेहरू और कांग्रेस के आठ अन्य नेताओं ने भारत का एक संविधान लिखा था। 93 में कराची में हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में एक प्रस्ताव में यह रूपरेखा रखी गई थी कि आज़ाद भारत का संविधान कैसा होगा। इन दोनों ही दस्तावेजों में स्वतंत्र भारत के संविधान में सार्वभौम वयस्क मताधिकार, स्वतंत्रता और समानता का अधिकार और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा की बात कही गई थी। इस प्रकार संविधान की रचना करने के लिए बैठने से पहले ही कुछ बुनियादी मूल्यों पर सभी नेताओं की सहमति बन चुकी थी।
औपनिवेशिक शासन की राजनैतिक संस्थाओं और व्यवस्थाओं को जानने-समझने से भी नई राजनैतिक संस्थाओं का स्वरूप तय करने में मदद मिली। अंग्रेज़ी हुकूमत ने बहुत कम लोगों को वोट का अधिकार दिया था। इसके आधार पर अंग्रेज़ों ने जिस विधायिका का गठन किया था वह बहुत कमज़ोर थी। 937 के बाद पूरे ब्रिटिश शासन वाले भारत में प्रादेशिक असेंबलियों के लिए चुनाव कराए गए थे। इनमें बनी सरकारें पूरी तरह लोकतांत्रिक नहीं थीं। पर विधानसभाओं में जाने और काम करने का अनुभव तब बहुत लाभदायक हुआ क्योंकि इन्हीं भारतीय लोगों को अपनी संस्थाएँ और व्यवस्थाएँ बनानी थीं और चलाना था। इसी कारण भारतीय संविधान में कई संस्थाओं और व्यवस्थाओं को पुरानी व्यवस्था से लगभग जस का तस अपना लिया गया जैसे कि 935 का भारत सरकार कानून।
आज्ञादी के बाद भारत के स्वरूप को लेकर वर्षों पहले से चले चिंतन और बहसों ने भी काफी लाभ पहुँचाया। हमारे नेताओं में इतना आत्मविश्वास आ गया था कि उन्हें बाहर के विचार और अनुभवों को अपनी ज़रूरत के अनुसार अपनाने में कोई हिचक नहीं हुई। हमारे अनेक नेता फ्रांसीसी क्रांति के आदर्शों, ब्रिटेन के संसदीय लोकतंत्र के कामकाज और अमेरिका के अधिकारों की सूची से काफ़ी प्रभावित थे। रूस में हुई समाजवादी क्रांति ने भी अनेक भारतीयों को प्रभावित किया और वे सामाजिक और आर्थिक समता पर आधारित व्यवस्था बनाने की कल्पना करने लगे थे। लेकिन वे दूसरों की सिर्फ नकल नहीं कर रहे थे। हर कदम पर वे यह सवाल ज़रूर पूछते थे कि क्या ये चीज़ें भारत के लिए उपयुक्त होंगी। इन सभी चीज़ों ने हमारे संविधान के निर्माण में मदद की।
संविधानसभा
फिर, भारत के संविधान के निर्माता कौन थे? यहाँ आपको संविधान बनाने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले कुछ नेताओं के बारे में बहुत संक्षेप में कुछ-कुछ जानकारियाँ मिलेंगी।
चुने गए जनप्रतिनिधियों की जो सभा संविधान नामक विशाल दस्तावेज़ को लिखने का काम करती है उसे संविधान सभा कहते हैं। भारतीय संविधान सभा के लिए जुलाई 1946 में चुनाव हुए थे। संविधान सभा की पहली बैठक दिसंबर 1946 को हुई थी। इसके तत्काल बाद देश दो हिस्सों-भारत और पाकिस्तान-में बँट गया। संविधान सभा भी दो हिस्सों में बँट गई- भारत की संविधान सभा और पाकिस्तान की संविधान सभा। भारतीय संविधान लिखने वाली सभा में 299 सदस्य थे। इसने 26 नवंबर 1949 को अपना काम पूरा कर लिया। संविधान 26 जनवरी 950 को लागू हुआ। इसी दिन की याद में हम हर साल 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस मनाते हैं।
अपने राज्य या इलाके से संविधान सभा में गए ऐसे सदस्य का नाम पता करें जिनका ज़िक्र यहाँ नहीं किया गया है। उस नेता की तस्वीर जुटाएँ या उनका स्केच बनाएँ। हमने जिस तरह संक्षेप में कुछ नेताओं के बारे में सूचना दी है उसी तरह उनके बारे में भी ब्यौरा दें। यानि नाम (जन्म वर्ष-मृत्यु वर्ष), जन्म स्थान (वर्तमान राजनैतिक सीमाओं के आधार पर), राजनैतिक गतिविधियों का संक्षिप्त विवरण, संविधान सभा के बाद की भूमिका ।
