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नारक! मेरे ईश्वर, लेपचाओं की दुनिया में आप संगीत के जनक हैं
ओह नारक! मेरे ईश्वर, मुझे स्वयं को आपको समर्पित करने दें, मुझे आप अपना संगीत झरनों, नदियों, पर्वतों, वनों, कीटों और जानवरों से ग्रहण करने दें
मुझे आप अपना संगीत मधुर समीर से ग्रहण करने दें और इसे आपको ही समर्पित करने दें
स्रोत – पश्चिम बंगाल के उत्तरी भागों का लेपचा लोकसंगीत
इस ग्रह पर हम सूक्ष्म-जीवाणुओं और बैक्टीरिया, जोंक से लेकर वटवृक्ष, हाथी और ब्लू व्हेल तक करोड़ों दूसरे जीवधारियों के साथ रहते हैं। यह पूरा आवासीय स्थल जिस पर हम रहते हैं, अत्यधिक जैव-विविधताओं से भरा हुआ है। मानव और दूसरे जीवधारी एक जटिल पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण करते हैं, जिसका हम मात्र एक हिस्सा हैं और अपने अस्तित्व के लिए इसके विभिन्न तत्त्वों पर निर्भर करते हैं। उदाहरणतया, वायु जिसमें हम साँस लेते हैं, जल जिसे हम पीते हैं और मृदा जो अनाज पैदा करती है, जिसके बिना हम जीवित नहीं रह सकते; पौधे, पशु और सूक्ष्मजीवी इनका पुनः सृजन करते हैं। वन पारिस्थितिकी तंत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं क्योंकि ये प्राथमिक उत्पादक हैं जिन पर दूसरे सभी जीव निर्भर करते हैं।
वन्य जीवन और कृषि फसल उपजातियों में अत्यधिक जैव विविधताएँ पाई जाती हैं यह आकार और कार्य में विभिन्न हैं परंतु अंतर्निर्भरताओं के जटिल जाल द्वारा एक तंत्र में गुँथी हुई हैं।
भारत में वनस्पतिजात और प्राणिजात
यदि आप आस पास नजर दौड़ाते हैं, तो आप पाएँगे कि कुछ एेसे प्राणी और पौधे हैं जो आपके क्षेत्र में ही पाए जाते हैं। वास्तव में भारत, जैव विविधता के संदर्भ में विश्व के सबसे समृद्ध देशों में से एक है। यहाँ विश्व की सारी जैव उपजातियों की 8 प्रतिशत संख्या (लगभग 16 लाख) पाई जाती है। ये अभी खोजी जाने वाली उपजातियों से दो या तीन गुणा हैं। आप पहले ही भारत में पाए जाने वाले वनों और वन्य जीव संसाधनों के क्षेत्रफल और किस्मों के बारे में पढ़ चुके हैं। आपने सोचा होगा कि इन संसाधनों का आपके दैनिक जीवन में क्या महत्त्व है। ये विविध वनस्पतिजात और प्राणिजात हमारे हर रोज के जीवन में इतने गुँथे हुए हैं कि हम इसकी कद्र नहीं करते। परंतु पर्यावरण के प्रति हमारी असंवेदना के कारण पिछले कुछ समय से इन संसाधनों पर भारी दवाब बढ़ा है।
अपने क्षेत्र में मानव और प्रकृति के समन्वयी संबंधों पर प्रचलित कहानियों के बारे में पता लगाएँ।
भारत में जिस पैमाने पर वन कटाई हो रही है, वह विचलित कर देने वाली बात है। देश में वन आवरण के अंतर्गत अनुमानित 79.42 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल है। यह देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 24.16 प्रतिशत हिस्सा है। (सघन वन 12.2 प्रतिशत, खुला वन 9.14 प्रतिशत और मैंग्रोव 0.14 प्रतिशत)। स्टेट अॉफ फोरेस्ट रिपोर्ट (2015) के अनुसार वर्ष 2013 से सघन वनों के क्षेत्र में 3,775 वर्ग किमी. की वृद्धि हुई है। परंतु वन क्षेत्र में यह वृद्धि वन संरक्षण उपायों, प्रबंधन की भागीदारी तथा वृक्षारोपण से हुई है।
चित्र 2.1
सामान्य जातियाँ – ये वे जातियाँ हैं जिनकी संख्या जीवित रहने के लिए सामान्य मानी जाती है, जैसे – पशु, साल, चीड़ और कृन्तक (रोडेंट्स) इत्यादि।
