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लोकतंत्र की चुनौतियाँ

परिचय
1073CH08.tifपिछले दो वर्षों में आपने जितना कुछ सीखा है उसको आधार मानकर यह अंतिम अध्याय लोकतांत्रिक राजनीति के बुनियादी सवालों के जवाब देने की कोशिश करता है, जैसे–हमारे देश और अन्य जगहों पर लोकतंत्र के सामने क्या-क्या चुनौतियाँ हैं? लोकतांत्रिक राजनीति को सुधारने के लिए क्या कुछ किया जा सकता है? हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था अपने बरताव और नतीजों में किस तरह और अधिक लोकतांत्रिक बन सकती है? इस अध्याय में इन सवालों के जवाब नहीं हैं। यह उन तरीकों के बारे में सिर्फ़ कुछ संकेत और इशारे भर करता है जिनसे हम इन चुनौतियों और सुधारों की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। यह अध्याय आपको खुद अपने तरीके तलाशने और चुनौतियों पर जीत पाने का अपना रास्ता ढूँढ़ने तथा लोकतंत्र को अपने ढंग से परिभाषित करने का निमंत्रण भी देता है।
चिंतन चुनौतियों का

क्या आपको कक्षा-9 की अपनी राजनीति विज्ञान की पाठ्यपुस्तक के अध्याय याद हैं? उसमें हमने देखा कि दुनिया-भर में लोकतंत्र का विस्तार कैसे हुआ है। उसके बाद की पढ़ाई ने हमारी इस शुरुआती राय को पुष्ट ही किया है कि समकालीन विश्व में लोकतंत्र शासन का एक प्रमुख रूप है। इसे कोई गंभीर चुनौती नहीं है और न कोई दूसरी शासन प्रणाली इसकी प्रतिद्वंद्वी है। लेकिन लोकतांत्रिक राजनीति के विभिन्न पहलुओं की जब हमने विस्तार से चर्चा की तो हमें कुछ अन्य चीज़ें भी दिखाई दीं। लोकतंत्र में जितनी सारी संभावनाएँ हैं दुनिया में अभी कहीं भी उन सबका लाभ नहीं उठाया गया है। लोकतंत्र का कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं है–इसका यह मतलब भी नहीं कि उसके लिए कोई चुनौती ही नहीं है।

लोकतंत्र की अपनी इस किताबी यात्रा के विभिन्न पड़ावों पर हमने देखा है कि दुनिया-भर में लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के सामने गंभीर चुनौतियाँ हैं। ये चुनौतियाँ किसी आम समस्या जैसी नहीं हैं। हम आम तौर पर उन्हीं मुश्किलों को ‘चुनौती’ कहते हैं जो महत्वपूर्ण तो हैं, लेकिन जिन पर जीत भी हासिल की जा सकती है। अगर किसी मुश्किल के भीतर एेसी संभावना है कि उस मुश्किल से छुटकारा मिल सके तो उसे हम चुनौती कहते हैं। एक बार जब हम चुनौती से पार पा लेते हैं तो हम पहले की अपेक्षा कुछ कदम आगे बढ़ जाते हैं।

अलग-अलग देशों के सामने अलग-अलग तरह की चुनौतियाँ होती हैं। दुनिया के एक चौथाई हिस्से में अभी भी लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था नहीं है। इन इलाकों में लोकतंत्र के लिए बहुत ही मुश्किल चुनौतियाँ हैं। इन देशों में लोकतांत्रिक व्यवस्था की तरफ जाने और लोकतांत्रिक सरकार गठित करने के लिए ज़रूरी बुनियादी आधार बनाने की चुनौती है। इनमें मौजूदा गैर-लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को गिराने, सत्ता पर सेना के नियंत्रण को समाप्त करने और एक संप्रभु तथा कारगर शासन व्यवस्था को स्थापित करने की चुनौती है।

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अच्छा! तो अब आपसे विदा लेने का वक्त आ गया... आगामी परीक्षा के लिए शुभकामनाएँ!

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आपसे फिर मिलेंगे 11वीं में! आप राजनीति विज्ञान को चुन रहे हैं न?

