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सत्ता की साझेदारी

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 परिचय

इस अध्याय के साथ हम लोकतंत्र की उस यात्रा को आगे बढ़ाएँगे जो पिछले साल शुरू हुई थी। पिछले साल हमने देखा था कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में सारी ताकत किसी एक अंग तक सीमित नहीं होती। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच पूरी समझ के साथ सत्ता को विकेंद्रित कर देना लोकतंत्र के कामकाज के लिए बहुत ज़रूरी है। पहले तीन अध्यायों में हम सत्ता के बँटवारे पर सोच-विचार को आगे बढ़ाएँगे। आइए, हम बेल्जियम और श्रीलंका की दो कथाओं के साथ शुरुआत करते हैं। ये दोनों घटनाएँ बताती हैं कि विभिन्न लोकतांत्रिक शासन पद्धतियाँ सत्ता के बँटवारे की माँग से किस तरह निपटती हैं। इन घटनाओं से यह समझने में कुछ मदद मिलेगी कि आखिर लोकतंत्र में सत्ता के बँटवारे की ज़रूरत क्यों होती है। इससे हम सत्ता के बँटवारे के उन रूपों पर बातचीत कर सकेंगे जिनकी चर्चा अगले दो अध्यायों में की गई है।

बेल्जियम और श्रीलंका

बेल्जियम यूरोप का एक छोटा-सा देश है, क्षेत्रफल में हमारे हरियाणा राज्य से भी छोटा। इसकी सीमाएँ फ्रांस, नीदरलैंड, जर्मनी और लक्समबर्ग से लगती हैं। इसकी आबादी एक करोड़ से थोड़ी अधिक है यानी हरियाणा की आबादी से करीब आधी। इस छोटे से देश के समाज की जातीय बुनावट बहुत जटिल है। देश की कुल आबादी का 59 फ़ीसदी हिस्सा फ्लेमिश इलाके में रहता है और डच बोलता है। शेष 40 फ़ीसदी लोग वेलोनिया क्षेत्र में रहते हैं और प्रेंηच बोलते हैं। शेष एक फ़ीसदी लोग जर्मन बोलते हैं। राजधानी ब्रूसेल्स के 80 फ़ीसदी लोग प्रेंच बोलते हैं और 20 फ़ीसदी लोग डच भाषा।

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मेरे दिमाग में सीधा सा समीकरण यह है कि सत्ता का बँटवारा =

सत्ता के टुकड़े करना = देश को कमज़ोर करना। हम इस बात से शुरुआत क्यों कर रहे हैं?

अल्पसंख्यक प्रेंच-भाषी लोग तुलनात्मक रूप से ज़्यादा समृद्ध और ताकतवर रहे हैं। बहुत बाद में जाकर आर्थिक विकास और शिक्षा का लाभ पाने वाले डच-भाषी लोगों को इस स्थिति से नाराज़गी थी। इसके चलते 1950 और 1960 के दशक में प्रेंच और डच बोलने वाले समूहों के बीच तनाव बढ़ने लगा। इन दोनों समुदायों के टकराव का सबसे तीखा रूप ब्रूसेल्स में दिखा। यह एक विशेष तरह की समस्या थी। डच बोलने वाले लोग संख्या के हिसाब से अपेक्षाकृत ज़्यादा थे लेकिन धन और समृद्धि के मामले में कमज़ोर और अल्पमत में थे।

आइए, इस स्थिति की तुलना एक और देश से करें। श्रीलंका एक द्वीपीय देश है जो तमिलनाडु के दक्षिणी तट से कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसकी आबादी करीब दो करोड़ है यानी हरियाणा के बराबर। दक्षिण एशिया के अन्य देशों की तरह श्रीलंका की आबादी में भी कई जातीय समूहों के लोग हैं। सबसे प्रमुख सामाजिक समूह सिंहलियों का है जिनकी आबादी कुल जनसंख्या की 74 फ़ीसदी है। फिर तमिलों का नंबर आता है जिनकी आबादी कुल जनसंख्या में 18 फ़ीसदी है। तमिलों में भी दो समूह हैं–श्रीलंकाई मूल के तमिल (13 फ़ीसदी) और हिंदुस्तानी तमिल जो औपनिवेशिक शासनकाल में बागानों में काम करने के लिए भारत से लाए गए लोगों की संतान हैं। मौजूदा श्रीलंका के नक्शे पर गौर करें तो पाएँगे कि तमिल मुख्य रूप से उत्तर और पूर्वी प्रांतों में आबाद हैं। अधिकतर सिंहली-भाषी लोग बौद्ध हैं जबकि तमिल-भाषी लोगों में कुछ हिंदू हैं और कुछ मुसलमान। श्रीलंका की आबादी में ईसाई लोगों का हिस्सा 7 फ़ीसदी है और वे सिंहली और तमिल, दोनों भाषाएँ बोलते हैं।

