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शिक्षक के लिए निर्देश
अध्याय 2– भारतीय अर्थव्यवस्था के क्षेत्रक
किसी अर्थव्यवस्था को हम उत्तम ढंग से तभी समझ सकते हैं, जब इसके घटकों या क्षेत्रों का अध्ययन करते हैं। क्षेत्रक वर्गीकरण अनेक मानदंडों के आधार पर किया जा सकता है। इस अध्याय में तीन प्रकार के वर्गीकरणों की चर्चा की गई है– प्राथमिक/द्वितीयक/ तृतीयक; संगठित/असंगठित और सार्वजनिक/निजी। आप दैनिक जीवन में छात्रों से परिचित उदाहरणों के द्वारा इन वर्गीकृत क्षेत्रों के बारे में चर्चा कर सकते हैं। क्षेत्रकों की बदलती भूमिका पर विशेष बल देना आवश्यक है। सेवा क्षेत्रक की तीव्र संवृद्धि की ओर छात्रों का ध्यान आकर्षित करते हुए पुनः इन पर प्रकाश डाला जा सकता है। इस अध्याय में प्रस्तुत धारणाओं की विस्तार से व्याख्या करते समय छात्रों को कुछ मौलिक अवधारणाओं जैसे – राष्ट्रीय आय, रोज़गार इत्यादि से अवगत कराने की ज़रूरत पड़ सकती है। चूँकि छात्रों को इसे समझने में कठिनाई हो सकती है, इसलिए उदाहरण के द्वारा इन्हें स्पष्ट करना आवश्यक है। छात्रों को समझने में सहायक अनेक क्रियाकलाप और अभ्यास इस अध्याय में दिए गए हैं – किसी व्यक्ति के कार्य को कैसे प्राथमिक, द्वितीयक या तृतीयक, संगठित या असंगठित और सार्वजनिक या निजी क्षेत्रक में रखा जा सकता है। आप छात्रों को उनके आसपास के कामकाजी लोगों (दुकान के मालिक, अनियत श्रमिक, सब्जी विक्रेता, कार्यशाला मैकेनिक, घरेलू नौकर इत्यादि) से बात करने के लिए, कि वे कैसे रहते और काम करते हैं तथा और अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए, प्रोत्साहित कर सकते हैं। इन जानकारियों के आधार पर आर्थिक गतिविधियों का स्वयं वर्गीकरण करने के लिए छात्रों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
क्षेत्रकों की भूमिका में परिवर्तन से होने वाली समस्याएँ एक अन्य महत्त्वपूर्ण मुद्दा है, जिस पर प्रकाश डालने की ज़रूरत है। इस अध्याय में बेरोजगारी और उसके निराकरण के लिए सरकार क्या कर सकती है, इसके उदाहरण दिए गए हैं। कृषि के घटते महत्त्व और उद्योगों एवं सेवाओं के बढ़ते महत्त्व को, छात्रों के दैनिक जीवन के अनुभवों से लिए गए अधिकाधिक उदाहरणों से जोड़ा जाना चाहिए। इसके लिए संचार माध्यमों द्वारा प्राप्त सूचनाओं का इस्तेमाल किया जा सकता है। आप छात्रों को अखबारों की महत्त्वपूर्ण कतरनों और विवरणों को लाने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं, जिन्हें कथापटलों पर प्रदर्शित किया जा सके और इन पर चर्चा की जा सके। असंगठित क्षेत्रक पर चर्चा करते समय कार्यरत श्रमिकों के संरक्षण जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर विशेष बल दिया जाना चाहिए। आप छात्रों को असंगठित क्षेत्रक के लोगों तथा उद्यमों के पास जाकर उनकी वास्तविक जीवन-परिस्थितियों का साक्षात् अनुभव प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं।
सूचना के स्रोत
इस अध्याय में सकल घरेलू उत्पाद (स.घ.उ.) के आँकड़े औद्योगिक उत्पादन लागत पर सकल घरेलू उत्पाद से संबंधित वर्ष 2011-12 के मूल्य के आधार पर भारतीय अर्थव्यवस्था पर सांख्यिकी की वास्तविक समय पुस्तिका से लिए गए हैं। यह स.घ.उ. एवं भारतीय अर्थव्यवस्था से संबंधित अन्य जानकारियों के लिए महत्त्वपूर्ण स्रोत है। मूल्यांकन के लिए, विशेषकर पाठकों की विश्लेषण क्षमता का विकास करने के उद्देश्य से शिक्षक इस रिपोर्ट का इंटरनेट के माध्यम से भिन्न वर्षों के आँकड़े प्राप्त करने के लिए उल्लेख कर सकते हैं।
रोजगार आँकड़े राष्ट्रीय सांख्यिकीय कार्यालय द्वारा रोजगार और बेरोजगारी पर किए गए पाँचवर्षीय सर्वेक्षणों के आँकड़ों पर आधारित है। रा.प्र.सं., भारत सरकार के सांख्यिकी, योजना एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के अन्तर्गत एक संगठन है। इसकी वेबसाइटः http:/mospi.gov.in को आप देख सकते हैं। रोजगार-आँकड़े अन्य स्रोतों जैसे भारत की जनगणना में भी उपलब्ध है।
अध्याय 2
भारतीय अर्थव्यवस्था के क्षेत्रक
आर्थिक कार्यों के क्षेत्रक
निम्न चित्रों को देखें। आप लोगों को विभिन्न आर्थिक गतिविधियों में कार्यरत पाएँगे। इनमें से कुछ गतिविधियाँ वस्तुओं का उत्पादन करती हैं। कुछ अन्य सेवाओं का सृजन करती हैं। ये गतिविधियाँ हमारे चारों ओर हर समय सम्पादित होती हैं, यहाँ तक कि हमारे बोलने में भी। हम इन गतिविधियों को कैसे समझ सकते हैं? इन्हें समझने का एक तरीका यह है कि कुछ महत्त्वपूर्ण मानदंडों के आधार पर इन्हें विभिन्न समूहों में वर्गीकृत कर दिया जाए। इन समूहों को क्षेत्रक भी कहते हैं। उद्देश्य और किसी महत्त्वपूर्ण मानदंड के आधार पर इन्हें अनेक तरीकों से वर्गीकृत किया जा सकता है।
प्राकृतिक संसाधनों के प्रत्यक्ष उपयोग पर आधारित अनेक गतिविधियाँ हैं। जैसे-कपास की खेती। यह एक मौसमी फसल है। कपास के पौधों की वृद्धि के लिए हम मुख्यतः, न कि पूर्णतया, प्राकृतिक कारकों जैसे-वर्षा, सूर्य का प्रकाश और जलवायु पर निर्भर हैं। अतः कपास एक प्राकृतिक उत्पाद है। इसी प्रकार, डेयरी उत्पादन में हम पशुओं की जैविक प्रक्रिया एवं चारा आदि की उपलब्धता पर निर्भर होते हैं। अतः इसका उत्पाद दूध भी एक प्राकृतिक उत्पाद है। इसी प्रकार, खनिज और अयस्क भी प्राकृतिक उत्पाद है। जब हम प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करके किसी वस्तु का उत्पादन करते हैं, तो इसे प्राथमिक क्षेत्रक की गतिविधि कहा जाता है। प्राथमिक क्यों? क्योंकि यह उन सभी उत्पादों का आधार है, जिन्हें हम क्रमशः निर्मित करते हैं। चूँकि हम अधिकांश प्राकृतिक उत्पाद कृषि, डेयरी, मत्स्यन और वनों से प्राप्त करते हैं, इसलिए इस क्षेत्रक को कृषि एवं सहायक क्षेत्रक भी कहा जाता है।
द्वितीयक क्षेत्रक की गतिविधियों के अन्तर्गत प्राकृतिक उत्पादों को विनिर्माण प्रणाली के जरिए अन्य रूपों में परिवर्तित किया जाता है। यह प्राथमिक क्षेत्रक के बाद अगला कदम है। यहाँ वस्तुएँ सीधे प्रकृति से उत्पादित नहीं होती हैं, बल्कि निर्मित की जाती हैं। इसलिए विनिर्माण की प्रक्रिया अपरिहार्य है। यह प्रक्रिया किसी कारखाना, किसी कार्यशाला या घर में हो सकती है। जैसे, कपास के पौधे से प्राप्त रेशे का उपयोग कर हम सूत कातते और कपड़ा बुनते हैं। गन्ने को कच्चे माल के रूप में उपयोग कर हम चीनी और गुड़ तैयार करते हैं। हम मिट्टी से ईंट बनाते हैं और ईंटों से घर और भवनों का निर्माण करते हैं। चूँकि यह क्षेत्रक क्रमशः संवर्धित विभिन्न प्रकार के उद्योगों से जुड़ा हुआ है, इसलिए इसे औद्योगिक क्षेत्रक भी कहा जाता है।