संकटग्रस्त जातियाँ – ये वे जातियाँ हैं जिनके लुप्त होने का खतरा है। जिन विषम परिस्थितियों के कारण इनकी संख्या कम हुई है, यदि वे जारी रहती हैं तो इन जातियों का जीवित रहना कठिन है। काला हिरण, मगरमच्छ, भारतीय जंगली गधा, गैंडा, शेर-पूँछ वाला बंदर, संगाई (मणिपुरी हिरण) इत्यादि इस प्रकार की जातियों के उदाहरण हैं।
सुभेद्य (Vulnerable) जातियाँ – ये वे जातियाँ हैं जिनकी संख्या घट रही है। यदि इनकी संख्या पर विपरीत प्रभाव डालने वाली परिस्थितियाँ नहीं बदली जाती और इनकी संख्या घटती रहती है तो यह संकटग्रस्त जातियों की श्रेणी में शामिल हो जाएँगी। नीली भेड़, एशियाई हाथी, गंगा नदी की डॉल्फिन इत्यादि इस प्रकार की जातियों के उदाहरण हैं।
दुर्लभ जातियाँ – इन जातियों की संख्या बहुत कम या सुभेद्य हैं और यदि इनको प्रभावित करने वाली विषम परिस्थितियाँ नहीं परिवर्तित होती तो यह संकटग्रस्त जातियों की श्रेणी में आ सकती हैं।
स्थानिक जातियाँ – प्राकृतिक या भौगोलिक सीमाओं से अलग विशेष क्षेत्रों में पाई जाने वाली जातियाँ अंडमानी टील (teal), निकोबारी कबूतर, अंडमानी जंगली सुअर और अरुणाचल के मिथुन इन जातियों के उदाहरण हैं।
लुप्त जातियाँ – ये वे जातियाँ हैं जो इनके रहने के आवासों में खोज करने पर अनुपस्थित पाई गई हैं। ये उपजातियाँ स्थानीय क्षेत्र, प्रदेश, देश, महाद्वीप या पूरी पृथ्वी से ही लुप्त हो गई हैं। एेसी उपजातियों में एशियाई चीता और गुलाबी सिरवाली बत्तख शामिल हैं।
एशियाई चीता – कहाँ चला गया?
भूमि पर रहने वाला दुनिया का सबसे तेज स्तनधारी प्राणी, चीता, बिल्ली परिवार का एक अजूबा और विशिष्ट सदस्य है जो 112 किमी. प्रति घंटा की गति से दौड़ सकता है। लोगों को आमतौर पर भ्रम रहता है कि चीता एक तेंदुआ होता है। चीते की विशेष पहचान उसकी आँख के कोने से मुँह तक नाक के दोनों ओर फैली आँसुओं के लकीरनुमा निशान हैं। 20वीं शताब्दी से पहले चीते अफ्रीका और एशिया में दूर-दूर तक फैले हुए थे। परंतु इसके आवासीय क्षेत्र और शिकार की उपलब्धता कम होने से ये लगभग लुप्त हो चुके हैं। भारत में तो यह जाति बहुत पहले, 1952 में लुप्त घोषित कर दी गई थी।
वे प्रतिकूल कारक कौन से हैं जिनसे वनस्पतिजात और प्राणिजात का एेसा भयानक ह्रास हुआ है?
यदि आप चारों और नजर दौड़ाएँगे तो आप पाएँगे कि किस प्रकार हमने प्रकृति को संसाधनों में परिवर्तित कर दिया है। हमें लकड़ी, छाल, पत्ते, रबड़, दवाइयाँ, भोजन, ईंधन, चारा, खाद इत्यादि प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से वनों और वन्य जीवन से प्राप्त होता है इसलिए हम ही हैं जिन्होंने वन और वन्यजीवन को नुकसान पहुँचाया है। भारत में वनों को सबसे बड़ा नुकसान उपनिवेश काल में रेललाइन, कृषि, व्यवसाय, वाण्ज्यि वानिकी और खनन क्रियाओं में वृद्धि से हुआ। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी वन संसाधनों के सिकुड़ने से कृषि का फैलाव महत्त्वपूर्ण कारकों में से एक रहा है। भारत में वन सर्वेक्षण के अनुसार 1951 और 1980 के बीच लगभग 26,200 वर्ग किमी. वन क्षेत्र कृषि भूमि में परिवर्तित किया गया। अधिकतर जनजातीय क्षेत्रों, विशेषकर पूर्वोत्तर और मध्य भारत में स्थानांतरी (झूम) खेती अथवा ‘स्लैश और बर्न’ खेती के चलते वनों की कटाई या निम्नीकरण हुआ है।
चित्र 2.2 – कुछ लुप्त, दुर्लभ तथा संकटग्रस्त जातियाँ
क्या उपनिवेशी वन नीति को दोषी माना जाए?