अब ज़रा सोचिए कि एेसी स्थिति में क्या हो सकता था? बेल्जियम में डच-भाषी लोग अपनी बड़ी संख्या के बल पर प्रेंηच-भाषी और जर्मन-भाषी लोगों पर अपनी इच्छाएँ थोप सकते थे। इससे उनके बीच की लड़ाई और बढ़ जाती। संभव था इससे देश बँट जाता और ब्रूसेल्स पर दोनों पक्ष अपना-अपना दावा ठोकते। श्रीलंका में सिंहली आबादी का बहुमत और ज़्यादा था और वे लोग मुल्क में अपनी मनमानी चला सकते थे। आइए, अब यह देखें कि असल में दोनों देशों में क्या-क्या हुआ?

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श्रीलंका में बहुसंख्यकवाद

सन् 1948 में श्रीलंका स्वतंत्र राष्ट्र बना। सिंहली समुदाय के नेताओं ने अपनी बहुसंख्या के बल पर शासन पर प्रभुत्व जमाना चाहा। इस वजह से लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार ने सिंहली समुदाय की प्रभुता कायम करने के लिए अपनी बहुसंख्यक-परस्ती के तहत कई कदम उठाए।

1956 में एक कानून बनाया गया जिसके तहत तमिल को दरकिनार करके सिंहली को एकमात्र राजभाषा घोषित कर दिया गया। विश्वविद्यालयों और सरकारी नौकरियों में सिंहलियों को प्राथमिकता देने की नीति भी चली। नए संविधान में यह प्रावधान भी किया गया कि सरकार बौद्ध मत को संरक्षण और बढ़ावा देगी।

एक-एक करके आए इन सरकारी फ़ैसलों ने श्रीलंकाई तमिलों की नाराज़गी और शासन को लेकर उनमें बेगानापन बढ़ाया। उन्हें लगा कि बौद्ध धर्मावलंबी सिंहलियों के नेतृत्व वाली सारी राजनीतिक पार्टियाँ उनकी भाषा और संस्कृति को लेकर असंवेदनशील हैं। उन्हें लगा कि संविधान और सरकार की नीतियाँ उन्हें समान राजनीतिक अधिकारों से वंचित कर रही हैं। नौकरियों और फ़ायदे के अन्य कामों में उनके साथ भेदभाव हो रहा है और उनके हितो की अनदेखी की जा रही है परिणाम यह हुआ कि तमिल और सिंहली समुदायों के संबंध बिगड़ते चले गए।

बहुसंख्यकवाद : यह मान्यता कि अगर कोई समुदाय बहुसंख्यक है तो वह अपने मनचाहे ढंग से देश का शासन कर सकता है और इसके लिए वह अल्पसंख्यक समुदाय की ज़रूरत या इच्छाओं की अवहेलना कर सकता है।

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श्रीलंकाई तमिलों ने अपनी राजनीतिक पार्टियाँ बनाईं और तमिल को राजभाषा बनाने, क्षेत्रीय स्वायत्तता हासिल करने तथा शिक्षा और रोज़गार में समान अवसरों की माँग को लेकर संघर्ष किया। लेकिन तमिलों की आबादी वाले इलाके की स्वायत्तता की उनकी माँगों को लगातार नकारा गया। 1980 के दशक तक उत्तर-पूर्वी श्रीलंका में स्वतंत्र तमिल ईलम (सरकार) बनाने की माँग को लेकर अनेक राजनीतिक संगठन बने।

श्रीलंका में दो समुदायों के बीच पारस्परिक अविश्वास ने बड़े टकराव का रूप ले लिया। यह टकराव गृहयुद्ध में परिणत हुआ। परिणामस्वरूप दोनों पक्ष के हज़ारों लोग मारे जा चुके हैं। अनेक परिवार अपने मुल्क से भागकर शरणार्थी बन गए हैं। इससे भी कई गुना ज़्यादा लोगों की रोजी-रोटी चौपट हो गई है। आपने पढ़ा है (दसवीं कक्षा के अर्थशास्त्र की पाठ्यपुस्तक के पहले अध्याय में) कि हमारे क्षेत्र के देशों में आर्थिक विकास, शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले में श्रीलंका का रिकॉर्ड सबसे अच्छा है पर वहाँ के गृहयुद्ध से मुल्क के सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन में काफ़ी परेशानियाँ पैदा हुई हैं। 2009 में इस गृहयुद्ध का अंत हुआ।

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बहुसंख्यक समुदाय के शासन में क्या हर्ज है? अगर श्रीलंका में सिंहलियों का राज नहीं होगा तो किसका राज होगा?