जयपाल सिंह
(1903-1970), जन्म: झारखंड | खिलाड़ी और शिक्षाविद्। भारतीय हॉकी टीम के पहले कप्तान। आदिवासी महासभा के संस्थापक अध्यक्ष। बाद में: झारखंड पार्टी के संस्थापक।
एच.सी. मुखर्जी
(1887-1956), जन्म: बंगाल। संविधान सभा के उपाध्यक्ष | प्रसिद्ध लेखक और शिक्षाविद्। कांग्रेसी नेता। ऑल इंडिया क्रिश्वियन कौंसिल और बंगाल विधानसभा के सदस्य । बाद में: बंगाल के राज्यपाल।
जी. दुर्गाबाई देशमुख
(1909-1987), जन्म: आंध्र प्रदेश। वकील और महिला मुक्ति कार्यकर्ता | आंध्र महिला सभा की संस्थापक कांग्रेस की सक्रिय नेता। बाद में: केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड की संस्थापक अध्यक्ष ।
इस सभा द्वारा पचास साल से भी पहले बनाए संविधान को हम क्यों मानते हैं? हमने पहले ही एक कारण का ज़िक्र किया है। संविधान सिर्फ़ संविधान सभा के सदस्यों के विचारों को ही व्यक्त नहीं करता है। यह अपने समय की व्यापक सहमतियों को व्यक्त करता है। दुनिया के कई देशों में संविधान को फिर से लिखना पड़ा क्योंकि संविधान में दर्ज़ बुनियादी बातों पर ही वहाँ के सभी सामाजिक समूहों या राजनैतिक दलों की सहमति नहीं थी। कई देशों में संविधान है पर वह कागज का टुकड़ा या किसी भी अन्य किताब की तरह का दस्तावेज्ञ भर है। कोई भी उस पर आचरण नहीं करता। पर हमारे संविधान का अनुभव एकदम अलग है। पिछली आधी सदी से ज़्यादा की अवधि में अनेक सामाजिक समूहों ने संविधान के कुछ प्रावधानों पर सवाल उठाए। पर किसी भी बड़े सामाजिक समूह या राजनैतिक दल ने खुद संविधान की वैधता पर सवाल नहीं उठाया। यह हमारे संविधान की एक असाधारण उपलब्धि है।
संविधान को मानने का दूसरा कारण यह है कि संविधान सभा भी भारत के लोगों का ही प्रतिनिधित्व कर रही थी। उस समय सार्वभौम वयस्क मताधिकार नहीं था। इसलिए संविधान सभा का चुनाव देश के लोग प्रत्यक्ष ढंग से नहीं कर सकते थे। इसका चुनाव मुख्य रूप से उन प्रांतीय असेंबलियों के सदस्यों ने ही किया था जिनका ज़िक्र हम पहले कर चुके हैं। इसके कारण देश के सभी भौगोलिक क्षेत्रों का इसमें उचित प्रतिनिधित्व हो गया था। इस सभा में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्यों का प्रभुत्व था जिसने राष्ट्रीय आंदोलन की अगुवाई की थी। पर स्वयं कांग्रेस के अंदर कई राजनैतिक समूह और विचारों के लोग थे। सभा में कई सदस्य ऐसे थे जो कांग्रेस के विचारों से सहमत नहीं थे। सामाजिक रूप से इस सभा में सभी समूह, जाति, वर्ग, धर्म और पेशों के लोग थे। अगर संविधान सभा का गठन सार्वभौम वयस्क मताधिकार के ज़रिए हुआ होता तब भी इसका स्वरूप काफी कुछ इसी तरह का होता।
और अंततः जिस तरह संविधान सभा ने काम किया, वह संविधान को एक तरह की पवित्रता और वेधता देता है। संविधान सभा का काम काफी व्यवस्थित, खुला और सर्वसम्मति बनाने के प्रयास पर आधारित था। सबसे पहले कुछ बुनियादी सिद्धांत तव किए गए और उन पर सबकी सहमति बनाई गई। फिर प्रारूप? कमेटी के प्रमुख डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने चर्चा के लिए एक प्रारूप संविधान बनाया। संविधान के प्रारूप की प्रत्येक धारा पर कई-कई दौर में चर्चा हुई। दो हज़ार से ज़्यादा संशोधनों पर विचार हुआ।
तीन वर्षों में कुल 4 दिनों की गंभीर चर्चा हुई। सभा में पेश हर प्रस्ताव, हर शब्द और वहाँ कही गई हर बात को रिकॉर्ड किया गया और संभाला गया। इन्हें कांस्टीट्यूएंट असेम्बली डिबेट्स नाम से 2 मोटे-मोटे खंडों में प्रकाशित किया गया। इन्हीं बहसों से हर प्रावधान के पीछे की सोच और तर्क को समझा जा सकता है। संविधान की व्याख्या के लिए भी इस बहस के दस्तावेजों का उपयोग होता है।
कहाँ
पहुँचे ?
