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अध्याय 9


आनुवंशिकता एवं जैव विकास



हमने देखा कि जनन प्रक्रमों द्वारा नए जीव (व्यष्टि) उत्पन्न होते हैं जो जनक के समान होते हुए भी कुछ भिन्न होते हैं। हमने यह चर्चा की है कि अलैंगिक जनन में भी कुछ विभिन्नताएँ कैसे उत्पन्न होती हैं। अधिकतम संख्या में सफल विभिन्नताएँ लैंगिक प्रजनन द्वारा ही प्राप्त होती हैं। यदि हम गन्ने के खेत का अवलोकन करें तो हमें व्यष्टिगत पौधों में बहुत कम विभिन्नताएँ दिखाई पड़ती हैं। मानव एवं अधिकतर जंतु जो लैंगिक जनन द्वारा उत्पन्न होते हैं, इनमें व्यष्टिगत स्तर पर अनेक भिन्नताएँ परिलक्षित होती हैं। इस अध्याय में हम उन क्रियाविधियों का अध्ययन करेंगे जिनके कारण विभिन्नताएँ उत्पन्न एवं वंशागत होती हैं। विभिन्नताओं के संचयन के लंबे समय तक होने वाले अनुवर्ती प्रभाव का अध्ययन अत्यंत रोचक है तथा जैव विकास में हम इसका अध्ययन करेंगे।


9.1 जनन के दौरान विभिन्नताओं का संचयन

पूर्ववर्ती पीढ़ी से वंशागति संतति को एक आधारिक शारीरिक अभिकल्प (डिज़ाइन) एवं कुछ विभिन्नताएँ प्राप्त होती हैं। अब ज़रा सोचिए, कि इस नयी पीढ़ी के जनन का क्या परिणाम होगा? दूसरी पीढ़ी में पहली पीढ़ी से आहरित विभिन्नताएँ एवं कुछ नयी विभिन्नताएँ उत्पन्न होंगी।

चित्र 9.1

उत्तरोत्तर पीढ़ियों में विविधता की उत्पत्ति। शीर्ष पर दर्शाए गए पहली पीढ़ी के जीव, मान लीजिए कि दो संतति को जन्म देंगे जिनकी आधारभूत शारीरिक संरचना तो एकसमान होगी परंतु विभिन्नताएँ भी होंगी। इनमें से प्रत्येक अगली पीढ़ी में दो जीवों को उत्पन्न करेगा। चित्र मे सबसे नीचे दिखाए गए चारों जीव व्यष्टि स्तर पर एक दूसरे से भिन्न होंगे। कुछ विभिन्नताएँ विशिष्ट होंगी जबकि कुछ उन्हें अपने जनक से प्राप्त हुई हैं जो स्वयं आपस में एक-दूसरे से भिन्न थे।


चित्र 9.1 में उस स्थिति को दर्शाया गया है जबकि केवल एकल जीव जनन करता है, जैसा कि अलैंगिक जनन में होता है। यदि एक जीवाणु विभाजित होता है, तो परिणामतः दो जीवाणु उत्पन्न होते हैं जो पुनः विभाजित होकर चार (व्यष्टि) जीवाणु उत्पन्न करेंगे जिनमें आपस में बहुत अधिक समानताएँ होंगी। उनमें आपस में बहुत कम अंतर होगा जो डी. एन. ए. प्रतिकृति के समय न्यून त्रुटियों के कारण उत्पन्न हुई होंगी। परंतु यदि लैंगिक जनन होता तो विविधता अपेक्षाकृत और अधिक होती। इसके विषय में हम आनुवंशिकता के नियमों की चर्चा के समय देखेंगे।

क्या किसी स्पीशीज में इन सभी विभिन्नताओं के साथ अपने अस्तित्व में रहने की संभावना एकसमान है? निश्चित रूप से नहीं। प्रकृति की विविधता के आधार पर विभिन्न जीवों को विभिन्न प्रकार के लाभ हो सकते हैं। ऊष्णता को सहन करने की क्षमता वाले जीवाणुओं को अधिक गर्मी से बचने की संभावना अधिक होती है। उसकी चर्चा हम पहले कर चुके हैं। पर्यावरण कारकों द्वारा उत्तम परिवर्त का चयन जैव विकास प्रक्रम का आधार बनाता है जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे।


प्रश्न


1. यदि एक ‘लक्षण - A’ अलैंगिक प्रजनन वाली समष्टि के 10 प्रतिशत सदस्यों में पाया जाता है तथा ‘लक्षण - B’ उसी समष्टि में 60 प्रतिशत जीवों में पाया जाता है, तो कौन सा लक्षण पहले उत्पन्न हुआ होगा?

2. विभिन्नताओं के उत्पन्न होने से किसी स्पीशीज का अस्तित्व किस प्रकार बढ़ जाता है?



9.2 आनुवंशिकता

जनन प्रक्रम का सबसे महत्वपूर्ण परिणाम संतति के जीवों के समान डिज़ाइन (अभिकल्पना) का होना है। आनुवंशिकता नियम इस बात का निर्धारण करते हैं जिनके द्वारा विभिन्न लक्षण पूर्ण विश्वसनीयता के साथ वंशागत होते हैं। आइए, इन नियमों का ध्यानपूर्वक अध्ययन करें।


9.2.1 वंशागत लक्षण

वास्तव में समानता एवं विभिन्नताओं से हमारा क्या अभिप्राय है? हम जानते हैं कि शिशु में मानव के सभी आधारभूत लक्षण होते हैं। फिर भी यह पूर्णरूप से अपने जनकों जैसा दिखाई नहीं पड़ता तथा मानव समष्टि में यह विभिन्नता स्पष्ट दिखाई देती है।


क्रियाकलाप 9.1


अपनी कक्षा के सभी छात्रों के कान का अवलोकन कीजिए। एेसे छात्रों की सूची बनाइए जिनकी कर्णपालि (earlobe) स्वतंत्र हो तथा जुड़ी हो (चित्र 9.2)। जुड़े कर्णपालि वाले छात्रों एवं स्वतंत्र कर्णपालि वाले छात्रों के प्रतिशतकी गणना कीजिए। प्रत्येक छात्र के कर्णपालि के प्रकार को उनके जनक से मिलाकर देखिए। इस प्रेक्षण के आधार पर कर्णपालि के वंशागति के संभावित नियम का सुझाव दीजिए।


चित्र 9.2

(a) स्वतंत्र तथा (b) जुड़े कर्ण पालि। कान के निचले भाग को कर्णपालि कहते हैं। यह कुछ लोगों में सिर क पार्श्व में पूर्ण रूप से जुड़ा होता है परंतु कुछ म नहीं। स्वतंत्र एवं जुड़े कर्णपालि मानव समष्टि में पाए जाने वाले दो परिवर्त हैं।


9.2.2 लक्षणों की वंशागति के नियम : मेंडल का योगदान

मानव में लक्षणों की वंशागति के नियम इस बात पर आधारित हैं कि माता एवं पिता दोनों ही समान मात्रा में आनुवंशिक पदार्थ को संतति (शिशु) में स्थानांतरित करते हैं। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक लक्षण पिता और माता के डी.एन.ए. से प्रभावित हो सकते हैं। अतः प्रत्येक लक्षण के लिए प्रत्येक संतति में दो विकल्प होंगे। फिर संतान में कौन-सा लक्षण परिलक्षित होगा? मेंडल (बॉक्स में देखिए) ने इस प्रकार की वंशागति के कुछ मुख्य नियम प्रस्तुत किए। उन प्रयोगों के बारे में जानना अत्यंत रोचक होगा जो उसने लगभग एक शताब्दी से भी पहले किए थे।


ग्रेगर जॉन मेंडल (1822-1884)



मेंडल की प्रारंभिक शिक्षा एक गिरजाघर में हुई थी तथा वह विज्ञान एवं गणित के अध्ययन के लिए वियना विश्वविद्यालय गए। अध्यापन हेतु सर्टिफिकेट की परीक्षा में असफल होना उनकी वैज्ञानिक खोज की प्रवृत्ति को दबा नहीं सका। वह अपने मोनेस्ट्री में वापस गए तथा मटर पर प्रयोग करना प्रारंभ किया। उनसे पहले भी बहुत से वैज्ञानिकों ने मटर एवं अन्य जीवों के वंशागत गुणों का अध्ययन किया था। परंतु मेंडल ने अपने विज्ञान एवं गणितीय ज्ञान को समिश्रित किया। वह पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने प्रत्येक पीढ़ी के एक-एक पौधे द्वारा प्रदर्शित लक्षणों का रिकॉर्ड रखा तथा गणना की। इससे उन्हें वंशागत नियमों के प्रतिपादन में सहायता मिली।


मेंडल ने मटर के पौधे के अनेक विपर्यासी (विकल्पी) लक्षणों का अध्ययन किया जो स्थूल रूप से दिखाई देते हैं। उदाहरणतः गोल/झुर्रीदार बीज, लंबे/बौने पौधे, सफेद/बैंगनी फूल इत्यादि। उसने विभिन्न लक्षणों वाले मटर के पौधों को लिया जैसे कि लंबे पौधे तथा बौने पौधे। इससे प्राप्त संतति पीढ़ी में लंबे एवं बौने पौधों के प्रतिशत की गणना की।