गृहयुद्ध : किसी मुल्क में सरकार विरोधी समूहों की हिंसक लड़ाई एेसा रूप ले ले कि वह युद्ध सा लगे तो उसे गृहयुद्ध कहते हैं।

बेल्जियम की समझदारी

बेल्जियम के नेताओं ने श्रीलंका से अल रास्ता अपनाने का फ़ैसला किया। उन्होंने क्षेत्रीय अंतरों और सांस्कृतिक विविधता को स्वीकार किया। 1970 और 1993 के बीच उन्होंने अपने संविधान में चार संशोधन सिर्फ़ इस बात के लिए किए कि देश में रहने वाले किसी भी आदमी को बेगानेपन का अहसास न हो और सभी मिल-जुलकर रह सकें। उन्होंने इसके लिए जो व्यवस्था की वह बहुत ही कल्पनाशील है तथा कोई और देश एेसा नहीं कर पाया। बेल्जियम के मॉडल (विशेष जानकारियों के लिए देखें बॉक्स) की कुछ मुख्य बातें निम्नलिखित हैं :

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भला यह भी कोई समाधान हुआ? मुझे इस बात की खुशी है कि हमारा संविधान एेसी बातें नहीं कहता कि किस समुदाय से कितने मंत्री होंगे।

संविधान में इस बात का स्पष्ट प्रावधान है कि केंद्रीय सरकार में डच और प्रेंच-भाषी मंत्रियों की संख्या समान रहेगी। कुछ विशेष कानून तभी बन सकते हैं जब दोनों भाषायी समूह के सांसदों का बहुमत उसके पक्ष में हो। इस प्रकार किसी एक समुदाय के लोग एकतरफ़ा फ़ैसला नहीं कर सकते।

केंद्र सरकार की अनेक शक्तियाँ देश के दो इलाकों की क्षेत्रीय सरकारों को सुपुर्द कर दी गई हैं यानी राज्य सरकारें केंद्रीय सरकार के अधीन नहीं हैं।

ब्रूसेल्स में अलग सरकार है और इसमें दोनों समुदायों का समान प्रतिनिधित्व है। प्रेंच-भाषी लोगों ने ब्रूसेल्स में समान प्रतिनिधित्व के इस प्रस्ताव को स्वीकार किया क्योंकि डच-भाषी लोगो ने केंद्रीय सरकार में बराबरी का प्रतिनिधित्व स्वीकार किया था।

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बेल्जियम की एक बस्ती का पता यहाँ दिए गए फ़ोटोग्राफ में अंकित है। गौर करें कि स्थान का नाम और दिशा की जानकारी दो भाषाओं–प्रेंηच और डच में दी गई है।

2146.png केंद्रीय और राज्य सरकारों के अलावा यहाँ एक तीसरे स्तर की सरकार भी काम करती है यानी सामुदायिक सरकार। इस सरकार का चुनाव एक ही भाषा बोलने वाले लोग करते हैं। डच, प्रेंηच और जर्मन बोलने वाले समुदायों के लोग चाहे वे जहाँ भी रहते हों, इस सामुदायिक सरकार को चुनते हैं। इस सरकार को संस्कृति, शिक्षा और भाषा जैसे मसलों पर फ़ैसले लेने का अधिकार है।

आपको बेल्जियम का मॉडल कुछ जटिल लग सकता है। निश्चित रूप से यह जटिल है–खुद बेल्जियम में रहने वालों के लिए भी। पर यह व्यवस्था बेहद सफल रही है। इससे मुल्क में गृहयुद्ध की आशंकाओं पर विराम लग गया है वरना गृहयुद्ध की स्थिति में बेल्जियम भाषा के आधार पर दो टुकड़ों में बँट गया होता। जब अनेक यूरोपीय देशों ने साथ मिलकर यूरोपीय संघ बनाने का फ़ैसला किया तो ब्रूसेल्स को उसका मुख्यालय चुना गया।

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ब्रूसेल्स, बेल्जियम में स्थित यूरोपीय संसद

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...तो आपके कहने का मतलब है कि सत्ता में हिस्सेदारी से हम \ज़्यादा ताकतवर होते हैं। यह बात तो कुछ अजीब लगती है। खैर, ज़रा सोचने दीजिए!

