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काव्य खंड
यदि तोर डाक शुने केउ न आशे
तबे एक्ला चलो रे।
एक्ला चलो, एक्ला चलो,
एक्ला चलो रे।।
रवींद्र नाथ टैगोर
(तेरी आवाज़ पे कोई ना आए
तो फिर चल अकेला रे।
चल अकेला, चल अकेला,
चल अकेला रे।।)
जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं।
(कविता क्या है, रामचंद्र शुक्ल)
जगत-जीवन के संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना में कमाई हुई मार्मिक आलेाचना दृष्टि के बिना कविकर्म अधूरा है।
(काव्य की रचना प्रक्रिया, गजानन माधव मुक्तिबोध)
मैं कहता हौं आँखिन देखी, तू कहता कागद की लेखी
(कबीर वाणी, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी)
कबीर
जन्मः सन् 1398, वाराणसी1 के पास ‘लहरतारा’ (उ.प्र.)
प्रमुख रचनाएँः ‘बीजक’ जिसमें साखी, सबद एवं रमैनी संकलित हैं
मृत्यु : सन् 1518 में बस्ती के निकट मगहर में
कबीर भक्तिकाल की निर्गुण धारा (ज्ञानाश्रयी शाखा) के प्रतिनिधि कवि हैं। वे अपनी बात को साफ़ एवं दो टूक शब्दों में प्रभावी ढंग से कह देने के हिमायती थे, ‘बन पड़े तो सीधे-सीधे नहीं तो दरेरा देकर।’ इसीलिए कबीर को हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘वाणी का डिक्टेटर’ कहा है।
कबीर के जीवन के बारे में अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। उन्होंने अपनी विभिन्न कविताओं में खुद को काशी का जुलाहा कहा है। कबीर के विधिवत साक्षर होने का कोई प्रमाण नहीं मिलता। मसि कागद छुयो नहि कलम गहि नहि हाथ जैसी कबीर की पंक्तियाँ भी इसका प्रमाण देती हैं। उन्होंने देशाटन और सत्संग से ज्ञान प्राप्त किया। किताबी ज्ञान के स्थान पर आँखों देखे सत्य और अनुभव को प्रमुखता दी। उनकी रचनाओं में नाथों, सिद्धों और सूफ़ी संतों की बातों का प्रभाव मिलता है। वे कर्मकांड और वेद-विचार के विरोधी थे तथा जाति-भेद, वर्ण-भेद और संप्रदाय-भेद के स्थान पर प्रेम, सद्भाव और समानता का समर्थन करते थे।
1. प्राचीन नाम काशी
यहाँ प्रस्तुत पहले पद में कबीर ने परमात्मा को सृष्टि के कण-कण में देखा है, ज्योति रूप में स्वीकारा है तथा उसकी व्याप्ति चराचर संसार में दिखाई है। इसी व्याप्ति को अद्वैत सत्ता के रूप में देखते हुए विभिन्न उदाहरणों के द्वारा रचनात्मक अभिव्यक्ति दी है।
दूसरे पद में कबीर ने बाह्याडंबरों पर प्रहार किया है, साथ ही यह भी बताया है कि अधिकांश लोग अपने भीतर की ताकत को न पहचानकर अनजाने में अवास्तविक संसार से रिश्ता बना बैठते हैं और वास्तविक संसार से बेखबर रहते हैं।
दोनों पद जयदेव सिंह और वासुदेव सिंह द्वारा संकलित-संपादित कबीर वाङ्मय–खंड 2 (सबद) से लिए गए हैं।
पद 1
हम तौ एक एक करि जांनां।
दोइ कहैं तिनहीं कौं दोजग जिन नाहिंन पहिचांनां ।।
एकै पवन एक ही पानीं एकै जोति समांनां।
एकै खाक गढ़े सब भांड़ै एकै कोंहरा सांनां।।
जैसे बाढ़ी काष्ट ही काटै अगिनि न काटै कोई।
सब घटि अंतरि तूँही व्यापक धरै सरूपै सोई।।
माया देखि के जगत लुभांनां काहे रे नर गरबांनां।
निरभै भया कछू नहिं ब्यापै कहै कबीर दिवांनां।।
पद 2
संतो देखत जग बौराना।
साँच कहौं तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना।।
नेमी देखा धरमी देखा, प्रात करै असनाना।
आतम मारि पखानहि पूजै, उनमें कछु नहिं ज्ञाना।।
बहुतक देखा पीर औलिया, पढ़ै कितेब कुराना।
कै मुरीद तदबीर बतावैं, उनमें उहै जो ज्ञाना।।
आसन मारि डिंभ धरि बैठे, मन में बहुत गुमाना।
पीपर पाथर पूजन ल7ागे, तीरथ गर्व भुलाना।।
टोपी पहिरे माला पहिरे, छाप तिलक अनुमाना।
साखी सब्दहि गावत भूले, आतम खबरि न जाना।
हिन्दू कहै मोहि राम पियारा, तुर्क कहै रहिमाना।
आपस में दोउ लरि लरि मूए, मर्म न काहू जाना।।
घर घर मन्तर देत फिरत हैं, महिमा के अभिमाना।
गुरु के सहित सिख्य सब बूड़े, अंत काल पछिताना।
कहै कबीर सुनो हो संतो, ई सब भर्म भुलाना।
केतिक कहौं कहा नहिं मानै, सहजै सहज समाना।।
अभ्यास
पद के साथ
1. कबीर की दृष्टि में ईश्वर एक है। इसके समर्थन में उन्होंने क्या तर्क दिए हैं?