क्या
समझे?
भारतीय संविधान निर्माताओं के बारे में यहाँ दी गई सभी जानकारियों को पढ़ें। आपको यह जानकारी कंठस्थ करने की ज़रूरत नहीं है । इस आधार पर निम्नलिखित कथनों के पक्ष में उदाहरण प्रस्तुत करें:
बलदेव सिंह
(1901-1967), जन्म: हरियाणा। सफल उद्यमी और पंजाब विधानसभा में पंथक अकाली पार्टी के नेता | संविधान सभा में कांग्रेस द्वारा मनोनीत । बाद में: केंद्रीय मंत्रिमंडल में रक्षा मंत्री ।
कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी
(1887-197), जन्म: गुजरात वकील, इतिहासकार और भाषाविद् | कांग्रेसी नेता और गांधीवादी। बाद में: केंद्रीय मंत्रिमंडल में मंत्री । स्वतंत्र पार्टी के संस्थापक।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी
(1901-1953), जन्म: पश्चिम बंगाल | अंतरिम सरकार में उद्योग एवं आपूर्ति मंत्री | शिक्षाविद् और वकील । हिंदू महासभा में सक्रिय | बाद में: भारतीय जनसंघ के संस्थापक।
2.4 भारतीय संविधान के बुनियादी मूल्य
इस किताब में हम विभिन्न विषयों पर संविधान के प्रावधानों का अध्ययन करेंगे। अभी हम यही जानने की कोशिश करें कि हमारे संविधान के पीछे का दर्शन क्या है। यह काम हम दो तरीकों से कर सकते हैं। अपने नेताओं के संविधान संबंधी विचार पढ़कर हम इस बात को समझ सकते हैं। परंतु, हमारा संविधान स्वयं अपने दर्शन के बारे में जो कहता है उसे पढ़ना भी उतना ही ज़रूरी हे। संविधान की प्रस्तावना यही काम करती है। आइए इस पर बारी-बारी से गौर करें।
सपने और वायदे
आपमें से कुछ को भारतीय संविधान निर्माताओं की सूची में एक बड़ा नाम न होने पर हैरानी हुई होगी यानि महात्मा गांधी का नाम। वे संविधान सभा के सदस्य नहीं थे। पर संविधान सभा के अनेक सदस्य उनके विचारों के अनुयायी थे। 1931 में अपनी पत्रिका “यंग इंडिया' में उन्होंने संविधान से अपनी अपेक्षा के बारे में लिखा था:
मैं भारत के लिए ऐसा संविधान चाहता हूँ जो उसे गुलामी और अधीनता से मुक्त करे... मैं ऐसे भारत के लिए प्रयास करूँगा जिसे सबसे गरीब व्यक्ति भी अपना माने और उसे लगे कि देश को बनाने में उसकी भी भागीदारी है, ऐसा भारत जिसमें लोगों का उच्च वर्ग और निम्न वर्ग न रहे, ऐसा भारत जिसमें सभी समुदाय के लोग पूरे मेल-जोल से रहें। ऐसे भारत में छुआछूत या शराब और में नशीली चीज़ों के लिए कोई जगह न हो। औरतों को भी मर्दों जैसे अधिकार हों...मैं इससे कम पर संतुष्ट नहीं होऊँगा।
भेदभाव और गैर-बराबरी मुक्त भारत का सपना डॉ. अंबेडकर के मन में भी था जिन्होंने संविधान निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। असमानता कैसे दूर की जा सकती है इस बारे में उनके विचार दूसरों से अलग थे। उन्होंने अकपर गांधी और उनके नज़रिए की कटु आलोचना की। संविधान सभा में दिए गए अपने अंतिम भाषण में उन्होंने अपनी चिंताओं को बहुत स्पष्ट ढंग से रखा था:
26 जनवरी 1950 को हम विरोधाभासों से भरे जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति के मामले में हमारे यहाँ समानता होगी पर आर्थिक और सामाजिक जीवन असमानताओं से भरा होगा। राजनीति में हम एक व्यक्ति- एक वोट और 'हर वोट का समान महत्वों के सिद्धांत को मानेंगे। अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में हम अपने सामाजिक और आर्थिक ढांचे के कारण ही, एक व्यक्ति एक घोट' के सिद्धांत को नकारना जारी रखेंगे। हम इस विरोधाभासपूर्ण जीवन को कितने लंबे समय तक जीते रहेंगे? हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में कब तक समानता को नकारते रहेंगे। अगर यह नकारना ज्यादा लंबे समय तक चला तो हम अपने राजनैतिक लोकतंत्र को ही संकट में डालेंगे।"
आखिर में आइए हम 15 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि के समय संविधान सभा में दिए जवाहर लाल नेहरू के प्रसिद्ध भाषण को याद करें:
“वर्षो पहले हमने अपनी नियति के साथ साक्षात्कार किया था, और अब वक्त आ गया है कि हम अपने वायदों पर अमल करें-पूरी तरह या हर तरह से नहीं तो काफी हद तक घड़ियाँ जब ठीक मध्य रात्रि का घंटा बजाएँगी, जब सारी दुनिया सोती होगी, तब भारत नए जीवन की शुरुआत करेगा, आजाद होगा। इतिहास में कभी-कभार ही सही पर एक ऐसा क्षण जरूर आता है, जब हम पुराने को छोड़फर नए में प्रवेश करते हैं, जब एक युग का अंत होता है और जब लंबे समय से किसी राष्ट्र की दबी हुई आत्मा प्रस्फुटित होती है, आवाज़ पाती है। ऐसे पवित्र क्षण में हम अपने आपको, भारत और उसके लोगों तथा उससे भी अधिक मानवता की सेवा में समर्पित करें, यही हमारे लिए उचित है। आजादी और रस्ता जिम्मेवारियाँ लाती है। भारत के संप्रभु लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाली इस संप्रभुता संपन सभा के ऊपर अब जिम्मेवारी है। आजादी के जन्म से पूर्व हमने पूरी प्रसव पीड़ा झेली है और इस क्रम में हुए दुखों से हमारा दिन भारी है। इसमें कुछ कई अभी भी बने हुए हैं। फिर भी, इतिहास अब बीत चुका है और अब भविष्य हमें सुनहरे संकेत दे रहा है।
यह भविष्य बहुत आराम करने या सुस्ताने का नहीं बल्कि अवायदों को पूरा करने के लिए निरंतर प्रयास करने का है जिन्हें हमने अफसर किया है और एक शपथ हम आज भी लेंगे। भारत की सेवा करने का अर्थ है, दुख और परेशानियों में पड़े लाखों करोड़ों लोगों की सेवा करना। इसका अर्थ है दरता का, अज्ञान और बीमारियों को अवसर की असमानता का अंत हमारे युग के महानतम आदमी की कामना हर आँख से आँसू पोंछने की है। संभव है यह काम हमारे भर से पूरा न हो पर जब तक लोगों की आँखों में आँसू हैं, कष्ट है तब तक हमारा काम खत्म नहीं होगा।"
कहाँ
पहुँचे ?
क्या
समझे?
पहले दिए तीनों उद्धरणों को गौर से पढ़ें। पहचानिए कि कौन-सा एक विचार इन तीनों उद्धरणों में उपस्थित है। इन तीनों उद्धरणों में इस साझे विचार को व्यक्त करने का तरीका किस तरह एक-दूसरे से भिन्न है?