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कोई एक अखबार पूरे ह फ्ते भर पढें और फिर युद्धों और लड़ाइयों की खबरों की कतरनें जमा करें। पाँच-पाँच छात्रों के दो समूह एक साथ यह काम कर सकते हैं। फिर दोनों समूह अपनी सारी कतरन साथ मिलाकर कुछ इस तरह से काम कर सकते हैं :

सारे झगड़ों को उनके स्थान (अपने प्रदेश, देश, देश से बाहर) के हिसाब से वर्गीकृत करें।

इन टकरावों के कारण जानने की कोशिश करें। इनमें से कितने विवाद सत्ता के बँटवारे को लेकर हैं?

इनमें से किस-किस विवाद को सत्ता में साझेदारी तय करके सुलझाया जा सकता है?

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बेल्जियम और श्रीलंका की इन कथाओं से हमें क्या शिक्षा मिलती है? दोनों ही देश लोकतांत्रिक हैं। फिर भी सत्ता में साझेदारी के सवाल को उन्होंने अलग-अलग ढंग से निपटाने की कोशिश की। बेल्जियम के नेताओं को लगा कि विभिन्न समुदाय और क्षेत्रों की भावनाओं का आदर करने पर ही देश की एकता संभव है। इस एहसास के चलते दोनों पक्ष सत्ता में साझेदारी करने पर सहमत हुए। श्रीलंका में ठीक उलटा रास्ता अपनाया गया। इससे यह पता चलता है कि अगर बहुसंख्यक समुदाय दूसरों पर प्रभुत्व कायम करने और सत्ता में उनको हिस्सेदार न बनाने का फ़ैसला करता है तो इससे देश की एकता ही संकट में पड़ सकती है।

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जर्मन इंजीनियरिंग का बेहतरीन नमूना...

टैब-द कैलगरी सन, केगल कार्टूंस


बाईं तरफ़ अंकित कार्टून में जर्मनी की एक समस्या का संकेत किया गया है। वहाँ क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक पार्टी और सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी नामक दो बड़ी पार्टियों की गठबंधन सरकार है। एेतिहासिक रूप से ये दोनों पार्टियाँ एक-दूसरे की प्रतिस्पर्धी रही हैं। सन् 2005 के चुनावों में इन दोनों में से किसी को अपने बूते सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं मिला इसलिए इन्हें गठबंधन-सरकार बनानी पड़ी। दोनों दल विभिन्न नीतिगत मामलों पर अलग-अलग पक्ष लेते हैं फिर भी वहाँ साथ मिलकर सरकार चला रहे हैं।
जर्मनी की संसद के बारे में जानकारी के लिए, लॉग अॉन करें https://www.bundestag.de/en
सत्ता की साझेदारी क्यों ज़रूरी है?

इस प्रकार सत्ता के बँटवारे के पक्ष में दो तरह के तर्क दिए जा सकते हैं। पहला, सत्ता का बँटवारा ठीक है क्योंकि इससे विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच टकराव का अंदेशा कम हो जाता है। चूँकि सामाजिक टकराव आगे बढ़कर अक्सर हिंसा और राजनीतिक अस्थिरता का रूप ले लेता है इसलिए सत्ता में हिस्सा दे देना राजनीतिक व्यवस्था के स्थायित्व के लिए अच्छा है। बहुसंख्यक समुदाय की इच्छा को बाकी सभी पर थोपना तात्कालिक तौर पर लाभकारी लग सकता है पर आगे चलकर यह देश की अखंडता के लिए घातक हो सकता है। बहुसंख्यकों का आतंक सिर्फ़ अल्पसंख्यकों के लिए ही परेशानी पैदा नहीं करता अक्सर यह बहुसंख्यकों के लिए भी बर्बादी का कारण बन जाता है।

सत्ता का बँटवारा लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के लिए ठीक है-इसके पक्ष में एक और बात कही जा सकती है और वह बात कहीं ज़्यादा गहरी है। सत्ता की साझेदारी दरअसल लोकतंत्र की आत्मा है। लोकतंत्र का मतलब ही होता है कि जो लोग इस शासन-व्यवस्था के अंतर्गत हैं उनके बीच सत्ता को बाँटा जाए और ये लोग इसी ढर्रे से रहें। इसलिए, वैध सरकार वही है जिसमें अपनी भागीदारी के माध्यम से सभी समूह शासन व्यवस्था से जुड़ते हैं।

इन दो तर्कों में से एक को हम युक्तिपरक और दूसरे को नैतिक तर्क कह सकते हैं। युक्तिपरक या समझदारी का तर्क लाभकर परिणामों पर ज़ोर देता है जबकि नैतिक तर्क सत्ता के बँटवारे के अंतर्भूत महत्त्व को बताता है।

