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चलते-चलते अंत नहीं। अंत बिना छुटकारा नहीं। इसलिए तपस है। 

धुआँ है। यानी इच्छा है। जान लेने की। पहचान लेने की।

(लद्दाख में राग-विराग)


कृष्णनाथ

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जन्म : सन् 1934, वाराणसी (उ.प्र.)

प्रमुख रचनाएँ : लद्दाख में राग-विराग, किन्नर धर्मलोक, स्पीति में बारिश, पृथ्वी-परिक्रमा, हिमाल यात्रा, अरुणाचल यात्रा, बौद्ध निबंधावली, हिंदी और अंग्रेज़ी में कई पुस्तकों का संपादन

सम्मान : लोहिया सम्मान

मृत्यु : सन् 2016 में

कृष्णनाथ के व्यक्तित्व के कई पहलू हैं। काशी हिंदू विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में एम.ए. के बाद उनका झुकाव समाजवादी आंदोलन और बौद्ध-दर्शन की ओर हो गया। बौद्ध-दर्शन में उनकी गहरी पैठ है। वे अर्थशास्त्र के विद्वान हैं और काशी विद्यापीठ में इसी विषय के प्रोफ़ेसर भी रहे। अंग्रेज़ी और हिंदी दोनों भाषाओं पर उनका अधिकार है और दोनों की पत्रकारिता से भी उनका जुड़ाव रहा। हिंदी की साहित्यिक पत्रिका कल्पना के संपादक मंडल में वे कई साल रहे और अंग्रेज़ी के मैनकाइंड का कुछ वर्षों तक संपादन भी किया। राजनीति, पत्रकारिता और अध्यापन की प्रक्रिया से गुज़रते-गुज़रते वे बौद्ध-दर्शन की ओर मुड़े। भारतीय और तिब्बती आचार्यों के साथ बैठकर उन्होंने नागार्जुन के दर्शन और वज्रयानी परंपरा का अध्ययन शुरू किया। भारतीय चिंतक जे. कृष्णमूर्ति ने जब बौद्ध विद्वानों के साथ चिंतन-मनन शुरू किया तो कृष्णनाथ भी उसमें शामिल थे। बौद्ध-दर्शन पर कृष्णनाथ जी ने काफ़ी कुछ लिखा है।

इतना कुछ करने के बावजूद कृष्णनाथ जी की सृजन-आकांक्षा पूरी नहीं हुई। इसलिए वे यायावर हो गए। एक यायावरी तो उन्होंने वैचारिक धरातल पर की थी दूसरी सांसारिक अर्थ में। उन्होंने हिमालय की यात्रा शुरू की और उन स्थलों को खोजना और खंगालना शुरू किया जो बौद्ध-धर्म और भारतीय मिथकों से जुड़े हैं। फिर जब उन्होंने इस यात्रा को शब्दों में बाँधना शुरू किया तो यात्रा-वृत्तांत जैसी विधा अनूठी विलक्षणता से भर गई। कृष्णनाथ जहाँ की यात्रा करते हैं वहाँ वे सिर्फ़ पर्यटक नहीं होते बल्कि एक तत्ववेत्ता की तरह वहाँ का अध्ययन करते चलते हैं। पर वे शुष्क अध्ययन नहीं करते बल्कि उस स्थान विशेष से जुड़ी स्मृतियों को उघाड़ते हैं। ये वे स्मृतियाँ होती हैं जो इतिहास के प्रवाह में सिर्फ़ स्थानीय होकर रह गई हैं लेकिन जिनका संपूर्ण भारतीय लोकमानस से गहरा रिश्ता रहा है। पहाड़ के किसी छोटे-बड़े शिखर पर दुबककर बैठी वह विस्मृत-सी-स्मृति मानो कृष्णनाथ की प्रतीक्षा कर रही हो कि वे आएँ, उसे देखें और उसके बारे में लिखकर उसे जनमानस के पास ले जाएँ।

