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कृषि की दृष्टि से भारत एक महत्त्वपूर्ण देश है। इसकी दो-तिहाई जनसंख्या कृषि कार्यों में संलग्न है। कृषि एक प्राथमिक क्रिया है जो हमारे लिए अधिकांश खाद्यान्न उत्पन्न करती है। खाद्यान्नों के अतिरिक्त यह विभिन्न उद्योगों के लिए कच्चा माल भी पैदा करती है। इसके अतिरक्ति, कुछ उत्पादों जैसे - चाय, कॉफी, मसाले इत्यादि का भी निर्यात किया जाता है।
कृषि के प्रकार
कृषि हमारे देश की प्राचीन आर्थिक क्रिया है। पिछले हजारों वर्षों के दौरान भौतिक पर्यावरण, प्रौद्योगिकी और सामाजिक-सांस्कृतिक रीति-रिवाज़ों के अनुसार खेती करने की विधियों में सार्थक परिवर्तन हुआ है। जीवन निर्वाह खेती से लेकर वाणिज्य खेती तक कृषि के अनेक प्रकार हैं। वर्तमान समय में भारत के विभिन्न भागों में निम्नलिखित प्रकार के कृषि तंत्र अपनाए गए हैं।
प्रारंभिक जीविका निर्वाह कृषि
इस प्रकार की कृषि भारत के कुछ भागों में अभी भी की जाती है। प्रारंभिक जीवन निर्वाह कृषि भूमि के छोटे टुकड़ों पर आदिम कृषि औजारों जैसे लकड़ी के हल, डाओ (dao) और खुदाई करने वाली छड़ी तथा परिवार अथवा समुदाय श्रम की मदद से की जाती है। इस प्रकार की कृषि प्रायः मानसून, मृदा की प्राकृतिक उर्वरता और फसल उगाने के लिए अन्य पर्यावरणीय परिस्थितियों की उपुयक्तता पर निर्भर करती है।
यह ‘कर्तन दहन प्रणाली’ (slash and burn) कृषि है। किसान जमीन के टुकड़े साफ करके उन पर अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए अनाज व अन्य खाद्य फसलें उगाते हैं। जब मृदा की उर्वरता कम हो जाती है तो किसान उस भूमि के टुकड़े से स्थानांतरित हो जाते हैं और कृषि के लिए भूमि का दूसरा टुकड़ा साफ करते हैं। कृषि के इस प्रकार के स्थानांतरण से प्राकृतिक प्रक्रियाओं द्वारा मिट्टी की उर्वरता शक्ति बढ़ जाती है। चूँकि किसान उर्वरक अथवा अन्य आधुनिक तकनीकों का प्रयोग नहीं करते, इसलिए इस प्रकार की कृषि में उत्पादकता कम होती है। देश के विभिन्न भागों में इस प्रकार की कृषि को विभिन्न नामों से जाना जाता है।
उत्तर-पूर्वी राज्यों असम, मेघालय, मिजोरम और नागालैंड में इसे ‘झूम’ कहा जाता है; मणिपुर में पामलू (pamlou) और छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले और अंडमान निकोबार द्वीप समूह में इसे ‘दीपा’ कहा जाता है।
‘झूम’ – ‘कर्तन दहन प्रणाली’ (slash and burn) कृषि को मैक्सिको और मध्य अमेरिका में ‘मिल्पा’, वेनेजुएला में ‘कोनुको’, ब्राजील में ‘रोका’, मध्य अफ्रीका में ‘मसोले’, इंडोनेशिया में ‘लदांग’ और वियतनाम में ‘रे’ के नाम से जाना जाता है।
भारत में भी यह प्रारंभिक किस्म की खेती अनेक नामों से जानी जाती है, जैसे मध्य प्रदेश में ‘बेबर या दहिया’, आंध्रप्रदेश में ‘पोडु’ अथवा ‘पेंडा’, ओडिशा में ‘पामाडाबी’ या ‘कोमान’ या ‘बरीगाँ’, पश्चिम घाट में ‘कुमारी’, दक्षिण-पूर्वी राजस्थान में ‘वालरे’ या ‘वाल्टरे’, हिमालयन क्षेत्र में ‘खिल’, झारखंड में ‘कुरुवा’ और उत्तर पूर्वी प्रदेशों में ‘झूम’ आदि।
रिंझा असम में डिफु के बाहरी क्षेत्र में अपने परिवार के साथ एक गाँव में रहती है। वह अपने परिवार के सदस्यों द्वारा एक भूमि के टुकड़े पर उगी वनस्पति को काटकर व जलाकर साफ करते देख कर आनन्द का अनुभव करती है। वह प्रायः परिवार के सदस्यों के साथ बाँस के नाले द्वारा झरने से पानी लाकर अपने खेत को सिंचित करने में सहायता करती है। वह अपने परिस्थान से लगाव रखती है और जब तक संभव हो यहाँ रहना चाहती है। परंतु इस छोटी बच्ची को अपने खेत में मिट्टी की घटती उर्वरता के बारे में कुछ भी पता नहीं है जिसके कारण उसके परिवार को अगले वर्ष नए भूमि के टुकड़े की तलाश करनी होगी।
क्या आप बता सकते हैं कि रिंझा का परिवार किस प्रकार की कृषि कर रहा है?