युक्तिपरकः हानि-लाभ का सावधानीपूर्वक हिसाब लगाकर लिया गया फ़ैसला। पूरी तरह से नैतिकता पर आधारित फ़ैसला अक्सर इसके उलट होता है।

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एनिते बेल्जियम के उत्तरी इलाके के एक डच माध्यम के स्कूल में पढ़ती है। प्रेंηच बोलने वाले उसके अनेक स्कूली साथी चाहते हैं कि पढ़ाई प्रेंηच में ही हो। सेल्वी श्रीलंका की राजधानी कोलंबो के एक स्कूल में पढ़ती है। वह और उसके स्कूल के बहुत से दोस्त तमिल-भाषी हैं और इनके माता-पिता पढ़ाई का माध्यम तमिल ही रखना चाहते हैं।

2148.png कौन-सी सरकार एनिते और सेल्वी के माता-पिता की इच्छा पूरी कर सकती है? किसे सफलता मिलने की संभावना अधिक है और क्यों?

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खलील की उलझन

जैसा कि होता आया है, इस बार भी विक्रम रात की खामोशी में अपनी मोटरसाइकिल चलाए जा रहा था और बेताल उसकी पीठ पर बैठा था। हमेशा की तरह इस बार भी यह सोचकर कि कहीं विक्रम को नींद न आ जाए बेताल ने कहानी सुनाना शुरू किया। कहानी कुछ इस प्रकार थी :

बेरूत शहर में खलील नाम का एक आदमी रहा करता था। उसके माँ-बाप अलग-अलग समुदाय के थे। उसके पिता आर्थोडॉक्स ईसाई थे तो माँ सुन्नी मुसलमान। आधुनिक शहर के लिए यह कोई अनूठी बात न थी। लेबनान में अलग-अलग समुदाय के लोग रहते थे और राजधानी बेरूत में भी बस जाते थे। वे साथ रहते थे,मेल-जोल होता था पर गृहयुद्ध में वे एक-दूसरे से लड़ते भी थे। खलील का एक चाचा एेसी ही लड़ाई में मारा गया था।

गृहयुद्ध की समाप्ति के बाद लेबनान के सारे नेता साथ मिलकर बैठे और विभिन्न समुदायों के बीच सत्ता के बँटवारे के कुछ बुनियादी नियमों पर सहमत हुए। इन नियमों के अनुसार तय हुआ कि देश का राष्ट्रपति मैरोनाइट पंथ का कोई कैथोलिक ही होना चाहिए। सिर्फ़ सुन्नी मुसलमान ही प्रधानमंत्री हो सकता है। उपप्रधानमंत्री का पद आर्थोडॉक्स ईसाई और संसद के अध्यक्ष का पद शिया मुसलमान के लिए तय हुआ। इस समझौते के अनुसार आगे से ईसाई प्रुांस से संरक्षण की माँग नहीं करेंगे और मुसलमान भी पड़ोसी सीरिया के साथ एकीकरण की माँग छो\ड़ने पर सहमत हुए। जब ईसाइयों और मुसलमानों के बीच यहसमझौता हुआ था तब दोनों की आबादी लगभग बराबर थी। बाद में मुसलमान स्पष्ट रूप से बहुमत में आ गए पर दोनों पक्ष अभी भी उस समझौते का आदर करतेहुए उसे मान रहे हैं।

खलील को इस समझौते में बड़ी गड़बड़ी लगती है। वह राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा वाला लोकप्रिय व्यक्ति है लेकिन मौजूदा व्यवस्था के रहते वह सबसे बड़े पद पर पहंुँच ही नहीं सकता। वह न तो माँ के धर्म को मानता है और न ही पिता के। असल में वह चाहता ही नहीं कि उसे किसी भी धर्म से जोड़कर पहचाना जाए। उसे समझ में नहीं आता कि लेबनान भी अन्य ‘सामान्य’ लोकतंत्रों की तरह क्यों नहीं चलता। उसका कहना है–"सिर्फ़ चुनाव कराइए, हर किसी को चुनाव लड़ने की आज़ादी दीजिए और जिसे सबसे ज़्यादा वोट मिलें वह राष्ट्रपति बन जाए; भले ही वह किसी समुदाय का हो?" लेकिन उसके जिन बड़े-बुज़ुर्गों ने गृहयुद्ध देखा है उनका कहना है कि मौजूदा व्यवस्था ही शांति की सबसे अच्छी गारंटी है।