हमारे कुछ पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार भारत के कई क्षेत्रों में ‘संवर्द्धन (enrichment) वृक्षारोपण’ अर्थात् वाणिज्य की दृष्टि से कुछ या एकल वृक्ष जातियों के बड़े पैमाने पर रोपण करने से पेड़ों की दूसरी जातियाँ खत्म हो गई। उदाहरण के तौर पर सागवान के एकल रोपण से दक्षिण भारत में अन्य प्राकृतिक वन बर्बाद हो गए और हिमालय में चीड़ पाईन के रोपण से हिमालयन ओक और रोडोडेंड्रोन (rhododendron) वनों का नुकसान हुआ।
बड़ी विकास परियोजनाओं ने भी वनों को बहुत नुकसान पहुँचाया है। 1952 से नदी घाटी परियोजनाओं के कारण 5000 वर्ग किमी. से अधिक वन क्षेत्रों को साफ करना पड़ा है यह प्रक्रिया अभी भी जारी है और मध्य प्रदेश में 4,00,000 हैक्टेयर से अधिक वन क्षेत्र नर्मदा सागर परियोजना के पूर्ण हो जाने से जलमग्न हो जाएगा। वनों की बर्बादी में खनन ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पश्चिम बंगाल में बक्सा टाईगर रिज़र्व (reserve), डोलोमाइट के खनन के कारण गंभीर खतरे मेें है। इसने कई प्रजातियों के प्राकृतिक आवासों को नुकसान पहुँचाया है और कई जातियों जिसमें भारतीय हाथी भी शामिल हैं, के आवागमन मार्ग को बाधित किया है।
क्या उपनिवेशी वन नीति को दोषी माना जाए?
हमारे कुछ पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार भारत के कई क्षेत्रों में ‘संवर्द्धन (enrichment) वृक्षारोपण’ अर्थात् वाणिज्य की दृष्टि से कुछ या एकल वृक्ष जातियों के बड़े पैमाने पर रोपण करने से पेड़ों की दूसरी जातियाँ खत्म हो गई। उदाहरण के तौर पर सागवान के एकल रोपण से दक्षिण भारत में अन्य प्राकृतिक वन बर्बाद हो गए और हिमालय में चीड़ पाईन के रोपण से हिमालयन ओक और रोडोडेंड्रोन (rhododendron) वनों का नुकसान हुआ।
बहुत से वन अधिकारी और पर्यावरणविद् यह मानते हैं कि वन संसाधनों की बर्बादी में पशुचारण और ईंधन के लिए लकड़ी कटाई मुख्य भूमिका निभाते हैं। यद्यपि इसमें कुछ सच्चाई हो सकती है परंतु चारे और ईंधन हेतु लकड़ी की आवश्यकता पूर्ति मुख्यतः पेड़ों की टहनियाँ काटकर की जाती हैं न कि पूरे पेड़ काटकर। वन पारिस्थितिकी तंत्र देश के मूल्यवान वन पदार्थों, खनिजों और अन्य संसाधनों के संचय कोष हैं जो तेज ी से विकसित होती औद्योगिक-शहरी अर्थव्यवस्था की माँग की पूर्ति के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। ये आरक्षित क्षेत्र अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग मायने रखते हैं और विभिन्न वर्गों के बीच संघर्ष के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ पैदा करते हैं।
हिमालयन यव (Yew) संकट में
हिमालयन यव (चीड़ की प्रकार का सदाबहार वृक्ष) एक औषधीय पौधा है जो हिमाचल प्रदेश और अरुणाचल प्रदेश के कई क्षेत्रों में पाया जाता है। पेड़ की छाल, पत्तियों, टहनियों और जड़ों से टकसोल (taxol) नामक रसायन निकाला जाता है तथा इसे कुछ कैंसर रोगों के उपचार के लिए प्रयोग किया जाता है। इससे बनाई गई दवाई विश्व में सबसे अधिक बिकने वाली कैंसर औषधि हैं। इसके अत्याधिक निष्कासन से इस वनस्पति जाति को खतरा पैदा हो गया है। पिछले एक दशक में हिमाचल प्रदेश और अरुणाचल प्रदेश में विभिन्न क्षेत्रों में यव के हजारों पेड़ सूख गए हैं।