क्या आप उन फसलों के नाम बता सकते हैं जो इस प्रकार की कृषि में उगाई जाती हैं?
गहन जीविका कृषि
इस प्रकार की कृषि उन क्षेत्रों में की जाती है जहाँ भूमि पर जनसंख्या का दबाव अधिक होता है। यह श्रम-गहन खेती है जहाँ अधिक उत्पादन के लिए अधिक मात्रा में जैव- रासायनिक निवेशों और सिंचाई का प्रयोग किया जाता है।
क्या आप भारत के कुछ राज्यों के नाम बता सकते हैं जहाँ इस प्रकार की कृषि की जाती है?
भूस्वामित्व में विरासत के अधिकार के कारण पीढ़ी दर पीढ़ी जोतों का आकार छोटा और अलाभप्रद होता जा रहा है और किसान वैकल्पिक रोज़गार न होने के कारण सीमित भूमि से अधिकतम पैदावार लेने की कोशिश करते हैं। अतः कृषि भूमि पर बहुत अधिक दबाव है।
वाणिज्यिक कृषि
इस प्रकार की कृषि के मुख्य लक्षण आधुनिक निवेशों जैसे अधिक पैदावार देने वाले बीजों, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के प्रयोग से उच्च पैदावार प्राप्त करना है। कृषि के वाणिज्यीकरण का स्तर विभिन्न प्रदेशों में अलग-अलग है। उदाहरण के लिए हरियाणा और पंजाब में चावल वाणिज्य की एक फसल है परंतु ओडिशा में यह एक जीविका फसल है।
चित्र 4.2 – भारत के दक्षिणी भाग में केले की रोपण कृषि
चित्र 4.3 – उत्तर-पूर्व में बाँस की कृषि
शस्य प्रारूप
चित्र 4.3 – उत्तर-पूर्व में बाँस की कृषि
शस्य प्रारूप
आपने भारत की भौतिक विविधताओं और संस्कृतियों की बहुलताओं के सबंध में अध्ययन किया है। ये देश में कृषि पद्धतियों और शस्य प्रारूपों में प्रतिबिंबित होता है। इसीलिए, देश में बोई जाने वाली फसलों में अनेक प्रकार के खाद्यान्न और रेशे वाली फसलें, सब्जियाँ, फल, मसाले इत्यादि शामिल हैं। भारत में तीन शस्य ऋतुएँ हैं, जो इस प्रकार हैं – रबी, खरीफ और ज़ायद।
रबी फसलों को शीत ऋतु में अक्तूबर से दिसंबर के मध्य बोया जाता है और ग्रीष्म ऋतु में अप्रैल से जून के मध्य काटा जाता है। गेहूँ, जौ, मटर, चना और सरसों कुछ मुख्य रबी फसलें हैं। यद्यपि ये फसलें देश के विस्तृत भाग में बोई जाती हैं उत्तर और उत्तरी पश्चिमी राज्य जैसे – पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू- कश्मीर, उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश – गेहूँ और अन्य रबी फसलों के उत्पादन के लिए महत्त्वपूर्ण राज्य हैं। शीत ऋतु में शीतोष्ण पश्चिमी विक्षोभों से होने वाली वर्षा इन फसलों के अधिक उत्पादन में सहायक होती है। पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान के कुछ भागों में हरित क्रांति की सफलता भी उपर्युक्त रबी फसलों की वृद्धि में एक महत्त्वपूर्ण कारक है।मुख्य फसलें
चित्र 4.4 (क) – चावल की कृषि
भारत – चावल का वितरण
चित्र 4.4 (ख) – मैदान में कटाई के लिए तैयार चावल की फसल
गेहूँ – गेहूँ भारत की दूसरी सबसे महत्त्वपूर्ण खाद्यान्न फसल है। जो देश के उत्तर और उत्तर-पश्चिमी भागों में पैदा की जाती है। रबी की फसल को उगाने के लिए शीत ऋतु और पकने के समय खिली धूप की आवश्यकता होती है। इसे उगाने के लिए समान रूप से वितरित 50 से 75 सेमी. वार्षिक वर्षा की आवश्यकता होती है। देश में गेहूँ उगाने वाले दो मुख्य क्षेत्र हैं – उत्तर-पश्चिम में गंगा-सतलुज का मैदान और दक्कन का काली मिट्टी वाला प्रदेश। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, और राजस्थान के कुछ भाग गेहूँ पैदा करने वाले मुख्य राज्य हैं।
भारत – गेहूँ का वितरण
चित्र 4.5 – गेहूँ की कृषि