कृष्णनाथ के यात्रा-वृत्तांत स्थान विशेष से जुड़े होकर भी भाषा, इतिहास, पुराण का संसार समेटे हुए हैं। पाठक उनके साथ खुद यात्रा करने लगता है। वे लोग, जो इन स्थानों की यात्रा कर चुके होते हैं, वे भी अगर कृष्णनाथ के यात्रा-वृत्तांत को पढ़ेंगे तो उन्हें कुछ नया लगेगा। उन्हें महसूस होगा कि उनकी पुरानी यात्रा अधूरी थी और कृष्णनाथ के यात्रा-वृत्तांत को पढ़कर वह पूरी हुई।

स्पीति में बारिश पाठ एक यात्रा-वृत्तांत है। स्पीति, हिमाचल के मध्य में स्थित है। यह स्थान अपनी भौगोलिक एवं प्राकृतिक विशेषताओं के कारण अन्य पर्वतीय स्थलों से भिन्न है। लेखक ने इस पाठ में स्पीति की जनसंख्या, ऋतु, फ़सल, जलवायु तथा भूगोल का वर्णन किया है जो परस्पर एक-दूसरे से संबंधित हैं। पाठ में दुर्गम क्षेत्र स्पीति में रहने वाले लोगों के कठिनाई भरे जीवन का भी वर्णन किया गया है। कुछ युवा पर्यटकों का पहुँचना स्पीति के पर्यावरण को बदल सकता है। ठंडे रेगिस्तान जैसे स्पीति के लिए उनका आना, वहाँ बूँदों भरा एक सुखद संयोग बन सकता है।

 

स्पीति में बारिश


स्पीति हिमाचल प्रदेश के लाहुल-स्पीति ज़िले की तहसील है। लाहुल-स्पीति का यह योग भी आकस्मिक ही है। इनमें बहुत योगायोग नहीं है। ऊँचे दर्रों और कठिन रास्तों के कारण इतिहास में भी कम रहा है। अलंघ्य भूगोल यहाँ इतिहास का एक बड़ा कारक है। अब जबकि संचार में कुछ सुधार हुआ है तब भी लाहुल-स्पीति का योग प्रायः ‘वायरलेस सेट’ के ज़रिए है जो केलंग और काजा के बीच खड़कता रहता है। फिर भी केलंग के बादशाह को भय लगा रहता है कि कहीं काजा का सूबेदार उसकी अवज्ञा तो नहीं कर रहा है? कहीं बगावत तो नहीं करने वाला है? लेकिन सिवाय वायरलेस सेट पर संदेश भेजने के वह कर भी क्या सकता है? वसंत में भी 170 मील जाना-आना कठिन है। शीत में प्रायः असंभव है।

प्राचीनकाल में शायद स्पीति भारतीय साम्राज्यों का अनाम अंग रही है। जब ये साम्राज्य टूटे तो यह स्वतंत्र रही है। फिर मध्य युग में प्रायः लद्दाख मंडल और कभी कश्मीर मंडल, कभी बुशहर मंडल, कभी कुल्लू मंडल, कभी ब्रिटिश भारत के तहत रही है। तब भी प्रायः स्वायत्त रही है। इसकी स्वायत्तता भूगोल ने सिरजी है। भूगोल ही इसकी रक्षा करता है। भूगोल ही इसका संहार भी करता है।

पहले कभी उन राजाओं का कोई हरकारा आता था तो उसके आते-जाते वह अल्प वसंत बीत जाता था। कभी कोई जोरावर सिंह जैसा आता था तो स्पीति का तरीका वही था जो तुपचिलिंग गोनपा में मैंने देखा। जब डाइनामाइट का विस्फोट हुआ तो लाहुली हदस कर, आँख बंदकर, चाँग्मा का तना पकड़ या एक-दूसरे को पकड़कर बैठ गए। जब धमाका गुज़र गया तो फिर डरते-डरते आँख खोल कर उठे। जोरावर सिंह के आक्रमण के समय स्पीति के लोग घर छोड़कर भाग गए। उसने स्पीति को और वहाँ के विहारों को लूटा। यह अप्रतिकार शायद स्पीति की सुरक्षा की पद्धति है।