क्या आप जानते हैं कि भारत के आधे से अधिक प्राकृतिक वन लगभग खत्म हो चुके हैं? एक-तिहाई जलमग्न भूमि (wetland) सूख चुकी है, 70 प्रतिशत धरातलीय जल क्षेत्र (water bodies) प्रदूषित हैं, 40 प्रतिशत मैंग्रोव क्षेत्र लुप्त हो चुका है और जंगली जानवरों के शिकार और व्यापार तथा वाणिज्य की दृष्टि से कीमती पेड़-पौधों की कटाई के कारण हजारों वनस्पति और वन्य जीव जातियाँ लुप्त होने के कगार पर पहुँच गई हैं।
वनों और वन्य जीवन का विनाश मात्र जीव विज्ञान का विषय ही नहीं है। जैव संसाधनों का विनाश सांस्कृतिक विविधता के विनाश से जुड़ा हुआ है। जैव विनाश के कारण कई मूल जातियाँ और वनों पर आधारित समुदाय निर्धन होते जा रहे हैं और आर्थिक रूप से हाशिये पर पहुँच गए हैं। यह समुदाय खाने, पीने, औषधि, संस्कृति, अध्यात्म इत्यादि के लिए वनों और वन्य जीवों पर निर्भर हैं। गरीब वर्ग में भी महिलाएँ पुरुषों की तुलना में अधिक प्रभावित हैं। कई समाजों में खाना, चारा, जल और अन्य आवश्यकता की वस्तुओं को इकट्ठा करने की मुख्य जिम्मेदारी महिलाओं की ही होती है। जैसे ही इन संसाधनों की कमी होती जा रही है, महिलाओं पर कार्य भार बढ़ता जा रहा है और कई बार तो उनको संसाधन इकट्ठा करने के लिए 10 किमी. से भी अधिक पैदल चलना पड़ता है। इससे उन्हें गंभीर स्वास्थ्य समस्याएँ झेलनी पड़ती हैं, काम का समय बढ़ने के कारण घर और बच्चों की उपेक्षा होती है जिसके गंभीर सामाजिक दुष्परिणाम हो सकते हैं। वन कटाई के परोक्ष परिणाम जैसे सूखा, और बाढ़ भी गरीब तबके को सबसे अधिक प्रभावित करता है। इस स्थिति में गरीबी, पर्यावरण निम्नीकरण का सीधा परिणाम होता है। भारतीय उपमहाद्वीप में वन और वन्य जीवन मानव जीवन के लिए बहुत कल्याणकारी है। अतः यह आवश्यक है कि वन और वन्य जीवन के संरक्षण के लिए सही नीति अपनाई जाए।
भारत में वन और वन्य जीवन का संरक्षण
चित्र 2.4 – कांज़ीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में गैंडा और हिरन
वन्य जीवन संरचना में बाघ (टाईगर) एक महत्त्वपूर्ण जंगली जाति है। 1973 में अधिकारियों ने पाया कि देश में 20वीं शताब्दी के आरंभ में बाघों की संख्या अनुमानित संख्या 55,000 से घटकर मात्र 1,827 रह गई है। बाघों को मारकर उनको व्यापार के लिए चोरी करना, आवासीय स्थलों का सिकुड़ना, भोजन के लिए आवश्यक जंगली उपजातियों की संख्या कम होना और जनसंख्या में वृद्धि बाघों की घटती संख्या के मुख्य कारण हैं। बाघों की खाल का व्यापार, और उनकी हड्डियों का एशियाई देशों में परंपरागत औषधियों में प्रयोग के कारण यह जाति विलुप्त होने की कगार पर पहुँच गई है। चूँकि भारत और नेपाल दुनिया की दो-तिहाई बाघों को आवास उपलब्ध करवाते हैं, अतः ये देश ही शिकार, चोरी और गैर-कानूनी व्यापार करने वालों के मुख्य निशाने पर हैं।