प्रथम संतति पीढ़ी अथवा F1 में कोई पौधा बीच की ऊँचाई का नहीं था। सभी पौधे लंबे थे। इसका अर्थ था कि दो लक्षणों में से केवल एक पैतृक जनकीय लक्षण ही दिखाई देता है, उन दोनों का मिश्रित प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता। तो अगला प्रश्न था कि क्या F1 पीढ़ी के पौधे अपने पैतृक लंबे पौधों से पूर्ण रूप से समान थे? मेंडल ने अपने प्रयोगों में दोनों प्रकार के पैतृक पौधों एवं F1 पीढ़ी के पौधों को स्वपरागण द्वारा उगाया। पैतृक पीढ़ी के पौधों से प्राप्त सभी संतति भी लंबे पौधों की थी। परंतु F1 पीढ़ी के लंबे पौधों की दूसरी पीढ़ी अर्थात F2 पीढ़ी के सभी पौधे लंबे नहीं थे वरन् उनमें से एक चौथाई संतति बौने पौधे थे। यह इंगित करता है कि F1 पौधों द्वारा लंबाई एवं बौनेपन दोनों विशेषकों (लक्षणों) की वंशानुगति हुई। परंतु केवल लंबाई वाला लक्षण ही व्यक्त हो पाया। अतः लैंगिक जनन द्वारा उत्पन्न होने वाले जीवों में किसी भी लक्षण की दो प्रतिकृतियों की (स्वरूप) वंशानुगति होती है। ये दोनों एकसमान हो सकते हैं अथवा भिन्न हो सकते हैं जो उनके जनक पर निर्भर करता है। इस परिकल्पना के आधार पर वंशानुगति का तैयार किया गया एक पैटर्न चित्र 9.3 में दर्शाया गया है।



चित्र 9.3

दो पीढ़ियों तक लक्षणों की वंशानुगति

इस व्याख्या में 'TT' एवं 'Tt' दोनों ही लंबे पौधे हैं जबकि केवल 'tt' बौने पौधे हैं। दूसरे शब्दों में, 'T' की एक प्रति ही पौधे को लंबा बनाने के लिए पर्याप्त है जबकि बौनेपन के लिए 't' की दोनों प्रतियाँ 't' ही होनी चाहिए। 'T' जैसे लक्षण ‘प्रभावी’ लक्षण कहलाते हैं जबकि जो लक्षण 't' की तरह व्यवहार करते हैं ‘अप्रभावी’ कहलाते हैं। चित्र 9.4 में कौन-सा लक्षण प्रभावी है तथा कौन-सा अप्रभावी है।


क्रियाकलाप 9.2


चित्र 9.3 में हम कौन सा प्रयोग करते हैं जिससे यह सुनिश्चित होता है कि F2 पीढ़ी में वास्तव में TT, Tt तथा tt का संयोजन 1:2:1 अनुपात में प्राप्त होता है?


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क्या होता है जब मटर के पौधों में एक विकल्पी जोड़े के स्थान पर दो विकल्पी जोड़ों का अध्ययन करने के लिए संकरण कराया जाए? गोल बीज वाले लंबे पौधों का यदि झुर्रीदार बीजों वाले बौने पौधों से संकरण कराया जाए तो प्राप्त संतति कैसी होगी? F1 पीढ़ी के सभी पौधे लंबे एवं गोल बीज वाले होंगे। अतः लंबाई तथा गोल बीज ‘प्रभावी’ लक्षण हैं। परंतु क्या होता है जब F1 संतति के स्वनिषेचन से F2 पीढ़ी की संतति प्राप्त होती है? मेंडल द्वारा किए गए पहले प्रयोग के आधार पर हम कह सकते हैं कि F2 संतति के कुछ पौधे गोल बीज वाले लंबे पौधे होंगे तथा कुछ झुर्रीदार बीज वाले बौने पौधे। परंतु F2 की संतति के कुछ पौधे नए संयोजन प्रदर्शित करेंगे। उनमें से कुछ पौधे लंबे परंतु झुर्रीदार बीज तथा कुछ पौधे बौने परंतु गोल बीज वाले होंगे। यहाँ आप देख सकते हैं कि किस तरह F2 पीढ़ी में नए लक्षणों का संयोजन देखने को मिला जब बीज के आकार व रंग को नियंत्रित करने वाले कारकों के पुनर्संयोजन से युग्मनज बना जो F2 पीढ़ी में अग्रणी रहा। अतः लंबे/बौने लक्षण तथा गोल/झुर्रीदार लक्षण स्वतंत्र रूप से वंशानुगत होते हैं। एक और उदाहरण चित्र 9.5 में दर्शाया गया है।


9.2.3 यह लक्षण अपने आपको कि प्रकार व्यक्त करते हैं?

आनुवंशिकता कार्य विधि किस प्रकार होती है? कोशिका के डी.एन.ए. में प्रोटीन संश्लेषण के लिए एक सूचना स्रोत होता है। डी.एन.ए. का वह भाग जिसमें किसी प्रोटीन संश्लेषण के लिए सूचना होती है, उस प्रोटीन का जीन कहलाता है। प्रोटीन विभिन्न लक्षणों की अभिव्यक्ति को किस प्रकार नियंत्रित करती है, इसकी हम यहाँ चर्चा करते हैं? आइए, पौधों की लंबाई के एक लक्षण को उदाहरण के रूप में लेते हैं। हम जानते हैं कि पौधों में कुछ हार्मोन होते हैं जो लंबाई का नियंत्रण करते हैं। अतः किसी पौधे की लंबाई पौधे में उपस्थित उस हार्मोन की मात्रा पर निर्भर करती है। पौधे के हार्मोन की मात्रा उस प्रक्रम की दक्षता पर निर्भर करेगी जिसके द्वारा यह उत्पादित होता है। एंज़ाइम इस प्रक्रम के लिए महत्वपूर्ण है। यदि यह एंज़ाइम (प्रकिण्व) दक्षता से कार्य करेगा तो हार्मोन पर्याप्त मात्रा में बनेगा तथा पौधा लंबा होगा। यदि इस प्रोटीन के जीन में कुछ परिवर्तन आते हैं तो बनने वाली प्रोटीन की दक्षता पर प्रभाव पड़ेगा वह कम दक्ष होगी अतः बनने वाले हार्मोन की मात्रा भी कम होगी तथा पौधा बौना होगा। अतः जीन लक्षणों (traits) को नियंत्रित करते हैं।


यदि मेंडल के प्रयोगों की व्याख्या जिसकी हम चर्चा कर रहे थे, ठीक है तो इसकी चर्चा हम पिछले अध्याय में कर चुके हैं। लैंगिक प्रजनन के दौरान संतति के डी.एन.ए. में दोनों जनक का समान रूप से योगदान होगा। यदि दोनों जनक संतति के लक्षण के निर्धारण में सहायता करते हैं तो दोनों जनक एक ही जीन की एक प्रतिकृति संतति को प्रदान करेंगे। इसका अर्थ है कि मटर के प्रत्येक पौधे में सभी जीन के दो-सेट होंगे, प्रत्येक जनक से एक सेट की वंशानुगति होती है। इस तरीके को सफल करने के लिए प्रत्येक जनन कोशिका में जीन का केवल एक ही सेट होगा।

जबकि सामान्य कायिक कोशिका में जीन के सेट की दो प्रतियाँ (copies) होती हैं, फिर इनसे जनन कोशिका में इसका एक सेट किस प्रकार बनता है? यदि संतति पौधे को जनक पौधे से संपूर्ण जीनों का एक पूर्ण सेट प्राप्त होता है तो चित्र 9.5 में दर्शाया प्रयोग सफल नहीं हो सकता। इसका मुख्य कारण यह है कि दो लक्षण 'R' तथा 'y' सेट में एक-दूसरे से संलग्न रहेंगे तथा स्वतंत्र रूप में आहरित नहीं हो सकते। इसे इस तथ्य के आधार पर समझा जा सकता है कि वास्तव में एक जीन सेट केवल एक डी.एन.ए. शृंखला के रूप में न होकर डी.एन.ए. के अलग-अलग स्वतंत्र रूप में होते हैं, प्रत्येक एक गुण सूत्र कहलाता है। अतः प्रत्येक कोशिका में प्रत्येक गुणसूत्र की दो प्रतिकृतियाँ होती हैं जिनमें से एक नर तथा दूसरी मादा जनक से प्राप्त होती हैं। प्रत्येक जनक कोशिका (पैतृक अथवा मातृक) से गुणसूत्र के प्रत्येक जोड़े का केवल एक गुणसूत्र ही एक जनन कोशिका (युग्मक) में जाता है। जब दो युग्मकों का संलयन होता है तो बने हुए युग्मनज में गुणसूत्रों की संख्या पुनः सामान्य हो जाती है तथा संतति में गुणसूत्रों की संख्या निश्चित बनी रहती है, जो स्पीशीज के डी.एन.ए. के स्थायित्व को सुनिश्चित करता है। वंशागति की इस क्रियाविधि से मेंडल के प्रयोगों के परिणाम की व्याख्या हो जाती है। इसका उपयोग लैंगिक जनन वाले सभी जीव करते हैं। परंतु अलैंगिक जनन करने वाले जीव भी वंशागति के इन्हीं नियमों का पालन करते हैं। क्या हम पता लगा सकते हैं कि उनमें वंशानुगति किस प्रकार होती है?