स्पीति में जनसंख्या लाहुल से भी कम है। 1901 की जनगणना के अनुसार 3, 231 रही है। 1971 की जनगणना के अनुसार 7, 196 है। इसका क्षेत्रफल मुझे 1971 की जनगणना में लाहुल के साथ जोड़कर मिला है जो 12,015 वर्ग किलोमीटर है1। स्पीति का अलग क्षेत्रफल नहीं दिया गया है। इंपीरियल गजेटियर (अॉक्सफोर्ड, 1908, खंड 23) के अनुसार यह क्षेत्रफल 2,155 वर्गमील है। इस तरह स्पीति की जनसंख्या प्रति वर्गमील चार से भी कम है। 1901 में यह प्रति वर्गमील दो से भी कम थी।

लाहुल-स्पीति का प्रशासन ब्रिटिश राज से भारत को जस का तस मिला। अंग्रेज़ों को यह 1846 ई. में कश्मीर के राजा गुलाब सिंह के ज़रिए मिला। अंग्रेज़ इनके ज़रिए पश्चिमी तिब्बत के ऊन वाले क्षेत्र में प्रवेश चाहते थे। तिब्बत में अंग्रेज़ी साम्राज्य के दूरगामी हित भी थे। जो भी हो, 1846 में कुल्लू, लाहुल, स्पीति ब्रिटिश अधीनता में आए। पहले सुपरिंटेंडेंट के अधीन थे। फिर 1847 में वे काँगड़ा ज़िले में शरीक कर दिए गए। लद्दाख मंडल के दिनों में भी स्पीति का शासन एक नोनो2 द्वारा चलाया जाता था। ब्रिटिश भारत में भी कुल्लू के असिस्टेंट कमिश्नर के समर्थन से यह नोनो कार्य करता रहा। इसका अधिकार-क्षेत्र केवल द्वितीय दरजे के मजिस्ट्रेट के बराबर था। लेकिन स्पीति के लोग इसे अपना राजा ही मानते थे। राजा नहीं है तो दमयंती जी को रानी मानते हैं।


1. वर्तमान (2002 की जनगणना के अनुसार) – लाहुल-स्पीति का क्षेत्रफल 12,210 वर्ग किलोमीटर तथा जनसंख्या 34,000 है।

2. स्थानीय शासक


1873 में स्पीति रेगुलेशन पास हुआ जिसके तहत लाहुल और स्पीति को विशेष दरजा दिया गया। ब्रिटिश भारत के अन्य कानून यहाँ नहीं लागू होते थे। रेगुलेशन के अधीन प्रशासन के अधिकार नोनो को दिए गए जिसमें मालगुज़ारी इकट्ठा करना और छोटे-छोटे फ़ौजदारी के मुकद्दमों का फ़ैसला करना भी शामिल था। उसके ऊपर के मामले वह कमिश्नर के पास भेज देता था। उन दिनों लाहुल-स्पीति का वृत्तांत काँगड़ा ज़िले के अंतर्गत कुल्लू तहसील में मिलता है। स्वराज्य के बाद 1960 में लाहुल-स्पीति पंजाब राज्य के अंतर्गत एक अलग ज़िला बना दिया गया जिसका केन्द्र केलंग में है। 1966 में जब हिमाचल प्रदेश राज्य बना तो लाहुल-स्पीति उसका उत्तरी छोर का ज़िला हो गया। यह देश का सबसे अधिक दुर्गम क्षेत्र है।

स्पीति 31.42 और 32.59 अक्षांश उत्तर और 77.26 और 78.42 पूर्व देशांतर के बीच स्थित है। यह चारों ओर से ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों का कैदी है। इन पहाड़ों की औसत ऊँचाई 18,000 फ़ीट है। यह पहाड़ उसे पूरब में तिब्बत, पश्चिम में लाहुल, दक्षिण में किन्नौर और उत्तर में लद्दाख से अलग करते हैं। इसकी मुख्य घाटी इसी नाम की स्पीति नदी की घाटी है। स्पीति पश्चिम हिमालय में लगभग 16,000 फ़ीट की ऊँचाई से निकल कर पूरब में तिब्बत में बहती है, वहाँ से स्पीति में आती है। स्पीति से बह कर पुराने रामपुर बुशहर राज्य में, अब किन्नौर ज़िले में बहती हुई सतलुज में मिलती है। मेरी इस स्पीति नदी से प्रीति है। स्पीति में मैं सिर्फ़ इसी नदी को पहचानता हूँ। सुनता हूँ कि कोई पारा नदी भी है, फिर घाटी है। स्पीति के अलावा पिन की घाटी प्रसिद्ध है। मान भाई से इसका किस्सा सुना है। अत्यंत बीहड़ और वीरान है। इनमें से शायद स्पीति की घाटी ही आबाद है। जैसी वह आबाद है वह आप देख ही रहे हैं। प्रति वर्गमील चार से भी कम लोग बसते हैं।