भीमराव रामजी अंबेडकर
(1891-1956), जन्मः मध्य प्रदेश । प्रारूप कमेटी के अध्यक्ष । सामाजिक क्रांतिकारी चिंतक, जातिगत बँटवारे और भेदभाव के खिलाफ़ अग्रणी आंदोलनकारी। बाद में: स्वतंत्र भारत की पहली सरकार में कानून मंत्री । रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के संस्थापक।
जवाहर लाल नेहरू
(1889-1964), जन्मः उत्तर प्रदेश। अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री । वकील और कांग्रेस नेता । समाजवाद, लोकतंत्र और साम्राज्यवाद विरोध के पक्षधर । बाद में: भारत के प्रथम प्रधानमंत्री ।
सोमनाथ लाहिड़ी
(1901-1984), जन्मः पश्चिम बंगाल । लेखक और संपादक। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता । बाद में: पश्चिम बंगाल विधानसभा में सदस्य ।
संविधान का दर्शन
जिन मूल्यों ने स्वतंत्रता संग्राम की प्रेरणा दी और उसे दिशा-निर्देश दिए तथा जो इस क्रम में जाँच-परख लिए गए वे ही भारतीय लोकतंत्र का आधार बने। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में इन्हें शामिल किया गया। भारतीय संविधान की सारी धाराएँ इन्हीं के अनुरूप बनी हैं। संविधान की शुरुआत बुनियादी मूल्यों की एक छोटी-सी प्रस्तावना या उद्देशिका कहते हैं। अमेरिकी संविधान की प्रस्तावना से प्रेरणा लेकर समकालीन दुनिया के अधिकांश देश अपने संविधान की शुरुआत एक प्रस्तावना के साथ करते हैं।
संयुक्त राज्य के
हम सभी लोग
अधिक अच्छा संघ बनाने, न्याय की स्थापना करने, घरेलू शांति बनाने, साझा सुरक्षा व्यवस्था बनाने, जन कल्याण को बढ़ावा देने तथा अपने और अपनी समृद्धि में स्वतंत्रता का लाभ लेने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका के इस संविधान को स्थापित करते हैं और इसका अभिषेक करते हैं।"
हम दक्षिण अफ्रीका के लोग
अपने इतिहास में हुए अन्याय को स्वीकार करते हैं। अपनी भूमि पर आज़ादी और न्याय के लिए संघर्ष करने में कष्ट उाने वालों को सलाम करते हैं, अपने देश को बनाने और विकसित करने में मदद करने वालों का आकर करते हैं; और मानते हैं कि दक्षिण अफ्रीका उन सभी का है जो यहाँ रहते हैं, यहाँ की विविधता से जुड़े हैं, इसलिए स्वतंत्र रूप से चुने अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से अपने गणतंत्र के सर्वोच कानून के तौर पर इस संविधान को स्वीकार करते हैं जिससे पहले के विभाजन मिटे और लोकतांत्रिक मूल्यों, सामाजिक न्याय और मौलिक मानवाधिकारों पर आधारित एक समाज बन सके; एक ऐसे लोकतांत्रिक और मुक्त |समाज की स्थापना हो जिसमें सरकार लोगों की इच्छा के अनुसार बने और चले तथा हर नागरिक को कानून से समान संरक्षण मिले। सभी नागरिकों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार हो और हर एक व्यक्ति की संभावनाओं को फलने-फूलने की स्वतंत्रता हो और एक संयुक्त और लोकतांत्रिक दक्षिण अफ्रीका का निर्माण हो जो राष्ट्रों के समूह में एक संप्रभु देश के तौर पर अपना उचित स्थान प्राप्त कर सके। ईश्वर हमारे लोगों की रक्षा करें।
आइए हम अपने संविधान की प्रस्तावना को बहुत सावधानी से पढ़ें और उसमें आए प्रत्येक महत्वपूर्ण शब्द के मतलब को समझें:
संविधान की प्रस्तावना लोकतंत्र पर एक खूबसूरत कविता-सी लगती है। इसमें वह दर्शन शामिल है जिस पर पूरे संविधान का निर्माण हुआ है। यह दर्शन सरकार के किसी भी कानून और फ़ैसले के मूल्यांकन और परीक्षण का मानक तय करता है-इसके सहारे परखा जा सकता है कि कौन कानून, कौन फ़ैसला अच्छा या बुरा है। इसमें भारतीय संविधान की आत्मा बसती है।