मोटे अनाज (Millets) – ज्वार, बाजरा और रागी भारत में उगाए जाने वाले मुख्य मोटे अनाज हैं। यद्यपि इन्हे मोटा अनाज कहा जाता है परंतु इनमें पोषक तत्त्वों कीमात्रा अत्यधिक होती है। उदाहरणतया, रागी में प्रचुर मात्रा में लोहा, कैल्शियम, सूक्ष्म पोषक और भूसी मिलती है। क्षेत्रफल और उत्पादन की दृष्टि से ज्वार देश की तीसरी महत्त्वपूर्ण खाद्यान्न फसल है। यह फसल वर्षा पर निर्भर होती है। अधिकतर आर्द्र क्षेत्रों में उगाए जाने के कारण इसके लिए सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। इसके प्रमुख उत्पादक राज्य महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश हैं।
बाजरा – यह बलुआ और उथली काली मिटी्ट पर उगाया जाता है। राजस्थान, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात और हरियाणा इसके मुख्य उत्पादक राज्य हैं। रागीशुष्क प्रदेशों की फसल है और यह लाल, काली, बलुआ, दोमट और उथली काली मिटी्ट पर अच्छी तरह उगायी जाती है। रागी के प्रमुख उत्पादक राज्य कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, सिक्किम, झारखंड और अरुणाचल प्रदेश हैं।
मक्का – यह एक एेसी फसल है जो खाद्यान्न व चारा दोनों रूप में प्रयोग होती है। यह एक खरीफ फसल है जो 21º सेल्सियस से 27º सेल्सियस तापमान में और पुरानी जलोढ़ मिट्टी पर अच्छी प्रकार से उगायी जाती है। बिहार जैसे कुछ राज्यों में मक्का रबी की ऋतु में भी उगाई जाती है। आधुनिक प्रौद्योगिक निवेशों जैसे उच्च पैदावार देने वाले बीजों, उर्वरकों और सिंचाई के उपयोग से मक्का का उत्पादन बढ़ा है। कर्नाटक, मध्य प्रदेश उत्तर प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना मक्का के मुख्य उत्पादक राज्य हैं।
चित्र 4.6 – बाजरे की कृषि
चित्र 4.7 – मक्के की कृषि
दालें – भारत विश्व में दालों का सबसे बड़ा उत्पादक तथा उपभोक्ता देश है। शाकाहारी खाने में दालें सबसे अधिक प्रोटीन दायक होती हैं। तुर (अरहर), उड़द, मूँग, मसूर, मटर और चना भारत की मुख्य दलहनी फसले हैं। क्या आप बता सकते हैं कि इनमें से कौन-सी दालें खरीफ में और कौन-सी दालें रबी में उगाई जाती हैं? दालों को कम नमी की आवश्यकता होती है और इन्हें शुष्क परिस्थितियों में भी उगाया जा सकता है। फलीदार फसलें होने के नाते अरहर को छोड़कर अन्य सभी दालें वायु से नाइट्रोजन लेकर भूमि की उर्वरता को बनाए रखती हैं। अतः इन फसलों को आमतौर पर अन्य फसलों के आवर्तन (rotating) में बोया जाता है। भारत में मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, और कर्नाटक दाल के मुख्य उत्पादक राज्य हैं।
खाद्यान्नों के अलावा अन्य खाद्य फसलें
गन्ना – गन्ना एक उष्ण और उपोष्ण कटिबंधीय फसल है। यह फसल 21º सेल्सियस से 27º सेल्सियस तापमान और 75 सेमी. से 100 सेमी. वार्षिक वर्षा वाली उष्ण और आर्द्र जलवायु में बोई जाती है। कम वर्षा वाले प्रदेशों में सिंचाई की आवश्यकता होती है। इसे अनेक मिट्टियों में उगाया जा सकता है तथा इसके लिए बुआई से लेकर कटाई तक काफी शारीरिक श्रम की आवश्यकता होती है। ब्राजील के बाद भारत गन्ने का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। यह चीनी, गुड़, खांडसारी और शीरा बनाने के काम आता है। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाणा, बिहार, पंजाब और हरियाणा गन्ना के मुख्य उत्पादक राज्य हैं।
चित्र 4.8 – गन्ने की कृषि
तिलहन – 2016 में भारत विश्व में चीन के बाद दूसरा बड़ा तिलहन उत्पादक देश था। सन् 2016 में तोरिया के उत्पादन में भारत का विश्व में कनाडा और चीन के बाद तीसरा स्थान था। देश में कुल बोए गए क्षेत्र के 12 प्रतिशत भाग पर कई तिलहन की फसलें उगाई जाती हैं। मूँगफली, सरसों, नारियल, तिल, सोयाबीन, अरंडी, बिनौला, अलसी और सूरजमुखी भारत में उगाई जाने वाली मुख्य तिलहन फसलें हैं। इनमें से अधिकतर खाद्य हैं और खाना बनाने में प्रयोग किए जाते हैं। परंतु इनमें से कुछ तेल के बीजों को साबुन, प्रसाधन (शृृंगार का सामान) और उबटन उद्योग में कच्चे माल के रूप में भी प्रयोग किया जाता है।
