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संघवाद

परिचय
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पिछले अध्याय में हमने गौर किया था कि शासन के विभिन्न स्तरों के बीच सत्ता का उर्ध्वाधर बँटवारा आधुनिक लोकतंत्रों में सत्ता की साझेदारी का एक आम रूप है। इस अध्याय में हम सत्ता के बँटवारे के इसी स्वरूप पर विचार करेंगे। इसे आमतौर पर संघवाद कहा जाता है। इससे एक ही लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंदर अलग-अलग इलाकों का साथ रहना और चलना संभव हो पाता है। अध्याय के शेष हिस्से में भारत के संघवाद के सिद्धांत और व्यवहार को समझने की कोशिश की गई है। संघीय ढाँचे से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों पर चर्चा के बाद इस अध्याय में संघवाद को मज़बूत करने वाली नीतियों और राजनीति का विश्लेषण किया जाएगा। अध्याय के आखिर में हम भारतीय संघवाद के नए और तीसरे स्तर यानी स्थानीय शासन की चर्चा करेंगे।

संघवाद क्या है?
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मैं थोड़ी उलझन में हूँ। आखिर भारत की शासन-व्यवस्था को क्या नाम दिया जाए? यह एकात्मक है, संघात्मक अथवा केंद्रीकृत?

आइए, एक बार फिर पिछले अध्याय में दिए गए बेल्जियम और श्रीलंका के अंतर पर गौर करें। आपको याद होगा कि बेल्जियम के संविधान में जो प्रमुख बदलाव किए गए उनमें केंद्रीय सरकार की शक्ति में कमी करना भी एक था और ये अधिकार प्रांतीय सरकारों को दिए गए। बेल्जियम में उससे पहले से भी प्रांतीय सरकारें थीं। तब भी उनकी अपनी भूमिका थी, अपने अधिकार थे। पर ये अधिकार उनको केंद्र द्वारा दिए गए थे और इन्हें केंद्रीय सरकार वापस भी ले सकती थी। सन् 1993 में कुछ बदलाव हुए और प्रांतीय सरकारों को कुछ संवैधानिक अधिकार दिए गए। इन अधिकारों के लिए प्रांतीय सरकारें अब केंद्र पर निर्भर नहीं रहीं। इस प्रकार बेल्जियम ने एकात्मक शासन की जगह संघीय शासन प्रणाली अपना ली। श्रीलंका में व्यावहारिक रूप से अभी भी एकात्मक शासन व्यवस्था है जिसमें केंद्रीय सरकार के पास ही सारे अधिकार हैं। श्रीलंका के तमिल नेता चाहते थे कि देश में सच्चे अर्थों में संघीय शासन व्यवस्था कायम हो।

संघीय शासन व्यवस्था में सर्वोच्च सत्ता केंद्रीय प्राधिकार और उसकी विभिन्न आनुषंगिक इकाइयों के बीच बँट जाती है। आम तौर पर संघीय व्यवस्था में दो स्तर पर सरकारें होती हैं। इसमें एक सरकार पूरे देश के लिए होती है जिसके ज़िम्मे राष्ट्रीय महत्व के विषय होते हैं। फिर, राज्य या प्रांतों के स्तर की सरकारें होती हैं जो शासन के दैनंदिन कामकाज को देखती हैं। सत्ता के इन दोनों स्तर की सरकारें अपने-अपने स्तर पर स्वतंत्र होकर अपना काम करती हैं।

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इस अर्थ में संघीय शासन व्यवस्था एकात्मक शासन व्यवस्था से ठीक उलट है। एकात्मक व्यवस्था में शासन का एक ही स्तर होता है और बाकी इकाइयाँ उसके अधीन होकर काम करती हैं। इसमें केंद्रीय सरकार प्रांतीय या स्थानीय सरकारों को आदेश दे सकती है। पर, संघीय व्यवस्था में केंद्रीय सरकार राज्य सरकार को कुछ खास करने का आदेश नहीं दे सकती। राज्य सरकारों के पास अपनी शक्तियाँ होती हैं और इसके लिए वह केंद्रीय सरकार को जवाबदेह नहीं होती हैं। ये दोनों ही सरकारें अपने-अपने स्तर पर लोगों को जवाबदेह होती हैं।

आइए, संघीय व्यवस्था की कुछ महत्वपूर्ण विशेषताओं पर गौर करें :

1 यहाँ सरकार दो या अधिक स्तरों वाली होती है।

2 अलग-अलग स्तर की सरकारे एक ही नागरिक समूह पर शासन करती हैं पर कानून बनाने, कर वसूलने और प्रशासन का उनका अपना-अपना अधिकार-क्षेत्र होेता है।

अधिकार-क्षेत्र : एेसा दायरा जिस पर किसी का वैधानिक अधिकार हो। यह दायरा भौगोलिक सीमा के अंतर्गत परिभाषित होता है अथवा इसके अंतर्गत कुछ विषयों को भी रखा जा सकता है।

3 विभिन्न स्तरों की सरकारों के अधिकार– क्षेत्र संविधान में स्पष्ट रूप से वर्णित होते हैं इसलिए संविधान सरकार के हर स्तर के अस्तित्व और प्राधिकार की गारंटी और सुरक्षा देता है।

4 संविधान के मौलिक प्रावधानों को किसी एक स्तर की सरकार अकेले नहीं बदल सकती। एेसे बदलाव दोनों स्तर की सरकारों की सहमति से ही हो सकते हैं

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संघीय व्यवस्था जब सिर्फ़ बड़े देशों के अनुकूल है तो बेल्जियम ने इसे क्यों अपनाया?