प्राथमिक और द्वितीयक क्षेत्रक के अतिरिक्त आर्थिक गतिविधियों की एक तीसरी कोटि भी है जो तृतीयक क्षेत्रक के अन्तर्गत आती हैं और उपर्युक्त दो क्षेत्रकों से भिन्न है। ये गतिविधियाँ प्राथमिक और द्वितीयक क्षेत्रक के विकास में मदद करती हैं। ये गतिविधियाँ स्वतः वस्तुओं का उत्पादन नहीं करती हैं, बल्कि उत्पादन-प्रक्रिया में सहयोग या मदद करती हैं। जैसे – प्राथमिक और द्वितीयक क्षेत्रक द्वारा उत्पादित वस्तुओं को थोक एवं खुदरा विक्रेताओं को बेचने के लिए ट्रकों और ट्रेनों द्वारा परिवहन करने की ज़रूरत पड़ती है। कभी-कभी वस्तुओं को गोदामों में भण्डारित करने की आवश्यकता होती है। हमें उत्पादन और व्यापार में सहूलियत के लिए टेलीफोन पर दूसरों से वार्त्तालाप करने या पत्राचार (संवाद) या बैंकों से कर्ज लेने की भी आवश्यकता होती है। परिवहन, भण्डारण, संचार, बैंक सेवाएँ और व्यापार तृतीयक गतिविधियों के कुछ उदाहरण हैं। चूँकि ये गतिविधियाँ वस्तुओं के बजाय सेवाओं का सृजन करती हैं, इसलिए तृतीयक क्षेत्रक को सेवा क्षेत्रक भी कहा जाता है।
सेवा क्षेत्रक में कुछ एेसी अपरिहार्य सेवाएँ भी हैं, जो प्रत्यक्ष रूप से वस्तुओं के उत्पादन में सहायता नहीं करती हैं। जैसे, हमें शिक्षकों, डॉक्टरों, धोबी, नाई, मोची एवं वकील जैसे व्यक्तिगत सेवाएँ उपलब्ध कराने वाले और प्रशासनिक एवं लेखाकरण कार्य करने वाले लोगों की आवश्यकता होती है। वर्त्तमान समय में सूचना प्रौद्योगिकी पर आधारित कुछ नवीन सेवाएँ जैसे, इंटरनेट कैफे, ए.टी.एम. बूथ, कॉल सेंटर, सॉफ्टवेयर कम्पनी इत्यादि भी महत्त्वपूर्ण हो गई हैं।
यद्यपि आर्थिक गतिविधियाँ तीन विभिन्न वर्गों में विभाजित हैं, फिर भी ये बहुत अधिक परस्पर-निर्भर हैं। हम कुछ उदाहरण दे रहे हैं।
तालिका 2.1 आर्थिक गतिविधियों के उदाहरण
आओ-इन पर विचार करें
1. विभिन्न क्षेत्रकों की परस्पर-निर्भरता दिखाते हुए उपर्युक्त सारणी को भरें।
2. पुस्तक में वर्णित उदाहरणों से भिन्न उदाहरणों के आधार पर प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रकों के अंतर की व्याख्या करें।
3. निम्नलिखित व्यवसायों को प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रकों में विभाजित करेंः
• दर्जी
• टोकरी बुनकर
• फूल की खेती करने वाला
• दूध-विक्रेता
• मछुआरा
• पुजारी
• कूरियर पहुँचाने वाला
• दियासलाई कारखाना में श्रमिक
• महाजन
• माली
• कुम्हार
• मधुमक्खी पालक
• अंतरिक्ष - यात्री
• कॉल सेंटर का कर्मचारी
4. विद्यालय में छात्रों को प्रायः प्राथमिक और द्वितीयक अथवा वरिष्ठ और कनिष्ठ वर्गों में विभाजित किया जाता है। इस विभाजन की कसौटी क्या है? क्या आप मानते हैं कि यह विभाजन उपयुक्त है? चर्चा करें।
तीन क्षेत्रकों की तुलना
प्राथमिक, द्वितीयक एवं तृतीयक क्षेत्रक के विविध उत्पादन कार्यों से काफी अधिक मात्रा में वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन होता है। साथ ही, इन क्षेत्रकों में काफी अधिक संख्या में लोग वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन के लिए काम करते हैं। इसलिए, अगले चरण में यह देखना है कि प्रत्येक क्षेत्रक में कितनी वस्तुएँ और सेवाएँ उत्पादित होती हैं और कितने लोग उस क्षेत्रक में काम करते हैं। किसी अर्थव्यवस्था में कुल उत्पादन और रोजगार की दृष्टि से एक या अधिक क्षेत्रक प्रधान होते हैं, जबकि अन्य क्षेत्रक अपेक्षाकृत छोटे आकार के होते हैं।
प्रत्येक क्षेत्रक की विविध वस्तुओं और सेवाओं की हम गणना कैसे करते हैं और कुल उत्पादन को कैसे जानते हैं?
आप सोचते होंगे कि हज़ारों की संख्या में उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं की गणना करना असंभव कार्य है। यह न केवल वृहद् कार्य है, बल्कि आप आश्चर्यचकित भी होंगे कि हम कारों और कम्प्यूटरों, कीलों और फर्नीचरों की संख्या का योगफल कैसे कर सकते हैं। यह अत्यंत बेतुकी बात है।
आप बिल्कुल सही सोचते हैं। इस समस्या के समाधान के लिए अर्थशास्त्रियों का सुझाव है कि वस्तुओं और सेवाओं की वास्तविक संख्याओं का योग करने के स्थान पर उनके मूल्य का उपयोग किया जाना चाहिए। जैसे, यदि 10, 000 कि.ग्रा. गेहूँ 8 रु. प्रति कि.ग्रा. की दर से बेचा जाता है तो, गेहूँ का मूल्य 80, 000 रु. होगा। 10 रु. प्रति नारियल की दर से 5000 नारियल का मूल्य 50, 000 रु. होगा। इसी प्रकार, तीनों क्षेत्रकों के वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य की गणना की जाती है और उसके बाद योगफल प्राप्त करते हैं।
ध्यान रखें कि यहाँ एक सावधानी बरतने की ज़रूरत है। उत्पादित और बेची गई प्रत्येक वस्तु (या सेवा) की गणना करने की ज़रूरत नहीं है। केवल अंतिम वस्तुओं और सेवाओं की गणना का ही औचित्य है। जैसे, एक किसान किसी आटा-मिल को 8 रु. प्रति कि.ग्रा. की दर से गेहूँ बेचता है। मिल में गेहूँ की पिसाई होती है और बिस्कुट कंपनी को आटा 10 रु. प्रति कि.ग्रा. की दर से बेचा जाता है। बिस्कुट कंपनी आटा के साथ चीनी एवं तेल जैसी चीज़ों का उपयोग करती है और बिस्कुट के चार पैकेट बनाती है। वह बाजार में उपभोक्ताओं को 60 रु. में (15 रु. प्रति पैकेट) बिस्कुट बेचती है। अतः बिस्कुट ही अंतिम उत्पाद है, अर्थात् वह वस्तु जो उपभोक्ताओं तक पहुँचती है।
केवल ‘अंतिम वस्तुओं और सेवाओं’ की ही गणना क्यों की जाती है? दिए गए उदाहरण में अंतिम वस्तु के विपरीत गेहूँ और आटा जैसी वस्तुएँ मध्यवर्ती वस्तुएँ हैं। मध्यवर्ती वस्तुएँ, अंतिम वस्तुओं और सेवाओं के निर्माण में इस्तेमाल की जाती हैं। अंतिम वस्तुओं के मूल्य में मध्यवर्ती वस्तुओं का मूल्य पहले से ही शामिल होता है। बिस्कुट (अंतिम वस्तु) के मूल्य 60 रु. में पहले से ही आटा का मूल्य (10 रु.) शामिल है। इसी प्रकार अन्य सभी मध्यवर्ती वस्तुओं का मूल्य भी शामिल होगा। अतः गेहूँ और आटा के मूल्य की अलग-अलग गणना उचित नहीं है, क्योंकि तब हम एक ही वस्तु के मूल्य की गणना कई बार करते हैं। पहले गेहूँ के रूप में, फिर आटा के रूप में और अंततः अंतिम वस्तु बिस्कुट के रूप में मूल्य की कई बार गणना करते हैं।
किसी विशेष वर्ष में प्रत्येक क्षेत्रक द्वारा उत्पादित अंतिम वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य, उस वर्ष में क्षेत्रक के कुल उत्पादन की जानकारी प्रदान करता है। तीनों क्षेत्रकों के उत्पादनों के योगफल को देश का सकल घरेलू उत्पाद (स. घ. उ.) कहते हैं। यह किसी देश के भीतर किसी विशेष वर्ष में उत्पादित सभी अंतिम वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य है।
स. घ. उ. अर्थव्यवस्था की विशालता प्रदर्शित करता है।