अभी कहानी खत्म भी नहीं हुई थी कि वे टीवी टावर के पास पहुँच गए। यहाँ वे रुक सकते थे। बेताल ने जल्दी से कहानी खत्म की और अपना सवाल विक्रम से पूछा, "अगर आपको लेबनान का कानून फिर से लिखने का अधिकार होता तो आप क्या करते? क्या आप पुरानी व्यवस्था ही चलने देते या आप कुछ नयाकरते?" बेताल विक्रम और अपने बीच हुए समझौते को दोहराना नहीं भूला : "अगर आपके दिमाग में स्पष्ट जवाब है और आप फिर भी नहीं बताते तो आपकी मोटरसाइकिल जाम हो जाएगी और आप आगे नहीं बढ़ पाएँगे?"

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क्या आप बेचारे विक्रम को बेताल के सवाल का जवाब देने में मदद कर सकते हैं?

सत्ता की साझेदारी के रूप

राजनीतिक सत्ता का बँटवारा नहीं किया जा सकता – इसी धारणा के विरुद्ध सत्ता की साझेदारी का विचार सामने आया था। लंबे समय से यही मान्यता चली आ रही थी कि सरकार की सारी शक्तियाँ एक व्यक्ति या किसी खास स्थान पर रहने वाले व्यक्ति-समूह के हाथ में रहनी चाहिए। अगर फ़ैसले लेने की शक्ति बिखर गई तो तुरंत फ़ैसले लेना और उन्हें लागू करना संभव नहीं होगा। लेकिन, लोकतंत्र का एक बुनियादी सिद्धांत है कि जनता ही सारी राजनीतिक शक्ति का स्रोत है। इसमें लोग स्व-शासन की संस्थाओं के माध्यम से अपना शासन चलाते हैं। एक अच्छे लोकतांत्रिक शासन में समाज के विभिन्न समूहों और उनके विचारों को उचित सम्मान दिया जाता है और सार्वजनिक नीतियाँ तय करने में सबकी बातेें शामिल होती हैं इसलिए उसी लोकतांत्रिक शासन को अच्छा माना जाता है जिसमें ज़्यादा से ज़्यादा नागरिकों को राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदार बनाया जाए।

आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में सत्ता की साझेदारी के अनेक रूप हो सकते हैं। आइए, हम कुछ प्रचलित उदाहरणोें पर गौर करें :

1 शासन के विभिन्न अंग, जैसे विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच सत्ता का बँटवारा रहता है। इसे हम सत्ता का क्षैतिज वितरण कहेंगे क्योंकि इसमें सरकार के विभिन्न अंग एक ही स्तर पर रहकर अपनी-अपनी शक्ति का उपयोग करते हैं। एेसे बँटवारे से यह सुनिश्चित हो जाता है कि कोई भी एक अंग सत्ता का असीमित उपयोग नहीं कर सकता। हर अंग दूसरे पर अंकुश रखता है। इससे विभिन्न संस्थाओं के बीच सत्ता का संतुलन बनता है। लोकतांत्रिक संस्थाओं के बारे में 9वीं कक्षा में पढ़ते हुए हमने देखा था कि हमारे देश में कार्यपालिका सत्ता का उपयोग करती ज़रूर है पर यह संसद के अधीन कार्य करती है; न्यायपालिका की नियुक्ति कार्यपालिका करती है पर न्यायपालिका ही कार्यपालिका पर और विधायिका द्वारा बनाए कानूनों पर अंकुश रखती है। इस व्यवस्था को ‘नियंत्रण और संतुलन की व्यवस्था’ भी कहते हैं।

2 सरकार के बीच भी विभिन्न स्तरों पर सत्ता का बँटवारा हो सकता है : जैसे, पूरे देश के लिए एक सामान्य सरकार हो और फिर प्रांत या क्षेत्रीय स्तर पर अलग-अलग सरकार रहे। पूरे देश के लिए बनने वाली एेसी सामान्य सरकार को अक्सर संघ या केंद्र सरकार कहते हैं, प्रांतीय या क्षेत्रीय स्तर की सरकारों को हर जगह अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है। भारत में हम इन्हें राज्य सरकार कहते हैं। हर देश में बँटवारा एेसा ही नहीं है। कई देशों में प्रांतीय या क्षेत्रीय सरकारें नहीं हैं। लेकिन हमारी तरह, जिन देशों में एेसी व्यवस्था है वहाँ के संविधान में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि केंद्र और राज्य सरकारों के बीच सत्ता का बँंटवारा किस तरह होगा। बेल्जियम में तो यह काम हुआ है पर श्रीलंका में नहीं हुआ है। राज्य सरकारों से नीचे के स्तर की सरकारों के लिए भी एेसी ही व्यवस्था हो सकती है। नगरपालिका और पंचायतें एेसी ही इकाइयाँ हैं। उच्चतर और निम्नतर स्तर की सरकारों के बीच सत्ता के एेसे बँटवारे को उर्ध्वाधर वितरण कहा जाता है। हम अगले अध्याय में इस पर विस्तार से चर्चा करेंगे।