5 अदालतों को संविधान और विभिन्न स्तर की सरकारों के अधिकारों की व्याख्या करने का अधिकार है। विभिन्न स्तर की सरकारों के बीच अधिकारों के विवाद की स्थिति में सर्वोच्च न्यायालय निर्णायक की भूमिका निभाता है।

6 वित्तीय स्वायत्तता निश्चित करने के लिए विभिन्न स्तर की सरकारों के लिए राजस्व के अलग-अलग स्रोत निर्धारित हैं।

7 इस प्रकार संघीय शासन व्यवस्था के दोहरे उद्देश्य हैं : देश की एकता की सुरक्षा करना और उसे ब\ढ़ावा देना तथा इसके साथ ही क्षेत्रीय विविधताओं का पूरा सम्मान करना। इस कारण संघीय व्यवस्था के गठन और कामकाज के लिए दो चीज़ें सबसे महत्वपूर्ण हैं। विभिन्न स्तरों की सरकारों के बीच सत्ता के बँटवारे के नियमों पर सहमति होनी चाहिए और इनका एक-दूसरे पर भरोसा होना चाहिए कि वे अपने-अपने अधिकार-क्षेत्रों को मानेंगे। आदर्श संघीय व्यवस्था में ये दोनों पक्ष होते हैंः आपसी भरोसा और साथ रहने पर सहमति।

केंद्र और विभिन्न राज्य सरकारों के बीच सत्ता का बँटवारा हर संघीय सरकार में अलग-अलग किस्म का होता है।

यह बात इस चीज़ पर निर्भर करती है कि संघ की स्थापना किन एेतिहासिक संदर्भों में हुई। संघीय शासन व्यवस्थाएँ आमतौर पर दो तरीकों से गठित होती हैं। पहला तरीका है दो या अधिक स्वतंत्र राष्ट्रों को साथ लाकर एक बड़ी इकाई गठित करने का। इसमें दोनों स्वतंत्र राष्ट्र अपनी संप्रभुता को साथ करते हैं, अपनी अलग-अलग पहचान को भी बनाए रखते हैं और अपनी सुरक्षा तथा खुशहाली ब\ढ़ाने का रास्ता अख्तियार करते हैं। साथ आकर संघ बनाने के उदाहरण हैं–संयुक्त राज्य अमरीका, स्विट्जरलैंड और अॉस्ट्रेलिया वगैरह। इस तरह की संघीय व्यवस्था वाले मुल्कों में आमतौर पर प्रांतों को समान अधिकार होता है और वे केंद्र के बरक्स ज़्यादा ताकतवर होते हैं।

संघीय शासन व्यवस्था के गठन का दूसरा तरीका है बड़े देश द्वारा अपनी आंतरिक विविधता को ध्यान में रखते हुए राज्यों का गठन करना और फिर राज्य और राष्ट्रीय सरकार के बीच सत्ता का बँटवारा कर देना। भारत, बेल्जियम और स्पेन इसके उदाहरण हैं। इस दूसरी श्रेणी वाली व्यवस्था में राज्यों के बरक्स केंद्र सरकार ज़्यादा ताकतवर हुआ करती है। अक्सर इस व्यवस्था में विभिन्न राज्यों को समान अधिकार दिए जाते हैं पर विशेष स्थिति में किसी-किसी प्रांत को विशेष अधिकार भी दिए जाते हैं।

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भारत में संघीय व्यवस्था
हमने पहले देखा है कि बेल्जियम और श्रीलंका जैसे छोटे देशों को भी अपने यहाँ की विविधता को सँभालने में बड़ी मुश्किलें आती हैं। सोचिए कि भारत जैसे विशाल मुल्क में यह काम कितना मुश्किल होगा जहाँ बहुत-सी भाषाओं, धर्मों और क्षेत्रों के लोग रहते हैं? हमारे देश में सत्ता की साझेदारी की क्या व्यवस्था है?
chap2-4.jpgक्या यह कुछ अजीब बात नहीं है? क्या हमारे संविधान निर्माताओं को मालूम नहीं था कि संघीय व्यवस्था क्या होती है या वे इसके बारे में कहने से बचना चाहते थे?