हम भारत के लोग, भारत को... भारत के संविधान का निर्माण और अधिनियमन भारत के लोगों ने अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से किया है न कि इसे किसी राजा या बाहरी आदमी ने उन्हें दिया है। | समाजवादी समाज में संपदा सामूहिक रूप से पैदा होती है और समाज में उसका बँटवारा समानता के साथ होना। चाहिए। सरकार जमीन और उद्योग-धंधों की हकदारी से जुड़े कायदे-कानून इस तरह बनाए कि सामाजिक आर्थिक असमानताएँ कम हों। | ||
प्रभुत्व-सपत्र लोगों को अपने से जुड़े हर मामले में फ़ैसला करने का सर्वोच्च अधिकार है। कोई भी बाहरी शक्ति भारत की सरकार को आदेश नहीं दे सकती। | भारत का संविधान उद्देशिका हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, समाजवादी, पंथ-निरपेक्ष* लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता, प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी, संवत् दो हजार छह विक्रमी) को एतद्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं। | लोकतंत्रात्मक सरकार का एक ऐसा | स्वरूप जिसमें लोगों को समान राजनैतिक अधिकार प्राप्त रहते हैं, लोग अपने शासन का चुनाव करते हैं और उसे जवाबदेह बनाते हैं। यह सरकार कुछ बुनियादी नियमों के अनुरूप चलती है। | |
पंथ-निरपेक्ष नागरिकों को किसी भी धर्म को मानने की पूरी स्वतंत्रता है। लेकिन कोई धर्म आधिकारिक नहीं है। सरकार सभी धार्मिक मान्यताओं और *आचरणों को समान सम्मान देती है। | न्याय नागरिकों के साथ उनकी जाति, धर्म और लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता। | ||
गणराज्य शासन का प्रमुख लोगों द्वारा चुना हुआ व्यक्ति होगा न कि किसी वंश या राज खानदान का | | स्वतंत्रता नागरिक कैसे सोचें, किस तरह अपने विचारों को अभिव्यक्त करें और अपने विचारों पर किस तरह अमल करें, इस पर कोई अनुचित पाबंदी नहीं है। | ||
समता कानून के समक्ष सभी लोग समान हैं। पहले से चली आ रही सामाजिक असमानताओं को समाप्त होना होगा। सरकार हर नागरिक को समान अवसर उपलब्ध कराने की व्यवस्था करे। | बंधुता हम सभी ऐसा आचरण करें जैसे कि हम एक परिवार के सदस्य हीं। कोई भी नागरिक किसी दूसरे नागरिक को अपने से कमतर न माने |
नोट: “समाजवादी' और “पंथ-निरपेक्ष' शब्दों को 42वें संविधान संशोधन, 976 द्वारा संविधान की उद्देशिका में जोड़ा गया है।
कहाँ
पहुँचे ?
क्या
समझे?
संयुक्त राज्य अमेरिका, भारत और दक्षिण अफ्रीका के संविधानों की प्रस्तावना की तुलना कीजिए।
- इन सभी में जो विचार साझा हैं, उनकी सूची बनाएँ।
- इन सभी में कम-से-कम एक बड़े अंतर को रेखांकित करें।
- तीनो में से कौन-सी प्रस्तावना अतीत की ओर संकेत करती है?
- इन प्रस्तावनाओं में से से कौन-सी ईश्वर का आह्वान नहीं करती?
संस्थाओं का स्वरूप
संविधान सिर्फ मूल्यों और दर्शन का बयान भर नहीं है। जैसा कि हमने पहले ज़िक्र किया है, संविधान इन मूल्यों को संस्थागत रूप देने की कोशिश है। जिसे हम भारत का संविधान कहते हैं उसका अधिकांश हिस्सा इन्हीं व्यवस्थाओं को तय करने वाला है। यह एक बहुत ही लंबा और विस्तृत दस्तावेज है इसलिए समय-समय पर इसे नया रूप देने के लिए इसमें बदलाव की ज़रूरत पड़ती है। भारतीय संविधान के निर्माताओं को लगा कि इसे लोगों की भावनाओं के अनुरूप चलना चाहिए और समाज में हो रहे बदलावों से दूर नहीं रहना चाहिए उन्होंने इसे पवित्र, स्थायी और न बदले जा सकने वाले कानून के रूप में नहीं देखा था। इसलिए उन्होंने बदलावों को समय- समय पर शामिल करने का प्रावधान भी रखा। इन बदलावों को संविधान संशोधन कहते हैं।