3 सत्ता का बँटवारा विभिन्न सामाजिक समूहों, मसलन, भाषायी और धार्मिक समूहों के बीच भी हो सकता है। बेल्जियम में ‘सामुदायिक सरकार’ इस व्यवस्था का एक अच्छा उदाहरण है। कुछ देशों के संविधान और कानून में इस बात का प्रावधान है कि सामाजिक रूप से कमज़ोर समुदाय और महिलाओं को विधायिका और प्रशासन में हिस्सेदारी दी जाए। पिछले साल हमने अपने देश में प्रचलित आरक्षित चुनाव क्षेत्र वाली एेसी ही व्यवस्था के बारे में पढ़ा था। इस तरह की व्यवस्था विधायिका और प्रशासन में अलग-अलग सामाजिक समूहों को हिस्सेदारी देने के लिए की जाती है ताकि लोग खुद को शासन से अलग न समझने लगें। अल्पसंख्यक समुदायों को भी इसी तरीके से सत्ता में उचित हिस्सेदारी दी जाती है। सामाजिक विविधताओं को शासन में भागीदारी देने के अलग-अलग तरीकों पर हम इकाई II में चर्चा करेंगे।

4 सत्ता के बँटवारे का एक रूप हम विभिन्न प्रकार के दबाव-समूह और आंदोलनों द्वारा शासन को प्रभावित और नियंत्रित करने के तरीके में भी लक्ष्य कर सकते हैं। लोकतंत्र में लोगों के सामने सत्ता के दावेदारों के बीच चुनाव का विकल्प ज़रूर रहना चाहिए। समकालीन लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में यह विकल्प विभिन्न पार्टियों के रूप में उपलब्ध होता है। पार्टियाँ सत्ता के लिए आपस में प्रतिस्पर्धा करती हैं। पार्टियों की यह आपसी प्रतिद्वंद्विता ही इस बात को सुनिश्चित कर देती है कि सत्ता एक व्यक्ति या समूह के हाथ में न रहे। एक बड़ी समयावधि पर गौर करें तो पाएँगे कि सत्ता बारी-बारी से अलग-अलग विचारधारा और सामाजिक समूहों वाली पार्टियों के हाथ आती-जाती रहती है। कई बार सत्ता की यह भागीदारी एकदम प्रत्यक्ष दिखती है क्योंकि दो या अधिक पार्टियाँ मिलकर चुनाव लड़ती हैं या सरकार का गठन करती हैं। लोकतंत्र में हम व्यापारी, उद्योगपति, किसान और औद्योगिक मज़दूर जैसे कई संगठित हित-समूहों को भी सक्रिय देखते हैं। सरकार की विभिन्न समितियों में सीधी भागीदारी करके या नीतियों पर अपने सदस्य-वर्ग के लाभ के लिए दबाव बनाकर ये समूह भी सत्ता में भागीदारी करते हैं। इकाई III में हम राजनीतिक दल, दबाव समूह और सामाजिक आंदोलनों की कार्यप्रणाली पर गौर करेंगे।

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मेरे स्कूल में हर महीने क्लास मॉनीटर बदल जाता है। क्या आप इसे ही सत्ता की भागीदारी बता रहे हैं?

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प्रश्नावली

1. आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में सत्ता की साझेदारी के अलग-अलग तरीके क्या हैं? इनमें से प्रत्येक का एक उदाहरण भी दें।

2. भारतीय संदर्भ में सत्ता की हिस्सेदारी का एक उदाहरण देते हुए इसका एक युक्तिपरक और एक नैतिक कारण बताएँ।

3. इस अध्याय को पढ़ने के बाद तीन छात्रों ने अलग-अलग निष्कर्ष निकाले। आप इनमें से किससे सहमत हैं और क्यों? अपना जवाब करीब 50 शब्दों में दें।

थम्मनजिन समाजों में क्षेत्रीय, भाषायी और जातीय आधार पर विभाजन हो सिर्फ़ वहीं सत्ता की साझेदारी ज़रूरी है।