अचरज यह नहीं कि इतने कम लोग क्यों हैं? अचरज यह है कि इतने लोग भी कैसे बसे हुए हैं? मैंने जब भी स्पीति की विपत्ति बताई है तो लोगों ने यही पूछा कि आखिर तब लोग वहाँ रहते क्यों हैं? आठ-नौ महीने शेष दुनिया से कटे हुए हैं। ठंड में ठिठुर रहे हैं। सिर्फ़ एक फ़सल उगाते हैं। लकड़ी भी नहीं है कि घर गरम रख सकें। वृत्ति नहीं है। फिर क्यों रहते हैं? क्या अपने धर्म की रक्षा के लिए रहते हैं? अपनी जन्मभूमि के ममत्व के कारण रहते हैं? या इस मजबूरी में रहते हैं कि कहीं और जा नहीं सकते? कहाँ जाएँ? या फिर और बातों के साथ-साथ यह सब कारण हैं? मैं नहीं जानता। मैं तो इतना ही देखता हूँ कि यहाँ रह रहे हैं, इसलिए रह रहे हैं। और कोई तर्क नहीं है। तर्क से हम किसी चीज़ को भले सिद्ध कर सकें, स्पीति में रहने को नहीं सिद्ध कर सकते। लेकिन तर्क का इतना मोह क्यों? ज़्यादा करके संसार और निर्वाण अतर्क्य है। तर्क के परे है।

स्पीति नदी के साथ-साथ मेरा थोड़ा परिचय स्पीति के पहाड़ाें का भी है। स्पीति के पहाड़ लाहुल से ज़्यादा ऊँचे, नंगे और भव्य हैं। इनके सिरों पर स्पीति के नर-नारियों का आर्तनाद जमा हुआ है। शिव का अट्टहास नहीं, हिम का आर्तनाद है। ठिठुरन है। गलन है। व्यथा है।

इस व्यथा की कथा इन पहाड़ों की ऊँचाई के आँकड़ों में नहीं कही जा सकती। फिर भी जो सुंदरता को इंच में मापने के अभ्यासी हैं वे भला पहाड़ को कैसे बख्श सकते हैं। वे यह जान लें कि स्पीति मध्य हिमालय की घाटी है। जिसे वे हिमालय जानते हैं – स्केटिंग, सौंदर्य प्रतियोगिता, आइसक्रीम और छोले-भटूरे का कुल्लू-मनाली, शिमला, मसूरी, नैनीताल, श्रीनगर वह सब हिमालय नहीं है। हिमालय का तलुआ है। शिवालिक या पीरपंचाल या एेसा ही कुछ उसका नाम है यह तलहटी है। रोहतांग जोत के पार मध्य हिमालय है। इसमें ही लाहुल-स्पीति की घाटियाँ हैं। इन घाटियों की औसत ऊँचाई नापी गई है। श्री कनिंघम के अनुसार लाहुल की समुद्र की सतह से ऊँचाई 10,535 फ़ीट है। स्पीति की 12,986 फ़ीट है। यानी लगभग 13,000 फ़ीट तो औसत ऊँचाई है।