भारत में स. घ. उ. मापन जैसा कठिन कार्य केन्द्र सरकार के मंत्रालय द्वारा किया जाता है। यह मंत्रालय राज्यों एवं केन्द्र शासित क्षेत्रों के विभिन्न सरकारी विभागों की सहायता से वस्तुओं और सेवाओं की कुल संख्या और उनके मूल्य से संबंधित सूचनाएँ एकत्र करता है और तब जी. डी. पी. का अनुमान करता है।
क्षेत्रकों में एेतिहासिक परिवर्तन
सामान्यतया, अधिकांश विकसित देशों के इतिहास में यह देखा गया है कि विकास की प्रारम्भिक अवस्थाओं में प्राथमिक क्षेत्रक ही आर्थिक सक्रियता का सबसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रक रहा है।
जैसे-जैसे कृषि-प्रणाली परिवर्तित होती गई और कृषि क्षेत्रक समृद्ध होता गया, वैसे-वैसे पहले की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक उत्पादन होने लगा। अब अनेक लोग दूसरे कार्य करने लगे। शिल्पियों और व्यापारियों की संख्या में वृद्धि होने लगी। क्रय-विक्रय की गतिविधियाँ कई गुना बढ़ गई। इसके अतिरिक्त अनेक लोग परिवहन, प्रशासक और सैनिक कार्य इत्यादि से जुड़े थे। फिर भी, इस अवस्था में अधिकांश उत्पादित वस्तुएँ प्राकृतिक उत्पाद थी, जो प्राथमिक क्षेत्रक में आती थीं और अधिकांश लोग इसी क्षेत्रक में रोजगार करते थे।
लम्बे समय (सौ वर्षों से अधिक) के बाद और विशेषकर विनिर्माण की नवीन प्रणाली के प्रचलन से कारखाने अस्तित्व में आए और उनका प्रसार होने लगा। जो लोग पहले खेतों में काम करते थे, उनमें से बहुत अधिक लोग अब कारखानों में काम करने लगे। उन्हें कारखानों में काम करने के लिए मजबूर किया गया, जैसा कि आपने इतिहास में पढ़ा है। कारखानों में सस्ती दरों पर उत्पादित वस्तुओं का लोग इस्तेमाल करने लगे। कुल उत्पादन एवं रोजगार की दृष्टि से द्वितीयक क्षेत्रक सबसे महत्त्वपूर्ण हो गया। इस कारण अतिरिक्त समय में भी काम होने लगा। इसका अर्थ है कि क्षेत्रकों का महत्त्व परिवर्तित हो गया।
विगत 100 वर्षों में, विकसित देशों में द्वितीयक क्षेत्रक से तृतीयक क्षेत्रक की ओर पुनः बदलाव हुआ है। कुल उत्पादन की दृष्टि से सेवा क्षेत्रक का महत्त्व बढ़ गया। अधिकांश श्रमजीवी लोग सेवा क्षेत्रक में ही नियोजित हैं। विकसित देशों में यही सामान्य लक्षण देखा गया है।
भारत में तीनों क्षेत्रकों का कुल उत्पादन और रोजगार कितना है? विगत वर्षों में विकसित देशों में देखे गए पैटर्न के समरूप क्या भारत में भी परिवर्तन हुआ है। हम इसे अगले खंड में देखेंगे।
आओ-इन पर विचार करें
1. विकसित देशों का इतिहास क्षेत्रकों में हुए परिवर्तन के संबंध में क्या संकेत करता है?
2. अव्यवस्थित वाक्यांश से स. घ. उ. गणना हेतु महत्त्वपूर्ण पहलुओं को व्यवस्थित एवं सही करें।
उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं की गणना करने के लिए हम उनकी संख्याओं को जोड़ देते हैं। हम विगत पाँच वर्षों में उत्पादित सभी वस्तुओं की गणना करते हैं। चूँकि हमें किसी चीज़ को छोड़ना नहीं चाहिए इसलिए हम इन वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य का योगफल प्राप्त करते हैं।
3. अपने शिक्षक के साथ चर्चा करें कि आप मूल्य की विधि का उपयोग करके प्रत्येक चरण में जोड़े गए वस्तु या सेव के मूल्य की गणना कैसे करेंगे।
भारत में प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रक
आलेख 1 - तीनों क्षेत्रकों द्वारा उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं को दिखाता है। यह दो वर्षों 1973-74 और 2013-14 के उत्पादन को दिखाता है। हमने इन दो वर्षों के लिए आंकड़ों का उपयोग किया है। क्योंकि यह आंकड़े तुलनीय और प्रामाणिक हैं। आप देख सकते हैं कि चालीस वर्षों में कुल उत्पादन में कितनी संवृद्धि हुई है।
आओ-इन पर विचार करें
आरेख का अवलोकन करते हुए निम्नलिखित का उत्तर दें–
1. 1973-74 में सबसे बड़ा उत्पादक क्षेत्रक कौन था?
2. 2013-14 में सबसे बड़ा उत्पादक क्षेत्रक कौन था?
3. क्या आप बता सकते हैं कि तीस वर्षों में किस क्षेत्रक में सबसे अधिक संवृद्धि हुई?
4. 2013-14 में भारत का जी. डी. पी. क्या है?
सन् 1973-74 और 2013-14 के बीच तुलना क्या प्रदर्शित करती है? इससे आप क्या निष्कर्ष निकाल सकते हैं? विचार करें।
उत्पादन में तृतीयक क्षेत्रक का बढ़ता महत्त्व
वर्ष 1973-74 और 2013-14 के बीच चालीस वर्षों में यद्यपि सभी क्षेत्रकों में उत्पादन में वृद्धि हुई, परन्तु सबसे अधिक वृद्धि तृतीयक क्षेत्रक के उत्पादन में हुई। परिणामतः वर्ष 2013-14 में भारत में प्राथमिक क्षेत्रक को प्रतिस्थापित करते हुए तृतीयक क्षेत्रक सबसे बड़े उत्पादक क्षेत्रक के रूप में उभरा।
आलेख 1 – प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रक द्वारा स. घ. उ.
*स्रोत-2013-14 नवीनतम वर्ष है, जिसके लिए तुलनीय आँकड़ा उपलब्ध है।
भारत में तृतीयक क्षेत्रक इतना महत्त्वपूर्ण क्यों हो गया? इसके कई कारण हो सकते हैं।
प्रथम, किसी भी देश में अनेक सेवाओं, जैसे- अस्पताल, शैक्षिक संस्थाएँ, डाक एवं तार सेवा, थाना, कचहरी, ग्रामीण प्रशासनिक कार्यालय, नगर निगम, रक्षा, परिवहन, बैंक, बीमा कंपनी इत्यादि की आवश्यकता होती है। इन्हें बुनियादी सेवाएँ माना जाता है। किसी विकासशील देश में इन सेवाओं के प्रबंधन की जिम्मेदारी सरकार उठाती है।
द्वितीय, कृषि एवं उद्योग के विकास से परिवहन, व्यापार, भण्डारण जैसी सेवाओं का विकास होता है। प्राथमिक और द्वितीयक क्षेत्रक का विकास जितना अधिक होगा, एेसी सेवाओं की माँग उतनी ही अधिक होगी।
तृतीय, जैसे-जैसे आय बढ़ती है, कुछ लोग अन्य कई सेवाओं जैसे – रेस्तरां, पर्यटन, शॉपिंग, निजी अस्पताल, निजी विद्यालय, व्यावसायिक प्रशिक्षण इत्यादि की माँग शुरू कर देते हैं। आप नगरों में, विशेषकर बड़े नगरों में इस द्रुत परिवर्तन को देख सकते हैं।
चतुर्थ, विगत दशकों में सूचना और संचार प्रौद्योगिकी पर आधारित कुछ नवीन सेवाएँ महत्त्वपूर्ण एवं अपरिहार्य हो गई हैं। इन सेवाओं के उत्पादन में तीव्र वृद्धि हो रही है। अध्याय-4 में हम इन नवीन सेवाओं और इनके प्रसार के कारणों की चर्चा करेंगे।
अंततः, आपको याद रखना चाहिए कि सेवा क्षेत्रक की सभी सेवाओं में समान रूप से संवृद्धि नहीं हो रही है। भारत में सेवा क्षेत्रक कई तरह के लोगों को नियोजित करते हैं। एक ओर, उन सेवाओं की संख्या सीमित है, जिसमें अत्यन्त कुशल और शिक्षित श्रमिकों को रोजगार मिलता है। दूसरी ओर, बहुत अधिक संख्या में लोग छोटी दुकानों, मरम्मत कार्यों, परिवहन जैसी सेवाओं में लगे हुए हैं। वे लोग बड़ी मुश्किल से जीविका निर्वाह कर पाते हैं और वे इन सेवाओं में इसलिए लगे हुए हैं क्योंकि उनके पास कोई अन्य वैकल्पिक अवसर नहीं है। इस कारण सेवा क्षेत्रक के केवल कुछ भागों का ही महत्त्व बढ़ रहा है। आप इनके बारे में अगले खंड में विस्तार से पढेंगे।
अधिकांश लोग कहाँ नियोजित हैं?
