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समय ही वह रंग है जो अनेक-अनेक रंगों में विभाजित होता 

है और पठन-पाठन प्रक्रिया द्वारा फिर एक हो जाता है

(शब्दों के आलोक में)


कृष्णा सोबती

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जन्मः 18 फरवरी सन् 1925, गुजरात (पश्चिमी पंजाब- वर्तमान में पाकिस्तान)

प्रमुख रचनाएँः ज़िंदगीनामा, दिलोदानिश, एे लड़की, समय सरगम (उपन्यास); डार से बिछुड़ी, मित्रो मरजानी, बादलों के घेरे, सूरजमुखी अँधेरे के, (कहानी संग्रह); हम-हशमत, शब्दों के आलोक में (शब्दचित्र, संस्मरण)

प्रमुख सम्मानः साहित्य अकादमी सम्मान, हिंदी अकादमी का शलाका सम्मान, साहित्य अकादमी की महत्तर सदस्यता सहित अनेक राष्ट्रीय पुरस्कार।

मृत्युः 25 जनवरी सन् 2019

हिंदी कथा साहित्य में कृष्णा सोबती की विशिष्ट पहचान है। वे मानती हैं कि कम लिखना विशिष्ट लिखना है। यही कारण है कि उनके संयमित लेखन और साफ़-सुथरी रचनात्मकता ने अपना एक नित नया पाठक वर्ग बनाया है। उनके कई उपन्यासों, लंबी कहानियों और संस्मरणों ने हिंदी के साहित्यिक संसार में अपनी दीर्घजीवी उपस्थिति सुनिश्चित की है। उन्होंने हिंदी साहित्य को कई एेसे यादगार चरित्र दिए हैं, जिन्हें अमर कहा जा सकता हैै; जैसे मित्रो, शाहनी, हशमत आदि।

भारत पाकिस्तान पर जिन लेखकों ने हिंदी में कालजयी रचनाएँ लिखीं, उनमें कृष्णा सोबती का नाम पहली कतार में रखा जाएगा। बल्कि यह कहना उचित होगा कि यशपाल के झूठा-सच, राही मासूम रज़ा के आधा गाँव और भीष्म साहनी के तमस के साथ-साथ कृष्णा सोबती का ज़िंदगीनामा इस प्रंसग में एक विशिष्ट उपलब्धि है।

संस्मरण के क्षेत्र में हम-हशमत शीर्षक से उनकी कृति का विशिष्ट स्थान है, जिसमें अपने ही एक दूसरे व्यक्तित्व के रूप में उन्होंने हशमत नामक चरित्र का सृजन कर एक अद्भुत प्रयोग का उदाहरण प्रस्तुत किया हैै। कृष्णा जी के भाषिक प्रयोग में भी विविधता है। उन्होंने हिंदी की कथा-भाषा को एक विलक्षण ताज़गी दी है। संस्कृतनिष्ठ तत्समता, उर्दू का बाँकपन, पंजाबी की ज़िंदादिली, ये सब एक साथ उनकी रचनाओं में मौजूद हैं।

मियाँ नसीरुद्दी शब्दचित्र हम-हशमत नामक संग्रह से लिया गया है। इसमें खानदानी नानबाई मियाँ नसीरुद्दीन के व्यक्तित्व, रुचियों और स्वभाव का शब्दचित्र खींचा गया है। मियाँ नसीरुद्दीन अपने मसीहाई अंदाज़ से रोटी पकाने की कला और उसमें अपने खानदानी महारत को बताते हैं। वे एेसे इनसान का भी प्रतिनिधित्व करते हैं जो अपने पेशे को कला का दर्जा देते हैं और करके सीखने को असली हुनर मानते हैं।

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मियाँ नसीरुद्दीन


साहबों, उस दिन अपन मटियामहल की तरफ़ से न गुज़र जाते तो राजनीति, साहित्य और कला के हज़ारों-हज़ार मसीहों के धूम-धड़क्के में नानबाइयों के मसीहा मियाँ नसीरुद्दीन को कैसे तो पहचानते और कैसे उठाते लुत्फ़ उनके मसीही अंदाज़ का!