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9.2.4 लिंग निर्धारण

इस बात की चर्चा हम कर चुके हैं कि लैंगिक जनन में भाग लेने वाले दो एकल जीव किसी न किसी रूप में एक-दूसरे से भिन्न होते हैं, जिसके कई कारण हैं। नवजात का लिंग निर्धारण कैसे होता है? अलग-अलग स्पीशीज इसके लिए अलग-अलग युक्ति अपनाते हैं। कुछ पूर्ण रूप से पर्यावरण पर निर्भर करते हैं। इसलिए कुछ प्राणियों में (जैसे कुछ सरीसृप) लिंग निर्धारण निषेचित अंडे (युग्मक) के ऊष्मायन ताप पर निर्भर करता है कि संतति नर होगी या मादा। घोंघे जैसे कुछ प्राणी अपना लिंग बदल सकते हैं, जो इस बात का संकेत है कि इनमें लिंग निर्धारण आनुवंशिक नहीं है। लेकिन, मानव में लिंग निर्धारण आनुवंशिक आधार पर होता है। दूसरे शब्दों में, जनक जीवों से वंशानुगत जीन ही इस बात का निर्णय करते हैं कि संतति लड़का होगा अथवा लड़की। परंतु अभी तक हम मानते रहे हैं कि दोनों जनकों से एक जैसे जीन सेट संतति में जाते हैं। यदि यह शाश्वत नियम है तो फिर लिंग निर्धारण वंशानुगत कैसे हो सकता है?

इसकी व्याख्या इस तथ्य में निहित है कि मानव के सभी गुणसूत्र पूर्णरूपेण युग्म नहीं होते। मानव में अधिकतर गुणसूत्र माता और पिता के गुणसूत्रों के प्रतिरूप होते हैं। इनकी संख्या 22 जोड़े हैं। परंतु एक युग्म जिसे लिंग सूत्र कहते हैं, जो सदा पूर्णजोड़े में नहीं होते। स्त्री में गुणसूत्र का पूर्ण युग्म होता है तथा दोनों 'X' कहलाते हैं। लेकिन पुरुष (नर) में यह जोड़ा परिपूर्ण जोड़ा नहीं होता, जिसमें एक गुण सूत्र सामान्य आकार का 'X' होता है तथा दूसरा गुणसूत्र छोटा होता है जिसे 'Y' गुणसूत्र कहते हैं। अतः स्त्रियों में 'XX' तथा पुरुष में ‘XY’ गुणसूत्र होते हैं। क्या अब हम X और Y का वंशानुगत पैटर्न पता कर सकते हैं?

जैसा कि चित्र 9.6 में दर्शाया गया है, सामान्यतः आधे बच्चे लड़के एवं आधे लड़की हो सकते हैं। सभी बच्चे चाहे वह लड़का हो अथवा लड़की, अपनी माता से 'X' गुणसूत्र प्राप्त करते हैं। अतः बच्चों का लिंग निर्धारण इस बात पर निर्भर करता है कि उन्हें अपने पिता से किस प्रकार का गुणसूत्र प्राप्त हुआ है। जिस बच्चे को अपने पिता से 'X' गुणसूत्र वंशानुगत हुआ है वह लड़की एवं जिसे पिता से 'Y' गुणसूत्र वंशानुगत होता है, वह लड़का।


प्रश्न


1. मेंडल के प्रयोगों द्वारा कैसे पता चला कि लक्षण प्रभावी अथवा अप्रभावी होते हैं?

2. मेंडल के प्रयोगों से कैसे पता चला कि विभिन्न लक्षण स्वतंत्र रूप से वंशानुगत होते हैं?

3. एक 'A-रुधिर वर्ग’ वाला पुरुष एक स्त्री जिसका रुधिर वर्ग ‘O’ है, से विवाह करता है। उनकी पुत्री का रुधिर वर्ग - ‘O’ है। क्या यह सूचना पर्याप्त है यदि आपसे कहा जाए कि कौन सा विकल्प लक्षण-रुधिर वर्ग- 'A' अथवा 'O'प्रभावी लक्षण हैं? अपने उत्तर का स्पष्टीकरण दीजिए।

4. मानव में बच्चे का लिंग निर्धारण कैसे होता है?



9.3 विकास

हमने देखा कि जनन प्रक्रिया में विभिन्नता की प्रवृत्ति अंतर्निहित होती है जो डी.एन.ए. प्रतिकृति में त्रुटियों एवं लैंगिक जनन दोनों से उत्पन्न होती है। आइए, हम इस प्रवृत्ति के कुछ परिणामों का अध्ययन करें।


9.3.1 एक दृष्टांत

सोचिए कि 12 लाल भृंगों (beetles) का एक समूह है। वे हरी पत्ती वाली झाड़ियों में रहते हैं। उनकी समष्टि लैंगिक प्रजनन द्वारा वृद्धि करती है तथा विभिन्नताएँ उत्पन्न हो सकती हैं। हम इसकी भी कल्पना करें कि कौए भृंग को खाते हैं। कौए जितने भृंग खाएँगे उतने कम भृंग जनन के लिए उपलब्ध होंगे। अब हम अन्य परिस्थितियों की कल्पना करें (चित्र 9.7) जो इन भृंगों की समष्टि में विकसित हो सकें।

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चित्र 9.7 एक समष्टि में विभिन्नताएँ–वंशानुगत तथा अन्य


प्रथम स्थिति में, जनन के दौरान एक रंग की विभिन्नता का उद्भव हो सकता है, जिससे समष्टि में लाल के बजाय एक हरा भृंग दिखाई देता है। हरा भृंग अपना रंग अपनी संतान को (वंशागत) आहरित करता है जिसके कारण इसकी सारी संतति का रंग हरा होगा। कौए हरी पत्तियों की झाड़ियों में हरे भृंग को नहीं देख पाते, अतः उन्हें नहीं खा पाते। क्या होगा? हरे भृंग की संतति का शिकार नहीं होता जबकि लाल भृंग की संतति लगातार शिकार होती रहती है। फलस्वरूप, भृंगों की समष्टि में लाल भृंगों की अपेक्षा हरे भृंगों की संख्या बढ़ती जाती है।

दूसरी परिस्थिति में, जनन के समय एक रंग की विभिन्नता का उद्भव होता है। परंतु इस समय भृंग का रंग लाल के स्थान पर नीला है। यह भृंग भी अपना रंग अगली पीढ़ी को वंशानुगत कर सकता है। फलस्वरूप इस भृंग की सारी संतति नीली होती है। कौए नीले-लाल भृंगों को हरी पत्तियों में पहचान कर उन्हें खा सकते हैं। प्रारंभ में क्या होता है? समष्टि का आकार जैसे-जैसे बढ़ता है उसमें बहुत कम नीले भृंग हैं, परंतु अधिकतर भृंग लाल थे। परंतु इस स्थिति में एक हाथी वहाँ आता है तथा उन झाड़ियों को रौंद देता है जिसमें यह भृंग रहते थे। इससे बहुत से भृंग मारे जाते हैं। संयोग से कुछ नीले भृंग बच जाते हैं। इनकी समष्टि धीरे-धीरे बढ़ती है परंतु इसमें अधिकतर भृंग नीले हैं।

यह स्वाभाविक है कि दोनों स्थितियों में जो दुर्लभ भिन्नता थी, समय के अंतराल में एक सामान्य लक्षण बन गई। दूसरे शब्दों में, वंशागत लक्षण की पीढ़ियों में आवृत्ति में परिवर्तन आए। क्योंकि जीन ही लक्षणों का नियंत्रण करते हैं। अतः हम कह सकते हैं कि किसी समष्टि में कुछ जीन की आवृत्ति पीढ़ियों में बदल जाती है। यह जैव विकास की परिकल्पना का सार है।

परंतु दोनों परिस्थितियों में कुछ रोचक अंतर भी हैं। प्रथम स्थिति में, विभिन्नता एक सामान्य विभिन्नता बनी क्योंकि इसमें उत्तरजीविता के लाभ की स्थिति थी। दूसरे शब्दों में, यह एक प्राकृतिक चयन था। हम देख सकते हैं कि प्राकृतिक चयन कौओं द्वारा किया गया। जितने अधिक कौए होंगे उतने अधिक लाल भृंग उनके शिकार बनेंगे तथा समष्टि में हरे भृंगों का अनुपात/संख्या बढ़ता जाएगा। अतः प्राकृतिक चयन भृंग समष्टि में विकास की ओर ले जा रहा है। यह भृंग समष्टि में अनुकूल दर्शा रहा है जिससे समष्टि पर्यावरण में और अच्छी तरह से रह सके।