संविधान ने संस्थागत व्यवस्थाओं को बड़ी कानूनी भाषा में दर्ज किया है। अगर आप संविधान को पहली बार पढ़ें तो इसे समझना मुश्किल लगेगा। फिर भी संस्थाओं के बुनियादी स्वरूप को समझना बहुत मुश्किल नहीं है। किसी भी संविधान की तरह भारतीय संविधान भी वे नियम बताता है जिनके अनुसार शासकों का चुनाव किया जाएगा। इसमें स्पष्ट लिखा है कि किसके पास कितनी शक्ति होगी और कौन किस बारे में फ़ैसले लेगा। साथ ही संविधान नागरिकों को कुछ स्पष्ट अधिकार देकर सरकार के लिए लक्ष्मण रेखा तय कर देता है कि सरकार इससे आगे नहीं बढ़ सकती। पुस्तक के शेष तीन अध्याय भारतीय संविधान के इन्हीं तीन पक्षों के बारे में हैं। प्रत्येक अध्याय में हम कुछ प्रमुख संवैधानिक प्रावधानों पर नज़र डालेंगे और यह समझने की कोशिश करेंगे कि लोकतांत्रिक राजनीति में ये किस तरह काम करते हैं। लेकिन यह किताब भारतीय संविधान के द्वारा स्थापित सारी प्रमुख संस्थाओं और व्यवस्थाओं को नहीं समेटती। इसके कुछ पहलुओं पर आपके अगले वर्ष की किताब में चर्चा होगी।
रंगभेद: दक्षिण अफ्रीका की सरकार की 1948 से 1989 के बीच काले लोगों के साथ नस््ली-अलगाव और खराब व्यवहार करने वाली शासन व्यवस्था।
धारा: किसी दस्तावेज़ का खास हिस्सा, अनुच्छेद।
संविधान: देश का सर्वोच्च कानून। इसमें किसी देश की राजनीति और समाज को चलाने वाले मौलिक कानून होते हैं।
संविधान संशोधन: देश की सर्वोच्च विधायी संस्था द्वारा उस देश के संविधान में किया जाने वाला बदलाव।
संविधान सभा: जनप्रतिनिधियों की वह सभा जो संविधान लिखने का काम करती है।
प्रारूप: किसी कानूनी दस्तावेज़ का प्रारंभिक रूप।
दर्शन: किसी सोच और काम को दिशा देने वाले सबसे बुनियादी विचार।
प्रस्तावना: संविधान का वह पहला कथन जिसमें कोई देश अपने संविधान के बुनियादी मूल्यों और अवधारणाओं को स्पष्ट ढंग से कहता है।
देशद्रोह: देश की सरकार को उखाड़ फेंकने की कोशिश करने का अपराध।
- नीचे कुछ गलत वाक्य दिए गए हैं। हर एक में की गई गलती पहचानें और इस अध्याय के आधार पर उसको ठीक करके लिखें।
क. स्वतंत्रता के बाद देश लोकतांत्रिक हो या नहीं, इस विषय पर स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं ने अपना दिमाग खुला रखा था।
ख. भारतीय संविधान सभा के सभी सदस्य संविधान में कही गई हरेक बात पर सहमत थे।
ग. जिन देशों में संविधान है वहाँ लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था ही होगी।
घ. संविधान देश का सर्वोच्च कानून होता है इसलिए इसमें बदलाव नहीं किया जा सकता।
- दक्षिण अफ्रीका का लोकतांत्रिक संविधान बनाने में, इनमें से कौन-सा टकराव सबसे महत्वपूर्ण था:
क. दक्षिण अफ्रीका और उसके पड़ोसी देशों का
ख. स्त्रियों और पुरुषों का
ग. गोरे अल्पसंख्यक और अश्वेत बहुसंख्यकों का
घ. रंगीन चमड़ी वाले बहुसंख्यकों और अश्वेत अल्पसंख्यकों का
- लोकतांत्रिक संविधान में इनमें से कौन-सा प्रावधान नहीं रहता?
क. शासन प्रमुख के अधिकार
ख. शासन प्रमुख का नाम
ग. विधायिका के अधिकार
घ. देश का नाम
- संविधान निर्माण में इन नेताओं और उनकी भूमिका में मेल बैठाएँ:
क. मोतीलाल नेहरू 1. संविधान सभा के अध्यक्ष
ख. बी.आर. अंबेडकर 2. संविधान सभा की सदस्य
ग॒. राजेंद्र प्रसाद 3. प्रारूप कमेटी के अध्यक्ष
घ. सरोजिनी नायडू 4. 1928 में भारत का संविधान बनाया
- जवाहर लाल नेहरू के नियति के साथ साक्षात्कार वाले भाषण के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नों का जवाब दें
क. नेहरू ने क्यों कहा कि भारत का भविष्य सुस्ताने और आराम करने का नहीं है?
ख. नए भारत के सपने किस तरह विश्व से जुड़े हैं?
ग॒. वे संविधान निर्माताओं से क्या शपथ चाहते थे?
घ. “हमारी पीढ़ी के सबसे महान व्यक्ति कौ कामना हर आँख से आँसू पोंछने की है।' वे इस कथन में किसका ज़िक्र कर रहे थे?