हुआ यह कि हम एक दुपहरी जामा मस्जिद के आड़े पड़े मटियामहल के गढ़ैया मुहल्ले की ओर निकल गए। एक निहायत मामूली अँधेरी-सी दुकान पर पटापट आटे का ढेर सनते देख ठिठके। सोचा, सेवइयों की तैयारी होगी, पर पूछने पर मालूम हुआ खानदानी नानबाई मियाँ नसीरुद्दीन की दुकान पर खड़े हैं। मियाँ मशहूर हैं छप्पन किस्म की रोटियाँ बनाने के लिए।

हमने जो अंदर झाँका तो पाया, मियाँ चारपाई पर बैठे बीड़ी का मज़ा ले रहे हैं। मौसमों की मार से पका चेहरा, आँखों में काइयाँ भोलापन और पेशानी पर मँजे हुए कारीगर के तेवर।

हमें गाहक समझ मियाँ ने नज़र उठाई–‘फ़रमाइए।’

झिझक से कहा–‘आपसे कुछ एक सवाल पूछने थे–आपको वक्त हो तो...’

मियाँ नसीरुद्दीन ने पंचहज़ारी अंदाज़ से सिर हिलाया–‘निकाल लेंगे वक्त थोड़ा, पर यह तो कहिए, आपको पूछना क्या है?’

फिर घूरकर देखा और जोड़ा–‘मियाँ, कहीं अखबारनवीस तो नहीं हो? यह तो खोजियों की खुराफ़ात है। हम तो अखबार बनानेवाले और अखबार पढ़नेवाले–दोनाें को ही निठल्ला समझते हैं। हाँ–कामकाजीआदमी को इससे क्या काम है। खैर, आपने यहाँ तक आने की तकलीफ़ उठाई ही है तो पूछिए–क्या पूछना चाहते हैं!’

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‘पूछना यह था कि किस्म-किस्म की रोटी पकाने का इल्म आपने कहाँ से हासिल किया?’

मियाँ नसीरुद्दीन ने आँखों के कंचे हम पर फेर दिए। फिर तरेरकर बोले–‘क्या मतलब? पूछिए साहब–नानबाई इल्म लेने कहीं और जाएगा? क्या नगीनासाज़ के पास? क्या आईनासाज़ के पास? क्या मीनासाज़ के पास? या रफ़ूगर, रँगरेज़ या तेली-तंबोली से सीखने जाएगा? क्या फ़रमा दिया साहब–यह तो हमारा खानदानी पेशा ठहरा। हाँ, इल्म की बात पूछिए तो जो कुछ भी सीखा, अपने वालिद उस्ताद से ही। मतलब यह कि हम घर से न निकले कि कोई पेशा अख्तियार करेेंगे। जो बाप-दादा का हुनर था वही उनसे पाया और वालिद मरहूम के उठ जाने पर आ बैठे उन्हीं के ठीये पर!’

‘आपके वालिद...?’

मियाँ नसीरुद्दीन की आँखें लमहा-भर को किसी भट्ठी में गुम हो गईं। लगा गहरी सोच में हैं–फिर सिर हिलाया–‘क्या आँखों के आगे चेहरा ज़िंदा हो गया! हाँ हमारे वालिद साहिब मशहूर थे मियाँ बरकत शाही नानबाई गढ़ैयावाले के नाम से और उनके वालिद यानी कि हमारे दादा साहिब थे आला नानबाई मियाँ कल्लन।’

‘आपको इन दोनों में से किसी–किसी की भी कोई नसीहत याद हो!’

‘नसीहत काहे की मियाँ! काम करने से आता है, नसीहतों से नहीं। हाँ!’

‘बजा फ़रमाया है, पर यह तो बताइए ही बताइए कि जब आप (हमने भट्ठी की ओर इशारा किया) इस काम पर लगे तो वालिद साहिब ने सीख के तौर पर कुछ तो कहा होगा।’

नसीरुद्दीन साहिब ने जल्दी-जल्दी दो-तीन कश खींचे, फिर गला साफ़ किया और बड़े अंदाज़ से बोले–‘अगर आपको कुछ कहलवाना ही है तो बताए दिए देते हैं। आप जानो जब बच्चा उस्ताद के यहाँ पढ़ने बैठता है तो उस्ताद कहता है–

कह, ‘अलिफ़’

बच्चा कहता है, ‘अलिफ़’

कह, ‘बे’

बच्चा कहता है, ‘बे’

कह, ‘जीम’

बच्चा कहता है, ‘जीम’

इस बीच उस्ताद ज़ोर का एक हाथ सिर पर धरता है और शागिर्द चुपचाप परवान करता है! समझे साहिब, एक तो पढ़ाई एेसी और दूसरी...। बात बीच में छोड़ सामने से गुज़रते मीर साहिब को आवाज़ दे डाली–‘कहो भाई मीर साहिब! सुबह न आना हुआ, पर क्यों?’