दूसरी स्थिति में, रंग परिवर्तन से अस्तित्व के लिए कोई लाभ नहीं मिला। वास्तव में यह मात्र संयोग ही था कि दुर्घटना के कारण एक रंग की भृंग समष्टि बच गई जिससे समष्टि का स्वरूप बदल गया। यदि भृंग की समष्टि का आकार बड़ा होता तो हाथी का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अतः छोटी समष्टि में दुर्घटनाएँ किसी जीन की आवृत्ति को प्रभावित कर सकती हैं जबकि उनका उत्तरजीविता हेतु कोई लाभ न हो। यह आनुवंशिक अपवाद का सिद्धांत है जो बिना किसी अनुकूलन के भी विभिन्नता उत्पन्न करता है।

अब तीसरी स्थिति को देखिए। इसमें भृंग समष्टि बढ़ना प्रारंभ करती है, झाड़ियों में पादप रोग लग जाता है। भृंगों के लिए पत्तियाँ कम होती जाती हैं। परिणामतः भृंग अल्प पोषित रह जाता है। भृंग के औसत भार में अपेक्षाकृत कमी आई है। कुछ वर्षों के बाद इस दुर्भिक्ष की स्थिति में भृंगों की कुछ पीढ़ियों के उपरांत जब पौधों के रोग समाप्त हो जाते हैं, भोजन की पर्याप्त मात्रा उपलब्ध होती है तब भृंगों के भार में क्या परिवर्तन आएगा, इस पर विचार कीजिए?


9.3.2 उपार्जित एवं आनुवंशिक लक्षण

हम पहले चर्चा कर चुके हैं कि लैंगिक जनन करने वाले जीवों में युग्मक अथवा जनन कोशिकाएँ विशिष्ट जनन ऊतकों में बनते हैं। यदि बुभुक्षण के कारण भृंगों के शरीर के भार में कमी आती है तो इससे जनन कोशिकाओं के डी.एन.ए. के संगठन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। अतः बुभुक्षण के कारण यदि समष्टि में कुछ भृंग कम भार के हों तो भी इसे विकास की संज्ञा नहीं दी जा सकती। इसका मुख्य कारण इस लक्षण का वंशानुगत न होना है। कायिक ऊतकों में होने वाले परिवर्तन, लैंगिक कोशिकाओं के डी.एन.ए. में नहीं जा सकते। किसी व्यक्ति के जीवन काल में अर्जित अनुभव क्योंकि जनन कोशिकाओं के डी.एन.ए. में कोई अंतर नहीं लाता, इसलिए इसे भी जैव विकास नहीं कह सकते।

आइए, यह जानने के लिए कि अर्जित अनुभव/लक्षण जैव प्रक्रम द्वारा अगली पीढ़ी को वंशानुगत नहीं होते एक प्रयोग द्वारा समझते हैं। यदि हम पूँछ वाले चूहों का संवर्धन करें तो उसकी अगली पीढ़ी की संतति के भी पूँछ होगी, जैसा कि हम अनुमान लगा रहे थे। अब यदि इन चूहों की पूँछ को कई पीढ़ी तक काटते रहें, तो क्या इन चूहों से बिना पूँछ (पूँछविहीन) वाली संतति प्राप्त होगी? इसका उत्तर है, नहीं। जो स्वाभाविक भी है, क्योंकि पूँछ काटने से जनन कोशिकाओं के जीन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।


चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन (1809-1882)



चार्ल्स डार्विन जब 22 वर्ष के थे तो उन्होंने साहसिक समुद्री यात्रा की। पाँच वर्षों में उन्होंने दक्षिणी अमेरिका तथा इसके विभिन्न द्वीपों की यात्रा की। इस यात्रा का उद्देश्य पृथ्वी पर जैव विविधता के स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना था। उनकी इस यात्रा ने जैवविविधता के विषय में उस समय व्याप्त दृष्टिकोण को सदा के लिए बदल दिया। यह भी अत्यंत रोचक है कि इंग्लैंड वापस आने के बाद वह पुनः किसी और यात्रा पर नहीं गए। वह घर पर ही रहे तथा उन्होंने अनेक प्रयोग किए जिनके आधार पर उन्होंने अपने ‘प्राकृतिक वरण द्वारा जैव विकास’ के अपने सिद्धांत की परिकल्पना की। वह यह नहीं जानते थे कि किस विधि द्वारा स्पीशीज़ में विभिन्नताएँ आती हैं। उन्हें मेंडल के प्रयोगों का लाभ मिलता, परंतु ये दोनों व्यक्ति-वैज्ञानिक न तो एक-दूसरे को और न ही उनके कार्य के विषय में जानते थे!

हम डार्विन के केवल उनके जैव विकासवाद के कारण ही जानते हैं। परंतु वह एक प्रकृतिशास्त्री भी थे तथा उनका एक शोध भूमि की उर्वरता बनाने में केंचुओं की भूमिका के विषय में था।



यही कारण है कि आनुवंशिकता एवं वंशानुगति जिनकी चर्चा हम पहले कर चुके हैं, का ज्ञान जैव विकासवाद को समझने के लिए आवश्यक है। यही कारण है कि उन्नीसवीं शताब्दी में प्राकृतिक वरण द्वारा जैव विकास का सिद्धांत प्रतिपादित करने वाले चार्ल्स डार्विन भी इसकी क्रियाविधि नहीं खोज सके। वह अवश्य ही एेसा कर पाते यदि उन्होंने अपने समकालीन आस्ट्रियन ग्रेगर मेंडल के प्रयोगों के महत्त्व को जाना होता। मेंडल भी डार्विन के सिद्धांतों से अनभिज्ञ थे।


पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति


डार्विन के सिद्धांत हमें बताते हैं कि पृथ्वी पर सरल जीवों से जटिल स्वरूप वाले जीवों का विकास किस प्रकार हुआ। मेंडल के प्रयोगों से हमें एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में लक्षणों की वंशानुगति की कार्यविधि का पता चला। परन्तु दोनों ही यह बताने में असमर्थ रहे कि पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति कैसे हुई अर्थात इसका सर्वप्रथम आविर्भाव किस प्रकार हुआ।

एक ब्रिटिश वैज्ञानिक जे.बी.एस. हाल्डेन (जो बाद में भारत के नागरिक हो गए थे।) ने 1929 में यह सुझाव दिया कि जीवों की सर्वप्रथम उत्पत्ति उन सरल अकार्बनिक अणुओं से ही हुई होगी जो पृथ्वी की उत्पत्ति के समय बने थे। उसने कल्पना की कि पृथ्वी पर उस समय का वातावरण, पृथ्वी के वर्तमान वातावरण से सर्वथा भिन्न था। इस प्राथमिक वातावरण में संभवतः कुछ जटिल कार्बनिक अणुओं का संश्लेषण हुआ जो जीवन के लिए आवश्यक थे। सर्वप्रथम प्राथमिक जीव अन्य रासायनिक संश्लेषण द्वारा उत्पन्न हुए होंगे।

यह कार्बनिक अणु किस प्रकार उत्पन्न हुए? इसके उत्तर की परिकल्पना स्टेनले एल. मिलर तथा हेराल्ड सी. उरे द्वारा 1953 में किए गए प्रयोगों के आधार पर की जा सकती है। उन्होंने कृत्रिम रूप से एेसे वातावरण का निर्माण किया जो संभवतः प्राथमिक/प्राचीन वातावरण के समान था (इसमें अमोनिया, मीथेन तथा हाइड्रोजन सल्फाइड के अणु थे परंतु अॉक्सीजन के नहीं), पात्र में जल भी था। इसे 100° सेल्सियस से कुछ कम ताप पर रखा गया। गैसों के मिश्रण में चिनगारियाँ उत्पन्न की गईं जैसे आकाश में बिजली एक सप्ताह के बाद, 15 प्रतिशत कार्बन (मीथेन से) सरल कार्बनिक यौगिकों में परिवर्तित हो गए। इनमें एमीनो अम्ल भी संश्लेषित हुए जो प्रोटीन के अणुओं का निर्माण करते हैं। तो, क्या पृथ्वी पर आज भी जीवन की उत्पत्ति हो सकती है?


प्रश्न


1. वे कौन से विभिन्न तरीके हैं जिनके द्वारा एक विशेष लक्षण वाले व्यष्टि जीवों की संख्या समष्टि में बढ़ सकती है।

2. एक एकल जीव द्वारा उपार्जित लक्षण सामान्यतः अगली पीढ़ी में वंशानुगत नहीं होते। क्यों?