मूँगफली खरीफ की फसल है तथा देश में मुख्य तिलहनों के कुल उत्पादन का आधा भाग इसी फसल से प्राप्त होता है। गुजरात मूँगफली का प्रमुख उत्पादक राज्य है। इसके अतिरिक्त राजस्थान और आंध्र प्रदेश मूँगफली के अन्य मुख्य उत्पादक राज्य हैं (2016-17)। अलसी और सरसों रबी की फसलें हैं। तिल उत्तरी भारत में खरीफ की फसल है और दक्षिणी भारत में रबी की। अरंडी, खरीफ और रबी दोनों ही फसल ऋतुओं में बोया जाता है।
चित्र 4.9 – मैदान में कटाई के लिए तैयार मूँगफली, सूरजमुखी और सरसों
चाय – चाय की खेती रोपण कृषि का एक उदाहरण है। यह एक महत्त्वपूर्ण पेय पदार्थ की फसल है जिसे शुरुआत में अंग्रेज़ भारत में लाए थे। आज अधिकतर चाय बागानों के मालिक भारतीय हैं। चाय का पौधा उष्ण और उपोष्ण कटिबंधीय जलवायु, ह्यूमस और जीवांश युक्त गहरी मिट्टी तथा सुगम जल निकास वाले ढलवाँ क्षेत्रों में भलीभाँति उगाया जाता है। चाय की झाड़ियों को उगाने के लिए वर्ष भर कोष्ण, नम और पालारहित जलवायु की आवश्यकता होती है। वर्ष भर समान रूप से होने वाली वर्षा की बौछारें इसकी कोमल पत्तियों के विकास में सहायक होती हैं। चाय एक श्रम-सघन उद्योग है। इसके लिए प्रचुर मात्रा में सस्ता और कुशल श्रम चाहिए। इसकी ताजगी बनाए रखने के लिए चाय की पत्तियाँ बागान में ही संसाधित की जाती हैं। चाय के मुख्य उत्पादक क्षेत्रों में असम, पश्चिमी बंगाल में दार्जिलिंग और जलपाईगुड़ी जिलों की पहाड़ियाँ, तमिलनाडु और केरल हैं। इनके अलावा हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, मेघालय, आंध्र प्रदेश और त्रिपुरा आदि राज्यों में भी चाय उगाई जाती है। सन् 2016 में भारत विश्व में चीन के बाद दूसरा बड़ा चाय उत्पादक देश था।
चित्र 4.10 – चाय की कृषि
चित्र 4.11 – चाय की पत्तियों को चुनतीं श्रमिक महिलाएँ
कॉ.फी – भारतीय कॉ.फी अपनी गुणवत्ता के लिए विश्वविख्यात है। हमारे देश में अरेबिका किस्म की कॉ.फी पैदा की जाती है जो आरम्भ में यमन से लाई गई थी। इस किस्म की कॉ.फी की विश्व भर में अधिक माँग है। इसकी कृषि की शुरुआत बाबा बूदन पहाड़ियों से हुई और आज भी इसकी खेती नीलगिरि की पहाड़ियों के आस पास कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु में की जाती है।
बागवानी फसलें – सन् 2016 में भारत का विश्व में फलों और सब्जियों के उत्पादन में चीन के बाद दूसरा स्थान था। भारत उष्ण और शीतोष्ण कटिबंधीय दोनों ही प्रकार के फलों का उत्पादक है। भारतीय फलों जिनमें महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाणा, उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बंगाल के आम, नागपुर और चेरापूँजी (मेघालय) के संतरे, केरल, मिजोरम, महाराष्ट्र, और तमिलनाडु के केले, उत्तर प्रदेश और बिहार की लीची, मेघालय के अनन्नास, आंध्र प्रदेश, तेलंगाणा और महाराष्ट्र के अंगूर तथा हिमाचल प्रदेश और जम्मू व कश्मीर के सेब, नाशपाती, खूबानी और अखरोट की विश्वभर में बहुत माँग है।
चित्र 4.12 – अखरोट, सेब और अनार
चित्र 4.13 – सब्जियों की कृषि - मटर, फूलगोभी, टमाटर और बैंगन
अखाद्य फसलें
रबड़ – रबड़ भूमध्यरेखीय क्षेत्र की फसल है परंतु विशेष परिस्थितियों में उष्ण और उपोष्ण क्षेत्रों में भी उगाई जाती है। इसको 200 सेमी. से अधिक वर्षा और 25°सेल्सियस से अधिक तापमान वाली नम और आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है।