अधिकांश स्थापित लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के सामने अपने विस्तार की चुनौती है। इसमें लोकतांत्रिक शासन के बुनियादी सिद्धांतों को सभी इलाकों, सभी सामाजिक समूहों और विभिन्न संस्थाओं में लागू करना शामिल है। स्थानीय सरकारों को अधिक अधिकार–संपन्न बनाना, संघ की सभी इकाइयों के लिए संघ के सिद्धांतों को व्यावहारिक स्तर पर लागू करना, महिलाओं और अल्पसंख्यक समूहों की उचित भागीदारी सुनिश्चित करना आदि एेसी ही चुनौतियाँ हैं। इसका यह भी मतलब है कि कम से कम ही चीज़ें लोकतांत्रिक नियंत्रण के बाहर रहनी चाहिए। भारत और दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्रों में एक अमरीका जैसे देशों के सामने भी यह चुनौती है।

तीसरी चुनौती लोकतंत्र को मज़बूत करने की है। हर लोकतांत्रिक व्यवस्था के सामने किसी न किसी रूप में यह चुनौती है ही। इसमें लोकतांत्रिक संस्थाओं और बरतावों को मजबूत बनाना शामिल है। यह काम इस तरह से होना चाहिए कि लोग लोकतंत्र से जुड़ी अपनी उम्मीदों को पूरा कर सकें। लेकिन, अलग-अलग समाजों में आम आदमी की लोकतंत्र से अलग-अलग अपेक्षाएँ होती हैं इसलिए यह चुनौती दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में अलग अर्थ और अलग स्वरूप ले लेती है। संक्षेप में कहें तो इसका मतलब संस्थाओं की कार्यपद्धति को सुधारना और मज़बूत करना होता है ताकि लोगों की भागीदारी और नियंत्रण में वृद्धि हो। इसके लिए फ़ैसला लेने की प्रक्रिया पर अमीर और प्रभावशाली लोगों के नियंत्रण और प्रभाव को कम करने की ज़रूरत होती है।

9वीं कक्षा की और अपनी इस पाठ्यपुस्तक के विभिन्न अध्यायों में हमने अनेक उदाहरण और कहानियों की मदद से इन चुनौतियों पर गौर किया है। आइए, लोकतंत्र की अपनी इस यात्रा के सभी महत्वपूर्ण पड़ावों पर लौटें; यादों को ताज़ा करें और देखें कि इन पड़ावों पर लोकतंत्र के सामने कौन-कौन सी चुनौतियाँ हैं।

अलग-अलग संदर्भ, अलग-अलग चुनौतियाँ

इनमें से प्रत्येक कार्टून लोकतंत्र की एक चुनौती को दिखाता है। बताएँ कि वह चुनौती क्या है? यह भी बताएँ कि इस अध्याय में चुनौतियों की जो तीन श्रेणियाँ बताई गई हैं, यह उनमें से किस श्रेणी की चुनौती है?

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अलग-अलग तरह की चुनौतियाँ

अब, जबकि आपने इन सभी चुनौतियों को लिख डाला है तो आइए इन्हें कुछ बड़ी श्रेणियों में डालें। नीचे लोकतांत्रिक राजनीति के कुछ दायरों को खानों में रखा गया है। पिछले खंड में एक या एक से अधिक देशों में आपने कुछ चुनौतियाँ लक्ष्य की थीं। कुछ कार्टूनों में भी आपने इन्हें देखा। आप चाहें तो नीचे दिए गए खानों के सामने मेल का ध्यान रखते हुए इन चुनौतियों को लिख सकते हैं। इनके अलावा भारत से भी इन खानों में दिए जाने वाले एक-एक उदाहरण दर्ज करें। अगर आपको कोई चुनौती इन खानों में फिट बैठती नहीं लगती तो आप नयी श्रेणियाँ बनाकर उनमें इन मुद्दों को रख सकते हैं।

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आइए, इन श्रेणियों का नया वर्गीकरण करें। इस बार इसके लिए हम उन मानकों को आधार बनाएँगे जिनकी चर्चा अध्याय के पहले हिस्से में हुई है। इन सभी श्रेणियों के लिए कम से कम एक उदाहरण भारत से भी खोजें।

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आइए, अब सिर्फ़ भारत के बारे में विचार करें। समकालीन भारत के लोकतंत्र के सामने मौजूद चुनौतियों पर गौर करें। इनमें से उन पाँच की सूची बनाइए जिन पर पहले ध्यान दिया जाना चाहिए। यह सूची प्राथमिकता को भी बताने वाली होनी चाहिए यानी आप जिस चुनौती को सबसे महत्वपूर्ण और भारी मानते हैं उसे सबसे ऊपर रखें। शेष को इसी क्रम से बाद में। एेसी चुनौती का एक उदाहरण दें और बताएँ कि आपकी प्राथमिकता में उसे कोई खास जगह क्यों दी गई है।