मीर साहिब ने सिर हिलाया–‘मियाँ, अभी लौट के आते हैं तो बतावेंगे।’

‘आप दूसरी पढ़ाई की बाबत कुछ कह रहे थे न!’

इस बार मियाँ नसीरुद्दीन ने यूँ सिर हिलाया कि सुकरात हाें–‘हाँ,–एक दूसरी पढ़ाई भी होती है। सुनिए, अगर बच्चे को भेजा मदरसे तो बच्चा–

न कच्ची में बैठा,

न बैठा वह पक्की में

न दूसरी में–

और जा बैठा तीसरी में–हम यह पूछेंगे कि उन तीन जमातों का क्या हुआ? क्या हुआ उन तीन किलासों का?’

अपना खयाल था कि मियाँ नसीरुद्दीन नानबाई अपनी बात का निचोड़ भी निकालेंगे पर वह हमीं पर दागते रहे–‘आप ही बताइए–उन दो-तीन जमातों का हुआ क्या?’

‘यह बात मेरी समझ के तो बाहर है।’

इस बार शाही नानबाई मियाँ कल्लन के पोते अपने बचे-खुचे दाँतों से खिलखिला के हँस दिए! ‘मतलब मेरा क्या साफ़ न था! लो साहिबो, अभी साफ़ हुआ जाता है। ज़रा-सी देर को मान लीजिए–

हम बर्तन धोना न सीखते

हम भट्ठी बनाना न सीखते

भट्ठी को आँच देना न सीखते

तो क्या हम सीधे-सीधे नानबाई का हुनर सीख जाते!’

मियाँ नसीरुद्दीन हमारी ओर कुछ एेसे देखा किए कि उन्हें हमसे जवाब पाना हो। फिर बड़े ही मँजे अंदाज़ में कहा–‘कहने का मतलब साहिब यह कि तालीम की तालीम भी बड़ी चीज़ होती है।’

सिर हिलाया–‘है साहिब, माना!’

मियाँ नसीरुद्दीन जोश में आ गए–‘हमने न लगाया होता खोमचा तो आज क्या यहाँ बैठे होते!’

मियाँ को खोमचेवाले दिनों में भटकते देख हमने बात का रुख मोड़ा–‘आपने खानदानी नानबाई होने का ज़िक्र किया, क्या यहाँ और भी नानबाई हैं?’

मियाँ ने घूरा–‘बहुतेरे, पर खानदानी नहीं–सुनिए, दिमाग में चक्कर काट गई है एक बात। हमारे बुज़ुर्गों से बादशाह सलामत ने यूँ कहा–मियाँ नानबाई, कोई नई चीज़ खिला सकते हो?’

‘हुक्म कीजिए, जहाँपनाह!’

बादशाह सलामत ने फ़रमाया–‘कोई एेसी चीज़ बनाओ जो न आग से पके, न पानी से बने।’

‘क्या उनसे बनी एेसी चीज़!’

‘क्यों न बनती साहिब! बनी और बादशाह सलामत ने खूब खाई और खूब सराही।’

लगा, हमारा आना कुछ रंग लाया चाहता है। बेसब्री से पूछा–‘वह पकवान क्या था–कोई खास ही चीज़ होगी।’

मियाँ कुछ देर सोच में खोए रहे। सोचा पकवान पर रोशनी डालने को है कि नसीरुद्दीन साहिब बड़ी रुखाई से बोले–‘यह हम न बतावेंगे। बस, आप इत्ता समझ लीजिए कि एक कहावत है न कि खानदानी नानबाई कुएँ में भी रोटी पका सकता है। कहावत जब भी गढ़ी गई हो, हमारे बुज़ुर्गों के करतब पर ही पूरी उतरती है।’

मज़ा लेने के लिए टोका–‘कहावत यह सच्ची भी है कि ...।’

मियाँ ने तरेरा–‘और क्या झूठी है? आप ही बताइए, रोटी पकाने में झूठ का क्या काम! झूठ से रोटी पकेगी? क्या पकती देखी है कभी! रोटी जनाब पकती है आँच से, समझे!’