मध्य हिमालय की जो श्रेणियाँ स्पीति को घेरे हुए हैं उनमें से जो उत्तर में हैं उसे बारालाचा श्रेणियों का विस्तार समझें। बारालाचा दर्रे की ऊँचाई का अनुमान 16,221 फ़ीट से लगाकर 16,500 फ़ीट का लगाया गया है। इस पर्वत-श्रेणी में दो चोटियों की ऊँचाई 21,000 फ़ीट से अधिक है। दक्षिण में जो श्रेणी है वह माने श्रेणी कहलाती है। इसका क्या अर्थ है? कहीं यह बौद्धों के माने मंत्र के नाम पर तो नहीं है? "ओं मणि पद्मे हुं"* इनका बीज मंत्र है इसका बड़ा महात्म्य है। इसे संक्षेप में माने कहते हैं। कहीं इस श्रेणी का नाम इस माने के नाम पर तो नहीं है? अगर नहीं है तो करने जैसा है। यहाँ इन पहाड़ियों में माने का इतना जाप हुआ है कि यह नाम उन श्रेणियों को दे डालना ही सहज है।


* यह ध्वनि मंत्र है, जो ध्यान साधना के लिए प्रयुक्त होता है। बोधिसत्व आर्य अवलोकितेश्वर ने इस ंत्र का सबसे पहले उच्चारण किया था। इसके उच्चारण से करुणा की उत्पत्ति होती है।


इंपीरियल गज़ेटियर में माने श्रेणी की ऊँचाई 21,646 फ़ीट बताई गई है। यह तो इस श्रेणी की किसी चोटी की ऊँचाई होगी। पूरी श्रेणी की ऊँचाई तो एक नहीं होगी। इसमें जो छोटी-छोटी चोटियाँ हैं उनकी ऊँचाई भी 17,000 फ़ीट से अधिक है। कई गाँव समुद्र की सतह से 13,000 फ़ीट से ऊँचे बसे हैं। एक या दो 14,000 फ़ीट की ऊँचाई पर हैं। यह मध्य हिमालय है। इसमें स्पीति स्थित है।

इसके पार बाह्य हिमालय दीखता है। इसकी एक चोटी 23,064 फ़ीट ऊँची बताई जाती है। इसमें कई चोटियाँ 20,000 फ़ीट से अधिक ऊँची हैं।

मैं ऊँचाई के माप के चक्कर में नहीं हूँ। न इनसे होड़ लगाने के पक्ष में हूँ। वह एक बार लोसर में जो कर लिया सो बस है। इन ऊँचाइयों से होड़ लगाना मृत्यु है। हाँ, कभी-कभी उनका मान-मर्दन करना मर्द और औरत की शान है। मैं सोचता हूँ कि देश और दुनिया के मैदानों से और पहाड़ों से युवक-युवतियाँ आएँ और पहले तो स्वयं अपने अहंकार को गलाएँ– फिर इन चोटियों के अहंकार को चूर करें। उस आनंद का अनुभव करें जो साहस और कूवत से यौवन में ही प्राप्त होता है। अहंकार का ही मामला नहीं है। ये माने की चोटियाँ बूढ़े लामाओं के जाप से उदास हो गई हैं। युवक-युवतियाँ किलोल करें तो यह भी हर्षित हों। अभी तो इन पर स्पीति का आर्तनाद जमा हुआ है। वह इस युवा अट्टहास की गरमी से कुछ तो पिघले। यह एक युवा निमंत्रण है।

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स्पीति


लाहुल की तरह ही स्पीति मेें भी दो ही ऋतुएँ होती हैं। कहीं मैंने षड्ऋतुओं का बखान किया है। वह अभ्यास दोष के कारण है। यहाँ जून से सितंबर तक की एक अल्पकालिक वसंत ऋतु है, शेष वर्ष शीत ऋतु होती है। वसंत में, जुलाई में औसत तापमान 15­­0 सेंटीग्रेड और शीत में, जनवरी में औसत तापमान 80 रिकार्ड किया गया है। औसत से कुछ अंदाज़ नहीं लगता। वसंत में दिन गरम होता है, रात ठंडी होती हैै। शीत में क्या होता है? इसकी कल्पना ही की जा सकती है। कभी रहकर देखा जा सकता है।

स्पीति में वसंत लाहुल से भी कम दिनों का होता है। वसंत में भी यहाँ फूल नहीं खिलते, न हरियाली आती है, न वह गंध होती है। दिसंबर से घाटी में फिर बरफ़ पड़ने लगती है। अप्रैल-मई तक रहती है। यहाँ ठंडक भी लाहुल से ज़्यादा पड़ती है। नदी-नाले सब जम जाते हैं और हवाएँ तेज़ चलती हैं। मुँह, हाथ और जो खुले अंग हैं उनमें जैसे शूल की तरह चुभती हैं।