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राजनीतिक सुधारों पर विचार

इनमें से प्रत्येक चुनौती के साथ सुधार की संभावनाएँ भी जुड़ी हुई हैं। जैसा कि पहले कहा गया है, हम चुनौतियों की चर्चा सिर्फ़ इसलिए करते हैं क्योंकि हमें उनका समाधान पाना संभव लगता है। लोकतंत्र की विभिन्न चुनौतियों के बारे में सभी सुझाव या प्रस्ताव ‘लोकतांत्रिक सुधार’ या ‘राजनीतिक सुधार’ कहे जाते हैं। यहाँ हम वांछित राजनीतिक सुधारों की सूची नहीं देने जा रहे हैं क्योंकि एेसी कोई सूची अंतिम रूप से बनाई नहीं जा सकती। अगर सभी देशों की चुनौतियाँ एक जैसी नहीं हैं तो इसका यह भी मतलब है कि राजनीतिक सुधारों के लिए हर कोई एक ही फार्मूले का इस्तेमाल नहीं कर सकता। हम कार का मॉडल जाने बगैर उसकी गड़बड़ी ठीक करने का उपाय नहीं बता सकते। वह कहाँ से खराब हुई हैं; उस जगह क्या उपकरण लगे हैं; उसका मॉडल क्या है–यह सब जानकर ही उसकी मरम्मत का तरीका सुझाया जा सकता है।

पर क्या हम आज के संदर्भ में अपने देश में वांछित सुधारों की कम से कम एक सूची बना सकते हैं? हम राष्ट्रीय स्तर के सुधार के कुछ प्रस्ताव बना सकते हैं लेकिन हो सकता है सुधार की असली चुनौती राष्ट्रीय स्तर की न हो। कुछ महत्वपूर्ण सवालों के जवाब राज्य या स्थानीय स्तर पर भी दिए जा सकते हैं। फिर, यह सूची कुछ समय बाद बेकार भी हो सकती है। सो, सूची बनाने की जगह, आइए, कुछ व्यापक दिशा-निर्देशों पर विचार करें जिन्हें भारत में राजनीतिक सुधारों के लिए तरीका और जरिया ढूँढ़ते समय अपने जेहन में रखा जा सकता है।

कानून बनाकर राजनीति को सुधारने की बात सोचना बहुत लुभावना लग सकता है। नए कानून सारी अवांछित चीज़ें खत्म कर देंगे यह सोच लेना भले ही सुखद हो लेकिन इस लालच पर लगाम लगाना ही बेहतर है। निश्चित रूप से सुधारों के मामले में कानून की एक महत्वपूर्ण भूमिका है। सावधानी से बनाए गए कानून गलत राजनीतिक आचरणों को हतोत्साहित और अच्छे कामकाज को प्रोत्साहित करेंगे। पर विधिक-संवैधानिक बदलावों को ला देने भर से लोकतंत्र की चुनौतियों को हल नहीं किया जा सकता। ये तो क्रिकेट के नियमों की तरह हैं। एल.बी.डब्ल्यू. के नियम में बदलाव से बल्लेबाज़ों द्वारा अपनाए जाने वाले बल्लेबाज़ी के नकारात्मक दाँव-पेंच को कम किया जा सकता है पर यह कोई भी नहीं सोच सकता कि सिर्फ़ नियमों में बदलाव कर देने-भर से क्रिकेट का खेल सुधर जाएगा। यह काम तो मुख्यतः खिलाड़ियों, प्रशिक्षकों और क्रिकेट-प्रशासकों के करने से ही होगा। इसी प्रकार राजनीतिक सुधारों का काम भी मुख्यतः राजनीतिक कार्यकर्ता, दल, आंदोलन और राजनीतिक रूप से सचेत नागरिकों के द्वारा ही हो सकता है।

कानूनी बदलाव करते हुए इस बात पर गंभीरता से विचार करना होगा कि राजनीति पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा। कई बार परिणाम एकदम उलटे निकलते हैं, जैसे कई राज्यों ने दो से ज़्यादा बच्चों वाले लोगों के पंचायत चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी है। इसके चलते अनेक गरीब लोग और महिलाएँ लोकतांत्रिक अवसर से वंचित हुईं जबकि एेसा करने के पीछे यह मंशा न थी। आम तौर पर किसी चीज़ की मनाही करने वाले कानून राजनीति में ज़्यादा सफल नहीं होते। राजनीतिक कार्यकर्ता को अच्छे काम करने के लिए बढ़ावा देने वाले या लाभ पहुँचाने वाले कानूनों के सफल होने की संभावना ज़्यादा होती है। सबसे बढ़िया कानून वे हैं जो लोगों को लोकतांत्रिक सुधार करने की ताकत देते हैं। सूचना का अधिकार-कानून लोगों को जानकार बनाने और लोकतंत्र के रखवाले के तौर पर सक्रिय करने का अच्छा उदाहरण है। एेसा कानून भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाता है और भ्रष्टाचार पर रोक लगाने तथा कठोर दंड आयद करने वाले मौजूदा कानूनों की मदद करता है।