‘प्रोजेक्ट टाईगर’ विश्व की बेहतरीन वन्य जीव परियोजनाओं में से एक है और इसकी शुरुआत 1973 में हुई। बाघ संरक्षण मात्र एक संकटग्रस्त जाति को बचाने का प्रयास नहीं है, अपितु इसका उद्देश्य बहुत बड़े आकार के जैवजाति को भी बचाना है। उत्तराखण्ड में कॉरबेट राष्ट्रीय उद्यान, पश्चिम बंगाल में सुंदरबन राष्ट्रीय उद्यान, मध्य प्रदेश में बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान, राजस्थान में सरिस्का वन्य जीव पशुविहार (sanctuary), असम में मानस बाघ रिज़र्व (reserve) और केरल में पेरियार बाघ रिज़र्व (reserve) भारत में बाघ संरक्षण परियोजनाओं के उदाहरण हैं।
आजकल संरक्षण परियोजनाएँ जैव विविधताओं पर केंद्रित होती हैं न कि इसके विभिन्न घटकों पर। संरक्षण के विभिन्न तरीकों की गहनता से खोज की जा रही है। संरक्षण नियोजन में कीटों को भी महत्त्व मिल रहा है। वन्य जीव अधिनियम 1980 और 1986 के तहत् सैकड़ों तितलियों, पतंगों, भृगों और एक ड्रैगनफ्लाई को भी संरक्षित जातियों में शामिल किया गया है। 1991 में पौधों की भी 6 जातियाँ पहली बार इस सूची में रखी गई।
भारत में वन्य जीव पशुविहार और राष्ट्रीय उद्यानों के बारे में और जानकारी प्राप्त करें और उनकी स्थिति मानचित्र पर अंकित करें।
वन और वन्य जीव संसाधनों के प्रकार और वितरण
यदि हम वन और वन्य जीव संसाधनों को संरक्षित करना चाहें, तो उनका प्रबंधन, नियंत्रण और विनियमन अपेक्षाकृत कठिन है। भारत में अधिकतर वन और वन्य जीवन या तो प्रत्यक्ष रूप में सरकार के अधिकार क्षेत्र में हैं या वन विभाग अथवा अन्य विभागों के जरिये सरकार के प्रबंधन में हैं। इन्हें निम्नलिखित वर्गों में बाँटा गया है–
क्या आप उपर्युक्त समस्याओं के निदान के कारण ज्ञात कर सकते हैं?
(ख) रक्षित वन – वन विभाग के अनुसार देश के कुल वन क्षेत्र का एक-तिहाई हिस्सा रक्षित है। इन वनों को और अधिक नष्ट होने से बचाने के लिए इनकी सुरक्षा की जाती है।
(ग) अवर्गीकृत वन – अन्य सभी प्रकार के वन और बंजरभूमि जो सरकार, व्यक्तियों और समुदायों के स्वामित्व में होते हैं, अवर्गीकृत वन कहे जाते हैं।
आरक्षित और रक्षित वन एेसे स्थायी वन क्षेत्र हैं जिनका रख-रखाव इमारती लकड़ी, अन्य वन पदार्थों और उनके बचाव के लिए किया जाता है। मध्य प्रदेश में स्थायी वनों के अंतर्गत सर्वाधिक क्षेत्र है जोकि प्रदेश के कुल वन क्षेत्र का भी 75 प्रतिशत है। इसके अतिरिक्त जम्मू और कश्मीर, आंध्र प्रदेश, उत्तराखण्ड केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में भी कुल वनों में एक बड़ा अनुपात आरक्षित वनों का है; जबकि बिहार, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, ओडिशाऔर राजस्थान में कुल वनों में रक्षित वनों का एक बड़ा अनुपात है। पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में और गुजरात में अधिकतर वन क्षेत्र अवर्गीकृत वन हैं तथा स्थानीय समुदायों के प्रबंधन में हैं।
समुदाय और वन संरक्षण