आइए, संविधान से ही शुरुआत करें। एक बहुत ही दुखद और रक्तरंजित विभाजन के बाद भारत आज़ाद हुआ। आज़ादी के कुछ समय बाद ही अनेक स्वतंत्र रजवाड़े भारत में विलीन हो गए। भारतीय संविधान ने भारत को राज्यों का संघ घोषित किया। इसमें संघ शब्द नहीं आया पर भारतीय संघ का गठन संघीय शासन व्यवस्था के सिद्धांत पर हुआ है।

आइए, हमने ऊपर संघीय व्यवस्था की जिन सात विशेषताओं का ज़िक्र किया था उन्हें फिर से देख लें। हम देख सकते हैं कि ये सभी बातें भारतीय संविधान के विभिन्न प्रावधानों पर लागू होती हैं। संविधान ने मैलिक रूप से दो स्तरीय शासन व्यवस्था का प्रावधान किया था–संघ सरकार (या हम जिसे केंद्र सरकार कहते हैं) और राज्य सरकारें। केंद्र सरकार को पूरे भारतीय संघ का प्रतिनिधित्व करना था। बाद में पंचायतों और नगरपालिकाओं के रूप में संघीय शासन का एक तीसरा स्तर भी जोड़ा गया। किसी भी संघीय व्यवस्था की तरह अपने यहाँ भी तीनों स्तर की शासन व्यवस्थाओं के अपने अलग-अलग अधिकार क्षेत्र हैं। संविधान में स्पष्ट रूप से केंद्र और राज्य सरकारों के बीच विधायी अधिकारों को तीन हिस्से में बाँटा गया है। ये तीन सूचियाँ इस प्रकार हैंः

संघ सूची में प्रतिरक्षा, विदेशी मामले, बैंकिंग, संचार और मुद्रा जैसे राष्ट्रीय महत्व के विषय हैं। पूरे देश के लिए इन मामलों में एक तरह की नीतियों की ज़रूरत है। इसी कारण इन विषयों को संघ सूची में डाला गया है। संघ सूची में वर्णित विषयों के बारे में कानून बनाने का अधिकार सिर्फ़ केंद्र सरकार को है।

राज्य सूची में पुलिस, व्यापार, वाणिज्य, कृषि और सिंचाई जैसे प्रांतीय और स्थानीय महत्व के विषय हैं। राज्य सूची में वर्णित विषयों के बारे में सिर्फ़ राज्य सरकार ही कानून बना सकती है।

समवर्ती सूची में शिक्षा, वन, मज़दूर- संघ, विवाह, गोद लेना और उत्तराधिकार जैसे वे विषय हैं जो केंद्र के साथ राज्य सरकारों की साझी दिलचस्पी में आते हैं। इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार राज्य सरकारों और केंद्र सरकार, दोनों को ही है। लेकिन जब दोनों के कानूनों में टकराव हो तो केंद्र सरकार द्वारा बनाया कानून ही मान्य होता है।

यहाँ एक सवाल यह उठता है कि जो विषय इनमें से किसी सूची में नहीं आते उनका क्या होता है? फिर कंप्यूटर साफ्टवेयर जैसे विषय किसके अधिकार-क्षेत्र में रहें क्योंकि ये संविधान बनने के बाद आए हैं? हमारे संविधान के अनुसार ‘बाक़ी बचे’ विषय केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में चले जाते हैं।

हमने ऊपर देखा कि ‘सबको साथ लेकर’ चलने की नीति मानकर बनी अधिकतर बड़ी संघीय व्यवस्थाओं में साथी इकाइयों को बराबर अधिकार नहीं मिलते। भारतीय संघ के सारे राज्यों को भी बराबर अधिकार नहीं हैं। कुछ राज्यों को विशेष दर्जा प्राप्त है। जैसे कि असम, नागालैंड, अरूणाचल प्रदेश और मिज़ोरम अपने विशिष्ट सामाजिक तथा एेतिहासिक परिस्थितियों के कारण भारत के संविधान के कुछ प्रावधानों (अनुच्छेद 371) के तहत विशेष शक्तियों का लाभ उठाते हैं। ये विशेष शक्तियाँ स्वदेशी लोगों, उनकी संस्कृति और सरकारी सेवाओं में अधिमान्य रोज़गार के भूमि अधिकारों के संरक्षण के संबंधों में स्पष्ट रूप से उपयोगी हैं।

भारतीय संघ की कई काइयों को बहुत ही कम अधिकार हैं। ये वैसे छोटे इलाके हैं जो अपने आकार के चलते स्वतंत्र प्रांत नहीं बन सकते। इन्हें किसी मौजूदा प्रांत में विलीन करना भी संभ नहीं है। चंडीग\ढ़ या लक्षद्वीप अथवा देश की राजधानी दिल्ली जैसे इलाके इसी कोटि में आते हैं और इन्हें केंद्र शासित प्रदेश कहा जाता है। इन क्षेत्रों को राज्यो वाले अधिकार नहीं हैं। इन इलाकों का शासन चलाने का विशेष अधिकार केंद्र सरकार को प्राप्त है।


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अगर कृषि और वाणिज्य राज्य के विषय हैं तो केंद्र में कृषि और वाणिज्य मंत्री क्यों बनाए जाते हैं?