- हमारे संविधान को दिशा देने वाले ये कुछ मूल्य और उनके अर्थ हैं। इन्हें आपस में मिलाकर दोबारा लिखिए।
क. संप्रभु 1. सरकार किसी धर्म के निर्देशों के अनुसार काम नहीं करेगी।
ख. गणतंत्र 2. फ़ैसले लेने का सर्वोच्च अधिकार लोगों के पास है।
ग. बंधुत्व 3. शासन प्रमुख एक चुना हुआ व्यक्ति है।
घ. धर्मनिरपेक्ष 4. लोगों को आपस में परिवार की तरह रहना चाहिए।
- कुछ दिन पहले नेपाल से आपके एक मित्र ने वहाँ की राजनैतिक स्थिति के बारे में आपको पत्र लिखा था। वहाँ अनेक राजनैतिक पार्टियाँ राजा के शासन का विरोध कर रही थीं। उनमें से कुछ का कहना था कि राजा दूवारा दिए गए मौजूदा संविधान में ही संशोधन करके चुने हुए प्रतिनिधियों को ज़्यादा अधिकार दिए जा सकते हैं। अन्य पार्टियाँ नया गणतांत्रिक संविधान बनाने के लिए नई संविधान सभा गठित करने की मांग कर रही थीं। इस विषय में अपनी राय बताते हुए अपने मित्र को पत्र लिखें।
- भारत के लोकतंत्र के स्वरूप में विकास के प्रमुख कारणों के बारे में कुछ अलग-अलग विचार इस प्रकार हैं। आप इनमें से हर कथन को भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए कितना महत्त्वपूर्ण कारण मानते हैं?
क. अंग्रेज शासकों ने भारत को उपहार के रूप में लोकतांत्रिक व्यवस्था दी। हमने ब्रिटिश हुकूमत के समय बनी प्रांतीय असेंबलियों के ज्रिए लोकतांत्रिक व्यवस्था में काम करने का प्रशिक्षण पाया।
ख. हमारे स्वतंत्रता संग्राम ने औपनिवेशिक शोषण और भारतीय लोगों को तरह-तरह की आज्ञादी न दिए जाने का विरोध किया। ऐसे में स्वतंत्र भारत को लोकतांत्रिक होना ही था।
ग. हमारे राष्ट्रवादी नेताओं की आस्था लोकतंत्र में थी। अनेक नव स्वतंत्र राष्ट्रों में लोकतंत्र का न आना हमारे नेताओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करता है।
- 1912 में प्रकाशित (विवाहित महिलाओं के लिए आचरण! पुस्तक के निम्नलिखित अंश को पढ़ें:
- निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए। क्या आप उनसे सहमत हैं? अपने कारण भी बताइए॥
क. संविधान के नियमों की हैसियत किसी भी अन्य कानून के बराबर है।
ख. संविधान बताता है कि शासन व्यवस्था के विविध अंगों का गठन किस तरह होगा।
ग. नागरिकों के अधिकार और सरकार की सत्ता की सीमाओं का उल्लेख भी संविधान में स्पष्ट रूप में है।
घ. संविधान संस्थाओं की चर्चा करता है, उसका मूल्यों से कुछ लेना-देना नहीं है।
“ईश्वर ने औरत जाति को शारीरिक और भावनात्मक, दोनों ही तरह से ज्यादा नाजुक बनाया है। उन्हें आत्म रक्षा के भी योग्य नहीं बनाया है। इसलिए ईश्वर ने ही उन्हें जीवन भर पुरुषों के संरक्षण में रहने का भाग्य दिया है-कभी पिता के, कभी पति के और कभी पुत्र के। इसलिए महिलाओं को निराश होने की जगह इस बात से अनुगृहीत होना चाहिए कि वे अपने आपको पुरुषों की सेवा में समर्पित कर सकती हैं।'' क्या इस अनुच्छेद में व्यक्त मूल्य संविधान के दर्शन से मेल खाते हैं या वे संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ़ हैं?
- निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए। क्या आप उनसे सहमत हैं? अपने कारण भी बताइए॥
संविधान संशोधन के किसी प्रस्ताव या किसी संशोधन की माँग से संबंधित अखबारी खबरों को ध्यान से पढ़िए। आप किसी एक विषय पर, जैसे संसद/विधानसभाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण विषय पर छपी खबरों पर गौर कर सकते हैं। क्या इस सवाल पर कोई सार्वजनिक चर्चा हुई थी? संशोधन के पक्ष में क्या-क्या तर्क दिए गए हैं? संविधान संशोधन पर विभिन्न दलों की क्या प्रतिक्रिया थी? क्या यह संशोधन हो गया है?
नेहरू मेमोरियल म्यूज्यिम एवं लाइब्रेरी, नई दिल्ली