वन संरक्षण की नीतियाँ हमारे देश में कोई नई बात नहीं है। हम आमतौर पर इस बात से अनजान हैं कि वन हमारे देश में कुछ मानव प्रजातियों के आवास भी हैं। भारत के कुछ क्षेत्रों में तो स्थानीय समुदाय सरकारी अधिकारियों के साथ मिलकर अपने आवास स्थलों के संरक्षण में जुटे हैं क्योंकि इसी से ही दीर्घकाल में उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकती है। सरिस्का बाघ रिज़र्व में राजस्थान के गाँवों के लोग वन्य जीव रक्षण अधिनियम के तहत वहाँ से खनन कार्य बन्द करवाने के लिए संघर्षरत हैं। कई क्षेत्रों में तो लोग स्वयं वन्य जीव आवासों की रक्षा कर रहे हैं और सरकार की ओर से हस्तक्षेप भी स्वीकार नहीं कर रहे हैं। राजस्थान के अलवर जिले में 5 गाँवों के लोगों ने तो 1,200 हेक्टेयर वन भूमि भैरोंदेव डाकव ‘सोंचुरी’ घोषित कर दी जिसके अपने ही नियम कानून हैं; जो शिकार वर्जित करते हैं तथा बाहरी लोगों की घुसपैठ से यहाँ के वन्य जीवन को बचाते हैं।
पवित्र पेड़ों के झुरमट – विविध और दुर्लभ जातियों की संपत्ति
प्रकृति की पूजा सदियों पुराना जनजातीय विश्वास है, जिसका आधार प्रकृति के हर रूप की रक्षा करना है। इन्हीं विश्वासों ने विभिन्न वनों को मूल एवं कौमार्य रूप में बचाकर रखा है, जिन्हें पवित्र पेड़ों के झुरमुट (देवी-देवताओं के वन) कहते हैं। वनों के इन भागों में या तो वनों के एेसे बड़े भागों में स्थानीय लोग ही घुसते तथा न ही किसी और को छेड़छाड़ करने देते।
कुछ समाज कुछ विशेष पेड़ों की पूजा करते हैं और आदिकाल से उनका संरक्षण करते आ रहे हैं। छोटानागपुर क्षेत्र में मुंडा और संथाल जनजातियाँ महुआ और कदंब के पेड़ों की पूजा करते हैं। ओडिशा और बिहार की जनजातियाँ शादी के दौरान इमली और आम के पेड़ की पूजा करती हैं। हममें से बहुत से व्यक्ति पीपल और वटवृक्ष को पवित्र मानते हैं।
भारतीय समाज में अनेकों संस्कृतियाँ हैं और प्रत्येक संस्कृति में प्रकृति और इसकी कृतियों को संरक्षित करने के अपने पारंपारिक तरीके हैं। आमतौर पर झरनों, पहाड़ी चोटियों, पेड़ों और पशुओं को पवित्र मानकर उनका संरक्षण किया जाता है। आप अनेक मंदिरों के आस पास बंदर और लंगूर पाएँगे। उपासक उन्हें खिलाते-पिलाते हैं और मंदिर के भक्तों में गिनते हैं। राजस्थान में बिश्नोई गाँवों के आस पास आप काले हिरण, चिंकारा, नीलगाय और मोरों के झुंड देख सकते हैं जो वहाँ के समुदाय का अभिन्न हिस्सा हैं और कोई उनको नुकसान नहीं पहुँचाता।
आप अपने आस पास के किसी एेसे रीति-रिवाज के बारे में एक लेख लिखें जो पर्यावरण बचाव और संरक्षण में मदद करते हैं।
हिमालय में प्रसिद्ध चिपको आंदोलन कई क्षेत्रों में वन कटाई रोकने में ही कामयाब नहीं रहा अपितु यह भी दिखाया कि स्थानीय पौधों की जातियों को प्रयोग करके सामुदायिक वनीकरण अभियान को सफल बनाया जा सकता है। पारंपरिक संरक्षण तरीकों को पुनर्जीवित अथवा परिस्थिकी कृषि के नए तरीकों का विकास अब व्यापक हो गया है। टिहरी में किसानों का बीज बचाओ आंदोलन और नवदानय ने दिखा दिया है कि रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग के बिना भी विविध फसल उत्पादन द्वारा आर्थिक रूप से व्यवहार्य कृषि उत्पादन संभव है।