3. बाघों की संख्या में कमी आनुवंशिकता के दृष्टिकोण से चिंता का विषय क्यों है।




9.4 जाति उद्भव

अभी तक हमने जो कुछ भी समझा वह सूक्ष्म-विकास था। इसका अर्थ है कि यह परिवर्तन बहुत छोटे हैं यद्यपि महत्वपूर्ण हैं। फिर भी ये विशिष्ट स्पीशीज़ की समष्टि के सामान्य लक्षणों (स्वरूप) में परिवर्तन लाते हैं, परंतु इससे यह नहीं समझा जा सकता कि नयी स्पीशीज़ (जाति) का उद्भव किस प्रकार होता है। यह तभी कहा जा सकता था जबकि भृंगों का यह समूह जिसकी हम चर्चा कर रहे हैं, दो भिन्न समष्टियों में बँट जाएँ तो आपस में जनन करने में असमर्थ हों। जब यह स्थिति उत्पन्न हो जाती है, तब हम उन्हें दो स्वतंत्र स्पीशीज़ कह सकते हैं। तो क्या हम उन कारणों का विस्तारण करें जिसका ज़िक्र हमने ऊपर किया है और स्पीशीज की उत्पत्ति के सिद्धांत को समझने का प्रयास करें?

सोचिए, क्या होगा कि वे झाड़ियाँ जिन पर भृंग भोजन के लिए निर्भर करते हैं, एक पर्वत शृंखला के बृहद क्षेत्र में फैल जाएँ। परिणामतः समष्टि का आकार भी विशाल हो जाता है। परंतु व्यष्टि भृंग अपने भोजन के लिए जीवन-भर अपने आसपास की कुछ झाड़ियों पर ही निर्भर करते हैं। वे बहुत दूर नहीं जा सकते। अतः भृंगों की इस विशाल समष्टि के आसपास उप-समष्टि होगी। क्योंकि नर एवं मादा भृंग जनन के लिए आवश्यक हैं अतः जनन प्रायः इन उप समष्टियों के सदस्यों के मध्य ही होगा। हाँ, कुछ साहसी भृंग एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा सकते हैं अथवा कौआ एक भृंग को एक स्थान से उठाकर बिना हानि पहुँचाए दूसरे स्थान पर छोड़ देता है। दोनों ही स्थितियों में अप्रवासी भृंग स्थानीय समष्टि के साथ ही जनन करेगा। परिणामतः अप्रवासी भृंग के जीन नयी समष्टि में प्रविष्ट हो जाएँगे। इस प्रकार का जीन-प्रवाह उन समष्टियों में होता रहता है जो आंशिक रूप से अलग-अलग हैं; परंतु पूर्णरूपेण अलग नहीं हुई हैं। परंतु, यदि इस प्रकार की दो उप समष्टियों के मध्य एक विशाल नदी आ जाए, तो दोनों समष्टियाँ और अधिक पृथक हो जाएँगी। दोनों के मध्य जीन-प्रवाह का स्तर और भी कम हो जाएगा।

उत्तरोत्तर पीढ़ियों में आनुवंशिक विचलन प्रत्येक उप-समष्टि में विभिन्न परिवर्तनों का संग्रहण हो जाएगा। भौगोलिक रूप से विलग इन समष्टियों में प्राकृतिक चयन का तरीका भी भिन्न होगा। अतः उदाहरण के लिए, एक उप-समष्टि की सीमा में उकाब/चील द्वारा कौए समाप्त हो जाते हैं। परंतु दूसरी उप-समष्टि में यह घटना नहीं होती, जहाँ पर कौओं की संख्या बहुत अधिक है। परिणामतः पहले स्थान पर भृंगों का हरा रंग (लक्षण) का प्राकृतिक चयन नहीं होगा जबकि दूसरे स्थान पर इसका चयन होगा।

भृंगों की इन पृथक उप-समष्टियों में आनुवंशिक विचलन एवं प्राकृतिक-वरण (चयन) के संयुक्त प्रभाव के कारण प्रत्येक समष्टि एक-दूसरे से अधिक भिन्न होती जाती है। यह भी संभव है कि अंततः इन समष्टियों के सदस्य आपस में एक-दूसरे से मिलने के बाद भी अंतर्जनन में असमर्थ हों।

अनेक तरीके हैं जिनके द्वारा यह परिवर्तन संभव है। यदि डी.एन.ए. में यह परिवर्तन पर्याप्त है जैसे गुणसूत्रों की संख्या में परिवर्तन, तो दो समष्टियों के सदस्यों की जनन कोशिकाएँ (युग्मकों) संलयन करने में असमर्थ हो सकती हैं। अथवा संभव है कि एेसी विभिन्नता उत्पन्न हो जाए जिसमें हरे रंग की मादा भृंग लाल रंग के नर भृंग के साथ जनन की क्षमता ही खो दे, वह केवल हरे रंग के नर भृंग के साथ ही जनन कर सकते हैं। यह हरे रंग के प्राकृतिकवरण के लिए एक अत्यंत दृढ़ परिस्थिति है। अब यदि एेसी हरी मादा भृंग दूसरे समूह के लाल नर से मिलती है तो उसका व्यवहार एेसा होगा कि जनन न हो। परिणामतः भृंगों की नयी स्पीशीज़ का उद्भव होता है।


प्रश्न


1. वे कौन से कारक हैं जो नयी स्पीशीज़ के उद्भव में सहायक हैं?

2. क्या भौगोलिक पृथक्करण स्वपरागित स्पीशीज़ के पौधों के जाति-उद्भव का प्रमुख कारण हो सकता है? क्यों या क्यों नहीं?

3. क्या भौगोलिक पृथक्करण अलैंगिक जनन वाले जीवों के जाति उद्भव का प्रमुख कारक हो सकता है? क्यों अथवा क्यों नहीं?


9.5 विकास एवं वर्गीकरण

इन सिद्धांतों के आधार पर हम अपने चहुँओर पायी जाने वाली विभिन्न स्पीशीज़ के बीच विकासीय संबंध स्थापित कर सकते हैं। यह एक प्रकार से समय घड़ी से पीछे जाना है। हम एेसा विभिन्न स्पीशीज़ के अभिलक्षणों के पदानुक्रम का निर्धारण करके कर सकते हैं। इस प्रक्रम को समझने के लिए हम कक्षा 9 में पढ़े जीवों के वर्गीकरण को स्मरण करें।

विभिन्न जीवों के मध्य समानताएँ हमें उन जीवों को एक समूह में रखने और फिर उनके अध्ययन का अवसर प्रदान करती हैं। इसके लिए कौन से अभिलक्षण जीवों के मध्य आधारभूत विभिन्नताओं का निर्णय करते हैं तथा कौन से अभिलक्षण कम महत्वपूर्ण अंतरों का निर्णय लेते हैं? अभिलक्षणों से हमारा क्या अभिप्राय है? बाह्य आकृति अथवा व्यवहार का विवरण अभिलक्षण कहलाता है। दूसरे शब्दों में, विशेष स्वरूप अथवा विशेष प्रकार्य अभिलक्षण कहलाता है। हमारे चार पाद होते हैं, यह एक अभिलक्षण है। पौधों में प्रकाशसंश्लेषण होता है, यह भी एक अभिलक्षण है।

कुछ आधारभूत अभिलक्षण अधिकतर जीवों में समान होते हैं। कोशिका सभी जीवों की आधारभूत इकाई है। वर्गीकरण के अगले स्तर पर कोई अभिलक्षण अधिकतर जीवों में समान हो सकता है परंतु सभी जीवों में नहीं। कोशिका के अभिकल्प का आधारभूत अभिलक्षण का एक उदाहरण कोशिका में केंद्रक का होना या न होना है जो विभिन्न जीवों में भिन्न हो सकता है। जीवाणु कोशिका में केंद्रक नहीं होता, जबकि अधिकतर दूसरे जीवों की कोशिकाओं में केंद्रक पाया जाता है। केंद्रक युक्त कोशिका वाले जीवों के एक-कोशिक अथवा बहुकोशिक होने का गुण शारीरिक अभिकल्प में एक आधारभूत अंतर दर्शाता है जो कोशिकाओं एवं ऊतकों के विशिष्टीकरण के कारण है। बहुकोशिक जीवों में प्रकाशसंश्लेषण का होना या न होना वर्गीकरण का अगला स्तर है। उन बहुकोशिक जीवों जिनमें प्रकाशसंश्लेषण नहीं होता, में कुछ जीव एेसे हैं जिनमें अंतः कंकाल होता है तथा कुछ में बाह्य-कंकाल का अभिलक्षण एक अन्य प्रकार का आधारभूत अभिकल्प अंतर है। इन थोड़े से प्रश्नों, जो हमने यहाँ पूछे हैं, के द्वारा भी हम देख सकते हैं कि पदानुक्रम विकसित हो रहा है जिसके आधार पर वर्गीकरण के लिए समूह बना सकते हैं।