आलेख 2 - स. घ. उ. में तीनों क्षेत्रकों की प्रतिशत हिस्सेदारी प्रस्तुत करता है। अब आप चालीस वर्षों में क्षेत्रकों के बदलते महत्त्व को प्रत्यक्षतः देख सकते हैं।
आलेख 2 – स. घ. उ. में क्षेत्रकों की हिस्सेदारी (%)
आलेख 3 – रोजगार में क्षेत्रकों की हिस्सेदारी (%)
प्राथमिक क्षेत्रक से रोजगार का एेसा ही क्षेत्रक स्थानान्तरण क्यों नहीं हुआ? इसका कारण यह है कि द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रक में रोजगार के पर्याप्त अवसरों का सृजन नहीं हुआ। यद्यपि इस अवधि में वस्तुओं के औद्योगिक उत्पादन में 3 गुना से ज्यादा वृद्धि हुई परन्तु औद्योगिक रोजगार में लगभग 3 गुना ही वृद्धि हुई। तृतीयक क्षेत्रक पर भी यही बात लागू होती है। सेवा क्षेत्रक में उत्पादन में 14 गुना वृद्धि हुई, परन्तु रोजगार में 5 गुना से भी कम वृद्धि हुई।
परिणामतः, देश में आधे से अधिक श्रमिक प्राथमिक क्षेत्रक, मुख्यतः कृषि क्षेत्र, में काम कर रहे हैं जिसका स. घ. उ. में योगदान लगभग एक-छठा भाग है। इसकी तुलना में द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रक का स. घ. उ. में बाकी हिस्सा है। परन्तु, ये क्षेत्र कम लोगों को रोजगार प्रदान करते हैं। क्या इसका अर्थ यह है कि कृषि क्षेत्र में लगे श्रमिक अपनी क्षमता से कम उत्पादन कर रहे हैं?
क्या इसका अर्थ यह है कि कृषि में आवश्यकता से अधिक लोग लगे हुए हैं? अतएव, यदि आप कुछ लोगों को कृषि क्षेत्र से हटा देते हो, तो भी उत्पादन प्रभावित नहीं होगा। दूसरे शब्दों में, कृषि क्षेत्रक के श्रमिकों में अल्प बेरोजगारी है।
एक छोटा किसान लक्ष्मी का उदाहरण लेते हैं, जिसके पास दो हेक्टेयर असिंचित भूमि है, जो सिंचाई के लिए केवल वर्षा पर निर्भर है और ज्वार एवं अरहर जैसी फसलें उपजाती है। उसके परिवार के सभी पाँच सदस्य उस भूमि पर वर्ष भर काम करते हैं। क्यों? क्योंकि उन्हें कहीं और रोजगार उपलब्ध नहीं है। आप देखेंगे कि प्रत्येक व्यक्ति काम कर रहा है, कोई बेकार नहीं है। परन्तु, वास्तव में उनका श्रम-प्रयास विभाजित है। प्रत्येक व्यक्ति कुछ काम कर रहा है परन्तु किसी को भी पूर्ण रोजगार प्राप्त नहीं है। यह अल्प बेरोजगारी की स्थिति है, जहाँ लोग प्रत्यक्ष रूप से काम कर रहे हैं, लेकिन सभी अपनी क्षमता से कम काम करते हैं। इस प्रकार की अल्प बेरोजगारी को छिपी हुई कहते हैं क्योंकि यह उन लोगों की बेरोजगारी, जिनके पास कोई रोजगार नहीं है और बेकार बैठे हुए हैं, से अलग है (खुली बेरोजगारी)। इसलिए इसे प्रच्छन्न बेरोजगारी भी कहा जाता है।
अब मान लेते हैं कि एक भूस्वामी सुखराम आता है और अपनी जमीन पर काम करने के लिए लक्ष्मी के परिवार के एक या दो सदस्यों को भाड़े पर ले जाता है। अब लक्ष्मी के परिवार को मज़दूरी के द्वारा कुछ अतिरिक्त आय होती है। चूँकि आपको छोटे से भूखंड पर काम करने के लिए पाँच लोगों की ज़रूरत नहीं है, अतः दो लोगों के चले जाने से कृषि-उत्पादन प्रभावित नहीं होता है। दिए गए उदाहरण में, दो सदस्य किसी कारखाना में भी काम करने के लिए जा सकते हैं। एक बार फिर परिवार की कमाई में वृद्धि होगी और वे लोग अपनी भूमि से पहले जैसा उत्पादन करते रहेेंगे।
भारत में लक्ष्मी की तरह लाखों किसान हैं। इसका अर्थ है कि यदि हम कुछ लोगों को कृषि क्षेत्रक से हटाकर उन्हें कहीं और समुचित रोजगार उपलब्ध करा दें, तो भी कृषि उत्पादन पर बुरा प्रभाव नहीं पड़ेगा। कोई अन्य रोजगार करने से लोगों की आय से परिवार के कुल आय में वृद्धि होगी।
अल्प बेरोजगारी दूसरे क्षेत्रकों में भी हो सकती है। उदाहरण के लिए, शहरों में सेवा क्षेत्रक में हजारों अनियत श्रमिक हैं जो दैनिक रोजगार की तलाश करते हैं। वे प्लम्बर, पेन्टर, मरम्मत कार्य जैसे रोजगार करते हैं और अन्य लोग असुविधाजनक विषम काम करते हैं। उनमें से कई रोजाना काम नहीं पाते हैं। इसी प्रकार हम सेवा क्षेत्रक के कुछ लोगों को सड़कों पर ठेला खींचते अथवा कुछ चीजें बेचते हुए देखते हैं, जहाँ वे पूरा दिन बिता देते हैं, परन्तु बहुत कम कमा पाते हैं। वे यह काम इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि उनके पास कोई बेहतर अवसर नहीं है।
आओ-इन पर विचार करें
1. आलेख 2 और 3 में दिए गए आँकड़े का प्रयोग कर सारणी की पूर्ति करें और नीचे दिए गए प्रश्नों का उत्तर दें। यदि आँकड़े कुछ वर्षों के नहीं हैं, तो उन्हें नज़रअंदाज़ किया जा सकता है।
2. सही उत्तर का चयन करें –
अल्प बेरोजगारी तब होती है जब लोग –
(अ) काम करना नहीं चाहते हैं।
(ब) सुस्त ढंग से काम कर रहे हैं।
(स) अपनी क्षमता से कम काम कर रहे हैं।
(द) उनके काम के लिए भुगतान नहीं किया जाता है।
3. विकसित देशों में देखे गए लक्षण की भारत में हुए परिवर्तनों से तुलना करें और वैषम्य बतायें। भारत में क्षेत्रकों के बीच किस प्रकार के परिवर्तन वांछित थे, जो नहीं हुए?
4. हमें अल्प बेरोजगारी के संबंध में क्यों विचार करना चाहिए?
अतिरिक्त रोजगार का सृजन कैसे हो?