मथाईसत्ता की साझेदारी सिर्फ़ एेसे बड़े देशों के लिए उपयुक्त है जहाँ क्षेत्रीय विभाजन मौजूद होते हैं।

औसेफहर समाज में सत्ता की साझेदारी की ज़रूरत होती है भले ही वह छोटा हो या उसमें सामाजिक विभाजन न हों।

4. बेल्जियम में ब्रूसेल्स के निकट स्थित शहर मर्चटेम के मेयर ने अपने यहाँ के स्कूलों में प्रेंच बोलने पर लगी रोक को सही बताया है। उन्होंने कहा कि इससे डच भाषा न बोलने वाले लोगों को इस फ्लेमिश शहर के लोगों से जुड़ने में मदद मिलेगी। क्या आपको लगता है कि यह फ़ैसला बेल्जियम की सत्ता की साझेदारी की व्यवस्था की मूल भावना से मेल खाता है? अपना जवाब करीब 50 शब्दों में लिखें।

5. नीचे दिए गए उद्धरण को गौर से पढ़ें और इसमें सत्ता की साझेदारी के जो युक्तिपरक कारण बताए गए हैं उसमें से किसी एक का चुनाव करें।

"महात्मा गांधी के सपनों को साकार करने और अपने संविधान निर्माताओं की उम्मीदों को पूरा करने के लिए हमें पंचायतों को अधिकार देने की ज़रूरत है। पंचायती राज ही वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना करता है। यह सत्ता उन लोगों के हाथों में सौंपता है जिनके हाथों में इसे होना चाहिए। भ्रष्टाचार कम करने और प्रशासनिक कुशलता को बढ़ाने का एक उपाय पंचायतों को अधिकार देना भी है। जब विकास की योजनाओं को बनाने और लागू करने में लोगों की भागीदारी होगी तो इन योजनाओं पर उनका नियंत्रण बढ़ेगा। इससे भ्रष्ट बिचौलियों को खत्म किया जा सकेगा। इस प्रकार पंचायती राज लोकतंत्र की नींव को मज़बूत करेगा।"

6. सत्ता के बँटवारे के पक्ष विपक्ष में कई तरह के तर्क दिए जाते हैं। इनमें से जो तर्क सत्ता के बँटवारे के क्ष में हैं उनकी पहचान करें और नीचे दिए गए कोड से अपने उत्तर का चुनाव करें।

सत्ता की साझेदारी :

(क) विभिन्न समुदायों के बीच टकराव को कम करती है

(ख) पक्षपात का अंदेशा कम करती है।

(ग) निर्णय लेने की प्रक्रिया को अटका देती है।

(घ) विविधताओं को अपने में समेट लेती है।

(ङ) अस्थिरता और आपसी फूट को बढ़ाती है।

(च) सत्ता में लोगों की भागीदारी बढ़ाती है।

(छ) देश की एकता को कमज़ोर करती है।

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7. बेल्जियम और श्रीलंका की सत्ता में साझीदारी की व्यवस्था के बारे में निम्नलिखित बयानों पर विचार करें :

(क) बेल्जियम में डच-भाषी बहुसंख्यकों ने प्रेंηच-भाषी अल्पसंख्यकों पर अपना प्रभुत्व जमाने का प्रयास किया।

(ख) सरकार की नीतियों ने सिंहली-भाषी बहुसंख्यकों का प्रभुत्व बनाए रखने का प्रयास किया।

(ग) अपनी संस्कृति और भाषा को बचाने तथा शिक्षा तथा रोज़गार में समानता के अवसर के लिए श्रीलंका के तमिलों ने सत्ता को संघीय ढाँचे पर बाँटने की माँग की।

(घ) बेल्जियम में एकात्मक सरकार की जगह संघीय शासन व्यवस्था लाकर मुल्क को भाषा के आधार पर टूटने से बचा लिया गया।

ऊपर दिए गए बयानों में से कौन-से सही हैं?

(सा) क, ख, ग और घ (रे) क, ख और घ (गा) ग और घ (मा) ख, ग और घ

8. सूची I [सत्ता के बँटवारे के स्वरूप] और सूची 2 [शासन के स्वरूप] में मेल कराएँ और नीचे दिए गए कोड का उपयोग करते हुए सही जवाब दें :

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9. सत्ता की साझेदारी के बारे में निम्नलिखित दो बयानों पर गौर करें और नीचे दिए गए कोड के आधार पर जवाब दें :

(अ) सत्ता की साझेदारी लोकतंत्र के लिए लाभकर है।

(ब) इससे सामाजिक समूहों मे टकराव का अंदेशा घटता है।

इस बयानों में कौन सही है और कौन गलत?

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