लोकतांत्रिक सुधार तो मुख्यतः राजनीतिक दल ही करते हैं। इसलिए, राजनीतिक सुधारों का ज़ोर मुख्यतः लोकतांत्रिक कामकाज को ज़्यादा मज़बूत बनाने पर होना चाहिए। जैसा कि आपने राजनीतिक दलों वाले अध्याय में पढ़ा था, एेसे सभी सुधारों में मुख्य चिंता इस बात की होनी चाहिए कि इससे आम नागरिक की राजनीतिक भागीदारी के स्तर और गुणवत्ता में सुधार होता है या नहीं।

राजनीतिक सुधार के किसी भी प्रस्ताव में अच्छे समाधान की चिंता होने के साथ-साथ यह सोच भी होनी चाहिए कि इन्हें कौन और क्यों लागू करेगा। यह मान लेना समझदारी नहीं कि संसद कोई एेसा कानून बना देगी जो हर राजनीतिक दल और सांसद के हितों के खिलाफ़ हो। पर लोकतांत्रिक आंदोलन, नागरिक संगठन और मीडिया पर भरोसा करने वाले उपायों के सफल होने की संभावना होती है।

आइए, इन सामान्य दिशा-निर्देशों को ध्यान में रखें और लोकतंत्र की कुछ उन चुनौतियोें पर गौर करें जिनमें कुछ सुधारों की गुंजाइश है। तो चलिए, सुधार के कुछ ठोस प्रस्ताव बनाते हैं।

यहाँ कुछ चुनौतियाँ दी गई हैं। इनके लिए राजनीतिक सुधारों की ज़रूरत है। इन चुनौतियों पर विस्तार से चर्चा करें। यहाँ सुधार के जो विकल्प दिए गए हैं उनको देखें और कारण बताते हुए अपनी पसंद के समाधान को बताएँ। यह बात याद रखें कि यहाँ बताए गए विकल्प सीधे-सीधे ‘सही’ या ‘गलत’ करार नहीं दिए जा सकते। आप कई विकल्पों को मिलाकर जवाब दे सकते हैं या एेसा समाधान भी बता सकते हैं जिसकी यहाँ कोई चर्चा ही नहीं हुई है। आप अपना समाधान पूरे विस्तार से दें और अपनी पसंद के लिए तर्क भी बताएँ।

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राजनीति को सुधारना

रोज़ ने आखिरकार मैडम लिंगदोह को अपनी कक्षा के सामने पकड़ ही लिया। यह योजना वह कुछ समय से बना रही थी। "मै’म! मुझे सचमुच कनाडा वाला वह कार्टून बहुत अच्छा लगा" रोज़ ने बातचीत शुरू करने के लिए यह प्रकरण छेड़ा। "कौन सा?" मैडम लिंगदोह को एकबारगी वह कार्टून याद नहीं आया। "मै’म, वह कार्टून जिसमें कहा गया है कि कनाडा के 98 फ़ीसदी लोग सारे राजनेताओं को एक बड़े कार के बक्से में बंद करके नियाग्रा जल-प्रपात में फेंकना चाहते हैं। मुझे तो अपने राजनेता याद आ रहे थे। हमें तो और बड़े वाहन और ब्रह्मपुत्र जैसे विशाल नदी की ज़रूरत होगी।"

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लिंगदोह मैडम रोज़ की बात सुनकर मुस्कुराईं। अधिकतर भारतीयों की तरह वह भी नेताओं के व्यवहार तथा दल और देश का शासन चलाने के उनके तौर-तरीकों से नाराज़ थीं। पर वे चाहती थीं कि रोज़ इस समस्या की जटिलता को समझे। उन्होंने पूछा, "तुम्हें क्या लगता है कि राजनेताओं को हटाने से तुम्हारी समस्याएँ सुलझ जाएँगी?"