केंद्र और राज्य सरकारों के बीच सत्ता का यह बँटवारा हमारे संविधान की बुनियादी बात है। अधिकारों के इस बँटवारे में बदलाव करना आसान नहीं है। अकेले संसद इस व्यवस्था में बदलाव नहीं कर सकती। एेसे किसी भी बदलाव को पहले संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से मंज़ूर किया जाना होता है। फिर कम से कम आधे राज्यों की विधान सभाओं से उसे मंज़ूूर करवाना होता है।

संवैधानिक प्रावधानों और कानूनों के क्रियान्वयन की देख-रेख में न्यायपालिका महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। शक्तियों के बँटवारे के संबंध में कोई विवाद होने की हालत में फ़ैसला उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में ही होता है। सरकार चलाने और अपनी ज़िम्मेवारियों का निर्वाह करने के लिए ज़रूरी राजस्व की उगाही के संबंध में केंद्र और राज्य सरकारों को कर लगाने और संसाधन जमा करने के अधिकार हैं।

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आकाशवाणी पर एक हफ्ते तक एक राष्ट्रीय और एक क्षेत्रीय समाचार बुलेटिन रोज़ सुनें। सरकारी नीतियों और फ़ैसलों से जुड़ी खबरों की सूची बनाएँ और उनको निम्नलिखित श्रेणियों में बाँटें :

सिर्फ़ केंद्र सरकार से जुड़ी खबरें।

आपके या किसी अन्य राज्य सरकार से जुड़ी खबरें।

केंद्र और राज्य सरकार के संबंध की खबरें।

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पोखरण, जहाँ भारत ने अपने परमाणु परीक्षण किए, राजस्थान में प\ड़ता है। मान लें कि अगर राजस्थान की सरकार केंद्र सरकार की परमाणु-नीति की विरोधी होती तो क्या वह केंद्र सरकार को परमाणु परीक्षण करने से रोक सकती थी?

मान लें कि सिक्किम की सरकार अपने स्कूलों में नयी पाठ्यपुस्तकें लागू करना चाहती है। मान लें कि केंद्र सरकार को पाठ्यपुस्तकों की विषयवस्तु और शैली पसंद नहीं है। एेसी स्थिति में क्या राज्य सरकार को नयी पाठ्यपुस्तकें लागू करने के लिए केंद्र सरकार से अनुमति लेना ज़रूरी है?

मान लें कि नक्सलियों से निपटने की नीतियों के बारे मे आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओड़िसा के मुख्यमंत्रियों की राय अलग-अलग है। क्या एेसे मामले में भारत के प्रधानमंत्री दखल दे सकते हैं और क्या एेसा आदेश जारी कर सकते हैं जिसे सभी मुख्यमंत्री मानें?

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संघीय व्यवस्था कैसे चलती है?

संघीय व्यवस्था के कारगर कामकाज के लिए संवैधानिक प्रावधान ज़रूरी हैं पर इतना ही पर्याप्त नहीं है। अगर भारत में संघीय शासन व्यवस्था कारगर हुई है तो इसका कारण सिर्फ़ संवैधानिक प्रावधानों भर का होना नहीं है। भारत में संघीय व्यवस्था की सफलता का मुख्य श्रेय यहाँ की लोकतांत्रिक राजनीति के चरित्र को देना होगा। इसी से संघवाद की भावना, विविधता का आदर और संग-साथ रहने की इच्छा का हमारे देश के साझा आदर्श के रूप में स्थापित होना सुनिश्चित हुआ। आइए, कुछ प्रमुख बातों पर गौर करें जिनसे पता चलता है कि यह काम किस तरह हो पाया है।

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भाषायी राज्य
भाषा के आधार पर प्रांतों का गठन हमारे देश की लोकतांत्रिक राजनीति के लिए पहली और एक कठिन परीक्षा थी। भारत ने सन् 1947 में लोकतंत्र की राह पर अपनी जीवन-यात्रा शुरू की। उस वक्त से लेकर सन् 2019 तक का अगर आप राजनीतिक मानचित्र देखें तो इस अवधि में आए बदलावों को देखकर एकबारगी आप आश्चर्यचकित रह जाएँगे। अनेक पुराने प्रांत गायब हो गए और कई नए प्रांत बनाए गए। कई प्रांतों की सीमाएँ, क्षेत्र और नाम बदल गए।
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नए राज्यों को बनाने के लिए 1950 के दशक में भारत के कई पुराने राज्यों की सीमाएँ बदलीं। एेसा यह सुनिश्चित करने के लिए किया गया कि एक भाषा बोलने वाले लोग एक राज्य में आ जाएँ। इसके बाद कुछ अन्य राज्यों का गठन भाषा के आधार पर नहीं बल्कि संस्कृति, भूगोल अथवा जातीयताओं (एथनीसिटी) की विभिन्नता को रेखांकित करने और उन्हें आदर देने के लिए भी किया गया। इनमें नगालैंड, उत्तराखंड और झारखंड जैसे राज्य शामिल हैं।

जब एक भाषा के आधार पर राज्यों के गठन की बात उठी तो कई राष्ट्रीय नेताओं को डर था कि इससे देश टूट जाएगा। केंद्र सरकार ने इसी के चलते राज्यों का पुनर्गठन कुछ समय के लिए टाल दिया था पर हमारा अनुभव बताता है कि भाषावार राज्य बनाने से देश ज़्यादा एकीकृत और मज़बूत हुआ। इससे प्रशासन भी पहले की अपेक्षा कहीं ज़्यादा सुविधाजनक हो गया है।

भाषा-नीति
भारत के संघीय ढाँचे की दूसरी परीक्षा भाषा-नीति को लेकर हुई। हमारे संविधान में किसी एक भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं दिया गया। हिंदी को राजभाषा माना गया पर हिंदी सिर्फ़ 40 फ़ीसदी (लगभग) भारतीयों की मातृभाषा है इसलिए अन्य भाषाओं के संरक्षण के अनेक दूसरे उपाय किए गए। संविधान में हिंदी के अलावा अन्य 21 भाषाओं को अनुसूचित भाषा का दर्जा दिया गया है। केंद्र सरकार के किसी पद का उम्मीदवार इनमें से किसी भी भाषा में परीक्षा दे सकता है बशर्ते उम्मीदवार इसको विकल्प के रूप में चुने। राज्यों की भी अपनी राजभाषाएँ हैं। राज्यों का अपना अधिकांश काम अपनी राजभाषा में ही होता है।