सिर हिलाना पड़ा-‘ठीक फ़रमाते हैं।’

इस बीच मियाँ ने किसी और को पुकार लिया–‘मियाँ रहमत, इस वक्त किधर को! अरे वह लौंडिया न आई रूमाली लेने। शाम को मँगवा लीजो।’

‘मियाँ, एक बात और आपको बताने की ज़हमत उठानी पड़ेगी...।’

मियाँ ने एक और बीड़ी सुलगा ली थी। सो कुछ फुर्ती पा गए थे–‘पूछिए–अरे बात ही तो पूछिएगा–जान तो न ले लेवेंगे। उसमें भी अब क्या देर! सत्तर के हो चुके’ फिर जैसे अपने से ही कहते हों–‘वालिद मरहूम तो कूच किए अस्सी पर क्या मालूम हमें इतनी मोहलत मिले, न मिले।’

इस मज़मून पर हमसे कुछ कहते न बन आया तो कहा–‘अभी यही जानना था कि आपके बुज़ुर्गों ने शाही बावर्चीखाने में तो काम किया ही होगा?’

मियाँ ने बेरुखी से टोका–‘वह बात तो पहले हो चुकी न!’

‘हो तो चुकी साहिब, पर जानना यह था कि दिल्ली के किस बादशाह के यहाँ आपके बुज़ुर्ग काम किया करते थे?’

‘अजी साहिब, क्यों बाल की खाल निकालने पर तुले हैं! कह दिया न कि बादशाह के यहाँ काम करते थे–सो क्या काफ़ी नहीं?’

हम खिसियानी हँसी हँसे–‘है तो काफ़ी, पर ज़रा नाम लेते तो उसे वक्त से मिला लेते।’

‘वक्त से मिला लेते–खूब! पर किसे मिलाते जनाब आप वक्त से?’–मियाँ हँसे जैसे हमारी खिल्ली उड़ाते हों।

‘वक्त से वक्त को किसी ने मिलाया है आज तक! खैर–पूछिए–किसका नाम जानना चाहते हैं? दिल्ली के बादशाह का ही ना! उनका नाम कौन नहीं जानता–जहाँपनाह बादशाह सलामत ही न!’

‘कौन-से, बहादुरशाह ज़फ़र कि ...!’

मियाँ ने खीजकर कहा–फिर अलट-पलट के वही बात। लिख लीजिए बस यही नाम–आपको कौन बादशाह के नाम चिट्ठी-रुक्का भेजना है कि डाकखानेवालों के लिए सही नाम-पता ही ज़रूरी है।’

हमें बिटर-बिटर अपनी तरफ़ देखते पाया तो सिर हिला अपने कारीगर से बोले-‘अरे ओ बब्बन मियाँ, भट्ठी सुलगा दो तो काम से निबटें।’

‘यह बब्बन मियाँ कौन हैं, साहिब?’

मियाँ ने रुखाई से जैसे फाँक ही काट दी हो–‘अपने कारीगर, और कौन होंगे!’

मन में आया पूछ लें आपके बेटे-बेटियाँ हैं, पर मियाँ नसीरुद्दीन के चेहरे पर किसी दबे हुए अंधड़ के आसार देख यह मज़मून न छेड़ने का फ़ैसला किया। इतना ही कहा–‘ये कारीगर लोग आपकी शागिर्दी करते हैं?’

‘खाली शागिर्दी ही नहीं साहिब, गिन के मजूरी देता हूँ। दो रुपये मन आटे की मजूरी। चार रुपये मन मैदे की मजूरी! हाँ!

‘ज़्यादातर भट्ठी पर कौन-सी रोटियाँ पका करती हैं?’

मियाँ को अब तक इस मज़मून में कोई दिलचस्पी बाकी न रही थी, फिर भी हमसे छुटकारा पाने को बोले–

‘बाकरखानी-शीरमाल-ताफ़तान-बेसनी-खमीरी-रूमाली-गाव-दीदा-गाज़ेबान-तुनकी–’

फिर तेवर चढ़ा हमें घूरकर कहा–‘तुनकी पापड़ से ज़्यादा महीन होती है, महीन। हाँ। किसी दिन खिलाएँगे, आपको।’

एकाएक मियाँ की आँखों के आगे कुछ कौंध गया। एक लंबी साँस भरी और किसी गुमशुदा याद को ताज़ा करने को कहा–‘उतर गए वे ज़माने। और गए वे कद्रदान जो पकाने-खाने की कद्र करना जानते थे! मियाँ अब क्या रखा है...निकाली तंदूर से–निगली और हज़म!’