"हां मैं’म, क्या ये घटिया नेता लोग ही हमारे देश की समस्याओं के लिए ज़िम्मेवार नहीं हैं? मेरा मतलब है भ्रष्टाचार, दल-बदल, जातिवाद, सांप्रदायिक दंगे, अपराध .... हर गड़बड़ के लिए।"

लिंगदोह मैडम : "तो हमें अभी के सारे नेताओं से मुक्ति पाने भर की ज़रूरत है। क्या तुम्हें पक्का भरोसा है कि उनकी जगह जो लोग आएँगे वे एेसे नहीं होंगे?"

रोज़ : "हां, मैंने इस पर तो सोचा ही नहीं था, लेकिन संभव है वे इनकी तरह के न हों। संभव है आगे बेहतर चरित्र वाले नेता आएँ।"

लिंगदोह मैडम : ‘मैं तुम्हारी बात मानती हूँ कि अगर लोग ज़्यादा चौकस रहें और दिलचस्पी लेकर भ्रष्ट और खराब नेताओं को हटाएँ तथा अच्छे लोगों का चुनाव करें तो स्थिति बदल सकती है, फिर, यह भी हो सकता है कि सारे नेता भ्रष्ट न हों..."

"आप एेसा कैसे कह सकती हैं, मै’म?" बीच में ही रोज़ ने कहा।

लिंगदोह मैडम : "मैं यह नहीं कहती कि राजनेता भ्रष्ट नहीं है। संभव है कि जब तुम नेताओं के बारे में सोचती हो तो तुम्हारे ध्यान में वे बड़े लोग होते हाेंगे जिनकी तस्वीर अखबारों में छपती है। मुझे भी उन्हीं नेताओं की याद आती है जिन्हें मैं जानती हूँ। मुझे नहीं लगता कि जिन नेताओं को मैं जानती हूँ वे मेरे अपने साथियों या सरकारी अधिकारियों, ठेकेदारों अथवा मेरी जानकारी के मध्यवर्गीय पेशेवर लोगों से ज़्यादा भ्रष्ट हों। राजनेताओं का भ्रष्टाचार अधिक दिखाई देता है और हम उसी आधार पर सभी नेताओं के बारे में धारणा बना लेते हैं। उनमें से कुछ भ्रष्ट हैं तो कुछ ईमानदार भी हैं।"

रोज़ ने हार नहीं मानीः "मै’म मेरे कहने का मतलब यह था कि भ्रष्टाचार और जाति-धर्म के आधार पर राजनीति करने जैसे गलत कामों पर रोक होनी चाहिए।"

लिंगदोह मैडम : "रोज़! सीधे-सीधे एेसा नहीं कह सकते! एक बात तो यही कि राजनीति में जाति और धर्म का इस्तेमाल रोकने के कानून तो अभी हैं ही लेकिन नेता उनको दरकिनार करने का तरीका ढूँढ़ लेते हैं। जब तक लोग जाति और धर्म के नाम पर समाज को बाँटने और भरमाने का काम बंद नहीं करेंगे तब तक कानून कुछ नहीं कर सकता। जब तक लोग और नेता जाति-धर्म की सीमाओं से ऊपर नहीं उठेंगे तब तक वास्तविक लोकतंत्र नहीं आएगा।"

लोकतंत्र की पुनर्परिभाषा

पिछले साल हमने लोकतंत्र की इस यात्रा की शुरुआत उसकी न्यूनतम परिभाषा के साथ की थी। क्या आपको वह परिभाषा याद है? पिछले साल की आपकी पाठ्यपुस्तक के अध्याय 2 में दी गई परिभाषा कुछ इस प्रकार थी  लोकतंत्र शासन का वह स्वरूप है जिसमें लोग अपने शासकों का चुनाव खुद करते हैं। इसके बाद हमने अनेक मामलों पर गौर किया और परिभाषा में कुछ और चीज़ें जोड़ीं :

लोगों द्वारा चुने गए शासक ही सारे प्रमुख फ़ैसले लें;

चुनाव में लोगों को वर्तमान शासकों को बदलने और अपनी पसंद ज़ाहिर करने का पर्याप्त अवसर और विकल्प मिलना चाहिए। ये विकल्प और अवसर हर किसी को बराबरी में उपलब्ध होने चाहिए।

विकल्प चुनने के इस तरीके से एेसी सरकार का गठन होना चाहिए जो संविधान के बुनियादी नियमों और नागरिकोें के अधिकारों को मानते हुए काम करे।