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श्रीलंका के ठीक उलट हमारे देश के नेताओं ने हिंदी के उपयोग को बढ़ावा देने के मामले में बहुत सावधानी भरा व्यवहार किया। संविधान के अनुसार सरकारी कामकाज की भाषा के तौर पर अंग्रेज़ी का प्रयोग 1965 में बंद हो जाना चाहिए था पर अनेक गैर-हिंदी भाषी प्रदेशों ने मांग की कि अँगरेज़ी का प्रयोग जारी रखा जाए। तमिलनाडु में तो इस माँग ने उग्र रूप भी ले लिया था। केंद्र सरकार ने हिंदी के साथ-साथ अँगरेज़ी को राजकीय कामों में प्रयोग की अनुमति देकर इस विवाद को सुलझाया। अनेक लोगों का मानना था कि इस समाधान से अँगरेज़ी-भाषी अभिजन को लाभ पहुँचेगा। राजभाषा के रूप में हिंदी को बढ़ावा देने की भारत सरकार की नीति बनी हुई है पर बढ़ावा देने का मतलब यह नहीं कि केंद्र सरकार उन राज्यों पर भी हिंदी को थोप सकती है जहाँ लोग कोई और भाषा बोलते हैं। भारतीय राजनेताओं ने इस मामले में जो लचीला रुख अपनाया उसी से हम श्रीलंका जैसी स्थिति में पहुँचने से बच गए।

केंद्र-राज्य संबंध

केंद्र-राज्य संबंधों में लगातार आए बदलाव का यह उदाहरण बताता है कि व्यवहार में संघवाद किस तरह मज़बूत हुआ है। सत्ता की साझेदारी की संवैधानिक व्यवस्था वास्तविकता में कैसा रूप लेगी यह ज़्यादातर इस बात पर निर्भर करता है कि शासक दल और नेता किस तरह इस व्यवस्था का अनुसरण करते हैं। काफ़ी समय तक हमारे यहाँ एक ही पार्टी का केंद्र और अधिकांश राज्यों में शासन रहा। इसका व्यावहारिक मतलब यह हुआ कि राज्य सरकारों ने स्वायत्त संघीय इकाईं के रूप में अपने अधिकारों का प्रयोग नहीं किया। जब केंद्र और राज्य में अलग-अलग दलों की सरकारें रहीं तो केंद्र सरकार ने राज्यों के अधिकारों की अनदेखी करने की कोशिश की। उन दिनों केंद्र सरकार अक्सर संवैधानिक प्रावधानों का दुरुपयोग करके विपक्षी दलों की राज्य सरकारों को भंग कर देती थी। यह संघवाद की भावना के प्रतिकूल काम था।

1990 के बाद से यह स्थिति काफ़ी बदल गई। इस अवधि में देश के अनेक राज्यों में क्षेत्रीय दलों का उदय हुआ। यही दौर केंद्र में गठबंधन सरकार की शुरुआत का भी था। चूँकि किसी एक दल को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत नहीं मिला इसलिए प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों को क्षेत्रीय दलों समेत अनेक पार्टियों का गठबंधन बनाकर सरकार बनानी पड़ी। इससे सत्ता में साझेदारी और राज्य सरकारों की स्वायत्तता का आदर करने की नई संस्कृति पनपी। इस प्रवृत्ति को सुप्रीम कोर्ट के एक बड़े फ़ैसले से भी बल मिला। इस फ़ैसले के कारण राज्य सरकार को मनमाने ढंग से भंग करना केंद्र सरकार के लिए मुश्किल हो गया। इस प्रकार आज संघीय व्यवस्था के तहत सत्ता की साझेदारी संविधान लागू होने के तत्काल बाद वाले दौर की तुलना में ज़्यादा प्रभावी है। 

गठबंधन सरकार : एक से ज़्यादा राजनीतिक पार्टियों द्वारा साथ मिलकर बनाई गई सरकार को गठबंधन सरकार कहते हैं। आम तौर पर गठबंधन में शामिल दल एक राजनीतिक गठजोड़ करते हैं और एक साझा कार्यक्रम स्वीकार करते हैं।

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गठबंधन सरकार की कुर्सी

12.tifअजित नीनन-इंडिया टुडे बुक अॉव कार्टूंन

यहाँ अंकित दोनों कार्टूनों में केंद्र और राज्यों के बीच का संबंध दिखाया गया है। क्या राज्यों को केंद्र से गुहार लगानी चाहिए कि हमें कुछ और शक्तियाँ दे दो? किसी गठबंधन सरकार का नेता सरकार में शामिल बाकी दलों को कैसे संतुष्ट रखे?

chap2-11.jpgआप यह कह रहे हैं कि क्षेत्रवाद लोकतंत्र के लिए अच्छा है? क्या आप गंभीरता से एेसा कह रहे हैं?