दो स्पीशीज़ के मध्य जितने अधिक अभिलक्षण समान होंगे उनका संबंध भी उतना ही निकट का होगा। जितनी अधिक समानताएँ उनमें होंगी उनका उद्भव भी निकट अतीत में समान पूर्वजों से हुआ होगा। इसे हम उदाहरण की सहायता से समझ सकते हैं। एक भाई एवं बहन अति निकट संबंधी हैं। उनसे पहली पीढ़ी में उनके पूर्वज समान थे अर्थात वे एक ही माता-पिता की संतान हैं। लड़की के चचेरे/ममेरे भाई-बहन (Ist Cousin) भी उससे संबंधित है परन्तु उसके अपने भाई से कम हैं। इसका मुख्य कारण है कि उनके पूर्वज समान हैं, अर्थात दादा-दादी जो उनसे दो पीढ़ी पहले के हैं, न कि एक पीढ़ी पहले के। अब आप इस बात को भली प्रकार समझ सकते हैं कि स्पीशीज़/जीवों का वर्गीकरण उनके विकास के संबंधों का प्रतिबिंब है।

अतः हम स्पीशीज़ के एेसे समूह का निर्माण कर सकते हैं जिनके पूर्वज निकट अतीत में समान थे, इसके बाद इन समूह का एक बड़ा समूह बनाइए जिनके पूर्वज अपेक्षाकृत अधिक दूर (समय के अनुसार) के हों। सैद्धांतिक रूप से इस प्रकार अतीत की कड़ियों का निर्माण करते हुए हम विकास की प्रारंभिक स्थिति तक पहुँच सकते हैं जहाँ मात्र एक ही स्पीशीज़ थी। यदि यह सत्य है तो जीवन की उत्पत्ति अवश्य ही अजैविक पदार्थों से हुई होगी। यह किस प्रकार संभव हुआ होगा, इसके विषय में अनेक सिद्धांत हैं। यह रोचक होगा यदि हम अपने सिद्धांतों का प्रतिपादन कर सकें।

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चित्र 9.8 समजात अंग


9.5.1 विकासीय संबंध खोजना

जब हम विकासीय संबंधों को जानने का प्रयास करते हैं तो हम समान अभिलक्षणों की पहचान किस प्रकार करते हैं। विभिन्न जीवों में यह अभिलक्षण समान होंगे क्योंकि वे समान जनक से वंशानुगत हुए हैं। उदाहरण के तौर पर, इस वास्तविकता को ही लेते हैं कि पक्षियों, सरीसृप एवं जल-स्थलचर (amphibians) की भाँति ही स्तनधारियों के चार पाद (पैर) होते हैं (चित्र 9.8)। सभी में पादों की आधारभूत संरचना एकसमान है, यद्यपि विभिन्न कशेरुकों में भिन्न-भिन्न कार्य करने के लिए इनमें रूपांतरण हुआ है, तथापि पाद की आधारभूत संरचना एकसमान है। एेसे समजात अभिलक्षण से भिन्न दिखाई देने वाली विभिन्न स्पीशीज़ के बीच विकासीय संबंध की पहचान करने में सहायता मिली है।

परंतु किसी अंग की आकृति में समानताएँ होने का एकमात्र कारण समान (उभयनिष्ठ) पूर्वज परंपरा नहीं है। चमगादड़ एवं पक्षी के पंख (चित्र 9.9) के विषय में आपके क्या विचार हैं? पक्षी एवं चमगादड़ के पंख होते हैं, परंतु गिलहरी एवं छिपकली के नहीं। तो क्या पक्षी एवं चमगादड़ों के बीच संबंध गिलहरी अथवा छिपकली की अपेक्षा अधिक घनिष्ठ हैं?

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चित्र 9.9

समरूप अंग : चमगादड़ एवं पक्षी के पंख


इससे पहले कि हम कोई निष्कर्ष निकालें, हमें पक्षी एवं चमगादड़ के पंखों को और बारीकी से देखना होगा। जब हम एेसा करते हैं तो हमें पता चलता है कि चमगादड़ के पंख मुख्यतः उसकी दीर्घित अँगुली के मध्य की त्वचा के फैलने से बना है। परंतु पक्षी के पंख उसकी पूरी अग्रबाहु की त्वचा के फैलाव से बनता है जो परों से ढकी रहती है। अतः दो पंखों के अभिकल्प, उनकी संरचना एवं संघटकों में बहुत अंतर है। वे एक जैसे दिखाई देते हैं क्योंकि वे उड़ने के लिए इसका उपयोग करते हैं परंतु सभी की उत्पत्ति पूर्णतः समान नहीं है। इस कारण यह उन्हें समरूप अभिलक्षण बनाता है न कि समजात अभिलक्षण। अब यह विचार करना रोचक होगा कि पक्षी के अग्रपाद एवं चमगादड़ के अग्रपाद को समजात माना जाए अथवा समरूप!


9.5.2 जीवाश्म

अंगों की संरचना केवल वर्तमान स्पीशीज़ पर ही नहीं की जा सकती, वरन् उन स्पीशीज़ पर भी की जा सकती है जो अब जीवित नहीं हैं। हम कैसे जान पाते हैं कि ये विलुप्त स्पीशीज़ कभी अस्तित्व में भी थीं? यह हम जीवाश्म द्वारा ही जान पाते हैं (चित्र 9.10 देखिए)। जीवाश्म क्या हैं? सामान्यतः जीव की मृत्यु के बाद उसके शरीर का अपघटन हो जाता है तथा वह समाप्त हो जाता है। परंतु कभी-कभी जीव अथवा उसके कुछ भाग एेसे वातावरण में चले जाते हैं जिसके कारण इनका अपघटन पूरी तरह से नहीं हो पाता। उदाहरण के लिए, यदि कोई मृृत कीट गर्म मिट्टी में सूख कर कठोर हो जाए तथा उसमें कीट के शरीर की छाप सुरक्षित रह जाए। जीव के इस प्रकार के परिरक्षित अवशेष जीवाश्म कहलाते हैं।

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चित्र 9.10 विभिन्न प्रकार के जीवाश्म। विभिन्न आविर्भाव तथा परिरक्षित विस्तृत अवस्थाओं को देखिए। डाइनोसॉर का कपाल जीवाश्म जो दिखाया गया है, कुछ वर्ष पूर्व नर्मदा घाटी में पाया गया था।


हम यह कैसे जान पाते हैं कि जीवाश्म कितने पुराने हैं? इस बात के आकलन के दो घटक हैं। एक है सापेक्ष। यदि हम किसी स्थान की खुदाई करते हैं और एक गहराई तक खोदने के बाद हमें जीवाश्म मिलने प्रारंभ हो जाते हैं तब एेसी स्थिति में यह सोचना तर्कसंगत है कि पृथ्वी की सतह के निकट वाले जीवाश्म गहरे स्तर पर पाए गए जीवाश्मों की अपेक्षा अधिक नए हैं। दूसरी विधि है ‘फॉसिल डेटिंग’ जिसमें जीवाश्म में पाए जाने वाले किसी एक तत्व के विभिन्न समस्थानिकों का अनुपात के आधार पर जीवाश्म का समय-निर्धारण किया जाता है। यह जानना रोचक होगा कि यह विधि किस प्रकार कार्य करती है।


जीवाश्म एक के बाद एक परत कैसे बनाते हैं?



आइए 10 करोड़ (100 मिलियन) वर्ष पहले से प्रारंभ करते हैं। समुद्र तल पर कुछ अकशेरुकीय जीवों की मृत्यु हो जाती है तथा वे रेत में दब जाते हैं। धीरे-धीरे और अधिक रेत एकत्र होती जाती है तथा अधिक दाब के कारण चट्टान बन जाती है।


कुछ मिलियन वर्षों बाद, क्षेत्र में रहने वाले डाइनोसॉर मर जाते हैं तथा उनका शरीर भी मिट्टी में दब जाता है। यह मिट्टी भी दबकर चट्टान बन जाती है। जो पहले वाले अकशेरुकीय जीवाश्म वाली चट्टान के ऊपर बनती है।


फिर इसके कुछ और मिलियन वर्षों बाद इस क्षेत्र में घोड़े के समान कुछ जीवों के जीवाश्म चट्टानों में दब जाते हैं।

इसके काफी समय उपरांत मृदा अपरदन (मान लीजिए जल प्रवाह) के कारण कुछ चट्टानें फट जाती हैं तथा घोड़े के समान जीवाश्म प्रकट होते हैं। जैसे-जैसे हम गहरी खुदाई करते जाते हैं, वैसे-वैसे पुराने तथा और पुराने जीवाश्म प्राप्त होते हैं।



9.5.3 विकास के चरण

यहाँ यह प्रश्न उठता है कि यदि जटिल अंग, उदाहरण के लिए आँख का चयन उनकी उपयोगिता के आधार पर होता है तो वे डी.एन.ए. में मात्र एक परिवर्तन द्वारा किस प्रकार संभव है? निश्चित रूप से एेसे जटिल अंगों का विकास क्रमिक रूप से अनेक पीढ़ियों में हुआ होगा। परंतु बीच के परिवर्तन किस प्रकार चयनित होते हैं? इसके लिए अनेक संभावित स्पष्टीकरण हैं। एक बीच का चरण (चित्र 9.11) जैसे कि अल्पवर्धित आँख, किसी सीमा तक उपयोगी हो सकती है। यह योग्यता को लाभ के लिए पर्याप्त हो सकता है। वास्तव में पंख की तरह आँख भी एक व्यापक अनुकूलन है। यह कीटों में पाई जाती है, उसी प्रकार अॉक्टोपस तथा कशेरुकी में भी, तथा आँख की संरचना इन सभी जीवों में भिन्न है जिसका मुख्य कारण अलग-अलग विकासीय उत्पत्ति है।