शायद आपको निराशा हुई हो कि इस परिभाषा में उन ऊँचे आदर्शों की चर्चा कहीं भी नहीं है जिनको हम लोकतंत्र के साथ जोड़कर देखते हैं। हमने लोकतंत्र के कुछ आदर्शों की चर्चा ज़रूर की थी पर व्यावहारिक हिसाब से हमने लोकतंत्र की न्यूनतम लेकिन स्पष्ट परिभाषा से बात शुरू की थी। इससे हमारे लिए लोकतांत्रिक और गैर-लोकतांत्रिक शासन व्यवस्थाओं में स्पष्ट अंतर करना आसान हो गया।

आपने पाया होगा कि लोकतांत्रिक सरकार और राजनीति के विभिन्न पहलुओं की अपनी चर्चा में हम उस परिभाषा से काफ़ी आगे आ गए हैं :

हमने विस्तार से लोकतांत्रिक अधिकारों की चर्चा की और पाया कि ये अधिकार सिर्फ़ वोट देने, चुनाव लड़ने और राजनीतिक संगठन बनाने भर के नहीं हैं। हमने कुछ एेसे सामाजिक और आर्थिक अधिकारों की चर्चा की जिन्हें एक लोकतांत्रिक शासन को अपने नागरिकों को देना ही चाहिए।

हमने सत्ता में हिस्सेदारी को लोकतंत्र की भावना के अनुकूल माना था और चर्चा की थी कि सरकारों और सामाजिक समूहों के बीच सत्ता की साझेदारी लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है।

हमने यह भी देखा था कि लोकतंत्र बहुमत की तानाशाही या क्रूर शासन-व्यवस्था नहीं हो सकता और अल्पसंख्यक आवाज़ों का आदर करना लोकतंत्र के लिए बहुत ज़रूरी है।

लोकतंत्र की हमारी चर्चा सरकार और उसके कामकाज से आगे तक गई। हमने यह चर्चा भी की कि भेदभाव को समाप्त करना भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का महत्वपूर्ण काम है।

आखिर में हमने यह भी चर्चा चलाई कि किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था से हमें कुछ न्यूनतम नतीजों की उम्मीद तो करनी ही चाहिए।

एसा करने में हम लोकतंत्र की उस परिभाषा के खिलाफ़ नहीं गए हैं जो पिछले वर्ष दी गई थी। किसी भी देश को लोकतंत्र कहलाने के लिए जिन न्यूनतम चीजों की ज़रूरत होती है उसे परिभाषित करके हमने शुरुआत की। इसके बाद हमने लोकतंत्र के लिए कुछ वांछित शर्तों की चर्चा की जिन्हें पूरा किया जाना चाहिए। फिर हमने लोकतंत्र की परिभाषा से आगे बढ़कर अच्छी लोकतांत्रिक व्यवस्था का ब्यौरा दिया।

एक अच्छे लोकतंत्र को हम कैसे परिभाषित करेंगे? इसकी विशेषताएँ क्या-क्या हैं? किसी लोकतंत्र को अच्छा बताने के लिए उसमें किस विशेषता का होना बहुत ज़रूरी है? और, अगर कोई व्यवस्था लोकतांत्रिक है तो उसमें क्या चीज़ निश्चित रूप से नहीं होनी चाहिए?

ये फ़ैसले आप कीजिए।

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अच्छे लोकतंत्र को परिभाषित करने के लिए यह रही आपके लिखने की जगह।

(अपना नाम लिखें) .......................................... की अच्छे लोकतंत्र की परिभाषा [अधिकतम 50 शब्दों में]

 

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 आपको यह अभ्यास कैसा लगा? क्या आपको इसमें आनंद आया? क्या यह बहुत मुश्किल था? क्या कुछ परेशानियाँ हुईं? क्या डर भी लगा? क्या आपको लगता है कि इस पाठ्यपुस्तक ने इस महत्वपूर्ण अभ्यास में आपकी मदद नहीं की? क्या आपको डर है कि आपकी परिभाषा ग़लत भी हो सकती है?

तो लोकतंत्र के बारे में आपकी पढ़ाई का यह रहा आखिरी सबक : अच्छे लोकतंत्र की कोई बनी बनाई परिभाषा नहीं है। अच्छा लोकतंत्र वही है जैसा उसे हम सोचते हैं और जिसे बनाने की आकांक्षा रखते हैंः यह बात कुछ अजीब लग सकती है। फिर भी, इस बात पर गौर करेंः क्या यही लोकतंत्र है कि कोई डंडे के ज़ोर पर बताए कि अच्छा लोकतंत्र क्या है?