भारत की भाषायी विविधता

भारत में कितनी भाषाएँ हैं? इसका जवाब इस बात पर निर्भर करता है कि आप भाषाओं की गिनती किस तरह करते हैं। इस बारे में अधिकृत नवीनतम सूचना 2011 की जनगणना के आँकड़ों से हासिल होती है। इस जनगणना में लोगोें ने 1300 से ज़्यादा अलग-अलग भाषाओं को अपनी मातृभाषा के रूप में दर्ज कराया था। इन भाषाओं को कुछ प्रमुख भाषाओं के साथ समूहबद्ध कर दिया जाता है। जैसे–भोजपुरी, मगही, बुंदेलखंडी, छत्तीसगढ़ी, राजस्थानी और एेसी ही दूसरी भाषाओं को हिंदी के अंदर जोड़ लिया जाता है। एेसी समूहबद्धता के बाद भी जनगणना में 121 प्रमुख भाषाएँ पाई गईं। इनमें से 22 भाषाओं को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में रखा गया है और इसी कारण इन्हें अनुसूचित भाषाएँ कहा जाता है। बाकी को गैर-अनुसूचित भाषा कहते हैं। भाषा के हिसाब सेे भारत दुनिया का संभवतः सबसे ज़्यादा विविधता वाला देश है।

साथ लगी सूची को देखने पर यह स्पष्ट हो जाएगा कि कोई एक भाषा बहुसंख्यक भारतीयों की मातृभाषा नहीं है। सबसे बड़ी भाषा हिंदी भी सिर्फ़ 44 फ़ीसदी लोगों की ही मातृभाषा है। अगर दूसरी या तीसरी भाषा के तौर पर हिंदी जानने वालों की संख्या भी जोड़ ली जाय तो भी 2011 में यह संख्या 50 फ़ीसदी से कम ही थी। जहाँ तक अंग्रेज़ी की बात है तो सिर्फ़ 0.02 फ़ीसदी लोगों ने इसे अपनी मातृभाषा बताया था। दूसरी या तीसरी भाषा के तौर पर 11 फ़ीसदी लोग इसे जानते थे

इस सूची को गौर से देखें लेकिन इसे याद करने की ज़रूरत नहीं है, सिर्फ़ इन कामों को कीजिएः

इस सूचना के आधार पर बार या पाई चार्ट बनाएँ।

भारत की भाषायी विविधता को दर्शाने वाला एक नक्शा बनाइए। नक्शे में विभिन्न इलाकों को अलग-अलग रंग से भरें और दिखाएँ कि उन इलाकों के लोग कौन सी भाषा बोलते हैं।

एेसी तीन भाषाएँ ढूँढें जिनको भारत में बोला तो जाता है पर जो इस सूची में नहीं हैं।

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भारत में विकेंद्रीकरण
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अच्छा! तो, हमारे यहाँ रेलगाड़ी के थ्री-टियर कोच जैसी व्यवस्था है! मुझे तो सबसे निचला बर्थ ही अच्छा लगता है।

हमने अभी पढ़ा कि संघीय सरकारें दो या अधिक स्तरों वाली होती हैं। हमने अपने देश में दो स्तरों वाली सरकार की चर्चा की है पर भारत जैसे विशाल देश में सिर्फ़ दो स्तर की शासन व्यवस्था से ही बढ़िया शासन नहीं चल सकता। भारत के प्रांत यूरोप के स्वतंत्र देशों से भी बड़े हैं। जनसंख्या के हिसाब से उत्तर प्रदेश रूस से बड़ा है। महाराष्ट्र लगभग जर्मनी के बराबर है। भारत के अनेक राज्य खुद भी अंदरूनी तौर पर विविधताओं से भरे हैं। इस प्रकार इन राज्यों में भी सत्ता को बाँटने की ज़रूरत है। भारत में संघीय सत्ता की साझेदारी तीन स्तरों पर करने की ज़रूरत है जिसमें तीसरा स्तर स्थानीय सरकारों का हो और यह प्रांतीय स्तर की सरकार के नीचे हो। भारत में सत्ता के विकेंद्रीकरण के पीछे यही तर्क दिया गया। इसके फलस्वरूप तीन स्तरों की सरकार का संघीय ढाँचा सामने आया जिसमें तीसरे स्तर को स्थानीय शासन कहा जाता है।

जब केंद्र और राज्य सरकार से शक्तियां लेकर स्थानीय सरकारों को दी जाती हैं तो इसे सत्ता का विकेंद्रीकरण कहते हैं। विकेंद्रीकरण के पीछे बुनियादी सोच यह है कि अनेक मुद्दों और समस्याओ का निपटारा स्थानीय स्तर पर ही बढ़िया ढंग से हो सकता है। लोगों को अपने इलाके की समस्याओं की बेहतर समझ होती है। लोगों को इस बात की भी अच्छी जानकारी होती है कि पैसा कहाँ खर्च किया जाए और चीज़ों का अधिक कुशलता से उपयोग किस तरह किया जा सकता है। इसके अलावा स्थानीय स्तर पर लोगों को फ़ैसलों में सीधे भागीदार बनाना भी संभव हो जाता है। इससे लोकतांत्रिक भागीदारी की आदत पड़ती है। स्थानीय सरकारों की स्थापना स्व-शासन के लोकतांत्रिक सिद्धांत को वास्तविक बनाने का सबसे अच्छा तरीका है।