स्पीति में लाहुल से भी कम वर्षा होती है। मध्य हिमालय मानसून की पहुँच के परे है। यहाँ बरखा बहार नहीं है। कालिदास को अपने ‘ऋतु संहार’ में यहाँ वर्षा का तो संहार ही करना पड़ेगा। कालिदास में वर्षा का क्या ठाठ है? यह वर्षा वर्णन इस प्रकार शुरू होता हैः

प्रिये! जल की फुहारों से भरे बादलों के मतवाले हाथी पर चढ़ा हुआ, चमकती हुई बिजलियों की झंडियों को फहराता हुआ और बादलों की गरज के नगाड़े बजाता हुआ यह कामीजनों का प्रिय पावस राजाओं का-सा ठाट-बाट बनाकर आ पहुँचा।

यह पावस यहाँ नहीं पहुँचता है। कालिदास की वर्षा की शोभा विंध्याचल में है। हिमाचल की इन मध्य की घाटियों में नहीं है। मैं नहीं जानता कि इसका लालित्य लाहुल-स्पीति के नर-नारी समझ भी पाएँगे या नहीं। वर्षा उनके संवेदन का अंग नहीं है। वह यह जानते नहीं हैं कि ‘बरसात में नदियाँ बहती हैं, बादल बरसते, मस्त हाथी चिंघाड़ते हैं, जंगल हरे-भरे हो जाते हैं, अपने प्यारों से बिछुड़ी हुई स्त्रियाँ रोती-कलपती हैं, मोर नाचते हैं और बंदर चुप मारकर गुफाओं में जा छिपते हैं।’

अगर कालिदास यहाँ आकर कहें कि ‘अपने बहुत से सुंदर गुणों से सुहानी लगने वाली, स्त्रियों का जी खिलाने वाली, पेड़ों की टहनियों और बेलों की सच्ची सखी तथा सभी जीवों का प्राण बनी हुई वर्षा ऋतु आपके मन की सब साधें पूरी करें’ तो शायद स्पीति के नर-नारी यही पूछेंगे कि यह देवता कौन है? कहाँ रहता है? यहाँ क्यों नहीं आता?

स्पीति में कभी-कभी बारिश होती है। वर्षा ऋतु यहाँ मन की साध पूरी नहीं करती। धरती सूखी, ठंडी और वंध्या रहती है।

स्पीति में साल में एक फ़सल होती है। मुख्य फ़सलें हैंः दो किस्म का जौ, गेहूँ, मटर और सरसों। इसमें भी जौ मुख्य है। सिंचाई का साधन पहाड़ों से आ रहे नाले हैं या उनपर बनाए कूल हैं। ये नालियाँ पहाड़ों के किनारे-किनारे बहुत दूर तक जाती हैं। स्पीति नदी का तट इतना चौड़ा है कि इसका पानी किसी काम में नहीं आ पाता। स्पीति में एेसी भूमि बहुत है जो खेती के लायक बनाई जा सकती है। शर्त इतनी है कि इसके लिए स्पीति में जल उलीचा जाए। या फिर पानी का कोई और स्रोत पहुँचाया जाए। स्पीति में कोई फल नहीं होता। मटर और सरसों को छोड़कर कोई सब्ज़ी नहीं होती। शायद ऊँचाई, वायुमंडल के दबाव में कमी, ठंड की अधिकता, वर्षा की कमी वगैरह के कारण यहाँ पेड़ नहीं होते। इसलिए स्पीति विशेषकर नंगी और वीरान है।