उपर्युक्त चर्चा से हम देख सकते हैं कि कृषि क्षेत्र में अल्प बेरोजगारी की गंभीर स्थिति बनी हुई है। कुछ लोग एेसे हैं जिन्हें बिल्कुल रोजगार नहीं मिला है। लोगों के लिए रोजगार की वृद्धि कैसे की जा सकती है? हम कुछ तरीकों को देखते हैं।
हम लक्ष्मी और उसके दो हेक्टेयर असिंचित भूखंड का उदाहरण लेते हैं। उसके परिवार की भूमि की सिंचाई हेतु एक कुएँ का निर्माण करने के लिए सरकार कुछ मुद्रा व्यय कर सकती है या बैंक ऋण प्रदान कर सकता है। तब लक्ष्मी अपनी भूमि की सिंचाई करने में सक्षम होगी और रबी मौसम में एक दूसरी फसल गेहूँ उपजाती है। हम मान लेते हैं कि एक हेक्टेयर गेहूँ की फसल दो लोगों को 50 दिनों (बीज डालने, पानी देने, खाद डालने और कटाई में) तक रोजगार प्रदान कर सकती है। अतः परिवार के दो अन्य सदस्यों को अपनी जमीन में रोजगार मिल सकता है। अब मान लेते हैं कि एेसे कई खेतों की सिंचाई के लिए एक नये बाँध का निर्माण किया जाता है अथवा एक नहर खोदी जाती है। इससे कृषि क्षेत्र में रोजगार के अनेक अवसर सृजित हो सकेंगे और अल्प बेरोजगारी की समस्या अपने-आप कम हो जाएगी।
अब मान लेते हैं कि लक्ष्मी और दूसरे किसान पहले की तुलना में अधिक उत्पादन करते हैं। उन्हें कुछ उत्पाद बेचने की भी आवश्यकता होगी? इसके लिए उन्हें अपना उत्पाद नजदीक के शहर में ले जाने की आवश्यकता हो सकती है। यदि सरकार परिवहन और फसलों के भण्डारण पर अथवा बेहतर ग्रामीण सड़कों के निर्माण पर कुछ पैसा निवेश करती है तो छोटे ट्रक सब जगह पहुँच जाते हैं। इस तरीके से लक्ष्मी जैसे अनेक किसान, जिन्हें अब पानी की सुविधा उपलब्ध है, फसलों की उपज और विक्रय कर सकते हैं। इस कार्य से केवल किसानों को ही उत्पादक रोजगार उपलब्ध नहीं हो सकता है, बल्कि परिवहन और व्यापार जैसी सेवाओं में लगे लोगों को भी रोजगार प्राप्त हो सकता है।
लक्ष्मी की ज़रूरत केवल पानी तक ही सीमित नहीं है। खेती करने के लिए उसे बीजों, उर्वरकों, कृषिगत उपकरणों और पानी निकालने के लिए पम्पसेटों की भी ज़रूरत है। एक निर्धन किसान होने के कारण वह सभी चीजों पर खर्च नहीं कर सकती। इसलिए उसे साहूकारों से पैसा उधार लेना होगा और उच्च ब्याज दर पर वापस करना पड़ेगा। यदि स्थानीय बैंक उचित ब्याज दर पर उसे साख प्रदान करता है, तो वह इन सभी चीजों को उचित समय पर खरीदने और अपनी भूमि पर खेती करने में सक्षम होगी। तात्पर्य यह है कि पानी के साथ-साथ कृषि में सुधार के लिए किसानों को सस्ते कृषि साख भी प्रदान करने की ज़रूरत है। हम अध्याय-4 मुद्रा एवं साख में कुछ आवश्यकताओं का अध्ययन करेंगे।
हम एक अन्य तरीके से इस समस्या का समाधान कर सकते हैं। वह तरीका है अर्द्ध-ग्रामीण क्षेत्रों में उन उद्योगों और सेवाओं की पहचान करना और उन्हें बढ़ावा देना, जहाँ बहुत अधिक लोग नियोजित किए जा सकें। उदाहरण के लिए, मान लेते हैं कि अनेक किसान अरहर और मटर (दलहन फसलें) उपजाने का निर्णय करते हैं। इनकी वसूली और प्रसंस्करण के लिए तथा शहरों में विक्रय करने के लिए दाल मिल की स्थापना एक एेसा ही उदाहरण है। शीत भण्डारण गृहों के खुलने से किसानों को एक अवसर मिलेगा कि वे अपने आलू और प्याज जैसे उत्पादों का भण्डारण कर सके और अच्छी कीमत मिलने पर बेच सकें। वन क्षेत्रों के निकटवर्ती गाँवों में हम शहद संग्रह केन्द्रों की शुरुआत कर सकते हैं, जहाँ किसान वनों से प्राप्त शहद बेच सकें। सब्जियों और कृषिगत उत्पादों, जैसे आलू, शकरकंद, चावल, गेहूँ, टमाटर और फल इत्यादि, जिसे बाहरी बाज़ारों में बेचा जा सके, के लिए प्रसंस्करण उद्योगों की स्थापना की जा सकती है। यह अर्द्ध-ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित उद्योगों में रोजगार प्रदान करेगा।
आपके विचार से आपके क्षेत्र में किस समूह के लोग बेरोजगार अथवा अल्प बेरोज़गार हैं? क्या आप कुछ उपाय सुझा सकते हैं , जिन पर अमल किया जा सके?
क्या आप जानते हैं कि भारत में विद्यालय जाने के आयु-वर्ग 5-29 वर्ष में लगभग 60 प्रतिशत बच्चे हैं? इनमें से 51 प्रतिशत के लगभग ही विद्यालय जाते हैं। शेष विद्यालय नहीं जाते हैं - वे या तो घर पर रहते होंगे या उनमें से अधिकतर बाल श्रमिक के रूप में काम कर रहे होंगे। यदि ये बच्चे भी विद्यालय जाने लगें तो हमें और अधिक भवनों, अध्यापकों और अन्य कर्मचारियों की आवश्यकता होगी। योजना आयोग (पूर्व) वर्तमान में नीति आयोग द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, अकेले शिक्षा क्षेत्र में लगभग 20 लाख रोजगारों का सृजन किया जा सकता है। इसी प्रकार, यदि हमें स्वास्थ्य की स्थिति में सुधार करना है तो हमें ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने वाले और अधिक डॉक्टरों, नर्सों और स्वास्थ्य कर्मचारियों की आवश्यकता पड़ेगी। ये कुछ एेसे तरीके हैं जिनसे रोजगार का सृजन होगा और हम विकास के महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर विचार कर पाने में भी सक्षम होंगे, जिन पर हम अध्याय-1 में चर्चा कर चुके हैं।
प्रत्येक राज्य या प्रदेश में वहाँ के निवासियों की आय और उनके रोजगार में वृद्धि करने की संभावना होती है। यह पर्यटन अथवा क्षेत्रीय शिल्प उद्योग अथवा सूचना प्रौद्योगिकी जैसी नवीन सेवाओं के माध्यम से हो सकता है। इनमें से कुछ के लिए समुचित योजना एवं सरकारी सहायता की आवश्यकता होगी। उदाहरण के लिए, योजना आयोग के अध्ययन के अनुसार यदि पर्यटन क्षेत्र में सुधार होता है तो हम प्रतिवर्ष 35 लाख से अधिक लोगों को अतिरिक्त रोज़गार प्रदान कर सकते हैं।
हम जानते हैं कि चर्चा किए गए कुछ सुझावों के अमल में लंबा समय लगेगा। अतः छोटी अवधि के लिए हमें कुछ द्रुत उपायों की ज़रूरत है। इसे ध्यान में रखते हुए केन्द्र सरकार ने अभी भारत के लगभग 625 जिलों में काम का अधिकार लागू करने के लिए एक कानून बनाया है। इसे महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम-2005 (म.गाँ.रा.ग्रा.रो.गा.अ.-2005) कहते हैं। म.गाँ.रा.ग्रा.रो.गा.अ.-2005 के अन्तर्गत उन सभी लोगों, जो काम करने में सक्षम हैं और जिन्हें काम की ज़रूरत है, को सरकार द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में वर्ष में 100 दिन के रोज़गार की गारंटी दी गई है। यदि सरकार रोज़गार उपलब्ध कराने में असफल रहती है तो वह लोगों को बेरोज़गारी भत्ता देगी। अधिनियम के अन्तर्गत उस तरह के कामों को वरीयता दी जाएगी, जिनसे भविष्य में भूमि से उत्पादन बढ़ाने में मदद मिलेगी।
आओ-इन पर विचार करें
1. आपके विचार से म.गाँ.रा.ग्रा.रो.गा.अ. को ‘काम का अधिकार’ क्यों कहा गया है?
2. कल्पना कीजिए, कि आप ग्राम के प्रधान हैं और उस हैसियत से कुछ एेसे क्रियाकलापों का सुझाव दीजिए जिसे आप मानते हैं कि उससे लोगों की आय में वृद्धि होगी और उसे इस अधिनियम के अन्तर्गत शामिल किया जाना चाहिए। चर्चा करें।
3. यदि किसानों को सिंचाई और विपणन सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाती है तो रोज़गार और आय में वृद्धि कैसे होगी?
4. शहरी क्षेत्रों में रोज़गार में वृद्धि कैसे की जा सकती है?
संगठित और असंगठित के रूप में क्षेत्रकों का विभाजन
अब हम आर्थिक कार्यों को विभाजित करने के एक अन्य तरीके का परीक्षण करते हैं। इसे लोगों के नियोजित होने के आधार पर देखते हैं। उनके काम करने की शर्तें क्या हैं? क्या कोई नियम और विनियम है, जिनका उनके रोज़गार के संदर्भ में अनुपालन किया जाता है?