चित्र 9.11

प्लैनेरिया नाम के चपटे कृम की अति सरल आँख होती है जो वास्तव में नेत्रबिंदु है जो प्रकाश को पहचान सकता है।


साथ ही, एक परिवर्तन जो एक गुण के लिए उपयोगी हैं, कालांतर में किसी अन्य कार्य के लिए भी उपयोगी हो सकता है। उदाहरण के लिए, पर जो संभवतः ठंडे मौसम में ऊष्मारोधन के लिए विकसित हुए थे, कालांतर में उड़ने के लिए भी उपयोगी हो गए। वास्तव में कुछ उड़ने में समर्थ नहीं थे। बाद में संभवतः पक्षियों ने परों को उड़ने के लिए अपनाया। डाइनोसॉर सरीसृप थे अतः हम यह अर्थ निकाल सकते हैं कि पक्षी बहुत निकटता से सरीसृप से संबंधित हैं।

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चित्र 9.12

डायनोसॉर और परों का विकास

यहाँ इसका उल्लेख करना रोचक होगा कि बहुत अधिक भिन्न दिखने वाली संरचनाएँ एकसमान परिकल्प से विकसित हो सकती हैं। यह सत्य है कि जीवाश्म में अंगों की संरचना का विवेचन हमें यह अनुमान लगाने में सहायक हो सकता है कि विकासीय संबंध कितना पीछे जा सकता है? क्या इस प्रक्रम के उदाहरण उपलब्ध हैं? जंगली गोभी इसका एक अच्छा उदाहरण है। दो हज़ार वर्ष पूर्व से मनुष्य जंगली गोभी को एक खाद्य पौधे के रूप में उगाता था, तथा उसने चयन द्वारा इससे विभिन्न सब्ज़ियाँ विकसित कीं (चित्र 9.13)। परंतु यह प्राकृतिक वरण न होकर कृत्रिम चयन है। कुछ किसान इसकी पत्तियों के बीच की दूरी को कम करना चाहते थे जिससे पत्तागोभी का विकास हुआ, जिसे हम खाते हैं। कुछ किसान पुष्पों की वृद्धि रोकना चाहते थे अतः ब्रोकोली विकसित हुई, अथवा बंध्य पुष्पों से फूलगोभी विकसित हुई। कुछ ने फूले हुए भाग का चयन किया अतः गाँठगोभी विकसित हुई। कुछ ने केवल चौड़ी पत्तियों को ही पसंद किया तथा ‘केल’ नामक सब्ज़ी का विकास किया। यदि मनुष्य ने स्वयं एेसा नहीं किया होता तो क्या हम कभी एेसा सोच सकते थे कि उपरोक्त सभी समान जनक से विकसित हुई हैं?


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चित्र 9.13 जंगली गोभी का विकास


विकासीय संबंध खोजने का एक अन्य तरीका उस मौलिक परिकल्पना पर निर्भर करता है जिससे हमने प्रारंभ किया था। वह विचार था कि जनन के दौरान डी.एन.ए. में होने वाले परिवर्तन विकास की आधारभूत घटना है। यदि, यह सत्य है तो विभिन्न स्पीशीज़ के डी.एन.ए. की संरचना की तुलना से हम सीधे ही इसका निर्धारण कर सकते हैं कि इन स्पीशीज़ के उद्भव के दौरान डी.एन.ए. में क्या-क्या और कितने परिवर्तन आए। विकासीय संबंध स्थापित करने में इस विधि का व्यापक स्तर पर प्रयोग हो रहा है।


आणविक जातिवृत्त


हम इस बात की चर्चा करते हैं कि कोशिका विभाजन के समय डी.एन.ए. में होने वाले परिवर्तन से उस प्रोटीन में भी परिवर्तन आएगा जो नए डी.एन.ए. से बनेगी, दूसरी बात यह हुई कि यह परिवर्तन उत्तरोत्तर पीढ़ियों में संचित होते जाएँगे। क्या हम समय के साथ पीछे जाकर यह जान सकते हैं कि यह परिवर्तन किस समय हुए? आणविक जातिवृत्त वास्तव में यही करता है। इस अध्ययन में यह विचार सन्निहित है कि दूरस्थ संबंधी जीवों के डी.एन.ए. में ये विभिन्नताएँ अधिक संख्या में संचित होंगी। इस प्रकार के अध्ययन विकासीय संबंधों को खोजते हैं तथा यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि विभिन्न जीवों के बीच आणविक जातिवृत्त द्वारा स्थापित संबंध वर्गीकरण से सुमेलित होते हैं जिसके विषय में हम कक्षा 9 में पढ़ चुके हैं।


प्रश्न


1. उन अभिलक्षणों का एक उदाहरण दीजिए जिनका उपयोग हम दो स्पीशीज़ के विकासीय संबंध निर्धारण के लिए करते हैं?

2. क्या एक तितली और चमगादड़ के पंखों को समजात अंग कहा जा सकता है? क्यों अथवा क्यों नहीं?

3. जीवाश्म क्या हैं? वे जैव-विकास प्रक्रम के विषय में क्या दर्शाते हैं?



9.6 विकास को प्रगति के समान नहीं मानना चाहिए

स्पीशीज़ के वंश-वृक्ष की कड़ियाँ ढूँढ़ने के इस प्रयास में हमें कुछ बातों का ध्यान रखना होता है। पहली, इस प्रक्रम के प्रत्येक स्तर पर अनेक शाखाएँ संभव हैं। अतः एेसा नहीं है कि नयी स्पीशीज़ के उद्भव के लिए पहली स्पीशीज़ विलुप्त हो जाए। एक नयी स्पीशीज़ की उत्पत्ति हुई है, भृंग के उदाहरण में देखा था, नयी स्पीशीज़ की उत्पत्ति के लिए यह आवश्यक नहीं है कि पहली विलुप्त हो जाए। यह सब पर्यावरण पर निर्भर करता है। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि विकसित हुई नयी स्पीशीज़ अपनी पूर्वज स्पीशीज़ से ‘उत्तम’ ही हो। केवल प्राकृतिक वरण एवं आनुवंशिक विचलन के संयुक्त प्रभाव से एेसी समष्टि बनी जिसके सदस्य पहली स्पीशीज़ के साथ जनन में असमर्थ हैं। अतः उदाहरण के लिए, यह सत्य नहीं है कि मानव का विकास चिम्पैंज़ी से हुआ। वरन् पहले मानव एवं चिम्पैंजी दोनों ही के पूर्वज समान थे। वे न चिम्पैंजी की तरह थे और न मानव की तरह। यह भी आवश्यक नहीं है कि पूर्वजों से विलग होने के प्रथम चरण में ही आधुनिक चिम्पैंजी या मानव की उत्पत्ति हो गई हो। परंतु इस बात की संभावना अधिक है कि दोनों स्पीशीज़ का विकास अलग-अलग ढंग से विभिन्न शाखाओं में अपने तरीके से हुआ होगा जिससे आधुनिक स्पीशीज़ का वर्तमान स्वरूप बना है।

वास्तव में, जैव-विकास के सिद्धांत का अर्थ कोई वास्तविक ‘प्रगति’ नहीं है। विविधताओं की उत्पत्ति एवं प्राकृतिक चयन द्वारा उसे स्वरूप देना मात्र ही विकास है। जैव विकास में प्रगति की यदि कोई प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है तो वह है समय के साथ-साथ शारीरिक अभिकल्प की जटिलता में वृद्धि। लेकिन इसका अर्थ यह कदपि नहीं है कि पूर्व (प्राचीन) अभिकल्प अदक्ष हैं! अनेक अति प्राचीन एवं सरल अभिकल्प आज भी अस्तित्व में हैं। वास्तव में, सरलतम अभिकल्प वाला एक समूह-जीवाणु-विषम पर्यावरण जैसे कि ऊष्ण झरने, गहरे समुद्र के गर्म स्रोत तथा अंटार्कटिका की बर्फ में भी पाए जाते हैं। दूसरे शब्दों में, मानव जैव विकास के शिखर पर नहीं है, वरन् जैव विकास शृंखला में उत्पन्न एक और स्पीशीज़ है।