उन वस्तुओं की सूची बनाइये जो रबड़ से बनती हैं और हम इनका प्रयोग करते हैं।
रबड़ एक महत्त्वपूर्ण कच्चा माल है जो उद्योगों में प्रयुक्त होता है। इसे मुख्य रूप से केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, अंडमान निकोबार द्वीप समूह और मेघालय में गारो पहाड़ियों में उगाया जाता है।
रेशेदार फसलें – कपास, जूट, सन और प्राकृतिक रेशम भारत में उगाई जाने वाली चार मुख्य रेशेदार फसलें हैं। इनमें से पहली तीन मिट्टी में फसल उगाने से प्राप्त होती हैं और चौथा रेशम के कीड़े के कोकून से प्राप्त होता है जो मलबरी पेड़ की हरी पत्तियों पर पलता है। रेशम उत्पादन के लिए रेशम के कीड़ों का पालन ‘रेशम उत्पादन’ (Sericulture) कहलाता है।
कपास – भारत को कपास के पौधे का मूल स्थान माना जाता है। सूती कपड़ा उद्योग में कपास एक मुख्य कच्चा माल है। कपास उत्पादन में भारत का विश्व में चीन के बाद दूसरा स्थान है (2016)। दक्कन पठार के शुष्कतर भागों में काली मिट्टी कपास उत्पादन के लिए उपयुक्त मानी जाती है। इस फसल को उगाने के लिए उच्चतापमान, हल्की वर्षा या सिंचाई, 210 पाला रहित दिन और खिली धूप की आवश्यकता होती है। यह खरीफ की फसल है और इसे पककर तैयार होने में 6 से 8महीने लगते हैं। महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाणा, तमिलनाडु, पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश कपास के मुख्य उत्पादक राज्य हैं।
चित्र 4.14 – कपास की कृषि
जूट – जूट को सुनहरा रेशा कहा जाता है। जूट की फसल बाढ़ के मैदानों में जलनिकास वाली उर्वरक मिट्टी में उगाई जाती है जहाँ हर वर्ष बाढ़ से आई नई मिट्टी जमा होती रहती है। इसके बढ़ने के समय उच्च तापमान की आवश्यकता होती है। पश्चिम बंगाल, बिहार, असम और ओडिशा तथा मेघालय जूट के मुख्य उत्पादक राज्य हैं। इसका प्रयोग बोरियाँ, चटाई, रस्सी, तंतु व धागे, गलीचे और दूसरी दस्तकारी की वस्तुएँ बनाने में किया जाता है। इसकी उच्च लागत के कारण और कृत्रिम रेशों और पैकिंग सामग्री, विशेषकर नाइलोन की कीमत कम होने के कारण, बाज़ार में इसकी माँग कम हो रही है।
प्रौद्योगिकीय और संस्थागत सुधार
जैसा कि पहले बताया गया है कि भारत में कृषि हजारों वर्षों से की जा रही है। परंतु प्रौद्योगिकी और संस्थागत परिवर्तन के अभाव में लगातार भूमि संसाधन के प्रयोग से कृषि का विकास अवरुद्ध हो जाता है तथा इसकी गति मंद हो जाती है। सिंचाई के साधनों का विकास होने के उपरांत भी देश के एक बहुत बड़े भाग में अभी भी किसान खेती-बाड़ी के लिए मानसून और भूमि की प्राकृतिक उर्वरता पर निर्भर हैं। बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण चुनौती है। 60 प्रतिशत से भी अधिक लोगों को आजीविका प्रदान करने वाली कृषि में कुछ गंभीर तकनीकी एवं संस्थागत सुधार लाने की आवश्यकता है। स्वतंत्रता के पश्चात् देश में संस्थागत सुधार करने के लिए जोतों की चकबंदी, सहकारिता तथा जमींदारी आदि समाप्त करने को प्राथमिकता दी गयी। प्रथम पंचवर्षीय योजना में भूमि सुधार मुख्य लक्ष्य था। भूमि पर पुश्तैनी अधिकार के कारण यह टुकड़ों में बँटती जा रही थी जिसकी चकबंदी करना अनिवार्य था।
चित्र 4.15 – कृषि में प्रयोग होने वाले नवीन तकनीकी उपकरण