अभ्यास

पाठ के साथ

1. मियाँ नसीरुद्दीन को नानबाइयों का मसीहा क्यों कहा गया है?

2. लेखिका मियाँ नसीरुद्दीन के पास क्यों गई थीं?

3. बादशाह के नाम का प्रसंग आते ही लेखिका की बातों में मियाँ नसीरुद्दीन की दिलचस्पी क्यों खत्म होने लगी?

4. मियाँ नसीरुद्दीन के चेहरे पर किसी दबे हुए अंधड़ के आसार देख यह मज़मून न छेड़ने का फ़ैसला किया इस कथन के पहले और बाद के प्रसंग का उल्लेख करते हुए इसे स्पष्ट कीजिए।

5. पाठ में मियाँ नसीरुद्दीन का शब्दचित्र लेखिका ने कैसे खींचा है?


पाठ के आस-पास

1. मियाँ नसीरुद्दीन की कौन-सी बातें आपको अच्छी लगीं?

2. तालीम की तालीम ही बड़ी चीज़ होती है– यहाँ लेखक ने तालीम शब्द का दो बार प्रयोग क्यों किया है? क्या आप दूसरी बार आए तालीम शब्द की जगह कोई अन्य शब्द रख सकते हैं? लिखिए।

3. मियाँ नसीरुद्दीन तीसरी पीढ़ी के हैं जिसने अपने खानदानी व्यवसाय को अपनाया। वर्तमान समय में प्रायः लोग अपने पारंपरिक व्यवसाय को नहीं अपना रहे हैं। एेसा क्यों?

4. मियाँ, कहीं अखबारनवीस तो नहीं हो? यह तो खोजियों की खुराफ़ात है – अखबार की भूमिका को देखते हुए इस पर टिप्पणी करें।


पकवानों को जानें

  • पाठ में आए रोटियों के अलग-अलग नामों की सूची बनाएँ और इनके बारे में जानकारी प्राप्त करें।


भाषा की बात

1. तीन चार वाक्यों में अनुकूल प्रसंग तैयार कर नीचे दिए गए वाक्यों का इस्तेमाल करें।

     क. पंचहज़ारी अंदाज़ से सिर हिलाया।

     ख. आँखों के कंचे हम पर फेर दिए।

     ग. आ बैठे उन्हीं के ठीये पर।

2. बिटर-बिटर देखना– यहाँ देखने के एक खास तरीके को प्रकट किया गया है? देखने संबंधी इस प्रकार के चार क्रिया-विशेषणों का प्रयोग कर वाक्य बनाइए।

3. नीचे दिए वाक्यों में अर्थ पर बल देने के लिए शब्द-क्रम परिवर्तित किया गया है। सामान्यतः इन वाक्यों को किस क्रम में लिखा जाता है? लिखें।

    क. मियाँ मशहूर हैं छप्पन किस्म की रोटियाँ बनाने के लिए।

    ख. निकाल लेंगे वक्त थोड़ा।

    ग. दिमाग में चक्कर काट गई है बात।

    घ. रोटी जनाब पकती है आँच से।


शब्द-छवि

नानबाई - तरह-तरह की रोटी बनाने-बेचने का काम करने वाला

काइयाँ - धूर्त, चालाक

पेशानी - माथा, मस्तक

अखबारनवीस - पत्रकार

खुराफ़ात - शरारत

इल्म - जानकारी, ज्ञान, विद्या

नगीनासाज़ - नगीना जड़ने वाला

मीनासाज़ - मीनाकारी करने वाला

रँगरेज - कपड़ा रँगने वाला

वालिद - पिता

अख्तियार करना - अपनाना

मरहूम - जिसकी मृत्यु हो चुकी हो

मोहलत - कार्य विशेष के लिए मिलने वाला समय

लमहा भर - क्षणभर

नसीहत - सीख, शिक्षा

बजा फ़रमाना - ठीक बात कहना

शागिर्द - शिष्य

परवान करना - उन्नति की तरफ़ बढ़ना

जमात - कक्षा, श्रेणी

रुखाई - उपेक्षित भाव

तरेरा - घूरकर देखा

रूमाली - एक प्रकार की रोटी जो रूमाल की तरह बड़ी और बहुत पतली होती है

ज़हमत उठाना - तकलीफ़, झंझट, कष्ट

मज़मून - मामला, विषय


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