9.6.1 मानव विकास

मानव विकास के अध्ययन के लिए भी उन्हीं साधनों का उपयोग करते हैं जिनका जैव विकास के लिए किया था; यथा–उत्खनन, समय-निर्धारण तथा जीवाश्म अध्ययन के साथ डी.एन.ए. अनुक्रम का निर्धारण मानव विकास के अध्ययन के मुख्य साधन हैं। इस धरती/ग्रह पर मानव के रंग-रूप एवं आकृति में अत्यधिक विविधताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। ये विविधताएँ इतनी अधिक एवं प्रखर हैं कि लंबे समय तक लोग मनुष्य की ‘प्रजातियों’ की ही बात करते थे। आमतौर पर त्वचा का रंग इस प्रकार की प्रजाति के निर्धारण के लिए प्रयुक्त किया जाता था। कुछ को पीला, कुछ को काला, सफेद या भूरा कहा जाता था। लंबे समय तक यह बहस चलती रही है कि क्या इन आभासी समूहों का विकास अलग-अलग हुआ है? पिछले कुछ वर्षों में प्रमाण अति स्पष्ट हो गए हैं। हम कह सकते हैं कि इन आभासी प्रजातियों का कोई जैविक आधार नहीं है। सभी मानव एक ही स्पीशीज़ के सदस्य हैं।


चित्र 9.14

केवल यही नहीं, कि हम पिछले कितने हज़ार वर्षों से कहाँ रह रहे हैं बल्कि हम सभी का उद्भव अफ्रीका से हुआ। आधुनिक मानव स्पीशीज़ ‘होमो सैपियंस’ के सर्वप्रथम (प्राचीनतम) सदस्यों को वहीं पर खोजा जा सकता है। हमारे आनुवंशिक छाप को कालगर्त में अफ्रीकी मूल में ही खोजा जा सकता है। कुछ हज़ार वर्ष पूर्व हमारे पूर्वजों ने अफ्रीका छोड़ दिया जबकि कुछ वहीं रह गए। जबकि वहाँ के मूल निवासी पूरे अफ्रीका में फैल गए, उत्प्रवासी धीरे-धीरे समूचे ग्रह (संसार) में फैल गए–अफ्रीका से पश्चिमी एशिया, तथा वहाँ से मध्य एशिया, यूरेशिया, दक्षिणी एशिया तथा पूर्व एशिया। वहाँ से उन्होंने इंडोनेशिया के द्वीपों तथा फिलीपींस से अॉस्ट्रेलिया तक का सफर किया। वे बेरिंग लैंड ब्रिज को पार करके अमेरिका पहुँचे। क्योंकि वे मात्र यात्रा के उद्देश्य से सफर नहीं कर रहे थे अतः उन्हाेंने एक ही मार्ग का चुनाव नहीं किया। वे विभिन्न समूहों में कभी आगे तथा कभी पीछे गए। समूह कई बार परस्पर विलग हो गए। कभी-कभी अलग होकर विभिन्न दिशाओं में आगे बढ़ गए जबकि कुछ वापस आकर परस्पर मिल गए। जाने-आने का यह सिलसिला चलता रहा। इस ग्रह की अन्य स्पीशीज़ की तरह ही उनकी उत्पत्ति जैव-विकास की एक घटना मात्र ही थी तथा वे अपना जीवन सर्वोत्तम तरीके से जीने का प्रयास कर रहे थे।


प्रश्न


1. क्या कारण है कि आकृति, आकार, रंग-रूप में इतने भिन्न दिखाई पड़ने वाले मानव एक ही स्पीशीज़ के सदस्य हैं?

2. विकास के आधार पर क्या आप बता सकते हैं कि जीवाणु, मकड़ी, मछली तथा चिम्पैंजी में किसका शारीरिक अभिकल्प उत्तम है? अपने उत्तर की व्याख्या कीजिए।



आपने क्या सीखा


 जनन के समय उत्पन्न विभिन्नताएँ वंशानुगत हो सकती हैं।

 इन विभिन्नताओं के कारण जीव की उत्तरजीविता में वृद्धि हो सकती है।

 लैंगिक जनन वाले जीवों में एक अभिलक्षण (Trait) के जीन के दो प्रतिरूप (Copies) होते हैं। इन प्रतिरूपों के एकसमान न होने की स्थिति में जो अभिलक्षण व्यक्त होता है उसे प्रभावी लक्षण तथा अन्य को अप्रभावी लक्षण कहते हैं।

 विभिन्न लक्षण किसी जीव में स्वतंत्र रूप से वंशानुगत होते हैं। संतति में नए संयोग उत्पन्न होते हैं।

 विभिन्न स्पीशीज़ में लिंग निर्धारण के कारक भिन्न होते हैं। मानव में संतान का लिंग इस बात पर निर्भर करता है कि पिता से मिलने वाले गुणसूत्र 'X' (लड़कियों के लिए) अथवा 'Y' (लड़कों के लिए) किस प्रकार के हैं।

 स्पीशीज में विभिन्नताएँ उसे उत्तरजीविता के योग्य बना सकती हैं अथवा केवल आनुवंशिक विचलन में योगदान देती हैं।

 कायिक ऊतकों में पर्यावरणीय कारकाें द्वारा उत्पन्न परिवर्तन वंशानुगत नहीं होते।

 विभिन्नताओं के भौगोलिक पार्थक्य के कारण स्पीशीकरण हो सकता है।

 विकासीय संबंधों को जीवों के वर्गीकरण में ढूँढ़ा जा सकता है।

 काल में पीछे जाकर समान पूर्वजों की खोज से हमें अंदाजा होता है कि समय के किसी बिंदु पर अजैव पदार्थों ने जीवन की उत्पत्ति की।

 जैव-विकास को समझने के लिए केवल वर्तमान स्पीशीज़ का अध्ययन पर्याप्त नहीं है, वरन् जीवाश्म अध्ययन भी आवश्यक है।

 अस्तित्व लाभ हेतु मध्यवर्ती चरणों द्वारा जटिल अंगों का विकास हुआ।

 जैव-विकास के समय अंग अथवा आकृति नए प्रकार्यों के लिए अनुकूलित होते हैं। उदाहरण के लिए, पर जो प्रारंभ में ऊष्णता प्रदान करने के लिए विकसित हुए थे, कालांतर में उड़ने के लिए अनुकूलित हो गए।

 विकास को ‘निम्न’ अभिरूप से ‘उच्चतर’ अभिरूप की ‘प्रगति’ नहीं कहा जा सकता। वरन् यह प्रतीत होता है कि विकास ने अधिक जटिल शारीरिक अभिकल्प उत्पन्न किए हैं जबकि सरलतम शारीरिक अभिकल्प भलीभाँति अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं।

 मानव के विकास के अध्ययन से हमें पता चलता है कि हम सभी एक ही स्पीशीज़ के सदस्य हैं जिसका उदय अफ्रीका में हुआ और चरणों में विश्व के विभिन्न भागों में फैला।




अभ्यास


1. मेंडल के एक प्रयोग में लंबे मटर के पौधे जिनके बैंगनी पुष्प थे, का संकरण बौने पौधों जिनके सफेद पुष्प थे, से कराया गया। इनकी संतति के सभी पौधों में पुष्प बैंगनी रंग के थे। परंतु उनमें से लगभग आधे बौने थे। इससे कहा जा सकता है कि लंबे जनक पौधों की आनुवंशिक रचना निम्न थी–

(a) TTWW

(b) TTww

(c) TtWW

(d) TtWw

2. समजात अंगों का उदाहरण है–

(a) हमारा हाथ तथा कुत्ते के अग्रपाद

(b) हमारे दाँत तथा हाथी के दाँत

(c) आलू एवं घास के उपरिभूस्तारी

(d) उपरोक्त सभी

3. विकासीय दृष्टिकोण से हमारी किस से अधिक समानता है

(a) चीन के विद्यार्थी

(b) चिम्पैंजी

(c) मकड़ी

(d) जीवाणु

4. एक अध्ययन से पता चला कि हलके रंग की आँखों वाले बच्चों के जनक (माता-पिता) की आँखें भी हलके रंग की होती हैं। इसके आधार पर क्या हम कह सकते हैं कि आँखों के हलके रंग का लक्षण प्रभावी है अथवा अप्रभावी? अपने उत्तर की व्याख्या कीजिए।

5. जैव-विकास तथा वर्गीकरण का अध्ययन क्षेत्र किस प्रकार परस्पर संबंधित है।

6. समजात तथा समरूप अंगों को उदाहरण देकर समझाइए।

7. कुत्ते की खाल का प्रभावी रंग ज्ञात करने के उद्देश्य से एक प्रोजेक्ट बनाइए।

8. विकासीय संबंध स्थापित करने में जीवाश्म का क्या महत्त्व है?

9. किन प्रमाणों के आधार पर हम कह सकते हैं कि जीवन की उत्पत्ति अजैविक पदार्थों से हुई है?

10. अलैंगिक जनन की अपेक्षा लैंगिक जनन द्वारा उत्पन्न विभिन्नताएँ अधिक स्थायी होती हैं, व्याख्या कीजिए। यह लैंगिक प्रजनन करने वाले जीवों के विकास को किस प्रकार प्रभावित करता है?

11. संतति में नर एवं मादा जनकों द्वारा आनुवंशिक योगदान में बराबर की भागीदारी किस प्रकार सुनिश्चित की जाती है।

12. केवल वे विभिन्नताएँ जो किसी एकल जीव (व्यष्टि) के लिए उपयोगी होती हैं, समष्टि में अपना अस्तित्व बनाए रखती हैं। क्या आप इस कथन से सहमत हैं? क्यों एवं क्यों नहीं?