भूमि सुधार के कानून तो बने परंतु इनके लागू करने में ढील की गई। 1960 और 1970 के दशकों में भारत सरकार ने कई प्रकार के कृषि सुधारों की शुरुआत की।पैकेज टेक्नोलॉजी पर आधारित हरित क्रांति तथा श्वेत क्रांति (अॉपरेशन फ्लड) जैसी कृषि सुधार के लिए कुछ रणनीतियाँ आरंभ की गई थी। परंतु इसके कारणविकास कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित रह गया। इसलिए 1980 तथा 1990 के दशकों में व्यापक भूमि विकास कार्यक्रम शुरू किया गया जो संस्थागत और तकनीकीसुधारों पर आधारित था। इस दिशा में उठाए गए कुछ महत्त्वपूर्ण कदमों में सूखा, बाढ़, चक्रवात, आग तथा बीमारी के लिए फसल बीमा के प्रावधान और किसानोंको कम दर पर ऋण सुविधाएँ प्रदान करने के लिए ग्रामीण बैंकों, सहकारी समितियों और बैंकों की स्थापना सम्मिलित थे।
किसानों के लाभ के लिए भारत सरकार ने ‘किसान क्रेडिट कार्ड और व्यक्तिगत दुर्घटना बीमा योजना (पीएआईएस) भी शुरू की है। इसके अलावा आकाशवाणी और दूरदर्शन पर किसानों के लिए मौसम की जानकारी के बुलेटिन और कृषि कार्यक्रम प्रसारित किए जाते हैं। किसानों को बिचौलियों और दलालों के शोषण से बचाने के लिए न्यूनतम सहायता मूल्य और कुछ महत्त्वपूर्ण फसलों के लाभदायक खरीद मूल्यों की सरकार घोषणा करती है।
भूदान-ग्रामदान
महात्मा गांधी ने विनोबा भावे, जिन्होंने उनके सत्याग्रह में सबसे निष्ठावान सत्याग्रही की तरह भाग लिया था, को अपना अध्यात्मिक उत्तराधिकारी घोषित किया था। उनकी गांधी जी के ग्राम स्वराज अवधारणा में भी गहरी आस्था थी। गांधी जी की शहादत के बाद उनके संदेश को लोगों तक पहुँचाने के लिए विनोबा भावे ने लगभग पूरे देश की पदयात्रा की। एक बार जब वे आंध्र प्रदेश के एक गाँव पोचमपल्ली में बोल रहे थे तो कुछ भूमिहीन गरीब ग्रामीणों ने उनसे अपने आर्थिक भरण-पोषण के लिए कुछ भूमि माँगी। विनोबा भावे ने उनसे तुरंत कोई वायदा तो नहीं किया परंतु उनको आश्वासन दिया कि यदि वे सहकारी खेती करें तो वे भारत सरकार से बात करके उनके लिए ज़मीन मुहैया करवाएँगे।
अचानक श्री राम चन्द्र रेडी्ड उठ खड़े हुए और उन्होंने 80 भूमिहीन ग्रामीणों को 80 एकड़ भूमि बाँटने की पेशकश की। इसे ‘भूदान’ के नाम से जाना गया। बाद में विनोबा भावे ने यात्राएँ की और अपना यह विचार पूरे भारत में फैलाया। कुछ जमींदारों ने, जो अनेक गाँवों के मालिक थे, भूमिहीनों को पूरा गाँव देने की पेशकश भी की। इसे ‘ग्रामदान’ कहा गया। परंतु कुछ जमींदारों ने तो भूमि सीमा कानून से बचने के लिए अपनी भूमि का एक हिस्सा दान किया था। विनोबा भावे द्वारा शुरू किए गए इस भूदान-ग्रामदान आंदोलन को ‘रक्तहीन क्रांति’ का भी नाम दिया गया।
कृषि की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था, रोज़गार और उत्पादन में योगदान
कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हडी्ड रही है। सकल घरेलू उत्पाद में कृषि के योगदान का अनुपात 1951 से लगातार घटने के उपरांत भी यह 2010-11 में देश की लगभग 52 प्रतिशत जनसंख्या के लिए रोजगार और आजीविका का साधन थी।
कृषि का सकल घरेलू उत्पाद में घटता अंश गंभीर चिंता का विषय है क्योंकि कृषि में किसी भी प्रकार की गिरावट और प्रगतिरोध अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों मेंगिरावट लाएँगे जो समाज के लिए व्यापक निहितार्थ हैं।
कृषि के महत्त्व को समझते हुए भारत सरकार ने इसके आधुनिकीकरण के लिए भरसक प्रयास किए हैं। भारतीय कृषि में सुधार के लिए भारतीय कृषि अनुसंधानपरिषद व कृषि विश्वविद्यालयों की स्थापना, पशु चिकित्सा सेवाएँ और पशु प्रजनन केंद्र की स्थापना, बागवानी विकास, मौसम विज्ञान और मौसम के पूर्वानुमान के क्षेत्र में अनुसंधान और विकास को वरीयता दी गई।
ज्ञात करें कि भारतीय किसान अपने बेटे को किसान क्यों नहीं बनाना चाहता?