भारत में संयुक्त वन प्रबंधन कार्यक्रम क्षरित वनों के प्रबंध और पुनर्निर्माण में स्थानीय समुदायों की भूमिका के महत्त्व को उजागर करते हैं। औपचारिक रूप में इन कार्यक्रमों की शुरुआत 1988 में हुई जब ओडिशा राज्य ने संयुक्त वन प्रबंधन का पहला प्रस्ताव पास किया। वन विभाग के अंतर्गत ‘संयुक्त वन प्रबंधन’ क्षरित वनों के बचाव के लिए कार्य करता है और इसमें गाँव के स्तर पर संस्थाएँ बनाई जाती हैं जिसमें ग्रामीण और वन विभाग के अधिकारी संयुक्त रूप में कार्य करते हैं। इसके बदले ये समुदाय मध्य स्तरीय लाभ जैसे गैर-इमारती वन उत्पादों के हकदारी होते हैं तथा सफल संरक्षण से प्राप्त इमारती लकड़ी लाभ में भी भागीदार होते हैं।
भारत में पर्यावरण के विनाश और पुनर्निर्माण की क्रियाशीलताओं से सीख मिलती है कि स्थानीय समुदायों को हर जगह प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन में शामिल करना चाहिए। परंतु स्थानीय समुदायों को फैसले लेने की प्रक्रिया में मुख्य भूमिका में आने में अभी देर है। अतः वे ही विकास क्रियाएँ मान्य होनी चाहिए जो जनमानस पर केंद्रित हों, पर्यावरण हितैषी हो और आर्थिक रूप से प्रतिफलित हों।
"पेड़ एक विशेष असीमित दयालु और उदारपूर्ण जीवधारी हैं जो अपने सतत् पोषण के लिए कोई माँग नहीं करता और दानशीलतापूर्वक अपने जीवन की क्रियाओं को भेंट करता है। यह सभी की रक्षा करता है और स्वयं पर कुल्हाड़ी चलाने वाले विनाशक को भी छाया प्रदान करता है।"
गौतम बुद्ध (487 ई.पू.)
अभ्यास
1. बहुवैकल्पिक प्रश्न
(i) इनमें से कौन-सी टिप्पणी प्राकृतिक वनस्पतिजात और प्राणिजात के ह्रास का सही कारण नहीं है?
(क) कृषि प्रसार (ग) पशुचारण और ईंधन लकड़ी एकत्रित करना
(ख) वृहत स्तरीय विकास परियोजनाएँ (घ) तीव्र औद्योगीकरण और शहरीकरण
(ii) इनमें से कौन-सा संरक्षण तरीका समुदायों की सीधी भागीदारी नहीं करता?
(क) संयुक्त वन प्रबंधन (ग) बीज बचाओ आंदोलन
(ख) चिपको आंदोलन (घ) वन्य जीव पशुविहार (santuary) का परिसीमन
2. निम्नलिखित प्राणियों/पौधों का उनके अस्तित्व के वर्ग से मेल करें।
जानवर/पौधे अस्तित्त्व वर्ग
काला हिरण लुप्त
एशियाई हाथी दुर्लभ
अंडमान जंगली सुअर संकटग्रस्त
हिमालयन भूरा भालू सुभेद्य
गुलाबी सिरवाली बत्तख स्थानिक
3. निम्नलिखित का मेल करें।
आरक्षित वन सरकार, व्यक्तियों के निजी और समुदायों के अधीन अन्य वन और बंजर भूमि।
रक्षित वन वन और वन्य जीव संसाधन संरक्षण की दृष्टि से सर्वाधिक मूल्यवान वन।
अवर्गीकृत वन वन भूमि जो और अधिक क्षरण से बचाई जाती है।
4. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए।
(i) जैव विविधता क्या है? यह मानव जीवन के लिए क्यों महत्त्वपूर्ण है?
(ii) विस्तारपूर्वक बताएँ कि मानव क्रियाएँ किस प्रकार प्राकृतिक वनस्पतिजात और प्राणिजात के ह्रास के कारक हैं?
5. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 120 शब्दों में दीजिए।
(i) भारत में विभिन्न समुदायों ने किस प्रकार वनों और वन्य जीव संरक्षण और रक्षण में योगदान किया है? विस्तारपूर्वक विवेचना करें।
(ii) वन और वन्य जीव संरक्षण में सहयोगी रीति-रिवाजों पर एक निबन्ध लिखिए।