कान्ता
कान्ता एक कार्यालय में काम करती है। वह सुबह 9.30 से शाम 5.30 तक कार्यालय में रहती है। वह नियमित रूप से प्रत्येक माह के अन्त में अपना वेतन पाती है। वेतन के अतिरिक्त वह सरकारी नियमों के तहत भविष्य निधि भी प्राप्त करती है। उसे चिकित्सीय और अन्य भत्ते भी मिलते हैं। कान्ता रविवार को कार्यालय नहीं जाती है। इस दिन सवेतन अवकाश होता है। उसने जब नौकरी आरम्भ की थी, तब उसे एक नियुक्ति-पत्र दिया गया था जिसमें नौकरी संबंधी निबंधन और शर्तों का उल्लेख किया गया था।
कमल
कमल, कान्ता का पड़ो क्या आप कान्ता और कमल के रोज़गार की परिस्थितियों में अन्तर देखते हैं?सी है। वह नज़दीक के किराना दुकान में दैनिक मज़दूरी करने वाला श्रमिक है। वह सुबह 7.30 बजे दुकान पर जाता है और शाम 8 बजे तक काम करता है। उसे अपनी मज़दूरी के अतिरिक्त अन्य कोई भत्ता नहीं मिलता है। जिस दिन वह काम नहीं करता है, उस दिन की मज़दूरी उसे नहीं मिलती है। उसे कोई छुट्टी या सवेतन अवकाश नहीं मिलता है। उसे कोई औपचारिक-पत्र नहीं मिला है, जिसमें दुकान में नियुक्ति के बारे में कहा गया हो। उसका नियोक्ता उसे किसी भी समय काम से हटने के लिए कह सकता है।
क्या आप कान्ता और कमल के रोज़गार की परिस्थितियों में अन्तर देखते हैं?
कान्ता संगठित क्षेत्रक में काम करती है। संगठित क्षेत्रक में वे उद्यम अथवा कार्य-स्थान आते हैं जहाँ रोज़गार की अवधि नियमित होती है और इसलिए लोगों के पास सुनिश्चित काम होता है। वे क्षेत्रक सरकार द्वारा पंजीकृत होते हैं और उन्हें सरकारी नियमों एवं विनियमों का अनुपालन करना होता है। इन नियमों एवं विनियमों का अनेक विधियों, जैसे, कारखाना अधिनियम, न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम, सेवानुदान अधिनियम, दुकान एवं प्रतिष्ठान अधिनियम, इत्यादि में उल्लेख किया गया है। इसे संगठित क्षेत्रक कहते हैं क्योंकि इसकी कुछ औपचारिक प्रक्रिया एवं कार्यविधि है। कुछ लोग किसी के द्वारा नियोजित नहीं होते बल्कि वे स्वतः काम कर सकते हैं। परन्तु वे भी अपने को सरकार के समक्ष पंजीकृत कराते हैं और नियमों एवं विनियमों का अनुपालन करते हैं।
संगठित क्षेत्रक के कर्मचारियों को रोज़गार-सुरक्षा के लाभ मिलते हैं। उनसे एक निश्चित समय तक ही काम करने की आशा की जाती है। यदि वे अधिक काम करते हैं तो नियोक्ता द्वारा उन्हें अतिरिक्त वेतन दिया जाता है। वे नियोक्ता से कई दूसरे लाभ भी प्राप्त करते हैं। ये लाभ क्या हैं? सवेतन छुट्टी, अवकाश काल में भुगतान, भविष्य निधि, सेवानुदान इत्यादि पाते हैं। वे चिकित्सीय लाभ पाने के हकदार होते हैं और नियमों के अनुसार कारखाना मालिक को पेयजल और सुरक्षित कार्य-पर्यावरण जैसी सुविधाओं को सुनिश्चित करना होता है। जब वे सेवानिवृत होते हैं, तो पेंशन भी प्राप्त करते हैं।
इसके विपरीत, कमल असंगठित क्षेत्रक में काम करता है। असंगठित क्षेत्रक छोटी-छोटी और बिखरी इकाइयों, जो अधिकांशतः सरकारी नियंत्रण से बाहर होती हैं, से निर्मित होता है। इस क्षेत्रक के नियम और विनियम तो होते हैं परंतु उनका अनुपालन नहीं होता है। वे कम वेतन वाले रोजगार हैं और प्रायः नियमित नहीं हैं। यहाँ अतिरिक्त समय में काम करने, सवेतन छुट्टी, अवकाश, बीमारी के कारण छुट्टी इत्यादि का कोई प्रावधान नहीं है। रोजगार सुरक्षित नहीं है। श्रमिकों को बिना किसी कारण काम से हटाया जा सकता है। कुछ मौसमों में जब काम कम होता है, तो कुछ लोगों को काम से छुट्टी दे दी जाती है। बहुत से लोग नियोक्ता की पसन्द पर निर्भर होते हैं।
इस क्षेत्रक में काफी संख्या में लोग अपने-अपने छोटे कार्यों, जैसे- सड़कों पर विक्रय अथवा मरम्मत कार्य में स्वतः नियोजित हैं। इसी प्रकार किसान अपने खेतों में काम करते हैं और ज़रूरत पड़ने पर मज़दूरी पर श्रमिकों को लगाते हैं।
आओ-इन पर विचार करें
1. निम्नलिखित उदाहरणों को देखें। इनमें से कौन असंगठित क्षेत्रक की गतिविधियाँ हैं?
• विद्यालय में पढ़ाता एक शिक्षक
• बाज़ार में अपनी पीठ पर सीमेन्ट की बोरी ढोता हुआ एक श्रमिक
• अपने खेत की सिंचाई करता एक किसान
• अस्पताल में मरीज का इलाज करता एक डॉक्टर
• एक ठेकेदार के अधीन काम करता एक दैनिक मज़दूरी वाला श्रमिक
• एक बड़े कारखाने में काम करने जाता एक कारखाना श्रमिक
• अपने घर में काम करता एक करघा बुनकर।
2. संगठित क्षेत्रक में नियमित काम करने वाले एक व्यक्ति और असंगठित क्षेत्रक में काम करने वाले किसी दूसरे व्यक्ति से बात करें। सभी पहलुओं पर उनकी कार्य-स्थितियों की तुलना करें।
3. असंगठित और संगठित क्षेत्रक के बीच आप विभेद कैसे करेंगे? अपने शब्दों में व्याख्या करें।
4. संगठित एवं असंगठित क्षेत्रक में भारत के सभी श्रमिकों की अनुमानित संख्या नीचे दी गई सारणी में दी गई है। सारणी को सावधानी से पढ़ें। विलुप्त आँकड़ों की पूर्ति करें और प्रश्नों का उत्तर दें।
• असंगठित क्षेत्रक में कृषि में लगे लोगों का प्रतिशत क्या है?
• क्या आप सहमत हैं कि कृषि असंगठित क्षेत्रक की गतिविधि है? क्यों?
• यदि हम सम्पूर्ण देश पर नजर डालते हैं तो पाते हैं कि भारत में ______ % श्रमिक असंगठित क्षेत्रक में हैं। भारत में लगभग ______ % श्रमिकों को ही संगठित क्षेत्रक में रोज़गार उपलब्ध है।
असंगठित क्षेत्रक के श्रमिकों का संरक्षण कैसे हो?