तालिका 4.1 से स्पष्ट होता है कि पिछले वर्षों में सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि हुई है परंतु इससे देश में पर्याप्त मात्रा में रोज़गार के अवसर उपलब्ध नहीं हो रहे हैं।कृषि में विकास दर कम हो रही है जो कि एक चिंताजनक स्थिति है। वर्तमान में भारतीय किसान को अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा से एक बड़ी चुनौती का सामना कृषि सेक्टर में विशेष रूप से करना पड़ रहा है। रासायनिक उर्वरकों पर सहायिकी कम करने से उत्पादन लागत बढ़ रही है। इसके अतिरिक्त कृषि उत्पादों पर आयातकर घटाने से भी देश में कृषि पर हानिकारक प्रभाव पड़ा है। किसान कृषि में पूँजी निवेश कम कर रहे हैं जिसके कारण कृषि में रोज़गार घट रहे हैं
तालिका 4.1 – भारत : सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि (प्रतिशत में)
किसान अनेक समस्याओं से जूझ रहे हैं और कृषि भूमि घट रही है तो क्या हम रोज़गार के वैकल्पिक अवसरों के बारे में सोच सकते हैं?
देश के अनेक राज्यों में किसान आत्महत्याएँ क्यों कर रहे हैं?
वैश्वीकरण का कृषि पर प्रभाव
वैश्वीकरण कोई नई घटना नहीं है। उपनिवेश काल में भी यही स्थिति मौजूद थी। उन्नीसवीं शताब्दी में जब यूरोपीय व्यापारी भारत आए तो उस समय भी भारतीय मसाले विश्व के विभिन्न देशों में निर्यात किए जाते थे और दक्षिण भारत में किसानों को इन फसलों को उगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। आज भी गर्म मसाले भारत से निर्यात किए जाने वाली मुख्य वस्तुओं में शामिल हैं।
भारत की खाद्य सुरक्षा, इसकी आवश्यकता और प्रयास विषय पर वाद-विवाद प्रतियोगिता आयोजित कीजिए।
ब्रिटिश काल में अंग्रेज व्यापारी भारत के कपास क्षेत्र की ओर आकर्षित हुए और भारतीय कपास को ब्रिटेन में सूती वस्त्र उद्योग के लिए कच्चे माल के रूप में निर्यात किया गया। मैनचेस्टर और लिवरपूल में सूती वस्त्र उद्योग भारत में पैदा होने वाली उत्तम किस्म की कपास की उपलब्धता पर फली-फूली। आपने 1917 में बिहार में हुए चम्पारन आंदोलन के बारे में पढ़ा होगा। इसकी शुरुआत इसलिए हुई कि इस क्षेत्र के किसानों पर नील की खेती करने के लिए दबाव डाला गया था। नील ब्रिटेन के सूती वस्त्र उद्योग के लिए कच्चा माल था। ये किसान इसलिए भड़के क्योंकि उन्हें अपने उपभोग के लिए अनाज उगाने से मना कर दिया गया था।
चित्र 4.16 – सागौन के क्लोन का ऊतक संवर्धन
1990 के बाद, वैश्वीकरण के तहत् भारतीय किसानों को कई नई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। चावल, कपास, रबड़, चाय, कॉफी, जूट और मसालों का मुख्य उत्पादक होने के बावजूद भारतीय कृषि विश्व के विकसित देशों से स्पर्धा करने में असमर्थ है क्योंकि उन देशों में कृषि को अत्यधिक सहायिकी दी जाती है।
आज भारतीय कृषि दोराहे पर है। भारतीय कृषि को सक्षम और लाभदायक बनाना है तो सीमांत और छोटे किसानों की स्थिति सुधारने पर जोर देना होगा। हरित क्रांति ने लंबा-चौड़ा वायदा किया परंतु आज यह कई विवादों से घिरी है। यह आरोप लगाया जाता रहा है कि हरित क्रांति के दौरान रसायनों के अधिक प्रयोग, जलभृतों के सूखने और जैव विविधता विलुप्त होने के कारण भूमि का निम्नीकरण हुआ है। आज ‘जीन क्रांति’ संकेत शब्द है। जिसमें जननिक इंजीनियरी सम्मिलित है।