विकेंद्रीकरण की ज़रूरत हमारे संविधान में भी स्वीकार की गई। इसके बाद से गाँव और शहर के स्तर पर सत्ता के विकेंद्रीकरण की कई कोशिशें हुई है। सभी राज्यों में गाँव के स्तर पर ग्राम पंचायतों और शहरों में नगरपालिकाओं की स्थापना की गई थी। पर इन्हें राज्य सरकारों के सीधे नियंत्रण में रखा गया था। इन स्थानीय सरकारों के लिए नियमित ढंग से चुनाव भी नहीं कराए जाते थे। इनके पास तो अपना कोई अधिकार था संसाधन। इस प्रकार प्रभावी ढंग से सत्ता का विकेंद्रीकरण नाम मात्र का हुआ था।

वास्तविक विकेंद्रीकरण की दिशा में एक ब\ड़ा कदम 1992 में उठाया गया। संविधान में संशोधन करके लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के इस तीसरे स्तर को ज़्यादा शक्तिशाली और प्रभावी बनाया गया।

अब स्थानीय स्वशासी निकायों के चुनाव नियमित रूप से कराना संवैधानिक बाध्यता है

निर्वाचित स्वशासी निकायों के सदस्य तथा पदाधिकारियों के पदों में अनूसचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़ी जातियों के लिए सीटें आरक्षित हैं।

कम से कम एक तिहाई पद महिलाओं के लिए आरक्षित हैं।

हर राज्य में पंचायत और नगरपालिका चुनाव कराने के लिए राज्य चुनाव आयोग नामक स्वतंत्र संस्था का गठन किया गया है।

राज्य सरकारों को अपने राजस्व और अधिकारों का कुछ हिस्सा इन स्थानीय स्वशासी निकायों को देना पड़ता है। सत्ता में भागीदारी की प्रकृति हर राज्य में अलग-अलग है।

गाँवों के स्तर पर मौजूद स्थानीय शासन व्यवस्था को पंचायती राज के नाम से जाना जाता है। प्रत्येक गाँव में, (और कुछ राज्यों में ग्राम-समूह की) एक ग्राम पंचायत होती है। यह एक तरह की परिषद् है जिसमें कई सदस्य और एक अध्यक्ष होता है। सदस्य वार्डों से चुने जाते हैं और उन्हें सामान्यतया पंच कहा जाता है। अध्यक्ष को प्रधान या सरपंच कहा जाता है। इनका चुनाव गाँव अथवा वार्ड में रहने वाले सभी वयस्क लोग मतदान के जरिए करते हैं। यह पूरे पंचायत के लिए फ़ैसला लेने वाली संस्था है। पंचायतों का काम ग्राम-सभा की देखरेख में चलता है। गाँव के सभी मतदाता इसके सदस्य होते हैं। इसे ग्राम-पंचायत का बज़ट पास करने और इसके कामकाज की समीक्षा के लिए साल में कम से कम दो या तीन बार बैठक करनी होती है।

स्थानीय शासन का ढाँचा ज़िला स्तर तक का है। कई ग्राम पंचायतों को मिलाकर पंचायत समिति का गठन होता है। इसे मंडल या प्रखंड स्तरीय पंचायत भी कह सकते हैं। इसके सदस्यों का चुनाव उस इलाके के सभी पंचायत सदस्य करते हैं। किसी ज़िले की सभी पंचायत समितियों को मिलाकर ज़िला परिषद् का गठन होता है। ज़िला परिषद के अधिकांश सदस्यों का चुनाव होता है। ज़िला परिषद् में उस ज़िले से लोक सभा और विधान सभा के लिए चुने गए सांसद और विधायक तथा ज़िला स्तर की संस्थाओं के कुछ अधिकारी भी सदस्य के रूप में होते हैं। ज़िला परिषद् का प्रमुख इस परिषद् का राजनीतिक प्रधान होता है।

इस प्रकार स्थानीय शासन वाली संस्थाएँ शहरों में भी काम करती हैं। शहरों में नगर पालिका होती है। बड़े शहरों में नगरनिगम का गठन होता है। नगरपालिका और नगरनिगम, दोनों का कामकाज निर्वाचित प्रतिनिधि करते हैं। नगरपालिका प्रमुख नगरपालिका के राजनीतिक प्रधान होते हैं। नगरनिगम के एेसे पदाधिकारी को मेयर कहते हैं।

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प्रधानमंत्री देश चलाता है। मुख्यमंत्री राज्यों को चलाते हैं। इसी तर्क से ज़िला परिषद् के प्रधान को ज़िले का शासन चलाना चाहिए। फिर, ज़िलों का शासन कलक्टर या ज़िलाधीश क्यों चलाते हैं?
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भारत में हुए विकेंद्रीकरण के प्रयासों के बारे में अखबार की इन कतरनों में क्या कहा गया है?