संगठित क्षेत्रक अत्यधिक माँग पर ही रोज़गार प्रस्तावित करता है। लेकिन संगठित क्षेत्रक में रोज़गार के अवसरों में अत्यंत धीमी गति से वृद्धि हो रही है। यह भी आम तौर पर पाया जाता है कि संगठित क्षेत्रक, असंगठित क्षेत्रक के रूप में काम करते हैं। वे एेसी रणनीति, कर वंचन एवं श्रमिकों को संरक्षण प्रदान करने वाली विधियों के अनुपालन से बचने के लिए अपनाते हैं। परिणामतः बहुत से श्रमिक असंगठित क्षेत्रक में काम करने के लिए विवश हुए हैं, जहाँ बहुत कम वेतन मिलता है। उनका प्रायः शोषण किया जाता है और उन्हें उचित मज़दूरी नहीं दी जाती है। उनकी आय कम है और नियमित नहीं है। इस रोज़गार में संरक्षण नहीं है और न ही इसमें कोई लाभ है।
सन् 1990 से यह भी देखा गया है कि संगठित क्षेत्रक के बहुत अधिक श्रमिक अपना रोज़गार खोते जा रहे हैं। ये लोग असंगठित क्षेत्रक में कम वेतन पर काम करने के लिए विवश हैं। अतः असंगठित क्षेत्रक में और अधिक रोज़गार की ज़रूरत के अलावा श्रमिकों को संरक्षण और सहायता की भी आवश्यकता है।
ये लाचार लोग कौन हैं जिन्हें संरक्षण की आवश्यकता है? ग्रामीण क्षेत्रों में, असंगठित क्षेत्रक मुख्यतः भूमिहीन कृषि श्रमिकों, छोटे और सीमांत किसानों, फसल बँटाईदारों और कारीगरों (जैसे बुनकरों, लुहारों, बढ़ई और सुनार) से रचित होता है। भारत में लगभग 80 प्रतिशत ग्रामीण परिवार छोटे और सीमांत किसानों की श्रेणी में आते हैं। इन किसानों को समय से बीज, कृषि-उपकरणों, साख, भण्डारण सुविधा और विपणन केन्द्र की पर्याप्त सुविधा उपलब्ध कराने की ज़रूरत है।
शहरी क्षेत्रों में असंगठित क्षेत्रक मुख्यतः लघु उद्योगों के श्रमिकों, निर्माण, व्यापार एवं परिवहन में कार्यरत आकस्मिक श्रमिकों और सड़कों पर विक्रेता का काम करने वालों, सिर पर बोझा ढोने वाले श्रमिकों, वस्त्र-निर्माण करने वालों और कबाड़ उठाने वालों से रचित है। लघु उद्योगों को भी कच्चे माल की प्राप्ति और उत्पाद के विपणन के लिए सरकारी मदद की आवश्यकता होती है। आकस्मिक श्रमिकों को शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में संरक्षण दिए जाने की ज़रूरत है।
हम यह भी पाते हैं कि बहुसंख्यक श्रमिक अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़ी जातियों से हैं, जो असंगठित क्षेत्रक में रोज़गार करते हैं। ये श्रमिक अनियमित और कम मज़दूरी पर काम करने के अलावा सामाजिक भेदभाव के भी शिकार हैं। अतः आर्थिक एवं सामाजिक विकास के लिए असंगठित क्षेत्रक के श्रमिकों को संरक्षण और सहायता अनिवार्य है।
स्मरण कीजिए
हमारे चारों ओर अनेक आर्थिक गतिविधियाँ संचालित होती हैं। उन पर तर्कसंगत ढंग से विचार करने के लिए वर्गीकरण की प्रक्रिया अपरिहार्य है। हम क्या निष्कर्ष चाहते हैं, इस आधार पर वर्गीकरण की अनेक कसौटियाँ हो सकती हैं। वर्गीकरण की प्रक्रिया वस्तुस्थिति का मूल्यांकन करने में सहायता करती है।
आर्थिक गतिविधियों को तीन क्षेत्रकों- प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक में विभाजित करने के लिए ‘कार्य के स्वभाव’ को कसौटी की रूप में उपयोग किया गया। इस वर्गीकरण के आधार पर हम भारत में कुल उत्पादन और रोज़गार की पद्धति का विश्लेषण करने में समर्थ हुए। इसी प्रकार, हमने आर्थिक गतिविधियों को संगठित और असंगठित क्षेत्रक में विभाजित किया और इस विभाजन का प्रयोग इन दो क्षेत्रकों में रोज़गार की स्थिति देखने के लिए किया।
वर्गीकरण अभ्यासों से व्युत्पन्न सबसे महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष क्या थे? वे समस्याएँ और समाधान क्या थे, जिनकी ओर संकेत किया गया? क्या आप जानकारियोें को निम्नलिखित सारणी में संक्षिप्त रूप में व्यक्त कर सकते हैं?
तालिका 2.4 आर्थिक क्रियाकलापों का वर्गीकरण
स्वामित्व आधारित क्षेत्रक सार्वजनिक और निजी क्षेत्रक
आर्थिक गतिविधियों को क्षेत्रकों में वर्गीकृत करने का एक अन्य तरीका हो सकता है– परिसंपत्तियों का स्वामी और सेवाओं की उपलब्धता के लिए ज़िम्मेदार व्यक्ति कौन है? सार्वजनिक क्षेत्रक में, अधिकांश परिसंपत्तियों पर सरकार का स्वामित्व होता है और सरकार ही सभी सेवाएँ उपलब्ध कराती है। निजी क्षेत्रक में परिसंपत्तियों पर स्वामित्व और सेवाओं के वितरण की ज़िम्मेदारी एकल व्यक्ति या कंपनी के हाथों में होता है। रेलवे अथवा डाकघर सार्वजनिक क्षेत्रक के उदाहरण हैं, जबकि टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी लिमिटेड (टिस्को) अथवा रिलायंस इण्डस्ट्रीज लिमिटेड जैसी कम्पनियाँ निजी स्वामित्व में हैं।
निजी क्षेत्रक की गतिविधियों का ध्येय लाभ अर्जित करना होता है। इनकी सेवाओं को प्राप्त करने के लिए हमें इन एकल स्वामियों और कंपनियों को भुगतान करना पड़ता है। सार्वजनिक क्षेत्रक का ध्येय केवल लाभ कमाना नहीं होता है। सरकार सेवाओं पर किए गए व्यय की भरपाई करों या अन्य तरीकों से करती है। आधुनिक दिनों में सरकार सभी तरह की गतिविधियों पर व्यय करती है। ये गतिविधियाँ क्या हैं? सरकार एेसी गतिविधियों पर व्यय क्यों करती है? ज्ञात करें।
कई एेसी चीज़े हैं जिनकी आवश्यकता समाज के सभी सदस्यों को होती है, परन्तु जिन्हें निजी क्षेत्रक उचित कीमत पर उपलब्ध नहीं कराते हैं। क्यों? क्योंकि इनमें से कुछ चीज़ों पर बहुत अधिक पैसे खर्च करने पड़ते हैं, जो निजी क्षेत्रकों की क्षमता से बाहर होती हैं। इन चीज़ों का इस्तेमाल करने वाले हज़ारों लोगों से पैसा एकत्र करना भी आसान नहीं है। फिर, यदि वे चीज़ों को उपलब्ध कराते हैं तो वे इसकी ऊँची कीमत वसूलते हैं। जैसे, सड़कों, पूलों, रेलवे, पत्तनों, बिजली आदि का निर्माण और बाँध आदि से सिंचाई की सुविधा उपलब्ध कराना। इसीलिए सरकार एेसे भारी व्यय स्वयं उठाती है और सभी लोगों के लिए इन सुविधाओं को सुनिश्चित करती है।
कुछ गतिविधियाँ एेसी हैं, जिन्हें सरकारी समर्थन की ज़रूरत पड़ती है। निजी क्षेत्रक उन उत्पादनों अथवा व्यवसायों को तब तक जारी नहीं रख सकते, जब तक सरकार उन्हें प्रोत्साहित नहीं करती है। जैसे, उत्पादन-मूल्य पर बिजली की बिक्री से बहुत से उद्योगों में वस्तुओं की उत्पादन-लागत में वृद्धि हो सकती है। अनेक इकाइयाँ, विशेषकर लघु इकाईयाँ बन्द हो सकती हैं। यहाँ सरकार उस दर पर बिजली उत्पादन और वितरण के लिए कदम उठाती है जिस पर ये उद्योग बिजली खरीद सकते हैं। सरकार लागत का कुछ अंश वहन करती है।
इसी प्रकार, भारत सरकार किसानों से उचित मूल्य पर गेहूँ और चावल खरीदती है। इसे अपने गोदामों में भण्डारित करती है और राशन-दुकानों के माध्यम से उपभोक्ताओं को कम मूल्य पर बेचती है। आपने कक्षा-9 में खाद्य-सुरक्षा अध्याय में इसके बारे में पढ़ा है। सरकार लागत का कुछ भाग वहन करती है। इस प्रकार, सरकार किसानों और उपभोक्ताओं दोनों को सहायता पहुँचाती है।
अधिकतर आर्थिक गतिविधियाँ एेसी हैं, जिनकी प्राथमिक जिम्मेदारी सरकार पर है। इन पर व्यय करना सरकार की अनिवार्यता हैैै। जैसे-सभी के लिए स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधाएँ उपलब्ध कराना। हमने पहले अध्याय में कुछ गतिविधियों पर विचार किया है। समुचित ढंग से विद्यालय चलाना और गुणात्मक शिक्षा, विशेषकर प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराना सरकार का कर्त्तव्य है। भारत में निरक्षरों की संख्या विश्व में सबसे अधिक है।