जननिक इंजीनियरी बीजों की नई संकर किस्मों का आविष्कार करने में शक्तिशाली पूरक के रूप में जानी जाती है।
अनाज के स्थान पर ऊँचे मूल्य की फसलों को उगाकर शस्य प्रारूप में परिवर्तन का अर्थ होगा कि भारत को खाद्य पदार्थों का आयात करना पड़ेगा। 1960 के दशक में इसे एक आपदा के रूप में देखा गया होता। परंतु यदि हम कीमती फसलों के उत्पाद निर्यात करके खाद्यान्न आयात करते हैं तो हम भी चिली, इजराइल और इटली की अर्थव्यवस्थाओं का अनुकरण करेंगे जो विभिन्न कृषि उत्पाद (फल, शराब, जैतून विशेषकर बीज) निर्यात करके खाद्य पदार्थ आयात करते हैं। क्या हम यह खतरामोल लेने को तैयार हैं? इस विषय पर वाद-विवाद कीजिए।
चित्र 4.17 – विकसित एवं विकासशील देशों में कीटनाशकों के
भारी उपयोग से संबंधित समस्याएँ सामने आ रही हैं
क्या आप भारत में व्यापक रूप से प्रयुक्त जीन संशोधित बीज का नाम बता सकते हैं?
वास्तव में कार्बनिक (organic) कृषि का आज अधिक प्रचलन है क्योंकि यह उर्वरकों तथा कीटनाशकों जैसे - कारखानों में निर्मित रसायनों के बिना की जाती है। इसलिए पर्यावरण पर इसका नकारात्क प्रभाव नहीं पड़ता।
अभ्यास
1. बहुवैकल्पिक प्रश्न
(i) निम्नलिखित में से कौन-सा उस कृषि प्रणाली को दर्शाता है जिसमें एक ही फसल लंबे-चौड़े क्षेत्र में उगाई जाती है?
(क) स्थानांतरी कृषि (ग) बागवानी
(ख) रोपण कृषि (घ) गहन कृषि
(ii) इनमें से कौन-सी रबी फसल है?
(क) चावल (ग) चना
(ख) मोटे अनाज (घ) कपास
(iii) इनमें से कौन-सी एक फलीदार फसल है?
(क) दालें (ग) ज्वार तिल
(ख) मोटे अनाज (घ) तिल
2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए।
(i) एक पेय फसल का नाम बताएँ तथा उसको उगाने के लिए अनुकूल भौगोलिक परिस्थितियों का विवरण दें।
(ii) भारत की एक खाद्य फसल का नाम बताएँ और जहाँ यह पैदा की जाती है उन क्षेत्रों का विवरण दें।
(iii) सरकार द्वारा किसानों के हित में किए गए संस्थागत सुधार कार्यक्रमों की सूची बनाएँ।
(iv) दिन-प्रतिदिन कृषि के अंतर्गत भूमि कम हो रही है। क्या आप इसके परिणामों की कल्पना कर सकते हैं?
3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 120 शब्दों में दीजिए।
(i) कृषि उत्पादन में वृद्धि सुनिश्चित करने के लिए सरकार द्वारा किए गए उपाय सुझाइए।
(ii) भारतीय कृषि पर वैश्वीकरण के प्रभाव पर टिप्पणी लिखें।
(iii) चावल की खेती के लिए उपयुक्त भौगोलिक परिस्थितियों का वर्णन करें।
परियोजना कार्य
1. किसानों की साक्षरता विषय पर एक सामूहिक वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन करें।
2. भारत के मानचित्र में गेहूँ उत्पादन क्षेत्र दर्शाइए।
क्रियाकलाप
ऊपर-नीचे और दायें-बायें चलते हुए वर्ग पहेली को सुलझाएँ और छिपे उत्तर ढूँढ़ें।
नोट : पहेली के उत्तर अंग्रेज़ी के शब्दों में हैं।
(i) भारत की दो खाद्य फसलें।
(ii) यह भारत की ग्रीष्म फसल ऋतु है।
(iii) अरहर, मूँग, चना, उड़द जैसी दालों से... मिलता है।
(iv) यह एक मोटा अनाज है।
(v) भारत की दो महत्त्वपूर्ण पेय फसल हैं...
(vi) काली मिट्टी पर उगाई जाने वाली चार रेशेदार फसलों में से एक।