स्थानीय सरकारों की यह नयी व्यवस्था दुनिया में लोकतंत्र का अब तक का सबसे बड़ा प्रयोग है। नगरपालिकाओं और ग्राम- पंचायतों के लिए करीब 36 लाख लोगों का चुनाव होता है। यह संख्या ही अपने आप में दुनिया के कई देशों की कुल आबादी से ज़्यादा है। स्थानीय सरकारों को संवैधानिक दर्जा दिए जाने से हमारे यहाँ लोकतंत्र की जड़ें और मज़बूत हुई हैं। इसने महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के साथ ही हमारे लोकतंत्र में उनकी आवाज़ को मज़बूत किया है। बहरहाल, इन सबके बावजूद अभी भी अनेक परेशानियाँ कायम हैं। पंचायतों के चुनाव तो नियमित रूप से होते हैं और लोग बड़े उत्साह से इनमें हिस्सा भी लेते हैं लेकिन ग्राम सभाओं की बैठकें नियमित रूप से नहीं होतीं। अधिकांश राज्य सरकारों ने स्थानीय सरकारों को पर्याप्त अधिकार नहीं दिए हैं। इस प्रकार हम स्वशासन की आदर्श स्थिति से काफ़ी दूर हैं।

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प्रश्नावली

1.भारत के खाली राजनीतिक नक्शे पर इन राज्यों की उपस्थिति दर्शाएँ : मणिपुर, सिक्किम, छत्तीसगढ़ और गोवा।

2. विश्व के खाली राजनीतिक मानचित्र पर भारत के अलावा संघीय शासन वाले तीन देशों की अवस्थिति बताएँ और उनके नक्शे को रंग से भरें।

3. भारत की संघीय व्यवस्था में बेल्जियम से मिलती-जुलती एक विशेषता और उससे अलग एक विशेषता को बताएँ।

4. शासन के संघीय और एकात्मक स्वरूपों में क्या-क्या मुख्य अंतर है? इसे उदाहरणों के माध्यम से स्पष्ट करें।

5. 1992 के संविधान संशोधन के पहले और बाद के स्थानीय शासन के दो महत्वपूर्ण अंतरों को बताएँ।

6. रिक्त स्थानों को भरेंः

चूँकि अमरीका .................तरह का संघ है इसलिए वहाँ सभी इकाइयों को समान अधिकार है। संघीय सरकार के मुकाबले प्रांत ................ हैं। लेकिन भारत की संघीय प्रणाली ................. की है और यहाँ कुछ राज्यों को औरों से ज़्यादा शक्तियाँ प्राप्त हैं

7. भारत की भाषा नीति पर नीचेे तीन प्रतिक्रियाएँ दी गई हैं। इनमें से आप जिसे ठीक समझते हैं उसके पक्ष में तर्क और उदाहरण दें।

संगीता : प्रमुख भाषाओं को समाहित करने की नीति ने राष्ट्रीय एकता को मज़बूत किया है।

अरमान : भाषा के आधार पर राज्यों के गठन ने हमें बाँट दिया है। हम इसी कारण अपनी भाषा के प्रति सचेत हो गए हैं।

हरीश : इस नीति ने अन्य भाषाओं के ऊपर अँगरेजी के प्रभुत्व को मज़बूत करने भर का काम किया है।

8. संघीय सरकार की एक विशिष्टता है :

(क) राष्ट्रीय सरकार अपने कुछ अधिकार प्रांतीय सरकारों को देती है।

(ख) अधिकार विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच बँट जाते हैं।

(ग) निर्वाचित पदाधिकारी ही सरकार में सर्वोच्च ताकत का उपयोग करते हैं।

(घ) सरकार की शक्ति शासन के विभिन्न स्तरों के बीच बँट जाती है।

9. भारतीय संविधान की विभिन्न सूचियों में दर्ज कुुछ विषय यहाँ दिए गए हैं। इन्हें नीचे दी गई तालिका में संघीय सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची वाले समूहों में लिखें।

(क) रक्षा; (ख) पुलिस; (ग) कृषि; (घ) शिक्षा; (ङ) बैंकिंग (च) वन; (छ) संचार; (ज) व्यापार; (झ) विवाह।

संघीय सूची

राज्य सूची

समवर्ती सूची

10. नीचे भारत में शासन के विभिन्न स्तरों और उनके कानून बनाने के अधिकार-क्षेत्र के जो\ड़े दिए गए हैं। इनमें से कौन सा जो\ड़ा सही मेल वाला नहीं है?

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11. सूची I और सूची II में मेल ढूँढ़ें और नीचे दिए गए कोड के आधार पर सही उत्तर चुनें।

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12. इन बयानों पर गौर करें :

(अ) संघीय व्यवस्था में संघ और प्रांतीय सरकारों के अधिकार स्पष्ट रूप से तय होते हैं।

(ब) भारत एक संघ है क्योंकि केंद्र और राज्य सरकारों के अधिकार संविधान में स्पष्ट रूप से दर्ज हैं और अपने-अपने विषयों पर उनका स्पष्ट अधिकार है।

(स) श्रीलंका में संघीय व्यवस्था है क्योंकि उसे प्रांतों में बाँट दिया गया है।

(द) भारत मे संघीय व्यवस्था नहीं रही क्योंकि राज्यों के कुछ अधिकार स्थानीय शासन की इकाइयों में बाँट दिए गए हैं।

ऊपर दिए गए बयानों में कौन-कौन सही हैं।

(सा) अ, ब और स (रे) अ, स और द (गा) अ और ब (मा) ब और स