2. मानव शरीर का निर्माण किन पंच तत्वों से हुआ है?
3. जैसे बाढ़ी काष्ट ही काटै अगिनि न काटै कोई।
सब घटि अंतरि तूँही व्यापक धरै सरूपै सोई।।
इसके आधार पर बताइए कि कबीर की दृष्टि में ईश्वर का क्या स्वरूप है?
4. कबीर ने अपने को दीवाना क्यों कहा है?
5. कबीर ने एेसा क्यों कहा है कि संसार बौरा गया है?
6. कबीर ने नियम और धर्म का पालन करने वाले लोगों की किन कमियों की ओर संकेत किया है?
7. अज्ञानी गुरुओं की शरण में जाने पर शिष्यों की क्या गति होती है?
8. बाह्याडंबरों की अपेक्षा स्वयं (आत्म) को पहचानने की बात किन पंक्तियों में कही गई है? उन्हें अपने शब्दों में लिखें।
पद के आस-पास
1. अन्य संत कवियों नानक, दादू और रैदास आदि के ईश्वर संबंधी विचारों का संग्रह करें और उनपर एक परिचर्चा करें।
2. कबीर के पदों को शास्त्रीय संगीत और लोक संगीत दोनों में लयबद्ध भी किया गया है। जैसे- कुमारगंधर्व, भारती बंधु और प्रह्लाद सिंह टिपाणिया आदि द्वारा गाए गए पद। इनके कैसेट्स अपने पुस्तकालय के लिए मँगवाएं और पाठ्यपुस्तक के पदों को भी लयबद्ध करने का प्रयास करें।
शब्द-छवि
दोजग (फा. दोज़ख) - नरक
समांनां - व्याप्त
खाक - मिट्टी
कोंहरा - कुम्हार, कुंभकार
सांनां - एक साथ मिलाकर
बाढ़ी - बढ़ई
अंतरि - भीतर
सरूपै - स्वरूप
गरबांनां - गर्व करना
निरभै - निर्भय
बौराना - बुद्धि भ्रष्ट हो जाना, पगला जाना
धावै - दौड़ते हैं
पतियाना - विश्वास करना
नेमी - नियमों का पालन करने वाला
धरमी - धर्म का पाखंड करने वाला
असनाना - स्नान करना, नहाना
आतम - स्वयं
पखानहि - पत्थर को, पत्थरों की मूर्तियों को
बहुतक - बहुत से
पीर औलिया - धर्मगुरु और संत, ज्ञानी
कुराना - कुरान शरीफ़ जो इस्लाम धर्म की धार्मिक पुस्तक है
मुरीद - शिष्य, अनुगामी
तदबीर - उपाय
आसन मारि - समाधि या ध्यान मुद्रा में बैठना
डिंभ धरि - दंभ करके, आडंबर करके
गुमाना - अहंकार
पीपर - पीपल का वृक्ष
पाथर - पत्थर
छाप तिलक अनुमाना - मस्तक पर विभिन्न प्रकार के तिलक लगाना
साखी - साक्षी, गवाह, स्वयं अपनी आँखों देखे तथ्य का वर्णन, कबीर ने अपनी उक्तियों का शीर्षक ‘साखी’ दिया है
सब्दहि - वह मंत्र जो गुरु शिष्य को दीक्षा के अवसर पर देता है, सबद पद के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है, आप्त वचन
आतम खबरि - आत्मज्ञान, आत्म तत्व का ज्ञान
रहिमाना - रहम करने वाला, दयालु
महिमा - गुरु का महात्म्य
सिख्य - शिष्य