वर्षा यहाँ एक घटना है। एक सुखद संयोग है। हम काजा के डाक बंगले में सो रहे थे तो लगा कि कोई खिड़की खड़का रहा है। आधी रात का भी पिछला पहर है। इस समय कौन है? लैंप की लौ तेज़ की खिड़की का एक पल्ला खोला। तो तेज़ हवा का झोंका मुँह और हाथ को जैसे छीलने लगा। मैंने पल्ला भिड़ा दिया। उसकी आड़ से देखने लगा। देखा कि बारिश हो रही थी। मैं उसे देख नहीं रहा था। सुन रहा था। अँधेरा, ठंड और हवा का झोंका आ रहा था। जैसे बरफ़ का अंश लिए तुषार जैसी बूँदें पड़ रही थीं। जैसे नगाड़े पर थाप पड़ रही थी। दुंगछेन को हवा बजा रही थी। महाशंख की ध्वनि घाटी में तैर रही थी। स्पीति की घाटी में वर्षा हो रही थी। कमरे में ठंड बढ़ रही थी। मैं बिस्तर में पड़ा-पड़ा मालूम नहीं कब सो गया।

सुबह उठा। चाय पीते-पीते सुना कि स्पीति के लोग कह रहे हैं कि हमारी यात्रा शुभ है। स्पीति में बहुत दिनों बाद बारिश हुई है।


अभ्यास

पाठ के साथ

1. इतिहास में स्पीति का वर्णन नहीं मिलता। क्यों?

2. स्पीति के लोग जीवनयापन के लिए किन कठिनाइयों का सामना करते हैं?

3. लेखक माने श्रेणी का नाम बौद्धों के माने मंत्र के नाम पर करने के पक्ष में क्यों है?

4. ये माने की चोटियाँ बूढ़े लामाओं के जाप से उदास हो गई हैं– इस पंक्ति के माध्यम से लेखक ने युवा वर्ग से क्या आग्रह किया है?

5. वर्षा यहाँ एक घटना है, एक सुखद संयोग है–लेखक ने एेसा क्यों कहा है?

6. स्पीति अन्य पर्वतीय स्थलों से किस प्रकार भिन्न है?


पाठ के आस-पास

1. स्पीति में बारिश का वर्णन एक अलग तरीके से किया गया है। आप अपने यहाँ होने वाली बारिश का वर्णन कीजिए।

2. स्पीति के लोगों और मैदानी भागों में रहने वाले लोगों के जीवन की तुलना कीजिए। किन का जीवन आपको ज़्यादा अच्छा लगता है और क्यों?

3. स्पीति में बारिश एक यात्रा-वृत्तांत है। इसमें यात्रा के दौरान किए गए अनुभवों, यात्रा-स्थल से जुड़ी विभिन्न जानकारियों का बारीकी से वर्णन किया गया है। आप भी अपनी किसी यात्रा का वर्णन लगभग 200 शब्दों में कीजिए।

4. लेखक ने स्पीति की यात्रा लगभग तीस वर्ष पहले की थी। इन तीस वर्षों में क्या स्पीति में कुछ परिवर्तन आया है? जानें, सोचें और लिखें।


भाषा की बात

1. पाठ में से दिए गए अनुच्छेद में क्योंकि, और, बल्कि, जैसे ही, वैसे ही, मानो, एेसे, शब्दों का प्रयोग करते हुए उसे दोबारा लिखिए–

लैंप की लौ तेज़ की। खिड़की का एक पल्ला खोला तो तेज़ हवा का झोंका मुँह और हाथ को जैसे छीलने लगा। मैंने पल्ला भिड़ा दिया। उसकी आड़ से देखने लगा। देखा कि बारिश हो रही थी। मैं उसे देख नहीं रहा था। सुन रहा था। अँधेरा, ठंड और हवा का झोंका आ रहा था। जैसे बरफ़ का अंश लिए तुषार जैसी बूँदें पड़ रही थीं।


शब्द-छवि

अलंघ्य - जिसे लाँघा या पार न किया जा सके।

स्वायत्त - स्वतंत्र

अतर्क्य - तर्क न करने योग्य

आर्तनाद - दर्द भरी ऊँची आवाज़, स्वर में दुख का ज्ञापन या सहायता की पुकार

पीरपंचाल - एक पर्वत शृंखला

महात्म्य - महिमा, गौरव

कूवत (फ़ा. कुव्वत) - बल, शक्ति

षड्ऋतुएँ - छह ऋतुएँ (वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, शिशिर, हेमन्त)

तुषार - हिम, बरफ़

दुंगछेन - एक तरह का वाद्ययंत्र, महाशंख जिसे फूँक मारकर बजाया जाता है


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