इसी प्रकार, हम जानते हैं कि भारत के लगभग आधे बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और उनमें से एक-चौथाई गंभीर रूप से बीमार हैं। हमने शिशु मृत्यु दर के बारे में पढ़ा है। ओडिशा (41) अथवा मध्य प्रदेश (47) का शिशु मृत्यु दर विश्व के कुछ निर्धनतम भागों से अधिक है। सरकार को भी मानव विकास के पक्षों, जैसे सुरक्षित पेयजल की उपलब्धता, निर्धनों के लिए आवासीय सुविधाएँ और भोजन एवं पोषण पर ध्यान देने की ज़रूरत है। सरकार का यह भी कर्त्तव्य है कि वह बजट बढ़ाकर अत्यन्त निर्धनों की और देश के पूर्णतया उपेक्षित भागों की देखभाल करे।
सारांश
इस अध्याय में हमने आर्थिक गतिविधियों को कुछ सार्थक समूहों में विभाजित करने के तरीकों का अध्ययन किया। इसका एक तरीका यह परीक्षण करना है कि गतिविधि प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रक में से किससे संबंधित है। भारत के विगत तीस वर्षों के आँकड़े प्रदर्शित करते हैं कि यद्यपि जी. डी. पी. में सबसे अधिक योगदान तृतीयक क्षेत्रक में उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं का है, लेकिन रोज़गार अधिकांशतः प्राथमिक क्षेत्रक में ही मिलता है। हमने यह भी देखा है कि देश में रोज़गार के अवसरों की वृद्धि के लिए क्या किया जा सकता है। दूसरे वर्गीकरण में हम संगठित या असंगठित क्षेत्रक में काम करने वाले लोगों पर विचार करते हैं। अधिकांशतः लोग असंगठित क्षेत्रक में काम कर रहे हैं और उनके लिए संरक्षण अनिवार्य है। हमने सार्वजनिक और निजी क्षेत्रकों की गतिविधियों के बीच अंतर का अध्ययन किया और देखा कि सार्वजनिक गतिविधियों को कुछ निश्चित क्षेत्रों पर केन्द्रित करना अनिवार्य क्यों है।
अभ्यास
1. कोष्ठक में दिए गए सही विकल्प का प्रयोग कर रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए –
(क) सेवा क्षेत्रक में रोजगार में उत्पादन के समान अनुपात में वृद्धि .............................। (हुई है/नहीं हुई है)
(ख) ............................. क्षेत्रक के श्रमिक वस्तुओं का उत्पादन नहीं करते हैं। (तृतीयक/कृषि)
(ग) ............................. क्षेत्रक के अधिकांश श्रमिकों को रोज़गार-सुरक्षा प्राप्त होती है। (संगठित/असंगठित)
(घ) भारत में ............................. अनुपात में श्रमिक असंगठित क्षेत्रक में काम कर रहे हैं। (बड़े/छोटे)
(ङ) कपास एक ............................. उत्पाद है और कपड़ा एक ............................. उत्पाद है। (प्राकृतिक/विनिर्मित)
(च) प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रकों की गतिविधियाँ ............................. हैं। (स्वतंत्र/परस्पर निर्भर)
2. सही उत्तर का चयन करें –
(अ) सार्वजनिक और निजी क्षेत्रक आधार पर विभाजित हैंः
(क) रोजगार की शर्तों
(ख) आर्थिक गतिविधि के स्वभाव
(ग) उद्यमों के स्वामित्व
(घ) उद्यम में नियोजित श्रमिकों की संख्या
(ब) एक वस्तु का अधिकांशतः प्राकृतिक प्रक्रिया से उत्पादन ............................. क्षेत्रक की गतिविधि है।
(क) प्राथमिक
(ख) द्वितीयक
(ग) तृतीयक
(घ) सूचना प्रौद्योगिकी
(स) किसी वर्ष में उत्पादित ............................. कुल मूल्य को स. घ. उ. कहते हैं।
(क) सभी वस्तुओं और सेवाओं
(ख) सभी अंतिम वस्तुओं और सेवाओं
(ग) सभी मध्यवर्ती वस्तुओं और सेवाओं
(घ) सभी मध्यवर्ती एवं अंतिम वस्तुओं और सेवाओं
(द) स.घ.उ. के पदों में वर्ष 2013-14 के बीच तृतीयक क्षेत्रक की हिस्सेदारी ........................... प्रतिशत है।
(क) 20 से 30
(ख) 30 से 40
(ग) 50 से 60
(घ) 60 से 70
3. निम्नलिखित का मेल कीजिए –
4. विषम की पहचान करें और बताइए क्यों?
(क) पर्यटन-निर्देशक, धोबी, दर्जी, कुम्हार
(ख) शिक्षक, डॉक्टर, सब्जी विक्रेता, वकील
(ग) डाकिया, मोची, सैनिक, पुलिस कांस्टेबल
(घ) एम.टी.एन.एल., भारतीय रेल, एयर इण्डिया, जेट एयरवेज़, अॉल इण्डिया रेडियो।
5. एक शोध छात्र ने सूरत शहर में काम करने वाले लोगों का अध्ययन करके निम्न आँकड़े जुटाए –
तालिका को पूरा कीजिए। इस शहर में असंगठित क्षेत्रक में श्रमिकों की प्रतिशतता क्या है?
6. क्या आप मानते हैं कि आर्थिक गतिविधियों का प्राथमिक, द्वितीयक एवं तृृतीयक क्षेत्र में विभाजन की उपयोगिता है? व्याख्या कीजिए कि कैसे?
7. इस अध्याय में आए प्रत्येक क्षेत्रक को रोजगार और सकल घरेलू उत्पाद (स.घ.उ.) पर ही क्यों केन्द्रित करना चाहिए? क्या अन्य वाद-पदों का परीक्षण किया जा सकता है? चर्चा करें।
8. जीविका के लिए काम करने वाले अपने आसपास के वयस्कों के सभी कार्यों की लंबी सूची बनाइए। उन्हें आप किस तरीके से वर्गीकृत कर सकते हैं? अपने चयन की व्याख्या कीजिए।
9. तृतीयक क्षेत्रक अन्य क्षेत्रकों से कैसे भिन्न है? सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
10. प्रच्छन्न बेरोजगारी से आप क्या समझते हैं? शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों से उदाहरण देकर व्याख्या कीजिए।
11. खुली बेरोजगारी और प्रच्छन्न बेरोजगारी के बीच विभेद कीजिए।
12. "भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास में तृतीयक क्षेत्रक कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा रहा है।" क्या आप इससे सहमत है? अपने उत्तर के समर्थन में कारण दीजिए।
13. भारत में सेवा क्षेत्रक दो विभिन्न प्रकार के लोग नियोजित करता हैं। ये लोग कौन हैं?
14. "असंगठित क्षेत्रक में श्रमिकों का शोषण किया जाता है।" क्या आप इस विचार से सहमत हैं? अपने उत्तर के समर्थन में कारण दीजिए।
15. अर्थव्यवस्था में गतिविधियाँ रोजगार की परिस्थितियों के आधार पर कैसे वर्गीकृत की जाती हैं?
16. संगठित और असंगठित क्षेत्रकों में विद्यमान रोजगार-परिस्थितियों की तुलना करें।
17. मनरेगा 2005 (MGNREGA 2005) के उद्देश्यों की व्याख्या कीजिए।
18. अपने क्षेत्र से उदाहरण लेकर सार्वजनिक और निजी क्षेत्रक की गतिविधियों एवं कार्यों की तुलना तथा वैषम्य कीजिए।
19. अपने क्षेत्र से एक-एक उदाहरण देकर निम्न तालिका को पूरा कीजिए और चर्चा कीजिएः
20. सार्वजनिक क्षेत्रक की गतिविधियों के कुछ उदाहरण दीजिए और व्याख्या कीजिए कि सरकार द्वारा इन गतिविधियों का कार्यान्वयन क्यों किया जाता है?
21. व्याख्या कीजिए कि एक देश के आर्थिक विकास में सार्वजनिक क्षेत्रक कैसे योगदान करता है?
22. असंगठित क्षेत्रक के श्रमिकों को निम्नलिखित मुद्दों पर संरक्षण की आवश्यकता है– मजदूरी, सुरक्षा और स्वास्थ्य। उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।
23. अहमदाबाद में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि नगर के 15,00,000 श्रमिकों में से 11,00,000 श्रमिक असंगठित क्षेत्रक में काम करते थे। वर्ष 1997-98 में नगर की कुल आय 600 करोड़ रुपए थी इसमें से 320 करोड़ रुपए संगठित क्षेत्रक से प्राप्त होती थी। इस आँकड़े को तालिका में प्रदर्शित कीजिए। नगर में और अधिक रोजगार-सृजन के लिए किन तरीकों पर विचार किया जाना चाहिए?
24. निम्नलिखित तालिका में तीनों क्षेत्रकों का सकल घरेेलू उत्पाद (स.घ.उ.) रुपए (करोड़) में दिया गया हैः
(क) वर्ष 2000 एवं 2013 के लिए स.घ.उ. में तीनों क्षेत्रकों की हिस्सेदारी की गणना कीजिए।
(ख) इन आँकड़ों को अध्याय में दिए आलेख-2 के समान एक दण्ड-आलेख के रूप में प्रदर्शित कीजिए।
(ग) दण्ड-आलेख से हम क्या निष्कर्ष प्राप्त करते है?